काम का विभाजन केवल और केवल लिंग आधारित नहीं हो सकता हैं
स्त्री बच्चे को जनम देती हैं लेकिन ये जरुरी नहीं हैं की हर स्त्री देना चाहे
स्त्री का विवाह उसकी नियति नहीं हैं
जैसे पुरुष को अधिकार हैं अपने लिये कैरियर चुनने का स्त्री को भी संविधान और कानून देता हैं
सवाल हैं क्या स्त्री को ये समाज अधिकार देता हैं
स्त्री बच्चे को जनम देती हैं लेकिन ये जरुरी नहीं हैं की हर स्त्री देना चाहे
स्त्री का विवाह उसकी नियति नहीं हैं
जैसे पुरुष को अधिकार हैं अपने लिये कैरियर चुनने का स्त्री को भी संविधान और कानून देता हैं
सवाल हैं क्या स्त्री को ये समाज अधिकार देता हैं
कि वो कानून और संविधान की दी
हुई बराबरी के तहत अपने लिये चुनाव कर सके
कि उसको काम करना हैं या नहीं , शादी करनी हैं या नहीं , बच्चे पैदा करने है या नहीं , घर में रहना हैं या बाहर जा कर नौकरी करनी हैं या दोनों काम करने हैं
कि उसको काम करना हैं या नहीं , शादी करनी हैं या नहीं , बच्चे पैदा करने है या नहीं , घर में रहना हैं या बाहर जा कर नौकरी करनी हैं या दोनों काम करने हैं
मै ऐसी बहुत से स्त्रियों को जानती हूँ जो अपने भाई
बहनों को पढ़ाने के लिए नर्स , टाइपिस्ट और बहुत सी ऐसी नौकरियां करती हैं
जहां यौन शोषण की संभावनाए असीमित हैं क्युकी जिन पुरुषो के नीचे वो काम
करती हैं वो जानते हैं की ये मजबूर हैं नौकरी नहीं छोड़ सकती . इन स्त्रियों
को क़ोई क्यूँ नहीं नौकरी करने से रोकता , इनकी नौकरी करने को एक
सैक्क्यूँ रिफैस का नाम दिया जाता हैं . गलती उनके माँ बाप की हैं जो जब शादी के
लायक ही नहीं थे उनकी शादी की गयी और फिर उन्होने बच्चो की लाइन लगा दी और
उसका भुगतान उनकी बेटियाँ उठाती हैं
ये लडकियां नौकरी नहीं करना चाहती , विवाह करना चाहती हैं , लोग बजाये उनका शोषण करने के उनसे विवाह ही क्यूँ नहीं कर लेते .
क्या जरुरी हैं की जो लड़की नौकरी करना चाहती हैं उसको विवाह के लिये बाधित किया जाये . यहीं समस्या की जड़ हैं , हम लकीर पीटना चाहते हैं की शादी करना जरुरी हैं जबकि सोचना ये चाहिये की शादी उनकी हो जो करना चाहे नाकि इस लिये हो की लड़कियों को घर में रह कर गृहस्थी संभालनी चाहिये
जिन लड़कियों को शादी की जरुरत हैं , जिनको ऐसे परिवार और पति चाहिये जो उन के मायके के सम्बन्धियों को पढ़ा लिखा सके ऐसी लड़कियों को पति और शादी क्यूँ नसीब नहीं होती इस पर विचार दे .
क्यूँ लोग केवल उन लड़कियों से शादी करना चाहते हैं जो पढ़ी लिखी हैं , दहेज़ भी ला सकती हैं , वक्त जरुरत नौकरी भी कर सकती हैं और बच्चे भी संभाल सकती हैं
हजारो गरीब मजदूरों की लडकिया हैं जिनकी शादी नहीं होती क्यूँ ?, क्यूँ नहीं वो पुरुष जिन्हे महज एक पत्नी चाहिये आगे आकर इनका हाथ पकड़ते हैं
जो करना नहीं चाहता उसकी जबरदस्ती करना और जो चाहता हैं नहीं करना
समाज के रीति रिवाज के चक्कर में नारी के लिये चुनने के अधिकार का प्रश्न कहा खो जाता हैं इस पर बहस क्यूँ नहीं होती
ये लडकियां नौकरी नहीं करना चाहती , विवाह करना चाहती हैं , लोग बजाये उनका शोषण करने के उनसे विवाह ही क्यूँ नहीं कर लेते .
क्या जरुरी हैं की जो लड़की नौकरी करना चाहती हैं उसको विवाह के लिये बाधित किया जाये . यहीं समस्या की जड़ हैं , हम लकीर पीटना चाहते हैं की शादी करना जरुरी हैं जबकि सोचना ये चाहिये की शादी उनकी हो जो करना चाहे नाकि इस लिये हो की लड़कियों को घर में रह कर गृहस्थी संभालनी चाहिये
जिन लड़कियों को शादी की जरुरत हैं , जिनको ऐसे परिवार और पति चाहिये जो उन के मायके के सम्बन्धियों को पढ़ा लिखा सके ऐसी लड़कियों को पति और शादी क्यूँ नसीब नहीं होती इस पर विचार दे .
क्यूँ लोग केवल उन लड़कियों से शादी करना चाहते हैं जो पढ़ी लिखी हैं , दहेज़ भी ला सकती हैं , वक्त जरुरत नौकरी भी कर सकती हैं और बच्चे भी संभाल सकती हैं
हजारो गरीब मजदूरों की लडकिया हैं जिनकी शादी नहीं होती क्यूँ ?, क्यूँ नहीं वो पुरुष जिन्हे महज एक पत्नी चाहिये आगे आकर इनका हाथ पकड़ते हैं
जो करना नहीं चाहता उसकी जबरदस्ती करना और जो चाहता हैं नहीं करना
समाज के रीति रिवाज के चक्कर में नारी के लिये चुनने के अधिकार का प्रश्न कहा खो जाता हैं इस पर बहस क्यूँ नहीं होती
जिम्मेदारी देने से पहले क्या ये जानना जरुरी नहीं हैं की जिस पर ज़िम्मेदारी डाली जानी हैं उसकी मर्ज़ी क्या हैं . उसकी जरुरत क्या हैं .
क्यूँ लोग केवल उन लड़कियों से शादी करना चाहते हैं जो पढ़ी लिखी हैं , दहेज़ भी ला सकती हैं , वक्त जरुरत नौकरी भी कर सकती हैं और बच्चे भी संभाल सकती हैं
ReplyDeleteसही प्रश्न है ...
समाज मे हर काम के लिये पहल केवल आदमी को मिलती है और समाज के कायदे कानून आदमी ही निर्धारित करता है जब तक औरतें खुद आगे आ कर समाज के कायदे कानून मे दखल नहीं देंगी तब तक कुछ नही हो सकता पुरुष तो पकी पकाई रोटी खाने का आदि है इस लिये उसकी यही मंशा रहती है कि उसे बैठे बिठाये सब कुछ मि जाये। बहस कितनी भी कर लो लेकिन मर्द के उपर कोई असर नही होने वाला।समय लगेगा इस बदलाव के लिये। जो कल था आज नही और जो आज है कल नहीं होगा।
ReplyDeleteकिसी भी इंसान कि मर्ज़ी के खिलाफ न तो उसकी शादी करवाना सही और न ही रुकवाना सही है | लेकिन कुदरत ने औरत को जैसा बनाया है उसके खिलाफ जा के जीने कि कोशिश से केवल नुकसान ही होगा , फायदा नहीं |
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeletecomment अगर स्पाम मे चले जाए तो मिटाने का कमेन्ट आरोप क्यूँ ??? और आप की एक पोस्ट पर ये कमेन्ट दिया था कभी सो आप क्या लिखेगे अंदाजा हैं . और कुदरत के खिलाफ जाने की कौन सी बात इस आलेख मे और कहां हैं .
Deleteहाँ मै ये जानती हूँ की समाज का बड़ा तबका आज भी जब कुदरत के कानून की बात करता हैं तो औरत / शादी / बच्चे ही मानता हैं पर वो ये भूल जाता हैं कुदरत यानी खुदा और इश्वर की मर्जी के बिना पत्ता नहीं हिलता .
परिवर्तन के लिए ऐसे आलेखों की ज़रूरत है ... एक एक हवा ही मिलकर आँधियों का रूप लेती हैं
ReplyDeleteपुरुषप्रधान समाज है ..इसीलिए थोडा उन्हें महत्व दिया जाता है..
ReplyDeleteबाकी समाज की परिपाटियों के हिसाब से मर्जी ना लड़की की पूछी जाती है, ना लड़के की...
माता-पिता ने कह दिया तो शादी करनी है....समाज क्या कहेगा? उम्र हो गई है..और यह एक जरुरी नियम है...किसे टला नहीं जा सकता आदि आदि..
रही बात अपने हिस्से आये काम की तो पुरुष को भी चाहे इच्छा हो या ना हो,,कमाने जाना ही पड़ता है..२ पैसा कम कर लाएगा यह जरुरी नहीं...स्त्री ना कमाए तो भी चल जाता है..इसमें स्त्री-पुरुष जैसी कोई बात नहीं..
बात है हमारे समाज के बड़े ठेकेदारों की दूसरों की जिंदगियों में दखल देने की..." चाहे तुम्हारी इच्छा है या नहीं, तुम्हें यह काम इसलिए करना पडेगा क्यूंकि समाज का नियम है"
एक बात कहना चाहूंगी --- नियम वहीँ होने चाहिए, जो अनुशासन लायें..ना कि जबरदस्ती थोपे जाएँ..और इच्छाओं को दबाएँ..
अच्छा विषय लायी हैं आप..सारा कसूर इन थोथ्ले सामाजिक उसूलों का है...जिन्हें हम घसीट रहे हैं ना चाहते हुए भी.
nice thoughts....:)
ReplyDeleteसभी वाजिब सवाल हैं।
ReplyDeleteजब नारी को अपने लिए कोई भी फैसले लेने का अधिकार नहीं है तो फिर विवाह का अधिकार कैसे दे सकताहै , ये अधिकार तो कई बार अपने आप को आधुनिक कहने वाले भी नहीं देते है |
ReplyDelete