यत्र नारि पूजयते तत्र रमन्ते देवता:
हमारी पौराणिक ग्रंथों की यह पंक्तियाँ आज कहीं चिरतार्थ हो सकती है - यह बात सपने में ही नहीं सोची जा सकती और फिर हमारे देश में वह भी बिहार जैसे राज्य में , जिसे भारत का पिछला और अराजकता का गढ़ मना जाता है. ( ये मेरे विचार नहीं है, लोगों के मुँह से सुनी धारणा के बारे में और अखबारों की भाषा है).
इसी राज्य में एक गाँव है 'धरहरा' जिसके नाम की गूँज चाहे देश में न हो लेकिन यह संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार संगठन में गर्व के साथ सुनाई दे रही है और हम गर्व से इसको सबको बता रहे हैं. इस गाँव की विशेषता को शायद लोग स्वीकार न करें लेकिन ये शत प्रतिशत सत्य है. इस गाँव में कोई बेटी बहू त्रसित नहीं है. न यहाँ पर कन्या भ्रूण हत्या, दहेज़ हत्या, आनर किलिंग, बाल विवाह और बलात्कार जैसी घटनाएँ नहीं होती हैं बल्कि यहाँ पर बेटी या बहू को लक्ष्मी का रूप स्वीकार किया जाता है. बेटी के जन्म होने के साथ ही एक आम का पेड़ यहाँ पर रोप दिया जाता है और फिर उस पेड़ के बड़े होने पर उससे होने वाली आय को उसी बेटी के कार्यों के लिए प्रयोग किया जाता है.
बेटी का आगमन सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है और उसके सम्मान में फलदार वृक्ष का रोपना एक नहीं बल्कि दो कामों को पूरा करता है - एक तो प्रकृति को हरा भरा बनाने के लिए प्रयास और दूसरा बेटी को बोझ समझने की मानसिकता से मुक्त होने के लिए और उसके लिए धन संग्रहण का एक नियमित साधन भी बन जाता है.
चलो कुछ समझदार नागरिक ही इससे सबक लें की बेटी के आगमन पर एक वृक्षारोपण कर प्रकृति के वन संरक्षण के सन्देश और बेटी के घर से विदा होने पर भी उससे जुड़े इस वृक्ष के साथ जो अपनत्व जुड़ा रहेगा वह बहुत सुख देगा और एक सन्देश भी.
" जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की " "The Indian Woman Has Arrived " एक कोशिश नारी को "जगाने की " , एक आवाहन कि नारी और नर को समान अधिकार हैं और लिंगभेद / जेंडर के आधार पर किया हुआ अधिकारों का बंटवारा गलत हैं और अब गैर कानूनी और असंवैधानिक भी . बंटवारा केवल क्षमता आधारित सही होता है
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था
हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।
यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का ।
15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं
15th august 2012
१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं
15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं
15th august 2012
१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं
"नारी" ब्लॉग
"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।
" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "
हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था
July 31, 2010
एक भारतीये भाषा मे जेंडर बायस
GENDER BIAS IN AN INDIAN LANGUAGE
G. Sankaranarayanan, Ph.D.
1. GENDER AS A PARAMETER OF LANGUAGE VARIATION
A society is an organized group of persons functioning in the background of different socio-cultural environments. The socio-cultural environment includes customs, traditions, religious beliefs, tastes and preferences, social institutions, etc. All these have a bearing on the behavior of the people. As a product of social reality, language reflects the socio-cultural behavior of a community who speaks it. In other words, language reflects the thoughts, opinions, attitudes and culture of its users.
Differences within the language used are natural in all human societies and these linguistic differences are explained in sociolinguistics as variations, with reference to social variables such as class, age, ethnicity and sex/gender.
In the past few years, under the impact of feminist movements, a number of studies have appeared in the west, identifying gender as a major parameter for language variation. When we say "gender bias" in language, we mean the superior-inferior paradigm evolved due to the distinction in gender of the people. We search for their language correlates. The phrase "gender bias" is generally used to indicate the subordinate or inferior status of women in a society.
To understand clearly the gender-based language differences, one should know the social structure in which the (social) position of the male and female groups is designed. Khokle (1995) observes that human social organization began, to a large extent, as a matriarchal system, which, later on, gradually shifted to the male-dominated patriarchal system. If you study the old Tamil society as portrayed in the famous Sangam literature, you will immediately conclude that the Tamil society, like most other societies, was a strongly male-oriented culture, revealing the unquestionable super-ordinate position of the male.
Indian languages, both classical and current, exhibit certain markers that reveal the status accorded to women in the Indian society. Different people may interpret some of these markers differently, but the vocabulary nuances certainly show the status we accord to our women in our society.
There is no Indian language that could be treated as an exception in this regard. Sometimes the enthusiasts and the traditionalists may claim that the status of women in the by-gone ages was equal to that of men, or that the women had great educational opportunities and that they excelled in many fields. While it is true that there were several women poets, statesmen and intellectuals in the past, the status accorded to women as a group was indeed inferior to that of men. We all desire to prove that we had a golden age in the past during which every thing was all right and milk and honey flowed. But the present reality could not come about in a day nor was it a degradation of the past.
In this paper I propose to present some linguistic information from Tamil, a language that I know best (since it is my mother tongue!), and discuss how this linguistic material reflects the status of women in the Tamil society.As I said above, what I say here can be easily attested in every Indian language. So, do not think that the Tamil society ill-treats women worse than others. In reality, no Indian society is free from the overall features that I discuss in this paper.
2. SOME DARKSIDES OF STATUS OF WOMEN IN ANCIENT TAMIL LITERATURE
While describing the respective duties of a mother and father, it is stated in one of the Sangam poems that the duty of a mother ends after giving birth to children and it is the father who makes them wise men. In another poem, it is stated that the (ideal) husband is devoted to his work and that, for him, his duty is as dear as his life, whereas for the wife, who is confined to her home, her sole life is her husband.
Tolkaappiyam, an ancient Tamil grammar, written perhaps 2000 years ago, imposes restrictions on the woman's speech. A man can speak anything to express his knowledge whereas a woman can speak only on a few subjects limited to her family circle. It is also understood from this grammar that learning (education), possession and demonstration of valor, earning fame, and giving charity are the sole privilege and goal of a man (and no such privilege to woman). Another celebrated Tamil work Tirukkural (tirukkuraL) also insists that learning (education) is for the male group only (Kural 67, 69 and 70). On the other hand, it narrates the duties of a housewife as follows: A woman should be chaste in character, true in devotion to her husband, regular in house-hold work, take care of her husband (who owns her) and give birth to good children (Kural 51). According to Tirukkural, an ideal woman is one who does not worship god but who, on rising, worships her husband. (Kural 55). In this way the ancient literatures clearly portray the power structure or the social position of the male and female of the society. The classical literatures in other Indian languages, both sacred and secular, are no exception to this general rule. There was certainly a male-oriented approach in all these records.
3. GENDER ROLE DIFFERENCES
The gender role differences are important in our culture. When we see the role played by a man as depicted in the classical literature, he was a scholar in the educated assembly, he was a warrior in the battlefield, and he was a trader when he was involved in earning money. And he used to leave his home in connection with higher studies, military expedition and embassy. During this time of separation ("pirital"), the woman who is confined to her home, is patiently waiting ("iruttal") and lamenting ("irankal"). A woman's work was naturally confined to her home and family, while men lived in a larger world. In this culture, men were defined in terms of what they did in the world while women were defined in terms of the men with whom they were associated.
4. TRADITIONAL SOCIETIES, LANGUAGE, AND WOMEN
In traditional societies, specific traits are assigned to men and women. These cultures set up rigid social norms for the sexes. Any violation of these norms will be viewed seriously. A comparison of the qualities ascribed to both the sexes in Tamil will reveal actual values put on males and females in society. arivu 'knowledge', niRai 'strength of mind, determination', oorppu 'firmness decision' and kaTaippiTi 'confidence' are ascribed to males. naaNam 'shyness' maTam 'ignorance,' accam 'timidity' and payirppu'. 'delicacy' are the qualities ascribed to females. In other words, man is entitled to get wisdom and strength whereas woman lacks wisdom (hence foolish) and strength (hence weak), thus indicating the superior and inferior status of men and women respectively.
There are several terms used to denote woman. Of these, the terms pi:Tay. maTantai and maTava:r also have the meaning 'foolish person'. On the other hand, the term denoting man is a:N, which is related to the term a:Nmai, which means valor, boldness, etc. The word kaRpu meaning 'chastity' is associated only with women. Another praiseworthy quality attributed to woman is poRumai 'patience', that is to bear with the faulty behavior of a husband. The equivalent term for sati in Tamil is uTankaTTai e:Ru and this practice was there in early Tamil society. All these illustrations indicate the inferior status attributed to woman by the society. The terms manai, manaivi, illaaL, etc, associate a wife with the house. On the other hand, the term kaNavan 'husband' literally means, 'he who is like an eye to his wife'.
5. LANGAUGE AND MALE SUPERIORITY
In any society in which the male plays a superior role and commands greater respect, it is quite natural for the members of the society to put high value on male child. aastikku pillai 'to look after the property, a son is necessary,' koLLi vaikka oru piLLai 'a male child is needed, to lit the funeral pyre of the parents,' and ca:N piLLai a:na:lum a:NpiLLai allava: 'even though a boy is small in size he is greater as he is a male' are some of the Tamil proverbs which indicate the great value attached to a male child. On the other hand, the unwanted female child is referred to as poTTai kuTTi, a phrase that is associated with the young one of an animal.
In a family the woman's suggestions are considered faulty and thus ignored. The proverbs peNputti pin putti, putti 'women realize quite late' and tayyal col ke:Le:l 'Don't listen to a woman's advice' illustrate this point.
As her suggestions are not taken into account, a woman observes silence in many matters including her decisions regarding own marriage. Marriage is the most important social transition in a woman's life. Cultural expectations allow the boy, but not the girl, to express an opinion on the match before betrothal takes place. Her silence continues even at her wedding. A bride should be beautiful, but a bride should also be submissive and silent.
A man who listens to his wife will be referred to badly as poTTayyan or peNTa:TTi da:san 'hen-pecked husband' va:yilla: puucci 'an insect having no mouth'.
6. WOMAN AS COMMODITY
As Vasanthakumari (1991) points out, language is mixed with expressions that reflect the status of a woman as a commodity. Consider the following phrases denoting the action of performing the marriage of a girl. kaTTi koTu 'tie and give' (in marriage) or kaTTi vai 'tie (the knot) both refer to the process of giving a girl in marriage. Consider also the following expressions: ta:li kaTTu (tie the knot, by the bridegroom), peN eTu (take a girl for marriage), kannika: da:nam (giving away a virgin girl in marriage).
7. LANGUAGE AND MARRIED STATUS OF WOMEN
Tradition does not allow a woman to remarry or break the marriage but allows a husband to abandon his wife. But she is accused for the break up of her marriage. If a woman lives separately from her husband, she is labeled va:la:veTTi, a very derogatory term that literally means "a woman who sits idle without rendering seasonal services". The usage of the term malaTi 'sterile woman' also indicates that woman is blamed for everything. The matter of description of human qualities is based, for instance, on this double standard. A bold man is courageous (vi:ran) but a bold woman is aggressive (aTanka: piTa:ri).
A woman can be discarded by her husband easily as he is koNTavan 'the one who owned her.' Consider the following terms in this regard. taLLi vai or otukki vai "to abandon (her)" literally means, "to push aside." kai viTu means, "to abandon (her)." Literally it means, "to drop (from hand)." ce:rttuk koL means, "to take (her) back."
Since a husband is everything for a woman, status of a widow is the worst condition a woman can be placed in. A widow is referred to as vitavai, which does not have a male counterpart term. The other terms such as aRutali, ta:li aRuttavaL, moTTaicci, and munTai are very contemptuous and derogatory both in their literal and implied senses.
8. LACK OF PARALLEL TERMS FOR WOMEN
Many of the terms referring to the females are derived from the corresponding terms for the males, and this seems to be taken as the norm, not only for linguistic derivation but also for meaning derivation. However, for some terms there are no corresponding terms that would indicate the females. Consider the following examples:
aRinan'scholar'
ca:nRo:n 'scholar/reputable men of good conduct, etc.'
vaittiyan 'doctor'
a:ca:n 'teacher'
amaiccan'minister'
There are no female counterparts for these other terms.
Though certain professional terms have male honorific forms, these do not have the corresponding female honorific forms. For example, naTikan means '(male) actor,' naTikar (male honorific) 'actor,' and naTikai means 'actress.' Some other words that behave in this very manner are: talaivan '(male) leader,' talaivar 'male leader (honorific)' and talaivi 'female teacher'. There is no corresponding term for the female honorific leader. Since the honorific form is used to indicate the plural number, there is a provision to mix the female and male persons and use a plural number for the multitude. One may be tempted to say the forms listed as masculine honorific forms are common gender forms. Yet, in actual use, these often assume male reference.
9. LANGUAGE CHANGE IN A FREE DEMOCRATIC COUNTRY
When India became a Republic, many changes in the social set up of women had been initiated. The intention of the Constitution of India is to give equal rights to women. In the public domain, women are allowed to practice all the professions men practice. However, language has not changed much the attitude of the society. Perhaps language is a good reflection how the society views women, despite constitutional provisions to the contrary. Previously many occupational terms such as doctor, police, etc., readily evoked the image of a man rather than that of a woman. By adding certain feminine forms like amma: 'mother' and peN, woman' to these professional terms, new feminine forms have been developed. For example, da:kTar amma: 'lady doctor,' and peNka:valar 'police woman.'
Similar vocabulary differences on the basis of gender bias exist in other Indian languages. These differences are the result of the differences in the position and the status of the two genders in a given society. When these conditions change, the differences are bound to modify.
10. NON-RECIPROCAL USAGE
The inferior status of a woman is further revealed in the non-reciprocal usage of the forms of address. A husband generally addresses his wife by name or he uses a non-honorific address pronoun, namely, ni: 'you'. In many cases, a wife avoids addressing her husband directly using this pronoun. Instead she uses a question form tagged with a respect pronoun ennanka " 'what, with respect pronoun.' "e:nga" 'why, with respect pronoun'." In certain other instances she addresses him as son's father: go:kul appa: 'Gokul's father.' Sometimes, non-respect address terms (vocatives with less or non-honorific terms) like e:y, and aTiye: are used by the husbands to call their wives.
While a husband uses a non-honorific or less honorific reference pronoun 'ava' she' to refer his wife, she refers to him by a honorific pronoun avañga 'he, with respect'. As non-naming denotes respect in many cases, she follows this pattern of address as well as reference.
Assuming a superior status in the society, a man commands his wife by using non-honorific singular imperatives like va: 'come', and po: 'go.' However, a woman uses the tag questions as substitutes for commands and this is considered to be a polite way of requesting a person to do a thing. maruntu va:nkittu vari:kala: ? 'Would you please buy medicine?'
The above discussed linguistic differences in woman and man's speech is interpreted as a reflection of men's dominance and women's subordination. Though a few changes in the status of woman are apparent now the old practices still persist. The nature of gender differences in Indian languages, clearly reflect the social and cultural factors prevalent in India. "If there is one message that echoes forth from the recently held international women conference in Beijing, it is that human rights are woman's rights and woman's rights are human rights". If this message is properly understood many of the gender discriminations will disappear.
*** *** ***
G.Sankaranarayanan, Ph.D.
Central Institute of Indian Languages
Manasagangothri
Mysore 570006
India
E-mail:ciil@giasbg01.vsnl.net.in. Please mark Attention: G.Sankaranarayanan in the subject line.
G. Sankaranarayanan, Ph.D.
1. GENDER AS A PARAMETER OF LANGUAGE VARIATION
A society is an organized group of persons functioning in the background of different socio-cultural environments. The socio-cultural environment includes customs, traditions, religious beliefs, tastes and preferences, social institutions, etc. All these have a bearing on the behavior of the people. As a product of social reality, language reflects the socio-cultural behavior of a community who speaks it. In other words, language reflects the thoughts, opinions, attitudes and culture of its users.
Differences within the language used are natural in all human societies and these linguistic differences are explained in sociolinguistics as variations, with reference to social variables such as class, age, ethnicity and sex/gender.
In the past few years, under the impact of feminist movements, a number of studies have appeared in the west, identifying gender as a major parameter for language variation. When we say "gender bias" in language, we mean the superior-inferior paradigm evolved due to the distinction in gender of the people. We search for their language correlates. The phrase "gender bias" is generally used to indicate the subordinate or inferior status of women in a society.
To understand clearly the gender-based language differences, one should know the social structure in which the (social) position of the male and female groups is designed. Khokle (1995) observes that human social organization began, to a large extent, as a matriarchal system, which, later on, gradually shifted to the male-dominated patriarchal system. If you study the old Tamil society as portrayed in the famous Sangam literature, you will immediately conclude that the Tamil society, like most other societies, was a strongly male-oriented culture, revealing the unquestionable super-ordinate position of the male.
Indian languages, both classical and current, exhibit certain markers that reveal the status accorded to women in the Indian society. Different people may interpret some of these markers differently, but the vocabulary nuances certainly show the status we accord to our women in our society.
There is no Indian language that could be treated as an exception in this regard. Sometimes the enthusiasts and the traditionalists may claim that the status of women in the by-gone ages was equal to that of men, or that the women had great educational opportunities and that they excelled in many fields. While it is true that there were several women poets, statesmen and intellectuals in the past, the status accorded to women as a group was indeed inferior to that of men. We all desire to prove that we had a golden age in the past during which every thing was all right and milk and honey flowed. But the present reality could not come about in a day nor was it a degradation of the past.
In this paper I propose to present some linguistic information from Tamil, a language that I know best (since it is my mother tongue!), and discuss how this linguistic material reflects the status of women in the Tamil society.As I said above, what I say here can be easily attested in every Indian language. So, do not think that the Tamil society ill-treats women worse than others. In reality, no Indian society is free from the overall features that I discuss in this paper.
2. SOME DARKSIDES OF STATUS OF WOMEN IN ANCIENT TAMIL LITERATURE
While describing the respective duties of a mother and father, it is stated in one of the Sangam poems that the duty of a mother ends after giving birth to children and it is the father who makes them wise men. In another poem, it is stated that the (ideal) husband is devoted to his work and that, for him, his duty is as dear as his life, whereas for the wife, who is confined to her home, her sole life is her husband.
Tolkaappiyam, an ancient Tamil grammar, written perhaps 2000 years ago, imposes restrictions on the woman's speech. A man can speak anything to express his knowledge whereas a woman can speak only on a few subjects limited to her family circle. It is also understood from this grammar that learning (education), possession and demonstration of valor, earning fame, and giving charity are the sole privilege and goal of a man (and no such privilege to woman). Another celebrated Tamil work Tirukkural (tirukkuraL) also insists that learning (education) is for the male group only (Kural 67, 69 and 70). On the other hand, it narrates the duties of a housewife as follows: A woman should be chaste in character, true in devotion to her husband, regular in house-hold work, take care of her husband (who owns her) and give birth to good children (Kural 51). According to Tirukkural, an ideal woman is one who does not worship god but who, on rising, worships her husband. (Kural 55). In this way the ancient literatures clearly portray the power structure or the social position of the male and female of the society. The classical literatures in other Indian languages, both sacred and secular, are no exception to this general rule. There was certainly a male-oriented approach in all these records.
3. GENDER ROLE DIFFERENCES
The gender role differences are important in our culture. When we see the role played by a man as depicted in the classical literature, he was a scholar in the educated assembly, he was a warrior in the battlefield, and he was a trader when he was involved in earning money. And he used to leave his home in connection with higher studies, military expedition and embassy. During this time of separation ("pirital"), the woman who is confined to her home, is patiently waiting ("iruttal") and lamenting ("irankal"). A woman's work was naturally confined to her home and family, while men lived in a larger world. In this culture, men were defined in terms of what they did in the world while women were defined in terms of the men with whom they were associated.
4. TRADITIONAL SOCIETIES, LANGUAGE, AND WOMEN
In traditional societies, specific traits are assigned to men and women. These cultures set up rigid social norms for the sexes. Any violation of these norms will be viewed seriously. A comparison of the qualities ascribed to both the sexes in Tamil will reveal actual values put on males and females in society. arivu 'knowledge', niRai 'strength of mind, determination', oorppu 'firmness decision' and kaTaippiTi 'confidence' are ascribed to males. naaNam 'shyness' maTam 'ignorance,' accam 'timidity' and payirppu'. 'delicacy' are the qualities ascribed to females. In other words, man is entitled to get wisdom and strength whereas woman lacks wisdom (hence foolish) and strength (hence weak), thus indicating the superior and inferior status of men and women respectively.
There are several terms used to denote woman. Of these, the terms pi:Tay. maTantai and maTava:r also have the meaning 'foolish person'. On the other hand, the term denoting man is a:N, which is related to the term a:Nmai, which means valor, boldness, etc. The word kaRpu meaning 'chastity' is associated only with women. Another praiseworthy quality attributed to woman is poRumai 'patience', that is to bear with the faulty behavior of a husband. The equivalent term for sati in Tamil is uTankaTTai e:Ru and this practice was there in early Tamil society. All these illustrations indicate the inferior status attributed to woman by the society. The terms manai, manaivi, illaaL, etc, associate a wife with the house. On the other hand, the term kaNavan 'husband' literally means, 'he who is like an eye to his wife'.
5. LANGAUGE AND MALE SUPERIORITY
In any society in which the male plays a superior role and commands greater respect, it is quite natural for the members of the society to put high value on male child. aastikku pillai 'to look after the property, a son is necessary,' koLLi vaikka oru piLLai 'a male child is needed, to lit the funeral pyre of the parents,' and ca:N piLLai a:na:lum a:NpiLLai allava: 'even though a boy is small in size he is greater as he is a male' are some of the Tamil proverbs which indicate the great value attached to a male child. On the other hand, the unwanted female child is referred to as poTTai kuTTi, a phrase that is associated with the young one of an animal.
In a family the woman's suggestions are considered faulty and thus ignored. The proverbs peNputti pin putti, putti 'women realize quite late' and tayyal col ke:Le:l 'Don't listen to a woman's advice' illustrate this point.
As her suggestions are not taken into account, a woman observes silence in many matters including her decisions regarding own marriage. Marriage is the most important social transition in a woman's life. Cultural expectations allow the boy, but not the girl, to express an opinion on the match before betrothal takes place. Her silence continues even at her wedding. A bride should be beautiful, but a bride should also be submissive and silent.
A man who listens to his wife will be referred to badly as poTTayyan or peNTa:TTi da:san 'hen-pecked husband' va:yilla: puucci 'an insect having no mouth'.
6. WOMAN AS COMMODITY
As Vasanthakumari (1991) points out, language is mixed with expressions that reflect the status of a woman as a commodity. Consider the following phrases denoting the action of performing the marriage of a girl. kaTTi koTu 'tie and give' (in marriage) or kaTTi vai 'tie (the knot) both refer to the process of giving a girl in marriage. Consider also the following expressions: ta:li kaTTu (tie the knot, by the bridegroom), peN eTu (take a girl for marriage), kannika: da:nam (giving away a virgin girl in marriage).
7. LANGUAGE AND MARRIED STATUS OF WOMEN
Tradition does not allow a woman to remarry or break the marriage but allows a husband to abandon his wife. But she is accused for the break up of her marriage. If a woman lives separately from her husband, she is labeled va:la:veTTi, a very derogatory term that literally means "a woman who sits idle without rendering seasonal services". The usage of the term malaTi 'sterile woman' also indicates that woman is blamed for everything. The matter of description of human qualities is based, for instance, on this double standard. A bold man is courageous (vi:ran) but a bold woman is aggressive (aTanka: piTa:ri).
A woman can be discarded by her husband easily as he is koNTavan 'the one who owned her.' Consider the following terms in this regard. taLLi vai or otukki vai "to abandon (her)" literally means, "to push aside." kai viTu means, "to abandon (her)." Literally it means, "to drop (from hand)." ce:rttuk koL means, "to take (her) back."
Since a husband is everything for a woman, status of a widow is the worst condition a woman can be placed in. A widow is referred to as vitavai, which does not have a male counterpart term. The other terms such as aRutali, ta:li aRuttavaL, moTTaicci, and munTai are very contemptuous and derogatory both in their literal and implied senses.
8. LACK OF PARALLEL TERMS FOR WOMEN
Many of the terms referring to the females are derived from the corresponding terms for the males, and this seems to be taken as the norm, not only for linguistic derivation but also for meaning derivation. However, for some terms there are no corresponding terms that would indicate the females. Consider the following examples:
aRinan'scholar'
ca:nRo:n 'scholar/reputable men of good conduct, etc.'
vaittiyan 'doctor'
a:ca:n 'teacher'
amaiccan'minister'
There are no female counterparts for these other terms.
Though certain professional terms have male honorific forms, these do not have the corresponding female honorific forms. For example, naTikan means '(male) actor,' naTikar (male honorific) 'actor,' and naTikai means 'actress.' Some other words that behave in this very manner are: talaivan '(male) leader,' talaivar 'male leader (honorific)' and talaivi 'female teacher'. There is no corresponding term for the female honorific leader. Since the honorific form is used to indicate the plural number, there is a provision to mix the female and male persons and use a plural number for the multitude. One may be tempted to say the forms listed as masculine honorific forms are common gender forms. Yet, in actual use, these often assume male reference.
9. LANGUAGE CHANGE IN A FREE DEMOCRATIC COUNTRY
When India became a Republic, many changes in the social set up of women had been initiated. The intention of the Constitution of India is to give equal rights to women. In the public domain, women are allowed to practice all the professions men practice. However, language has not changed much the attitude of the society. Perhaps language is a good reflection how the society views women, despite constitutional provisions to the contrary. Previously many occupational terms such as doctor, police, etc., readily evoked the image of a man rather than that of a woman. By adding certain feminine forms like amma: 'mother' and peN, woman' to these professional terms, new feminine forms have been developed. For example, da:kTar amma: 'lady doctor,' and peNka:valar 'police woman.'
Similar vocabulary differences on the basis of gender bias exist in other Indian languages. These differences are the result of the differences in the position and the status of the two genders in a given society. When these conditions change, the differences are bound to modify.
10. NON-RECIPROCAL USAGE
The inferior status of a woman is further revealed in the non-reciprocal usage of the forms of address. A husband generally addresses his wife by name or he uses a non-honorific address pronoun, namely, ni: 'you'. In many cases, a wife avoids addressing her husband directly using this pronoun. Instead she uses a question form tagged with a respect pronoun ennanka " 'what, with respect pronoun.' "e:nga" 'why, with respect pronoun'." In certain other instances she addresses him as son's father: go:kul appa: 'Gokul's father.' Sometimes, non-respect address terms (vocatives with less or non-honorific terms) like e:y, and aTiye: are used by the husbands to call their wives.
While a husband uses a non-honorific or less honorific reference pronoun 'ava' she' to refer his wife, she refers to him by a honorific pronoun avañga 'he, with respect'. As non-naming denotes respect in many cases, she follows this pattern of address as well as reference.
Assuming a superior status in the society, a man commands his wife by using non-honorific singular imperatives like va: 'come', and po: 'go.' However, a woman uses the tag questions as substitutes for commands and this is considered to be a polite way of requesting a person to do a thing. maruntu va:nkittu vari:kala: ? 'Would you please buy medicine?'
The above discussed linguistic differences in woman and man's speech is interpreted as a reflection of men's dominance and women's subordination. Though a few changes in the status of woman are apparent now the old practices still persist. The nature of gender differences in Indian languages, clearly reflect the social and cultural factors prevalent in India. "If there is one message that echoes forth from the recently held international women conference in Beijing, it is that human rights are woman's rights and woman's rights are human rights". If this message is properly understood many of the gender discriminations will disappear.
*** *** ***
G.Sankaranarayanan, Ph.D.
Central Institute of Indian Languages
Manasagangothri
Mysore 570006
India
E-mail:ciil@giasbg01.vsnl.net.in. Please mark Attention: G.Sankaranarayanan in the subject line.
July 30, 2010
History Matters - Our feudal set-up आज भी भारतीये समाज मे फयूडल सेट up कितना हावी हैं
आज भी भारतीये समाज मे फयूडल सेट up कितना हावी हैं आप को ये आलेख पढ़ कर पता चल जाएगा । आज भी केवल उन ही नारियों को मान्यता देता हैं हमारा सिस्टम जो अपने पति या पिता के कारण समाज मे नाम पाती हैं । हमारी hrd minstry ने जिन ४ महिला का चुनाव किया हैं ब्रांड ambassador के लिये उनमे से एक भी ऐसी महिला नहीं हैं जिसका अपना कोई योगदान रहा हो अपने आप को इस समाज मे स्थापित करने के लिये । कोई पत्नी हैं और कोई बेटी ।
पूरा आलेख नीचे पढ़ सकते हैं या इस लिंक पर देख सकते हैं
quote
The HRD ministry's proposed list of brand ambassadors for its literacy programme is an insult to Indian womanhood, writes Ramachandra Guha
The HRD ministry's proposed list of brand ambassadors for its adult literacy programme is an insult to all of Indian womanhood TO THE ADULT NEO-LITERATE, WHOSE EXAMPLE SHALL BE MORE INSPIRING? ELA BHATT OR NITA AMBANI? SAINA NEHWAL OR SUPRIYA SULE?
SHABANA AZMI OR KANIMOZHI? THE FIRST PERSON IN EACH PAIRING MADE IT WHOLLY ON HER OWN, THE SECOND PERSON GOT A HEFTY LEG UP FROM HER HUSBAND OR FATHER
Despite 63 years of independence, feudal attitudes and values permeate the professedly secular, republican and democratic Government of India. Consider the recent proposal by the Human Resource Development (HRD) ministry to appoint `brand ambassadors' for its adult literacy programme. According to a news report, the names shortlisted by the ministry are those of Nita Ambani, Supriya Sule, Kanimozhi and Priyanka Vadra. All four are women, and all four owe their status in society principally to the fact they are the wife, daughter, or sister of a powerful or wealthy male.
If one is thinking of a name to motivate poor women or men to learn their letters, no name could be more spectacularly inappropriate than Nita Ambani's. She is soon to be the resident of a 400,000 square feet house; she is already the recipient of a Boeing aircraft as a birthday gift. If this exhibitionism doesn't run contrary to our constitutional commitment to socialism and equality, I don't know what does.
As for our other national commitment to secularism and the scientific temper -which I presume the HRD Ministry shares -how does one square that with Nita Ambani's periodic visits to a Southern hilltop to pray for, of all things, a cricket team?
Nita Ambani would not be what she is had she not married the son of the richest man in India. By the same token, Supriya Sule would not be what she is had she not been the daughter of the most powerful man in Maharashtra. She owes her seat in Parliament entirely to her father. So does Kanimozhi, the third of the HRD ministry's proposed `brand ambassadors'.
Had she not been the daughter of the most powerful man in Tamil Nadu, she would not now be a Rajya Sabha MP, nor would she be spoken of (as Supriya Sule is too) as a likely entrant into the Union Cabinet.
It seems strange to say this, but in fact, of the four names on offer it is Priyanka Vadra who is least guilty on this count.
Thus far at least, she has not benefited professionally from being the daughter of a former prime minister or the sister of someone who is likely to be a future prime minister.
She is not in politics, and her recent foray out of private life has been to work with a family-run foundation. Even so, her name would hardly have occurred to the HRD ministry had she not been the daughter and sister of you-know-who.
The HRD ministry's proposal is patriarchal as well as feudalistic. It constitutes a sharp and direct insult to all of Indian womanhood. How is it that the ministry couldn't think of a single woman who had achieved distinction in her own right, without having first been elevated on account of being someone else's wife, daughter or sister? Had I been an official in the ministry, the first names that may have come to my mind are of those splendid Hyderabadi sportswomen, Saina Nehwal and Sania Mirza. What Nehwal and Mirza have in common is that their achievements are entirely of their own making. They have nothing to do with genes or wealth or position that they have inherited from an already powerful male. In this respect, they are fairly representative of professional women in general. The two most widely admired women entrepreneurs in India are probably Chanda Kochhar of ICICI and Kiran Mazumdar of Biocon. They, too, owe their success to their own efforts and their own genes alone. The most admired social worker in India is probably Ela Bhatt of the Self-Employed Women's Association. She, too, is wholly self-made.
I have proposed five deserving names -readers of this column could easily expand the list to 50. Thus, the actor Shabana Azmi would make a fine ambassador for adult literacy, as would -if her health permits -the writer Mahasweta Devi. There is even a politician who qualifies -Mayawati, who (unlike Sule and Kanimozhi) rose from genuinely humble origins and who, despite her sometimes whimsical ways, has a huge appeal to the most disadvantaged of Indians.
The names offered in the preceding paragraphs are a good sight more deserving than the ones suggested by the HRD ministry. To the adult neo-literate, whose example shall be more admirable, more inspiring? Ela Bhatt or Nita Ambani? Saina Nehwal or Supriya Sule? Shabana Azmi or Kanimozhi? Chanda Kochhar or Priyanka Vadra? The first person in each pairing made it wholly on her own, the second person got a hefty leg up from her husband or father.
To put it differently, the first person in each pairing represents the democratic ideals of the Indian Constitution, whereas the second person represents the lingering feudal residues in Indian society and politics.
Contemporary India has an array of gifted women writers, musicians, and committed women social workers and public officials, who have likewise achieved eminence without first hitching their star to a male of wealth or influence.
Surely they would be more effective and credible brand ambassadors for adult literacy as compared to the privileged quartet proposed by the HRD ministry.
What, I wonder, are the origins of this ridiculous proposal? Is it a manifestation of the feudal culture within the allegedly democratic government of India, or is it rather the handiwork of a particular individual, seeking to please the richest and most powerful people in India? Gore Vidal once remarked of his adopted country, Italy, that occasionally it combined the worst of capitalism and the worst of socialism. I should say of my one and only homeland that sometimes it combines the worst features of capitalism, socialism and feudalism."
unquote
Ramachandra Guha is the author of India After Gandhi: The History of the World's Largest Democracy ramachandraguha@yahoo.in The views expressed by the author are personal
पूरा आलेख नीचे पढ़ सकते हैं या इस लिंक पर देख सकते हैं
quote
The HRD ministry's proposed list of brand ambassadors for its literacy programme is an insult to Indian womanhood, writes Ramachandra Guha
The HRD ministry's proposed list of brand ambassadors for its adult literacy programme is an insult to all of Indian womanhood TO THE ADULT NEO-LITERATE, WHOSE EXAMPLE SHALL BE MORE INSPIRING? ELA BHATT OR NITA AMBANI? SAINA NEHWAL OR SUPRIYA SULE?
SHABANA AZMI OR KANIMOZHI? THE FIRST PERSON IN EACH PAIRING MADE IT WHOLLY ON HER OWN, THE SECOND PERSON GOT A HEFTY LEG UP FROM HER HUSBAND OR FATHER
Despite 63 years of independence, feudal attitudes and values permeate the professedly secular, republican and democratic Government of India. Consider the recent proposal by the Human Resource Development (HRD) ministry to appoint `brand ambassadors' for its adult literacy programme. According to a news report, the names shortlisted by the ministry are those of Nita Ambani, Supriya Sule, Kanimozhi and Priyanka Vadra. All four are women, and all four owe their status in society principally to the fact they are the wife, daughter, or sister of a powerful or wealthy male.
If one is thinking of a name to motivate poor women or men to learn their letters, no name could be more spectacularly inappropriate than Nita Ambani's. She is soon to be the resident of a 400,000 square feet house; she is already the recipient of a Boeing aircraft as a birthday gift. If this exhibitionism doesn't run contrary to our constitutional commitment to socialism and equality, I don't know what does.
As for our other national commitment to secularism and the scientific temper -which I presume the HRD Ministry shares -how does one square that with Nita Ambani's periodic visits to a Southern hilltop to pray for, of all things, a cricket team?
Nita Ambani would not be what she is had she not married the son of the richest man in India. By the same token, Supriya Sule would not be what she is had she not been the daughter of the most powerful man in Maharashtra. She owes her seat in Parliament entirely to her father. So does Kanimozhi, the third of the HRD ministry's proposed `brand ambassadors'.
Had she not been the daughter of the most powerful man in Tamil Nadu, she would not now be a Rajya Sabha MP, nor would she be spoken of (as Supriya Sule is too) as a likely entrant into the Union Cabinet.
It seems strange to say this, but in fact, of the four names on offer it is Priyanka Vadra who is least guilty on this count.
Thus far at least, she has not benefited professionally from being the daughter of a former prime minister or the sister of someone who is likely to be a future prime minister.
She is not in politics, and her recent foray out of private life has been to work with a family-run foundation. Even so, her name would hardly have occurred to the HRD ministry had she not been the daughter and sister of you-know-who.
The HRD ministry's proposal is patriarchal as well as feudalistic. It constitutes a sharp and direct insult to all of Indian womanhood. How is it that the ministry couldn't think of a single woman who had achieved distinction in her own right, without having first been elevated on account of being someone else's wife, daughter or sister? Had I been an official in the ministry, the first names that may have come to my mind are of those splendid Hyderabadi sportswomen, Saina Nehwal and Sania Mirza. What Nehwal and Mirza have in common is that their achievements are entirely of their own making. They have nothing to do with genes or wealth or position that they have inherited from an already powerful male. In this respect, they are fairly representative of professional women in general. The two most widely admired women entrepreneurs in India are probably Chanda Kochhar of ICICI and Kiran Mazumdar of Biocon. They, too, owe their success to their own efforts and their own genes alone. The most admired social worker in India is probably Ela Bhatt of the Self-Employed Women's Association. She, too, is wholly self-made.
I have proposed five deserving names -readers of this column could easily expand the list to 50. Thus, the actor Shabana Azmi would make a fine ambassador for adult literacy, as would -if her health permits -the writer Mahasweta Devi. There is even a politician who qualifies -Mayawati, who (unlike Sule and Kanimozhi) rose from genuinely humble origins and who, despite her sometimes whimsical ways, has a huge appeal to the most disadvantaged of Indians.
The names offered in the preceding paragraphs are a good sight more deserving than the ones suggested by the HRD ministry. To the adult neo-literate, whose example shall be more admirable, more inspiring? Ela Bhatt or Nita Ambani? Saina Nehwal or Supriya Sule? Shabana Azmi or Kanimozhi? Chanda Kochhar or Priyanka Vadra? The first person in each pairing made it wholly on her own, the second person got a hefty leg up from her husband or father.
To put it differently, the first person in each pairing represents the democratic ideals of the Indian Constitution, whereas the second person represents the lingering feudal residues in Indian society and politics.
Contemporary India has an array of gifted women writers, musicians, and committed women social workers and public officials, who have likewise achieved eminence without first hitching their star to a male of wealth or influence.
Surely they would be more effective and credible brand ambassadors for adult literacy as compared to the privileged quartet proposed by the HRD ministry.
What, I wonder, are the origins of this ridiculous proposal? Is it a manifestation of the feudal culture within the allegedly democratic government of India, or is it rather the handiwork of a particular individual, seeking to please the richest and most powerful people in India? Gore Vidal once remarked of his adopted country, Italy, that occasionally it combined the worst of capitalism and the worst of socialism. I should say of my one and only homeland that sometimes it combines the worst features of capitalism, socialism and feudalism."
unquote
Ramachandra Guha is the author of India After Gandhi: The History of the World's Largest Democracy ramachandraguha@yahoo.in The views expressed by the author are personal
July 27, 2010
गृहणियां इस शब्द को आज कि स्थितियों मे कैसे परिभाषित करेगे ।
गृहणियां
इस शब्द को आज कि स्थितियों मे कैसे परिभाषित करेगे ।
अपने देश कि राष्ट्रपति एक महिला हैं , विवाहिता हैं क्या वो गृहणी हैं ????
सोनिया गाँधी कांग्रेस कि नेता हैं , विधवा हैं क्या वो गृहणी हैं ??
सुषमा स्वराज विपक्ष कि नेता हैं , विवाहित हैं क्या वो गृहणी हैं ??
अगर वो गृहणी हैं तो क्या गृहणी वो केवल इस लिये हैं कि वो विवाहित हैं ??
एक अविवाहित नारी , जो अपना घर भी चलती हैं और बाहर काम भी करती हैं क्या वो गृहणी हैं ?? अगर नहीं हैं तो उसके लिये क्या शब्द कहा जायेगा ।
बदलते समय के साथ साथ शब्दों कि परिभाषाये भी बदलती हैं । आज के परिवेश मे सिंगल काम काजी महिला कि संख्या मे बढ़ोतरी हो रही हैं । उनमे से बहुत सी अलग रहती हैं और अपने काम के साथ साथ अपना घर भी चलाती हैं । गृहणी का सीधा अर्थ शायद घर चलने मे सक्षम होना ही होता हैं । लेकिन हमारे समाज मे गृहणी को एक विवाहिता से जोड़ कर देखा जाता हैं ऐसा क्यों । क्या यही से तो नहीं "एक गृहणी का दोयम का दर्जा " शुरू होता हैं जैसा पिछली पोस्ट मे मोनिका ने कहा हैं । गृहणी को नॉन प्रोडक्टिव वर्कर माना गया हैं यानी जो बाहर काम करता हैं वो प्रोडक्टिव वर्कर होता हैं । हमारे ब्लॉग जगत कि बहुत सी नारियां विवाहित हैं क्या वो अपने को गृहणी मानती हैं ?? क्या ये गृहणी होना उनका स्वेच्छा से चुना हुआ "काम " हैं या समाज कि बनी हुई लकीरों पर चलने के कारण वो "गृहणी " बन गयी हैं ।
क्या बाहर नौकरी करना और अपना घर भी संभलना ज्यादा मुशकिल काम हैं जैसे एक अविवाहित , नौकरी करती नारी करती हैं
या
केवल घर संभालना , पति और बच्चो कि देखभाल करना ज्यादा मुशकिल काम हैं जैसे एक विवाहित नारी करती हैं
या
घर और ऑफिस दोनों संभालना जैसे एक विवाहित नारी करती हैं
गृहणी शब्द को लेकर मन मे कल से काफी उथल पुथल थी सो सोचा बाँट दूँ क्युकी मै अविवाहित हूँ और पिछले २५ वर्षो से घर और बाहर दोनों का काम देखती हूँ पर फिर भी देखती हूँ कि समाज अपनी गृहिणियों के प्रति ज्यादा सहृदय हैं ऐसा क्यूँ ????
इस शब्द को आज कि स्थितियों मे कैसे परिभाषित करेगे ।
अपने देश कि राष्ट्रपति एक महिला हैं , विवाहिता हैं क्या वो गृहणी हैं ????
सोनिया गाँधी कांग्रेस कि नेता हैं , विधवा हैं क्या वो गृहणी हैं ??
सुषमा स्वराज विपक्ष कि नेता हैं , विवाहित हैं क्या वो गृहणी हैं ??
अगर वो गृहणी हैं तो क्या गृहणी वो केवल इस लिये हैं कि वो विवाहित हैं ??
एक अविवाहित नारी , जो अपना घर भी चलती हैं और बाहर काम भी करती हैं क्या वो गृहणी हैं ?? अगर नहीं हैं तो उसके लिये क्या शब्द कहा जायेगा ।
बदलते समय के साथ साथ शब्दों कि परिभाषाये भी बदलती हैं । आज के परिवेश मे सिंगल काम काजी महिला कि संख्या मे बढ़ोतरी हो रही हैं । उनमे से बहुत सी अलग रहती हैं और अपने काम के साथ साथ अपना घर भी चलाती हैं । गृहणी का सीधा अर्थ शायद घर चलने मे सक्षम होना ही होता हैं । लेकिन हमारे समाज मे गृहणी को एक विवाहिता से जोड़ कर देखा जाता हैं ऐसा क्यों । क्या यही से तो नहीं "एक गृहणी का दोयम का दर्जा " शुरू होता हैं जैसा पिछली पोस्ट मे मोनिका ने कहा हैं । गृहणी को नॉन प्रोडक्टिव वर्कर माना गया हैं यानी जो बाहर काम करता हैं वो प्रोडक्टिव वर्कर होता हैं । हमारे ब्लॉग जगत कि बहुत सी नारियां विवाहित हैं क्या वो अपने को गृहणी मानती हैं ?? क्या ये गृहणी होना उनका स्वेच्छा से चुना हुआ "काम " हैं या समाज कि बनी हुई लकीरों पर चलने के कारण वो "गृहणी " बन गयी हैं ।
क्या बाहर नौकरी करना और अपना घर भी संभलना ज्यादा मुशकिल काम हैं जैसे एक अविवाहित , नौकरी करती नारी करती हैं
या
केवल घर संभालना , पति और बच्चो कि देखभाल करना ज्यादा मुशकिल काम हैं जैसे एक विवाहित नारी करती हैं
या
घर और ऑफिस दोनों संभालना जैसे एक विवाहित नारी करती हैं
गृहणी शब्द को लेकर मन मे कल से काफी उथल पुथल थी सो सोचा बाँट दूँ क्युकी मै अविवाहित हूँ और पिछले २५ वर्षो से घर और बाहर दोनों का काम देखती हूँ पर फिर भी देखती हूँ कि समाज अपनी गृहिणियों के प्रति ज्यादा सहृदय हैं ऐसा क्यूँ ????
July 24, 2010
अफ़सोस भी है........गुस्सा भी और हैरानी भी........
हमारे देश में चाहे आज राष्ट्रपति के गरिमामयी पद एक महिला विराजमान हैं। भले ही ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा जिसमे औरतों ने अपने आप को साबित न किया हो। आये दिन ऐसे इकोनोमिक सर्वे हमारे सामने होते हैं जो इस बात का सबूत हैं की आधी आबादी की भागीदारी घर-परिवार की सार-संभाल में तो है ही देश की जीडीपी की दर में भी इजाफा कर रही है।
ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का किसी देश की सरकार को इस बात के लिए फटकार लगाना अफसोसजनक नहीं तो और क्या है की जनगणना में देश की गृहणियों को वेश्याओं, भिखारियों और कैदियों की कैटेगिरी में रखा गया। इतना ही नहीं उन्हें पूरी तरह से नॉन-प्रोडक्टिव वर्कर भी बताया गया। घरेलू महिलाओं की तुलना ऐसे वर्ग से करने पर जब कोर्ट को ऐतराज है तो सोचने की बात यह की देश की आधी आबादी यानि की उन महिलाओं के मन को कितनी ठेस पहुचेगी जो घर और बाहर की दोहरी जिम्मेदारी उठाकर भी अपने कदम आगे बढ़ा रही है।
यह सचमुच हैरान कर देने वाली है कि गाँव हो या शहर सबसे पहले बिस्तर छोड़ने और सबके बाद अपने आराम की सोचने वाली गृहणियों को जब सरकारी आंकड़े ही नॉन-प्रोडक्टिव करार देंगें तो फिर आम इन्सान कि सोच को अंदाजा तो हम सभी लगा सकते है। इस देश में सिर्फ गृहणियां ही हैं जो ३६५ दिन काम करती हैं। उनके लिए कोई सन्डे कोई होलीडे नहीं होता। हकीक़त तो यह है कि गृहणियां हमारा वो सपोर्ट सिस्टम हैं जिनके बिना परिवार के किसी भी सदस्य की जिंदगी पटरी पर नहीं रह सकती। रही बात उनके आर्थिक भागीदारी की तो साल भर चौबीसों घंटे खुद को परिवार के प्रति समर्पित रखने वाले इन्सान का काम मेरे हिसाब से तो अनमोल ही कहा जायेगा ।
२००७ में अमेरिका में हुए एक सर्वे में वहां की गृहणियों के काम की सालाना कीमत ५७ लाख रुपये आंकी गयी थी। ऐसे में आप खुद ही सोचें की हमारे देश में जहां घरेलू काम ज्यादा और सुविधाएं विकसित देशों की तुलना में कम कम हैं गृहणियों के काम का मोल कितना होगा। अगर बात सिर्फ मॉनिटरी वैल्यू की जाए तो २००१ में एक मुकदमे का फैसला सुनते हुए दिल्ली हाईकोर्ट के जज आर एस सोंधी कह चुके हैं की समाज में किसी भी महिला का योगदान ३००० रुपये मासिक से काम नहीं आँका जा सकता। उन्होंने यह भी कहा था की गृहणियों के योगदान को किसी भी तरह से कम नहीं आँका जाना चाहिए। हाँ , हम सबके लिए यह जानना भी जरूरी है की हमारे देश में घरेलू महिलाओं की सेविंग समूची बचत का २४ फीसदी है जो की दुनिया भर में सबसे ज्यादा है। हाल ही में आयी मंदी की आंधी में भारतीय अर्थव्यवस्था पश्चिमी देशों की तरह नहीं लङखङाई उसकी एक वजह यह बचत भी थी। हकीक़त तो यह है की गृहणियां उस पृष्ठभूमि की तरह हैं जो खुद भले ही पीछे चुप जाती हैं पर उनके बिना पूरे समाज की तस्वीर उभर कर सामने नहीं आ सकती.
July 17, 2010
*संपूर्ण चैतन्यता ,जागरूकता व कानून सम्बन्धी जानकारी*
सामाजिक सरोकार
*अपनी संपूर्ण सुरक्षा की पूर्ण चैतन्यता-जागरूकता+कानून सम्बन्धी जानकारी*.
परिवारों में विशेषकर भारतवर्ष में बेटी के जन्म लेते ही ये बात बचपन से उसके मन में भर दी जाती है कि उसके भाई की तुलना में वो शारीरिक स्वरुप में कमजोर है ,बहुत प्रकार के अवरोध(रोक) उसकी कम उम्र से ही लगाना प्रारंभ हो जाते हैं .लड़के की तुलना में उसको कुछ विशेष सावधानी-देखरेख से ही पाला जाता है. जो उसकी मानसिकता को कमजोर बना देते हैं. छोटी सी बच्ची अपने घर में ही अपने आपको हीन या किसी कमी से ग्रस्त मानने लगती है क्योंकि उसके लिए जीवन के हर क्षेत्र में अलग-अलग प्रकार से रोक लगने से उसकी स्वतंत्रता में कमी-बाधक हो जाती है. बिना जाने ही समाज के प्रति या अपने आसपास वालों के प्रति उसके मन में एक प्रकार चिंता व जाना-अनजाना डर या अलगाव समा जाता है।
ये बिना किसी भेद भाव से समाज के हर वर्ग के लगभग हर छोटे-बड़े ,निम्नवर्गीय-मध्यमवर्गीय-उच्चवर्गीय ,हम-आपके सबके परिवारों में होता है. अधिकांश परिवार अपनी बेटी की सुरक्षा की द्रष्टि से उसपर रोक लगाने को अपने को मजबूर पाते हैं .इस सबके पीछे परिवार का उद्देश्य हर जगह अपनी बच्ची के साथ सिर्फ भेदभाव के लिए ही नहीं होता.व्यक्तिगत नहीं होकर कहीं निःस्वार्थ मजबूरी भी मानी जा सकती है या अपनी बेटी के प्रति अपनी सघन जिम्मेदारी-स्नेही उत्तरदायित्व भी. हालाँकि हर बात में बारबार ऐसे अड़ंगे-थोड़ी समझ आने पर स्वाभाविक हमको, हमारी बेटियों या नारी शक्ति को अस्वीकार व असंतुष्ट-कुंठित बना देती है.
आज के विचार के अनुसार माना जाये तो घर की बिटिया को एक जिम्मेदार स्वस्थ नागरिक बनने की प्रक्रिया में यही से कमी आ जाती है. सत्य है उसके मानवाधिकार का हनन भी शुरू हो जाता है. पर इस सबके बीच हमें हमारे समाज के मूलभूत ढांचे के बारे में सोचना पड़ेगा व क्यों ऐसा हुआ है ,होता है या हो रहा है. क्यों ये असुरक्षा की भावना हमारे बीच इतनी बढ़ गई है ,जो सामाजिक परिवर्तन होने के बावजूद भी इतने पारिवारिक+सामाजिक बंधन हमारी नारी शक्ति के सामने खड़े हैं।
वास्तव में आवश्यकता है कि हमारे घर में बच्ची को उसके बचपन से ही मानसिक ही नहीं शारीरिक द्रष्टि से भी साहसिक प्रवृति का बनाया जाये. उसको पूरी वैचारिक स्वतंत्रता दी जाये। वो स्वयं अपनी बौद्धिक सामर्थ्य के अनुसार अपना सही निर्णय ले सकेगी। अनेक तरीके हैं जिनके द्वारा वो अपने-आप को सुरक्षित रखने के साथ सावधान रख सकती है. सबसे बड़ी बात उसके मन में इस प्रकार का कोई भय न भरके उसे जागरूक और चैतन्य बनाया जाये ।
उसे अपने शरीर की प्राकृतिक संरचना के अनुसार क्या ध्यान व सावधानी रखनी चाहिए इसकी सही जानकारी दी जाये . किन बातों व परिस्थितियों में निर्भय होकर संयम खोये बिना क्या कर सके. साथ ही अपने लिए बिना किसी के कहे उचित अनुचित की सीमा रेखा तय कर सकें।
विशेषकर दिग्भ्रमित न हो. आत्मनिर्भर व योग्य शिक्षित होकर भी जरूरत पड़ने पर विवेक न खोकर अपनी रक्षा को सक्षम बने.
वैसे भी प्रेक्टिकल रूप से ये तो संभव ही नहीं है कि किसी बलात्कारी को या किसी हिंसात्मक व्यवहार को ,चाहे घरेलू हिंसा ही हो ,को कहीं रोका जा सके क्योंकि गलत या बलात हरकत करने वाले जरुरी नहीं है कि कही रास्ते में मिलें या रात को ही किसी भी उम्र की महिला या लड़कियों को मिलते हैं या मिलेंगे. यदि वो कही अकेली जाती है तो. ऐसे लोग तो अवसर देखते रहते हैं। वे *घर-बाहर* कही भी ,कभी भी मिल सकते हैं. कई उदाहरण सामने हैं कि *रक्षक भी भक्षक* बन जाते हैं.
वर्तमान की सबसे बड़ी जरूरत है
अपनी संपूर्ण सुरक्षा की पूर्ण चैतन्यता व जागरूकता+कानून सम्बन्धी जानकारी.
किसी भी बात की अधिक रोक-टोक लगाने के बदले नारी-शक्ति को किन्ही भी परिस्थितियों में अपनी सुरक्षा के लिए तैयार होना होगा ,साथ ही हमारे परिवार-समाज की युवतियों के साथ युवा शक्ति को भी सही दिशा-सही कार्यों की प्रेरणा मिलती रहे जो स्वयं आगे आकर इस तरह के कार्यों को रोकने के लिए अपनी पूरी सहभागिता प्रदान कर सकें.
अलका मधुसूदन पटेल ,*लेखिका-साहित्यकार*
*अपनी संपूर्ण सुरक्षा की पूर्ण चैतन्यता-जागरूकता+कानून सम्बन्धी जानकारी*.
परिवारों में विशेषकर भारतवर्ष में बेटी के जन्म लेते ही ये बात बचपन से उसके मन में भर दी जाती है कि उसके भाई की तुलना में वो शारीरिक स्वरुप में कमजोर है ,बहुत प्रकार के अवरोध(रोक) उसकी कम उम्र से ही लगाना प्रारंभ हो जाते हैं .लड़के की तुलना में उसको कुछ विशेष सावधानी-देखरेख से ही पाला जाता है. जो उसकी मानसिकता को कमजोर बना देते हैं. छोटी सी बच्ची अपने घर में ही अपने आपको हीन या किसी कमी से ग्रस्त मानने लगती है क्योंकि उसके लिए जीवन के हर क्षेत्र में अलग-अलग प्रकार से रोक लगने से उसकी स्वतंत्रता में कमी-बाधक हो जाती है. बिना जाने ही समाज के प्रति या अपने आसपास वालों के प्रति उसके मन में एक प्रकार चिंता व जाना-अनजाना डर या अलगाव समा जाता है।
ये बिना किसी भेद भाव से समाज के हर वर्ग के लगभग हर छोटे-बड़े ,निम्नवर्गीय-मध्यमवर्गीय-उच्चवर्गीय ,हम-आपके सबके परिवारों में होता है. अधिकांश परिवार अपनी बेटी की सुरक्षा की द्रष्टि से उसपर रोक लगाने को अपने को मजबूर पाते हैं .इस सबके पीछे परिवार का उद्देश्य हर जगह अपनी बच्ची के साथ सिर्फ भेदभाव के लिए ही नहीं होता.व्यक्तिगत नहीं होकर कहीं निःस्वार्थ मजबूरी भी मानी जा सकती है या अपनी बेटी के प्रति अपनी सघन जिम्मेदारी-स्नेही उत्तरदायित्व भी. हालाँकि हर बात में बारबार ऐसे अड़ंगे-थोड़ी समझ आने पर स्वाभाविक हमको, हमारी बेटियों या नारी शक्ति को अस्वीकार व असंतुष्ट-कुंठित बना देती है.
आज के विचार के अनुसार माना जाये तो घर की बिटिया को एक जिम्मेदार स्वस्थ नागरिक बनने की प्रक्रिया में यही से कमी आ जाती है. सत्य है उसके मानवाधिकार का हनन भी शुरू हो जाता है. पर इस सबके बीच हमें हमारे समाज के मूलभूत ढांचे के बारे में सोचना पड़ेगा व क्यों ऐसा हुआ है ,होता है या हो रहा है. क्यों ये असुरक्षा की भावना हमारे बीच इतनी बढ़ गई है ,जो सामाजिक परिवर्तन होने के बावजूद भी इतने पारिवारिक+सामाजिक बंधन हमारी नारी शक्ति के सामने खड़े हैं।
वास्तव में आवश्यकता है कि हमारे घर में बच्ची को उसके बचपन से ही मानसिक ही नहीं शारीरिक द्रष्टि से भी साहसिक प्रवृति का बनाया जाये. उसको पूरी वैचारिक स्वतंत्रता दी जाये। वो स्वयं अपनी बौद्धिक सामर्थ्य के अनुसार अपना सही निर्णय ले सकेगी। अनेक तरीके हैं जिनके द्वारा वो अपने-आप को सुरक्षित रखने के साथ सावधान रख सकती है. सबसे बड़ी बात उसके मन में इस प्रकार का कोई भय न भरके उसे जागरूक और चैतन्य बनाया जाये ।
उसे अपने शरीर की प्राकृतिक संरचना के अनुसार क्या ध्यान व सावधानी रखनी चाहिए इसकी सही जानकारी दी जाये . किन बातों व परिस्थितियों में निर्भय होकर संयम खोये बिना क्या कर सके. साथ ही अपने लिए बिना किसी के कहे उचित अनुचित की सीमा रेखा तय कर सकें।
विशेषकर दिग्भ्रमित न हो. आत्मनिर्भर व योग्य शिक्षित होकर भी जरूरत पड़ने पर विवेक न खोकर अपनी रक्षा को सक्षम बने.
वैसे भी प्रेक्टिकल रूप से ये तो संभव ही नहीं है कि किसी बलात्कारी को या किसी हिंसात्मक व्यवहार को ,चाहे घरेलू हिंसा ही हो ,को कहीं रोका जा सके क्योंकि गलत या बलात हरकत करने वाले जरुरी नहीं है कि कही रास्ते में मिलें या रात को ही किसी भी उम्र की महिला या लड़कियों को मिलते हैं या मिलेंगे. यदि वो कही अकेली जाती है तो. ऐसे लोग तो अवसर देखते रहते हैं। वे *घर-बाहर* कही भी ,कभी भी मिल सकते हैं. कई उदाहरण सामने हैं कि *रक्षक भी भक्षक* बन जाते हैं.
वर्तमान की सबसे बड़ी जरूरत है
अपनी संपूर्ण सुरक्षा की पूर्ण चैतन्यता व जागरूकता+कानून सम्बन्धी जानकारी.
किसी भी बात की अधिक रोक-टोक लगाने के बदले नारी-शक्ति को किन्ही भी परिस्थितियों में अपनी सुरक्षा के लिए तैयार होना होगा ,साथ ही हमारे परिवार-समाज की युवतियों के साथ युवा शक्ति को भी सही दिशा-सही कार्यों की प्रेरणा मिलती रहे जो स्वयं आगे आकर इस तरह के कार्यों को रोकने के लिए अपनी पूरी सहभागिता प्रदान कर सकें.
अलका मधुसूदन पटेल ,*लेखिका-साहित्यकार*
July 16, 2010
"जब चाहें घर से निकलना हमारा मानवाधिकार है"
जानी-मानी फोटोजर्नलिस्ट सर्वेश ने अपने एक टीवी इंटरव्यू में जोरदार टिप्पणी की।
टीवी ऐंकर का आम-सा सवाल था कि एक महिला होने के नाते इस प्रोफेशन में कोई अड़चन नहीं आती जब उन्हें रात-बिरात अनजानी-अजीब सी जगहों पर भी कवरेज के लिए जाना पड़ता है?
इस पर सर्वेश ने कहा कि रात में भी अकेले काम पर निकलना पड़े तो डर उन्हें बिल्कुल नहीं लगता। सर्वेश के आगे के तर्क लाजवाब कर देने वाले थे- "यह डर वास्तव में समाज-परिवार जबर्दस्ती स्त्री के मन में भरता है। किसी भी वक्त घर जाना या घर से निकलना, कहीं भी जाना हर व्यक्ति का मानवाधिकार है। विना तकनीकी वजह के किसी के लिए ये पाबंदियां मजबूरी में या जबर्दस्ती सोची या लागू की जाती हैं तो यह उसके मानवाधिकार पर चोट है।"
“बलात्कारी के डर से घर से मत निकलो, ऐसा कहने की बजाए बलात्कारी को क्यों नहीं रोका जाता कि तुम बलात्कार न करो?!”
टीवी ऐंकर का आम-सा सवाल था कि एक महिला होने के नाते इस प्रोफेशन में कोई अड़चन नहीं आती जब उन्हें रात-बिरात अनजानी-अजीब सी जगहों पर भी कवरेज के लिए जाना पड़ता है?
इस पर सर्वेश ने कहा कि रात में भी अकेले काम पर निकलना पड़े तो डर उन्हें बिल्कुल नहीं लगता। सर्वेश के आगे के तर्क लाजवाब कर देने वाले थे- "यह डर वास्तव में समाज-परिवार जबर्दस्ती स्त्री के मन में भरता है। किसी भी वक्त घर जाना या घर से निकलना, कहीं भी जाना हर व्यक्ति का मानवाधिकार है। विना तकनीकी वजह के किसी के लिए ये पाबंदियां मजबूरी में या जबर्दस्ती सोची या लागू की जाती हैं तो यह उसके मानवाधिकार पर चोट है।"
“बलात्कारी के डर से घर से मत निकलो, ऐसा कहने की बजाए बलात्कारी को क्यों नहीं रोका जाता कि तुम बलात्कार न करो?!”
July 15, 2010
इन्टरनेट पर कमेन्ट
इन्टरनेट पर कमेन्ट करने वाले लोगो पर एक रोचक आलेख हैं जिस मे नारी से सम्बंधित आलेखों पर कैसे कमेन्ट आते हैं दिया हैं आप आलेख इस लिंक पर पढ़ सकते हैं
लिंक
लिंक
July 14, 2010
माँ बनना कोई क्राइम नहीं हैं कि उसकी सजा दी जाये । “To punish a woman for becoming a mother is the mother of all ironies,”
माँ बनना कोई क्राइम नहीं हैं कि उसकी सजा दी जाये ।
एक बहुत अच्छी खबर उन महिला के लिये जिनको पढाई के बीच मे माँ बनना पड़ता हैं या जो बनना चाहती हैं ।
खबर विस्तार से यहाँ हैं
“To punish a woman for becoming a mother is the mother of all ironies,” said the Delhi High Court on Tuesday asking Delhi University (DU) to waive the attendance shortage of two law students who missed classes as they were in advanced stage of their pregnancies. The university had barred the two students from appearing in their semester-end exams. Though
he landmark ruling pertained just to the DU students, it can be cited as a precedent by all female students placed in identical situation across the country.
The court suggested the Bar Council of India to make rules for women students claiming relaxation on ground of maternity relief so that they are not deprived of appearing in the LLB examinations due to pregnancy.
The court drew strength from the Supreme Court’s April ruling in a case filed by south Indian actress S. Khusboo that “premarital sex is not an offence”.
She had challenged the criminal proceedings against her for comments favouring premarital sex.
Justice Kailash Gambhir said, “The society today is changing at a rapid pace and we must be in tune with the realities and not hold on to archaic social mores. Once such a right, however unpopular, is recognised, it cannot be ruled out that there can be more cases of girl students proceeding on maternity leave when while they are still in college.”
“Motherhood is not a medical condition but a promise. To punish a woman for becoming a mother would surely be the mother of all ironies,” Justice Gambhir added.
The order means that Vandana Kandari gets her LLB degree and Aarti Meena will be promoted to the fifth semester.
After a court order they were allowed to appear in the semester end exams and they cleared it. But their results were kept on hold till the court order on their petitions challenging penalising them for attendance shortage.
The court upheld the argument of R.K. Saini, the lawyer for the students, that the Constitution of India and the Maternity Benefit Act casts upon state to make adequate provisions for securing just and humane conditions of work and for maternity relief and the government has a duty to comply with it.
Its good that people are understanding that we need to come out of the archaic social mores. The system needs a revamp and change is coming in though slow yet its coming in . Many woman are forced to marry without completing education , I distinctly remember when i was doing graduation in 1981 one girl came directly from the wedding mandap to examination hall . I was amazed at her grit then to give exam after the wedding rituals which last for a full night ,
But today i understand it was not her grit but her मज़बूरी or HELPLESSNESS । She was not given equal rights .Such incidences are not rare but happening all the time so its good that at least the court is uphelding such case .
खबर हिंदी मे लिंक ये हैं
हाई कोर्ट ने कहा है कि अगर कोई फीमेल कैंडिडेट गर्भवती होने के कारण क्लास में नहीं आ पाती और इस कारण अटेंडेंस शॉर्ट होती है , तो इस आधार पर यूनिवर्सिटी अथवा कॉलेज द्वारा स्टूडेंट को उसी सेमेस्टर में रोकना संविधान के प्रावधानों की अनदेखी है। इस आधार पर उन्हें एग्जाम में बैठने से नहीं रोका जा सकता।
दिल्ली विश्वविद्यालय से लॉ कर रहीं दो स्टूडेंट की याचिका पर सुनवाई के दौरान हाई कोर्ट ने यह टिप्पणी की। हाई कोर्ट ने दोनों फीमेल लॉ स्टूडेंट की याचिका स्वीकार कर ली और बार काउंसिल ऑफ इंडिया को निर्देश दिया कि वह ऐसा नियम बनाएं , जिसमें प्रेग्नेंसी के आधार पर अटेंडेंस में छूट देने का आधार हो।
जस्टिस कैलाश गंभीर ने अपने फैसले में कहा कि प्रेग्नेंसी के कारण क्लास अटेंडेंस में कमी के कारण फीमेल स्टूडेंट को उसी सेमेस्टर में रोकना न सिर्फ भारतीय संविधान के अंतरात्मा के खिलाफ , है बल्कि महिला अधिकार के खिलाफ भी है। यह कहा जाता है कि मातृत्व भगवान का अनमोल उपहार है और इसे न समझने का दुस्साहस कोई नहीं कर सकता। प्रेगनेंट स्टूडेंट को अटेंडेंस में छूट न देना मातृत्व के खिलाफ अपराध होगा।
हाई कोर्ट ने कहा कि कोई प्रेगनेंट महिला से उसके मातृत्व की महानता की कीमत कैसे वसूल सकता है। मातृत्व कोई मेडिकल कंडिशन नहीं , बल्कि एक प्रतिबद्धता है। हम सब अपनी मां के कारण ही अस्तित्व में हैं और यह कैसी विडंबना होगी कि मां बनने के लिए मां को सजा दी जाए।
इतना ही नहीं, हाई कोर्ट ने एक कदम आगे बढ़ते हुए कहा कि सिंगल वीमिन की प्रेग्नेंसी पर भी शिक्षण संस्थानों को सहानुभूतिपूर्वक विचार करना चाहिए। अदालत ने कहा, ' सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप की भी छूट दी है और कहा है कि शादी से पहले सेक्स कोई अपराध नहीं है। '
जस्टिस गंभीर ने दोनों याचिकाकर्ता लॉ स्टूडेंट की अर्जी स्वीकार करते हुए निर्देश दिया कि उनके रिजल्ट डिक्लेयर किए जाएं और आगे की औपचारिकताएं पूरी की जाएं। साथ ही हाई कोर्ट ने बार काउंसिल ऑफ इंडिया को भी सुझाव दिया है कि वह प्रेग्नेंसी के कारण क्लास अटेंड करने में असमर्थ होने पर अटेंडेंस में आई कमी के मामले में ऐसे स्टूडेंट को छूट देने के बारे में नियम बनाए।
दिल्ली यूनिवर्सिटी की लॉ फैकल्टी की दो महिला स्टूडेंट समेत कुल 9 स्टूडेंट ने याचिका दायर कर अटेंडेंस में आई कमी के लिए विभिन्न कारण गिनाए थे और छूट की मांग की थी। हाई कोर्ट ने दोनों महिला स्टूडेंट के प्रेग्नेंसी के आधार को स्वीकार कर लिया , लेकिन अन्य 7 स्टूडेंट की अर्जी खारिज कर दी। इन सात स्टूडेंट्स ने अपनी कम अटेंडेंस के लिए अन्य मेडिकल कारण गिनाए थे।
एक स्टूडेंट ने अपनी अर्जी में कहा था कि जनवरी , 2009 में उन्हें बेबी हुआ और इस कारण वह क्लास अटेंड नहीं कर पाईं। ऐसे में उनकी कुल अटेंडेंस 54.3 फीसदी रही। दूसरी स्टूडेंट ने अपनी अर्जी में कहा कि 16 फरवरी , 2009 को उसे बच्ची हुई और उसकी कुल अटेंडेंस 53 फीसदी रही , जबकि बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने लॉ स्टूडेंट के लिए 66 फीसदी अटेंडेंस अनिवार्य कर रखी है। याचिकाकर्ता के वकील आर . के . सैनी ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद -42 के तहत प्रेग्नेंट लेडी को सुरक्षा दी गई है। इसके तहत उसे अधिकार है कि उसे सरकार सहूलियत देगी और उसके लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करेगी।
एक बहुत अच्छी खबर उन महिला के लिये जिनको पढाई के बीच मे माँ बनना पड़ता हैं या जो बनना चाहती हैं ।
खबर विस्तार से यहाँ हैं
“To punish a woman for becoming a mother is the mother of all ironies,” said the Delhi High Court on Tuesday asking Delhi University (DU) to waive the attendance shortage of two law students who missed classes as they were in advanced stage of their pregnancies. The university had barred the two students from appearing in their semester-end exams. Though
he landmark ruling pertained just to the DU students, it can be cited as a precedent by all female students placed in identical situation across the country.
The court suggested the Bar Council of India to make rules for women students claiming relaxation on ground of maternity relief so that they are not deprived of appearing in the LLB examinations due to pregnancy.
The court drew strength from the Supreme Court’s April ruling in a case filed by south Indian actress S. Khusboo that “premarital sex is not an offence”.
She had challenged the criminal proceedings against her for comments favouring premarital sex.
Justice Kailash Gambhir said, “The society today is changing at a rapid pace and we must be in tune with the realities and not hold on to archaic social mores. Once such a right, however unpopular, is recognised, it cannot be ruled out that there can be more cases of girl students proceeding on maternity leave when while they are still in college.”
“Motherhood is not a medical condition but a promise. To punish a woman for becoming a mother would surely be the mother of all ironies,” Justice Gambhir added.
The order means that Vandana Kandari gets her LLB degree and Aarti Meena will be promoted to the fifth semester.
After a court order they were allowed to appear in the semester end exams and they cleared it. But their results were kept on hold till the court order on their petitions challenging penalising them for attendance shortage.
The court upheld the argument of R.K. Saini, the lawyer for the students, that the Constitution of India and the Maternity Benefit Act casts upon state to make adequate provisions for securing just and humane conditions of work and for maternity relief and the government has a duty to comply with it.
Its good that people are understanding that we need to come out of the archaic social mores. The system needs a revamp and change is coming in though slow yet its coming in . Many woman are forced to marry without completing education , I distinctly remember when i was doing graduation in 1981 one girl came directly from the wedding mandap to examination hall . I was amazed at her grit then to give exam after the wedding rituals which last for a full night ,
But today i understand it was not her grit but her मज़बूरी or HELPLESSNESS । She was not given equal rights .Such incidences are not rare but happening all the time so its good that at least the court is uphelding such case .
खबर हिंदी मे लिंक ये हैं
हाई कोर्ट ने कहा है कि अगर कोई फीमेल कैंडिडेट गर्भवती होने के कारण क्लास में नहीं आ पाती और इस कारण अटेंडेंस शॉर्ट होती है , तो इस आधार पर यूनिवर्सिटी अथवा कॉलेज द्वारा स्टूडेंट को उसी सेमेस्टर में रोकना संविधान के प्रावधानों की अनदेखी है। इस आधार पर उन्हें एग्जाम में बैठने से नहीं रोका जा सकता।
दिल्ली विश्वविद्यालय से लॉ कर रहीं दो स्टूडेंट की याचिका पर सुनवाई के दौरान हाई कोर्ट ने यह टिप्पणी की। हाई कोर्ट ने दोनों फीमेल लॉ स्टूडेंट की याचिका स्वीकार कर ली और बार काउंसिल ऑफ इंडिया को निर्देश दिया कि वह ऐसा नियम बनाएं , जिसमें प्रेग्नेंसी के आधार पर अटेंडेंस में छूट देने का आधार हो।
जस्टिस कैलाश गंभीर ने अपने फैसले में कहा कि प्रेग्नेंसी के कारण क्लास अटेंडेंस में कमी के कारण फीमेल स्टूडेंट को उसी सेमेस्टर में रोकना न सिर्फ भारतीय संविधान के अंतरात्मा के खिलाफ , है बल्कि महिला अधिकार के खिलाफ भी है। यह कहा जाता है कि मातृत्व भगवान का अनमोल उपहार है और इसे न समझने का दुस्साहस कोई नहीं कर सकता। प्रेगनेंट स्टूडेंट को अटेंडेंस में छूट न देना मातृत्व के खिलाफ अपराध होगा।
हाई कोर्ट ने कहा कि कोई प्रेगनेंट महिला से उसके मातृत्व की महानता की कीमत कैसे वसूल सकता है। मातृत्व कोई मेडिकल कंडिशन नहीं , बल्कि एक प्रतिबद्धता है। हम सब अपनी मां के कारण ही अस्तित्व में हैं और यह कैसी विडंबना होगी कि मां बनने के लिए मां को सजा दी जाए।
इतना ही नहीं, हाई कोर्ट ने एक कदम आगे बढ़ते हुए कहा कि सिंगल वीमिन की प्रेग्नेंसी पर भी शिक्षण संस्थानों को सहानुभूतिपूर्वक विचार करना चाहिए। अदालत ने कहा, ' सुप्रीम कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप की भी छूट दी है और कहा है कि शादी से पहले सेक्स कोई अपराध नहीं है। '
जस्टिस गंभीर ने दोनों याचिकाकर्ता लॉ स्टूडेंट की अर्जी स्वीकार करते हुए निर्देश दिया कि उनके रिजल्ट डिक्लेयर किए जाएं और आगे की औपचारिकताएं पूरी की जाएं। साथ ही हाई कोर्ट ने बार काउंसिल ऑफ इंडिया को भी सुझाव दिया है कि वह प्रेग्नेंसी के कारण क्लास अटेंड करने में असमर्थ होने पर अटेंडेंस में आई कमी के मामले में ऐसे स्टूडेंट को छूट देने के बारे में नियम बनाए।
दिल्ली यूनिवर्सिटी की लॉ फैकल्टी की दो महिला स्टूडेंट समेत कुल 9 स्टूडेंट ने याचिका दायर कर अटेंडेंस में आई कमी के लिए विभिन्न कारण गिनाए थे और छूट की मांग की थी। हाई कोर्ट ने दोनों महिला स्टूडेंट के प्रेग्नेंसी के आधार को स्वीकार कर लिया , लेकिन अन्य 7 स्टूडेंट की अर्जी खारिज कर दी। इन सात स्टूडेंट्स ने अपनी कम अटेंडेंस के लिए अन्य मेडिकल कारण गिनाए थे।
एक स्टूडेंट ने अपनी अर्जी में कहा था कि जनवरी , 2009 में उन्हें बेबी हुआ और इस कारण वह क्लास अटेंड नहीं कर पाईं। ऐसे में उनकी कुल अटेंडेंस 54.3 फीसदी रही। दूसरी स्टूडेंट ने अपनी अर्जी में कहा कि 16 फरवरी , 2009 को उसे बच्ची हुई और उसकी कुल अटेंडेंस 53 फीसदी रही , जबकि बार काउंसिल ऑफ इंडिया ने लॉ स्टूडेंट के लिए 66 फीसदी अटेंडेंस अनिवार्य कर रखी है। याचिकाकर्ता के वकील आर . के . सैनी ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद -42 के तहत प्रेग्नेंट लेडी को सुरक्षा दी गई है। इसके तहत उसे अधिकार है कि उसे सरकार सहूलियत देगी और उसके लिए उपयुक्त वातावरण तैयार करेगी।
July 12, 2010
नयी पीढ़ी को दोष सब देते हैं पर जब संस्कार देने कि बात आती हैं तो ??
काजोल आज कल मेगी नूडल्स का विज्ञापन देती हैं । एक विज्ञापन मे वो एक हाथ मै चम्मच और दूसरे हाथ मे फोर्क ले कर बच्चो को मेगी नूडल्स को " खिला पिला" रही हैं । सूप को पीना हैं और नूडल्स को खाना हैं सो बच्चे दोनों हाथ से खा पी रहे हैं ।
हमेशा बच्चों को कहा जाता हैं कि खाना सीधे { राईट } हाथ से खाओ पर यहाँ वो दोनों हाथो का उपयोग कर रहे हैं ।
प्रोडक्ट बेचने के लिये एक गलत पद्धती का प्रचार किया किया जा रहा हैं ।
नयी पीढ़ी को दोष सब देते हैं पर जब संस्कार देने कि बात आती हैं तो अपनी गलती पैसा कमाने कि होड़ मे शायद ही काजोल को दिखे
हमेशा बच्चों को कहा जाता हैं कि खाना सीधे { राईट } हाथ से खाओ पर यहाँ वो दोनों हाथो का उपयोग कर रहे हैं ।
प्रोडक्ट बेचने के लिये एक गलत पद्धती का प्रचार किया किया जा रहा हैं ।
नयी पीढ़ी को दोष सब देते हैं पर जब संस्कार देने कि बात आती हैं तो अपनी गलती पैसा कमाने कि होड़ मे शायद ही काजोल को दिखे
July 10, 2010
*गंभीर विचार*
पिछले कुछ दिनों से एक बिना मतलब की छीटाकशी या निरर्थक बातों-लेखन से कुछ लोग न केवल अपना समय व्यर्थ कर रहे हैं बल्कि अपनी ओर दूसरों का ध्यान आकर्षित करने के लिए ये अनुचित कार्यों की *अति* कर रहे हैं ,जो उचित नहीं है. यदि हमारी शक्ति अच्छे कार्यों-विचारों की तरफ जाये तो सही होगा.
सार्थक सोच या निरर्थक विचार
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोये ,अपना तन शीतल करे, औरों को सुख होए.
अक्सर हर बात या वस्तु के दो पहलू होते हैं. अच्छा-बुरा, गलत-सही ,आनंद-विषाद, सत्य-असत्य, समझदार-नासमझदार, हार-जीत, होशियार- बेवकूफ, जानबूझकर-अनजाने में, इसी तरह और भी बहुत हैं. बुद्धिजीवी होकर भी कभी गलती हो जाती है और कभी अनजाने में अनचाही भूल कर बैठते हैं .पर जब जान-बूझकर कोई ऐसा काम लगातार किया जाये जो दूसरों के लिए अहितकर हो ,वेदना देनेवाला हो, नीचा दिखाने या चिढाने के लिए हो या घरेलू हिंसात्मक(बोली) प्रवृति लिए हो. तो ये सर्वथा वर्जित है. वास्तव में अक्षम्य हैं.
"सर्वप्रथम ऐसे कुछ गिने-चुने लोगों से सावधान रहें व अपना विवेक न खोएं क्योंकि उनका तो लेखन में या कार्यों में ऐसे कृतित्व से कोई वजन (वेट) ही नहीं है. वे अपने इन कुत्सित व गलत विचारों द्वारा दूसरों को केवल व्यग्र या क्रोधित करने की चेष्टा करते रहते हैं. ताकि उनपर दूसरे मनीषियों-माननीयों का ध्यान जाये. समझ लें ऐसे लोगों के पास वैचारिक शक्ति ही नहीं है कुछ अच्छा बोलने या सोचने की ,ध्यान न ही दें न कोई प्रतिक्रिया कभी भी जाहिर करें. संभवतः उनको स्वान्तः सुखाय का आनंद मिलता हो ,आप त्याग कर दीजिये उनके निरर्थक शब्दों को.
कथन कटु हो सकता है पर सत्य है. थोडा सा ज्ञान हासिल करके आजकल बहुतायत लोग बुद्धिमानों की श्रेणी में शामिल होने की चाहत रखते हैं पर जानकारी के अभाव में निरर्थक बातों या कामों से जानबूझकर अपने को बड़ा(ज्यादा महत्वपूर्ण) दिखाने के लिए बिना कुछ सोचे ऐसा करने की कोशिश करते हैं ,वे नहीं जानते कि ये उन्ही के लिए सही नहीं है।
क्या वे अपने से ही नजर मिला सकते हैं ? यदि अचानक सामने मिल जाएँ तो ?
महत्वपूर्ण - उनके पास सार्थक सोच ही नहीं होती वे ऐसा न मानें .हाँ निरर्थक विचार जो उनके मन में भरे पड़े हैं उसका उपयोग न करें .अपना मन-विचार श्रेष्ट कर्मों में लगायें ,तो न केवल उनका लेखन+ब्लॉग बल्कि जीवन भी सार्थक होगा. सभी उनको पढ़ना भी चाहेंगे।
स्वयं अपने व अपनों की नज़रों में बहुत ऊँचा उठ पाएंगे. अपनी योग्यता-बौद्धिक क्षमता को सही दिशा में लगाकर निश्चय ही उत्क्रष्ट्ता की ओर बढ़ेंगे व अपनी बुद्धिमत्ता सही स्वरूप में साबित कर सकेंगे.
हमारे भारत की परंपरा-संस्कार ये नहीं सिखाते कि अनर्गल प्रलाप ,गलत-अविवेकपूर्ण *शब्दों- द्रश्यों* का प्रयोग हम किसी के लिए भी न करें या गलत सोचें. किसी भी बात को सही तरह से कहा जा सकता है व उसका असर ज्यादा रहकर महत्वपूर्ण बनता है.
अपनी भाषा व कार्यों में शाब्दिक गरिमा-गौरव बनाये रखकर ही हमें आपस में एक-दूसरे का सम्मान करना सीखना ही होगा.
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोये , अपना तन शीतल करे ओरों को सुख होए .
आपसी प्रतिद्वंदिता, *एक दूसरे का भेद-भाव* या नीचा दिखाने की कोशिश किये बिना क्यों न हम अपना ज्ञान, जानकारी, श्रेष्टता ,अनुभव सहयोग करें+बाटें. ज्ञातव्य है हमारे अधिकतर भाई-बहनें कर भी रहे हैं. परोक्ष-अपरोक्ष रूप में तो हम सब एक दूसरे से वैचारिक-मानसिक रूप में जुड़े हैं. विज्ञान के वरदान से इन्टरनेट बहुत अच्छा माध्यम बन चूका है. कुछ पहले समय तक तो हमें इतना बढ़िया मौका ही नहीं मिलता रहा है कि हम सब अपने विचार -मंतव्य आसानी से बाँट सकें.
संसार के अथाह ज्ञान सागर व मन की गहराई में तो जाने कितना विशाल भंडार -खजाना पड़ा है कि हम उसको सामूहिक समेटने व सामने लाने का प्रयास करें तो भी कम पड़ेगा पर हम सब कितने ऊँचाइयों तक पहुँच सकते हैं सोच नहींसकते.
कोई भी किसी से कम ज्यादा नहीं है ,आपस में ही होड़ लेने की आवश्यकता नहीं होती ,सभी अपने-अपने क्षेत्र-कार्य में सर्वश्रेष्ट हैं. हाँ एक-दूसरे की कमियों-बुराइयों-पिछड़ी-पिछली बातों पर ध्यान न देकर कुछ प्रशंसनीय प्रयास किया जाना चाहिए जो हमारी ही योग्यता को प्रदर्शित न करे बल्कि दूसरे लोगों के लिए प्रेरणा बने व हमें उन पर गर्व हो वे इसी के लिए प्रतिबद्ध रहें.
कबीर मन निर्मल भये जैसे गंगा नीर ,पाछे-पाछे हर फिरे कहत कबीर कबीर.
तात्पर्य हम अपना मन-दिमाग निर्मल-सही दिशा में रखें तो लोग स्वयं आपको पढना चाहेंगे. हम सभी लेखकों-लेखिकाओं समूह के लिए हम सभी की ओर से,
अलका मधुसूदन पटेल , *लेखिका -साहित्यकार*
पिछले कुछ दिनों से एक बिना मतलब की छीटाकशी या निरर्थक बातों-लेखन से कुछ लोग न केवल अपना समय व्यर्थ कर रहे हैं बल्कि अपनी ओर दूसरों का ध्यान आकर्षित करने के लिए ये अनुचित कार्यों की *अति* कर रहे हैं ,जो उचित नहीं है. यदि हमारी शक्ति अच्छे कार्यों-विचारों की तरफ जाये तो सही होगा.
सार्थक सोच या निरर्थक विचार
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोये ,अपना तन शीतल करे, औरों को सुख होए.
अक्सर हर बात या वस्तु के दो पहलू होते हैं. अच्छा-बुरा, गलत-सही ,आनंद-विषाद, सत्य-असत्य, समझदार-नासमझदार, हार-जीत, होशियार- बेवकूफ, जानबूझकर-अनजाने में, इसी तरह और भी बहुत हैं. बुद्धिजीवी होकर भी कभी गलती हो जाती है और कभी अनजाने में अनचाही भूल कर बैठते हैं .पर जब जान-बूझकर कोई ऐसा काम लगातार किया जाये जो दूसरों के लिए अहितकर हो ,वेदना देनेवाला हो, नीचा दिखाने या चिढाने के लिए हो या घरेलू हिंसात्मक(बोली) प्रवृति लिए हो. तो ये सर्वथा वर्जित है. वास्तव में अक्षम्य हैं.
"सर्वप्रथम ऐसे कुछ गिने-चुने लोगों से सावधान रहें व अपना विवेक न खोएं क्योंकि उनका तो लेखन में या कार्यों में ऐसे कृतित्व से कोई वजन (वेट) ही नहीं है. वे अपने इन कुत्सित व गलत विचारों द्वारा दूसरों को केवल व्यग्र या क्रोधित करने की चेष्टा करते रहते हैं. ताकि उनपर दूसरे मनीषियों-माननीयों का ध्यान जाये. समझ लें ऐसे लोगों के पास वैचारिक शक्ति ही नहीं है कुछ अच्छा बोलने या सोचने की ,ध्यान न ही दें न कोई प्रतिक्रिया कभी भी जाहिर करें. संभवतः उनको स्वान्तः सुखाय का आनंद मिलता हो ,आप त्याग कर दीजिये उनके निरर्थक शब्दों को.
कथन कटु हो सकता है पर सत्य है. थोडा सा ज्ञान हासिल करके आजकल बहुतायत लोग बुद्धिमानों की श्रेणी में शामिल होने की चाहत रखते हैं पर जानकारी के अभाव में निरर्थक बातों या कामों से जानबूझकर अपने को बड़ा(ज्यादा महत्वपूर्ण) दिखाने के लिए बिना कुछ सोचे ऐसा करने की कोशिश करते हैं ,वे नहीं जानते कि ये उन्ही के लिए सही नहीं है।
क्या वे अपने से ही नजर मिला सकते हैं ? यदि अचानक सामने मिल जाएँ तो ?
महत्वपूर्ण - उनके पास सार्थक सोच ही नहीं होती वे ऐसा न मानें .हाँ निरर्थक विचार जो उनके मन में भरे पड़े हैं उसका उपयोग न करें .अपना मन-विचार श्रेष्ट कर्मों में लगायें ,तो न केवल उनका लेखन+ब्लॉग बल्कि जीवन भी सार्थक होगा. सभी उनको पढ़ना भी चाहेंगे।
स्वयं अपने व अपनों की नज़रों में बहुत ऊँचा उठ पाएंगे. अपनी योग्यता-बौद्धिक क्षमता को सही दिशा में लगाकर निश्चय ही उत्क्रष्ट्ता की ओर बढ़ेंगे व अपनी बुद्धिमत्ता सही स्वरूप में साबित कर सकेंगे.
हमारे भारत की परंपरा-संस्कार ये नहीं सिखाते कि अनर्गल प्रलाप ,गलत-अविवेकपूर्ण *शब्दों- द्रश्यों* का प्रयोग हम किसी के लिए भी न करें या गलत सोचें. किसी भी बात को सही तरह से कहा जा सकता है व उसका असर ज्यादा रहकर महत्वपूर्ण बनता है.
अपनी भाषा व कार्यों में शाब्दिक गरिमा-गौरव बनाये रखकर ही हमें आपस में एक-दूसरे का सम्मान करना सीखना ही होगा.
ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोये , अपना तन शीतल करे ओरों को सुख होए .
आपसी प्रतिद्वंदिता, *एक दूसरे का भेद-भाव* या नीचा दिखाने की कोशिश किये बिना क्यों न हम अपना ज्ञान, जानकारी, श्रेष्टता ,अनुभव सहयोग करें+बाटें. ज्ञातव्य है हमारे अधिकतर भाई-बहनें कर भी रहे हैं. परोक्ष-अपरोक्ष रूप में तो हम सब एक दूसरे से वैचारिक-मानसिक रूप में जुड़े हैं. विज्ञान के वरदान से इन्टरनेट बहुत अच्छा माध्यम बन चूका है. कुछ पहले समय तक तो हमें इतना बढ़िया मौका ही नहीं मिलता रहा है कि हम सब अपने विचार -मंतव्य आसानी से बाँट सकें.
संसार के अथाह ज्ञान सागर व मन की गहराई में तो जाने कितना विशाल भंडार -खजाना पड़ा है कि हम उसको सामूहिक समेटने व सामने लाने का प्रयास करें तो भी कम पड़ेगा पर हम सब कितने ऊँचाइयों तक पहुँच सकते हैं सोच नहींसकते.
कोई भी किसी से कम ज्यादा नहीं है ,आपस में ही होड़ लेने की आवश्यकता नहीं होती ,सभी अपने-अपने क्षेत्र-कार्य में सर्वश्रेष्ट हैं. हाँ एक-दूसरे की कमियों-बुराइयों-पिछड़ी-पिछली बातों पर ध्यान न देकर कुछ प्रशंसनीय प्रयास किया जाना चाहिए जो हमारी ही योग्यता को प्रदर्शित न करे बल्कि दूसरे लोगों के लिए प्रेरणा बने व हमें उन पर गर्व हो वे इसी के लिए प्रतिबद्ध रहें.
कबीर मन निर्मल भये जैसे गंगा नीर ,पाछे-पाछे हर फिरे कहत कबीर कबीर.
तात्पर्य हम अपना मन-दिमाग निर्मल-सही दिशा में रखें तो लोग स्वयं आपको पढना चाहेंगे. हम सभी लेखकों-लेखिकाओं समूह के लिए हम सभी की ओर से,
अलका मधुसूदन पटेल , *लेखिका -साहित्यकार*
July 04, 2010
July 03, 2010
Subscribe to:
Posts (Atom)
copyright
All post are covered under copy right law . Any one who wants to use the content has to take permission of the author before reproducing the post in full or part in blog medium or print medium .Indian Copyright Rules
Popular Posts
-
आज मैं आप सभी को जिस विषय में बताने जा रही हूँ उस विषय पर बात करना भारतीय परंपरा में कोई उचित नहीं समझता क्योंकि मनु के अनुसार कन्या एक बा...
-
नारी सशक्तिकरण का मतलब नारी को सशक्त करना नहीं हैं । नारी सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट का मतलब फेमिनिस्म भी नहीं हैं । नारी सशक्तिकरण या ...
-
Women empowerment in India is a challenging task as we need to acknowledge the fact that gender based discrimination is a deep rooted s...
-
लीजिये आप कहेगे ये क्या बात हुई ??? बहू के क़ानूनी अधिकार तो ससुराल मे उसके पति के अधिकार के नीचे आ ही गए , यानी बेटे के क़ानूनी अधिकार हैं...
-
भारतीय समाज की सामाजिक व्यवस्था के अनुसार बेटी विदा होकर पति के घर ही जाती है. उसके माँ बाप उसके लालन प...
-
आईये आप को मिलवाए कुछ अविवाहित महिलाओ से जो तीस के ऊपर हैं { अब सुखी - दुखी , खुश , ना खुश की परिभाषा तो सब के लिये अलग अलग होती हैं } और अप...
-
Field Name Year (Muslim) Ruler of India Razia Sultana (1236-1240) Advocate Cornelia Sorabji (1894) Ambassador Vijayalakshmi Pa...
-
नारी ब्लॉग सक्रियता ५ अप्रैल २००८ - से अब तक पढ़ा गया १०७५६४ फोलोवर ४२५ सदस्य ६० ब्लॉग पढ़ रही थी एक ब्लॉग पर एक पोस्ट देखी ज...
-
वैदिक काल से अब तक नारी की यात्रा .. जब कुछ समय पहले मैंने वेदों को पढ़ना शुरू किया तो ऋग्वेद में यह पढ़ा की वैदिक काल में नारियां बहुत विदु...
-
प्रश्न : -- नारी सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट {woman empowerment } का क्या मतलब हैं ?? "नारी सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट " ...