नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

April 29, 2009

मुझे मेरे समाज का यह दोगलापन समझ नही आता ..क्या आपको आता है ?

यह उन दिनों की बात है जब, मैं बारहवीं कक्षा के अंतिम वर्ष में थी. एक नेताजी ने कुछ स्त्री विरोधी बाते कह दी. चारो ओर से विरोध में स्वर उठने थे उठे. उन दिनों मेरा सामाजिक सरोकार जरा कम हुआ करता था. सीनियर लड़कियों ने उपरोक्त नेताजी को अपमानित करने के लिए साडी और चूड़ी भेजने का एलान किया. मैंने सोंचा इनकी सोंच का भठ्ठा ऐसे ही तो नही बैठ सकता, थोडी खोज-बिन करने पर जानकारी मिली की सामने के ब्वायज कॉलेज के लड़कों ने इनकी बुद्धि के ताबूत में आंखरी किल ठोंकी है. उन्ही के सहयोग और सह पर यह आयोजन हो रहा है. आनन -फानन में स्थानीय मिडिया को भी बुलाया गया. मुझे भी खबर मिली..मैं हमेसा की तरह १० मिनट लेट से (आयोजनों में देर से पहुँचने की बुरी आदत की शिकार हूँ ) पहुंची. मैंने जो दृश्य सामने देखा मेरा दिमाग उसे स्वीकार नही कर पाया. बैनर पोस्टर टंगे थे नेता का नाम लेकर "चुल्लू भर पानी में डूब मरो " टाइप...और सामने साडियां और चूडियाँ पड़ी थी.
छात्र नेताओं को तो मैंने कुछ नही कहा. मैंने महिला कॉलेज की छात्राओं से पूछा,
-"आप इस नेता को स्त्रीत्व की यह निशानियाँ भेज कर अपमानित करना चाहती हैं, क्या मैंने सही समझा ?"
जवाब आया -"हाँ, तुमने सही समझा"
-"यानि की स्त्री होना या यह स्त्रीत्व चिन्ह धारण करना शर्म से डूब मरने की बात है, आपने खुद को क्या समझ कर यह आयोजन यहाँ किया है?"
सब लोग चुप हो गए. मैंने उसी वक्त उठ कर घर चली आई. दोस्त ने बताया की जैसे - तैसे नजरें नीची करके आयोजन निपटा और लोग अपने घर चले गए.
मैं तब से अब तक सोंचती हूँ ..कभी किसी स्त्री को अपमानित या उसका सामाजिक बहिष्कार करने के लिए पुरुष के कपडे क्यों नही भेजे जाते?
क्यों एक तरफ लोग कहते हैं यह गहने -कपडे हमारी परम्परा है ..और दूसरी तरफ इसी परम्परा को अपमानित करने का साधन बनातें हैं? स्त्रीत्व को स्त्री के सामने गौरवशाली होने का पैमाना बताया जाता है, पर पुरुषों के बीच "क्या चूडियाँ पहन रखी है तुमने", "अरे क्या लड़कियों की तरह रोता है " जैसे मुहावरे बोले जाते हैं ..फिर किस तरह स्त्रीत्व को मैं गौरवशाली होने का पैमाना मानूं ?
मुझे मेरे समाज का यह दोगलापन समझ नही आता ॥क्या आपको आता है ?

लवली की इस पोस्ट पर कमेन्ट उसके ब्लॉग पर ही दे ताकि एक संवाद वहाँ हो सकेकमेन्ट के लिये ऊपर दिये लिंक पर पोस्ट करे

विज्ञापन में नारी का उद्गम क्या रहा? ईमेल से प्राप्त प्रतिक्रिया पढे

विज्ञापन में नारी का उद्गम क्या रहा?
देखिए कई बार सवाल ऐसे होते हैं जिनका उत्तर क्या हो कहा नहीं जा सकता। विज्ञापन में नारी की शुरुआत या फिर विज्ञापन में नारी की नग्नता की शुरुआत या फिर विज्ञापन में पुरुष सामानों के लिए भी नारी की शुरुआत? देखा जाये तो यह सवाल विषय को भटकाने का काम कर सकते हैं। ऐसे बहुत से सवाल हैं जिनके आधार पर महिलायें अपने खिलाफ उठी आवाज को मोथरा करने का दम रखतीं हैं पर सत्यता को स्वीकार करना नहीं चाहतीं।
जहाँ तक विज्ञापनों में नारी की शुरुआत का सवाल है तो इसका कोई ठोस प्रमाण हमारे पास नहीं है (वैसे होगा अवश्य) फिर भी समाजशास्त्रीय अध्ययन के आधार पर इतना कहा जा सकता है कि नारी को सदा से ही कोमल, कांत, सौछनयैबोधक, सुवर्ण आदि समझा गया है। प्राचीन काल में जब इस प्रकार की अवधारणा काम करती होगी तो उसके पीछे नारी की छवि को दूषित करने का विचार नहीं रहा होगा।
इसी विचार के वशीभूत ही विज्ञापनों में नारियों की शुरुआत हुई होगी। जितना हमें ध्यान है जबकि सबसे पहले हमने टीवी पर विज्ञापन देखे थे (बहुत छोटे में) उस समय नारी की छवि को विज्ञापनों में नग्न रूप में कम से कम या फिर नहीं के बराबर दिखाया जाता था। एक इस बात से शायद नारियाँ भी इंकार नहीं कर सकें कि सजी हुई स्त्री को देखने की जितनी लालसा पुरुषों में होती है उससे कहीं कम महिलाओं में भी नहीं होती। वैसे भी यह सत्य है कि शारीरिक हाव-भाव से लेकर पहनावे और केश सज्जा तक में महिलाओं के पास पुरुषों से अधिक अवसर रहे हैं।
वस्त्रों की बात करें तो साड़ियों के विविध स्वरूप महिलाओं के पहनावे में दिखते हैं। सलवार-कुर्ता की बात करें तो वहाँ भी विविध प्रकार के स्टाइल काम करते दिखते हैं। विज्ञापनों में, फिल्मों में बिकनी की चर्चा भी होती है तो उसके भी कई सारे रूप सामने दिखते हैं। घर में ही महिलायें नाइटी के कितने अधिक स्वरूप को दिखातीं हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं है। इसके अलावा स्कर्ट-टाप, मिडी आदि परम्परागत नामों के अलावा भी बहुत से आधुनिक नाम भी महिलाओं के पहनावे में जुड़ गये हैं।
ठीक इसी प्रकार से केश सज्जा में, चेहरे की सज्जा में, शारीरिक सज्जा में भी महिलाओं की विविधता किसी से छिपी नहीं है। इन सबने महिलाओं की सुंदरता को अप्रतिम बनाया है। सम्भव है कि इसी सुंदरता को भुनाने के लिए पूर्व में विज्ञापन निर्माता-निर्देशकों ने महिलाओं की, माडल्स की मजबूरी का फायदा उठाया हो किन्तु बाद में महिलाओं ने अपनी बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए, विज्ञापन निर्माता-निर्देशकों ने अपने लाभ को देखते हुए विज्ञापनों में नारियों को ही आधार बना लिया। यहाँ एक बात माननी होगी कि एक महिला यदि किसी सुंदर महिला की सुंदरता से जलन रखती है तो दूसरी ओर उसकी सुंदरता को भरपूर तरीके से निहारती भी है। इसी कारण से पुरुष वर्ग के साथ-साथ एक महिला माडल दूसरी महिलाओं के लिए भी सेक्स अपील का, दर्शक बोध का आभास कराती है।
अब यदि बात करें विज्ञापन में नारी की नग्नता की, कम से कमतर होते जा रहे कपड़ों की जो आम जीवन में भी आसानी से दिखाई दे रहे हैं तो किसी अन्य को वाकई कोई अधिकार नहीं कि किसने क्या पहना, किसे क्या पहनना चाहिए यह तय करे। पर क्या यही धारणा माँ-बाप भी लागू होती है? क्या एक माता-पिता भी यह तय करने के अधिकारी नहीं कि उसकी जवान होती बेटी के किस प्रकार के वस्त्र उसको नंगा कर रहे हैं और किस प्रकार के वस्त्र उसकी सुंदरता को बढ़ा रहे हैं? देखा जा रहा है कि अब समाज में जिस प्रकार से विचलन की स्थिति सम्बन्धों में आती जा रही है, माता-पिता के साये में बेटा हो या बेटी अब गुलाम दिखते हैं तो जाहिर है कि वस्त्र चयन का अधिकार माता-पिता खो चुके हैं।
विज्ञापनों में नारियों की भौंड़ी उपस्थिति को पुरुष वर्ग द्वारा नहीं रोका जा सकता है। देखा जाये तो यह भी सत्य है कि उसे अब महिलाओं द्वारा भी नहीं रोका जा सकता है। कुछ अति जागरूक महिलायें जो अपने पद और प्रतिष्ठा की आड़ में गैर कानूनी धंधों, काल-गर्ल रैकेट में लगीं हैं (आप माफ करेंगीं इस बात पर किन्तु सत्यता इतनी ही वीभत्स है, इसे हर कोई जानता है पर स्वीकारना कोई नहीं चाहता) वे भी नहीं चाहतीं कि महिलायें विज्ञापनों में या आम जीवन में अपनी नग्नता को छोड़ दें। यदि ऐसा होता है तो उनके ग्राहकों को कौन खुश करेगा? विज्ञापनों में नारियों की उपस्थित से ऐतराज न होकर उनके भौंड़े प्रदर्शन पर आपत्ति होनी चाहिए। सवाल यह कि आपत्ति कौन करे? या तो स्वयं महिला संसार, किसी भी महिला के माता-पिता या फिर समाज? आज हालात ऐसे हैं कि जो भी आपत्ति करे वहीं महिला विरोधी, नारी स्वतन्त्रता का विरोधी, स्त्री-सशक्तिकरण का विरोधी। वैसे आपको और अन्य नारीवादियों को, महिला सशक्तिकरण की पहरुआ महिलाओं को बुरा न लगे तो लगता है कि विज्ञापनों से, फिल्मों से, समाज से महिला नग्नता समाप्त या कम होने वाली नहीं है। इससे एक तो बैठे-बिठाये विज्ञापन मिल रहा है; धन-दौलत मिल रही है; शारीरिक सुख मिल रहा है; सुविधायें मिल रहीं हैं और तो और जिन्दगी भर गुलामी कराने वाला पुरुष वर्ग लार टपकाते चारों ओर घूमते दिख रहा है। इससे बड़ा स्त्री-सशक्तिकरण का उदाहरण कहाँ देखने को मिलेगा? जब किसी दिन अनैतिक सम्बन्धों, बिना विवाह के माँ बनती बेटियों, यौनजनित बीमारियों से मिलती असमय मौत, सामाजिक प्रताड़ना के कारण स्वयं महिलायें ही कहतीं दिखेंगीं ‘‘उफ! अब और नहीं’’ शायद तब ही इसे रोका जा सकेगा? इसमें भी अभी बहुत समय लगेगा, क्योंकि हमारे समाज में तो महिला नग्नता की अभी शुरुआत ही हुई है।
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डा0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर

April 27, 2009

विज्ञापन मे नारी -- क्यूँ ??

विज्ञापन मे नारी की छवि को लेकर , उसके वस्त्रो को लेकर बहुत बार बहुत सी बाते होती हैं । आज कल चीयर लीडर्स को भी देख के कई सवाल मन मे उठते हैं ।

विज्ञापन मे नारी को क्यूँ इतनी प्रमुखता से दिखाया जाता हैं । क्यूँ हर बार उसके शरीर को प्रर्दशित किया जाता हैं चाहे बिक कुछ भी रहा हो ।
क्या हैं इस मानसिकता के पीछे ?? आज इस पर विचार मिलते आपके तो कुछ बात आगे बढ़ती । अगर गलती खोजना बहुत आसन हैं तो क्यूँ होता हैं बताना भी आसन ही होना चाहिये . कोशिश कर के देखे ।

April 26, 2009

नारी ब्लॉग का वर्ड प्रेस पर मिर्रोर ब्लॉग कैसे बनाए ??

नारी ब्लॉग को वर्ड प्रेस पर भी बनाना चाहती हूँ । पूरा ब्लॉग बिना यहाँ मिटाए वहां कैसे ले जाया जाता हैं इस तकनीक की जानकारी आसन शब्दों मे बांटे आभार होगा ।

April 24, 2009

कल की पोस्ट पर जो संवाद हुआ उसको यहाँ पढे ,

कल की पोस्ट क्या पुरूष का कोई शील , कोई अस्मत नहीं होती ? ये हमेशा अस्मत नारी की ही क्यूँ लुटती हैं और शील नारी का ही क्यूँ भंग होता हैं ? पर आये कमेन्ट पढे और अपनी राय भी दे ।

12 Comments:

Vivek Rastogi said...

बहुत ही अच्छा सवाल उठाया है आपने "पुरुष का शील", शी्ल पुरुष का भी होता है पर समाज और कानून यह सोचता है कि चूँकि पुरुष शक्तिशाली होता है और नारी अबला इसलिये पुरुष के शील का कोई सम्मान नहीं है।

क्या आपने कभी सुना है कि किसी महिला ने फ़लाने पुरुष का शीलहरण कर लिया नहीं ना, वो इसलिये क्योंकि यह जनधारणा है कि पुरुष का कोई शील नहीं होता है वो तो कहीं भी अपना मुँह काला कर सकता है और उसकी आत्मा भी कलंकित नहीं होती, क्योंकि आत्मा भी पुरुष की ही शक्तिशाली होती है, परंतु अगर नारी का शीलहरण होता है तो नारी की आत्मा कलंकित हो जाती है और वो जी नहीं पाती है और हमारा समाज उसे जीने लायक नहीं छोड़्ता। वहीं जो शक्तिशाली पुरुष नारी का शीलहरण करता है वह कुख्यात हो जाता है हालांकि समाज उसे भी सम्मान नहीं देता है।

अस्मत पुरु्ष की कोई नारी लूट ले तो वह अवैध संबंध या मजा ले रहे हैं कहकर हमारे तथाकथित समाज के ठेकेदार उस पुरुष और नारी को भी जीने नहीं देंगे। स्वतंत्रता के ६० सालों के इतिहास में झांककर देख लें तो शायद ही किसी कोर्ट या पुलिस स्टेशन में इस तरह का मामला मिले।

शादी के बाद अगर पुरुष नारी के साथ जबरदस्ती करे तो नारी उस पर शीलहरण का दावा कर सकती है, हमारी सामाजिक और कानूनी व्यवस्था ही ऐसी है कि अगर यही सब पुरुष के साथ होता है तो समाज तब भी नारी का ही साथ देगा और नारी तब भी दा्वा ठोक सकती है कि इसमें पौरुष नही है। और सबका फ़ैसला नारी के समर्थन में ही होगा।

शील पुरुष का भी होता है और भंग भी होता है परंतु जरुरत है समाज और का्नून के नजरिये के बदलने की ।

अफ़लातून said...

अपनी एक अंग्रेजी किताब में ’शील’ शब्द को समझाने के लिए लोहिया ने कहा था 'continuity of character' - चरित्र का सातत्य !

श्यामल सुमन said...

शील दोनों का हरण होता है बस इतना समझ ले।
प्रश्न मौजू है कि अँगुली इक तरफ क्यों उठ रही है?

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

dhiru singh {धीरू सिंह} said...

होती है ना पुरुष की अस्मत -उसकी माँ ,बहिन ,पत्नी, बेटी

मीनाक्षी said...

शील और अस्मत पुरुष के लिए भी महत्त्वपूर्ण है लेकिन सिर्फ उन पुरुषो के लिए जो नारी के शील और अस्मत को मान देते हैं.

Anil said...

पुरुषों का शीलहरण भी होते सुना है। तब्बू की एक फिल्म थी, जिसमें १३-१४ साल के एक लड़के का शीलहरण दर्शाया गया था।

नारी द्वारा पुरुष के "शीलहरण" के भी मौके होते हैं, लेकिन वे दूसरे तरह के होते हैं, जैसे कि थप्पड़ या सैंडलों का प्रयोग।

राजकुमार ग्वालानी said...

बहुत ही जायज सवाल उठाया है आपने, इसके लिए आप बधाई की पात्र हैं। हमें याद है आज से कोई 23 साल पहले 1986 में जब हम लॉ कालॅजे में पढ़ते थे तो हमने एक बार अपने प्रोफेसर से एक सवाल किया था कि अगर कोई महिला या फिर महिलाओं का समूह किसी पुरुष के साथ बलात्कार कर दे तो उसको क्या सजा मिलेगी। हमारे इस सवाल पर प्रोफेसर ने जवाब दिया था कि भारतीय संविधान में ऐसी कोई धारा नहीं है। तब हमने उनके सामने उस समय जलगांव और भिलाई में हुए दो ऐसे मामले रखे थे जिसमें कुछ लड़कियों ने मिलकर एक-एक लड़के का बलात्कार किया था। ऐसे और कई मामले होते हैं जब लड़कियों की तरह की कुछ लड़कों के साथ गंैगरेप होते हैं, पर ऐसे मामले सामने नहीं आ पाते हैं। जलगांव और भिलाई के मामले इसलिए सामने आए थे क्योंकि उनमें लड़कों की मौत हो गई थी। इन मामलों में आरोपी लड़कियों पर बलात्कार की कोई धारा नहीं लगी थी सिर्फ हत्या का धारा 302 लगी थी। हमने इन उदाहरणों के साथ प्रोफेसर से एक सवाल यह भी किया था कि आखिर भारतीय संविधान में ऐसे मामलों के लिए सजा क्यों नहीं है, तब उन्होंने जवाब दिया था कि भारत में पुरुष को बलशाली माना गया है इसलिए ऐसा कोई प्रावधान संविधान में नहीं है। यह बात वास्तव में गले नहीं उतरती है कि पुरुष तो बलशाली हैं इसलिए उनकी शील का हरण नहीं हो सकता है। अगर पुरुष को जलगांव और भिलाई कांड की तरह ही एक साथ कई महिलाएं घेर लें तो वह अकेले बेचारा पुरुष क्या अबला नारी की तरह अबला पुरुष नहीं हो जाएगा। पुरुष की शील का मुद्दा एक ऐसा मुद्दा है जिस पर काफी लंबी-चौड़ी बहस हो सकती है। इस बहस को छेडऩे के लिए एक बार फिर से आपका आभार रचना जी।

ise mat padhna said...

abla hotihai nari hind ke samvidhan me ,
warna bina sheel ke nahi paida hota purush is jahaan me .
par gar than le nari pratishodh apne apmaan me ,
to ho jyega parivartan sheel haran ka hind ke samvidhaan me .
mukesh pandey "chandan "

दिनेशराय द्विवेदी Dineshrai Dwivedi said...

आप के इस प्रश्न का सीधा संबंध शास्त्री जी के आलेख से है। मैं ने वहाँ एक टिप्पणी छोड़ी है संदर्भ के लिए उस के कुछ तथ्य यहाँ भी रख रहा हूँ....

सारा विवाद अस्मत शब्द में छिपा है। केवल स्त्री के लिए अस्मत शब्द का प्रयोग होता है। वस्तुतः समाज विकास के दौर में जब संग्रहणीय संपत्ति अस्तित्व मे आई और उस के उत्तराधिकार का प्रश्न खड़ा हुआ तो स्त्री की संपत्ति का अधिकार तो उस की संतानो को दिया जा सकता था। फिर यह प्रश्न उठा कि पुरुष की संतान कौन? इस प्रश्न के निर्धारण ने बहुत झगड़े खड़े किए। जब तक गर्भ धारण से संतान की उत्पत्ति तक स्त्री किसी एक पुरूष के अधीन न रहे तब तक संतान के पितृत्व का निर्धारण संभव नहीं था। इसी ने विवाह संस्था के उत्पन्न होने की भूमिका अदा की और स्त्री की अस्मत को जन्म दिया।

अब स्त्री भी वैसे ही व्यवहार की अपेक्षता पुरुषों से करती है। तो पुरुषों और पितृसत्तात्मक समाज के लिए संकट पैदा हो जाता है। वे खुद को कठगरे में खड़ा महसूस करते हैं। यह वर्तमान सामाजिक व्यवस्था का बड़ा अंतर्विरोध है। इसे हल होने में बहुत समय और परिवर्तन चाहिए।

नीरज गोस्वामी said...

बहुत सार्थक बहस की शुरुआत की है आपने...
नीरज

डॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...

रचना जी इस बार भी आप कुछ नया करतीं दिखीं, बधाई। इस तरह के सवाल पर एक बात स्पष्ट करनी होगी कि शील का अर्थ क्या लगाया जाता है-स्त्री-पुरुष- दोनों के संदर्भ में?
शील जैसी शब्दावली यदि चरित्र के हरण से है तो वह तो क्षण-प्रतिक्षण हर व्यक्ति का हो रहा है।
शील हरण का तात्पर्य यदि शारीरिक शोशण से है तो वह भी स्त्री और पुरुष दोनों का हो रहा है।
शील भंग का अर्थ यदि शारीरिक समागम के संदर्भ में है तो यकीनन वह स्त्रियों का अधिक और पुरुषों का कम होता है, पर होता अवश्य है।
रही बात महिला के शील भंग होने की तो हमारी मीडिया और समाज का ऐसी घटनाओं के प्रति रवैया ही कुछ अलग है। समाचार यह नहीं बनता कि एक पुरुष ने महिला के साथ बलात्कार किया। खबर बनती है कि एक दलित महिला की इज्जत लुटी, नाबालिग लड़की की इज्जत लूटी, दबंगों ने महिला की अस्मत लूटी...वगैरह, वगैरह। क्या वाकई इज्जत लुटना-लूटना जैसी शब्दावली जायज है? स्त्री के शारीरिक शोषण को दर्शाना ही माकूल नहीं? और तो और इन खबरों को बड़ी ही चटपट बना कर पेश भी किया जाता है।
रही बात पुरुष शील हरण की तो यदि इसका तात्पर्य शारीरिक समागम से है, यौनिक सुख से है तो इसकी अवधारणा को व्र महिलायें, स्त्रियाँ, लड़कियाँ भली-भांति प्रस्तुत कर सकतीं हैं जो हास्टल में रहतीं रहीं हैं, रह रहीं हैं।
आये दिन तांगे वाले, रिक्शे वाले गरीब आदमी इनका शिकार होते हैं पर कहा जाता है न कि दोष भी कमजोर को और सुनवाई भी कमजोर की....

April 23, 2009

क्या पुरूष का कोई शील , कोई अस्मत नहीं होती ?

क्या पुरूष का कोई शील , कोई अस्मत नहीं होती ?
ये हमेशा अस्मत नारी की ही क्यूँ लुटती हैं और शील नारी का ही क्यूँ भंग होता हैं ?

April 21, 2009

प्रथम महिला फोटो जर्नलिस्ट होमी व्यारावाला को मिलेगी पहली नैनो

एक कहावत है कि वक्त मेहरबान तो सब मेहरबान। आज पत्रकारिता के क्षेत्र में तमाम महिलाएं दिखती हैं पर एक दौर ऐसा भी था जब गिनी-चुनी महिलाएं ही पत्रकारिता में जाने का सपना पूरा कर पाती थी। ऐसे में एक नाम तेजी से उभरा- होमी व्यारावाला का। होमी व्यारावाला इस देश की प्रथम महिला फोटो जर्नलिस्ट थीं। तमाम जर्नलिस्ट के लिए प्रेरणा स्त्रोत रहीं होमी व्यारावाला आज 96 वर्ष की हैं और गुजरात के वड़ोदरा में अपना जीवन हँसी-खुशी गुजार रही हैं। अचानक वे चर्चा में है क्योंकि उन्हें प्रथम ग्राहक के रूप में टाटा की बहुचर्चित नैनो कार के लिए चुना गया है। फिलहाल वे अपनी 55 साल पुरानी फिएट कार से ही सफर करना पसन्द करती हैं, पर नैनो ने उनके नयनो में भी एक स्वप्न जगाया कि इस उम्र में एक नई कार पर सफर किया जाय। जहाँ आज की युवा पीढ़ी, पुरानी पीढ़ी के लोगों को विस्मृत करती जा रही है वहाँ एक ऐसी लीजेण्ड महिला का इस रूप में प्रकटीकरण चैंकाता भी है और आश्वस्त भी करता है कि उनकी काया भले ही वृद्व हो गई हो पर उनका मन अभी भी जवान है। इसीलिए तो वे 96 वर्ष की उम्र में नैनो की सवारी करने को तैयार हैं। टाटा ग्रुप के मालिक रतन टाटा भी खुश होंगे कि इसी बहाने वे देश की प्रथम महिला फोटो जर्नलिस्ट से लोगों को एक बार फिर रूबरू करा सकेंगे।
आकांक्षा यादव


कुछ अन्य जानकारी होमी व्यारावाला जी के बारे मे आप को यहाँ मिल जाएगी "होमी व्यारावाला"

आकांशा जी के आलेख मे चित्र की कमी महसूस हुई हो उसको भी पूरा कर रही हूँ ।



रचना

April 19, 2009

कल कन्या भूण ह्त्या पर मेरे प्रश्नों के जवाब मे एक पत्र ईमेल से प्राप्त हुआ हैं ।

कल कन्या भूण ह्त्या पर मेरे प्रश्नों के जवाब मे एक पत्र ईमेल से प्राप्त हुआ हैं । बिना एडिटिंग { केवल २ पंक्तियाँ जो मेरे लिये व्यक्तिगत पत्र था } के आप के समक्ष रख रही हूँ ।
quote

रचना जी नमस्कार,

सर्वप्रथम आपके प्रति साधुवाद कि आपने कन्या भ्रूण हत्या को लेकर कुछ सवाल उठाये हैं। यद्यपि हम जानते हैं कि आपके पास इस विषय पर पर्याप्त सामग्री होगी किन्तु आपकी इस पहल से उन लोगों में भी कुछ न कुछ गति आयेगी जो इस विषय को लेकर थोड़ा बहुत चिन्तन करते रहते हैं।

आपके द्वारा उठाये गये कुछ सवालों के आधार पर हम बहुत ही संक्षिप्त में कुछ कहना चाहते हैं। आपके सामने अपने बारे में एक छोटी सी बात ये रखना चाहते हैं कि विगत 12-13 वर्षों से हम इसी विषय को लेकर कार्य कर रहे हैं। बहुत तो नहीं पर आंशिक सफलता इस तरफ पाई भी है। इस दिशा में कार्य करने से जो भी सीखा, जो भी पाया उसी आधार पर अपनी बात आपके प्रश्नों के क्रम में रखने का प्रयास भर है। तथ्यात्मक कुछ गलतियाँ हों तो उनको सुधार लीजिएगा।

प्र0 1- कब से शुरू हुआ?

यह प्रश्न ऐसा है जो किसी से भी इसका सही उत्तर नहीं दिलवायेगा। कन्या हत्या की कोई प्रामाणिकता नहीं मिलती। तकनीक के आने के पूर्व कन्याओं की हत्या होती थी या फिर गाँव वगैरह में दाईयां या बूढ़ी औरतें गर्भवती महिला के चाल-चलन, काम-काज को देखकर उसके गर्भ में लड़का-लड़की का अनुमान कर लेतीं थीं (यद्यपि इसके सही होने के कोई भी ठोस सबूत नहीं हैं) इस आधार पर भी गर्भ में हत्या होती थी। इतिहास की बात करें तो जनसंख्या की अतिशय वृद्धि के चलते जब संतति निरोध की बात की गई तो उसकी मार यकीनन लड़कियों पर ही पड़ी होगी।

इसके अलावा घर की आन समझे जाने के कारण भी मुगल काल में महिलाओं को अन्य आक्रांताओं के चंगुल में फंसने से रोकने के लिए भी महिलाओं की हत्या की जाने लगी। महिलाओं द्वारा स्वयं जौहर करने की प्रथा भी सम्भवतः इसी का एक रूप रही होगी।

रियासतों के चलने के समय अपने सिर को न झुकने देने की परम्परा के चलते भी कन्याओं को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा होगा। हमारे जाने हुए म0प्र0 में एक परिवार है जहाँ कि उनके एक व्यक्ति ने (उस व्यक्ति से हम खुद मिले हैं) एक शादी में अपना अपमान होने से क्षुब्ध होकर अपने गाँव समेत आसपास के सात गाँवों में (कुल मिलाकर आठ जो इनकी रियासत में आते थे) लगभग 35 वर्षों तक किसी लड़की को जीवित नहीं रहने दिया (अपने परिवार में भी किसी लड़की को जिन्दा नहीं रहने दिया।) हालांकि हमारे मिलने पर स्वयं अपनी ही नातिन को खिलाते हुए मिले थे और अपने अहंकारी स्वभाव को याद कर रो उठे थे। वर्तमान में वे जीवित नहीं हैं।

कन्या भ्रूण हत्या की शुरूआत तो तकनीक के आने के बाद हुई, इसे सम्भवतः 70-80 के दशक में समझा जा सकता है। वैसे 1901 में ही स्त्री अनुपात 972 था।

प्र0 2 -किन कारणों से शुरू हुआ?

कारण समय परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग हैं। पहले तो एकमात्र कारण अपने अहम को झुकने न देना रहा था। दहेज जैसी समस्या आधुनिक समाज की देन है। यह भी सभी जगहों पर नहीं है।

हरियाणा, पंजाब, दिल्ली जैसी रईसी से भरी जगहों पर कन्या भ्रूण हत्या के पीछे अपनी सम्पत्ति के बँटवारे की धारणा है। उत्तरी क्षेत्रों में यह समस्या दहेज और वंशवृद्धि में बदल जाती है।

वर्तमान मे देखा जाये तो एक बच्चे को लेकर सीमित करते परिवारों के कारण भी कन्याओं की हत्या होने लगी है।

गरीब परिवारों में अभी भी कन्या भ्रूण हत्याएँ अथवा कन्या हत्याएँ न्यूनतम रूप में देखने को मिल रहीं हैं। ये बीमारी अमीर घरों की है।

प्र0 3 -क्यों भारतीय समाज बेटियों के प्रति निर्मम रहा?

आपका ये सवाल वाकई उपयुक्त है। क्या कारण रहे कि हमें बेटियों के प्रति निर्मम होना पड़ा। इस सवाल के जवाब में लोगों को थोड़ा पूर्वाग्रह से निकलना होगा। बिना यह विचार किये कि किस समय क्या काल-खण्ड, परिस्थितियाँ रहीं, हम समूचे समाज का पोस्टमार्टम करने लगते हैं।

यह तो सत्य है कि प्राचीन काल में जब आजीविका के साधन सीमित थे तो पेट भरने का काम आदमी के पास और घर को चलाने का कार्य महिलाओं के पास था। इसके पीछे कारण किसी न किसी रूप में शारीरिक संरचना का अंतर समझा जा सकता है। (हालांकि आज इसे कोई नहीं मानता पर सोचिए उस कालखण्ड को जबकि यातायात के साधन नहीं हैं, सुरक्षा के लिए कोई साधन नहीं हैं, आजीविका के साधनो के लिए पेड़ों आदि पर निर्भर रहना पड़ता था, नदियों, जंगलों की यात्रायें...क्या ये सब उस समय महिलाओं के लिए आसान था?)

इसके अलावा बाद में जब साधन सुविधानुसार बनने लगे, महिलाओं को भी अवसर मिलने लगे तब तक एक परिपाटी के रूप में यह हमारे समाज में व्याप्त हो गया कि महिलायें घर का काम करेंगीं और पुरुष बाहर का काम संभालेंगे। इसी तरह से यह माने जाने के कारण कि कन्याओं को तो दूसरे के घर जाना है लोगों ने अपने बेटों की परवरिश अच्छे से की और बेटियों के प्रति नकारत्मक दृष्टिकोण बनाये रखा।

घर का वातावरण भी बेटियों के प्रति व्यवहार का निर्धारण करता है। आपने स्वयं देखा होगा कि हम गोष्ठियों, सभाओं में तो चिल्लाते हैं कि पुरुषों को घर की महिलाओं के साथ रसोई में भी हाथ बँटाना चाहिए पर यह भी देखा होगा कि यदि संयुक्त परिवारों में ऐसा करते देखा जाता है तो घर की महिलायें ही पुरुषों को ताना मारतीं हैं कि दिनभर महिलाओं के बीच घुसा रहता है।

स्वयं हमारी सोच में भी फर्क के कारण बेटे-बेटियों में अन्तर किया जाता है। हमारी बेटी की शादी होगी तो हम चाहेंगे कि उसके ससुराल वाले उसको पूरी आजादी दें। यदि देते हैं तो हम बहुत तारीफ करते हैं और नहीं देते हैं तो हम ससुराल की बुराई करते हैं। इसी प्रकार से जब हमारे घर में बहू आती है तो हम सोचते है कि वह पूरी तरह भारतीय परम्परा का पालन करे। घूँघट डाले, घर से बाहर कम निकले, बड़ों के सामने कम बोले...आदि-आदि। इस तरह के अन्तर से भी समाज में विषमता पैदा होती है।

प्र0 3 एवं प्र0 4 को एक साथ ही देख जा सकता है। उसके लिए अलग से किसी बात का स्पष्ट करने की जरूरत नहीं है।

शेष तो इस विषय पर बहुत कुछ है कहने को पर सुनने वाला कोई नहीं क्योंकि हम कहेंगे तो अपनी बात, महिलायें कहेंगीं तो अपनी बात। कोई स्पष्ट रूप से सुनने को तैयार नहीं, कुछ भी मानने को तैयार नहीं।

फिर मुलाकात होगी। आपके प्रयास को साधुवाद।


डा0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
लाल अक्षर मे जो कहा गया हैं वह सत्य हैं की बहस के लिये सब तैयार हैं पर जड़ मे क्या समस्या हैं कोई नहीं देखना चाहता । कितनी कम टिप्पणी आयी कल की पोस्ट पर लगा की शायद इस विषय पर लोग शुब्ध तो हैं पर नहीं जानते की क्या लिखे ।
थैंक्स डा0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर जी आशा हैं नारी ब्लॉग पर अपना स्नेह बनाए रखेगे

April 18, 2009

कन्या भूण ह्त्या - इस विषय पर आप की राय , , यहाँ दे

हमेशा ये लिखा जाता रहा हैं ,कन्या भूण ह्त्या हो रही हैं इसको रोको । इसके कारण की बात करो तो अशिक्षा , अज्ञान और रुढिवादी सोच को बताया जाता । तीनो कारणों को बदला जा सकता हैं और अपनी अपनी जगह हम सब भी इसके प्रति लोगो को सचेत कर रहे हैं । हम मे से ज्यादा इस बात को मानते हैं की ये ग़लत हैं ।

आज की पोस्ट मे , बात करना चाहती हूँ उन कारणों की जिनसे इस सोच ने जन्म लिया की बेटी को मार दो , बेटी को जन्म ना दो ।

समाज मे
  1. कब से ये सब शुरू हुआ ,
  2. किन कारणों से हुआ ,
  3. क्यूँ बेटियों के प्रति भारतीये समाज को इतना निर्मम होना पडा ,
  4. क्यूं समाज को बेटियों को बेटो से कमतर आँका गया
आज बस आप कारण बताये ताकि समस्या के जड़ तक ये बात जाएप्रश्नों को क्रम दिया गया हैं सो उत्तर उसी क्रम से दे जिससे लोगो को बात समझने मे आसानी होब्लॉग लेखन की पहुँच विश्वव व्याप्त हैं सो क्या पता कब कुछ भी लिखा किसी के अनपूछे प्रश्न का उत्तर बन जाये

April 14, 2009

नारी ब्लॉग पर महिलाए बिना सदस्यता लिए भी लिख सकती हैं ।

नारी ब्लॉग पर महिलाए बिना सदस्यता लिए भी लिख सकती हैं कभी कभी जब मन मे इतना कुछ हो की अपने ब्लॉग के अलावा कहीं और , किसी और मंच पर कहने से लगे की हाँ अब सही जगह कहा तो इस ईमेल
freelancetextiledesigner.naari@blogger.com पर मेल भेज दे
पोस्ट पुब्लिश कर दी जायेगी । स्पैम ना भेजे क्युकी स्वचालित नहीं हैं ये प्रक्रिया ।

एक लड़की जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की


मिसाल हैं " रेखा कालिंदी " १२ साल की इस बालिका ने विवाह करने से इंकार कर दिया और आज उसकी वजह से उसके गाव मै बाल विवाह बिल्कुल ही बंद होगये हैं । उसके घर मे ना तो बिजली हैं , ना पानी और ना शौचालय और वो बीडी बनाने का काम करती हैं । रास्ता उसने अपना खुद बनाया नहीं इंतज़ार किया की कोई आये और उसे उसकी आज़ादी दे । जाना ही नहीं माना भी उसने की वह आजाद हैं अपने सपने जीने के लिये

क्या इतना आसान रहा होगा ये सब नहीं पर अपनी बहिन का जीवन देख कर उसको लगा की उसको ये जीवन नहीं चाहिये जहाँ १५ साल तक की उम्र मे दो बार उसकी बहिन की शादी हुई और चार मरे हुए बच्चो को उसने जनम दिया ।
अपने घर मे रेखा ने विद्रोह किया और जब उसके पिता ने उसका खाना पानी भी बंद कर दिया तब भी वो अपनी शादी के लिये नहीं तैयार हुई ।

आज उसके गावं मे बाल विवाह बंद होगये हैं , जो सरकार ना कर सकी रेखा के विद्रोह ने कर दिखाया ।
हमारी माननीय राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल जी ने इस बहादुर लड़की को मिलने के लिये राष्ट्रपति भवन मे बुलाया हैं ।

पूरी जानकारी के लिये लिंक क्लिक करे ।
और इसे ही कहते हैं
"the indian woman has arrived "

April 12, 2009

पुरूष कुछ भी करे और पत्नी से कुछ भी करवाये तो क्या पत्नी को सजा देना ठीक हैं ??

क्या पाश्चात्य सभ्यता की देन हैं तलाक ?? शायद नहीं क्युकी पाश्चात्य सभ्यता तलाक को बढ़ावा नहीं देती हैं अपितु पाश्चात्य सभ्यता परिवारवाद को नहीं मानती हैं । वहाँ परिवार से ज्यादा अहमियत इस बात को दी जाती हैं की जो जिन्दगी हमको मिली हैं क्या उसको हमने जिया या उसको हमने गवायाँ । शादी करने मे कोई बुराई नहीं हैं तो शादी से बाहर आने मे बुराई क्यूँ । ग़लत शादी मे रहना जहां या तो शादी से बाहर भी पति- पत्नी के सम्बन्ध किसी दुसरे पुरूष या स्त्री से हैं या दोनों मे से कोई एक दुसरे का शोषण कर रहा हैं , अपनी जिन्दगी को किसी ग़लत व्यक्ति के हाथो सौपना हुआ ।
भारत मे शादी मे क्युकी पूरा परिवार जुड़ता या टूटता हैं इस लिये यहाँ तलाक के बाद बहुत कटुता होती हैं जबकि पाश्चात्य सभ्यता मे डिवोर्स के बाद भी पति पत्नी एक दूसरे से दोस्ती का सम्बन्ध रखते हैं और बच्चो के लिये दोनों के साथ समय बिताना अनिवार्य होता हैं ।

हमारे यहाँ बहुत सी शादियाँ और परिवार तो बच जाते हैं लेकिन हम पीढी डर पीढी उसी रुढिवादी सोच मे जकडे रहते हैं की शादी बच गयी यानी सब कुछ ठीक होगया । पर एसा नहीं होता हैं बच्चे अपने माँ - पिता को देख कर सदियों से यही सीखते आरहे हैं की बस सामाजिक रूप से शादी को बचा लो अंदर रह कर जितने चाहो अनैतिक सम्बन्ध बनाओ ।

आज कल अक्षय कुमार और ट्विंकल के ऊपर केस चल रहा हैं । पता नहीं कितने लोगो ने उस विडियो को ध्यान से देखा हैं । ट्विंकल पहले मना करती नज़र रही हैं फिर अक्षय के मनुहार के बाद उसने जिप का बटन खोला । क्या पत्नी होने का अर्थ ये हैं की आप सारे आम अपनी पत्नी की मनुहार करके उससे वो करवा सकते हैं जो वो आत्मीयता के पलो मे आप के साथ करना चाहती हैं ? मानसकिता वही हैं कि मे पुरूष हूँ तुम मेरी पत्नी हो और अगर मै सारे बाज़ार भी तुमको कहूँ तो तुमको मेरी जींस का बटन खोलना ही होगा

ये हैं आज के भारत मै नारी कि / पत्नी कि स्थिति कि पति को वो माना करने का अधिकार ही नहीं रखती । और ये बात उस विडियो मे साफ़ दिखायी देती हैं पर उसको अनदेखा किया गया । ट्विंकल का मना करता हाथ , उसकी सलज्ज मुस्कान शायद ही किसीने देखी । हाँ उसका जेल जाना अपने पति कि वजह से सब को दिखा ।

और ये बात केवल मैने ही नहीं देखी बहुत जगह ट्विंकल के शोषण कि बात हो रही हैं

इस प्रकार का विवाह क्युकी वो सेलेब्रिटी हैं निभ गया पर अगर ट्विंकल इस वजह से तलाक़ लेना चाहे तो क्या वो पाश्चात्य सभ्यता को बढ़ावा दे रही हैं ??

पुरूष कुछ भी करे और पत्नी से कुछ भी करवाये तो क्या पत्नी को सजा देना ठीक हैं ??

और हाँ क्या ब्लॉग जगत मे जैसे इस घटना को लेकर शान्ति रही वैसे क्या अगर इसका उल्टा होता यानी दर्शक पंक्ति मे पति होता और रैम्प पर महिला मॉडल होती और वो अपने पति से वही करवाती जो अक्षय ने अपनी पत्नी से करवाया ??

इन पोस्ट पर अच्छी बहस हैं देखे और अपनी राय भी दे

यहाँ सवाल मानसिकता का है....

नारीवाद का मतलब


टूटते रिश्ते


हाँ यह मानसकिता का ही सवाल है

इन
पोस्ट पर अच्छी बहस हैं देखे और अपनी राय भी दे

April 09, 2009

अब क्या इसके लिए भी कपड़े ही दोषी है ?

आज कल ममता जी के यहाँ नेट पर समस्या हैं सो उन्होने ये पोस्ट ईमेल से भेजी हैं जरुर पढे बांटे उनकी वितृष्णा


अब क्या इसके लिए भी कपड़े ही दोषी है ?

आम
तौर पर अकसर ये देखा जाता है कि लड़कियां या महिलायें एक बहुत ही easy टारगेट होती है और जब भी किसी लड़की या महिला के साथ कोई हादसा होता है तो अक्सर उनके कपडों को इसका दोषी बताया जाता है कि जब लड़कियां ऐसे कपड़े पहनेंगी तो ऐसा (rape ) तो उनके साथ होगा ही

पर क्या सच मे लड़की या महिला के कपड़े ही इसका (rape)कारण होते है

हमें तो ऐसा नही लगता है आज कल जिस तरह की घटनाएं देखने को मिल रही है उसमे कपड़े से कहीं ज्यादा कुंठित मानसिकता का दोष है

रविवार को सुबह-सुबह गोवा के टाईम्स ऑफ़ इंडिया में ये ख़बर पढ़ी और इस ख़बर को पढ़कर मन विचलित भी हुआ और एक अजीब से वितृष्णा भी हुई और काफ़ी देर तक mood भी ख़राब रहा ।और रह-रह कर ये सोचने पर मजबूर हुए कि एक असहाय लड़की के साथ ऐसा करके क्या उस आदमी को आत्म संतुषटी मिली होगी आप भी जब ये ख़बर पढेंगे तो आपको भी ऐसा ही लगेगा

कभी-कभी लगता है कि क्या इंसानियत इतनी ख़त्म हो गई है कि mentally एंड physically challenged लड़की जो तो अपने को बचा (defend) सकती है और ही किसी को (माँ-बाप को ) भी कुछ बता सकती है उस लड़की का rape करके कैसे वो व्यक्ति चैन से रह सकता है क्या उसकी आत्मा उसे धिक्कारती नही है

इस लड़की के साथ जो कुछ भी हुआ क्या उस मे भी लड़की के कपडों का ही दोष है
पता नही हमारा समाज और समाज के लोग कहाँ जा रहे है

*हमारे संकल्प ही सुनहरे नए कल का आधार हैं*……………………


*न चाँद तारे तोड़ने की चाहत है हमारी,
न आसमां को अपनी मुट्ठी में समेटने की हसरत..
एक इन्सां बनकर समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी निभाने की कोशिश,
मुकम्मल बनाना है अरमान की ताकत .
भारतीय महिलाओं ने अंतरिक्ष की उंचाईयों को छू लिया है. जमीं के हर क्षेत्र में अपने परचम लहरा दिए हैं.अपने देश सहित सारा विश्व चमत्कृत है. शिक्षा विज्ञान ,चिकित्सा, इंजिनियर ,टेक्निकली बड़े बड़े उद्योग-बिसिनेस वुमन, आर्टिस्ट, साहित्य,लेखक ,सरकारी- गैर सरकारी अधिकारी,आर्थिक,सामाजिक,राजनितिक,ग्राम-शहर कही भी-कोई भी क्षेत्र उनसे अछूता नहीं है. विचारणीय है कि इनकी संख्या इतनी कम क्यों है ? आबादी में महिलाओं का हिस्सा आधा माना जाता है फिर ये मुट्ठी भर क्यों ? अंतर्तम से पूछिये ,क्या आप को नहीं लगता की आप या हमारे परिवार की बालिका-महिला भी ऐसी बुलंदियों को छुए… सोचना है हम कैसे अपनी उन बहिनों के अधिकार दिलवा पाएंगे जो इतनी घुटन में रहती है कि उनको तो खुली हवा में साँस लेना भी मुश्किल है. जन धारणा है कि बालिकाएं या महिलाऐं खुद अपनी लडाई लड़ें पर कैसे ? अपने ही लोगो से वे कैसे विद्रोह करें.अपने सन्सकारों से वे सुसंस्कृत हैं, क्या उनके अधिकार ,कानूनी संरक्षण,उनके लिए मिलने वाली सुविधाएँ सब तरह की जानकारी उन तक पहुचने का बीडा समाज के हर पुरुष-महिला-युवा-बच्चों का नहीं है. . साथ ही जो बहिनें आगे बढ़कर अपनी मंजिलें पा चुकीं हैं. उनकी जिम्मेदारी अब और बढ़ गई है. क्योंकि वे जानती हैं कि उन्होंने * घुटन से अपनी आज़ादी खुद कैसे अर्जित की है*. सशक्त सहभागिनी बनकर सबसे पहिले सहयोग की पहल करना है उनको.अपने *परिवार*-*पास पड़ोस*-*समाज* में आज से ही शुरुआत करनी है. समाज के एक व्यक्ति,परिवार'जाति;धर्म, वर्ग की बात नहीं पूरे भारत के कोने-कोने में अलख जगानी है.--.
*तकदीर संवरती है उनकी जो खुद को संवारा करते हैं ,तूफां में जब हो किश्ती तो, साहिल भी किनारा करते हैं.*
हम जानते हैं कि महिलाओं को *अधिकार* मिलने के बाद भी उनका पालन नहीं होता. उसी तरह हर *कानून* उपलब्ध होने पर भी क्रियान्वन नहीं होता.वास्तव में *नारी* को *सामाजिक बुराइयों* के विरुद्ध स्वयं "अपने व अपने लोगों" से *सम्मानपूर्वक* अपनी लडाई लड़नी है. समाज में लोगो की मानसिकता में भी बदलाव आया है पर सही जानकारी के अभाव में उनकी इच्छा व आशा पूरी नहीं हो पाती. परिजन व महिला स्वयं अभी भी *नैतिक मूल्यों* के विरोध में अपने ही लोगो के विरुद्ध पूरी तरह आवाज नहीं उठा पाते. अपनी पहचान बनाने के लिए महिलाओं को अपने अधिकार जानने होंगे .तभी नई ताकत एवं पक्के इरादों से भेद-भावहीन समाज बनाया जा सकेगा जो सही विकास का मार्ग खोल सकेगा.*हमारा भारतीय समाज एक नए सामाजिक स्वरुप में उज्ज्वलता की ओर अग्रसर* होगा. महिला व उनके परिजनों ,साथ ही समाज के हर वर्ग के जागरूक नागरिक के हित-चैतन्य-आस्था-विश्वास हेतु समस्त जानकारी बहुत संक्षेप में प्रस्तुत है..*कुछ मुख्य अधिकार - कानून व सहायता*.
संविधान के अनुसार महिलाओं के मौलिक अधिकार----- मौलिक अधिकार वे बुनियादी अधिकार हैं जो जीवन के लिए जरूरी होते हैं. हर मनुष्य को कुछ अधिकार की जरुरत होती है जिसके बिना वो सही जीवन नहीं जी सकता १ समानता का अधिकार( संविधान के अनुसार सभी नागरिक सामान हैं.धर्म,लिंग,जाति या जन्म स्थान का आधार पर भेद-भाव नहीं किया जा सकता. २.स्वतंत्रता का अधिकार(जीवन व व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार) ३ शोषण के विरुद्ध अधिकार(किसी भी प्रकार का शारीरिक-mansik शोषण ) ४ धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार ५ संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार ६. संवैधानिक उपचारों का अधिकार .मुफ्त कानूनी सहायता-औरतें और बच्चे (देश की हर अदालत में मुफ्त कानूनी सहा.केंद्र उपलब्द्ध हैं) अन्य आवश्यक अधिकार व कानून .
  1. पिता की संपत्ति पर अधिकार.
  2. शादी के बाद नाम बदलने की जबरदस्ती नहीं
  3. अपनी कमाई व स्त्री धन पर अपना अधि.
  4. समान काम समान वेतन 5 18 वर्ष की उम्र के बाद अपने निर्णय को स्वतंत्र..
कानूनी सहायता एवं सजा (केवल मुख्य जानकारी का उल्लेख) . (निम्न कोई अपराध होने पर किसी महिला- संगठन,जागरूक संस्था या सक्षम व्यक्ति को साथ ले जाना चाहिए ) 1.ऍफ़.आई.आर.कराएं.रिपोर्ट न लिखने पर (जाएँ) 1 .कलेक्टर.2 स्थानीय समाचार पत्र-मीडिया को जानकारी 3 राष्ट्रीय महिला आयोग 4 अपने राज्य के महिला आयोग..
  1. बलात्कार ------ धारा 376 -सजा कम से कम ७ से १० साल या आरोप सिद्ध होने पर उम्र कैद.जुरमाना
  2. बाहरी हिंसा या छेड़छाड़ धारा २९४ या ३५४ किस तरह का आरोप है उसपर आधारित सजा जेल..
  3. दहेज़-वर्त्तमान में समाज की सबसे बड़ी सामाजिक समस्या. लेना+देना दोनों अपराध. कम से कम ६ माह की सजा+१०,००० रु. बढकर १५,००० रु.,५ साल की सजा. दहेज़ हत्या -३०४ B-साक्ष्य+गवाह दोनों हो .(केस सिद्ध होने पर बड़ी से बड़ी सजा का प्रावधान ) .
  4. पत्नी को तलाक़ या छोड़ने के बाद धा. १२५ के अंत.गुजारा भत्ता.बच्चे का खर्चा
  5. घरेलू हिंसा होने पर-४९८ A १८६० शारीरिक या मानसिक क्रूरता-नए कानून के अनुसार उत्पीडन हिंसा करनेवालों को तुंरत गिरफ्तार ,पूछताछ या सफाई देने का भी मौका नहीं (इस कानून का बहुत दुरूपयोग भी हो रहा है अक्सर दुर्भावना से लड़की या उसके परिजन विरोधी पक्ष को झूठा भी फंसा दे रहे है जो नहीं होना चाहिये पीडीत पक्ष ही रिपोर्ट करे,अन्यथा ये कानून हटने से मुश्किल आ सकती है. ).
  6. कामकाजी महिला के लिए कानून -खास अधिकार .१ सरकार द्वारा निर्धारित वेतन की उपलब्धता २ महिलाओं की सुरक्षा के अनुसार ही काम लेना जरुरी. ३ प्रसूति सुविधा(अभी और बढा दी गई है) .
  7. लिंग जाँच या भ्रूण हत्या रोकने का कानून.अधि.१९९४.इ. धारा ३१२ -३१६ ५ साल की कैद व १०,००० रु. जुरमाना , दूसरी बार में ५०,००० तक
महिलाओं के लिए मुख्य सरकारी योजनाएं.
१ बालिका सम्रद्धि योजना
२ मात्रत्व लाभ योजना
३ विधवा पेंशन
४ वृद्धावस्था पेंशन.
५ इंदिरा आवास योजना
६.अनुसूचित या गरीबी से नीचे वर्ग की लड़की के विवाह हेतु सहायता.
७ राष्ट्रीय पारिवारिक लाभ योजना
८ स्वर्ण जयंती रोजगार योजना १० गांवों के पंचायती राज्य में ३३% आरक्षण 11.प्रत्येक समिति में महिला व दलित महिला की भागीदारी निश्चित. और भी अनेक योजनाएं हैं समयानुसार बदलती रहती हैं.
हम आप सब जानते है*मानव जीवन एक सामूहिक संस्था *है. समाज के सुगम सञ्चालन के लिए परिवार बने हैं . स्त्री-पुरुष व उनका परिवार एक दुसरे के पूरक है उनके आपसी सामंजस्य के बिना कुछ नहीं हो सकता.वास्तव में परिवार के हर सदस्य की अपनी प्रतिष्टा-आवश्यकता–जिम्मेदारी-बाध्यता होती है.हमारी पूरी श्रंखला केवल *समाज को चैतन्य* करने की कोशिश है क्योंकि यदि हमारे परिवार की *महिला-शक्ति* का ह्वास होता रहा तो समाज कहाँ चला जायेगा अकल्पनीय है. उसके समग्र विकास के लिए हर परिवार ठान ले तो भारत कितना *उज्जवल* होगा जरा सोचकर देखें…………. .
पुराणों में माना गया है .. जग जीवन पीछे रह जावें,यदि नारी दे न पावे स्फूर्ति .इतिहास अधूरे रह जावें ,यदि नारी कर न पावे पूर्ति.. क्या विश्व कोष रह जावें ,होवे अगर न नारी विभूति .क्या ईश्वर कहलायें अगम्य,यदि नारी हो न रहस्य मूर्ति.
*अलका मधुसूदन पटेल*

अब क्या इसके लिए भी कपड़े ही दोषी है ?

आज कल ममता जी के यहाँ नेट पर समस्या हैं सो उन्होने ये पोस्ट ईमेल से भेजी हैं जरुर पढे बांटे उनकी वितृष्णा


अब क्या इसके लिए भी कपड़े ही दोषी है ?

आम
तौर पर अकसर ये देखा जाता है कि लड़कियां या महिलायें एक बहुत ही easy टारगेट होती है और जब भी किसी लड़की या महिला के साथ कोई हादसा होता है तो अक्सर उनके कपडों को इसका दोषी बताया जाता है कि जब लड़कियां ऐसे कपड़े पहनेंगी तो ऐसा (rape ) तो उनके साथ होगा ही

पर क्या सच मे लड़की या महिला के कपड़े ही इसका (rape)कारण होते है

हमें तो ऐसा नही लगता है आज कल जिस तरह की घटनाएं देखने को मिल रही है उसमे कपड़े से कहीं ज्यादा कुंठित मानसिकता का दोष है

रविवार को सुबह-सुबह गोवा के टाईम्स ऑफ़ इंडिया में ये ख़बर पढ़ी और इस ख़बर को पढ़कर मन विचलित भी हुआ और एक अजीब से वितृष्णा भी हुई और काफ़ी देर तक mood भी ख़राब रहा ।और रह-रह कर ये सोचने पर मजबूर हुए कि एक असहाय लड़की के साथ ऐसा करके क्या उस आदमी को आत्म संतुषटी मिली होगी आप भी जब ये ख़बर पढेंगे तो आपको भी ऐसा ही लगेगा

कभी-कभी लगता है कि क्या इंसानियत इतनी ख़त्म हो गई है कि mentally एंड physically challenged लड़की जो तो अपने को बचा (defend) सकती है और ही किसी को (माँ-बाप को ) भी कुछ बता सकती है उस लड़की का rape करके कैसे वो व्यक्ति चैन से रह सकता है क्या उसकी आत्मा उसे धिक्कारती नही है

इस लड़की के साथ जो कुछ भी हुआ क्या उस मे भी लड़की के कपडों का ही दोष है
पता नही हमारा समाज और समाज के लोग कहाँ जा रहे है

* सामाजिक बदलाव की बयार*---*महिलाओं की आगे कदम----- बढाती दुनिया*

छोटे-छोटे प्रयास भी रंग ला रहे हैं धीरे धीरे ही सही, जानते हैं हम.”'

LITTLE DROPS OF WATER ,LITTLE GRAINS OF SAND.

CAN MAKE THE MIGHTY OCEAN & THE PLEASANT LAND;

भारतवर्ष में कई भाषाएँ जाति धर्मं हैं पर निःसंदेह महिलाओं के प्रति सभी जगह सामाजिक परिक्षेत्रों में बहुत अधिक बदलाव दिखता है,सामाजिक सरोकार बदल गए हैं. उनके प्रति सामाजिक द्रष्टिकोण में अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ है उनके प्रति नजरिया बदल रहा है.परिवारों में पुत्र-पुत्री में भेद-भाव नहीं के बराबर हैं. समान अवसर,प्यार,सम्मान भी मिल रहे हैं. पहिले जहाँ उनका घर से बाहर निकलना ही अच्छा नहीं माना जाता था ,शिक्षा के लिए संसाधन क्षेत्र बहुत कम उपलब्ध होते थे. वर्त्तमान में अधिकांश शिक्षा संस्थाएं महिला शक्ति को आगे बढने को प्रेरित आमंत्रित करती हैं. आज उच्च शिक्षिता का समाज में दबदबा है.स्वावलंबी महिलाओं को परिवार के साथ समाज में भी इज्ज़त से देखा जाता है.आज की नारी अपनी बात गर्व से कहने का साहस कर सकती है. पुरुष वर्ग के साथ कंधे मिलाकर चल रही है उनके समकक्ष अधिकार प्राप्त कर रही है अपना फैसला ,इच्छा महत्वाकांक्षा कहीं ज्यादा आत्मविश्वास बेबाकी से पेश कर रही है.पारिवारिक उत्पीडन या सामाजिक अन्याय के विरुद्ध उठ खडी हुई है..

एक टहनी एक पतवार बनती है ,एक कोयला एक अंगार बनती है..

मारते हैं एक ठोकर एक रोड़ा समझकर,वही मिटटी एक मीनार बनती है. ..

स्वयं का मामला हो या परिवार का ,मूक तमाशबीन रहकर निर्णायक भूमिका निभा रही है. आर्थिक आत्म-निर्भरता बढने से उनमे आत्म-विश्वास .अधिकारों के प्रति जागरूक-सचेत. यही नहीं पुरुष-पित्रसत्ता प्रधान भारतीय समाज की परम्पराओं-अंध-विश्वासों-रूढिगत विचारों का विरोध जता रहीं हैं.व्यक्तित्व विकास की और अग्रसर हैं.सिर्फ कामकाजी ही नहीं,घरेलू ,ग्रामीण महिलाऐं भी मुखर हो चलीं हैं.

पर कहीं विद्रोह भी पनप रहा है क्योंकि नए दौर के इस युग में भी महिलाओं को बहुत मानसिक दबाव सहना पड़ रहा है. पुरुष वर्ग के साथ घर की महिलाओं को भी महिलाओं के प्रति अपनी अपने प्राचीन नजरिये में बदलाव लाना होगा. उन पर वर्चस्व स्थापित करने के बदले उनका पूरक बनना होगा तो समाज की बेहतरी हो सकती है.

*नए ज़माने के दोस्त, हौसला रख ,दिशाओं का रुख बदल दे.*

*भटकाव से बचाव सावधानियां*

आज की नारी आधुनिकता पाश्चात्यता की अंधी दौड़ में ,आर्थिक स्वतंत्रता सुविधाओं की मदहोशी में गुमराह भी होती जाती है. साजिशों को समझना नहीं चाहती.मतलबी-स्वार्थी होकर अपने भी उसके लिए पराये होते जाते हैं. परिवारों का संरक्षण ,स्नेहिल वातावरण को नकार के एकल परिवार का स्वातंत्र्य जीवन रास रहा है. चाटुकारिता ,भेद,रंजिशें, घमंड, विद्रोह,उद्दंडता,अनुशासनहीनता आदि बुरी आदतें भी अपना रही है. अपनी संस्कृति ,अस्मिता और गौरवमयी मर्यादा को भूलने में गर्व महसूस कर रही है. कृत्रिम फेशन के लिए अपनी लाज-शर्म को दांव पर लगाने से उसे परहेज करना ही होगा. गलत धारणा बदलनी होगी की अमर्यादित कपडे पहनने से या अति-आधुनिका बनने से उन्नति जल्दी होगी.

छलावे से बचकर अपनी शील मर्यादा बनाये रखने से स्वाभाविक अपराध कम होंगे.

नारी शक्ति *अँधेरे के मार्ग में भटककर "उजाले के स्वागत" में पंख लगाकर उड़ना है. विश्वास करे सामाजिक क्रांति आने के साथ उसके बदलाव को स्वतः नई दिशा ,खुले मन वरद हस्त से मिलेगी.

वरिष्ट कवियत्री ने कहा है --,

पाश्चात्य विचार की नयी सदी ,शताब्दी है

नई -नई आशाएं हैं ,कई -कई अपेक्षाएं हैं

हमें अपनी जमीन पर आस्था विश्वास बना रहे

वृद्ध चरणों में नत होने का गौरव बोध बना रहे .

दायित्व भी हैं ,धरोहर भी, सौहाद्र भी हैं ,संस्कार भी, .

करना होगा हमें इनसे भी प्यार, अपनी जमीन पर ही रहकर,.

हमारे घर परिवार का भी,और बुजुर्गों का पूरा सत्कार .

*अलका मधुसूदन पटेल *-* gyaana ब्लॉग*

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