" जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की " "The Indian Woman Has Arrived " एक कोशिश नारी को "जगाने की " , एक आवाहन कि नारी और नर को समान अधिकार हैं और लिंगभेद / जेंडर के आधार पर किया हुआ अधिकारों का बंटवारा गलत हैं और अब गैर कानूनी और असंवैधानिक भी . बंटवारा केवल क्षमता आधारित सही होता है
हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।
15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं
15th august 2012
१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं
"नारी" ब्लॉग
" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "
March 30, 2009
क्या समस्या सचमे सुलझ गयी ?? हम कहां रहे हैं ??
जीवन वैसे ही चल रहा हैं ड्राइवर रोज उसको कार से ऑफिस छोड़ने जाता हैं और रात को वापस लाता हैं । लड़की नव विवाहिता की तरह तैयार हो कर ही जाती हैं पर कार मे पीछे ही बैठती हैं । ड्राइवर जो कुक भी हैं लौट कर पिता को स्नान इत्यादि कराता हैं और उनको खाना खिलाता हैं । इसके बाद दोनों को अक्सर टी वी देखते और पार्क मे साथ साथ सैर करते देखा जा सकता हैं । लड़की रात को आती हैं पर कहती हैं की अब उसको अपने पिता की चिंता नहीं हैं क्युकी उसका पति सब सही संभाल लेता हैं । उसके अनुसार अब कोई समस्या नहीं हैं उसके पिता की देखभाल बहुत सही हो रही हैं ।
आप को क्या लगता हैं , ये जो हुआ क्यूँ हुआ ?
और क्या सही हुआ ?
अगर सही नहीं हुआ तो क्यों सही नहीं हुआ ?
क्या होगा इस लड़की का और उसकी शादी का समय के साथ क्या निभ पायेगी ये शादी ?
March 29, 2009
लड़की की बारात
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प्रिया ने कहा, "लोग कहते हैं कि लड़कियों को अपने अधिकार के लिए लड़ना चाहिए मगर जब मैं लड़ी तो कुछ लोग मुझे दबाने की कोशिश कर रहे हैं. मुझे मोबाइल पर धमकियाँ मिल रही हैं लेकिन मैं अंत तक लड़ूँगी." |
March 28, 2009
मै अपनी धरती को अपना वोट दूंगी आप भी दे कैसे ?? क्यूँ ?? जाने
शनिवार २८ मार्च २००९
समय शाम के ८.३० बजे से रात के ९.३० बजे
घर मे चलने वाली हर वो चीज़ जो इलेक्ट्रिसिटी से चलती हैं उसको बंद कर दे
अपना वोट दे धरती को ग्लोबल वार्मिंग से बचाने के लिये
पूरी दुनिया मे शनिवार २८ मार्च २००९ समय शाम के ८.३० बजे से रात के ९.३० बजे
ग्लोबल अर्थ आर { GLOBAL EARTH HOUR } मनाये गी और वोट देगी अपनी धरती को ।
इस विषय मे ज्यादा जानकारी यहाँ उपलब्ध हैं ।
March 27, 2009
मै अपनी धरती को अपना वोट दूंगी आप भी दे कैसे ?? क्यूँ ?? जाने
शनिवार २८ मार्च २००९
समय शाम के ८.३० बजे से रात के ९.३० बजे
घर मे चलने वाली हर वो चीज़ जो इलेक्ट्रिसिटी से चलती हैं उसको बंद कर दे
अपना वोट दे धरती को ग्लोबल वार्मिंग से बचाने के लिये
पूरी दुनिया मे शनिवार २८ मार्च २००९ समय शाम के ८.३० बजे से रात के ९.३० बजे
ग्लोबल अर्थ आर { GLOBAL EARTH HOUR } मनाये गी और वोट देगी अपनी धरती को ।
इस विषय मे ज्यादा जानकारी यहाँ उपलब्ध हैं ।
March 26, 2009
नारी ब्लॉग का आज एक वर्ष पूरा हुआ ।
नारी ब्लॉग के सदस्यों के नाम की लिस्ट भी संलगन हैं क्युकी
वो ना होते तो हिन्दी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग जहाँ केवल महिला ब्लॉगर , ब्लॉग पोस्ट करती हैं , भी ना होता । संवाद होता रहा , विवाद होता रहा , सदस्य आते जाते !!! रहे सो ये सूची आप भी देखे ।
नारी ब्लॉग आज एक वर्ष का हुआ । सदस्यों को बधाई ।
सदस्य
- वर्षा
- शायदा
- swapandarshi
- gyaana
- आर. अनुराधा
- Richa
- anitakumar
- कविता वाचक्नवी Kavita Vachaknavee
- अनुजा
- गरिमा
- माया MAYA
- रेखा श्रीवास्तव
- सुनीता शानू
- रचना
- डॉ मंजुलता सिंह
- फ़िरदौस ख़ान
- उन्मुक्ति
- Padma Srivastava
- मीनाक्षी
- Manvinder
- neelima sukhija arora
- mamta
- neelima garg
- रंजना [रंजू भाटिया]
- सूत्रधार
- मोनिका गुप्ता
- Meenakshi Kandwal
- डा.मीना अग्रवाल
- Ila's world, in and out
- Geetika gupta
- आकांक्षा~आकांक्षा
सब को अपनी अपनी मंजिल ख़ुद पानी हैं । चलना जरुरी हैं और जरुरी नहीं हैं की एक लाइन मे ही चला जाये । महिला की लाइन का मतलब महिला के लिये अलग लाइन नहीं हैं महिला की लाइन का मतलब केवल बंधी बंधाई लाइन { लीक } हैं जिस पर महिला को चलना ही हैं या होता हैं । मेरा मतलब किसी आरक्षण या कानून से नहीं हैं बल्कि घिसी घिसाई मानसिकता से ऊपर उठ कर चलाना हैं । ये तो सब मानते हैं की महिला के लिये एक लाइन अभी भी बनी हैं .उस लाइन को तोड़ कर बराबरी की बात जो महिला करती हैं वही जिन्दगी मे आगे जाती । विद्रोह व्यक्ति या जाति से नहीं किया जाता हैं , विद्रोह किया जाता हैं समाज मे फैली रुढिवादिता से , दोयम फेलाने वाली मानसिकता से लेकिन किसी भी विद्रोह से पहले अपने पैरो के नीचे की जमीन को देखना जरुरी होता हैं । अगर आप के पैरो के नीचे दलदल हैं तो आप का विद्रोह आप के लिये ही हानिकारक होगा ।
नारी सशक्तिकरण यानी वूमन एम्पोवेर्मेंट मे सबसे जरुरी हैं की हर स्त्री अपने को आर्थिक रूप से स्वतंत्र करे । मेहनत करे और अपनी रोटी ख़ुद कमाए । सिर्फ़ और सिर्फ़ शिक्षा और आर्थिक स्वाबलंबन ही सदियों से जकड़ी औरत को आज़ादी दे सकता हैं ।
हर महिला को आज़ादी हो , अपनी सोच से ये तय करने के लिये वह क्या करना चाहती हैं । और आज़ाद वह होता हैं जो मन से आजाद होता हैं । समाज क्या हैं और कैसे बना हैं ? क्या व्यक्ति समाज को नहीं बनाता ? समाज के नियम देश और काल से बनते बदलते हैं । समाज की सोच समय के साथ बदलती रहती हैं और उस सोच को बदलने मे कुछ व्यक्तियों का ही हाथ होता हैं ।
ये एक बड़े फलक के सवाल है, और एक बड़ी ज़मीन, और बड़ा आसमान माँगते है लेकिन अगर सब अपने अपने हिस्से के सवालो के जवाब खुद खोजे तो उन्हे ज्यादा इंतज़ार नहीं करना होगा की कोई आएगा और उन्हे एक बड़ी जमीन दे जायेगा ।
समूह बनते हैं काम होते हैं समय लगता हैं , पर जिन्दगी बहुत छोटी हैं और कुछ लोग उस जिन्दगी को जीना चाहते हैं काटना नहीं इस इंतज़ार मे की एक दिन सब ठीक हो जायेगा । समाज मे उन व्यक्तियों की हमेशा आलोचना हुई हैं जो लीक पर नहीं चले .
जिस समाज मे औरत की आजादी को ये समझा जाता हैं की वह " आजाद ख्याल यानी स्वछंद हैं " उस समाज से लड़ने बेहतर हैं की हम अपने लेवल पर अपने को आज़ाद करे ।
महिला होने की वजह से मेरी सामाजिक भागेदारी केवल ५०% हैं और अगर मै उस ५०% मेरे अपने जीवन को सम्पूर्ण और सार्थक बना लूँ और किसी एक को भी और "जगा" सकूं तो हम २ नहीं ११ हैं ।
हम समाज से नहीं , समाज हम से हैं । घुटन से आजादी मिलती नहीं अर्जित की जाती हैं और उसे पाने के लिये पाने से पहले बहुत कुछ खोने के लिये भी तैयार रहना होता हैं ।
ग़लत को ना स्वीकारना ,सच बोलना , ग़लत को जानते हुए अपनी सुविधा अनुसार compromise कर लेना और बाद मे आत्म मंथन कर के समाज मे और समाज से स्वतंत्रता का आवाहन केवल एक लाइन पर चलना होता हैं , एक सोच पर चलना होता हैं।
अपनी समस्याओं को हल जो नारी ख़ुद खोज लेगी वो अपने को ही नहीं अपने साथ एक पूरे परिवार , एक पूरे समाज , एक पूरे देश को बदलने की ताकत रखती हैं । ताकत हमारे अंदर होती हैं बस उसको पहचानने की जरुरत हैं ।
समाज मे बदलाव तभी होगा जब समाज मे नियम सबके लिये बराबर होगे और नारी को निरंतर इस बात के लिये प्रगतिशील रहना होगा ।
अगर आप जानना चाहते हैं आपने इस ब्लॉग पर कब और कितनी टिपण्णी दी हैं तो साइड पट्टी मे अपने नाम को क्लीक करके देखे ।
नारी ब्लॉग का जन्मदिन याद दिला रहा हैं मकसद जिस को ले कर सब सदस्य साथ चले । अब किसने कितना उस मकसद को जिया और नहीं जिया तो क्यूँ नहीं जिया ये मै सदस्यों के ऊपर ही छोड़ देती हूँ । व्यक्तिगत रूप से मेरे लिये वो पल बहुत खुशी का होता हैं जब कोई भी महिला मेल भेज कर ब्लॉग से अपने को जोड़ना चाहती हैं ।
जिस पाठक ने भी इस ब्लॉग पर कमेन्ट किया हैं उसको आज थैंक्स कह कर मै नारी ब्लॉग का जन्मदिन माना रही हूँ । मेरी खुशी मे हिस्सा बांटने का वक्त हैं आप सब को निमन्त्रण हैं ।
थैंक्स आप सब को
March 24, 2009
लड़कियों का अपने घर में ही अपने ही सगे सम्बन्धियों द्वारा यौन शोषण होता रहता है।
ये एक टिप्पणी हैं जो घुघूती बासूती के नीचे दिये आलेख पर आयी हैं । आप सब इस आलेख को दुबारा जरुर पढे और अपने बहुमूल्य विचार यहाँ दे
मुम्बई से खबर आई है कि एक पिता अपनी पुत्री का नौ वर्ष तक बलात्कार करता रहा। तबसे करता रहा जबसे वह बारह वर्ष की हुई। अब भी करता रहता यदि अब वह उसकी सत्रह वर्ष की छोटी बहन याने अपनी छोटी बेटी का भी बलात्कार करना शुरू न करता। बलात्कार का कारण चाहे किसी तांत्रिक का यह कहना हो कि इससे उसके व्यवसाय में वृद्धि होगी या जो भी रहा हो प्रश्न तो यही उठता है कि यदि स्त्री अपने ही घर में अपनों से सुरक्षित नहीं है तो कहाँ सुरक्षित है? यदि रक्षक ही भक्षक बन जाए, यदि बाड़ ही खेत को खाने लगे तो कोई क्या कर सकता है?
घर वह जगह है जहाँ से संसार भर से त्रस्त व्यक्ति भी चैन से निश्चिन्त हो सकता है। जहाँ उसे हर तरह की स्वतंत्रता मिलती है। जहाँ वह आराम से पैर ऊपर करके या लटका के या जैसे भी बैठ सकता है। जहाँ वह कुछ भी पहनता है, कैसे भी रहता है, एक बार घर का दरवाजा बन्द किया तो बस केवल सुरक्षा का एहसास होता है। परन्तु जब समाज जिस व्यक्ति को गृहस्वामी कहता है वह अपनी ही पुत्रियों पर यूँ अपना स्वामित्व जताए तो उस पुत्री की तो घर के भीतर पाँव रखते ही रूह काँपती होगी। घर से अधिक असुरक्षित स्थान तो उसके लिए कोई हो ही नहीं सकता।
यह बात जो दुःस्वप्न से भी अधिक भयानक है पढ़कर आश्चर्य होता है कि कोई इतना भी नराधम हो सकता है। जो धन की प्राप्ति के लिए अपनी ही बारह वर्ष की बिटिया का बलात्कार करे व उस तांत्रिक से भी करवाए। स्वयं उसे उसके घर पहुँचाकर आए ! कहाँ तो पिता अपनी पुत्री की रक्षा के लिए जान भी देने को तैयार रहते हैं और कहाँ ऐसे पिता ! एक माँ स्त्री होकर यह सब होने दे। यदि यह खबर सच है तो हमारे समाज को अपना सिर लज्जा से झुका लेना चाहिए।
जिन नेट पर मिलने वाले अज्ञात लोगों से हम अपनी बच्चियों व बच्चों को खबरदार करते हैं आखिर में उनमें से ही एक अज्ञात पुरुष ने उसे इतना साहस दिलाया कि वह अपने मामा को यह सब बता पाई। भला हो उसका कि उसने उसका लाभ उठाने की चेष्टा नहीं की। कि वह उसे जीने की राह दिखाता गया। वह तो आत्महत्या करना चाहती थी।
यदि यह खबर सच न भी हो तो भी यह सर्वविदित सत्य है कि लड़कियों का अपने घर में ही अपने ही सगे सम्बन्धियों द्वारा यौन शोषण होता रहता है। यह न केवल गरीब बस्तियों में होता है किन्तु पढ़े लिखे सभ्य कहलाने वाले परिवारों में भी होता है। सभ्य परिवारों में तो अवसर भी हैं व एकान्त भी। फिर यदि इस विषय पर बच्चे माता पिता से चर्चा भी करें तो पारिवारिक सम्मान पुलिस को रपट लिखवाने में आड़े आता है। क्या परिवार का सम्मान बच्चे की सुरक्षा से अधिक महत्वपूर्ण है? जो व्यक्ति ऐसा अपराध करके एक बार बच निकलता है क्या वह अधिक आश्वस्त होकर यह अपराध बार बार नहीं दोहराएगा? इस घटना में तो जब माता पिता ही बच्ची पर यह अत्याचार कर रहे थे तो बच्ची जाती भी तो कहाँ?
क्या विकसित देशों की तरह भारत में भी बच्चों को स्कूलों में बताया जाए कि यदि परिवार में कोई उनपर अत्याचार करे तो पुलिस को फोन करो? क्या यहाँ भी अध्यापक बच्चे की शिकायत पर पुलिस को बुलाएँ और बच्चे को शुरू से बताया जाए कि अपने परिवार में होने वाले अत्याचार के बारे में अध्यापक को बताएँ? भारत में परिवार को जो पवित्र दर्जा दिया गया है जिसमें प्रायः पड़ोसी तो क्या पुलिस भी हस्तक्षेप करने के कतराती है क्या वह गलत है? क्या कोई भी संस्था चाहे वह परिवार ही क्यों न हो बच्चे से अधिक महत्वपूर्ण हो सकती है? सोवियत संघ व चीन में छात्रों को अपने माता पिता की जासूसी करने को उकसाया जाता था और हमें यह घृणित लगता था। परन्तु जब परिवार के रक्षक ही बच्चों का जीवन नारकीय बना दें तो बच्चे क्या करें?
पाटन में अध्यापकों द्वारा छात्रा का बलात्कार व यौन शोषण यदि दिल दहलाने वाला था तो यह किस श्रेणी में रखा जाएगा? कौन सी सजा ऐसे पिता व इसमें सहयोग देने या आँख बन्द रखने वाली माँ के लिए सही हो सकती है? वह लड़की अपने पिता को फाँसी दिलवाना चाहती है। क्या फाँसी की सजा भी ऐसे पिता के लिए पर्याप्त सजा होगी? शायद यह अपराध उन अपराधों की श्रेणी में आता है जहाँ संसार का कोई भी कानून पर्याप्त या उपयुक्त सजा नहीं दे सकता।
गौर करने की बात है कि यौन उत्पीड़न केवल बच्चियों का ही नहीं होता। लड़के भी इसका शिकार होते हैं, चाहे इसकी दर कम होती है। परिवार के सभी सदस्यों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि बच्चे के साथ कोई ऐसा दुर्व्यवहार तो नहीं कर रहा। बच्चे अन्तर्मुखी तो नहीं होते जा रहे। शुरू से ही उन्हें सिखाया जाना चाहिए कि हर गलत व्यवहार का वे विरोध करें व उनका शरीर केवल उनका है, जिसे जो चाहे जैसे उनकी इच्छा के विरुद्ध छू नहीं सकता। उन्हें विस्वास दिलाना होगा कि उनकी बातें सुनी जाएँगी, उनपर अविश्वास नहीं किया जाएगा। समाज की चाहे यह दुखती रग ही क्यों न हो इसे अब पकड़कर इसका इलाज करना ही होगा।
न्याय शीघ्रातिशीघ्र मिलना चाहिए और प्राथमिक खबर से भी अधिक खबर न्याय मिलने की प्रसारित की जानी चाहिए। इसके दो लाभ होंगे, एक तो पीड़ित बच्चा व उसका परिवार न्याय माँगने का साहस व प्रेरणा जुटा पाएगा और दूसरा यह कि लोगों को अपराध करने पर दंड अवश्य मिलेगा यह भय होगा। अपराधी को भय दिलाना व पीड़ित को साहस दिलाना न्यायपालिका व संचार माध्यमों का उद्देश्य होना चाहिए। इस सबके साथ ही पीड़ित बच्चों की समुचित मानसिक व भावनात्मक सहारे की भी आवश्यकता का ध्यान रखना होगा।
घुघूती बासूती जी को अपने बहुमूल्य विचार यहाँ दे
March 22, 2009
*तुम बोलोगी , मुख खोलोगी , तभी तो जमाना बदलेगा
*तुम बोलोगी , मुख खोलोगी , तभी तो जमाना बदलेगा
नव जागरण की अपार संभावनाएं हैं .
हजारों साल के शोषण के बाद भारतीय महिला में एक नयी जाग्रति की लहर आई है। वो अपने अस्तित्व, अधिकार, सहभागिता के लिए निरंतर चैतन्य हो रही है जो उसके सोच-विचार में एक अभूतपूर्व परिवर्तन लाने के साथ एक नया द्रष्टिकोण लेकर आई है. वह स्वर मुखर करने का साहस जुटा रही है. उसको अपने आत्म-विश्वास से अपनी शक्ति पहचानने की जरूरत है ,निःसंकोच अपनी आवाज बुलंद करे जाग्रत हों.
अभी तक भारतीय महिलाओं को निरक्षरता-अंधविश्वास-दीनता की चाहरदीवारी में रखा गया था पर अब उसके साथ उसका परिवार ,समाज .देश उठ खडा हुआ है. भारत के मजबूत भविष्य के लिए महिलाओं को मजबूत करना होगा वे भारत के नए भविष्य की मुख्य धूरी हैं.
उन तक सही रचनात्मक संसाधनों, उनके उपयोगी अधिकार ,पर्याप्त जानकारी पहुँचाना व उनकी समस्याओं को दूर करके, उनके विचारों-निर्णयों को मान्यता देना होगा. सामाजिक स्तर में क्रांतिकारी बदलाव के साथ जनसँख्या नियंत्रण,सही पोषण,सही शिक्षा व स्वास्थ्य की चुनौतियाँ का सफलतापूर्वक सामना करने की आवश्यकता है. महिलाऐं अपनी जिम्मेदारी अच्छी तरह समझती हैं समर्पित भाव से कार्य करती हैं.
उनका संघर्ष शुरू हुआ है। कुछ कटिबद्ध लोग व संगठन सभी स्तर पर उनके साथ उठ खड़े हुए हैं व उनको पर्याप्त जानकारी+ अधिकारों से जाग्रत कर रहे हैं. हमें मिलकर कदम बढ़ाने हैं.
*नेहरूजी का कथन है* ,
*अगर आप किसी राष्ट्र के बारे में मेरी राय जानना चाहते हैं तो मुझे उस देश में महिलाओं की स्थिति के बारे में बताएं*
*अलका मधुसूदन पटेल* -
March 19, 2009
श्रीमती अबला बसु जैसे व्यक्तित्व आज उदाहरण बन सकते हैं
प्रसिद्ध वैज्ञानिक श्री जगदीश चन्द्र बसु की ख्याति और सफलता के पीछे उनकी पत्नी श्रीमती अबला बसु का त्याग , धैर्य , सहनशक्ति और कष्ट उठाने की क्षमता से कितने लोग परिचित हैं ? उनका नाम अबला था पर उनका व्यक्तित्व सबल था । कलकत्ता के एक महाविद्यालय मे श्री जगदीश चन्द्र बसु अध्यापन के साथ शोध कार्य भी कर रहे थे । उनके साथ कुछ अग्रेज अध्यापक भी थे जिन्हे अधिक वेतन मिल रहा था । इस अन्याय के विरोध मे श्री बसु अपना धनादेश { चेक } यह कह कर लौटाते रहे कि जब तक उन्हे अग्रेज अध्यापको के समान वेतन नहीं मिलेगा वे अपना कम वेतन स्वीकार नहीं करेगे ।
आर्थिक कठिनाई की इस घड़ी मे उनकी पत्नी ने उन्हें अपने सारे आभूषण दे दिये और कहा - " इन से कुछ समय तक काम चल जायेगा । इसके अलावा अगर हम लोग कलकत्ता के महंगे मकान को छोड़ कर हुगली नदी के पार चंदन नगर मे सस्ते मकान मे रहें तो खर्चे मे कमीं आजायेगी ।"
पत्नी का सुझाव तो जगदीश बसु को ठीक लगा परन्तु हर दिन हुगली नदी पार कर के जाना - आना सम्भव नहीं लगा क्युकी इतना थकने के बाद पढ़ना और शोध कार्य करना कठिन होगा ।
इतनी बड़ी समस्या को श्रीमती बसु नए तत्काल सुलझा दिया - " आप नाव मत खेना । मै प्रतिदिन नाव लेकर आपको लाया और ले जाया करुगी । "
अदम्य साहसी , दृढ निश्चयी महिला ने अपने पति के लिये प्रतिदिन लाने - ले जाने का कार्य किया ।
श्रीमती अबला बसु के सहयोग से श्री जगदीश चन्द्र बसु अपना अध्यन और शोधकार्य पूरा कर सके और एक विश्व विख्यात वैज्ञानिक बन गए ।
पति - पत्नी मे आपस मे कितना सामंजस्य एक - दूसरे के लिये कितना त्याग , सहयोग , तथा हर समस्या से जूझने और सुलझाने की क्षमता , पारिवारिक चुनौतियों के लिये समय निकालने की योग्यता कितने लोगो मे हैं ?
आज कितने पति - पत्नी एक दूसरे के लिये कुछ करना चाहते हैं ? एक दूसरे को आगे बढ़ते देख कर कितना प्रसन्न होते हैं ??
श्रीमती अबला बसु जैसे व्यक्तित्व आज उदाहरण बन सकते हैं
आगे आप कहे क्युकी ये समाचार तो आप ने भी पढ़ा होगा .
ये पढ़ कर आप के मन मे क्या पहला विचार आता हैं ? आप को सजा देने का अख्तियार हो तो आप क्या सजा देगे इन लोगो को । मूक और बघिर के संरक्षक जब भक्षक बन जाते हैं तो क्या करना चाहिये समाज को । समाचार ख़ुद सब कुछ कह रहा हैं ।
अपने बच्चो को घरो मे यौन शिक्षा जरुर दे । ताकि उनको पता रहे की कब उनके साथ दुष्कर्म हो रहा हैं और बच्चो को इतनी मानसिक सुरक्षा दे की वो आ कर आप से अपनी हर बात खुल कर कह सके ।
आगे आप कहे क्युकी ये समाचार तो आप ने भी पढ़ा होगा । और विस्तार से पढ़ना चाहते हैं तो यहाँ भी देखे ।
March 14, 2009
क्यूँ दोषी को सजा तब मिलती हैं जब समय बहुत आगे निकाल चुका होता हैं ?
- माँ ने अपनी दुधमुही बच्ची को झाडियों मे फेका
- ६ दिन कि बच्ची थैले मे मिली
- माँ - पिता बच्ची / बच्चे को अस्पताल मे छोड़ कर चले गए
- माँ पिता ने संतान को बेच दिया
बात स्त्री पुरूष या बेटे बेटी कि नहीं हैं बात हैं कि क्यूँ हमारी मानवीयता ख़तम होती जा रही हैं । क्यूँ ऐसे अभिभावकों को सजा { exemplary punishment } नहीं दी जाती जो संतान को पैदा करना जानते हैं पर उसकी देख रेख नहीं करते ।
इसी प्रकार से आज कल जो दुसरे समाचार व्यथित करते हैं वो हैं
- बुढे माँ बाप को उनके ही घर से बहार निकाला
- बूढी माँ का मकान अपने नाम कर लिया
- बुढे माँ बाप ने अकेलेपन से तंग आकार ख़ुद खुशी कर ली
- विधवा माँ को आश्रम मे छोड़ दिया
- माँ बाप ने बेटे पर मुकदमा किया
क्यूँ दोषी को सजा तब मिलती हैं जब समय बहुत आगे निकाल चुका होता हैं ।
March 13, 2009
ईश्वर का तो वरदान है बेटी
*मेरी पुस्तक *ईश्वर की नियामत पुत्री*-*दी डाटर्स आर ग्रेट* के कुछ अंश*
महत्व पूर्ण प्रश्न ?
वर्त्तमान परिप्रेक्ष्य में अति संवेदनशील,ज्वलंत,विचारणीय प्रश्न बार-बार सामने आता है। समग्र संसार की धूरी हमारी "बेटियाँ-नारी शक्ति" क्यों जन्म से इतनी असहाय ,त्याज्य,तिरस्कृत,उपेक्षिता बनाकर उदासीनता या हीनता से देखी जाने लगी है। गर्भ में नष्ट करने वाली ये घ्रणा करने योग्य अमानुषिक घटनाएँ, समाज में व्याप्त असभ्य अशम्य ,अविश्वसनीय दुर्व्यवहार ,अमानवीय, अशोचनीय गंभीर अपराधिक घटनाएँ ,दहेज़ हत्याएं, बलात्कार आदि अनेक अपराध निरंतर बढते जा रहे हैं। समस्त प्रयास होने के बाद भी कमी आने के बदले ज्यादा होते जाते हैं।इसको कम करने के लिए इसकी शुरुआत बच्ची के जन्म के साथ ही करनी पड़ेगी, तब ही इस समस्या का समाधान का प्रारंभ हो सकेगा।सामाजिक संतुलन लगातार बिगड़ रहा है। समाज में लड़कियों-लड़कों का अनुपात ८००-१००० पहुँच रहा है। यह अंतर समाज के हर वर्ग,जाति,धर्मं में चिंतनीय रूप से परिलक्षित हो रहा है। सोचना और देखना ये है कि समाज में जागरूक नव-चेतना कैसे लाई जाये। लगातार बढती घरेलू हिंसा को रोकने के लिए क्या किया जाये।क्योंकि इसकी शुरुआत तो उसके पैदा होने के पहले से ही उसके अपने जीवन में शुरू हो जाती है.हम जानते हैं हमारी पुत्रियों के साथ इस दुनिया में पैदा होते ही दुर्व्यवहार शुरू हो जाते हैं. जन्म लेते ही उसके खुद के परिवार में असहयोग,नकारात्मकता, पुत्र की तुलना में संकुचित भेदभाव ,असहनीय मानसिक-शारीरिक-उत्पीडन-शोषण-आर्थिक-अवमूल्यन होने लगता है. शिक्षा के क्षेत्र में भी भेद रहता है. अक्सर पुत्र से अधिक योग्यता रखने वाली पुत्री को मनचाही पढाई करने का मौका नहीं मिल पाता.गंभीर विचारणीय प्रश्न है कि हमारे समाज में स्वयं के "परिवार में पुरुष वर्ग की तुलना में घर की महिलाऐं" ही बेटे-बेटियों में अंतर करती हैं. प्रगतिशील समाज में भी बिटिया को पूरे अधिकार नहीं मिल रहे ,क्या अपने परिवार में लड़की का रूप लेने से ही उसका पद नीचा हो जाता है. अपनी बेटी को न्यायोचित अधिकार स्नेह-संरक्षण दिलाने का प्रारंभ जब तक उसके पैदा होते ही नहीं होगा ,समस्या बढती जायेगी. इसके निदान-समाधान खोजने होंगे. जागरूक-प्रबुद्ध लोगों को एक मंच पर आकर आपसी सहयोग से कार्य करने होंगे.आधुनिक समाज कितनी तेजी से परिवर्तित हो रहा है हर क्षेत्र में प्रगति दिखती है पर यहाँ गिरावट बढती जाती है. स्रष्टि का ये अद्भुत वरदान नारीस्वरूप में जन्म लेकर जीने का अधिकार नहीं पा रहा है. पृथ्वी पर असंतुलन होने से क्या होगा ,सोचा नहीं जा सकता. इस अकल्पनीय परिस्थिति का जिम्मेदार कौन ?
********************************************************************** "ईश्वर का वरदान है बेटी"*(THE DAUGHTERS ARE GREAT)*..........................
जब जब तुम मेरे ऊपर अपना माथा रखकर कहती हो *माँ*,तो वहां प्रतिघोष गूँज उठता है-----संपूर्ण स्रष्टि की गुहा में। सघन गहराइयों से भेदकर आता ,जीवन के समस्त स्नेह भावों के अर्क सा।वह शब्द प्यारा सा नन्हा सा,और ले उठता है हिलोर,मन मेरा कोमलता सा।*
पुत्री का सर्वप्रथम प्रिय रूप वही है,जब वह नवजात स्नेही बेटी कोमल पुष्प सद्र्श भूमिष्ट होकर माँ-पिता को आल्हादित करती है। जन्म से ही कन्या का रूप बहुत भोला प्यारा होता है. हमारी ही संतान बेटी का नन्हा स्वरुप हमारे मन में पुत्र से कोई भेद उत्पन्न नहीं कराता . भारत में तो पुरातन से वर्तमान संस्कृति में पुत्री को परिवार में उच्च स्थान प्रदान किया जाता रहा है. माँ-पिता की छत्रछाया में रहकर वह सदैव उनके निकटस्थ बनी रहती है. बचपन से बड़े होने तक वह उनकी ही नहीं अपने सभी परिजनों की आज्ञापालन करके महान कर्तव्यों का पालन निःस्वार्थ करके योग्य सिध्द होती है. समुचित संस्कार मिलने से समस्त कुटुंब के प्रति अपनी स्नेहिल भावनाओं के साथ सदैव समर्पित बनी रहती है. आदर्श परिवारों में वह माता-पिता के पुत्र जैसे ही बल्कि उससे अधिक वात्सल्य प्राप्त करती है. बाल्य अवस्था के क्रीडा-कौतुक से सबकी प्रिय होती है.अपने अग्रज-अनुज भाइयों जितनी ही सबको प्रिय होती है. लक्ष्मी स्वरूपा बेटी परिवार में ममता-स्नेह की मधुर गंध महकाती है. बाल्यकाल से लाडली होने के साथ परिवार के हर सदस्य का सहारा बन जाती है परार्थ सहयोग को तत्पर. .
*जिसे तुम समझे हो अभिशाप,जगत की ज्वालाओं का मूल।ईश का वह रहस्य ।वरदान , प्रिये मत जाओ इसको भूल .* (A DAUGHTER IS CROWN OF HERFATHER FAMILY).........................................................................................प्रेमपात्रा बिटिया तो समर्पिता बेटी है,स्नेहमयी भगिनी है,निमिष्मात्र में स्व को विस्मृत करके अग्निसाक्षी मानकर दूसरे सर्वथा अनजाने कुल को अपने को अर्पित कर देती है। पत्नी बनकर कर्त्तव्यशील श्वसुरकुल के लिए समर्पित बहू बनकर सबको आकर्षित करके नए परिवार-परिवेश में भी सबकी लाडली बन जाती है वही उसका घर बन जाता है॥ केवल एक नहीं दो परिवारों की शोभा बन जाती है.
*ग्रहेषु तनया भूषा ,भूषा संपत्सुपंडिता: ,पुसाम भूषाम सद्बुद्धि: स्त्रीनाम भूषाम सलज्जता।* भविष्य के नागरिकों की माता बनकर संसार का सर्वोच्च आसन ग्रहण करती है. माँ का अतुलनीय स्वरुप आजीवन प्रदर्शित करती है, संपूर्ण परिवार के लिए एक संस्था ही होती है. विश्वासपूर्वक स्नेहार्पित शांति व दया की देवी होती है. उसकी उत्सर्गमयी भावनाओं ने ही उसे प्राचीनकाल से देवितुल्या मान लिया है. *(STERN DAUGHTER IS THE VOICE OF GOD ,'O' DUTY ! OF THAT NAME THOU LOVE ,WHO ACT A LIGHT OF GUIDE ,A ROD ,TO CHECK THE ERRING &REPROVE)*.....................................................पुत्री के आत्म-विश्वास और आत्मसंतोष से परिपूर्ण व्यक्तित्व द्वारा वह किसी भी विशिष्ठ परिस्थिति में सभी परिजनों के लिए ह्रदय से सेवानिष्ठ बनी रहती है.आत्म-अनुशासन व स्वनियंत्रण उसके मुख्य गुण हैं. उसका जीवन ही दो कुलों को जोडकर गौरवान्वित करना बन जाता है.घनीभूत सहजता ,सरल ह्रदय पुत्री का जीवन ही अपनों के लिए न्यौछावर है. पुत्री की नैसर्गिक प्रवर्ति ही कोमलता से ओत-प्रोत होती है. उसे दैहिक व वैचारिक कैद में नहीं सामंजस्य में रखने की जरुरत है. उसका व्यक्तित्व जितना स्वतंत्र विकासमयी ,श्रेष्ट शिक्षित होगा वह दोनों कुलों में अपनी कीर्ति पताका फैलाएगी.प्रखर बनकर वह अपना ही नहीं अपने परिजनों का नाम रोशन करती है व उनसे आजीवन जुडी रहती है. नए परिवेश या परिवार में जाकर भी अपने कर्तव्यों को नहीं भूला करती. हम सबके समक्ष वर्तमान परिप्रेक्ष्य सिद्ध करता है कि अपने स्वाभाविक गुणों के कारण *पुत्री*- *पुत्रों* से अधिक परिवार के साथ सदैव जुडी रहती है ,चाहे जहाँ रहे वह सबका ध्यान रखती है. जबकि पुत्र बहुत बार कर्त्तव्य विमुख होकर अपने आश्रितों को छोड़ देते हैं. (तब हमारे मन में, हमारे परिवार में उसके बचपन से बड़े होने तक दोहरापन ,ये भेदभाव क्यों ?) समाज में अपने सद्गुणों, सुह्रदयता,सेवापरायणता,परार्थता व संस्कारी संवेदनशील स्वभाव से मुख्य धूरी बनी रहती है. अपने ही नहीं सबके लिए आनंद-वेदना ,सुख-दुःख,सुदिन-दुर्दिन ,निराशा-आशा,उत्साह-निरुत्साह की सहभागिनी व संबल बनी रहती है. सही न्याय व मांगल्य रूप से परिजनों का साथ आजीवन देती है.भारत ही नहीं सारे संसार में जाने कितने उदाहरण मिल जायेंगे की एक पुत्री ने अपना जीवन अपना ना बनाकर अपने परिवार के लिए होम कर दिया. बहुत ऊँचाई पर पहुँच कर भी स्वयं को परिजनों को समर्पित करके रखा .माता-पिता ,भाई-बहिनों की खातिर अपने जीवन को बिसर कर रखा.यही नहीं आवश्यकता पड़ने पर अपने परिवार की खातिर अपने सुखों को तिलांजलि देने की हिम्मत रखती है. उसके उत्सर्गमयी उदाहरणों से इतिहास भरा पड़ा है.अपना खुद का नया जीवन-परिवार नहीं बसाकर अपने माँ-पिता-परिजनों की आजीवन सेवा समर्पिता बनी है व बनती है. अगर संपूर्ण चिंतन मनन करके सोचा जाये तो वास्तविकता में आज परिवार में पुत्री जितनी जिम्मेदारी से अपने माँ-पिता-बंधुओं का ख्याल उनके वृद्धावस्था तक रखती है, यह उसकी विशेषता है. इसमें कही कमी आज भी नहीं दिखलाई देती है. क्या हम अपनी पुत्री की इस विशिष्टता की महत्ता को नहीं पहचानते जो अपने परिवार में ही उसके अधिकारों से उसको वंचित करके उसके उज्जवल भविष्य में रोड़ा बनते हैं.क्या ऐसे अतुलनीय उदाहरण प्रस्तुत करती बेटी केसाथ अन्याय या सामाजिक अंतर सर्वथा अनुचित नहीं ? (DAUGHTERS HEARTS ARE ALWAYS SOFT & MEN LEARN TENDERNESS FROM THEM)प्राकृतिक रूप से प्राप्य शारीरिक कोमलता पुत्री के जीवन का अभिशाप नहीं वरदान है यही विभिन्नता कुछ हद में कर्मक्षेत्र में उसे पुत्र से अलग करते है, क्योंकि सारे जगत का सञ्चालन नियमबद्ध है अतः प्रक्रतिजन्य विशेषता को तो स्त्रियोचित सम्मान देना चाहिए ,परिवार में बेटी के साथ अच्छा आचार-विचार रखना चाहिए न कि उसमे हीनता का भाव भरना चाहिए.संसार का सबसे दुरूह-दुष्कर गुरुतर *नव-सृजन* कि अद्भुत क्षमता भगवान ने बालिकाओं को दी है. उसके बिना जगत का संचालन ही रुक जायेगा. प्रकृति का सर्वश्रेष्ट मात्रत्व का दुर्लभ गुण उसको मिला है. अपना जीवन दांव पर लगाकर वह अपनी सन्तान को जन्म देकर वह संसार चलाने का भार उठाती है ,इसे उसकी कमजोरी नहीं मानकर समाज को तो उसका उरिणी होना चाहिए. सारी सुविधाएँ सामने रख देना चाहिए. उसकी पूरी सुरक्षा का सही निर्वहन भी नियमपूर्वक करना परिवार-समाज का सबसे बड़ा दायित्व व नैतिक जिम्मेदारी है. जिस परिवार में पुत्री ने जन्म लिया है पहले वहीँ उसका स्थान सम्मानित रहे ,बालिका या बेटी होने के कारण संकुचित या निरापद न बने ,विशेष ध्यान रहना चाहिए. स्वयं उसके परिवार में यदि भेद होगा, शोषण होगा तो उसका जीवन बचपन से पिछड़ जायेगा. हाँ उसको यदि परिवार में पूरा महत्व-सम्मान-अधिकार मिलेगा तो सामाजिक जन-चेतना बढेगी. नयी दिशा मिलेगी. पुत्र से तुलनात्मक कोमल शारीरिक संगठन के कारण ही उन्हें एक सावधान संरक्षक की जरूरत जरूर होती है पर किसी दबाव या वैचारिक-शारीरिक-आर्थिक परतंत्रता कि नहीं. *पिता रक्षति कौमारे,भरता रक्षति यौवने॥रक्षन्ति स्थविरे पुत्रा, नः स्त्री स्वतंत्र्य महर्ति.*प्राचीनकाल से ही चली आ रही परम्पराओं में पुत्री का स्थान ना अपने परिवार में बल्कि सारे समाज में उच्च रहा है ,अति स्नेह संरक्षण आदर प्राप्त होता रहा है. नारी शक्ति की महिमा उसे देवी स्वरूपा मानकर की गई है. उसे समुचित लालन-पालन के साथ उसकी योग्यता के अनुसार इतना योग्य बना देना चाहिए कि वह स्वयं अपने पैरों पर खड़े होकर आर्थिक स्वावलंबी बने.आत्म-विश्वासी बने. वर्त्तमान समय को देखते हुए यही आज की सबसे बड़ी जरूरत है. बालिका के परिवार में आने से समाज में अपना एवं उसका स्थान ऊँचा बनाने में परिवार का कर्त्तव्य होता है. जब वह इतनी योग्य बना दी जायेगी तो समाज में प्रचलित बुराइयाँ व लड़की के प्रति प्रचलित सारी विषमता-असमानता हट जायेंगे. पूर्ण शिक्षित व जागरूक होकर, अपना अच्छा-बुरा समझ सकने वाली बेटी के साथ तभी न्यायोचित व्यवहार हो सकेगा.समाज में वह योग्य पुत्री,पत्नी,बहू,माँ बनकर सम्माननीय जीवन प्राप्त कर सकेगी व हमारे परिवार में पुत्री जन्म की खुशियाँ मनाई जा सकेंगी समाज में लोगों को दोष देने के बदले अच्छे कार्यों का प्रारंभ हमें अपने घरों से ही करना होगा कटी-बद्ध होना होगा. तब हमारी बेटी के साथ विद्वेष.भेद.शोषण,अन्याय या गलत कार्य करने के पहले दूसरे लोगों को सोचना होगा.साथ ही उसमे इतना आत्म-विश्वास व योग्यता आ जायेगी कि वह स्वयं अपने पर होने वाले अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाकर अपना उत्कर्ष कर पायेगी. *ईश्वर की नियामत को दिव्य बनाएं, अपनी प्यारी बेटी को सम्मान दिलाएं.*
"या पुत्री: पूज्यमाना तु देविदीना तु पुर्वत:. यज्ञ: भाग: स्वयं ध्रते यह वामा तु प्रकीर्तिता."
********************************************************************************************************************************परिवर्तन* अपने प्रति विसंगतियों एवं असामान्य व्यवहार के साथ उपरोक्त अनेक कारणों से हमारी वरदान स्वरुपा बेटी कहीं विद्रोह कर उठी है तो कहीं जाग्रत होकर आगे आने को आतुर. जो मनुष्य के स्वभाव का प्राकृतिक रूप है.१. अपना अस्तित्व अधिकार,अपनी विलक्षण क्षमताओं को जानकर उसका स्व जाग्रत हो गया है एवं वह विद्रोही ही नही कही आक्रामक भी हो गई है. तेजस्वी होती जाती है.२.अपनी अस्मिता ,सम्मान के लिए उसने अब सर झुकाकर नहीं आत्म-निर्भर होकर स्वाभिमानी+साहसी बनकर जीना सीख लिया जाग्रत होकर उठ खड़ी हुई है. विद्वजनों के अनुसार ,जो कर झुलाएं पालना, वही जगत पर शासन करें.३.अपने उपर अत्याचारों ,अनाचारों ,विद्वेष से घबराकर ,दूसरों के द्वारा सताए जानेपर ,स्वयं को बोझ माने जाने पर महिला शक्ति कही-कही अपनी नारीसुलभ कोमलता को भूल क्षुभित होकर अपनी मूल प्रवर्तियाँ आदर्श ,त्याग,ममता,कर्त्तव्य,दायित्व,सहृदयता,सदाशयता, सेवा, शिष्टाचार आदि अपने मानसिक क्लेश के कारण भूलती जा रही है. ये परिवर्तन उसके व्यक्तित्व के अनुकूल नहीं होते पर कठिन परिस्थितियों में जब सारे दोष उस पर मढ़ दिए जाते हैं तो वो बदल जाती है.. सद्भावनापूर्वक विचार करके परिवर्तनों का निदान संभव है.३.पूर्ण शिक्षित , स्वावलंबी ,आर्थिक आत्मनिर्भर ,सुव्यवस्थित होकर अबला ने सबला बनाने की ओर कदम बढा लिए हैं .चैतन्य होकर आगे आने से पारिवारिक दरारें-मतभेद द्रष्टिगत होने लगे हैं. क्योंकि उसके आर्थिक स्वावलंबी होने के साथ उसमे जो आत्म-विश्वास आता है वह रूढिगत विचार वाले कुछ परिजनों का अच्छा नहीं लगता.४.कहीं परिजनों से, समाज से सुद्रढ़ता या सहारा न मिलने पर वह अपने आप को पाश्चात्य संस्कृति में ढाल रही है. अति महत्वकांशी होकर संस्कार भूल रही है. तो उसे भारतीय संस्कृति का अवमूल्यन कहा जा रहा है.जहाँ आपसी समझौते से निराकरण संभव है.५.कौटुम्बिक प्रणालियों का विघटन ,एकाकी परिवारों का चलन ,वरिष्ट परिजनों का असम्मान ,आपसी रिश्तों का अवमूल्यन इन्ही आपसी तालमेल की कमी व जनरेशन गैप के कारण हो रहा है.समाज में कहाँ किसका कितना दोष है ,इसे अलग हटाकर ,विचार करके आपस में एकजुट-एकमत होकर चिंतन करके मंथन की जरूरत है. बेहतर उपायों-उपचारों द्वारा नारी शक्ति के भले के लिए सभी को समाज में फैलती बुराइयों-कठिनाइयों को दूर करने की सघन आवश्यकता है.स्रष्टि की जगतदायिनी ,समाज में परिवार का संवर्धन करनेवाली ,अपने परिजनों को रचनात्मक-भावनात्मक संबंधों द्वारा अभिन्न रखनेवाली विलक्षण गुणों वाली बेटी को अपने स्नेही पुत्र के बराबर दर्जा देना ही होगा.उसके जन्म से ही रक्षा-अन्वेषण का भार मुक्त ह्रदय से स्वीकारना होगा. जन-जन को जाग्रत करने का, बेटी को पूरे अधिकार देने का गुरुतर भार उसके जन्म देने वाले परिवार से ही शुरू करके समाज में लाना होगा. प्यार-सत्कार ही काफी नहीं उच्च-शिक्षिता संपूर्ण योग्य बनाकर पुत्र-पुत्री के बीच बिना कोई भेद किये आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर करना होगा. विशाल ह्रदय होकर जब हम अपनी बेटी को सुयोग्य बनाकर गर्व करेंगे तो समाज में चारों ओर छाया अंधकार अपने आप रोशनी की तरफ बढेगा .पुत्री भी अपनी आभा फैलाकर नई उडान को बढेगी. भगवान के प्रक्रतिजन्य आशीर्वाद को सहानुभूति से नहीं सद्गुणों से ज्योतिर्मयी बनाना होगा. माँ तेरे हाथों में मेरा जीवन,दे प्राणों का दान.शिक्षारूपी पंख लगा दे , भरूं गगन में उडान. चहक-चहक करउडूं,गगनसे चाँद सितारे लाऊं.उजियारी फैलाऊँगी माँ , मत ले मेरी जान. लेखिका--अलका मधुसूदन पटेल(ये मेरा अपना मौलिक लेख है, मेरी प्रकाशनाधीन पुस्तक *भगवान का तो वरदान है बेटी* के कुछ अंश) ********************************************************************************************************************************
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March 12, 2009
धर्म, आस्था और स्त्री मुक्ती
धर्म और स्त्री मुक्ती को लेकर कई तरह की बहस गर्म है। चोखेर बाली पर एक तरफ़, महिलाओं का पुरोहिताई की तरफ़ बढ़ते कदम स्त्री-मुक्ती तरफदारी मे उठाये हुए कदम की तरह शिनाख्त पा रहे है। वही अंशुमाली और ब्लॉग जगत के दूसरे दोस्त कहते है की अगर स्त्री को मुक्त होना है तो धर्म को छोड़ना भी एक ज़रूरी सी शर्त है। तार्किक शर्त है।
स्त्री मुक्ती और धर्म को लेकर कुछ फुटकर विचार मेरे भी है, जो बार बार आत्म-चिंतन और बहुत तरह के लोगो के संपर्क मे आने से बने है। मुझे लगता है की जीवन के और ख़ास तौर पर सामाजिक जीवन के, सामाजिक अव्धारानाओ से जुड़े सवाल, किसी तरह के झटका समाधानों से सुलझने वाले नही है।
पुरोहिताई और स्त्री मुक्ती:
ये पुरूष द्वारा बनायी गयी व्यवस्था और दुर्ग पर औरतों की फतह की तरह दिखती है पहली नज़र मे। और तमाम संसाधनों की तरह, धर्म मे जनवादी संस्करण के उभरने का संकेत भी देता है, रूप के स्तर पर। मेरी उम्मीद है की ये फतह एक पुराने जीर्ण-शीर्ण और खाली पड़े किले की फतह से ज्यादा हो।
मेरी चिंताए अंतर्वस्तु को लेकर है, अगर वों बदले तो बात बने। नही तो कर्मकांडो मे और पुरोहिताई मे औरत की भागीदारी आज के समय मे कोई बड़ी बात नही है। न ही ये किसी सचेत प्रक्रिया की उपज है, जिसके फलस्वरूप औरतों मे इस भागीदारी की इच्छा उपजी हो। इसे लिबरल और प्रगतिशील महिलाओं के द्वारा जो एक लंबा संघर्ष भारत और उसके बाहर चला है, उसके साईड़ इफेक्ट के बतौर देखना ज्यादा उचित होगा।
वैश्वीकरण की आर्थिक व्यवस्था ने पुराणी पीढ़ी के मुकाबिले, आज की पीढ़ी के लिए कामगार से लेकर, कस्टमर सेण्टर और दूसरे अनेक तरह के रोजगार खोल दिए है। सरकारी नौकरियों से ज्यादा, एन जी ओ, की नौकरिया आकर्षक हो गयी है। एक ऐसे समय मे पुरुषो के लिए पुरोहिताई, बहुत आकर्षक नही है। समाज मे ये जो जगह खाली हुयी है, इसी को स्त्री पुरोहितो से भरा जा रहा है, और इसीलिये, ये न सही तो ये सही, की तर्ज़ पर सिर्फ़ स्त्री ही नही, दलित, और गैर-ब्राहमण जातिया भी इस पुरोहिताई का हिस्सा बन गयी है, जो उनके लिए सदा से वर्जित था। सो इसे सिर्फ़ स्त्री स्वतंत्रता के मुद्दे की तरह न देखा जाय। ये सिर्फ़ मांग और आपूर्ती का मामला है। और स्त्री के बराबरी और उसके मानव अधिकारों से इससे कुछ हासिल होगा, ये कम से कम मुगालता मुझे नही है।
ये गैर-बरहमन , और स्त्री पुरोहित भी कट्टर रूप से जातिवादी, और साम्प्रदायिक ही है, ऐसी धारणा इनमे से कुछ को देख कर मेरी बनी है। मानव मात्र की समानता की भावना इनमे नही है। जब आज ऑफिस जाती औरत, विमान चलाती औरत, और रास्ट्रपति औरत स्वीकार्य है, तो फ़िर पुरोहित औरत तो मुह मे घी-शक्कर है, इस पित्र्सत्ताक समाज के लिए ।
फ़िर भी इस संभावना को सिरे से नकारा नही जा सकता है की शायद स्त्री और दलित की भागीदारी से धरम को लेकर एक नया मंथन तीव्र हो जायेगा, और जाती-द्वेष से मुक्त एक नए मानवीय और बड़े आयाम लिए धर्म का उदय हो सकता है, जो जाती-विभाजित समाज मे नए समीकरणों के तहत एका ला सकता है। आखिरकार मीरा ने भी धर्म की शरण मे जाकर, जाति और लिंग भेद और उससे उपजे द्वेष को मध्ययुग ललकारा था। औरत के स्वतंत्र निर्णय, धर्म मे सीधे दखल के नए आयाम खोले, धर्म को भी सिर्फ़ रूप और कर्मकांडो तक की सीमा से बाहर निकल कर आत्म मंथन के लिए विवश किया। मीरा ने ज़हर पीकर भी, धर्म की अंतर्वस्तु को ललकारा, और उसके मनुष्य मात्र के लिए समान होने का दावा किया। पंडित को हटाकर रैदास से पूजन करवाना भी मीरा की हिम्मत और उनकी धर्म को लेकर मानवता वादी सोच का परिचायक है। और मेरा ये विश्वास मजबूत होता है, की अगर एक तरह की असमानता टूटेगी, तो दूसरी समांतर चल रही असमानताओं पर भी कुठाराघात देर सबेर ज़रूर होगा। दलित और स्त्री संघर्ष के इसी धरातल पर एक बार फ़िर से पुरोहिताई मे उनके दखल को भी देखना होगा।
दूसरा बड़ा सवाल ये भी है की क्या स्त्री एक शोषक व्यवस्था का एक अंग बनकर बराबरी पा सकती है ? या फ़िर दूसरे शोषितों के लिए उम्मीद की कोई किरण ला सकती है? या फ़िर एक ज़र्ज़र व्यवस्था को जीवनदान दे कर आज़ादी की राह को जाने-अनजाने और कठिन बना देंगी? क्या ये औरते, उन वैदिक मान्यताओं और रूढियों पर भी सवाल उठाएगी जो औरत की अस्मिता और स्वाभिमान पर वार करती है? क्या कभी ये कन्यादान जैसी प्रथा का, दहेज़ विरोध और घरेलु हिंसा का प्रतिकार भी करेंगी? इन स्त्रीयों को जो पुरोहित है, और जिन्हें नया-नया ये मुल्लापन नसीब हुया है, को स्वीकारना मर्दवादी समाज के लिए वरदान है। एक तो इनसे जुड़े परिवारों के लिए सीधा आय का साधन। और वृहतर समाज के लिए अपनी सविधा को बनाए रखने का आसान तरीका।
अगर भारत के इतिहास को देखा जाय तो इससे मिलता जुलता उदहारण अभी पुराना नही पड़ा है। ब्रिटिश रूल के समय, भारत मे इतने ब्रिटिश नही थे जो उनके तन्त्र को और भारत के बड़े समुदाय को परतंत्र रख सकते। इसीलिये, उनकी पुलिस , आर्मी, और प्रसाशन तंत्र मे तमाम भारतीय थे, जो उनकी इस गुलामी की व्यवस्था को सम्भव बनाते थे। सिर्फ़ आदेश और कमांड ब्रिटिश हाथो मे था, जिस पर भारत का एक बड़ा हिस्सा अपनी वफादारी, जान तक लगाने को तैयार था। पर क्या उस व्यवस्था का अंग बनकर, भारत को या सिर्फ़ उन भारतीयों को भी आजादी मिली? आज़ादी तो उस व्यवस्था को चुनौती देकर, अवरोध खड़े करके, और अवज्ञा से ही हासिल हुयी है।
धार्मिक विद्रोह और स्त्री मुक्ती.
दूसरी तरफ़ एक झटका समाधान है की "अगर स्त्री धर्म से (या कहे तो धार्मिक अन्धविश्वाशो से) अगर मुक्त हो गयी तो वाकई मुक्त हो जायेगी".मेरी राय मे नही होगी, क्योंकि धर्म कोई अलग थलग चीज़ नही है। धर्म, संस्कृति, विज्ञान, कला, कहावते, मुहवारे, और हमारा जीवन, इतिहास , सब एक तरह से आपस मे गुंथे हुए है, एक का बदलाव दूसरे को प्रभावित करेगा, और इनमे से कुछ भी जड़ नही है, ये सब लगातार बदल रहा है। ये किस दिशा की तरफ़ रुख किए है, इसे ही सचेत रूप से पहचानने की ज़रूरत है। और अगर ज़रूरत हो तो सचेत रूप से अपनाने या रिजेक्ट करने की भी।
धर्म का भी जो रूप आज हमारे सामने है, वों पहले इस तरह का नही था। त्योहारों का जो बाजारू रूप समाने है, शादी व्याह जो भयंकर जलसों मे बदल चुके है, उसका भी शहरीकरण, तकनीकी, और खर्च करने की क्षमता से, और भारत के एक बड़े हिस्से का गाँव से बेदखल होने, कृषक समाज की जड़ो से दूर होने से जितना रिश्ता है, उतना रिश्ता अब धर्म से नही बचा है। ये ज़रूर है, की ये सब धर्म के नाम पर चल रहा है। पर धर्म की और धार्मिक मान्यताओं की इस ऐतिहासिक यात्रा पर, बदलते स्वरुप पर भी बात होनी चाहिए।
अक्सर लोग धर्म की काट विज्ञान को और विज्ञान सम्मत दर्शन मे खोजते है। जिसके अपने फायदे है, और अपने नुक्सान है। विज्ञान ओब्जेक्टिविती के चलते, परमाणु बम बना सकता है, विनाश भी ला सकता, है, पर उस विनाश से बचने के लिए, जो मानवीव संवेदना है, मनुष्य मात्र के लिए सेवा का भाव है, उसे नही उपजाता। जिस तरह से धर्म का इस्तेमाल सत्ता, और राज्य ने इतिहास मे किया है, वही इस्तेमाल विज्ञान का भी हुया है, दूसरे समाजो को गुलाम बनाने के लिए, अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए।
बलशाली के लिए, विज्ञान और धर्म दोनों हथियार है, और निर्बल के लिए उम्मीद।
मैं ख़ुद किसी तरह के पूजा पाठ मे भरोसा नही करती, और और किसी ईश शक्ती से ये संसार संचालित होता है, ये भी नही मानती। पर जो मानते है, उनकी सुनने मैं, और उनके विश्वाशो को लेकर मुझे परेशानी नही है। धार्मिक आस्था को मैं निर्बल की उम्मीद की तरह देखती हूँ, और सबल की लाठी की तरह। अगर समाज के हाशिये पर खड़ी औरते, किसी तरह धर्म से अपने संबल लेती है, जीवन से हार नही मानती, और एक व्यक्तिगत स्पेस उन्हें धर्म से मिलता है, तो कुछ हद तक ये धर्म की सार्थकता है। उसी बहाने मशीन की तरह घर मे जुटी औरत को दो घड़ी का डाईवर्जन मिलता है। मन्दिर जाने के लिए ही सही घर से बाहर निकलती है, एक वृहतर समाज का हिस्सा बनती है।
धर्म और विज्ञान को लेकर मेरे अपने जीवन मे बड़ी कशमकश रही है। कभी एक सीधा सरल विश्वास था कि धर्म का विकल्प विज्ञान सम्मत दर्शन है। मेरे अपने जीवन के ज्यादातर फैसले इसी सोच के तहत आते है, पर इसकी सीमा रेखा का भी मुझे ज्ञान है। कभी कभी नयी उम्मीद और असंभव के सृजन के लिए, यथार्थ से ज्यादा कल्पना की डोर पकड़नी पड़ती है। यथार्थ को और वस्तुपरक ज्ञान को, जिसकी निश्चित काल से बंधी सीमा है, को लांघना पड़ता है, अंधे की तरह।
धर्म का जो सेवा भावः है उसके लिए सम्मान अभी भी मेरे दिल मे है। और जो आडम्बर है, साम्प्रदायिकता है, उसके लिए बेहद नफरत। और शायद हर व्यक्ति भीतर से जानता है की वों क्या कर रहा है, और जो ढोंगी है, वों धर्म का, रिश्तों का, और हर चीज़ का सिर्फ़ ढोंग करेगा। वों इतना शातिर होगा, चाहे स्त्री हो या पुरूष की उसके लिए हर चीज़ सिर्फ़ हथियार से ज्यादा मानी नही रखेगी.
धर्म का, धार्मिक मान्यताओं का, और सामाजिक मान्यताओं का भी, फैशन का, और प्रगतिशीलता का भी, लगातार मूल्यांकन ज़रूरी है। कसौटी पर बार बार, सर्वजन हिताय, और व्यक्तिगत आज़ादी , दोनों के पैमाने से। सर्वजन हिताय जहा सामजिक न्याय की कसौटी है, वही पर व्यक्तिगत आज़ादी, सर्जन और नयी संभावनाओ की। जहा भी इन दोनों के बीच सामजस्य नही है, वों समाज रोगी है। किसी भी एक कि दूसरे के कीमत पर अति, समाज के स्वास्थ्य के लिए और विकास के लिए बाधक हो जाती है.
प्रगतिशील नारियां एक ऐसा शब्द बना दिया गया हैं जो आप एक गाली कि तरह इस्तमाल करते हैं ।
इन सब परिस्थितयों से लड़कर जिस स्त्री ने भी अपना मुकाम अलग बनाया , समाज से अपने अस्तित्व कि पुकार कि कही उसे नारीवादी कहा गया तो कही फेमिनिस्ट और कहीं प्रगतिशील का तमगा दिया गया .
प्रगतिशील शब्द का का सीधा अर्थ हैं
- १. अग्रगामी, उन्नतिशील, अधोगामी का विलोम २. लगातार बेहतर होने वाला ३। विकास एवम बदलाव की राजनीति का पक्षधर, जनस्वातन्त्र्य का प्रवक्ता.
- उन्नतिशील, अग्रसर,उत्थानशील,उदयशील,उभरता/उभरती, सदाशिव,सुधरता/सुधरती।
आज एक ब्लॉग पर एक बहुत अच्छी पोस्ट देखी वहाँ जो लिखा था अनुजा अपने ब्लॉग पर लिखती हैं । लेखक ने मुद्दा अपने ब्लॉग पर सही उठाया हैं लेकिन जब यही बात कोई स्त्री कहती हैं तो उसको प्रगतिशील का फतवा दे दिया जाता हैं और उसको भारतीये संस्कृति नष्ट करने के अपराध का दोषी माना जाता हैं ।
प्रगतिशील नारियां एक ऐसा शब्द बना दिया गया हैं जो आप एक गाली कि तरह इस्तमाल करते हैं ।
- प्रगतिशील होने मे क्या बुराई हैं ??
- प्रगति के रास्ते पर चलना क्यों ग़लत हैं ।
- प्रश्न हैं प्रगति क्या हैं ??
- क्यारुढिवादी सोच से हट कर सोचना प्रगति हैं ??
- रुढिवादी सोच क्या हैं क्या आप परंपरागत सोच को रुढिवादी मानते हैं
- या ये दोनों अलग अलग बाते हैं ?
जो लोग प्रश्न करते हैं कि ब्लॉग लिखने से हम हर तबके कि स्त्रियों का भला नहीं कर सकते , सही लिखते हैं । लेकिन क्या केवल महिला ब्लॉगर के ब्लॉग पढे लिखे तक ही जाते हैं , क्या पुरूष ब्लॉगर के ब्लॉग सड़क पर काम करती मजदुर औरते या घर मे काम करती मैड और चौका बर्तन मांजने वाली औरते पढ़ती हैं ??
पोस्ट ख़तम करते करते याद आया जहां मेरी माता श्री रेकी सेण्टर चलाती हैं उस मार्केट मे जिस दिन सुबह महिला सफाई कर्मचारी नहीं आती हैं तो हर पुरूष दूकानदार दुसरे से पूछता हैं " क्या हुआ मायावती , आज फिर नहीं आयी ? " और बाकी सब फिस्स करके बतीसी फाड़ देते हैं । अब ना तो उस महिला सफाई कर्मचारी का नाम मायावती हैं और ना इस प्रश्न मे हंसने लायक कोई बात हैं फिर वो सब इतना क्यूँ हंसते हैं बूझो तो जाने । कुछ पहेलियाँ वाकई समझ नहीं आती ।
एक और भी पहेली हैं कि क्या हिन्दी मे ब्लॉग लिखने के लिये अपनी बात को लोगो तक पहुचाने के लिये हिन्दी पत्रपत्रिकाए पढ़ना , हिन्दी मे सक्षम होना { यानी डिग्री डिप्लोमा होना } जरुरी हैं
March 10, 2009
होली के पावन पर्व की हिन्दी ब्लॉग परिवार को बधाई ।
March 09, 2009
आइये इस बार मिलते हैं, महिला दिवस पर हिन्दी ब्लॉगजगत में इस विषय पर कलम चलाने वाले कुछ साथियों से -
आइये इस बार मिलते हैं, महिला दिवस पर हिन्दी ब्लॉगजगत में इस विषय पर कलम चलाने वाले कुछ साथियों से -
माँ है, वो भीहज़ारों साल का इतिहास बताता है, कि औरतों को एक वस्तु ही समझा गया। मर्दों ने अपनी इच्छाओं के अनुरुप औरत की एक तस्वीर बनाई। और फिर औरत उसी रास्ते पर चल पड़ी। वो रास्ता कौन सा था ? वो रास्ता था, मर्दों को खुश करने का। मर्द जैसा कहता, औरत वही करती। ...... हज़ारों साल से ऐसा ही होता रहा है।.... और आज भी बदकिस्मती कहें, ये जारी है। जो मर्द के बताए रास्ते पर नहीं चलता तो फिर उसके लिए दूसरे रास्ते हैं... उनके पास। .......... मर्दों का सबसे बड़ा हथियार स्त्रियों के खिलाफ..... चरित्र हरण।
औरत के गर्भ में नौ महीने खून चूसने वाला शिशु... जब भी सोचने समझने के काबिल होता है..... सबसे पहले किस पर हमला करता है ? वो औरत ही होती है।
मैं पवित्रता की कसौटी पर पवित्रतम हूँ
क्योंकि मैं तुम्हारे समाज को
अपवित्र होने से बचाती हूँ।
आज का महिला दिवस इन्ही को समर्पित।
मिलिए फैबुलस फाईव ऑफ़ माई होम
ऐ वूमेन विद माइंड
किसी भी चित्रकार ने औरत को एक जिस्म से अधिक कुछ नहीं सोचा था। जिस्म के साथ केवल सोया जा सकता है, अगर औरत को औरत माना जाता तो उसके साथ जागने की बात भी होती। ऐसा किसी पेंटिंग में दिखायी नहीं दिया इमरोज को। अगर औरत के साथ जाग के देखा होता औरत की जिंदगी बदल गई होती। जिंदगी जीने लायक हो जाती। अमृता ने जिस औरत की पेंटिंग करने के लिये कहा था, वह पेंटिंग इमरोज 1966 में बना पाए।
घूघूती बासूती
क्या कोई उस असहाय किशोरी की मनोदशा की कल्पना कर सकता है? कैसे वह तिल तिलकर प्रतिदिन अन्दर ही अन्दर थोड़ा थोड़ा मरती होगी। कैसे वह अगले दिन उनकी कक्षा में जाने का साहस जुटा पाती होगी। जिस अध्यापन को उसने अपने जीवन का लक्ष्य बनाया था उसी में इतनी क्रूरता व गंदगी देख उसके हृदय पर क्या बीतती होगी।
प्रश्न अनेक हैं। क्या छात्राओं के कॉलेज में कुछ अध्यापिकाएँ नहीं होनी चाहिएँ थीं? क्या हमारे प्रदेश में अध्यापिकाओं की कमी है? यदि है तो देश के अन्य भागों से उनकी नियुक्ति करना क्या असंभव था? क्या हमारी बच्चियों को आदमखोरों के हवाले इतनी सुगमता से किया जा सकता है?
निर्वस्त्र क्यों हुआ असूर्यपश्या का तन देखो बीच बाजार
क्यों दे न सका तन ढंकने को एक टुकडा वस्त्र उसे
अबला नारी थी बेचारी दानवों ने कर दिया त्रस्त उसे
हिन्दी ब्लोगिंग मे कमेन्ट मे अभद्र होने की परम्परा को निभाया जा रहा हैं । भारतीय संस्कृति की चिंता में दुबले होने वाले अपनी टिप्पणियों में कितने अभद्र हो जाते हैं की यही भूल जाते हैं की लगता हैं की जो वो लिखते हैं वो केवल एक ब्लॉग पोस्ट ही हैं । उनकी नज़र मे भारतीय संस्कृति का मतलब केवल और केवल पुरूष प्रधान समाज की एक व्यवस्था हैं जिस मे अगर नारी प्रश्न भी करे तो वो उपहास की पात्र हैं ।
महिला दिवस , कन्यादान ,दहेज़ और भारतीय सभ्यता
आकांक्षा
इन वीरांगनाओं के अनन्य राष्ट्रप्रेम, अदम्य साहस, अटूट प्रतिबद्धता और उनमें से कइयों का गौरवमयी बलिदान भारतीय इतिहास की एक जीवन्त दास्तां है। हो सकता है उनमें से कइयों को इतिहास ने विस्मृत कर दिया हो, पर लोक चेतना में वे अभी भी मौजूद हैं। ये वीरांगनायें प्रेरणा स्रोत के रूप में राष्ट्रीय चेतना की संवाहक हैं और स्वतंत्रता संग्राम में इनका योगदान अमूल्य एवं अतुलनीय है।
बदले समय में भारतीय महिलाओं में भी स्तन का कैंसर सबसे आम हो गया है। हर 22 वीं महिला को कभी न कभी स्तन कैंसर होने की संभावना होती है। शहरी महिलाओँ में यह संख्या और भी ज्यादा है।
खुद पहचानें
स्तन कैंसर के सफल इलाज का एकमात्र सूत्र है- जल्द पहचान।
संक्षेप में जो आप जानना चाहते हैं स्तन कैंसर के बारे में
स्त्रियाँ क्या चाहती हैं
सिंगमण्ड फ्रॉयड ने कभी कहा था कि स्त्रियां क्या चाहती हैं, यह बहुत बड़ा प्रश्न है और “मैं इसका उत्तर नहीं दे सकता”।
यह एक बड़ी सच्चाई है कि पुरुष या पति यह जानता ही नहीं कि स्त्री (या उसकी पत्नी) उससे किस प्रकार के सहयोग, स्नेह या सम्मान की अपेक्षा करती है। पर यही सच्चाई स्त्रियों के सामने भी प्रश्न चिन्ह के रूप में खड़ी है कि क्या उन्हें पता है कि उन्हें अपने पति से किस तरह का सहयोग चाहिये? हमें पहले अपने आप में यह स्पष्ट होना चाहिये कि हम अपने पति से क्या अपेक्षा रखते हैं। बहुत गहराई में झांक कर देखें तो स्त्रियां भी वह सब पाना चाहती हैं जो पुरुष पाना चाहते हैं – सफलता, शक्ति, धन, हैसियत, प्यार, विवाह, खुशी और संतुष्टि। पुरुष प्रधान समाज में यह सब पाने का अवसर पुरुष को कई बार दिया जाता है, वहीं स्त्रियों के लिये एक या दो अवसर के बाद रास्ते बन्द हो जाते हैं। कहीं कहीं तो अवसर मिलता ही नहीं।
अब जानिए कुछ तथ्यइनकी कैसी साँझ?
इनकी ज़िंदगी में तो
हर वक्त है साँझ का धुँधलका
साँझ का क्यों रहे इन्हें इंतज़ार
क्या करें इस वेला में, यही सवाल लेकर आती है हर शाम
काश इस साँझ में ये भी करें ता-थया
उछलें-कूदें, मचाएँ धमाल
पर कहाँ हैं ये शाम
कोई इनके दिल से पूछे
ये तो चाहती जितनी दूर हो साँझ
उतना ही हो अच्छा
पर बिना शाम गुज़रे
नई सुबह भी तो नहीं आती
इसलिए गुज़ारनी होगी शाम हौसले से
लड़ना होगा अँधेरे से ताकि कदम बढ़े
एक नई सुबह की ओर
द स्टार डॉट कॉम के अनुसार
10 of the worst countries in the world to be a woman today:
Afghanistan
Democratic Republic of Congo:
Iraq:
Iraq
Nepal
Sudan
अन्य देशों में गुएतमाल , माली, पाकिस्तान,सऊदी अरब,सोमाली आदि हैं
BEST COUNTRIES TO BE A WOMANMeasures of well-being include life expectancy, education, purchasing power and standard of living. Not surprisingly, the top 10 countries are among the world's wealthiest.
- Iceland
- Norway
- Australia
- Canada
- Ireland
- Sweden
- Switzerland
- Japan
- Netherlands
- France
SOURCE: UNDP Gender-related development index
INCOME GAPS
Poverty means pain for both men and women, but throughout the world it's women who suffer the most from lack of income. In these countries, women earn less than 50 per cent of men's incomes:
Benin 48 per cent
Bangladesh 46 per cent
Sierra Leone 45 per cent
Equatorial Guinea 43 per cent
Togo 43 per cent
Eritrea 39 per cent
Cape Verde 36 per cent
Yemen 30 per centSOURCE: UNDP Human Development Report
LITERACY GAPS
The better a woman's education, the better chance she and her children have of surviving economically, protecting themselves and leading healthy lives. In these countries, women's literacy rate is less than 50 per cent of men's:
Mali 49 per cent
Benin 49 per cent
Yemen 47 per cent
Mozambique 46 per cent
Ethiopia 46 per cent
Guinea 42 per cent
Niger 35 per cent
Chad 31 per cent
Afghanistan 28 per centCountries with women's literacy rate less than 70 per cent of men's:
India 65 per cent
Morocco 60 per cent
Pakistan 55 per centSOURCES: UNDP, UNESCO, UNICEF
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