नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

April 30, 2008

पति पत्नी और वो यानि गलती बलिदान व्यभिचार

हमारे समाज मे एक अविवाहित , सिंगल , तलाकशुदा स्त्री को हमेशा "हेय" द्रष्टि से देखा जाता है । उनके बारे मे कहा जाता हैं कि ये दूसरो का घर बिगाड़ती हैं । इनको हमेशा दूसरो के पति ही अच्छे लगते हैं ।
क्यो ऐसा कहा जाता हैं ?
और क्यो ऐसी बात को एक पत्नी कहती हैं ?
क्या पति पत्नी का रिश्ता इतना कमजोर हैं कि वह एक दूसरी महिला के कारण टूट जाता हैं ?
एक एक अविवाहित , सिंगल , तलाकशुदा स्त्री अगर रिश्ता खोज रही हैं तो कहीं ना कहीं उसे अपनी जिंदगी मे कोई कमी लगती हैं जिसे वह पूरा करना चाहती हैं अतः निष्कर्ष मे वह किसी का पति नहीं खोज रही हैं अपितु अपने लिये एक साथी खोज रही हैं ।
इस अविवाहित , सिंगल , तलाकशुदा स्त्री से अगर , कोई पुरूष जो किसी का पति हैं , सम्बन्ध बनाता हैं तो गलती पति कि हैं या इस स्त्री की ?? अगर दोनों कि तो समाज मे दोषी केवल इस स्त्री को क्यो समझा जाता हैं । मै यहाँ समाज की मानसिकता की बात कह रही हूँ । क्यो उस पुरूष को हमेशा ये कह कर निर्दोष मान लिया जाता हैं कि "ये तो एक पुरूष कि आदत हैं" और "घूम घाम कर वह अपने घर वापस आ ही जायेगा " । क्या ऐसा पुरूष जब घर वापस आता हैं तो निर्दोष होता हैं ? क्यो हमारे समाज और कानून व्यवस्था मे ऐसे पुरुषो के लिये कोई सजा का प्रावधान नहीं हैं? जो एक महिला के साथ विवाह करता हैं और दूसरी महिला के साथ भी कुछ समय सम्बन्ध रखता हैं और फिर सामजिक दबाव के चलते वापस पत्नी के पास जाता हैं . क्यो नैतिकता कि कोई जिमेदारी इस पुरूष कि नहीं होती हैं ? क्या नैतिकता एक व्यक्तिगत प्रश्न हैं ?? जो समाज मे सुविधा के हिसाब से लागू किया जाता है ।
इसके अलावा भारतीये पत्निया जो हमेशा अविवाहित , सिंगल , तलाकशुदा स्त्री को "हेय" नज़र से देखती हैं और गाहे बगाहे टिका टिप्पणी करती हैं उनका कितना अपना दोष हैं इस प्रकार के संबंधो बनने मे ? क्यो उनका पति किसी और स्त्री की और आकर्षित होता हैं ? मै ऐसी बहुत सी विवाहित स्त्रियो को जानती हूँ जहाँ बच्चे होने के बाद पति पत्नी मे दैहिक सम्बन्ध ना के बराबर हो जाते है । कामकाजी पत्नी या घर गृहस्थी मे उलझी पत्नी अपने पति कि ज़रूरतों को भूल जाती हैं और फिर पति बाहर जाता हैं , तो क्या ऐसी पत्नी पर समाज मे अनैतिकता को बढ़ावा देने का दोष नहीं लगना चाहिए ??
और इस सब से जुडा सबसे अहम् प्रश्न हैं कि अगर पति ने दूसरी स्त्री से सम्बन्ध स्थापित किया है और पत्नी को पता हैं तो वह ऐसे पति के साथ आगे कि जिंदगी क्यो रहना चाहती हैं ? क्या बच्चो के लिये ? तो ऐसे घर मे जहाँ पति पत्नी केवल सामजिक व्यवस्था के चलते समझोता करते हैं वहाँ के बच्चो को संस्कार मे क्या मिलता हैं ? क्या पत्नी अपने आप को अलग करके दुबारा जिंदगी को स्वाभिमान के साथ नहीं जी सकती हैं ? कहाँ चला जाता हैं पत्नी का स्वाभिमान जब वह उसी आदमी के साथ फिर दैहिक समबन्ध बनाती हैं ? क्यो उसको उस पुरूष के साथ सम्बन्ध बनना अनैतिक नही लगता जो किसी और के साथ सम्बन्ध बना चुका हैं ?
और अगर उसको ये अनैतिक नही लगता हैं तो फिर उसे एक अविवाहित , सिंगल , तलाकशुदा स्त्री का किसी पुरूष से दैहिक सम्बन्ध क्यो अनैतिक लगता हैं ? क्या " अनैतिक " शब्द कि परिभाषा व्यक्ति से व्यक्ति और समय से समय बदल जाती हैं ?
अगर पति पत्नी के लिये को नैतिकता अनैतिकता का प्रश्न नहीं हैं तो समाज मे नैतिकता का सारा जिम्मा केवल एक अविवाहित , सिंगल , तलाकशुदा स्त्री का ही क्यो हैं ।
पति पत्नी और वो मे नैतिकता सिर्फ़ वो के लिये ही क्यो होती हैं ??

पति का कृत्य गलती / मिस्टेक , पत्नी का कृत्य बलिदान / सक्रीफईस और एक अविवाहित , सिंगल , तलाकशुदा स्त्री का कृत्य व्यभिचार / प्रोमिस्कुइटी ????

April 29, 2008

आखिर माज़रा क्या है...?

नारी ब्लॉग पर यह मेरी पहली पोस्ट है और वह भी सवालों से घिरी हुई...
एक नन्ही सी परी जिसे अभी दुनियां के रीति-रिवाजों से कुछ लेना देना नही, ब्याह दी जाती है...चेहरे के भाव बता रहे हैं कि वह अभी कुछ नही जानती मात्र दस साल और ब्याह दी गई एक एसे पुरूष के साथ जो उससे तिगुनी उम्र का है,...विवाह के बाद वह खुशी-खुशी पति के साथ ससुराल भी आ जाती है...उसे पति से कोई मतलब नही, उसे फ़िक्र है तो शादी में बने लड्डुओं की या फ़िर सुन्दर-सुन्दर कपड़ों की जो विवाह मे मिले थे...ससुराल आकर जब पहले ही दिन सास उसे बताती है कि उसे पति का ख्याल रखना है, पति कभी नाराज न हो, किसी भी बात पर उससे झगड़ा मत करना...बालमन सास की बात सहज ही स्वीकार कर लेता है...किन्तु रात को पति जब उसके साथ जोर-जबर्दस्ती करता है और उसे बताता है कि वह उसका मालिक है उसे उसकी हर बात माननी है...दर्द और पीड़ा से वो बच्ची चींख पड़ती है...जाने कहाँ घर के किस कौने में उसकी दबी-दबी घुटन भरी चींख रह जाती है...और पति रौष और झुंझलाहट के साथ अपना सर पकड़ता हुआ कमरे से बाहर आता है... घर के सभी लोग स्तब्ध हो लड़के को देख रहे होते है माथा खून से लथ-पथ जब तक कोई कुछ समझ पाता सास उस नन्ही सी बच्ची को बाल पकड़ बीच चौक मे खींच लाती है...क्षत-विक्षत आधे अधूरे कपड़ो में ही उसे मार-पीट कर घर से बाहर निकाल दिया जाता है...कल ब्याही गाजे-बाजे के साथ आज लहू-लुहान वो रोती कलपती चली जा रही है अपने बाबुल के घर...लेकिन किधर जिसने बिना सोचे समझे तिगुनी उम्र के साथ उसे ब्याह दिया... और नतीजा भी कुछ न निकला...

अगले दिन जबरदस्ती उसका पिता उसे फ़िर वहीं छोड़ आता है...लो अब तो कहानी और भी बढ़ गई...रोज-रोज की मार-पीट...और औरत बनने की नसीहत एक दिन तो हद ही हो गई जब ससुर ने भी उसे पीटा और जोर-जबर्दस्ती की...अब तक तो पति ही था आज ससुर भी...उसके चीखने चिल्लाने का असर यह हुआ की एक कमरे में वो कैद कर दी गई...हर रोज उसका मार-पीट के साथ भक्षण होता चील कौवों की तरह सब उस पर टूट पड़ते... एक दिन तो हद ही हो गई जब उसे पागल कह घर से निकाल दिया गया...गली के बच्चे भी उसे पत्थर मारने लगे और आज वो सचमुच पागल हो गई...आखिर उसका दोष क्या था?

ये मात्र कहानी नही असलियत है हमारे राजस्थान की एक जीती जागती औरत जो कब बच्ची से औरत बनी उसे पता भी न चला... जो आज सचमुच पागल हो चुकी है...जहाँ आज भी कुछ घर पिछड़ी जाती के है जिन्हे बेटी पैदा होने पर अफ़सोस होता है...जो औरत को सिर्फ़ और सिर्फ़ एक भोग-विलास की वस्तु समझते है...हर कुकर्म करके भी सब पुलिस से बच जाते है...पुलिस तक बात ही नही पहुँच पाती...

ऎसे मामलों में पास-पडौस या पुलिस लाचार होकर तमाशा देखती रहती है...क्या इलाज़ है ऎसे लोगो का....कैसे बचाया जाये इन रूढिवादी लोगो से मासूम नन्ही जान को जिनका कोई कसूर नही कसूर है तो बस इतना कि वो एक औरत है और एक ऎसे घर में जन्मी जहाँ जन्मी के न जन्मी कोई मायने नही...
सुनीता शानू

April 27, 2008

बेटियाँ ही बेटे है.

बेटे की चाहत हर दादा-दादी को होती है क्यूंकि बुजुर्गों का मानना है कि वंश तो लड़कों से ही चलता है। और लड़कियां तो पराया धन होती है जो शादी करके दूसरे घर चली जाती है। ३० साल पहले तो आज से भी ज्यादा बेटे की इच्छा लोगों मे होती थी और बेटी का जन्म होना यानी एक और खर्चा माना जाता था। और ये बात ३०-३२ साल पहले की है और दिल्ली के जिस परिवार की हम यहां बात कर रहे है उसमे पति २ भाई है और पत्नी अकेली बेटी है। और इस दंपत्ति के ३ बेटियाँ है ।उस समय तक ३ बच्चे होना सी बात थी।और जैसा की हर परिवार मे बेटे के चाहत होती है ठीक वैसे ही इस परिवार को भी बेटे की चाहत थी।
शादी के २ साल बाद जब इस दंपत्ति की पहली बेटी पैदा हुई तो सास कुछ ज्यादा खुश तो नही हुई पर निराशा भी नही हुई क्यूंकि एक तो ये पहला बच्चा था और दूसरे सास के दिल मे कहीं ये उम्मीद थी कि हो सकता है की अगली बार बेटा हो जाए।अभी बेटी ढाई साल की हुई ही थी कि उन्होंने एक और बेटी को जन्म दिया। अब दूसरी बेटी के पैदा होने पर सास-ससुर बहुत दुखी हुए । ससुर जी ने तो कुछ नही कहा पर सास एक और बेटी के पैदा होने से बिल्कुल भी खुश नही थी। उन्हें ये लग रहा था की दो लड़कियां हो गई है अब उनके बेटे का नाम कैसे आगे चलेगा क्यूंकि वंश का नाम तो बेटे से ही होता है। बेटे से तो माँ कुछ नही कहती थी पर वो यदा कदा अपनी बहु को कुछ कुछ सुनाती रहती पर बहुत ज्यादा वो कुछ नही कह पाती थी क्यूंकि उनका बेटा इस तरह की बातों को ज्यादा तवज्जोह नही देता था।और बेटे के सामने ना तो वो ज्यादा बोलती थी और ना ही उनकी बेटे के सामने ज्यादा चलती थी।
दो साल और बीते और उनकी सास हर समय पोता देख लूँ तो धन्य होऊं वाली बात दोहराती रहती। और इसी बीच एक बार फ़िर से वो माँ बनने वाली थी। इस बार सास को यकीन था की उनकी बहु के बेटा ही होगा। पर इस बार भी उन्हें बेटी हुई तो सास बहुत ही ज्यादा निराश हो गई क्यूंकि उनकी पोते को देखने की उम्मीदों पर पानी फ़िर गया था।हालांकि अगर सास का बस चलता तो बेटे की चाहत मे शायद १-२ बच्चे और इस दंपत्ति के हो गए होते।
पर इस बार पति -पत्नी ने तय कर लिया था की बेटा हो या बेटी अब वो और बच्चे पैदा नही करेंगे। अपनी बेटियों को ही वो पढा -लिखा कर इस लायक बनायेंगे कि उन्हें बेटे की कमी कभी महसूस ही ना हो।और उस दंपत्ति ने किया भी वही।उन्होंने अपनी तीनो बेटियों को अच्छे स्कूल और कॉलेज मे पढाया और आज तीनो बेटियाँ पढ़-लिख कर अच्छी नौकरी कर रही है ।इस दंपत्ति ने हमेशा अपनी बेटियों को अपना बेटा माना । और अब तो इन बेटियों की दादी भी अपनी पोतियों की तारीफ करते नही थकती है।

April 26, 2008

" एक लड़की जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

मिसाल बिक "ऊषा" जिसने एक ऐसे परिवार मे जनम लिया जिसे समाज का एक तबका चमार और दूसरा तबका सफाई कर्मचारी कहता हैं । ७ साल की उमर से घर घर जा कर सिर पर human waste ढोने वाली ये लड़की जुलाई के पहले हफ्ते मे U N जा रही हैं , जहाँ उसकी और उसके जैसी १५० महिलाओ की प्रेरणा भरी जिन्दगी के बारे मे लिखी किताब का विमोचन हैं । ऊषा ने आज से ५ साल पहले अपनी जिन्दगी को बदला और उस संस्था की सदस्य बनी जिसका नाम " नयी दिशा " हैं । उस संस्था ने उनको अचार और नूडल्स बनाने का काम दिया और आज ये products मार्केट मे बिक रहे हैं । ऊषा की स्वतंत्र सोच ने उसके लिये जिन्दगी के नए दरवाजे खोल दिये हैं ।

ज्यादा जानकारी इस लिंक पर उपलब्ध हैं

इसकी को कहते हैं " the indian woman has arrived "

April 25, 2008

सुख की खोज...

यह कोई कहानी नही - मेरी हमराज़ के मन का दुःख-दर्द है। जो वह मुझसे कह कर भूलने का प्रयत्न किया करती थी। एक उदास ,बादलों भरी शाम को वह अचानक मिली और वही सब कहती रही - दुःख-दर्द की कहानी।मैं उसे देखती रही - आँसुओ में डूबा मुख! ओह, इस पागल को सुख की खोज थी और हिस्से में काँटों भरी राह पर मात्र भटकना था। पति-पत्नी का सर्वस्व होता है - उसके तन और मन का स्वामी,उसका देवता - इस बात को अच्छी तरह जानती थी शीला पर..... । प्रत्येक नए दिन को नए उत्साह से नए रंग में रंग देने के लिए वह अपनी दिनचर्या शुरू करती थी - देवता को खुश रखना है, उसकी खुशी में ही अपनी खुशी है। अपनी मन की समस्त इक्षाओं को वह कमल के चरणों में डाल देना चाहती थी ताकि विचारों का सामंजस्य हो जाए, लेकिन कुछ नही हो सका। उससे कहीं न कहीं भूल हो जाती थी और सारे किए कराये पर पानी फिर जाता था।आदर्शों पर चलने और जीने की बात करते करते वह चाहने लगती थी कमल कहीं से आकर उसके पास घंटे दो घंटे बैठे, उसकी बात पूछे, बच्चों की बातें करे। वह उसके साथ बात-बात पर हंसने लगे ताकि छाती पर सिल सा जमा भय - पति का भय उसके मन से दूर हो जाए और वह यहीं पर पुनः भूल कर जाती - वह जाने कैसे भूल जाती कि कमल कई बार दोहरा चुका है कि वह कोई ऐरा-गैरा नही कि उसके पास व्यर्थ बैठ कर व्यर्थ की बातों में समय गंवाए।फिर कुछ गहरे कहीं चुप जाता। एक तिलमिलाहट लिए वह काम-धाम में जुट जाती। चाहे अनचाहे विचारों की आंधी में कभी उसके हाथों पर गर्म तेल पड़ता कभी ऊँगली की पोर से खून बहने लगते और वो ख़ुद को कोसने लगती - तू नही चल सकती आदर्शों पर। आडम्बर में जीती है. अरे ऐसे भी लोग हुआ करते हैं जिनकी कोई अपनी इक्षा अपनी ख़ुशी नहीं होती और तुम... .
शीला दीवारों पर आँख गडाए रोती रहती...उसके नसीब में लौह सलाखें हैं वह पिंजरे में बंद है सिर्फ दाना चुगने और पानी पीने के लिए.पिंजरे से वह भाग जायेगी..दीवारों और छत की कडियों ए बातें करते हुए वह प्लान बनती रही. घुल्घुल कर जीने के बजाय मर जाना अधिक अच्छा है...एक डरपोक औरत और कर भी क्या सकती है - घर की चार दीवारी का डर , समाज का डर , दुनिया का डर - चारों और डर ही डर.नहीं चाहिए उसे खुला आकाश.बस एक ही चीज़ की कामना है ,वह है मौत. तभी उसके अबोध बच्चा माँ-माँ कह उठे और वो उन्हें घूरने लगी- क्या तुम लोगों ने जान लिया.इतना प्यार से मत देखो...अभी मुझे जीना है, तुम्हारे लिए जीना है.सारा ज़हर पीकर सब झेलते हुए तुम्हे बड़ा करूंगी- दूर खडा भविष्य मुझसे कहता है - मैं एक दिन खुशकिस्मतों में गिनी जाउंगी...

April 24, 2008

क्या पुरूष नारी की स्वंत्रता से डरता है ,,?

आदमी हमेशा से ही नारी की स्वतंत्र छवि से डरता रहा है और उस से उसने अपने आक्रमण का केन्द्र बनाया है और अपने साहित्यक और सांस्कृतिक शब्द जाल से आदमी ने जिस एक चीज को हमेशा मारा और कुचला कुचला या पालतू बनाया है वह है उसकी स्वंत्रता ..नारी अपने में सम्पूर्ण शक्ति है और शायद यही आदमी को मंजूर नही है इसलिए कदम कदम पर आदमी उसको तोड़ने की कोशिश करता है ..क्यूंकि तोड़ कर ही किसी को पालतू और कमजोर साबित किया जा सकता है कहीं पढ़ा था कि औरत जैसी होती है वैसी पैदा नही होती है बलिक बनाई जाती है ..आदमी ने सिर्फ़ यही मान लिया है औरत एक शरीर है और जब यही उसकी एकमात्र पहचान बन जाती है तो यही उसके गुण के साथ साथ गाली भी बन जाती है ..तभी नन्ही मासूम कली अपने घर तक में सुरक्षित नही रह पाती है ..आज वह जितनी तेजी से अपनी पहचान बना रही है उतनी ही तेजी से उसके शोषण बलात्कार की घटनाएं बढती जा रही हैं ....रात को ८ बजते ही यदि बेटी वापस न लौटे तो जान हलक में अटक जाती है ..आखिर कब तक यह सब होता रहेगा ...बार बार कहा जाता है कि स्त्री अन्याय के ख़िलाफ़ ख़ुद जागे अपने को बचाने के लिए जूडो कराटे सीखे ..पढ़ के यूं लगता है कि पुरूष तो अपनी मानसिकता कभी बदलेगा नही ..औरत को ही अपने बचाव का रास्ता ख़ुद ही तय करना होगा ....और अपने स्वतंत्र होते अस्तित्व को हजारों सालो से परम्परा और आदमी के ख़ुद के स्वार्थ के लिए बनाए नियम से ख़ुद को आज़ाद करना होगा !!
चलते चलते .... ।कल एक अजब वाकया हुआ जिस से यह पता चलता है कि कि आज चाहे पुरूष कहे कि नारी की सोच आज़ाद है नारी अब आज़ाद है ॥सब शायद बदला हुआ नही है ..पुरूष आज भी यह सोचता है कि स्त्री है न यह किसी बात की गंभीरता को क्या समझेगी... आज कल हम अपनी बिटिया के लिए उपुक्त वर की खोज में लगे हैं ..एक जगह गुण मिलने पर मैंने फ़ोन किया कि आपके बेटे की जन्मपत्री मैंने अपनी बिटिया की जन्मपत्री से मिलवायी है .आप भी देख ले फ़िर आगे बात करते हैं ..फ़ोन पर उस वक्त उस सज्जन ने आराम से बात की और कहा कि वह अपने पंडित जी से बात करके वापस फ़ोन करेंगे ..कल उनका फ़ोन आया कि वह हमसे ..मेरे पतिदेव से मिलना चाहते हैं ..और बात भी उन्ही से ही करना चाहेंगे .मैंने कहा कि यह सेल नम्बर तो मेरा है ..वह इस समय मीटिंग में होंगे ..उनका जवाब आया कि मैंने कल भी आप से बात की ..पर मुझे अच्छा नही लगा .फ़िर लगा कि चलिए आप बात कर रही है तो बात कर लेता हूँ ...इस मामले में पुरूष को ही बात करनी चाहिए क्यूंकि औरतों की बातें औरतों की होती है ..उनको इन बातो की समझ नही होती है ..मैंने कहा अजीब बात कर रहे हैं आप ..मैं लड़की की माँ हूँ और पूरा हक है मेरा उतना ही बात करने का जितना उसके पापा का है .पर उनका जवाब था कि नही एक औरत ऐसे मामले की गंभीरता को नही समझ सकती ..सुन के गुस्सा तो बहुत आया ...पहले सोचा ऐसी मानसिकता रखने वाले से क्या रिश्ता जोड़ना .यहाँ क्या बात करना ....फ़िर दिल ने कहा कि नही इन महाशय से मिलना बहुत जरुरी है ..मिलने पर इन महाशय ने सिर्फ़ मेरे पतिदेव से बात की .और मेरी किसी भी बात का कोई उचित जवाब नही दिया .सिर्फ़ इसके सिवा जब .मैंने पूछा कि क्या आपकी बड़ी बहू नौकरी करती हैं .जवाब आया कि नही जी मैं औरतों की नौकरी के पक्ष में नही हूँ ..मेरी पत्नी भी जाब करती थी मैंने उनको भी मना किया और अपनी बहू की भी ..औरतों की शिक्षा सिर्फ़ इस लिए हो कि वह किसी इमर्जेंसी में काम आए नही तो वह घर ही संभाले तो अच्छा है ..हमने हाथ जोड़े और इन महाशय की सोच को नमन करते हुए वापस आ गए .यह सोचते हुए कि .क्या सच में हमारा समाज बदल रहा है ..या यह दिखावा है .???
रंजू भाटिया

मेरी सोच स्वतंत्र है ।

आर्थिक रूप से स्वतंत्र हूँ और अपनी माँ के साथ आज भी रहती हूँ ।भारत के अलावा विदेश भ्रमण आफिस के काम से भी करती हूँ । अपनी भांजी के लिये स्वेटर भी बहुत खूबसूरत बनाती हूँ । खाने मे शाकाहारी खाना इतना अच्छा बनाती हूँ की खाने वाले का पेट भर जाये मन ना भरे । दक्षिणी भारतीये खाना भी बना लेती हूँ । जब से कमाना शुरू किया है {२० वर्ष होगये हैं } अपने पैत्रिक निवास मे रहते हुए भी घर खर्च मे अपना हिसा देती हूँ । और इसके अलावा गैस सिलेंडर बदलना , Fuse बदलना , MCV बदलना , छोटे मोटे इलेक्ट्रिसिटी के रिपैर का काम भी करना जानती हूँ । जब तक घर मे हैंडपंप था तबतक उसको पूरा खोल कर उसका washer बदलना भी करती थी । बर्तन धोना और टॉयलेट की सीट साफ करना दोनो काम मेरे प्रिये कामो मे से हैं । साथ साथ कंप्यूटर पर तकरीबन ८-१० घंटे designing करती हूँ जो डिजाईन विदेशी कम्पनिया लेती है । कंप्यूटर खराब हो जाये तो ९० % खुद ठीक कर सकती हूँ । ब्लोग लिखना और जरुरत हो तो अपनी माँ के पेर दबाना भी कर ही लेती हूँ । पढ़ने मे गीता , रामायण { अरे इसे तो सस्वर गा भी सकती हूँ } , बाइबल और कामसूत्र बहुत पहले ही पढ़ चुकी हूँ । इसके अलावा हिदी साहित्य तो रक्त मे ही लेकर पैदा की हुई हूँ क्योकि माता पिता दोनों हिन्दी मे गोल्ड मेडलिस्ट थे ,इंग्लिश साहित्य इतना पढा की इंग्लिश अपने आप आगई । अब अगर नारी और पुरुष को बराबर समझती हूँ तो क्या गलत करती हूँ ? गाली देना और उंची आवाज मे बोलना उनके साथ ही करती हूँ जो मुझे ये करके अपने पुरुष होने का एहसास दिलाते है । ना कभी महिला के लिये बनायी लाइन मे खडी हुई हूँ ना होउंगी। मेरी सोच स्वतंत्र है ।

April 23, 2008

तुसी ग्रेट हो

"तुसी" कोलकता की रहने वाली एक बहुत ही आम सी लड़की है। "तुसी" ने बी.ऐ.पास किया है साथ ही उसने mountaineering institute से भी कोर्स किया हुआ है। तुसी को mountaineering का शौक है और वो माउन्ट एवरेस्ट पर जाना चाहती है। पर चूँकि माउन्ट एवरेस्ट के expedition लिए खर्चा बहुत आता है यही कोई ६-७ लाख रूपये। इसलिए २५ साल की तुसी अंडे बेच कर पैसे इक्कठा कर रही है। पूरी खबर आप इस लिंक पर जाकर पढ़ सकते है।
जिस तरह से तुसी अपने सपने को साकार करने मे लगी हुई है उससे लगता है की अगर मन मे ठान ले तो कोई भी काम मुश्किल नही है।

April 22, 2008

दहेज ...एक पुरानी दीमक

कलम चलाते वक्त याद नही रहता की मैं कौन हूँ , बस याद रहता है वो जो अपनी खुली आंखो से अपने आस पास होता देखती और महसूस करती हूँ

हम नारी होने का दावा करती हैं और नारी समस्या का अवलोकन भी साथ-साथ चलता है पर हम मैं से कितनी है जो हमेशा नारी अत्याचार के पक्ष मैं आवाज उठाती है

मैं दूर नही जाती, अपने घर अपनी ही छोटी बहिन की ही बात आज आपके साथ बाँटती हूँ १६ अप्रैल '०८ को उसके विवाह को आठ साल पूर्ण हुए है मात्र कहने के लिए अपने पति के घर इन आठ सालो में बस कुछ महीने ही बीताये है, कारन वही पुराना घीसा पीटा "दहेज"

अक्सर जब वो अपने सात साल के बेटे के साथ बैठी बाते करती है तों पति हूँ क्या पाया उसने इस विवाह के बदले
वूमेन सेल के चक्कर , कोर्ट और वकीलों की बहस या रिश्तेदरो की बाते ....

आसान नही ऐसी ज़िंदगी जंहा एक लड़की, हाथो में मेहँदी सजा, इक नए परिवेश में जाती है और नए सिरे से अपनी ज़िंदगी को उस माहोल में ढालती है कभी बहु तों कभी पत्नी बन कर , लेकिन क्या ससुराल वालो का फ़र्ज़ नही की उसके लाये समान को तोलने के जगह उसकी मदद करे
अरे, कम से कम औरत होने के नाते ही उसकी सास और ननद इक अच्छा वय्व्हार करे यह कौन सी रीत है की उसे भूखा , हाथ पैर तोड़ उसके, बंद काल कोठरी में मरने के लिय छोड दे

इन्साफ के लिए , औरतो के बचाव के लिए ४९८ नामक धारा तों कानून में है ..पर इन्साफ के लिए कितनी कोर्ट के चक्कर लगाने है यह कंही नही लिखा है ..कितना वकील और कब तक पैसा लेगा यह भी तए नही है

दिल्ली की पटियाला कोर्ट की बात करूँ तों हजारो ऐसे फैसले अभी भी कई सालो से सड़ रहे है और जाने कब वो वंही दम तोड़ देंगे

केवल नुकसान हो रहा है तों उन सताई औरतो का उनके बच्चो के भाविषेयो का जो शायद इसी आस में हर बार कानून के आगे इक अस लिए खडे रहते है की शायद अब आज उन्हे फ़ैसला मिल जाएगा........

फिलहाल इतना ही ओर लिख नही पाऊँगी ...उन बेबस औरतो के चेहरे मुझे रुला रहे है...

कीर्ती वैद्य ....

April 20, 2008

"एक महिला जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

मिसाल " पूनम जाधव " जिसने Zee Sa Re Ga Ma Pa शो मे हिस्सा लिया और लड़कियों मे प्रथम आयी । इस २६ साल कि महिला कि कहानी , कहानी हैं लगन और मेहनत कि । और सब से अच्छी बात ये कहानी उसने ख़ुद शो के दौरान सुनाई । उसने बताया कैसे उसकी गरीब माँ ने पिता कि मौत के बाद उसको जनम दिया और कैसे गरीबी मे उसको पाला । इतनी गरीबी कि एक दिन उनको पानी मे कागज़ उबाल कर पीना पडा था । इस पर भी पूनम ने कभी धैर्य नहीं खोया और एक टेलीफोन बूथ मे नौकरी करके अपने घर को संभाला और संगीत के अपने शौक को भी पूरा किया । आज शो के बाद पूनम के पास अगर इनाम मे मिली कार हैं तो उसने एक बच्ची को गोद भी लिया है । अब पूनम को भारतीये रेलवे मे नौकरी भी मिल गयी हैं

ज्यादा जानकारी इस लिंक पर उपलब्ध हैं ।
इसी को कहते हैं " the indian woman has arrived "

बढ़ते कदम

ममता जी ने जो कहानी बताई वो लगभग दुनिया की हर नारी की कहानी है। हम सब को ठोक पीट कर इस समाज की मशीनरी में फ़िट कर ही दिया जाता है। पर मैं आज आप को एक ऐसी लड़की से मिलवाने जा रही हूँ जिसने कई बंधन तोड़ अपना और अपने परिवार का भविष्य उज्जवल किया। वैसे तो उस लड़की का मुझसे कोई रिश्ता नहीं फ़िर भी मुझे और मेरे पूरे परिवार को उस पर गर्व है। कहने को ये कथा एक बहुत सी साधारण सी कन्या की लगती है जो हमारे देश की आम औरतों की तरह जी रही है, पर अगर इस बात पर गौर किया जाए कि वो गैरकानूनी तरह से भारत में बसने वाले बांग्लादेशी हैं और यहां आए दिन पुलिस रेड पड़ती रहती है और बांग्लादेशी जेल भेजे जाते हैं, जहां औरतों के साथ मनमाना व्यवहार होता है, जहां जी तोड़ मेहनत करने के बावजूद अपने पैसे बैंक में जमा करने की सुविधा से ये महरूम हैं, जहां मुस्लिम समाज की सभी रुढ़िवादियों से भारत आ कर भी औरतों को कोई छुटकारा नहीं मिला है तब ये कथा अलग हो जाती है।
तो आइए मिलें
यास्मीन मुश्किल से पंदरह सौलह साल की, छरहरे बदन वाली, थोड़ी सांवली सी एक बांग्लादेशी लड़की थी जो मेरे यहां रात का खाना बनाने आती थी। चार बहनों में वो सबसे बड़ी थी, उसकी मां मेरे यहां बर्तन मांजने का काम करती थी। मुश्किल से 10 साल की रही होगी जब उसकी मां उसे कभी कभी अपने बदले में हमारा काम करने भेज देती थी ,पहले तो यकीन नहीं हुआ कि ये हमारा पीठ तोड़ू सफ़ाई का काम कर सकेगी, पर वो काम ऐसे करती थी मानों खुदा की इबादत में लगी हो। धीरे धीरे हमें उसका काम इतना पसंद आने लगा कि हम उसकी मां के बदले उस से ही काम करवाना चाह्ते थे। उसकी अपनी मां ये सुन कर जलन के मारे कोयला हो ली और उसका हमारे घर आना बंद कर दिया।

खैर आते जाते हमारी मुलाकात अक्सर उससे हो जाती थी। पता चला कि उसने हमारे एक पड़ोसी के बच्चे संभालने का काम पकड़ लिया है। अब वो सारा दिन उनके घर रहने लगी। बच्चे क्या उस दस साल की बच्ची ने पूरा घर ही संभाल लिया। अल्मारियों की सफ़ाई से लेकर माइक्रोवेव चलाना, चायनीज बनाना, बेकिंग करना वगैरह उसने बहुत जल्द सीख लिया। वो इस बात से भी खूब अच्छी तरह से वाकिफ़ हो गयी थी कि हमारी दुनिया में सफ़ाई पसंद की क्या अहमियत है। जल्द ही अपनी मीठी जबान और कार्य मुस्तेदी से मेरी पड़ोसन का मन जीत लिया।
स्कूल कभी न जा सकने की कसक उसके मन में काफ़ी तीव्र थी, आखिर घर पर छोटी बहनों को ठ्सक से सुबह स्कूल यूनिफ़ोर्म पहन स्कूल जाते देखती थी। थकी हारी जब शाम को घर लौटती तब भी मां की यही अपेक्षा होती कि वो मां के साथ घर के काम में हाथ बटां दे, बहने नहीं, उन्हें पढ़ने के लिए छोड़ दिया जाये।
लेकिन यास्मीन की डिक्शनरी में निराशा का शब्द नही। काम खत्म कर वह मालकिन के बच्चों की किताबें ले कर बैठ जाती, और पढ़ने की कौशिश करती, दूसरी पड़ोसन के यहां काम के बदले पढ़ाई का फ़ोर्मूला अपनाते हुए उसने , पहली कक्षा से लेकर 5वीं तक सब विषय पढ़ने शुरू कर दिए, बकायदा ट्युशन लगा कर गणित पर विजय हासिल की। उसके अलावा, ड्राइंग उसका प्रिय विषय था। घर पर भी जल्दी जल्दी मां के साथ हाथ बंटा कर वो बहनों की किताबें ले कर बैठ जाती।

उसकी मां को भी अंदर ही अंदर कहीं न कहीं इस बात का मलाल तो था कि गरीबी के चलते उसने छोटी बेटियों के भविष्य की खातिर सबसे बड़ी बेटी का भविष्य स्वाहा कर दिया था। मां हर्गिज नहीं चाह्ती थी कि उसकी बेटियाँ जिन्दगी भर झाड़ू बर्तन करती रहें। उसने अपनी बेटी को कपड़े सीने का हूनर हासिल करने के लिए उकसाया पर उसमें बेटी को इतना मजा न आया। इस लिए सीख कर भी उसने उसे अपनी कमाई का जरिया बनाने से इंकार कर दिया। करते करते बिटिया पंद्रह साल की हो गयी। इस बीच बेटी को ब्युटी पार्लर का काम पसंद आने लगा और उसने लग कर मां की शह पर बकायादा दो साल ब्युटी पार्लर का काम सीखा। जिस काम में हाथ डालती है उसे इबादत की तरह करना उसके व्यक्तित्व का हिस्सा है। लाजमी है कि ये काम भी वो बखूबी कर रही है।
आज आलम ये है कि कभी मेरी ही बिल्डिंग के कम्पाउंड की दिवार के साथ झोपड़े में रहने वाली यास्मीन अपने परिवार के साथ एक पक्के साफ़ सुथरे किराए के मकान में रहती है घर में टी वी, गैस का जुगाड़ हो चुका है। दूसरे नंबर की बहन नौवीं क्लास की परीक्षा दे चुकी है और दसवीं के लिए ट्युशन की जुगाड़ में है। यास्मीन भी अब प्राइवेट रूप से दसवीं की परीक्षा देने की तैयारी कर रही है। सब बहनों ने अंग्रेजी में गिटपिटाना अच्छे से सीख लिया है। यास्मीन अब 18 साल की हो चली है।
उस के समुदाय की सस्कृंति के हिसाब से लड़कियों की शादी 12 /13 साल की उम्र में कर दी जाती है, पर 18 को पार करने के बाद भी यास्मीन का अभी शादी का कोई इरादा नहीं। शुरु शुरु में उसके पिता इस बात से काफ़ी अस्वस्थ महसूस करते रहे और बिटिया के लिए वर ढूढने का भरसक प्रयत्न किया पर हार कर उसे मां बेटी की मर्जी के आगे झुकना पड़ा। यास्मीन का अभी शादी करने का कोई इरादा नहीं, कालांतर में भी उसे अतंरजातीय विवाह से एतराज नहीं हालांकि उसकी मां खुद को इस बात के लिए राजी नहीं कर पाई।
यास्मीन की कहानी में उसकी मां की भूमिका भी कुछ कम अहम नहीं। बांग्लादेश से आने के बाद उसकी मां को इस बात का एहसास हो गया था कि अब बांग्लादेश लौटना कभी न हो सकेगा। दूसरा झटका जिंदगी का उसे तब लगा जब एक के बाद एक चार लड़कियां पैदा हो गईं और पति निठल्ला न काम का न काज का दुश्मन अनाज का, पर न वो निराश हुई न उसने अपने सपने छोड़े, न पति की धमकियों से डरी कि वो दूसरी शादी कर लेगा, बस एक ही लगन के मेरी बेटियों का भविष्य उज्जवल हो, फ़िर चाहे पति उसमें कोई भूमिका निभाए या न निभाए। उसने न सिर्फ़ सपने देखे उन्हें पूरा भी किया। कभी मेहनत से तो कभी अपने दिमाग की ताकत से। हर हाल में आशावादी और झुझारू रहना यास्मीन ने शायद अपनी मां से सीखा है।
यहां ये बताना भी शायद ममता जी की कड़ी से जुड़ना होगा कि यास्मीन की छोटी बहनें मुस्लिम समाज का हिस्सा होने और झोपड़े में रहने के बावजूद अक्सर जींस टॉप में दिखती हैं। उसका एक कारण तो उनकी मां का काफ़ी दमदार व्यक्तितव होना है और कुछ हमारी बम्बई की सस्कृंति।

April 18, 2008

आख़िर क्यों ?

ये बात आज की नही है बल्कि ८-९ साल पहले की है। दिल्ली मे जहाँ हम लोग रहते थे वहीं ये परिवार भी रहता था। जिसमे २ बेटे और ३ बेटियाँ है । जब शुरू-शुरू मे ये परिवार हम लोगों की कॉलोनी मे आया था तब ज्यादातर लोग ये समझते थे की उनके ३ बेटे और २ बेटियाँ है। क्यूंकि उनकी बड़ी बेटी जो उस समय क्लास सिक्स्थ मे थी हमेशा ही पैंट और शर्ट मे रहती थी।बाल भी बिल्कुल बॉय कट। अपने भाइयों के साथ कॉलोनी के लड़कों के साथ क्रिकेट खेलती और घूमती थी। ( वो अपने स्कूल की क्रिकेट टीम की कैप्टन भी थी ) वो आम लड़कियों जैसी बिल्कुल भी नही थी।
पर जैसा की सोच है धीरे-धीरे जब लोगों को पता चला की वो उनका बेटा नही बेटी है तो लोगों ने बातें बनानी शरू कर दी कि देखो लड़की होकर लड़कों के साथ खेलती और घूमती है।हर समय पैंट-शैर्ट मे क्यों रहती है। इसकी कॉलोनी की दूसरी लड़कियों से दोस्ती क्यों नही है।आख़िर क्यों ये हर समय लड़कों के साथ ही रहती है।
हालांकि वो एक छोटी बच्ची ही थी पर लोगों को चैन कहाँ मिलता है। कॉलोनी की महिलाओं ने उसकी माँ जो की तब तक अपनी बेटी के इस तरह से कपड़े पहनने को लेकर बिल्कुल परेशान नही होती थी उन्हें लोगों ने कह-कह कर अहसास दिला कर कि तुम्हारी बेटी है इसे अगर अभी से कंट्रोल नही करोगी तो ये हाथ से निकल जायेगी।लड़की है कहीं कुछ ऊँच-नीच हो गई तो क्या करोगी।भला कोई बेटियों को इतनी छूट देता है।
और फ़िर वही हुआ उस लड़की का भाइयों के साथ और दूसरे लड़कों के साथ खेलना बंद करवा दिया गया।और उसे लड़कियों जैसे कपड़े पहनने पर जोर डाला गया।और पैंट और शर्ट की जगह सलवार -कमीज ने ले ली। और उसके बाद तो बस जब वो स्कूल की ओर से क्रिकेट खेलने जाती तभी पैंट और शर्ट मे दिखती थी ।अगले २-३ साल तक यही सिलसिला चलता रहा ।ये जरुर है की उसे इन २-३ साल तक अपनी मर्जी से कपड़े पहनने की छूट नही थी और वो इस बात से हमेशा परेशान रहती की आख़िर क्यों उसे अपनी पसंद के कपड़े पहनने की आजादी नही है पर जब वो १० क्लास मे पहुँची तो उसने फ़िर से सलवार सूट के साथ-साथ पैंट-शर्ट भी पहनना शुरू कर दिया हाँ कॉलोनी मे तो नही पर उसने स्कूल और बाद मे कॉलेज मे भी क्रिकेट खेलना जारी रक्खा।

April 17, 2008

मेरी अपनी बात

"नारी" ब्लॉग पर यह मेरी पहली रचना है, यदि कुछ ग़लत लिखूं तों मुझे नासमझ कर माफ़ करे।

अपनी दस साल की नौकरीपेशा ज़िंदगी में मेरे अनुभव कुछ बड़े अजीब और खट्टे रहे लकिन जो भी रहे उनमे अधिकतर मीठे भी रहे पर हमेशा कटु अनुभव कम ही भुलाए जाते है ....

अब से पाँच साल पहले में जिस कम्पनी में काम करती थी ...वंहा के विवाहित मेनेजर ने बेहद निर्भीकता के संग मेरे सामने हमबिस्तर होने का प्रस्ताव रखा , चोंक्ने की बात यह नही की उन्होने ऐसा कहा बल्कि यह थी की मैं उनकी धर्मपत्नी को अगर बता देती तों उनका क्या हर्ष होता यह भी नही सोचा उन्होने ....खेर मैंने भी उनके ही अंदाज़ मैं उन्हे ना का पट्टा दिखा दिया

लेकिन जनाब अभी भी कभी कभी अपना रंग दिखा ही देते थे और मैं उतनी ही निडरता के साथ उनकी बातो का जवाब दे देती थे ..जानती थी की नौकरी तों जानी है पर पहले नई नौकरी तों ढूंढ ले तबतक इन्हे झेल लेते है

एक दिन हम पर कुछ चिल्लाते हुए बोले " यह तुम्हारा ऑफिस है घर नही ढंग से काम करो " मैंने भी उसी अंदाज़ मैं जवाब दिया और वो भी सारे स्टाफ के सामने " सर, मुझे भी पता है ऑफिस है , आपका बेडरूम नही , पर हर बार आप भूल जाते है "उसे दिन जनाब ऑफिस छोड जल्दी घर भाग गए

खेर मैंने इसके बाद भी वहाँ पूरे चार महीने और काम किया और उनकी नाक में दम किया ...आखिरकार नई नौकरी मिल गई और अब जाना था पूरा बदला ले कर ..सो अब मैंने उनसे जानबूझ कर तु-तडाक भाषा का प्रोग करना आरंभ कर दिया ..आखिरकार गुससाये मेनेजर ने मुझे नौकरी से निकाल दिया वो भी मेरी धमकी के अनुरूप मुझे एक महीने की अतिरिक्त आय देकर

आप सोच रहे होंगे के मैंने ऐसा क्यों किया , इस बात पर चुप क्यों बेठी रही ..हल्ला क्यों नही मचाया।

जवाब बिल्कुल सीधा है ......आज भी बड़े बडे महानगरों में यह सब आम हो रह है और लड़किया अपने घर की जिमेदारियो में दबाब में ऐसे लोगो के बहकावे में रही है और मजबूरन ऐसे घटिया कर्मो में धन्स्ती जा रही है

बात पुलिस तक जा सकती है पर क्या हमारा कानून हमे जल्द इन्साफ दे पायेगा ? नही ...कभी नही....

बात उनकी धर्मपत्नी तक जाए तों क्या वो हमारा साथ देंगी या उल्टा हमे ही ग़लत कहा जाएगा...

मैंने अपने हिसाब से उसे, उसके ही स्टाफ के सामने नंगा ही नही किया बल्कि उसे माली नुकसान भी पहुंचाया और अपने लिए नई नौकरी का इंतजाम भी किया


मजे की बात यह रही की मेरे घरवालो को मेरी नौकरी बदलने के बाद इस घटना का पता चला.
...ै

आप के विचार क्या है , इंतज़ार में ....कीर्ती वैद्य

April 16, 2008

कहां कहां नहीं हैं यौन शोषण पर क्यो हैं

sexual harassment यानी लिंग भेद के आधार पर सताया जाना । क्यों इतने लेख जो ब्लॉग पर आ रहे हैं यौन उत्पीड़न को केवल स्त्री पर हो रहे यौन शोषण से ही relate करते हैं । पोस्ट खोलने से पहले ही कैसे सब ये समझ लेते है की पोस्ट स्त्री के यौन शोषण के ऊपर ही होगी । हमारी ये सोच ही इस बात का सबूत हैं कि हमारे समाज मे स्त्री का यौन शोषण बहुत फेला हुआ हैं । कानूनी लड़ाई के लिये सबूत चाहीये , धैर्य चाहिये , पैसा चाहीये , ये सब तो हम "जोड़ " सकते हैं पर इस सब के अलावा चाहीये अपनों का मजबूत साथ जो बहुत ही कम मिलता है । क्या होगा कानून जान कर जब घर और समाज आप के साथ नहीं होगा । कहां कहां नहीं हैं यौन शोषण पर क्यो हैं ? इसका जवाब आज कोई नहीं देता । होता है पर बहस हैं क्यो हैं पर कभी नहीं ??
घर मे
हमारे जान पहचान मे एक दम्पति को अपनी पुत्री जो १५ साल कि थी उसके ननिहाल मे रखना पडा क्योकी पिता बहुत बीमार थे और लम्बे समय के लिये उन्हे अस्पताल मे रहना था । माता पिता को लगा कि अकेली बच्ची घर मे कैसे रहेगी सो ननिहाल मे रखना उचित होगा । और ननिहाल मे क्या हुआ , छोटी मौसी और मौसा एक दिन आये , रात मे रहे । अगले दिन बच्ची ने नानी से कहा की मौसा जी ने रात को आक़र उसको छुआ । नानी बात टाल गयी और बच्ची को कहा नहीं नहीं ऐसा कुछ नहीं हैं । फिर मौसा जी का आना बढा और उनकी हरकते भी , बच्ची ने कई बार नानी से कहा पर कुछ नहीं हुआ , उसी समय बच्ची के पिता ने किसी कार्यवश बच्ची को बुलवाया तो बच्ची ने उनसे भी शिकायत की । पिता ने बच्ची को तुरंत वापस बुलवाया और जब बच्ची की माँ ने बच्ची की नानी से प्रश्न किया कि आपने क्यों कुछ नहीं किया तो जवाब मिला ये सब तो चलता रहता हैं और "मै अपने दामाद को कुछ कह कर अपने सम्बन्ध नहीं बिगाड़ सकती और ना अपनी बेटी और दामाद मे कटुता ला सकती " । जानना चाहती हूँ मै कौन से कानून का सहारा के सकती हैं ये बच्ची ?? किस किस के ख़िलाफ़ यौन उत्पीरण का मुकदमा दायर कर सकती है ? मौसा के खिलाफ ? नानी के खिलाफ यौन उत्पीरण मे साहयता देने का ?
काम पर
एक टाइपिस्ट , एक सेक्रेटरी , एक पी ऐ , जो एक निम्न मध्य वर्ग से टाइपिंग शोर्ट हैण्ड सीख कर , कंप्यूटर पर टाईप सीख कर किसी छोटी दूकान पर प्राइवेट काम करने जाती हैं या किसी प्राइवेट कम्पनी मे पार्ट टाइम काम करती हैं , या किसी सरकारी नौकरी मे temporary काम करती हैं । उसे आते जाते कोई न कोई धक्का दे देता हैं , उसकी पीठ सहला जाता हैं , बालो पर हाथ फेरता है । किस कानून का सहारा ले ये लड़की क्योकि उसकी नौकरी तो परमानेंट भी नहीं हैं । फिर घर पर उसके ही लाये पेसो से रोटी सब्जी आती हैं कैसे छोड़ दे नौकरी । किसे कटघरे मे खडा करे ?? उस बाप को जिसने पैदा कर दिया और माँ को छोड़ कर दूसरी शादी कर ली , या उस समाज को जो उसे आत्म सम्मान कि दो रोटी भी नहीं कमाने देता । विदेशो मे तो कानून हैं की अगर आप प्रेम करते हैं और उस प्रेम मे आप वादा करते हैं और उस वादे से मुकरते है तो भी आप को सेक्सुअल हरास्मेंट का दोषी माना जाता हैं । शारीरिक सम्बन्ध की परिभाषा वहाँ defined हैं ।जिस समाज मे स्त्री के कपड़ो को उसके रैप के लिये जिमेदार माना जाता हो उस समाज मे सेक्सुअल हरास्मेंट कि बात करना हास्यास्पद है । आज भी न जाने कितने ही घरो मे काम करने वाली बाई सुबह इस को भोगती है और शिकायत करने पर नौकरी से जाती हैं । कितनी पत्निया या माँ अपने पति या पुत्र को अदालत मे खडा करती है ?? न्याय , कानून सब अपनी जगह हैं , पुलिस व्यवस्था भी हैं पर दोषी जब अपने घर मे हो तो आप क्या करते हैं पहले उसकी चर्चा हो बाद मे कुछ और ।
नेट पर

मै १९९७ से इंटरनेट पर काम करती हूँ और चेट पर भी काम के लिये हमेशा उस विंडो को खुला रखती हूँ पर इसका मतलब ये नहीं हैं की मै हर तरह की बात करना पसंद करती हूँ । पर फिर भी लोग व्यक्तिगत प्रशन पूछते हैं क्यो ?? क्यो जानना चाहते है की मेरी निजी बातो के बारे मे ? एक संवाद चल रहा हैं ठीक हैं स्वागत हैं पर उस संवाद के बीच मे कोई भी व्यक्तिगत प्रश्न क्यो ? मै देर रात तक चैट पर क्या कर रही हूँ इस से आप को क्यो मतलब होना चाहीये ? चैट से आगे चले तो ब्लॉग लिखा , महिला हो कर ब्लॉग लिखा , चलो तारीफ़ कर दी जाए , कविता किस्सा कहानी ठीक है , अब औरत जात के लिये यही सब ठीक हैं । अब बहुत जयादा तारीफ हो रही हैं , इंग्लिश मे बहुत लिख रही हैं , चलो ठीक करते हैं , इंग्लिश नोट allowed का नारा बुलंद , नहीं मानी !!! औरत होकर इतनी हिम्मत चलो अनाम कमेन्ट से शील का हरण करते हैं अब तो सुधरेगी , नहीं सुधरी ख़ुद अनाम हो कर गाली देने लगी चलो नाम बात कर जलील करते हैं , अच्छा तकनिकी जानकार भी हैं चलो आई पी एड्रेस से डराते हैं । हाँ ये ही एक महिला ब्लॉगर यानी मेरा सफर इग्लिश मै कहे तो SUFFER । क्या मै अकेली हूँ नहीं सब के साथ ऐसा ही हैं । और तमगा पाती हैं बड़ी सती सावित्री बनती हैं !!
लेकिन क्यो होता हैं ये ,क्यो मानसिक यातना से निकलना होता हैं । क्यो पुरुषो को अपनी सीमाये ज्ञात नहीं हैं ?? क्यो सीमाये केवल नारी के लिये हैं ? क्यो गरिमा का ठेका नारी का होता हैं ? क्यो शोषण पुरूष करता हैं और परिणाम नारी को भोगना होता हैं ? क्यो लड़किया देर रात तक भर नहीं रह सकती ? क्यो लड़किया स्किर्ट टॉप जेंस नहीं पहन सकती ?? क्या लड़की होना गुनाह हैं ? नहीं इस ब्लॉग पर कोई पुरूष विरोधी सभा नहीं हैं और नारी की बात , नारी का रोष पुरूष से नहीं system से हैं जहाँ पुरूष के लिये flexible कयादे कानून हैं और महिला के लिये rigid ।

ये लिन्क भी देखे और कमेन्ट उन को भी शायद आप को मह्सूस हो जो हमे वक्त बेवक्त होता हें या करवाया जाता हे . हम कभी नहिन भूलते की हम नारी हे पर आप भूल जाते हें कि हम इन्सान हें

क्या यह मानसिक यंत्रणा नहीं है ?

आज का युग कंप्यूटर युग है ..सब कुछ तेजी से बदल रहा है ..लोग कहते हैं की स्त्री पुरूष का भेद भाव मिट रहा है ..पर क्या सच में ..? महंगाई के ग्राफ के साथ एक ग्राफ और तेजी से जो बढ़ा है वह है छेड़ छाड़ के मामले ..हर रोज़ कोई ख़बर इस से जुड़ी न हो ऐसा हो ही नही सकता ..समाज का खुलापन अब विकृत रूप में सामने आने लगा है..छोटी बच्चियां तक अब नही बख्शी जाती फ़िर दोष दिया जाता है कि आज कल औरते ख़ुद ही बहुत तेज हैं ..उनका ड्रेस सेंस ही ऐसा भड़काऊ होता है कि यह सब घटनाएं घटित हो जाती है वह ख़ुद ही अपनी इस हालत के लिए जिम्मेदार है ..मानसिक यात्र्ना का यह दर्द किस रूप में स्त्री होने का एहसास करवा जाए कौन जाने ..अब नेट कि दुनिया में ही देख ले ..नेट पर चेट करना एक आम बात है ..पर जब एक स्त्री पुरूष बात चीत शुरू करते हैं तो बहुत कम समय में वह बात जिस तरह का रुख ले लेती है वह किसी मानसिक सेक्सुअल हर्स्मेंट से कम नही होता है शायद सामने वाले को जो लेडी नेट पर चेट कर रही हैं वह एक सहज उपलब्ध साधन लगती है जो नेट पर सिर्फ़ किसी ख़ास मकसद से आई है उसको थोडी चिकनी चुपडी बातों में फंसा कर या वह आपसे ४ दिन हंस के बात करती है तो वह तो समझ लो आप से पट गई है फ़िर चेट में उसे किए जाने वाले सब रोमांटिक निशान का इस्तेमाल किया जायेगा और उन्हें कभी गुलाब और कभी काफी तक आफर की जायेगी ..अब इस में मैं यह नही कहूँगी कि इस में सिर्फ़ पुरूष जिम्मेदार है ..बात को बढावा तो दूसरे तरफ़ से भी हुआ पर जब बात दूसरी तरफ़ रुख लेने लगी तो फ़िर पीछे हटना पड़ा ..अब सवाल यह उठता है कि यह मानसिकता पैदा ही क्यों होती है क्यों यह समझ लिया जाता है नेट पर बात करने वाली का चरित्र संदेहप्रद है ? या इसको तो आसानी से कुछ भी कहा जा सकता है ...शादी शुदा हो या शादी शुदा न हो ..उम्र का कोई तकाजा नही बस पुरूष होने का दंभ दिख ही जाता है फ़िर सामने से बात करने वाला चाहे २४ साल का लड़का हो या चाहे ५० साल का पुरूष ...क्या यह भी एक तरह का मेंटल सेक्सुअल हर्स्मेंट नही है ? अच्छे बुरे लोग सब जगह होते हैं सब बातें करने वाले इस कैटेगरी मैं नही आते कई अच्छे रिश्ते भी बनते हैं पर वो बहुत कम हैं .

April 15, 2008

सच ये है.....


कोई भी नाम दे दो-सीता,गीता,नीता............क्या फर्क पड़ता है ! क्या फर्क पड़ता है इस बात से कि उसकी जाति क्या थी ! क्या फर्क पड़ता है, उसकी शिक्षा क्या थी ! क्या फर्क पड़ता है, उसका रंग-रूप कैसा था ! क्या फर्क पड़ता है , उसके संस्कार कैसे थे!.........

कभी सुन्दरता,कभी पैसा,कभी अच्छाई,कभी सहनशीलता-एक ही लिबास में 'बलि-वेदी'पर चढ़ाई गई है,'चरित्रहीनता'!

सुन्दरता - चरित्रहीनता!

कम दहेज़- चरित्रहीनता!

सुशील - चरित्रहीनता!....................

ऐसा नहीं कि कोई नारी "काल" नहीं होती, अपनी वाचाल प्रवृत्ति से किसी का जीना हराम नहीं करती, या आए दिन प्रेम नहीं करती...पर ऐसा कम होता है और ऐसी नारियों को बलि का बकरा बनाना मुश्किल है !

खैर , आऊं उस लड़की की बात पर , जिसे - चलिए एक नाम दे देती हूँ "सुधा"।

सुधा की शादी की तयारी चल रही थी, जाने कितने सपने उसे अनजाने में हौले से छूकर चले जाते। नया घर, नई पहचान, नए संबोधन... कल्पनाओं की उड़ान ख़त्म नहीं होती थी।

सुधा ब्याह कर ससुराल पहुँची-रूप की चर्चा,गहनों की चर्चा,समानो की चर्चा...कोई कमी नहीं थी, पर ससुराल वालों की निगाह में कम हो गई और नई ज़िंदगी की सौगात मार-पीट के रूप में मिली...

कोई सहनशीलता काम नहीं आई। सुधा जब-जब अपने परिवार वालों से अपना दर्द बताती, वे उसे समझाते "वही घर है।" एक दिन सुधा बदहवास अपने चाचा के पास उनके ऑफिस में भाग कर गई..."वे मुझे मार देंगे, मुझे वहाँ नहीं जाना...!" चाचा ने समझाया,"ऐसे नहीं घबराते...थिदी खट-पट हर घर में चलती है, जहाँ चार बर्तन होंगे ,आवाज़ होगी ही, उनका दिल जीतने की कोशिश करो बेटा ....

और अगली सुबह सुधा की मौत हो गई , दिलवालों ने उसे जला डाला... अखबार के मुखपृष्ठ पर ताजी ख़बर छपी "कौन है ज़िम्मेंदार?"

अब आप कहिये - क्या यह सज़ा सिर्फ़ ससुराल वालों को मिलनी चाहिए ? नहीं, मेरे विचार से सबसे पहले उनको,जो समाज का वास्ता दे कर अपनी बेटी को काल के आगे भेजते हैं.....मृत्यु के बाद न्याय की कैसी झूठी गुहार ? सब ढकोसला है-कहीं कभी कोई न्याय ना था, ना है, ना होगा- पर मेरी आत्मा का रिश्ता इनके साथ ही है, और...अब आप कहिये मैं सही हूँ या ग़लत?

माँ के लिए संतान मे अन्तर क्यों?यह भेद-भाव क्यों?

आज, आप सबसे एक अनुभव बाटना चाहती हूँ बात तब की है जब मैं मात्र १०-१२ साल की थी और अवसर था दुर्गा पूजा का मेला भी था, भीड़ थी और खूब चहल-पहल देवी की प्रतिमा को देखने के लिए भीड़ उमड़ रही थी और उस भीड़ मे मैं भी एक सदस्य थी माँ दुर्गा की मूर्ति को देखते हुए मैं यह प्रार्थना कर रही थी की "हे माँ तुम भी एक नारी हो , मैं तुम्हारी संतान...मुझे इतनी शक्ति दो की मैं इस दुनिया मे हमेशा हर स्थिति का सामना कर सकूँ तभी मैंने सुना की पुजारी जी किसी महिला से (जिसके गोद मे एक बिल्कुल छोटा बच्चा था) कुछ पूछ रहे है ...उन्होंने उस महिला से कहा ..लाओ बेटी तुम्हारे बच्चे को भी देवी माँ का आर्शीवाद दिला दूँ तब उस महिला ने बच्चे को पुजारी जी के हाथों मे थमाते हुए कहा .."क्या पुजारी जी बेटी तो हुयी है और क्या कंहूँ आपसे" उस समय जैसे पूजा मंडप मे खामोशी छा गई, मैं यह सोचने लगी की एक माँ अपने संतान के लिए ऐसा कैसे सोच सकती है? (मेरे अनुमान से वह महिला ही उस बच्चे की माँ थी) पुजारी जी ने उसे जो कहा उसे सुन कर वहाँ उपस्थित लोग हसें हुए बिना न रह सकें उन्होंने कहा " तुम इस बच्चे की माँ होकर यह बात कह रही हो, मत भूलो तुम ख़ुद एक नारी हो आज इस बच्चे ने तुम्हें एक माँ बनने का सम्मान दिलाया है तुम्हें तो देवी माँ का धन्यवाद करना चाहिए की तुम्हें एक स्वस्थ संतान मिली है" मैं भी उनकी बातें सुन रही थी ...मुझे पुजारी जी की बातें दिल तक छू गई उन्होंने सच ही कहा था मैं बार-बार यह सोच रही थी की जब एक माँ ऐसा सोच सकती है तो दुसरें ऐसा क्यों नही सोचेंगे"माँ के लिए संतान मे अन्तर क्यों? यह भेद-भाव क्यों?
हम सब लोग देवी पूजा तो करते है , कभी लख्मी, कभी सरस्वती, कभी दुर्गा के रूप मे लेकिन अपने घर मे या दिल मे एक लड़की को शायद ही वो जगह देते है जिसकी वो हकदार है
जब तक हम ख़ुद नारी हो कर अपनी सोच और मानसिकता को नही बदलेंगे तब तक हम यह उम्मीद दूसरो से कर भी नही सकते है बेटा या बेटी होने से पहले एक स्वस्थ संतान का होना जरुरी है

April 13, 2008

बदलते समय का आह्वान एक माँ की पाती बेटी के नाम

मेरी प्यारी बेटी ..
आज वह वक्त आ गया है जब मैं तुम्हे ज़िंदगी की उन सच्चाइयों से रूबरू करवाऊं जिनका सामना मैंने किया औरसहते सहते हर जुल्म को अपने से यह वादा करती गई कि यह पीड़ा तुम नही सहोगी ..यहाँ यह बताना मेरा उदेश्यनही हैं की मैंने क्या क्या सहा क्यूंकि अब लगता है की अपनी इस पीड़ा कि जिम्मेदार मैं भी हूँ .पर कई बार हमसच में परिस्थियों के आगे विवश हो जाते हैं या हमारी ही कुछ कमजोरियां हमे उस हालात से विद्रोह नही करनेदेती ...बहुत छोटी थी जब मेरी शादी कर दी गई यह कह के नए कपड़े नए गहने मिलेंगे ..सगी माँ थी नही जोज़िंदगी का असली मर्म दर्द समझाती ..मायके का माहोल भी इतना सुखद नही था कि वहाँ जायदा देर रहा जासकता ..उस पर वह उम्र थी ख़्वाबों की सपनों की जो यह तो देख रही थी कि शादी के होने पर गहने तो मिलेंगे पर इस के साथ जो मिलेगा वह इस पगले दिल ने सोचा ही नही था मात्र १९ साल में शादी हो के पति के घर आ गईशादी के बाद पहला तोहफा १० दिन में ही मिल गया जब ममिया सास के कुछ कपड़े चोरी हो गए और तलाशी मेरी अलमारी की ली गई ..हेरान परेशान हो कर पति की तरफ देखा तो वहाँ गहरा सन्नाटा था और सास- नन्नद तोतलाशी ले ही रही थी ...माँ सगी नही थी पर ऐसा अपमान वहाँ अपना नही देखा था ..दिल किया धरती फट जाए औरसमां जाऊ क्युकी शादी पर आए मेहमान अभी रुखसत नही हुए थे सब तमाशा देख रहे थे यह ...फ़िर दो महीने बीतेही थे कि तुम मेरी कोख में आ गई ..और मैं एक नए रंग में ख़ुद को देख कर खुश हो गई ..उस वक्त तक के मिलेसारे दुःख भूल गई और तुम्हारे आने की राह देखने लगी ...इसी बीच ननद की शादी भी तय हो गई लगा कि अब यहमेरी दुनिया है जहाँ अब कोई दर्द नही होगा ..पर वक्त को शायद इतना खुश होना मंजूर नही था इधर से तुम आईमैं जी भर के तुम्हे अभी देख भी न पायी थी की उधर से ननद तलाक ले कर और एक छोटी बच्ची को कोख में लेकर वापस आ गई .....खैर वक्त धीरे धीरे बीतने लगा ..मेरे साथ साथ अब तुम पर भी गुसा उतरा जाता.... ननदनौकरी करती थी और घर में तुम्हे और उसकी बेटी को संभलने वाली मैं ही थी तुम्हारी दादी को बेटी के वापस आनेके दुःख के साथ ही यह दुःख भी था की उनके इकलौते बेटे का बेटा नही हुआ बेटी हुई है .मुझे मनहूस चोर औरभाग्यहीन नाम से अक्सर पुकारा जाता था क्युकी लड़की का होना ननद का वापस आना और उसकी बेटी होनायह सब मेरे मनहूस होने के कारण था इसी बीच यह पता लगा की तुम्हरे पापा जहाँ नौकरी करते हैं अब वह नहीरही इसका कारण भी मुझे ही माना गया ..मैंने नौकरी की इच्छा जाहिर की यही सोच के कुछ सहारा तो मिलेगा परतुम्हारी दादी को मेरा बाहर नौकरी करना मंजूर नही हुआ .. इसी तरह ३ साल बीत गए ..तभी तुम्हारी छोटी बहनके आने की खबर मिली और इस बार बेटा ही होगा इस आशा को ले कर कई तरह की दवा मुझे खिलाई गई पर मेराईश्वर जानता है की मैंने हर दवा लेते वक्त यही दुआ मांगी की मुझे दूसरी भी बेटी देना ..जाने क्यों यह बात दिल मैं आई की दूसरे की बेटी पर जुलम करने वाले के घर अब कोई बेटा न हो .ईश्वर ने मेरी सुन ली औरतुम्हारी एक प्यारी छोटी सी बहना आ गई ..अभी इन उलझनों से सुलझ ही रहे थे कि एक एक्सीडेंट मैं तुम्हारीदादी चल बसी ..अब तक तुम्हारे पापा का नौकरी का कोई जुगाड़ सही ढंग से नही बन पाया था और उनका वहगुस्सा गाहे बगाहे मेरे ऊपर उतरता रहता था ...वैचारिक समानता हम दोनों के बीच मैं कभी बन ही नही पायी औरजो पति पत्नी के बीच का एक समझदार रिश्ता बन पाता वह तुम्हारी बुआ ने कभी बनने नही दिया ..तुम्हारेदादा जी आज तक मेरे हाथ का पानी नही पीते क्यूंकि उनकी नज़रों मैं मैं आज भी मनहूस हूँ जिसने आते ही उनकेघर को मुसीबतों से .. लाद दिया ..तुम्हारे नाना ,नानी ने तो मेरी शादी के बाद से ही अपना दरवाज़ा यह कह कर बंदकर लिया की हमने तो शादी कर दी अब आगे जीयो या मरो वही तुम्हारा घर है ......आज उम्र के ४५ साल बीतगए हैं ..तुम आज २४ साल की हो चुकी हो ..अपनी ज़िंदगी के बीते लम्हे मैं वापस नही ला सकती ..पर तुम्हे औरतुम्हारी बहन को यही सिखाया की खूब पढो ताकि वक्त आने पर अपने पैरों पर आत्म सम्मान के साथ खड़ी रहसको और ख़ुद मैं इतनी ताक़त पैदा करो कि कोई तुम्हे मनहूस या चोर कह के गाली दे तो तुम वह लड़ाई ख़ुद लड़सको याद रखो की अन्याय वही ज्यादा होता है जब हम उसको चुपचाप सह लेते हैं ..मैं आज मानती हूँ की मैं उसवक्त इन सब बातों का विद्रोह नही कर सकी कुछ मेरे पास हिम्मत की कमी थी और कुछ दिए हुए संस्कार किवही घर है अब जीना मरना तो इसी में है इन सबसे ज्यादा जो कमी मुझ ख़ुद मैं लगी कि मैं शिक्षित होते हुए भीअपने पैरों पर खड़े होने कि हिम्मत नही जुटा पायी ..पर हाँ इतनी हिम्मत जरुर जुटा ली की अपनी बात अपनीकलम से एक लेखिका के रूप में लिख पायी तुम्हारे पापा एक पिता बहुत अच्छे हैं ..और तुम दोनों इनको बहुतप्यारी हो .तुम दोनों ने जो ज़िंदगी में पढ़ना चाह अब तक इन्होने कभी रोक नही लगाई तुम्हारी हर छोटी बड़ीइच्छा को पूरा किया .. यदि आज तुम्हे उच्च शिक्षा दिलाना मेरा एक सपना था तो इस में पूरा सहयोग मिलाऔर साथ की मेरी कलम को आजादी भी ....खैर जो बीत गई बात गई ..आज मुझे खुशी सिर्फ़ इसी बात कि है किमैं अपनी बात लिख सकती हूँ कम से कम इतनी डरपोक तो नही हूँ .:) .आज मेरी अपनी एक पहचान है लोग मुझेएक अच्छी लेखिका के रूप में जानते हैं ..और यह पहचान मैंने ख़ुद बनायी है.... हाँ घर के कई मोर्चों पर अब भी चुप्पी लगा लेती हूँ इसलिए कि जो बात मैं इतने सालों में नही समझा पायी अब उसको समझाना मुश्किल है औरअभी मुझे माँ होने का एक और फ़र्ज़ पूरा करना है ..तुम्हे तुम्हारे घर में खुशहाल देखना है.....आज तुम्हारे पासइतनी अच्छी शिक्षा है इसका भरपूर प्रयोग करो और अपनी ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जीयो ..बडो का सम्मानकरो पर जहाँ अपमानित होने लगो वहाँ मेरी तरह गर्दन झुका के हर इल्जाम कबूल मत करो ..अपनी पसंद सेअपना जीवन साथी चुनो और उस में सबसे पहले यह बात देखो कि क्या वह तुम्हारे विचारों को समझता है औरक्या तुम्हारी भावनाओं का भी उतना मान करता है जितनी उसकी ख़ुद की हैं ..अब तुमने कुछ समय में अपना नया जीवन शुरू करना है ..आने वाला कल तुम्हारी राह देख रहा है ..तुम्हे हर खुशी मिले और अन्याय से लड़ने कीताक़त मिले

इसी दुआ के साथ
तुम्हारी माँ


लेखिका एक गृहणी , माँ हैं . रचना केवल एक सूत्रधार हैं इस पोस्ट की । लेखिका जानना चाहती हैं क्या अपने सीमित दायरे मे वह "और भी बहुत कुछ कर सकती थी ??" और क्या कारण होता है कि एक पुरूष जो बहुत अच्छा पति नहीं साबित होता हैं पिता बहुत असाधारण होता हैं , क्यो होता हैं ऐसा ? इस के अलावा पाठको की राय के लिये वह बहुत उत्सुक हैं कि क्या वह भी मिसाल हैं या नहीं ??

April 12, 2008

यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह ।

नारी प्रतीक शक्ति का , नारी जननी , नारी माँ , नारी बेटी , नारी पत्नी और फिर भी नारी महसूस करे कि वह बन्धन मे हैं । अजीब paradox हैं । पर भारतीय समाज मे ऐसा ही हैं । हमारी कुछ मान्यताये हैं , कुछ परम्पराएं हैं जो सदियों से हैं इसलिये आज की "सोच" मे रुढ़िवादी होगई हैं । "आज की सोच " जो १९६० मे भी थी जब मैं पैदा हुई और १९९४ मे भी वहीं सोच थी जब मेरी भांजी पैदा हुई । मेरी माँ ने तब सुना था "अरे बेटी हुई , चलो पहली हैं कोई बात नहीं !! " और जब नातिन आयी तो उन्होने सुना " अरे नातिन आयी हैं । नाती हो जाता तो कम से कम कोई दाह संस्कार तो कर देता "!! । " आज की सोच " ३४ साल मे भी नहीं बदली । बेटी यानी एक सेकंड क्लास सिटिज़न . आज मेरी भांजी १४ साल की हैं और इकलौती शहजादी हैं क्योकि उसकी नानी को अपने दाह संस्कार की कोई फिक्र नहीं हैं !! ।
"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।
नवरात्रि पर इस ब्लॉग को शुरू किया हैं क्योकि याद दिलानी थी नारी को नारी की शक्ति । ब्लॉग मित्रो , नारी और पुरूष दोनों ने काफी शुभकामना संदेश दिये हैं । धन्यवाद ।
सोमवार को जो पोस्ट आयगी उस पोस्ट से इस ब्लॉग पर "संवाद" की शुरुवात होगी । संवाद होगा इसलिये किसी भी प्रश्न का जवाब कोई भी कमेन्ट मे दे सकता हैं । जरुरी नहीं हैं कि जिसने पोस्ट लिखी हो वह ही जवाब देगा । समाज मे सब रहते हैं तो जवाब देही किसी एक ही कि क्यों हो ? पुरूष मित्रो से निवेदन हैं कि इस संवाद मे आप जरुर हिस्सा ले । सोच बांटने का माध्यम बने "नारी" अभी तो सिर्फ़ इस तरफ प्रयास हैं ।
सोमवार की पोस्ट बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योकि वह पोस्ट एक गृहणी , माँ की हैं जिसने अपनी जिन्दगी को रास्ता बना दिया अपनी बेटियों के लिये । उसका प्रश्न था " क्यों वह मिसाल नहीं हैं , क्या उसने कुछ नहीं किया हैं " ? वह अनाम हो कर लिखना चाहती हैं । नारी हैं वो भी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद के लिये ना सही अपनी बेटियों के लिये अर्जित की । जीया हैं उसने भी उन सपनो को जो उसकी आँख मे थे अपनी बेटियों की आँखों मे देखा है उसने सच होते हुए और आज उसकी बेटी की आंखो में सपना है अपनी माँ की किताब आने का ..आगे बढ़ने का ..जो समय बीत गया वह वापस नही आएगा पर जो संस्कार और ज़िंदगी से लड़ने का जज्बा उनकी माँ ने उन्हें दिया है वह अब सिर्फ़ उनकी ज़िंदगी को नई राह नही दिखायेगा बलिक माँ को भी जो ज़िंदगी अभी बाकी है उस में उसके अनुसार जीने का मौका देगा ..यही आशा की चमक माँ - बेटी की आंखो में एक नई रोशनी भर जाती है .

आशा है "नारी " निरंतर शक्ति का संचार करती रहेगी , कभी स्तन से उफनते दूध से तो कभी कलम की निकली स्याही से । कभी दुर्गा बनकर , तो कभी सरस्वती बनकर । कभी अम्बे तो कभी गौरी , कभी लक्ष्मीबाई तो कभी किरण बेदी , कभी मीरा तो कभी तसलीमा , कभी इंदिरा तो कभी बेनजीर । अनेको रूप धरे निरंतर प्रगति के रास्ते पर अग्रसर ।

April 11, 2008

यौन शोषण के खिलाफ लड़ी और जीती

मिसाल हैं " रुपन देओल बजाज " जिसने १७ साल मुकदमा लड़ा "के पी एस गिल" के खिलाफ , यौन शोषण का । जिस समय ये घटना हुई थी रुपन देओल बजाज IAS ओफ्फिसर और वह भी सीनियर लेवल पर और के पी एस गिल पंजाब पुलिस के सब से ऊँचे ओहदे पर थे । एक पार्टी मे उन्होने शराब के नशे मे रुपन देओल बजाज के नितंब पर थप्पड लगाया था । उस पार्टी मे सभी आला अफसर थे पर किसी ने भी गवाही नहीं दी थी । कोर्ट ने रुपन देओल बजाज की ख़ुद की गवाही को ही माना था । पर मुकदमे का फ़ैसला आते आते पूरे १७ साल लगे और इन १७ सालो मे रुपन देओल बजाज निरंतर इस बात पर अड़ी रही कि नारी के शील का शोषण करने का अधिकार किसी भी पुरूष नहीं हैं । और ऊँचे ओहदे पर जो पुरूष हैं उनको अपनी मर्यादा मे रहना होगा ।
इस चरित्र कोई यहाँ रखने का मकसद हैं की नारी को यौन शोषण के ख़िलाफ़ हमेशा सजग रहना होगा और समय रहते ही इसके ख़िलाफ़ लड़ना भी होगा । ज्यादा जानकारी इस लिंक पर हैं ।

April 10, 2008

मशालवाहक महादेवी वर्मा




अपनी माँ से महादेवी जी के बारे मे बहुत सुना हैं । आज मेरी माँ डॉ मंजुलता सिंह की हस्तलिपि मे ये पोस्ट डाली है { आप उनकी हस्त लिपि पर क्लिक करे और इस लेख को जरुर पढे }। केवल लिखना या कहना ही सब कुछ नहीं बदल सकता , जरुरी हैं हम अपने जीवन मे उसको माने ।

April 09, 2008

अमृता जिसने वक्त से आगे चल कर एक मुकाम बनाया

मैंने अमृता को जितना पढ़ा है उतना ही उनकी सोच की कायल हुई हूँ ...वह अपने समय से बहुत आगे चलने वाली महिला थी यह एक बहुत बड़ा सच है कि अमृता जी को लेखिका के रूप में बहुत प्रतिरोध का सामना करना पड़ा उनका बहुत विरोध हुआ कभी उनके रहन -सहन को लेकर कभी उनके सपष्ट सरल और निष्कपट लेखन के कारण .लेकिन उन्होंने कभी अपने विरोधी और निदन्कों की परवाह नही की उन्होंने अपने पति से अलग होने से पहले उन्हें सच्चाई का सामना करने और यह मान लेने के लिए प्रेरित किया की समाज के तिरस्कार और निंदा की परवाह किए बिना उन्हें अलग अलग रास्ते पर चले जाना चाहिए उनका मनाना था की सच्चाई का सामना करने के लिए इंसान को मानसिक बल और सिर्फ़ साहस की जरूरत होती है कितना सही कहा उन्होंने ...आज की हर औरत का यह सपना है की वह केवल दिए हुए रोल को ही न निभाती रहे बलिक आप बन कर भी जी सके लेकिन हालात के कारण और मजबूरियों के कारण कुछ कमी अपने अन्दर हिम्मत की भी होती है जिस के कारण यह सपना सिर्फ़ सपना बन के रह जाता है

उनका मानना था की आज की नारी को अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए शिक्षा का होना बहुत जरुरी है ...आजकल बेशक अनुभव और मूल्य दोनों बदल रहे हैं और वह सुविधाये भी मिल रही है जो उनके समय में सहज लड़कियों को उपलब्ध नही थी पर उन्होंने उस वक्त भी हालत का डट कर मुकाबला किया .उनका कहना था कि सिर्फ़ शिक्षा ही एक ऐसा जरिया है जिसको हासिल करके यह अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ सकती हैं अगर उन्हें आज़ाद होना है तो यह कोशिश उन्हें ख़ुद करनी होगी सिर्फ़ चाहने से काम नही बनेगा ..वह समाज में मर्दों की हकूमत .औरतों की गुलामी और उनके ऊपर किए जा रहे जुल्मो सितम के बहुत ख़िलाफ़ थी यह दर्द उनकी लेखनी से भी छलक कर कई जगह आया है ....अपने जीवन की मिसाल देते हुए वह कहती थी कि मैंने अपनी रोज़ी जीवन में ख़ुद कमाई है ..पैसे के मामले में औरतों का मर्दों पर निर्भर होना कतई ठीक नही हैं ऐसा करके वह ख़ुद को एक खिलौना बना लेती हैं और फ़िर एक नौकर से ज्यादा उनकी हैसियत नही रहती !!

अमृता जी ने अपनी उस ज़िंदगी से नाता तोड़ लिया था जिसे वह पसंद नही करती थी अगर वह चाहती तो अपने पति के साथ एक नाखुश्गवार ज़िंदगी जीती रहती मगर उन्होंने एक बड़ा कदम उठाया जिसके लिए एक सुलझे हुए दिमाग की जरुरत होती है और उस से ज्यादा जरुरतहोती है साहस की .....वह जानती थी कि एक लेखिका के रूप में उनका जीवन सार्वजनिक है और उन्हें सामजिक नाराजगी और आक्रोश का समाना करना पड़ेगा पर उन्होंने अपनी शर्तो पर ज़िंदगी को जीया ..अमृता जी ने कभी अपने पति के बारे में कहीं कोई शिकायत या मनमुटाव जाहिर नही किया .... बहुत बाद में यह जाना कि अमृता जी के पति ने पहले तलाक देने से मना कर दिया था और तलाक़ तभी दिया जब वह कहीं और शादी करना चाहते थे ....यहाँ तक कि जब वह अन्तिम समय में बहुत बीमार थे तो अमृता जी के बेटे ने उनसे पूछा कि क्या वह अपने पिता को यहाँ ला कर उनकी देखभाल कर सकते हैं तब अमृता जी न केवल हाँ कहा बलिक उनकी भरपूर सेवा भी की ..ऐसी थी अमृता ..अपने समय में उन्होंने वह कर दिखाया जो आज कल भी नारी शायद न कर पाये ..अपनी शर्तों पर अपनी ज़िंदगी जीना शायद इसी को कहते हैं

April 08, 2008

एक औरत जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की

मिसाल है " अनामिका " जिसका बलात्कार शान्ति मुकुंद अस्पताल दिल्ली मे एक वार्ड बॉय ने किया था । इस प्रकरण मे अनामिका ने अपनी एक आँख भी खो दी थी । जब वार्ड बॉय पर मुकदमा हुआ तो जिस दिन अन्तिम फैसला आना था जज ने फ़ैसला टाल दिया और अनामिका को एक पत्र भेजा । पत्र मे लिखा था क्योकि वार्ड बॉय ने जो एक मुजरिम हैं ये इच्छा जाहिर कि है कि वह अनामिका से शादी " कर सकता हैं " इस लिये जज इस फैसले को अनामिका के "हित मे" समझते हुए , अनामिका से उसकी राय जानना चाहते हैं । अनामिका का जवाब था कि जज को ऐसा सवाल ही नहीं करना चाहीये था । अनामिका ने दूसरे दिन कोर्ट जाकर मुजरिम के लिये फासी की मांग की ताकि आगे फिर किसी भी महिला के साथ वो बलात्कार ना कर सके। बहुत मुश्किल रहा होगा ये फ़ैसला लें अनामिका के लिये । जिस समाज मे जज कि कुर्सी पर बैठा व्यक्ति बलात्कारी से शादी कि बात को सही समझता हो वहाँ अनामिका का फैसला हिम्मत से भरा था । बलात्कार के ९० % केस मे बलात्कारी से पिड़िता का विवाह करा दिया जाता हैं और फिर बलात्कारी बहुत कम सजा पा कर बच जाता हैं रास्ता आसान नहीं था अनामिका के लिये पर फिर भी वो चली ताकि उसे बाकि की जिन्दगी घुटन के साथ ना काटनी पडे ।
अनामिका का चित्र मेरे पास है पर मै उसको ब्लॉग पर डाल कर सार्वजनिक नहीं करना चाहती हूँ ।
पूरी जानकारी इस लिंक पर उपलब्ध है
और इसे ही कहते है "the indian woman has arrived "

April 07, 2008

एक औरत जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की

मिसाल हैं " निशा शर्मा " जिसने अपनी शादी रुकवा कर , वर और उसके परिवार को पुलिस के सुपुर्द कर दिया । निशा नहीं चाहती थी कि उसके परिवार को वर पक्ष के आगे दहेज़ ना देने के लिये झुकना पडे । वर पक्ष ने तय किये हुए विवाह प्रस्ताव को अंत समय मे एक " सौदे " की तरह लिया और निशा के पिता से शादी संपन्न करने के लिये नकद की मांग की । वर कि माता जी ने निशा के पिता को चांटा मारा जब उन्होने अपनी असमर्थता दिखाई { मीडिया मे सब आया था कुछ अति हमेशा होती है खबर मे } । इसके आगे निशा से बर्दाश्त नहीं हुआ और उसने शादी से इनकार करते हुए वर पक्ष को पुलिस के सुपुर्द कर दिया । बाद मे निशा ने बिना दान दहेज़ के अपना विवाह किया । बहुत मुश्किल रहा होगा निशा के लिये उस दिन बोलना पर वो सही समय पर बोली और बोल कर उसने आपने जीवन को उस आने वाली घुटन से बचा लिया । पूरी जानकारी इस लिंक पर उपलब्ध है
और इसे ही कहते है
"the indian woman has arrived "

April 06, 2008

एक औरत जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की

मिसाल हैं "लालमुनी देवी " जिसने अपनी ख़ुद की खेती कि जमीन ना होते हुए भी मशरूम कि खेती मे महारत हासिल कि और आज उनका नाम एशिया के २५ टॉप किसानों मे गिना जाता हैं । अपनी तकनीक से मात्र ५०० रुपए से मशरूम कि खेती कर के उन्होने अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की हैं । उन्होने २२ अन्य मजदूर महिलाओ को भी , प्रेरित करके , इस तकनीक से स्वाबलंबन का रास्ता दिखाया । रास्ता बहुत आसन नही रहा होगा पर फिर भी वह चली और अपनी जिन्दगी को जीया । पूरी जानकारी के लिये लिंक क्लिक करे ।
और इसे ही कहते हैं

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April 05, 2008

एक लड़की जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की

मिसाल हैं " कांग्रेस कँवर " १३ साल की बालिका जिसने अपने गाँव मे अपनी शादी के खिलाफ आवाज उठाई। वर पक्ष के आने के बाद उसने साहस का परिचय देते हुए १०० नम्बर पर कम्पलेंट कि धमकी से अपना बाल विवाह रोका । इसके लिये उसको २६ जनवरी २००८ को पुरूस्कार से सम्मानित किया गया । पर उससे पहले ये जर्मनी मे जा कर एक सेमिनार मे भी प्रशस्तिपत्र पा चुकी हैं । रास्ता उसने अपना खुद बनाया नहीं इंतज़ार किया की कोई आये और उसे उसकी आज़ादी दे । जाना ही नहीं माना भी उसने की वह आजाद हैं अपने सपने जीने के लिये । पूरी जानकारी के लिये लिंक क्लिक करे ।
और इसे ही कहते हैं
"the indian woman has arrived "

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