नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

May 29, 2009

आर. अनुराधा को पढिये और जीना सीखिये

आर. अनुराधा के इन्द्रधनुष पर आज के कविता पोस्ट की गयी हैं कविता का सन्दर्भ आर. अनुराधा के शब्दों मे

पिछले ग्यारह साल से हर दिन मेरे लिए कुछ आशंकाएं लिए आता है। मई 1998 में पहली कार मुझे कैंसर होने का पता चला। पूरा इलाज कोई 11 महीने चला। इसके बाद लगातार फॉलो-अप, चेक-अप, ढेरों तरह की जांचें, तय समयों पर और कई बार बिना तय समयों पर भी, जब भी कैंसर के लौट आने की जरा भी आशंका हुई। उसके बाद सारे एहतियात के बाद भी मार्च 2005 में कैंसर का दोबारा उभरना। इन सबके बीच इन छोटी-छोटी मोहलतों की हसरत बनी हुई है, जिनमें से कुछेक पूरी हुईं भी, लेकिन उस इत्मीनान के साथ नहीं, जो मैं दिल से चाहती हूं। इसलिए जिंदगी से इजाजत मांगने का मन है कि क्या कभी हो पाएगा। और मुझे उम्मीद है कि होगा।
मै आर. अनुराधा को निरंतर पढ़ती हूँ क्युकी एक कैंसर से सम्बंधित हर जानकारी मिल जाती हैं जो कहीं ना कहीं किस के काम सकती हैं और दूसरा जिन्दगी जीने का सलीका भी जाता हैं
कविता यहाँ हैं आप जरुर पढे और कमेन्ट भी वही दे इस पोस्ट पर कमेन्ट देने की सुविधा नहीं हैं ताकि उस कविता पर आया हर कमेन्ट इन्द्रधनुष के सातो रंगों मे रंगा रहे

May 27, 2009

आप क्या करेगे ????

अगर
आप किसी ऐसे व्यक्ति को जानते हैं जिसने बलात्कार या यौन शोषण किया हैं { केवल शक का आधार नहीं आप को पक्का पता हैं } और आप उस व्यक्ति की शादी होते देखते हैं तो क्या आप उस परिवार को सूचित करेगे जहाँ वो शादी कर रहा हैं ?

May 25, 2009

भारतीये नारियां राजनीति को अपना उद्यम/ व्यवसाय { profession } क्यूँ नहीं बनाती?

भारतीये नारियां राजनीति को अपना उद्यम/ व्यवसाय { profession } क्यूँ नहीं बनाती ? महिला आरक्षण बिल की बात फिर शुरू हो गयी हैं पर इस क्षेत्र मे पुरुषों के मुकाबले नारियों की उपस्थिति बहुत कम हैं । आकडे स्वप्नदर्शी ने दिये हैं अपनी पोस्ट । विचार योग्य बात हैं की जब नारियों की उपस्थिति हर जगह बढ़ रही हैं तो यहाँ स्वेच्छा से बहुत कम नारियां हैं । और जो हैं वो केवल और केवल इस लिये हैं की या तो उनके पिता या ससुर या पति पहले से राजनीति मे थे । शीला दीक्षित , राबरी देवी, सोनिया गाँधी , अगाथा के संगमा , वसुंधरा राजे सब के परिवार राजनीती से जुडे रहे है । और भी बहुत से नाम हैं पर मुझे कोई नाम ऐसा नहीं याद आ रहा हैं जो राजनीति को उद्यम/ व्यवसाय { profession } मान कर राजनीति मे आयी हो ।

यूँ तो ये नारी सशक्तिकरण ही हैं की अब
पैतृक व्यवसाय मे स्त्रियों की उपस्थिति दर्ज हो रही हैं और लोग केवल बेटो को नहीं बेटियों / बहुओ को भी अपना पॉलिटिकल वारिस माने लगे हैं । ये मज़बूरी हैं यान सक्षमता का इनाम ?? .... कह नहीं सकती ।

फिर भी मूल प्रश्न वहीं हैं
भारतीये नारियां राजनीति को अपना उद्यम/ व्यवसाय { profession } क्यूँ नहीं बनाती?


May 18, 2009

अपना आस्तित्त्व बनाए रखने का संघर्ष या ‘पावर गेम’


दुबई से दम्माम सफ़र के दौरान एक नया अनुभव हुआ जिसके कारण पिछले दिनों घुघुतीजी के लेखों पर आई कुछ टिप्पणियों ने ध्यान खींचा.......

उनमें से एक संजय बैंगनी जी की टिप्पणी थी.....
बच्ची स्त्री, छोड़ने वाली उसकी माँ स्त्री, पालने वाली नानी स्त्री, घर में भूलने वाली स्त्री....स्त्री ही स्त्री की दुश्मन क्यों है?
नवजात कन्या शिशू के मूँह-नाक में मिट्टी भर कर मार दिया गया. सुन कर ही हाथ काँपने लगे ऐसा काम स्त्रीयों ने ही किया था!!!
आपने जो लिखा है वह इस सभ्य कही जाने वाली दुनिया का सच है॥


पल्लवी भी नहीं समझ पा रही कि है कड़वा क्यों हुआ....
स्त्री के साथ ये एकतरफा व्यवहार बहुत आम है...लेकिन एक कड़वा सच ये भी है की इस भेद भाव को करने में स्त्री का ही अहम् रोल रहता है....खुद के साथ सब कुछ झेलने के बाद भी वह ऐसा कैसे कर सकती है...मेरी समझ के परे है ये बात!

अक्सर समाज में यही सवाल उठता रहता है कि स्त्री ही स्त्री की दुश्मन क्यों पाई जाती रही है..... इसका जवाबरचनाजी ने एक छोटे से जुमले में दे दिया..... लेकिन इसकी गहराई को नापा जाए तो कई उलझी गुत्थियाँ सुलझजाएँगी.....
Conditioning of the system to treat man as superior and woman as inferior is the root cause of all problems....

सदियों से दूसरे दर्जे पर खड़ी स्त्री हसरत भरी निगाहों से पुरुष को ताकत का प्रयोग करते हुए, उसका आनन्द लेते हुए... ताकत के नशे में डूबते हुए देखती आई है.... स्वाभाविक है उसका उस ताकत को पाने के लिए संघर्ष करना.... वह भी उस शक्ति के नशे को अनुभव करना चाहती है...

क्यों..... क्या ऐसा सोचना या उसके लिए संघर्ष करना गलत ?...... शायद नहीं .....


समाज में शक्ति बँटती भी है तो पुरुष के हिस्से ज़्यादा आती है...स्त्री को न के बराबर मिलती है.... स्त्री पुरुष दोनों ही शक्ति पाने के संघर्ष में लगे रहते है.... गहराई में जाकर उसका कारण खोजने पर हम पाते हैं कि शक्ति प्रदर्शन की बात हो या द्वेष ईर्ष्या का भाव हो ... स्त्री और पुरुष दोनों में समान भाव में होता है...
पहले से ही ताकत के दावेदार पुरुष पर शक्ति परीक्षण न कर पाने के कारण ही स्त्री स्त्री पर ही अपनी शक्ति का परीक्षण कर बैठती है.....कौन अपने से अधिक ताकतवर पर अपनी ताकत आजमाने का साहस कर सकता है.... मानव प्रकृति है, उसका स्वभाव है, वह आसानी की ओर भागता है....



दिगम्बर नासवा जी की टिप्पणी पढ़कर लगा कि समाज धीरे धीरे बदलेगा...
हमारे समाज में बहुत से ऐसे नियम मिल जायेंगे जो स्त्री और पुरुषों में अंतर दर्शाते हैं ..कुछ पर कुढ़न हो सकती है......कुछ समय की जरूरत भी...........पर धीरे धीरे इस में परिवर्तन आ रहा है...............और आगे भी आएगा ............... बस समयानुसार ऐसे मुद्दे उठाने की है................

समय बदला है...बदल रहा है और इस तरह से समय समय पर बदलाव आते रहेंगे....
उसे अपनी शक्ति पहचानने या पाने के लिए स्त्री पर शक्ति परीक्षण करने की ज़रूरत अब नहीं लगती..... धीरे धीरे वह स्वयं की शक्ति पहचान रही है, पुरुष के कन्धे के साथ कन्धा मिला कर तो काम कर ही रही है..... कहीं कहीं आगे भी निकल गई है.... !

पावर गेम का एक ताज़ा उदाहरण हमने अनुभव किया.......

दुबई से निकलते वक्त हमने पति महोदय से कहा कि साउदी के बॉर्डर तक हम ड्राइव करते हैं...लेकिन मना करते हुए खुद ड्राइव करने लगे.... हमने भी बहस न करते हुए चुप रहना बेहतर समझा और दूसरी सीट पर जा बैठे... मन ही मन सोचने लगे कि यह भी एक तरह से ताकत का खेल है......हम क्यों चुप रह गए..फिर सोचा..मौन में भी ताकत होती है.... ज़रा देखे हमारा 'साइलैंस गोल्ड' का काम करता है कि नही.... उधर भी शायद मन में कुछ ऐसी हलचल हो रही थी ......
शहर से बाहर निकलते ही पैट्रोल डलवाने के बाद अचानक कार की चाबी हमें दे दी .....सच में साइलैंस गोल्ड होता है...इस बात को आप भी आजमाइए....
फौरन पति की ताकतवर कार की ड्राइविंग सीट पर आ बैठे..... ताकतवर कार इसलिए कि हमारी कार का इंजन कम पावर का है.... 1.3 सीसी...... और इधर 3.4 ....
हल्का सा पैर दबाते ही 140 की स्पीड..... 140...... 150....160...... हमारा इस तरह से ताकत के नशे में झूमना...... कुछ पल के लिए पति और बेटा दोनो विचलित हुए फिर हमारी विजयी मुस्कान का आनन्द लेने लगे... ......
बेटे ने तो कुछ नही कहा लेकिन विजय धीरे से बोल उठे .... 150 काफी है.... डस्ट स्ट्रोम कभी भी आ सकता था...हमारी मुस्कान थोड़ी फीकी हो गई..... लेकिन कहा मानकर फौरन स्पीड कम कर दी...
उस वक्त जो गाड़ी भगाने का आनन्द आया उसका बयान नहीं कर सकते..... ताकत का नशा ... अपने वजूद के होने का एहसास एक नई उर्जा भर देती है....

May 15, 2009

एक गाँव के लोगों ने दहेज़ न लेने-देने का उठाया संकल्प

दहेज लेने के किस्से समाज में आम हैं। इस कुप्रथा के चलते न जाने कितनी लड़कियों के हाथ पीले होने से रह गये। प्रगतिशील समाज में अब तमाम ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं, जहाँ लड़कियों ने दहेज लोभियों को बारात लेकर वापस लौटने पर मजबूर किया या बिना दहेज की शादी के लिए प्रेरित किया। इन सब के बीच केरल का एक गांँव पूरे देश के लिए आदर्श बन कर सामने आया है। मालाखुरम जिले के नीलंबर गाँव के लगभग 15,000 युवक-युवतियों ने प्रण किया है कि इस गाँव में न तो दहेज लिया जाएगा और न ही किसी से दहेज मांगा जाएगा। यह प्रण अचानक ही नहीं लिया गया बल्कि इसके पीछे एक सर्वेक्षण के नतीजे थे। इस सर्वेक्षण के दौरान पता चला कि गाँव में लगभग 25 प्रतिशत लोग बेघर थे और बेघर होने की एकमात्र वजह दहेज थी। ग्रामीणों को अपनी बेटियों की शादी के लिए अपना घर बेचना पड़ा था। हर शादी पर तीन-चार लाख खर्च होते हंै और इसकी वजह से लोगों को अपना मकान व जमीन बेचनी पड़ती है और अन्ततः वे कर्ज के बोझ तले दब जाते हैं। इससे मुक्ति हेतु गांव को दहेजमुक्त बनाने का यह अनूठा अभियान आरम्भ किया गया है। फिलहाल इस पहल के पीछे कारण कुछ भी हो पर इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए और आशा की जानी चाहिए कि अन्य युवक-युवतियां भी इससे सीख लेंगे।
आकांक्षा

(यह सवाल विशेष रूप से उन महिलाओं से जो नारी सशक्तिकरण के नाम पर झंडा बुलन्द करतीं हैं और पुरुषों को गाली देकर इतिश्री कर लेतीं हैं)

इस बात पर सवाल कि यदि आपके घर के लड़के की शादी जिस लड़की से होने वाली है और मालूम हो जाये कि उसके साथ बलात्कार हुआ था तो क्या उसको घर की बहू बना लिया जायेगा? (यह सवाल विशेष रूप से उन महिलाओं से जो नारी सशक्तिकरण के नाम पर झंडा बुलन्द करतीं हैं और पुरुषों को गाली देकर इतिश्री कर लेतीं हैं)

ये प्रश्न क्युकी नारियों से पूछा गया हैं तो इसको यहाँ दे रही हूँ ।
इसका जवाब बहुत सीधा हैं के एक असम्वेदन शील व्यक्ति ही ये प्रश्न कर सकता हैं क्युकी कहीं ना कहीं उसकी मानसिकता मे जिस का बलात्कार हुआ हैं वहीं दोषी हैं

ये प्रश्न क्यूँ उठा और कब तक उठता रहेगा और कब तक नारियों से एक उत्तर नहीं एक एक्स्पलानेशन माँगा जाता रहेगा ?


कितनी गहरी हैं जेंडर बायस की जड़े ये प्रश्न सिर्फ़ यही दिखाता हैं । आज भी कितना ही पढ़ा लिखा व्यक्ति क्यूँ ना हो वो बलात्कार को एक स्टिग्मा ही मानता हैं इसीलिये उसकी स्वीकृति की बात करता हैं और वो भी महिला समाज से जिसको "कन्डीशन" किया गया हैं पुरूष की दासता के लिये


मेरा सीधा प्रश्न हैं की अगर एक लड़का { आप का बेटा या जानकर } अगर बलात्कार या यौन शोषण का दोषी हैं तो क्या आप उसको विवाह करने से रोकेगे ??

सदियों से नारियों को "बिगडे बेटो " को "सही" करने के लिये विवाह की वेदी मे बलि किया जाता हैं और समाज चुप रह कर आर्शीवाद वर्षा करता हैं , कभी कोई आवाज नहीं उठती देखी गयी । कभी कोई एक्स्प्लानाशन नहीं माँगा गया ?

फिर
इस प्रश्न का नारी सशक्तिकरण से क्या लेना देना हैं ? और क्या केवल महिला समाज का हिस्सा हैं ? और आज भी कितनी महिला के पास ये अधिकार हैं की वो अपने पति से असहमत हो कर अपने बच्चो का विवाह कर सके ?

नारी को कविता कहानी लिख कर प्ररित करना की " तुम बदलोगी तो समाज बदलेगा " से बेहतर हैं नारी को उसकी लड़ाई उसकी अपनी "सोच " से लड़ने देक्युकी भोग वो रही हैं , तकलीफ उसको हो रही हैं तो लड़ना भी उसको ही होगा पर आप की सोच से लडेगी तो फिर मात ही खायेगी क्युकी आप दोहरी सोच लेकर चलते हैं

आप चाहते
नारी सशक्तिकरण हो तो जैसे आप चाहे
नारी का विद्रोह हो तो जैसा आप चाहे
नारी को आप सोचने का अधिकार नहीं देना चाहते हैं क्युकी सदियों से उसकी सोच को आप ने कैद कर रखा हैं ताकि वो आप की सत्ता को स्वीकारती रहे और मानसिक दासता के साथ जीती रहे

May 14, 2009

समाज मे सारे हक़ बेटो को ही क्यूँ दिये जाते हैं ? बेटी दामाद जो कर्तव्य निभाते हैं उनके सामाजिक हको का क्या ??

कल पता चला की घर से कुछ दूर रहने वाली वृद्ध नानी नहीं रही । १५ दिन पहले ही उनका स्वर्गवास होगया । और आस पड़ोस मे किसी को पता नहीं चला ।
वृद्ध नानी को मै १९८० से उनके बेटी दमाद के साथ रहते देखती आयी थी । उनके साथ उनकी अविवाहित पुत्री भी रहती थी जो उस समय ३० वर्ष की होगी ।
वृद्ध नानी के बेटा और बहु भी हमारी कोलोनी मै ही रहते हैं पर उन्होने कभी भी अपनी माँ या अविवाहित बहिन को अपने साथ नहीं रखा और उनके घर के आपसी सम्बन्ध भी केवल और केवल बोलचाल तक रह गये थे ।
दामाद ऊँची पोस्ट पर इंजिनियर थे और आज कल रिटायर हो कर रह रहे थे ।
वृद्ध नानी को पैदल घुमती देखा , फिर धीरे धीरे शिथिल होते और विहल चेयर पर देखा और पीच्लाए कुछ वर्षो से वो बिस्तर पर ही थी ।
कल माँ को किसी नए बताया की जिस समय उनकी मृत्यु की सुचना उनके बेटे को दी गयी वो तुंरत कार से आये और मृत माँ को विहल चेयर पर बिठाया और उस वील चेयर को अपनी कर मै रख कर अपने घर ले गए । और वहाँ से सुबह उनको दाह संस्कार के लिये ले जाया गया ।
दामाद और बेटी के घर से उनको संस्कार के लिये नहीं भेजा क्युकी समाजिक प्रतिष्ठा याद आगई और रिश्ते के लोगो ने भी उनका ही साथ दिया और बेटी दामाद को कहा की ये तो बेटे का "हक़" हैं ।
उनके इस रवाये से हम जैसे लोग जो वृद्ध नानी को अन्तिम समय मै विदाई दे सकते थे वो भी नहीं दे सके । और उस घर मै जहाँ उन्होने अपनी जिंदगी अपने बेटी दामाद के साथ बिताई वहां एक शान्ति पाठ भी नहीं किया जा सकता ।

समाज मे सारे हक़ बेटो को ही क्यूँ दिये जाते हैं ? बेटी दामाद जो कर्तव्य निभाते हैं उनके सामाजिक हको का क्या ?? कब तक हम ये दोहरी सामजिक रीतियों मे अपनी जिंदगी गुज़रते रहेगे ।

वृद्ध नानी इश्वर आपकी आत्मा को शान्ति दे और मै कामना करती हूँ की आप अगले जन्म मे अगर बेटी बन कर आए तो किसी बेटे को जन्म ना दे ।

May 09, 2009

हिन्दू उत्तराधिकार कानून बदलाव --- यानी सफर "पूरक " के लेवल से उठा कर " इंडिविजुअल आईडनटिटी " तक

बात को आगे बढाते हुए
ये सही हैं की हमारे कानून बदलाव चाहते हैं , लेकिन कानून मे कोई भी बदलाव लाने से पहले मानसिकता मे बदलाव की जरुरत हैं और कानून को समझने की जरुरत हैं आज भी उंची से ऊँची पोस्ट पर बैठी नारियां अगर विवाहित हैं तो उनके टैक्स और इन्वेस्टमेंट इत्यादि की जिम्मेदारी उनके पति की होती हैं और वो सहर्ष इसको करती हैं क्युकी " संरक्षित रहना " नारी ने अपनी नियति बना ली हैं संरक्षित होने मे और मानसिक गुलाम होने मे अन्तर होता हैं जो बहुत बारीक होता हैं अविवाहित महिला भी अपने पिता के या भाई के संरक्षण मे अपनी जिन्दगी बिता देती हैं और कमाते हुए भी अपनी आय के बारे मे बहुत कम फैसले लेती हैं नारी सशक्तिकरण का अर्थ केवल नौकरी करके या धन कमा कर सशक्त होना नहीं होता अपितु " अपने को हर फैसला लेने मे " सशक्त बनाना होता हैं हम मे से कितनी नारियां इस सशक्तिकरण को समझती हैं ??
कानून मे क्या क्या है इस पर दिनेश जी निरंतर अवगत कराते हैं पर कितनी महिला उनको पढ़ कर उनसे कुछ प्रश्न करती है ?
कानून की जानकारी बढ़ना सबसे जरुरी हैं जो बहुत लोग नहीं करते , महिला तो बिल्कुल नहीं चाहे वो किसी भी वर्ग की क्यूँ ना हो समय रहते अपनी कानूनी सुरक्षा करना जरुरी हैं और इसके लिये ये भी जरुरी हैं की हम लोग जो पढे लिखे हैं वो इस बात को समझे
हमारे कानून बदलाव चाहते हैं लेकिन वो तब सकता हैं जब हम मानसिकता को बदलेआज भी शादी लड़की के लिये बेस्ट आप्शन मानी जाती हैं और संरक्षित होना जरुरी माना जाता हैं चाहे लड़की कमाती ही क्यूँ होजरुरी है की हम अपनी सोच को "पूरक " के लेवल से उठा कर " इंडिविजुअल आईडनटिटी " की और ले जाए तभी हम सबको समान दर्जा दे सकते हैं
न्याय कानून और साक्ष्य पर टिका होता हैं और उसमे बदलाव की मुहीम को आगे लाने के लिये बहुत से लोगो को आगे आना होगा और इस केस मे भी किसी किसी को "PIL" देना चाहिये ताकि न्याय के ऊपर पुनेह विचार हो

वैसे हमारे यहाँ हर नयी चीज़ के विरोध कि परम्परा हैं इसीलिये कोई भी नया कानून नहीं बन पाताकुछ दिन पहले लिवइन रिलेशनशिप कानून को ले कर वूमन सेल ने जितना हल्ला मचाया कि फिर से बात ख़तम होगई
नारिया ख़ुद अपने को दोयम कि स्थिति मे क्यों रखना चाहती हैं इस पर कोई कब बोलेगा ??

वैसे दिनेश जी पुष्टि कर सकते हैं क्या ये सही हैं , मैने कही पढा था कि कानून हैं कि

अगर दहेज़ मे अभिभावक पुत्री को मकान देता हैं और अगर पुत्री की मृत्यु हो जाती हैं तो वो मकान अभिभावक को वापस मिल जाता हैं उसको पति या बच्चे नहीं ले सकते अगर अभिभावक जिंदा हैं तो

ऐसे बहुत से कानून हैं जैसे अगर जोइंट प्रोपर्टी हैं किसी कि उसके अभिभावक के साथ तो अभिभावक कि मृत्यु के पश्चात वो सब भाई बहनों मे बांटी जायेगी चाहे उसे ख़रीदा उस संतान ने हो जिसके नाम जोइंट हैं


जरुरी हैं कि हम नारी और पुरूष को दो अलग अलग इकाई माने और समाज मे जो ये सोच हैं कि नारी और पुरूष एक दुसरे के लिये बने हैं उसको बदले क्युकी अब समय बदल गया हैं

दिनेश जी और स्वप्न दर्शी जी को थैंक्स , मैने अपना नजरिया प्रस्तुत किया हैं

हिन्दू उत्तराधिकार कानून तुरंत बदलने की आवश्यकता

दिनेश राय द्विवेदी जी के ब्लॉग पर आज की पोस्ट मेरी दृष्टी मे बेहद महत्तवपूर्ण है, की स्त्री की सम्पति का उत्तराधिकार किस तरह बिना किसी सर-पैर के पुरूष के पक्ष मे झुका हुया है। ये फैसला एक निसंतान, विधवा स्त्री नारायणी देवी के संपत्ति मे उत्तराधिकार से जुडा है. नारायणी देवी विवाह के सिर्फ़ तीन महीने के भीतर विधवा हो गयी थी। उन्हें ससुराल की संपत्ति मे कोई हिस्सा नही मिला, और निकाल दिया गया. नारायणी देवी ने अपने मायके मे आकर पढाई लिखाई की, और नौकरी की। उनकी मौत के बाद नारायणी देवी की माँ और उनके ससुराल वालो ने उत्तराधिकार के लिए एक लम्बी कानूनी लड़ाई लड़ी। लगभग ५० साल बाद फैसला आया है और नारायणी देवी की सम्पत्ति का उत्तराधिकार उनके भाई को नही मिला बल्कि उनकी ननद के बेटों को मिला है.

उत्तराधिकार कानून जिसके हवाले ये फैसला दिया गया है, वों १९५६ का बना हुआ है और उस कानून मे स्त्री की सम्पत्ति मे सिर्फ़ उस सम्पत्ति का ज़िक्र है जो उसे या तो मायके से मिली है या फ़िर पति और ससुराल से स्त्री की अर्जित सम्पत्ति का इसमे उल्लेख नही है और १९५६ मे क़ानून बनाने वालो को हो सकता है की इस बात का इल्म रहा हो की ६० साल बाद स्त्रीयों के पास ऐसे मौके होंगे की वों ख़ुद कमा सके, और स्त्रीयों की एक बड़ी जनसंख्या इस ज़मात मे शामिल हो जाय चौकाने वाली बात ये है की ये फैसला २१वी सदी मे होता हैऔर अभी भी ये कानून जस का तस है
एक लोकतंत्र के नागरिक के बतौर ये आस्था बनती है, की समय और ज़रूरत के मुताबिक क़ानून मे परिवर्तन हो सकता है। पिचले ५० सालो मे क्यों किसी ने इन काले कानूनों को बदलने की ज़रूरत नही समझी? इस वज़ह से ये फैसला और भी महत्तवपूर्ण हो जाता है की २१वी सदी का भारत कहाँ जा रहा है? स्त्री सशक्तीकरण के तमाम डंको के बीच क्या वाकई हमारा समाज स्त्री की अस्मिता के लिए प्रयासरत है? या फ़िर बाज़ार और ज़रूरत के हिसाब से स्त्री दिमाग और दो काम कराने वाले हाथ हमारे सामाजिक तंत्र मे फिट हो गए है, पर अस्मिता, आत्म-सम्मान, सुरक्षा और और समानता के मुद्दे आज भी मध्यकाल जमीन पर पड़े हुए है।

क़ानून की दृष्टी मे अगर आज भी स्त्री के माँ-बाप, अपना भाई उसकी अर्जित संम्पति का उत्तराधिकारी नही हो सकता और कानूनन हक़ मृत पति के माता-पिता, भाई, बहन (उनके बच्चे या फ़िर किसी भी नामलेवा रिश्तेदार) का है। (द्विवेदी जी के ब्लॉग पर इसका भी उल्लेख देख ले मूल लेख के साथ)? प्रेक्टिकली ससुराल मे इस तरह का कोई भी रिश्तेदार हों, ये असंभव हैऔर इस असम्भावना के बाद ही स्त्री के मायकेवालों का नाम आता है। पति भले ही मर जाए, और ससुराल वालो की स्त्री की सामाजिक आर्थिक सुरक्षा की कोई जिम्मेदारी भी बने, पर फ़िर भी स्त्री उनकी सम्पत्ति है। पति नही है फ़िर भी पति का परिवार स्त्री के ऊपर और उसकी मेहनत पर या ख़ुद अर्जित की सम्पत्ति पर दावा ठोक सकता है। और बेहद बेशर्मी के साथ हमारा समाज और कानून इसे समर्थन देता है। खासकर एक ऐसे समय मे जब स्त्री सशक्तिकरण का डंका पीटा जा रहा है। और आजाद हिन्दुस्तान के ६० सालो के इतिहास मे स्त्रीओ ने सामाजिक-राजनैतिक जीवन मे उल्लेखनीय योगदान किया है।

इस तरह के फैसले जिस समाज मे आते है, कानूनी और सामजिक रूप से स्वीकार्य है, उस समाज मे कैसे ये आपेक्षा की जा सकती है की माता-पिता , अपनी संतानों को बिना भेदभाव के एक सी शिक्षा, सम्पत्ति पर अधिकार, और अवसर दे ?

अगर किसी माँ-बाप की सिर्फ़ बेटी ही बुढापे का सहारा हो, उसे वों पढाये लिखाए, और किसी दुर्घटना के चलते वों संतान रहे, और उस बेटी की अपनी संपत्ति ससुरालियों के हवाले हो जाय तो, कोन उन माँ-बाप को देखेगा?

ऐसे मे पुत्र की कामना मे कन्या भ्रूण ह्त्या को कोन रोक सकता है? अगर अपने सीमित संसाधनों मे से माता-पिता को पुत्र और पुत्री मे से किसी एक को जीवन के बेहतर अवसर (जैसे शिक्षा, रोज़गार के लिए धन, ) देने का चुनाव करना हो तो वों क्या करे?

स्त्री के लिए , वों भी नारायणी देवी जैसी हिम्मती स्त्री के लिए और उन माँ-बाप के लिए जो अपने संसाधन अपनी ऐसी बेटी की शिक्षा मे या रोज़गार के रास्ते मुहय्या करने मे लगाते है, उनके लिए कहां कोई आशा है? एक तीन महीने का विवाह एक स्त्री के खून के संबंधो पर उसके अपने अस्तित्व पर लकीर फेरने के लिए काफी है। कानूनी रूप से , सामाजिक रूप से स्त्री के अपने रिश्ते, अपने माता-पिता, नामलेवा ससुराली संबंधो के आगे हीन हो जाते है। इसका ज़बाब क्या है?

एक नागरिक के बतौर आज भी स्त्री दोयम स्थिति मे है, और स्त्री के सीधे अपने खून से जुड़े सम्बन्ध, अपने मायके के सम्बन्ध सामाजिक और कानूनी रूप से दोयम दर्जा रखते है। आज एक बड़ी वर्क फोर्स की तरह से परम्परागत सेटउप मे भी स्त्रीओ ने अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली है। और स्त्री की अर्जित संपत्ति के उत्तराधिकार के मामले अपवाद न रहेंगे. ऐसे मे समान नागरिक अधिकारों की बात तब तक नही हो सकती जब तक स्त्री के संपत्ति मे हिस्से, और स्त्री की अर्जित सम्पत्ति के उत्तराधिकार भी पुरूष के समकक्ष हो। स्त्री के अपने संबंधो मे और अपने माता-पिता के घर से जुडी जिम्मेदारियों मे वही रोल हो जो एक पुरूष का अपनो के प्रति होता है. तभी शायद स्त्री का सशक्तिकरण हो सकता है।

इस तरह के फैसलों का आना, उस सामाजिक और लोकतांत्रिक मंशा का असली चेहरा दिखा देता है जो नारी सशक्तिकरण के गुब्बारे के पीछे ढका रहता है. ५०% आबादी के नागरिक अधिकारों से जुड़ा कोई एक भी मसला चुनाव मे ईशू नही बनता, किसी नेता के चुनावी वादों मे शामिल नही होता। इससे अंदाज़ लगाया जा सकता है कि स्त्री सशक्तिकरण , लैगिक समानता और एक जीने लायक समाज बनाने के लिए हमारा समाज कितना चैतन्य है?

महिला प्रधानमंत्री, महिला रास्त्रपति, महिला मुख्यमंत्री और डाक्टरों की, इंजीनियरों की, और IAS अफसरों की पूरी महिला फौज महिलाओं की दोयम स्थितियों को बदलने के लिए काफी नही है लोकतंत्र मे एक सचेत और सामूहिक प्रयास ही इसका हल है, पर एक लोकतंत्र की तरह अभी हमने जीना कहा सीखा है? उसका सही इस्तेमाल और ज़रूरत कहा सीखी है? कहाँ सीखा है, कि व्यक्तिगत परेशानिया भी सामाजिक संबंधो और सरचना की उपज है, और उनका परमानेंट इलाज़ भी इन्हे बदल कर ही आयेगा। व्यक्तिगत ऊर्जा कितनी भी लगाओ, उससे निकले समाधान व्यक्ति के साथ ही खत्म हों जायेंगे।

May 06, 2009

आज जब सिविल सर्विसेस मे लडकियां टॉप कर रही हैं , एक १५ वर्ष की बेटी को लोग क्या क्या समझाना चाहते हैं पढे ।

आज जब सिविल सर्विसेस मे लडकियां टॉप कर रही हैं , एक १५ वर्ष की बेटी को लोग क्या क्या समझाना चाहते हैं पढे । ये कमेन्ट इस पोस्ट पर आये थे , एक कमेन्ट जो डिलीट किया वो अनाम का था और उनके हिसाब से क्युकी पोस्ट "सूत्रधार " ने लिखी थी तो एक "लड़का " पोस्ट लिख रहा था । अनामो से निवेदन हैं की अपनी शक्ति कुछ राय देने मे भी लगाये क्यूँ व्यर्थ मे सूत्रधार का लिंग बताने मे उसको नष्ट करते हैं ।
लीजिये अब कमेन्ट पढे और अगर आप को लगता हैं की किसी कमेन्ट पर आप अपनी राय देना चाहते हैं या प्रश्न करना चाहते हैं तो करे मे कमेन्ट देने वाले तक आप का प्रश्न पंहुचा दूंगी

व्यक्तिगत रूप से मुझे RAJ SINH का कमेन्ट अच्छा लगा ।
राजेश उत्‍साही said...

बहुत अच्‍छा सवाल पूछा है। संयोग से मेरी कोई बेटी नहीं है। मेरे दो बेटे हैं। पत्‍नी की बहुत इच्‍छा थी कि एक बेटी भी हो। बहरहाल मैं जो कहने जा रहा हूं वह बेटी और बेटे दोनों से ही एक अभिभावक के नाते मेरी अपेक्षा है। पहली बात तो यही कि जीवन में आत्‍मसम्‍मान को सबसे ऊपर रखो।ऐसा कुछ मत करो जिससे स्‍वयं की नजरों में ही गिर जाओ। स्‍वयं की नजरों में गिरने की ग्‍लानि जीवन भर रहती है। परिवार में आपका जो भी स्‍थान हो आप औरों को उनके स्‍थान के मान से पर्याप्‍त आदर और स्‍पेश दें। कुछ बातों या मसलों पर लिए गए फैसलों पर पहले इस नजरिए से भी सोचना आवश्‍यक होता है कि अगर आपको यह फैसला लेना होता तो आप क्‍या करते। हर अभिभावक यह चाहता है कि उसके बच्‍चे ऐसा व्‍यवहार करें,जिससे बच्‍चों के साथ-साथ उनका भी मान-सम्‍मान बढ़े। स्‍वतंत्रता सबको चाहिए। बच्‍चों को भी मिलनी चाहिए। लेकिन उसका सदुपयोग करना भी हमको सीखना चाहिए। मुझे लगता है यही असली मूल-मंत्र है। ‍

श्यामल सुमन said...

किसी शायर की पंक्तियाँ है कि-

तुमको खुले मिलेंगे तरक्की के रास्ते।
पहला कदम उठओ लेकिन यकीन से।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

वरुण जायसवाल said...

मेरा एक निवेदन स्वीकार करो , कृपया अपने चरित्र को तन के स्तर पर मत तौलना , चरित्र सिर्फ मन में होता है ||
ओशो के शब्दों में कहूँ तो पूर्ण स्त्री बनने का प्रयास करो न कि पुरुष नम्बर दो ||
धन्यवाद ||

mehek said...

eajesh ji se sehmat ke aatma samman se badhke kuch nahi,shiksha ke jaise duji koi sangini nahi,vyawahar ka gyan shiksha se hi milta hai,magar har kadam par milne wale hadson se tum bahut kuch sikh paaogi,koi naya kadam uthane e pehle do bar soche,dil jise galat kahe wo naa kare.

Gyaana-Alka Madhusoodan Patel said...

"छोटी सी बिटिया का बड़ा सा महत्वपूर्ण प्रश्न" ---
अपनी बेटी मानकर ही विचार प्रस्तुत किये हैं.
सकारात्मक सोच ,सौम्य सुलझा व्यवहार ,अच्छी शिक्षा व कठोर परिश्रम ही सफलता की कड़ी है.
अपने अंदर के *आकाश और जीवन* को विराट व बुलंद बनाने के लिए बहुत सारे अवरोध ,संकट ,कंटक ,भेद भाव तुम्हारे पथ में आएंगे पर अपना *आत्म-विश्वास* व अपने *आत्मीय परिजनों व गुरुजनों* पर विश्वास सदा बनाये रखना. *सही निर्णय को संकल्पित करना* कार्यान्वित करने को सभी सहयोग को तत्पर रहेंगे.
नवीन मार्ग में सशक्त कदम बढ़ाने के पहले गंभीर सोच-विचार ही मार्ग प्रशस्त करता है न.
*हाँ गलत व सही की निश्चित परख करनी होगी.*
नए सपने चुनकर नयी उडान भरनी ही होती है पर समझदार बनकर ,प्रेम-प्यार,सहयोग- सहकारिता, धीरज की निर्मल भावना से ही जीत होती है *असंयमित* होकर कभी भी नहीं. *सदैव खुश व सफल रहोगी.*
अपनी क्षमताओं में वृद्धि करके अपनी महत्वाकांषाओं ,आदर्शों ,उद्देश्य को पूरा करो.
याद रहे ,अच्छी सोच लेकर कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती .
*हमारी ही मुठ्ठी में है आकाश सारा ,जब भी खुलेगी तो चमकेगा तारा.*
प्रिय बेटी को स्नेहिल आशीष अपना मार्ग प्रशस्त-उत्कर्ष करो.
अलका मधुसूदन पटेल

dhiru singh {धीरू सिंह} said...

मेरी बेटी १२ साल की है इसलिए जबाब देने मे मुझे ३ साल इंतज़ार करना होगा

अमित जैन (जोक्पीडिया ) said...

आप के सवाल का जवाब देने के लिए मुझे शादी करनी पड़गी ,
यानि मेरी लिए परेशानी ,
फिर १६ - १७ साल का इंतजार ,
जब हो कर
मै आप के सवाल का जवाब देने के लिए तैयार .....:)amitjain

SUNIL KUMAR SONU said...

न मै बाप हूँ न ही मेरी कोई बेटी है
मेरी उम्र मात्र २१ वर्ष है .एक बहन समझ ke
एक छोटी सी बात रख रहा हूँ=======

=====================================
आकाश khula है tere लिए
जमीं क़दमों tale है तेरे लिए
चाहो तो हाथ उठा के आसमान छू लो
चाहो तो धरती की दूरियां माप लो
तुम आजाद हो मनचाहा करने को
बस जो भी करना
अपने और दूजे के हित में करना
की वक़्त और किस्मत तुझे पुकार रही है
इतिहास तुझे ललकार रही है
तेरे ही दम से ये दुनिया है
की तेरे लिए ही दुनिया है.
की अब तुम जाग जाओ
की अब तुम जाग जाओ.
बहुत-बहुत शुभ-आशीष
प्यार स्नेह और एक कप जोश-उम्मीद का प्यालa

RAJ SINH said...

’ वत्स ’ !
तुमने जो मौका दिया है एक पिता को सलाह देने का उसे मैन ना सिर्फ़ अपना बल्कि सभी पिताओन का सम्मान मानता हून .वरना मेरे सहित ना जाने कितने बाप इस सम्मान के अधिकारी नहीन हो सकते .

जो भी ’ पुरुश सत्तात्मक ’ व्यवस्था का समर्थन करे ,सहभागी बने ,सहकारी बने , वो चाहे किसी भी वर्ण ,जाति, धर्म, भाषा , प्रान्त ,देश ,काल का ’ व्यक्ति ’ हो , चाहे पुरुष हो चाहे नारी हो उससे लडना ही पडेगा . और ’यह’ बाप तब तुमसे उम्मीद भी करेगा इसकी .

तुमने ’विद्रोह’ की बात की है . मैन सिर्फ़ यह कहून्गा कि ...............
जो विवेक से गलत लगे उस हुक्म का प्रतिकार असम्म्मान नहीन होता .हर असम्मान विरोध नहीन होता , हर विरोध विद्रोह नहीन होता ......और हर विद्रोह गलत भी नहीन होता .
जिस समाज मे , जिस काल मे, जिस दुनियान मे तुमने जनम लिया है उसमे इन सब तरीकोन को आज्माना ही होगा .
लेकिन यह काम कितना मुश्किल होगा , खतर्नाक भी उसका अन्दाज़ा तुम्हेन ना दून तो भी अपने ’ पिता धर्म ’ के न पालन करने का अपराधी बनून्गा .

इसलिये सिर्फ़ इतिहास ही नहीन कहून्गा पढने के लिये, तुम्हेन हर ’ धर्म ’ और ’ पुरान ’ को भी पढना पडेगा ताकि इस ’ षडयन्त्र ’ को समझ सको . सज़ा भी जान लोगी इस विद्रोह की अलग अलग समय पर पायी गयी .साथ ही साथ इस ’विद्रोह’ की सफ़लता का अपना आकलन भी बता दून .

इतिहास के किसी भी मोड पर आज जितने मौके नहीन मिले किसी भी ’विद्रोही’ को . तुम्हे वह मौका है , तुम जैसी तमाम उन बेटियोन को मौका है . सम्भाव्नायेन सिर्फ़ ख्वाब रह जाने की ही नहीन रह गयी हैन , सच्चायी बन जाने की कगार पर भी हो सकती हैन . अब दुनियान इतनी दूर नहीन रह गयी है कि अपने आप को अकेला ही समझ लो . दुनियान मे बहुत सारी जगहोन पर इमान्दार और न्याय मानने वाले यह लडायी लड भी रहे हैन और साथ भी आ रहे हैन .

यह चुनौती भी है और हर एक चुनौती एक अवसर भी होती है . इसे एक अवसर की तरह लो भी .

आज बस इतना ही . जितना बडा ’ प्रश्न ’ तुमने पूछा है उन्हेन उतने शब्दोन की जरूरत नहीन थी .लेकिन उसके उत्तर मे घेरोन के दायरे बडी दूर तक जाते हैन .
उनको तुम्हेन खुद जानना होगा और खुद ही लान्घना भी होगा .
अन्त मे यही कहून्गा " आत्म दीपो भव "

यह बात भी बताना चाहुन्गा कि उम्र के जिस मोड पर तुम हो , उम्र के उस मोड पर यही बात मैन अपनी बेटियोन को ना बता सका . क्योन्कि ’तब’ मैन खुद ’गलत’ था . और वे ’सही’ . भाग्य मेरा यह है कि उन्होन ने विद्रोह किया और मेरे ’ गलत ’ को ’ सही ’ नहीन होने दिया .
तुम्हेन मेरे स्नेह तथा आशीश !

शोभना चौरे said...

एक गीत है
ससुराल चली तू आजरी घर को वैकुण्ठ बनाना

तू है मेरी पुत्री प्यारी,
पढ़ी लिखी अति ही सुकुमारी
आँखों की पुतली सी प्यारी
खेना धर्म जहाज री
घर भर को शीश झुकाना
ससुराल चली तू आज री ......

पिता ने आशीष दिया है
माता ने तुझे विदा किया है
करो सुहागन राज री
प्रिय पति से प्रेम बढाना
ससुराल चली तू आज री ............
यह गीत भले ही ससुराल जाने वाली लडकी क लिए हो पर यह सीख हर उस लडकी क लिए है जो अभी १५ बरस
की है और नये संसार में कदम रख रही है बहार की दुनिया उसके लिए ससुराल की तरह ही है जहा अपने व्यवहार से अपनी मर्यादाओ में रहकर सबको अपना बनाना है और और शीर्ष पर पहुंचना है चाहे वः परिवार हो या फ़िर घर क बाहर का कार्य क्षेत्र |
बेटी अभी तुमने अभी अभी तुम्हें लड़कपन से योवन की और कदम रखा है ,अपनी माँ को हर कदम पर साथी बनाना ,पिता की अनुशासन की धुप से नही घबराना और अपने गुरु ,शिक्षक क बताये रस्ते पर निरंतर चलते रहना तुम जरुर अपनी मंजिल पाओगी।
हमारी ढेर सारी शुभकामनाये .और जब भी मन उदास गो हम तुम्हारे पास होगे |
shobhana chourey

May 05, 2009

पहली बार आई0ए0एस0 टॉपर्स में लड़कियाँ काबिज

समाज बदल रहा है, सोच बदल रही है और इसी के साथ महिलाओं का दायरा बढ़ रहा है। अभी तक लोग कहते थे कि राजनीति, प्रशासन और बिजनेस में महिलायें शीर्ष स्थानों पर मुकाम बना रही हैं। पर इस बार के आई0ए0एस0 रिजल्ट ने साबित कर दिया है कि महिलायें वाकई अब शीर्ष पर हैं। अब तक के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ कि आई0ए0एस0 के रिजल्ट ने प्रथम तीन स्थान पर लड़कियाँ ही काबिज हैं। इनके नाम क्रमशः शुभ्रा सक्सेना, शरणदीप कौर एवं किरन कौशल हैं। शादी के 6 वर्ष बाद सफलता पाने वाली 30 वर्षीया टाॅपर शुभ्रा सक्सेना आई0आई0टी0 रूड़की से बीटेक हैं और यह उनका दूसरा प्रयास था। मूलताः बरेली की रहने वाली शुभ्रा फिलहाल गाजियाबाद में इंदिरापुरम् के विन्डसर पार्क सोसाइटी में रहती हैं। कभी बी0पी0ओ0 में नौकरी करने वाली शुभ्रा ने मनोविज्ञान विषय से यह सफलता प्राप्त की है। दूसरी टाॅपर शरणदीप कौर पंजाब विश्वविद्यालय से एम0ए0 हैं। गौरतलब है कि कुल घोषित 791 स्थान में टाॅप 25 में 10 लड़कियों ने स्थान बनाया है। हमारी तरफ से इस सभी युवा महिलाओं को ढेरों बधाई और यह विश्वास कि ये समाज को नई ऊचाइयों तक ले जायेंगी.....!!!
आकांक्षा

May 03, 2009

हर वो अभिभावक जिसके १५ वर्ष की बेटी हो सकती हैं वो मुझे कमेन्ट मे अपनी राय दे सकता हैं

मै एक बेटी हूँ , आप की भी हो सकती हूँ , मेरी उम्र १५ साल की हैं और मै एक बहुत अच्छे स्कूल मै शिक्षा पा राही हूँ । मै पढाई मे औसत हूँ , ना अच्छी ना बुरी । आप को ये पत्र इस लिये लिख रही हूँ क्युकी चाहती हूँ की आप मुझे बताये की एक अच्छी लड़की बनने के लिया मुझे अपने जीवन मे क्या क्या करना चाहिये ? मै महत्वाकांक्षी हूँ और अपनी आगे की जिन्दगी सुरक्षित और खुश रह कर व्यतीत करना चाहती हूँ । मुझे बताये एक लड़की होने के कारण मुझे क्या क्या करना होगा की मै अपनी जिन्दगी मे सफल कहलाऊं और सुखी भी रहूँ । मेरी एक ही इच्छा हैं की कोई मुझे विद्रोहिणी ना कहे ।

हर वो अभिभावक जिसके १५ वर्ष की बेटी हो सकती हैं वो मुझे कमेन्ट मे अपनी राय दे सकता हैं

May 01, 2009

विधवा ,विधुर से ज्यादा शक्तिशाली होती हैं क्या ???

एक विधवा का विवाह "क्रांति" क्यूँ माना जाता हैं ??
अगर एक विधुर की शादी होती हैं तो कभी क्रांति या विद्रोह या सामाजिक उद्धार जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं किया जाता बल्कि कहा जाता हैं कि
"इतनी लम्बी जिंदगी बेचारा बिना औरत के कैसे काटेगा ,
या बच्चो को माँ की जरुरत हैं ,
या बिन गृहणी घर भूत का डेरा । "
फिर विधवा विवाह के समय ये सब क्यूँ नहीं कहा जाता . उस समय ये क्यूँ मान लिया जाता हैं कि एक औरत बिना पुरूष के रह सकती हैं ?

और अगर ये मान ही लिया जाता हैं तो फिर अविवाहिता को क्यूँ समाज विद्रोहिणी मानता हैं ? जबकि वही समाज एक विधवा को इतना सशक्त मान लेता हैं कि उसको पुरूष कि जरुरत ही नहीं हैं ।

क्या पुरूष कमजोर होता हैं कि वो बिना स्त्री के नहीं रह सकता और स्त्री मे इतनी ताकत होती हैं कि वो बिना पुरूष के भी समाज मे रह सकती हैं ।

सदियों से ये अनुतरित प्रश्न हैं आप के पास कोई कारण या उत्तर हो तो बताये ।

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