व्यभिचार शब्द बचपन से सुनती आ रही हूँ और इस शब्द का तब अर्थ भी नहीं पता
था जब से इसको सुना. हम जैसे जैसे बड़े होते गए इसके अलग अलग रूपों के
विषय में पढ़ सुन कर जानकारी हासिल करते रहे. इसका क्षेत्र कितना विकसित और
बड़ा हो सकता है इसके बारे में तो मैं आज भी नहीं बता सकती हूँ , लेकिन फिर
भी मानव मनोविज्ञान के थोड़े बहुत जानकारी रखने के कारण कुछ तो समझ ही
सकती हूँ. जिन रिश्तों और संबंधों को इंसान खुले तौर पर नैतिक रूप में बना
कर भी अपने जीवन में अगर असंतुष्ट होता है तो वह अपने मन में कुछ कुंठाएं
पाल लेता है क्योंकि औरों को देख कर और उनके मन में कौन से मानक उसके
संतुष्ट होने के बन जाते हैं अगर उन्हें पूरा होते नहीं पाता है तो वह
कुंठित हो जाता है और अपनी कुंठाओं को वह किसी न किसी तरीके से निकालता है.
जो वह पाना चाहता है और नहीं प्राप्त कर पाता है तो उसके प्रति वह कुंठा
पाल लेता है. यही कुंठा अगर व्यक्ति के जीवन में अपने दांपत्य जीवन को लेकर
हो या फिर उसकी संगति आरम्भ से ही गलत लोगों के साथ पड़ जाय तो फिर ऐसे
लोगों की मनःस्थिति कुछ अलग ही बन जाती है. वैसे तो कुंठा किसी भी कारण से
मन में आ जाती है लेकिन अगर व्यक्तिगत जीवन में ऐसा कुछ निजी रिश्तों को
लेकर हो तो वह मानसिक व्यभिचार को जन्म देती है.
ये पहले भी होता था और कुंठित युवकों और पुरुषों की संख्या शायद इतनी ज्यादा नहीं थी क्योंकि मैं आज से ४० साल पहले की बात कर रही हूँ जब कि संचार के साधन में सिर्फ पत्र ही हुआ करते थे. जब पहली बार कादम्बिनी में कविता प्रकाशित हुई तो आने वाली फैन मेल में कुछ मानसिक व्यभिचार में सुख खोजने वाले लोग भी होते थे. कुछ पत्र बेहद अश्लील भाषा में लिखे होते थे जिनका कोई भी मतलब नहीं होता था. लेकिन उन लोगों की कुंठा को साफ प्रदर्शित करते थे. ऐसे पत्रों के आने पर ही मेरे लिखने पर पाबन्दी की बात उठी थी लेकिन बाद में मेरी मेल पहले भाई साहब देखते फिर मुझे मिलती थी. आज के संचार के साधनों के बढ़ने के बाद ये व्यभिचार भी बढ़ रहा है क्योंकि उनके आप आज ऐसे कितने साधन है, जो उनकी कुंठाओं को शांत करने का वायस बन रहे हैं. कहीं मित्रता की आड़ में ये काम चल रहा है और ये अब सिर्फ पुरुषों तक ही कायम नहीं है बल्कि अब तो इसको हाई प्रोफाइल की महिलायें भी अपनाने लगी हैं. आप पत्र और पत्रिकाओं में देख सकते हैं कि मित्र बनाओ :
कुछ विज्ञापन जैसे के तैसे मैं उद्धृत कर रही हूँ :
१. सुप्रिया फ्रेंडशिप सोबर लेडीज /जेंट्स फ्रेंड एंड अर्न मानी इन इंडिया /अब्रोड डायरेक्ट एड्रेस और टेलीफ़ोन नं संपर्क करें -- मोबाइल नं ००००००००/००००००००
२. फ़ोन-ए-फ्रेंड कार्ड आपके शहर में मेम्बरशिप स्टार्ट /मेक फ्रेंड्स मेल / फीमेल डायरेक्ट फ़ोन एंड एड्रेस. मोबाइल नो. ००००००००००/००००००००००
इस खेल में कमाई का भी एक साधन बना कर इसको हवा दी जा रही है . समस के सहारे ये दोस्ती किस तरह से इंसान को मानसिक संतुष्टि देती है ये सिर्फ एक मानसिक व्यभिचार का एक स्रोत बन चुका है. कुछ sms ऐसे मुझे भी देखने को मिले हैं . कुछ ऐसे लोगों के विषय में मुझे भी पता है जो दोस्ती बढ़ाने के साथ साथ अपने परिवार के विषय में कभी भी कुछ नहीं बताते हैं खुद को एकाकी बता कर सहानुभूति जीतने के प्रयास के साथ ही वे धीरे धीरे अपनी बातों में वे अश्लीलता को शामिल करने लगते हैं और दूर से सिर्फ फ़ोन पर बात करके या फिर sms करके ही अपनी कुंठाओं को शांत कर पाते हैं.इसके लिए जो पक्ष कुंठित होता है वह उसकी कीमत देने के लिए तैयार होता है और उसके भी बहुत से स्रोत बन चुके हैं. ये खेल व्यापक तौर पर चल रहा है. एक खेल सिर्फ एक तरफ का नहीं होता है जहाँ पर मित्रता को सहारा बनाया जाता है वहाँ पर ये अपराध का वायस भी बन जाता है. परिवार के टूटने का कारण भी बन जाता है.
ध्यान देने की बात हैं की
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ये पहले भी होता था और कुंठित युवकों और पुरुषों की संख्या शायद इतनी ज्यादा नहीं थी क्योंकि मैं आज से ४० साल पहले की बात कर रही हूँ जब कि संचार के साधन में सिर्फ पत्र ही हुआ करते थे. जब पहली बार कादम्बिनी में कविता प्रकाशित हुई तो आने वाली फैन मेल में कुछ मानसिक व्यभिचार में सुख खोजने वाले लोग भी होते थे. कुछ पत्र बेहद अश्लील भाषा में लिखे होते थे जिनका कोई भी मतलब नहीं होता था. लेकिन उन लोगों की कुंठा को साफ प्रदर्शित करते थे. ऐसे पत्रों के आने पर ही मेरे लिखने पर पाबन्दी की बात उठी थी लेकिन बाद में मेरी मेल पहले भाई साहब देखते फिर मुझे मिलती थी. आज के संचार के साधनों के बढ़ने के बाद ये व्यभिचार भी बढ़ रहा है क्योंकि उनके आप आज ऐसे कितने साधन है, जो उनकी कुंठाओं को शांत करने का वायस बन रहे हैं. कहीं मित्रता की आड़ में ये काम चल रहा है और ये अब सिर्फ पुरुषों तक ही कायम नहीं है बल्कि अब तो इसको हाई प्रोफाइल की महिलायें भी अपनाने लगी हैं. आप पत्र और पत्रिकाओं में देख सकते हैं कि मित्र बनाओ :
कुछ विज्ञापन जैसे के तैसे मैं उद्धृत कर रही हूँ :
१. सुप्रिया फ्रेंडशिप सोबर लेडीज /जेंट्स फ्रेंड एंड अर्न मानी इन इंडिया /अब्रोड डायरेक्ट एड्रेस और टेलीफ़ोन नं संपर्क करें -- मोबाइल नं ००००००००/००००००००
२. फ़ोन-ए-फ्रेंड कार्ड आपके शहर में मेम्बरशिप स्टार्ट /मेक फ्रेंड्स मेल / फीमेल डायरेक्ट फ़ोन एंड एड्रेस. मोबाइल नो. ००००००००००/००००००००००
इस खेल में कमाई का भी एक साधन बना कर इसको हवा दी जा रही है . समस के सहारे ये दोस्ती किस तरह से इंसान को मानसिक संतुष्टि देती है ये सिर्फ एक मानसिक व्यभिचार का एक स्रोत बन चुका है. कुछ sms ऐसे मुझे भी देखने को मिले हैं . कुछ ऐसे लोगों के विषय में मुझे भी पता है जो दोस्ती बढ़ाने के साथ साथ अपने परिवार के विषय में कभी भी कुछ नहीं बताते हैं खुद को एकाकी बता कर सहानुभूति जीतने के प्रयास के साथ ही वे धीरे धीरे अपनी बातों में वे अश्लीलता को शामिल करने लगते हैं और दूर से सिर्फ फ़ोन पर बात करके या फिर sms करके ही अपनी कुंठाओं को शांत कर पाते हैं.इसके लिए जो पक्ष कुंठित होता है वह उसकी कीमत देने के लिए तैयार होता है और उसके भी बहुत से स्रोत बन चुके हैं. ये खेल व्यापक तौर पर चल रहा है. एक खेल सिर्फ एक तरफ का नहीं होता है जहाँ पर मित्रता को सहारा बनाया जाता है वहाँ पर ये अपराध का वायस भी बन जाता है. परिवार के टूटने का कारण भी बन जाता है.
ध्यान देने की बात हैं की
- आज युवा वर्ग सक्षम हैं और जानता हैं की इन विज्ञापनों का सच क्या हैं
- युवा वर्ग के पास इतना पैसा नहीं होता हैं इस लिये ऐसे विज्ञापन बहुदा बड़ी उम्र के लोगो को आकर्षित करने के लिये ज्यादा कारगर होते .
- बहुत से लोग इन विज्ञापनों का सच जानते हुए अपनी मानसिक तुष्टि के लिये इनकी कीमत देते हैं वही कुछ इनके जरिये ब्लैक मेल भी होते हैं
- ये विज्ञापन स्त्री और पुरुष दोनों के लिये आते हैं .
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क्या 'व्यभिचार' के पीछे कुंठा ही एक कारण है.... सोच रहा हूँ.
ReplyDeleteयह मन में कैसे घर कर लेता है? .... इसके कई कारण हो सकते हैं :
यथा :
- कृपण वृत्ति के लोग भी इस दिशा में भटक जाते हैं. वास्तविक जगत में बहुत कुछ खोने के डर से कंजूस स्वभाव के लोग मानसिक जगत में तरह-तरह की खिचड़ी पकाते रहते हैं.
- सहसा पाने वाले लोग भी इसकी चिकनाहट से फिसलकर गिरते हैं. जिनका वास्ता अकल्पित वस्तु या व्यक्तियों से अचानक पड़ता है उनके मन में उन्हें 'निचोड़ने का भाव' अथवा 'सहेजने का भाव' आता है. जो यूज़ एंड थ्रो में भरोसा रखते हैं.. वे मानसिक व्यभिचारी होते हैं और जो उसे पूँजी मान सहेजना चाहते हैं... वे सामाजिक रूप से अव्यवहारिक अधिक लगते हैं.
आपका आलेख आत्म-मंथन का अवसर देता है. मतलब कि ... आइना दिखाने का काम भी कर रहा है.
sach hai is mansik vyabhichar ka dayra dino din badhta hi ja raha hai...
ReplyDeletevicharniy aalekh