हमारे देश में आधी आबादी न्याय की गुहार कहाँ लगाये? जब कि समाज की गतिविधियाँ और लोगों के आचरण देखें तो आँख बंद करके एक स्वर में कहा जा सकता है कि आधी आबादी असुरक्षित है , उसे शेष आधी आबादी ने इंसान की श्रेणी में रखना बंद कर दिया और उसको सिर्फ एक पुरुष की हवस को पूरा करने का का जरिया बना लिया गया है।
मीडिया द्वारा सुर्ख़ियों में लाये गए मामलों को ही अगर हम देख लें तो रोज कितने मामले सामूहिक दुष्कर्म के सामने आ रहे हैं और सुरक्षा के नाम पर कुछ भी नहीं . इसके लिए कोई भी क़ानून काम नहीं करता है . जनता की सुरक्षा के लिए नियुक्त पुलिस खुद अपराध में लिप्त होकर अपना विश्वास खोती चली जा रही है। छेड़छाड़ या अपहरण के मामलों को पुलिस सिरे से नकार देती है. उन मामलों को संज्ञान में लेती ही नहीं है और कह देती है कि हमारे यहाँ ऐसी कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं करवाई गयी है , जब कि हकीकत ये है कि थाने में जाने पर पीडित को डरा धमाका कर ये लोग भगा देते हैं और अगर उसमें ताकत है या फिर उसका कोई जैक है तो वह उच्च अधिकारीयों के पास जाकर गुहार लगाता है तो आदेश पर मामला दर्ज किया जाता है। इससे पहले जो जुमले थाने में जाने पर सुनाये जाते हैं वो इस प्रकार से हैं : --
--ऐसा तो होता ही रहता है , इसमें रिपोर्ट की कोई बात नहीं है (छेड़छाड़ या सरेआम बेइज्जत करने पर)
--जाकर अपने रिश्तेदारों में खोजो , कहीं तुम्हारी लड़की बदचलन तो नहीं थी कि अपने आशिक के साथ भाग गयी हो। (अपहरण पर)
--चले आते हो बलात्कार का मामला लेकर कोई चश्मदीद गवाह लाये हो। ( दुष्कर्म पीडिता से )
--रिपोर्ट तो हम लिख लें लेकिन क्या फायदा कल लड़की से हाथ धो बैठोगे और हमारी नौकरी चली जायेगी . जाओ घर में जाकर चुपचाप बैठो। (दबंगों से पीड़ित होने पर)
अब वह घर में हो या बाहर कहीं भी सुरक्षित नहीं है। अगर गत दिनों की बड़ी घटनाओं पर नजर डालें तो मुंबई में पल्लवी पुरकायस्थ (एक युवा वकील) अपने ही घर में दुष्कर्म के प्रयास के बाद हत्या कर दी गयी . इस काम को अंजाम दिया उस सोसायटी के सिक्योरिटी गार्ड ने।
हाल ही में दिल्ली की एक युवती को सामूहिक दुष्कर्म का शिकार बनाया गया जो काफी चर्चा का विषय रहा लेकिन ये भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश के माथे पर उस कलंक की तरह से हैं जहाँ सबको सामान अधिकार के साथ जीने का अधिकार मिला हुआ है और सोच हमारी इतनी गन्दी है कि हम चाहे जिस उम्र की लड़की हो उसको अपनी हवस का शिकार बनाने से हिचकते नहीं है।
ये है आम आदमी की कहानी जिसे शायद कभी न्याय मिल भी जाए लेकिन राजनीति में अपने को दबंग साबित करने वाले तो ऐसे किस्से बनाने में और उससे प्रसिद्धि पाने में अपने को और महान साबित करते हैं। शायद राजनीति में अगर नेता और फिर मंत्री बनने वाले तो सारी नैतिकता अपनी जेब में डाल कर चलते हैं। ऐसा आज नहीं हुआ है बल्कि ये जब से इंसान में अन्दर से इंसानियत का जीवाणु मरने लगा है और इस जीवाणु को पुनर्जीवित करने वाली कोई भी दवा नहीं बनी है। इसमें अमरमणि त्रिपाठी जो सपरिवार षडयन्त्र रचा कर, जब तक उनके इशारों पर मधुमिता शुक्ल चलती रही जिन्दा रही और जब उसने इससे इनकार कर दिया तो उसको ख़त्म कर दिया गया लेकिन शायद उसकी किस्मत अच्छी थी कि साबित हो गया और अमरमणि त्रिपाठी को उसके दंड स्वरूप जेल की सलाखों के पीछे जाना पड़ा . अब गोपाल कांडा जैसे, जो मंत्री के पद को सुशोभित कर रहे थे, के किस्सों को खोलने के लिए गीतिका शर्मा को अपनी जान गवानी पड़ी नहीं तो उसकी जिन्दगी उसके हाथ की कठपुतली बनी रहती और कांडा के कुकृत्यों की कहानी पोस्ट मार्टम रिपोर्ट खुद ही कह रही है। अनुराधा बलि उर्फ फिजा की दर्दनाक मृत्यु के पीछे भी राजनीति के गलियारों में पलने वालों के साथ जुड़ने और टूटने का किस्सा है। बल्कि इसके लिए लोग धर्म की आड़ लेकर स्वार्थ सिद्धि कर लेते हैं। जब तक जी नहीं भरा उसके साथ रहे और छोड़ देने पर पहली पत्नी तो बनी ही रहती है।
जाने वाले चले गए और जो उनको उस हालत तक पहुँचाने वाले है वे या तो हाथ ही नहीं आते हैं और अगर आते भी हैं तो उनके पीछे बचाने वालों की इतनी लम्बी फौज होती है कि उनको चिंता नहीं रहती है। सबसे बड़ी बात तो ये हैं की सांसद हों या फिर राज्य की सरकार का अंग वह "अ" श्रेणी के जेल में व्यवहार के हक़दार तो बन ही जाते हैं और फिर रसूखदार जेल में अपनी गतिविधियों को सम्पन्न करने में सक्षम होते हैं। यौन
ऐसे काम करने वाले अगर सक्रिय राजनीति से नहीं जुड़े हैं तो फिर उन्हें उनकी शरण जरूर प्राप्त है, वे चमचों की श्रेणी में आते हैं या फिर उच्च पदस्थ अधिकारियों या नेताओं के खास होते हैं और उनके गिरफ्तारी के साथ ही उन्हें छोड़ने का दबाव बनाना शुरू कर दिया जाता है। पुलिस वहां निरीह होती है , क्योंकि वे कठपुतली बना दिए गए हैं तथाकथित राजनीतिज्ञों के द्वारा।
हम कुछ ही मामलों को तूल देने पर चर्चा में पाते हैं लेकिन कितनी लड़कियाँ गाँव में खेतों में शौच क्रिया के लिए जाने पर दबंगों के द्वारा यौन उत्पीडित होती हैं, इस बात की गिनती तो होती ही नहीं है। अस्पतालों में डॉक्टर, वार्ड बॉय या दूसरे कर्मियों के द्वारा भी यौन उत्पीडन का शिकार बनायीं जाती हैं और चर्चा नहीं होती है। इन सब जगहों की बात जाने दीजिये। महिला संरक्षण गृह, जो सरकारी संरक्षा प्राप्त हैं उनमें होने वाले किस्से कभी सामने आते हैं और अगर इलाहबाद की घटना पर नजर डालें तो वहां तो उम्र का भी ध्यान नहीं रखा गया और बच्चिओं का शोषण किया जाता रहा और निरीक्षिका इससे अनभिज्ञ रही।
कानपूर में निजी नर्सिंग होम में आई सी यू में एक लड़की को बलात्कार के बाद हत्या कर दी गयी और कुछ दिन में वहां के जिम्मेदार लोग बाहर क्योंकि उनके यहाँ लगे कैमरे में छेड़छाड़ कर उस समय की रिकार्डिंग को खत्म कर दिया गया था। आज वह नर्सिंग होम फिर मरीजों से भरा हुआ है किसी और नये किस्से को अंजाम दे दिया जाय तो कोई शक नहीं। सब रसूख की बात है। ऊपर से आदेश आते हैं और नीचे पुलिस उसको पालन करती है क्योंकि मरने वाली या पीडिता कोई ऊँची पहुँच वाली नहीं होती है।
अगर हम राष्ट्रीय अपराध लेखा संगठन ( National Crime Records Bureau ) के आंकड़ों पर ध्यान दें तो उसकी हकीकत कुछ ऐसी है। विगत दशकों से 1973 में 44.28 प्रतिशत दोषियों को निचली अदालतों में दोषी घोषित किया . 1983 में यह संख्या गिर कर 36.83 रह गयी , 1993 में 30.30 प्रतिशत और 2003 में 26.12 रह गयी। *आंकड़े गूगल के साभार
यह आंकड़े इस बात को दिखा रहे हैं कि हमारे यहाँ इस तरह के अपराधों में निरंतर कमी आ रही है और वास्तविकता क्या है - इसको सिर्फ और सिर्फ एक सप्ताह तक अखबारों से खबरे इकठ्ठा कर ली जाएँ तो पता चल जायेगा कि हमारे दस्तावेज कितने झूठ बोलते हैं। ये किसको दिखने के लिए इकट्ठे किये जाते हैं क्या सिर्फ संसद में रखने के लिए या फिर जानबूझ कर गुमराह करने के लिए। हमारी न्याय प्रणाली कितनी त्वरित है ये बात किसी से छिपी नहीं है।
इसके लिए सिर्फ ये नीचे इबारत जान लेना काफी है की जहाँ केंद्र में पुलिस से लेकर सारे राज्यों के प्रतिनिधि बैठे हैं और वहां पर आधी आबादी पर आक्रमण करने वाले कौन और कैसे हैं ?
अगर सामान्य तौर पर देखा जाय तो सिर्फ दिल्ली में प्रतिदिन एक मामला बलात्कार या यौन उत्पीडन का दर्ज होता है और कितने दर्ज हो ही नहीं पाते हैं इसकी कोई जानकारी नहीं है। इसमें से 2008-10 के बीच में 99.44 मामले उन अपराधियों द्वारा किये गए हैं जो की पहले से इसा अपराध के लिए दोषी करार दिए जा चुके हैं। वे ऐसे अपराधों के आदी भी हैं और खुले आम घूम भी रहे हैं। उनके लिए उपयुक्त सजा निर्धारित ही नहीं की गयी है . ऐसे लोगों को तो ऐसी सजा दी जानी चाहिए की वे दुबारा इस अपराध को करने के काबिल ही न रहें। तभी इस अपराध पर अंकुश लगाया जा सकता है और इसके दोषी लोगों को राजनीति में दुबारा प्रवेश न दिया जाय। अगर दिया भी जाय तो सामाजिक तौर पर उन लोगों का बहिष्कार कर सबक सिखाया जाय।
ReplyDeleteजरुरत सबसे पहले समाज की सोच को बदलने की है , गीतिका जीवित होती तो कांडा आज भागे भागे नहीं फिर रहे होते इल्जाम लगाने वाली गीतिका के चरित्र का का ही चिर हरन हो रहा होता , वैसे वो अब भी हो रहा है और कहा जा रहा है की उसने सब अपनी महत्वाकांक्षा के लिए किया किन्तु कोई ये बताये की यदि सब उसकी मर्जी से हो रहा था तो वो वहा से नौकरी छोड़ कर भाग क्यों रही थी और मौत को क्यों गले लगा लिया सब कुछ का आन्नद ले कर वो जीवित रह सकती थी आसानी से | नारी से जुड़े ज्यादातर मामलों में पहले पीड़ित को ही दोषी मान लिया जाता है तो इंसाफ की क्या उम्मीद करे |
आधी आबादी न्याय कहाँ मांगे? महत्वपूर्ण प्रश्न
ReplyDeleteयदि समाज महिलाओं के प्रति होने वाले अपराधों को गंभीरता से ले और अपराधियों का बहिष्कार करे तो पुलिस राजनेता सब लाइन पर आ जाएँगे क्योंकि ये लोग भी तो देखते हैं कि हम खुद ही जब एक दूसरे के प्रति संवेदनशील नहीं है और हमारा रवैया खासकर महिलाओं के प्रति हिंसा छेड़छाड़ और दूसरे तरह के अपराधों को लेकर इतना दौगला और अन्यायपूर्ण और अगंभीर हैं तो फिर सिस्टम उनके लिए गंभीर क्यों होने लगा.पुलिस की तो बात बाद में पहले खुद महिला के घरवाले ही उसका साथ नहीं देते.कहीं छेड़छाड़ यौनशोषण आदि से परेशान होकर लड़की ने इसकी शिकायत अपने घर कर दी तो घरवाले उसका ही बाहर निकलना बंद कर देंगे उसकी पढ़ाई नौकरी आदि छुडवा देंगे इसीलिए बहुत सी महिलाएँ सब सहती रहती हैं. वर्ना मुझे नहीं लगता कि महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराध कोई इतनी बड़ी समस्या है ये तो पुरुषों के खिलाफ भी तेजी से बढ़ रहे है लेकिन नौबत ऐसी नहीं आती कि इनके लिए पुरुषों को ही दोष दिया जाए या उनक घरवाले ही बदनामी के डर से उनका साथ न दें या उन्हें खुद इसे छुपाना पडे.
ReplyDeleteघर वाले भी समाज का ही हिस्सा है और समाज वाले जिनके बेटियाँ नहीं होती वे कटाक्ष करते हें और होती हें तब भी बगैर ये जाने की हालात क्या थे?
ReplyDeleteनिर्दोष आदमी भागा भागा नहीं फिरता , कंदा ने इतने नाटक के बाद समर्पण किया तो क्या समझे कि उनकी इज्जत बच गयी.. इस काम के लिए संकल्पबद्ध होना होगा .
आपकी बात सही है कि घर भी समाज का ही हिस्सा है लेकिन फिर भी मैं इसमें घरवालो का दोष ज्यादा मानता हूँ क्योंकि यदि वो ही साथ नहीं देंगे तो फिर कोई महिला ज्यादती से नहीं लड़ सकती और लडेगी भी तो ये उसके लिए बहुत मुश्किल होगा।बल्कि घरवालो में भी जो सबसे करीब होते है जैसे माता पिता उनका तो साथ खड़े होना बहुत जरूरी है.लेकिन कई बार ये भी नहीं होता।
ReplyDeleteयहाँ और टिप्पणियाँ भी पढ़ी,जब आप लोग कान्डा जैसो के बारे में भी इतने सम्मानजनक शब्दों का प्रयोग करते हैं तो बड़ा अजीब लगता है शायद विनम्रता के मामले में मैं कुछ ज्यादा ही पीछे हूँ :)