नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

November 30, 2009

क्या करे ?

शुभा जब १० साल की उसके पिता एक बिजली के खम्बे से गिरकर अपाहिज हो गये उनको हर्जाना(बिजली विभाग ) इसलिए नही मिला क्योकि वो उनकी ड्यूटी नही थी वो किसी और की जगह काम करने चले गये थे|और नौकरी भी हाथ से चली गई |जैसे तैसे अपने परिवार का गुजारा चलाया शुभा के चार भाई बहन है शुभा का नम्बर तीसरा है उसकी बड़ी बहन बड़े भाई की शादी हो चुकी है |शुभा ने मन ही मन सोच रखा था वो अपने परिवार का सहारा बनेगी १०वि पास करते करते वो एक स्कूल में पढ़ाने लगी |फ़िर उसने बी. टी .आइ ।ट्रेनिग की फ़िर १२वि क्लास पास की फ़िर बी. ए । पास किया इस बीच स्वामी विवेकानन्द के विचारो से प्रेरित होकर उसने अविवाहित रहने की इच्छा माता पिता के समक्ष रखी उन्होंने उस समय तो हा कह दिया |शुभा भी नोकरी के साथ अनेक संस्थाओ से जुड़कर व्यस्त रहने लगी |
अचानक माता पिता को शुभा की शादी करने की रिश्तेदारों ने सलाह दी माता पिता राजी हो गये लडके ढूंढे जाने लगे नोकरी करती हुई लडकी को देख बहुत से रिश्ते आ गये शुभा ने शादी के लिए न कह दिया |
माता पिता की भावुकता के दबाव में आकार शुभा ने भी शादी के लिए अब हाँ कह दिया है अब जबकि वो ३१ साल की होने को आई है |अब जो भी रिश्ते आते है खेती बाड़ी परिवार के या वकीलों के रिश्ते आते है जो चाहते है की शुभा नोकरी छोड़ दे और घर परिवार संभाले |शुभा करे तो क्या करे ?क्योकि वो एक गावं में sarkari स्कूल में शिक्षिका है |

" ईश्वर करे बेटा हो "

रेखा श्रीवास्तव जी की पोस्ट को पढ़ कर मन मे कुछ सवाल उठे हैं जो हमेशा निरुतर ही रह जाते हैं
  1. लोग बेटियाँ क्यूँ नहीं चाहते ??
  2. वो कौन कौन से कारण हैं की कन्या भूंण ह्त्या जैसे कार्य को आज भी किया जाता हैं ?
पिछले २० साल मे भी , कोई खास बदलाव नहीं आया हैं इस सोच मे की लडकियां / बेटियाँ नहीं चाहिये जबकि पिछले २० साल मे लड़कियों ने अपने पैरो पर खड़े हो कर , शिक्षित हो कर अपनी बराबरी को निरंतर सिद्ध ही किया हैं फिर क्यूँ आज आम धारणा यही हैं " ईश्वर करे बेटा हो "

अगर सच और निसंकोच भाव से अपने अपने विचार रखे जाए तो शायद अपने अन्दर का सच निकल कर सामने आये ।
ये कहना " हम बेटे - बेटी मे फरक नहीं करते " एक ऐसा भ्रम हैं जो अपने आप मे फरक ले ही आता हैं । क्यूँ ये कहना पड़ता है की हम फरक नहीं करते ।

नारि न मोहे नारि के रूपा!

तुलसीदासजी ने सत्य ही कहा था - "नारि न मोहे नारि के रूपा" और ये सच भी था, जब सौंदर्य , अधिकार और शक्ति की बात होने लगती है तो यह "न मोहे" बीच में आने लगता है। कहाँ से शुरू किया जाए?

पुत्री के जन्म से लें - कन्या भ्रूण हत्या या फिर कन्या शिशु हत्या के पीछे सबसे अधिक कौन जिम्मेदार है? ८० प्रतिशत परिवार की महिलाएं - सास , जिठानी, ननद या स्वयं माँ। पुरूष वर्ग की भागीदारी मात्र २० प्रतिशत की होती है। इस जगह पुरूष वर्ग प्रशंसनीय भूमिका निभा रहा है और ये शत प्रतिशत सत्य है की पिता पुत्र और पुत्री में भेदभाव बहुत कम करता है। इस भेदभाव में सबसे अधिक भागीदारी 'दादी' और 'नानी' माँ या बुआ जैसे पात्रों की होती है.

मेरी बड़ी बेटी का जन्म हुआ, पति बाहर टूर पर थे। मेरी जेठानी को दो बेटियां पहले से ही थी। रात ११ बजे पति लौटे तो सूचना दी गई - 'लड़की हुई है' अब रात में जाकर क्या करोगे? (तब मोबाइल की सुविधा नहीं थी की उनको तुरंत ही सूचित किया जा सकता .) सुबह अस्पताल चले जाना। मेरे पति २० किलोमीटर स्कूटर से चल कर अस्पताल पहुंचे तो मुझे बताया की घर में यह कहा जा रहा था।

समझा जा सकता है की कहने वाला कौन हो सकता है? लेकिन उससे ठीक विपरीत मेरे ससुरजी थे। उनके दोनों बेटों से उनको ५ पोतियाँ मिली किंतु कभी भी उनके जन्म पर उनका मन मैला नहीं हुआ, कभी हमें यह सुनने को नहीं मिला कि एक पोता होता। हमेशा सबसे छोटा बच्चा उनकी "रानी - रानी" होता और वे उसको जान से अधिक प्यार करते थे।

घर में परिवार में नई बहू का आना कितने खुले दिल से स्वीकार किया जाता है, किंतु परिवार में ' न मोहि' वाले हर हाल में होते हैं। अगर जेठानी है तो देवरानी को बहन कम ही बना पाती है- देवर के प्रति अब तक के अपने अधिकारों पर डाका डालने वाली लगने लगती है। माँ को बेटे को बांटने वाली और बहन को भाई की हिस्सेदार। उसको देवर, बेटे और भाई के समान्तर कितने लोग समझ पाते हैं? आखिर क्यों? घर में पैर रखते ही तो वह कुछ करती नहीं है फिर किस लिए लोग ऐसा सोचने लगते हैं?

ऐसा नहीं है - इसके विपरीत भी भूमिका होती है जिनमें पत्नी शामिल है 'न मोहे ' के किरदार में। आते ही पति का सम्पूर्ण अधिकारिणी बनना चाहती है - माँ, भाभी और बहन के प्रति लगाव उन्हें अपनी उपेक्षा लगती है और कभी कभी तो वे अपनी माँ, भाभी और बहन को समान्तर रखना चाहती है। जैसा वे चाहे हो, पति उनके अनुरूप ही चले और सारी कमाई आते ही उनके हाथ में रखी जानी चाहिए।

मिसेज गुप्ता , जब शादी हुई तब भी नौकरी कर रही थी और आज भी कर रही हैं। पति भी उच्च पदस्थ हैं, किंतु शादी के ६ महीने बाद मायके में जाकर रहने लगी क्योंकि उन्हें पता था कि विधवा सास और तीन बहनों का जिम्मेदारी उनके पति के ऊपर है। बहुत दबाव डाला कि उनके मैके में जाकर रहें - लेकिन गुप्ताजी को अपनी माँ और बहनों को लावारिस छोड़ना मंजूर नहीं था और न उन्होंने छोड़ा।
तलाक उनको मिल नहीं सका, आज शादी के ३० साल बाद भी दोनों अलग अलग रह रहे हैं। गुप्ताजी की माँ गुजर गयीं और दो बहनों की शादी हो गई । तीसरी ने शादी से मना कर दिया क्योंकि यदि भाभी भइया के पास आने को तैयार हो जाएँ तो कर सकती हूँ नहीं तो भइया को कौन देखेगा। अब गुप्ताजी को भी वापस आने और न आने से कोई मतलब नहीं रह गया है।

ऐसा नहीं है की एक पढ़ी लिखी प्रबुद्ध कही जाने वाली महिलायें इसका शिकार नहीं है? मिसेज गुप्ता एक जानी मानी गायिका और कालेज में प्रवक्ता हैं।

मैंने इस मुद्दे को सिर्फ इस लिए उठाया है कि सिर्फ आलोचना या अपने अहम् की संतुष्टि के लिए मानव संबंधों या रक्त संबंधों को नकारने या तिरस्कृत करने की मानसिकता में बदलाव लाना चाहिए। नारी जो माँ है - अपनी ममता तले कितने जीवन देती है - वह कैसे इतनी कठोर हो सकती है? अगर सामाजिक संस्थाओं को अपनाया है तो सिर्फ एक नहीं विवाह संस्था के साथ परिवार संस्था भी जुड़ी है तो उसको भी सम्पूर्णता से अपनाइए। परिवार में अधिकतर नारी वर्ग पुरूष वर्ग पर आश्रित होती है। विवाह संस्था ने यदि आपको अधिकार दिए हैं तो कर्तव्यों की डोर भी सौंपी है। उन सबका वहन करने में ही आपकी पूर्णता है। अगर माने तो जिस परिवार को आप छोड़कर आती हैं- माँ, बहन, भाई सब होते हैं और यहाँ भी आपको उनके ही समानान्तर रिश्ते मिलते हैं, उनसे भी वही प्रेम सम्बन्ध बनाइये जो अपने घर में रखती थी।

यह बात सिर्फ एक पत्नी तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पति के परिवार वालों से भी जुड़ी है - जो आपके घर में अपने जन्म के जुड़े रिश्तों को छोड़कर आई है, वे उसे आपसे मिलने चाहिए ताकि वह उनके अभाव को भूल कर आपमें उनके अक्श को देख सके। सारे रीति रिवाज और सम्मान वही उसके प्रति रखिये जो अपनी बेटी के प्रति रखती हैं। ऐसा नहीं की बहू की शादी के बाद विदाई ६ महीने बाद करें और बेटी को चौथे दिन ही बुला लें। ऐसा कौन सा रिवाज है की बेटी के लिए और और बहू के लिए और।

सारा रिश्तों का वैमनस्य इसीलिए पलता है कि हम उसको सहन नहीं कर पाते हैं। इस मुद्देको उठाने के लिए सम्पूर्ण नारी जाति से एक प्रश्न है कि आख़िर क्यों ? 'नारि न मोहे नारि के रूपा' के यथार्थ को हम आज भी झेल रहे हैं। क्या इतनी प्रगति, शिक्षा और प्रबुद्ध होने के बाद भी यह पंक्तियाँ सदैव अपनी प्रासंगिकता को बनाये रहेंगी?

इनको मिथ्या सिद्ध करने के लिए क्या किया जाय? कब इस सत्य को हम झूठा सिद्ध कर पायेंगे।

November 29, 2009

एनआरआई दूल्हे

आजादी के इतने सालों के बाद विदेशी चीजों के प्रति हमारा मोह घटने के बजाय बढ़ा है। हमें हर वो चीज प्रिय है जिसका संबंध विदेश से हो। यहां तक हमारी नज़रों में उन लोगों का दर्जा बढ़ जाता है जो भारतीय होते हुए भी विदेश में बस जाते हैं। वे विदेश में क्या करते हैं, ये हमारे लिए महत्वपूर्ण नहीं होता। और उन मां-बाप की तो बांछे ही खिल जाती हैं जिन्हें अपनी बेटियों के लिए ऐसे एनआरआई वर मिल जाते हैं। ये एनआरआई वर शादी के मौसम में दस पंद्रह दिन की छुट्टी लेकर अपने देश, देशी दुल्हन की तलाश में आते हैं। ये लड़की के मां-बाप को अपने बारे में ज्यादा जानकारी इकट्ठा करने का वक्त नहीं देते। ये तुरत-फुरत शादी रचाते हैं और कभी-कभी दुल्हन को साथ लेकर और कभी जल्दी बुलाने का वायदा कर विदेश वापस चले जाते है।

नसरीन का विवाह भी जो हमारी बहुत अच्छी मित्र है एक एनआरआई के साथ हुआ था। लड़का देखने में सुदंर था और ऐसा बताया जा रहा था कि कनाडा में वह किसी कंपनी में ऊँचे पद पर कार्य करता है। हमारी मित्र के मां बाप के लिए अपने भावी दामाद के बारे में इतनी जानकारी पर्याप्त थी। मैंने एक दो बार दबी जुबान से कहा भी विदेश का मामला है, इतनी हड़बड़ी में काम मत करो। पर आदिल ने पूरे परिवार को अपने मोह-पाश में ऐसा बांध लिया था कि हर आदमी उसकी हर बात पर विश्वास कर रहा था यहां तक की नसरीन को भी उससे कुछ पूछना उसकी तौहीन करने जैसा लग रहा था। मैं खामोश हो गयी।

नसरीन ने अपनी शादी की शॉपिंग बांद्रा के बड़े शॉपिंग मॉल में की। हर अवसर के लिए नवीनतम फैशन के कपड़े खरीदे। यहां तक की आदिल के कहने पर उसने अपना अच्छा खासा जॉब भी छोड़ दिया। शादी खूब धूमधाम से हुई। आदिल ने भी अपनी दुल्हन को खूब सारे जेवर दिए। नसरीन ने अपना हनीमून शिमला की वादियों में मनाया। परिवार का हर सदस्य खुश था।

नसरीन को जल्द बुलाने का वायदा करके आदिल कनाडा लौट गया। शुरू-शुरू में रोज ही फोन आते, जिनमें प्यार भरी बातों के साथ जल्द बुलाने का वायदा होता। फिर धीरे-धीरे फोन की संख्या कम होती गई। नसरीन जब भी फोन करती, लाइन ज्यादातर व्यस्त होती या जब कभी आदिल फोन पर मिल भी जाता, तो वह फोन पर नसरीन को बुरी-बुरी गालियां देने लगता और नसरीन घबरा कर फोन कट कर देती। आदिल बदल चुका था, उसे नसरीन से जो कुछ चाहिए था उसे मिल चुका था। अब नसरीन में उसकी दिलचस्पी नहीं थी। उसका व्यवहार बद से बदतर होता जा रहा था। वह उससे छुटकारा पाना चाहता था। आदिल के इस व्यवहार ने नसरीन के चेहरे की खुशी छीन ली। अब वह अक्सर उदास रहती वह अपने को छला हुआ महसूस कर रही थी। घर वाले भी आदिल के इस रवैये को नहीं समझ पा रहे थे कि आखिर वह चाहता क्या है?

आखिरकार घर के सब सदस्यों ने मिल कर यह फैसला किया उनमें से किसी एक को आदिल की सच्चाई जानने के लिए कनाडा जाना होगा। बच्ची की जिंदगी का सवाल था। नसरीन के मामा और मामी कनाडा गए। वहां पहुंचने पर उन्हें आदिल के बारे में जो जानकारियां मिलीं, उससे उनके पैरों तले की जमीन ही खिसक गई। वह कहीं कोई काम नहीं करता था। वह एक नंबर का आवारा था। इससे पहले भी दो लड़कियों को अपने जाल में फंसा कर उनकी जिंदगी बरबाद कर चुका था। आजकल वह कहां था और क्या कर रहा था किसी को भी ठीक-ठीक नहीं मालूम था।
काफी खोजबीन के बाद आदिल से तो नहीं, हां, उसकी मां से जरूर उनकी मुलाकात हुई। बातचीत से साफ लग रहा था कि वे आदिल के फैलाए इस गोरखधंधे में पूरी तरह शामिल हैं लेकिन रिश्तेदारों में हो रही अपनी बदनामी से थोड़ा घबराई हुई भी है। उन्होंने कहा आदिल बहुत गुस्सैल स्वभाव का है, पर चिंता मत करिए, मैं खुद आकर अपनी बहू को विदा करा कर ले जाऊंगी। सब कुछ ठीक हो जाएगा। मैं खुद आदिल को समझाऊंगी।
मामा-मामी ने उनकी बात सुनी और चुपचाप भारत लौट आए। घऱ पर उन्होंने सब कुछ बताते हुए आदिल की मां का प्रस्ताव सबके सामने रख दिया। लेकिन नसरीन ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। उसने साफ लफ्ज़ों में कहा कि उसे आदिल से तलाक चाहिए। वह कनाडा नहीं जाना चाहती।

काफी उठा-पटक के बाद नसरीन को आदिल से तलाक मिल गया। नसरीन फिर से नौकरी करने लगी है। बाहरी तौर ज़िंदगी सामान्य हो गई है, लेकिन इस हादसे ने नसरीन को अंदर तक तोड़ कर रख दिया है। आज उसे शादी के नाम से भी चिढ़ हो गई है।

शादी का मौसम फिर आ गया है। एनआरआई दूल्हे भी घोड़ी चढ़ने को तैयार हैं, पर क्या आप इस घटना को पढ़ने के बाद भी चट मंगनी पट ब्याह करने को तैयार हैं?

-प्रतिभा वाजपेयी

November 28, 2009

१९७७ - १९७८

१९७७
आल इंडिया इंस्टिट्यूट के डॉ क्वाटर्स
डॉ पाठक का निर्जीव शरीर
कारण दिल का दौरा
उम्र ५६ साल
cardiolojist

हाथ मे फ़ोन का चोगा
एक पेपर स्लिप
मुझे लगता हैं दिल का दौरा पडा हैं हो सकता हैं ना बचूं कोई जिम्मेदार नहीं हैं

१ महीने बाद
श्री डॉ पाठक ने अपने से ३० वर्ष छोटी लड़की से दूसरा विवाह किया । श्री डॉ पाठक ने इस लड़की का इलाज ६ महीने लिया था । श्री डॉ पाठक की बेटी { पहली पत्नी से } ने उसी दिन अपनी पहली संतान को जनम दिया और दूसरी श्रीमति पाठक , पहली श्रीमती पाठक के गहने पहन कर उस से मिलने गयी ।
८ महीने बाद श्रीमती पाठक ने जुड़वाँ बच्चो को जनम दिया

१९७८
श्री पाठक का बड़ा बेटा और बेटी उनसे विमुख हैं कोई पारिवारिक रिश्ता नहीं

लोग आज भी श्रीमती डॉ पाठक की ह्रदय गति रुकने के कारण के बारे मे बात करते हैं

November 27, 2009

१९६०-२००९

१९६०
एक परिवार , बेटा आ ई अस { I A S } मे
प्रेम विवाह
बहू आ ई अस { I A S }

पहली संतान पुत्री
लाडली दादी की

माँ काम पर जाती , शाम को आती , सिर पर आँचल ले कर रहती , घर मे ससुर भी थे इस लिये , और सिर पर आँचल से ही आदर का पता चलता हैं ।
घर मे नौकर चाकर थे पर रोटी बनाने का काम बहू का था वो करती , आ ई अस थी तो क्या , बहू काम था रोटी बनाना । पति मात्र एक मूक दर्शक क्युकी बहू नहीं चाहती थी की उसको कोई नारीवादी या फेमिनिस्ट कहे और वो ये भी नहीं चाहती थी की कोई ये कहे की उसने अपने सब कर्तव्य नहीं पूरे किये क्युकी वो नौकरी करती थी

बेटी दादी के संरक्षण मे बड़ी हो रही थी । दादी रोज माँ के जाने के बाद उसको कहती , माँ को तुमारा ख्याल नहीं हैं तभी तो नौकरी पर जाती हैं । देखो मै तुम्हारे पास रहती हूँ और माँ तुमको कुछ नहीं कह सकती ।तुम जो चाहे करो । बेटी भी धीरे धीरे माँ को कहने लगी तुम बेकार नौकरी पर जाती हो । और हाँ घर मै जब भी आओ दादी कहती हैं तमीज से आओ । माँ सुनती रहती थी क्युकी माँ को तो सुनना ही था उसको तो सामंजस्य बिठाना ही था आख़िर प्रेम विवाह किया था , और संक्युत परिवार की बहू थी ।

१९८०
बेटी बड़ी होगई , नाचना , गाना , हँसी ठठा करना और कुछ भी कहने पर माँ की बात ना सुनना बस यही उसकी जिंदगी थी । हर बात मे एक ही तूरा दादी ठीक ही कहती थी तुमको नौकरी के अलावा क्या आता हैं , ठीक से सिर पर पल्ला भी नहीं लेना आता ।

बड़ी मुश्किल से लड़की ने बी ऐ तक पढायी की । पैसे की कमी नहीं थी सो दोस्तों की कमी नहीं और सुंदरता मे अदा मे पैसा चार चाँद लगा ही देता हैं । सीरत का क्या वो तो पिता कितना दहेज़ देगा उस से तय होनी थी । मोहक अदा , फिल्मी गाने गाने का शौक और पैसा खर्च करने की क्षमता आस पास लडको का हुजूम हमेशा रहता जो दादी के ना होने से उत्पन्न अभाव को भरता ये कह कर " तुम तो इतनी सुंदर हो , बस नज़र हटाने को मन ही नहीं करता " । माँ लाख माना करती पर रोमांस ख़तम नहीं होता , माँ को भी याद दिलाया जाता , आप ने तो प्रेम विवाह किया था ।

१९८६
लड़की की उम्र शादी के योग्य हो गयी थी । पिता ने एक अन आर आई लड़का देखा और बेटी को विदेश भेजा ।

विदाई के लिये माँ जब समान लगा रही थी तो उन्होने बेटी को कुछ समझाना चाहा और जवाब मिला "तुम तो रहने ही दो , सिर पर पल्ला तक तो लेना आता नहीं तं मुझे क्या सीखाओगी ""

उस दिन माँ ने कहा
"चलो मुझे सिर पर पल्ला लेना नहीं आता कोई बात नहीं , पर मेरी कुछ हैसियत तो हैं , तुम्हारी क्या हैसियत हैं । मे जब शादी हुई तब भी नौकरी करती थी , पति के बराबर कमाती थी और उनके बराबर पढ़ी लिखी थी । मुझ से विवाह उन्होने मेरी सीरत की वजह से किया था । तुम क्या हो ? ये जो तुम इतना इतराती हो किस लिये , किस के बल बूते ? ये हसियत जिसकी वजेह से तुम्हारी शादी हुई हैं वो तुम्हारी नहीं तुम्हारे पिता की हैं , कभी सोच कर बताना तुम्हारा अपना क्या हैं ?

बेटी विदा होगई

२००९
बेटी विदेश मे रहती हैं , अपने चारो और उसने वहाँ भी ताली बजाने वाले इकट्ठा कर लिये हैं । जो उसकी हर मोहक अदा पर दीवाने हैं । हाँ अपनी लड़की को वो बहुत सख्ती से रखती हैं ।

वो पहली भारतीये महिला थी

Field Name Year
(Muslim) Ruler of India Razia Sultana (1236-1240)
Advocate Cornelia Sorabji (1894)
Ambassador Vijayalakshmi Pandit (U.S.S.R., 1947-1949)
At Antarctica Meher Moos (1976)
Central Minister Rajkumari Amrit Kaur (Health) ---
Chief Justice (High Court) Leila Seth (Himachal Pradesh) 1991
Chief Minister Sucheta Kriplani(Uttar Pradesh) (1963-1967)
Foreign Minister Lakshmi N. Menon (1957-1966)
Secretary General of Rajya Sabha V.S.Rama Devi (1993)
Governor Sarojini Naidu (Uttar Pradesh, 1963-1967)
IAS Officer Anna Rajam George (1950)
Woman IPS Officer Kiran Bedi (1974)
Jet Commander Saudamini Deshmukh ----
Jnanpith Award Winner Ashapurna Devi, Prathama Pratishruti (1976)
Judge of Supreme Court Meera Sahib Fatima Beevi (1989)
Minister of State Vijayalakshmi Pandit(Uttar Pradesh) 1937
Missionary Sanghamitra, daughter of King Ashoka (Sri Lanka, 3rd C.BC)
Pilot (Commercial) Prem Mathur, (Deccan Airways) 1951
Pilot (Indian Airlines) Durga Banerjee (1966-1988)
President of Indian National Congress Annie Besant (1917)
President of UN General Assembly Vijayalakshmi Pandit (1953)
Prime Minister Indira Gandhi (1966-1977, 1980-1984)
Sahitya Akademi Award Winner Amrita Pritam, Sunehre (1956)
climb Mount Everest Bachendri Pal (1984)
Perform a solo Flight Harita Kaur Deol (1944)
Swim across English Channel Arati Saha (1959)
Swim across the Strait of Gibraltar
[First woman in the world and enter
in guiness book of records for the same. ]
Arti Pradhan 29th August, 1988
Win an Asian Gold Kamaljit Sandhu (1970)
Go in Space Dr. Kalpana Chawla (November 1997)

November 25, 2009

मोनालिसा इज स्मायीलिंग..बट इज शी हैप्पी ??

यूँ ही चैनल फ्लिक कर रही थी कि देखा एक फिल्म आ रही है,"मोनालिसा स्माईल'...अपनी सहेलियों को SMS करने लगी तो ध्यान आया ब्लॉगजगत पर भी बहुत सारे दोस्त हैं,पता नहीं उन्होंने यह फिल्म देखी है कि नहीं,उन्हें भी इस फिल्म से रु-ब-रु करवाया जाए.यह प्रासंगिक भी है क्यूंकि आजकल ब्लॉगजगत पर बहुत लोग परेशान हैं कि औरतों ने सर पे आँचल और पैरों में पायल से छुटकारा क्यूँ पा लिया?...दरअसल यह बात वेशभूषा बदलने की नहीं,है.दायरे में सीमित उनकी सोच बदलने की है...अपनी अस्मिता तलाश करने की है....अपना अस्तित्व स्थापित करने की है.
अमेरिका के 1950 के दौर की कहानी है और बिलकुल हम से मिलती जुलती.(दुःख होता है,हम 50 साल पीछे चल रहें हैं)मिस वाटसन(जूलिया रॉबर्ट्स) की नियुक्ति लड़कियों के एक कॉलेज में होती हैं.वे पाती हैं,लडकियां बहुत मेधावी हैं,स्मार्ट हैं पर उनकी सोच एक परंपरा की शिकार है.जो कुछ सिलेबस में है,वे उसे तोते की तरह रट जाती हैं.उनकी अपनी कोई सोच नहीं है.लडकियां कॉलेज को टाईम पास की तरह लेती हैं, जबतक उनकी शादी नहीं हो जाती.(कुछ अपने यहाँ की कहानी जैसी नहीं लगती?)

मिस वाटसन उन्हें अपना विचार खुद बनाने के लिए प्रेरित करती हैं.उनमे इतना आत्मविश्वास जगाने की कोशिश करती हैं कि वे अपना निर्णय खुद ले सकें.एक बहुत ही मेधावी छात्र है,जिसे लॉयर बनने की इच्छा है. पर जब मिस वाटसन उस से पूछती हैं कि वो ग्रैजुएशन के बाद क्या करेगी वो कहती है 'I am getting married "
"then ?"
"Then I will b remain married"
लड़कियों का गोल सिर्फ शादी है,वाटसन शादी के खिलाफ नहीं हैं पर वे चाहती हैं कि लड़कियां अपना अस्तित्व तलाशें और पत्नी के अलावा भी उनकी कोई पहचान है,उसे समझें.
वे उस लड़की को law school का फार्म लाकर देती हैं.पर उसका मंगेतर कहता है कि ये कॉलेज घर से काफी दूर है और वह समय पर टेबल पर खाना लगाने नहीं पहुँच पायेगी.जूलिया उसे सात और कॉलेज के फ़ार्म लाकर देती हैं,जो घर के पास है.और कहती हैं कि अब वो दोनों काम एक साथ कर सकती है. पर परंपरा में बंधी लड़की खुद इनकार कर देती है.

दूसरी एक बेट्टी नाम की छात्रा,मिस वाटसन का बहुत विरोध करती है.क्यूंकि उसे लगता है वह लड़कियों को बहका रही हैं.इस लड़की की शादी हो जाती है.वह घर और पति के प्रति पूर्ण समर्पित है.घर और पति ही उसकी दुनिया है.पर पति का कहीं और अफेयर है और वह बहाने बनाकर ज्यादातर घर से बाहर रहता है.जब इसे पता चलता है तो वह अपने माता-पिता के घर जाती है पर उसकी माँ उसे वहां रुकने नहीं देती और कहती है"अब पति का घर ही उसका घर है. माँ उसे समझाती है कि सब ठीक हो जाएगा,बस किसी को कानोकान खबर ना हो "( पता नहीं कितनी भारतीय
लड़कियों ने भी ये सब सुना होगा)
फिल्म का सबसे महत्वपूर्ण दृश्य है जब बेट्टी अपनी माँ को मोनालिसा की तस्वीर दिखाती है.उसकी माँ कहती है " She is smiling "
बेट्टी पूछती है " I know but is she HAPPY ??
बेट्टी आगे कहती है ,"She looks happy. It dsnt matter.if she is really happy or
not "
बेट्टी डाइवोर्स फाईल करती है और घर छोड़ देती है.कॉलेज की सबसे बदनाम लड़की उसे सहारा देती है.माँ बहुत नाराज़ होती है और तब बेट्टी कहती है ," When You closed the door of my own house where can i go ? "
मिस वाटसन एक प्रोफ़ेसर के करीब आ जाती है,तभी उनका पुराना प्रेमी जिसे वाटसन का यूँ इस शहर में कॉलेज में पढ़ाना बिलकुल पसंद नहीं था,अचानक आ जाता है.और प्रपोज़ कर अंगूठी पहना देता है.पर वाटसन कहती है,"एक अरसे से हमारा कोई contact नहीं और तुम्हारा जब चाहे मेरी ज़िन्दगी में चले आना और जब चाहे चले जाना मुझे मंजूर नहीं..वो शादी से इनकार कर देती है.कुछ दिन बाद प्रोफ़ेसर की असलियत भी खुल जाती है.वह युद्ध के झूठे किस्से सुना war hero बना रहता था.
जाहिर है कॉलेज मनेजमेंट मिस वाटसन के स्वछन्द विचारों को पचा नहीं पाता.और उनका contract रीन्यू नहीं करना चाहता.पर उनके सब्जेक्ट में ही सबसे ज्यादा छात्रों ने दाखिला लिया है इसलिए वह उनपर कई शर्तें लगाता है.कि वे सिलेबस से अलग कुछ नहीं पढ़ाएंगी."....लेसन प्लान पहले से अप्रूव करवायेंगी ...'छात्राओं को कॉलेज के बाहर कोई सलाह नहीं देंगी'.
मिस वाटसन त्यागपत्र दे देती हैं और चल देती हैं ,किसी और कॉलेज की लड़कियों को जकड़न से मुक्त कराने,रस्मो रिवाजों की कुछ और झूठी दीवार गिराने .
सबसे सुन्दर अंतिम दृश्य है जब मिस वाटसन कार में जा रही हैं और सारी लड़कियां ग्रैजुएशन गाउन पहने,कार के आस पास सायकिल चलाती उन्हें उन्हें विदा दे रही हैं.

हमें भी कुछ ऐसे ही 'मिस वाटसन' की सख्त जरूरत है.

प्रतिभा पाटिल , सुखोई , सिर पर आँचल या युनिफोर्म



क्या कह रहा हैं ये चित्र , प्रतिभा पाटिल , हमारी राष्ट्रपति साड़ी की जगह युनिफोर्म मे हैं क्युकी उनको सुखोई विमान मे यात्रा करना था और इतिहास रचना था ॥ नहीं हैं वो यहाँ साड़ी मे या सूट मे क्युकी इस यात्रा मे जो पहनना हैं उन्होंने वो ही पहना । पिछली दो पोस्ट मे पाठको ने प्रतिभा पाटिल जी के लिये कहा था की वो साड़ी पहन कर राष्ट्रपति बन सकती हैं और सिर भी ढँक कर रह सकती है तो हर भारतीये स्त्री कर सकती है ।
लेकिन पहनावा और वेश भूषा समय अनुसार बदलता ही हैं । आज कल नारियां जो काम कर रही हैं उनके लिये ये सम्भव ही नहीं हैं की वो हर समय सिर पर पल्ला लेकर रहे ।
जिन लोगो को लड़कियों का वेस्टर्न ड्रेस पहन कर ऑफिस में काम करना ग़लत लगता हैं कभी सोच कर देखे की युनिफोर्म मे स्त्री और पुरूष का भेद मिट जाता हैं और इस से स्त्री और भी सुरक्षित होती हैं क्युकी बार बार उसको आँचल नहीं संभालना होता ।
और जिन लोगो ने ये तथ्य दिया हैं की विदेशो मे भारतीये महिला साड़ी की जगह जींस और पेंट सुविधा के लिये पहनती हैं क्युकी वहाँ ठण्ड होती हैं और भारत आकर वो फिर साड़ी पहन लेती हैं वो एक बात जरुर बताए { मै विदेश नहीं गयी हूँ } पर इतना जरुर जानती हूँ की कैनेडा में हर घर मे सेंट्रल हीटिंग होती हैं यानी घर का तापमान आप की सुविधा के हिसाब से गरम रहता हैं फिर साड़ी पहने मे कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिये बात सिर्फ़ सुविधा की नहीं हैं बात हैं की आप पर उतना सामाजिक दबाव नहीं होता जितना भारत मे जब आप होती हैं तब होता हैं
अब भारत मे मई के महीने मै ४२ डिग्री तापमान रहता रहे । हम जैसी गृहणियां जिनके घर मे ८ या ९ सदस्य हैं खाना खाने वाले वो जानती हैं की रोटी बनाने में कितनी गर्मी लगती हैं , पसीने की धाराये बहती हैं , ऐसे मे अगर आज कल की लडकियां सूट या साड़ी की जगह ऐसा पहनावा पहना लेती हैं जिसमे उनको कम गर्मी लगे तो इसमे इतना बवाल क्यूँ मचाया जाता हैं ।

बात कपड़ो की नहीं हैं बात हैं की नारी को अपने लिये क्या सही हैं और क्या ग़लत इसको सोचने ही ना दिया जाए और हर समय स्त्री को याद दिलाया जाए की उसका शरीर एक तिजोरी हैं जिसको अगर वो ढँक कर नहीं रखेगी तो कोई भी लूट लेगा । वाह भाई वाह क्या सोच हैं ।

आज प्रतिभा पाटिल जी ने अपनी ड्रेस बदल कर ये आवाहन दिया ही हैं की बदलते समय के साथ सब बदलता ही हैं

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November 24, 2009

नारी "सोच" सके और "शरीर " से हट कर "सोच " ले तो समाज मे बदलाव आने मे देर नहीं होगी ।

समाज मे अव्यवस्था जब होती हैं , विद्रोह भी तब ही होता हैं । मैने आज तक किसी भी सर पर आँचल लेकर रहने वाली स्त्री को पुरातन पंथी नहीं कहा हैं और ना ही मैने कभी जींस - टॉप पहनने वाली स्त्री को मॉडर्न समझा हैं ।
हमारे विचार हमे दकियानूस / रुढ़िवादी या मुद बनाते हैं ।
क्युकी फैशन और डिजाईन की दुनिया से हूँ सो एक बात जानती हूँ किसी भी फैशन की आयु मात्र २० वर्ष मानी जाती हैं । हर २० साल बाद फैशन बदलता हैं और वही वापस आता हैं , सो पहनावा भी उसी अनुसार बदलता रहता हैं और पहनावे का हमारी सोच से कोई भी लेना - देना नहीं होता हैं ।
समाज मे स्त्री का विद्रोह समाज की कुरीतियों से चल रहा हैं , इस विद्रोह ने अलग अलग रूप लिये हैं । अगर हम कुछ नहीं बदल पाते तो सबसे पहले हम अपने कपड़े बदलते हैं ताकि लोग हम को अलग समझ कर हमे नोटिस करे ।
सवाल ये हैं की क्या सदियों से स्त्री के लिये जो नियम कानून बने हैं उनमे जो असमानता हैं , जो दोयम दर्जा स्त्री को मिला हैं क्या वो सही हैं ? कोई भी नहीं कहेगा सही हैं पर उसको दूर भी कोई नहीं करना चाहता क्युकी ये सदियों से चल रहा हैं ।
विद्रोह ख़तम करना हो तो समानता की बात करो ,
समानता अपना हर निर्णय ख़ुद ले सकने की { और इसको पीढ़ियों के अन्तर मे ना उलझाये } । जिस दिन समाज मे स्त्री को अधिकार होगा की वो "सोच " सके की उसके लिये क्या सही हैं , क्या ग़लत हैं उस दिन समानता होगी ।

आज भी हमारे समाज मे नारी के लिये सब सोचते हैं की क्या सही हैं क्या ग़लत हैं ऐसा क्यूँ हैं ???
मर्यादा की परिभाषा क्या हैं ?
और भारतीये संस्कृति मे मर्यादा की परिभाषा क्या स्त्री और पुरूष के लिये एक ही हैं या अलग अलग हैं ? अगर अलग अलग हैं तो क्यूँ हैं ?
बार बार स्त्री के शरीर को लेकर उसको डर दिखना कब तक चलेगा ?
शील की बात बराबर केवल और केवल स्त्री के सन्दर्भ मे ही क्यूँ होती हैं ?

बहुत से लोग इंडिया से बाहर रहते हैं ,वहां उनकी पत्नी और पुत्री जींस / टॉप पहनती हैं पर इंडिया आते ही साड़ी या सूट पहन लेती हैं क्या इंडिया इतना असुरक्षित हैं की एक भारतीये महिला यहाँ अपने को सर से पाँव तक ढँक कर रख लेती हैं जबकि वही महिला अमेरिका या यूरोप मे दूसरा पहनावा पहनती हैं ।

या वो इंडिया से बाहर इसलिये ऐसा करसकती हैं क्युकी वहाँ उसे किसी से भी ये नहीं पूछना होता की वो क्या पहने ?? उसका निर्णय उसका अपना होता हैं ना की उसके पिता / पुत्र / पति / माँ का ।
परिवार तो वहाँ भी भारतीये ही हैं । संस्कृति तो उनके मन मे भी भारतीये ही हैं पर उनके पास अधिकार हैं अपनी "पसंद " का ।

शील अश्लील सब सोच मे होता हैं । लोगो को तो सड़क पर एक स्तन पान कराती मजदूर महिला भी सेक्सी दिखती हैं और उसको देखने के लिये खड़े हो जाते हैं या सड़क के किनारे सुबह शौच के लिये कोई स्त्री बैठी दिख जाए तो सीटी बजाते हैं । बात कपड़ो या पहनावे की होती तो ये सब ना होता ।

बात सिर्फ़ इतनी हैं की सब स्त्री को "असुरक्षित " का टैग देकर उसको "सुरक्षा " देने का नाटक करते रहना चाहते हैं नारी "सोच" सके और "शरीर " से हट कर "सोच " ले तो समाज मे बदलाव आने मे देर नहीं होगी
"शरीर " का डर ख़तम हो जायेगा तो स्त्री स्वतंत्र हो जायेगी और ये रुढ़िवादी समाज बस इसी बात से डरता हैं



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सिर का आंचल पैरों की पायल - क्यों छोड़ी गई?

सिर का आँचल और पैरोंकी पायल क्यों छोड़ी गई, कभी इसके बारे में भी विचार किया गया है? ये उसकी मजबूरी थी और फिर जब तक वह सिर पर आँचल रखे रही क्या मिला? बस घर वालों की चाकरी और चार बातें. बरसों पहले वह सिर पर आँचल रख कर ही पढने जाती रही. मेरी एक सहपाठी, जब ९ में admission लेने आई तो सफेद साड़ी में ही थी. उम्र थी मुश्किल से १५ साल. हम बच्चे इस बात को समझ नहीं पाए कि यह धोती और वह भी सफेद ही क्यों पहनती है? हाई स्कूल में फॉर्म में उसके पिता की जगह पति का नाम लिखा गया. वह जब ५ में थी तभी शादी हुई थी और बिना गौना हुए ही विधवा हो गयी.
बरसों तक घर में बैठ कर पढ़ी और जब कुछ समझा तो स्कूल की जिद की. ससुराल वाले चाहते की वह घर आ जाये और घर में रहे हमारे पास सब कुछ ही जिन्दगी कट जायेगी. उस १५ साल की लड़की जिसको यह पता नहीं कि पति क्या होता है? और शादी कैसी होती है? उसके लिए जिन्दगी काटने की बात हो रही थी. तब उसने सिर से आँचल हटा दिया था. क्या बुरा किया था? अपने आत्मविश्वास से उसने पढ़ाई की. हमेशा प्रथम श्रेणी लेकर पास हुई.

नौकरी में आने के बाद उसने शादी करनी चाही तो घर वाले भड़क गए किन्तु उसका साथी हिम्मत वाला मिला सबसे टक्कर ली और आज दोनों बहुत सुखी हैं। उस आँचल तले जिया होता तो आज क्या होती.

ये आंचल हटा कर उसने कुछ बुरा नहीं किया? सिर से आँचल रखे हुआ अगर खिसक जाए तो कुछ गहर वाले कहते थे कि इसके सिर में एक कील गाध दो इसका आँचल बार बार खिसक जाता है। ये शब्द किसके लिए - अपनी बेटी के लिए और बहू के लिए तो इसके आगे सोच ही लीजिये। कभी तो क्रांति होती ही है न।

ये आँचल मेरे बचपन से पहले भी मेरी पापा की बुआ ने हटाया था। १८ साल कि उम्र में ६ महीने की बेटी लेकर विधवा हुई थीं। जमीदारों का घर था, कोई कमी नहीं थी लेकिन वे थीं एक स्वतंत्रता सेनानी कि बहन और उन्होंने बगावत कर दी। ससुराल छोड़ कर मायके आ गई और फिर पढ़ लिख कर नौकरी की। चाहती तो अपने मायके मेंही रह कर आराम से अपना जीवन जी सकती थीं लेकिन उनकी खुद्दारी थी और सफेद साड़ी पहन कर सारी जिन्दगी नौकरी की , अपनी बेटी को पढाया लिखाया और ख़ुद ही उसको नसीहत भी दी कि अपने आत्म सम्मान के साथ कोई समझौता नहीं। संघर्ष भले हो पर आश्रित होकर न जिए।

कभी का नारी के दृष्टिकोण से सोचा है की सिर पर आँचल रख कर काम कितनी मुश्किल से कर पाती है। जब उसको पुरूष के कंधे से कन्धा मिलकर कम करना है तो फिर हाथ भी जल्दी ही चलने पड़ते हैं और काम उससे कई गुना ज्यादा होता है। नौकरी के साथ उसकी घर के जिम्मेदारियों में कमी नहीं आ जाती है बल्कि उसको दोगुना काम होता है।
परम्पराएँ अभी भी हैं, और ९० प्रतिशत है, सिर पर आँचल लेकर ही अपने से बड़ों के पैर छुए जाते हैं। अभी ये संस्कृति बाकि है। चाहे वह बहू और या बेटी।
पायल पहले पायल थीं, बेड़ियाँ थीदो -दो तीन-तीन किलो चाँदी की बेड़ियाँ हुआ करती थीघर में चलने में काफी थी किंतु बाहर निकल कर उनको तो तोडना ही थालेकिन छोड़ा उन्हें आज भी नहीं हैजब उनकी जरूरत होती है पहनी भी जाती हैंआफिर या स्कूल में छम-छम करते नहीं जाया जा सकता है चाहे फिर छात्रा हो या फिर टीचर या अन्य कामकाजी महिला। इसलिए इस को नारी के दृष्टिकोण से देखें फिर उस पर कलम चलायें.

November 23, 2009

लडकिया क्या पहने हमेशा इस बात पर बहस होती हैं पर पुरूष क्या देखे इस पर कोई बहस क्यूँ नहीं होती ?

लडकिया क्या पहने हमेशा इस बात पर बहस होती हैं पर पुरूष क्या देखे इस पर कोई बहस क्यूँ नहीं होती ?
आप सब लोग स्त्री के पहनावे को इतना महत्व ही क्यूँ देते हैं ?
अगर मुझे कुछ नहीं देखना हैं टी वी पर तो मै टी वी बंद कर सकती हूँ या मगज़ीन का पन्ना पलट सकती हूँ पर आप ऐसा क्यूँ नहीं कर पाये ???
लडकिया क्या पहने हमेशा इस बात पर बहस होती हैं पर पुरूष क्या देखे इस पर कोई बहस क्यूँ नहीं होती ।
जिस दिन पुरूष स्त्री को शरीर समझ कर देखना छोड़ देगा उस दिन से बदलाव आयेगा । राखी सावंत , किम शर्मा या रिया सेन केवल अपनी रोजी रोटी के लिये ऐसा करती हैं क्युकी वो जानती हैं की आप उनको छोटे कपड़ो मे देख कर उन पर लिखेगे ।

शरीर पुरूष का हो या स्त्री का कोई फरक नहीं होता । जोन इब्राहीम के कपड़े आप ने देखे हैं या शाहरुख़ को लक्स के एड मे नहाते देखा हैं ? या वो एड जिसमे पुरूष अंडरवियर का एक छिछोरा प्रदर्शन होता हैं ।

आवाज उठानी हैं तो समाज मे बढते अनाचार पर उठाये ना की शील का टोकरा हमेशा औरत के सर पर रख कर उसको ताकते भी रहे और उसमे बुराई भी ढूंढ़ ने की पुरजोर कोशिश भी करते रहे !!!!

पहनावा पुरूष और स्त्री दोनों का सुरीची पूर्ण और मर्यादित हो ना की केवल स्त्री का क्युकी समाज मे स्त्री और पुरूष बराबर हैं और उनकी ज़िम्मेदारी और भागीदारी भी बराबर हैं । गर्मियों मे अगर पुरूष बरमूडा शोर्ट्स पहन कर घूम सकता हैं तो स्त्री को भी घूमने से नहीं रोक सकता क्युकी गर्मी दोनों को लगती हैं । आप जो न चाहे दूसरा करे पहले ख़ुद ना करे ।

November 22, 2009

अब अपर्णा क्या करे

अपर्णा ने सुमित के साथ घर से भाग कर शादी की थी। उस समय उसकी उम्र महज अठारह साल थी। घर वालों को जब इसका पता चला तो उन्होंने इस शादी का विरोध किया पर अपर्णा अपने निर्णय पर दृढ़ थी। शादी के समय सुमित कुछ नहीं करता था, वह पूरी तरह अपने मां-बाप पर निर्भर था। परिवार के सदस्यों ने इस बात पर जोर दिया कि सुमित एक बार अपना घर चलाने लायक कमाने लगे, तब इस शादी को मान्यता दी जाय और इस बीच अपर्णा भी अपनी पढ़ाई पूरी कर ले। लेकिन अपर्णा की जिद के सामने सबको झुकना पड़ा। कुछ समय तक सबकुछ ठीकठाक चला। अपर्णा के पिता ने अपनी दुलारी बिटिया और दामाद की इच्छाओं को पूरा करने के लिए वो सब कुछ किया जो एक बाप कर सकता था।
समय गुजरने के साथ अपर्णा एक बेटे की मां बनी। लगा सब कुछ ठीक है। पर ऐसा नहीं था। सुमित का बेलाग स्वभाव और कहीं टिककर काम न करना, अब अपर्णा को अखरने लगा था, सबसे ज्यादा बुरा तो तब लगता जब वह उससे अपने पापा से पैसे मांग कर लाने को बाध्य करता। अपर्णा सबकुछ खामोशी से सह रही थी। वह किसी से कुछ नहीं कहती, पर अंदर ही अंदर कुछ टूटने लगा था। वह अवसाद का शिकार हो गई। उस समय जब उसे सहारे की सबसे ज्यादा ज़रूरत थी, सुमित उसके कहीं आस पास भी नहीं था। अपर्णा जब एंटी डिप्रेशन ड्रग्स के द्वारा खुद को तनाव मुक्त करने की कोशिश कर रही थी, उस समय सुमित अपनी अन्य महिला मित्रों के साथ मौज-मस्ती में व्यस्त था। अपर्णा के लिए यह सब असहय था, लेकिन कोई मार्ग नहीं सूझ रहा था। बेटा बड़ा हो रहा था। उसकी पढ़ाई-लिखाई की चिंता में उसे रातों को नींद नहीं आती, उसके पास कोई नौकरी नहीं थी, न ही कोई ऐसा हुनर जिससे वह अपनी जिंदगी को आगे बढ़ा सके। घूम-फिर कर नज़र पापा पर टिक जाती जो अब अवकाश प्राप्त कर चुके थे। जिंदगी इसी तरह टेढ़ी-मेढ़ी राहों से गुजरती हुई किसी तरह गुज़र रही थी। कि एक घटना से सब कुछ बिखर गया।
हुआ यह कि एक सुबह सुमित अपनी घर की नौकरानी को लेकर गायब हो गया। पूछताछ करने पर पता चला कि दोनों मुंबई गए हैं। अपर्णा के लिए यह उसकी सहन शक्ति की पराकाष्ठा थी। उसे लगा सभी उस पर हँस रहे है। घर वाले, दुनिया वाले, रिश्तेदार सभी। हर शख़्स का चेहरा मानो कह रहा था कि हमने तो पहले ही कहा था, पर तुम ही नहीं मानी....उसने अपना सामान समेटा और अपने पिता के उस घर को अपना अस्थाई बसेरा बनाया जो पिछले कुछ दिनों से खाली पड़ा था।
आजकल उसके दिन काम ढूढ़ने और वकीलों के आफिसों के चक्कर काटने में गुजरते हैं। वह अपने पति को सबक सिखाना चाहती है। अपने और अपने बच्चे के अधिकार सुरक्षित करना चाहती है पर कैसे यह उसे समझ में नहीं आता। क्योंकि जितने मुंह उतनी बातें.....
जीवन के इस कठिन मोड़ पर क्या आप उसे कुछ सलाह देना चाहेंगे कि उसे क्या करना चाहिए ताकि उसके जीवन में एक बार से फिर सुख और शांति आ सके।
-प्रतिभा वाजपेयी

November 21, 2009

रचनाधर्मिता क्या है और क्या कहती है?

नारी ब्लोग्स सिर्फ महिलाओं के लिए है और उनके ही ब्लोग्स इसपर पब्लिश होते हैं । इसमें किसी को क्या आपति है? आज सुबह जो भी इस ब्लॉग के लिए लिखा मिला। जो भी हों - पहले लेखन के प्रति रचनाधर्मिता का पालन कीजिये। सिर्फ ये ही ब्लॉग क्यों? कमेन्ट तो सबके प्रकाशित होते हैं और ऐसा नहीं है की इसमें दिए गए ब्लॉग के लिए पुरूष पाठक कमेन्ट नहीं करते हैं।
रचना के अनुरूप और उसकी आलोचना और समालोचना का हर पाठक को पूरा अधिकार है, इसके लिए लेखक की सहमति या असहमति से कोई मतलब नहीं है, लेकिन अभी भी महिलायें मर्यादित होकर रहना पसंद करती हैं। अपवाद सभी के हो सकते हैं लेकिन आम लोग जिसे प्रतिनिधित्व समझते हैं वह इसी श्रेणी में आता है।
फिर अमर्यादित भाषा का प्रयोग न हम करते हैं और न ही अपने ब्लॉग में इसकी अनुमति देते हैं। हम नारी सशक्तिकरण के नाम पर क्या लिखते हैं इस पर आप को आपत्ति है तो बहुत सारे ब्लॉग हैं उनके विरोध में लिखिए और पब्लिश कीजिये हमें कोई आपत्ति नहीं . लेकिन अश्लील भाषा पर हमें आपत्ति है और रहेगी। इसलिए ऐसे कमेन्ट लिखने का कष्ट आप न करें तो अच्छा है। आपकी राय अगर सभ्य भाषा में हो तो हमें स्वीकार्य किंतु कितना ही बड़ा लेखक हो या ब्लॉगर हो हम अपने ब्लॉग पर जगह नहीं दे सकते हैं।
आप अपनी सुरुचिपूर्ण भाषा को अपने ब्लॉग पर ही प्रकाशित करें. प्रशंसा बटोरें। हमारी कचरा प्रस्तुति पर आप न नजर डालें और न ही भविष्य में ऐसी हरकत करने की कोशिश करें.

November 19, 2009

दो दिन से चल रही सुखोई उड़ाने की बहस मे मेरी रूचि इस बहस के बाद ही ख़तम हो गयी

ये सत्य घटना हैं और इसी हफ्ते मे हुई हैं ।
मेरी छोटी बहन की दूर की ननद का विवाह पिछले साल हुआ था ।
लड़की विवाह नहीं करना चाहती थी इतनी जल्दी पर सामाजिक दबाव के कारण करने को तैयार हो गयी । लड़की पढने मे बहुत ही तेज रही थी और निरंतर प्रथम शेणी मे पास होती रही थी । बैंक इस परीक्षा पास कर के दो साल पहले ही ऑफिसर नियुक्त हुई थी । एक साल नौकरी करते हुआ था की विवाह होगया और फिर गर्भवती हुई । पिछले हफ्ते उसकी तबियत अचानक ख़राब हो गयी और ७ मॉस के बच्चे को ऑपरेशन से निकाला गया । बच्चा चंद मिनट ही जिन्दा रहा । लड़की दो दिन बाद आ ई सी यू से बाहर आयी ।

डॉ का मानना हैं की इस लड़की को जब भी गर्भ होगा यही स्थिति रहेगी यानी बच्चा नहीं बचेगा, गर्भ के सात महीने बाद से फिर लड़की को फिट पड़ेगे जैसा इस बार हुआ । डॉ के अनुसार ऐसा किसी किसी केस मे होता हैं ।

सात दिन होगये हैं इस लड़की को अस्पताल मे और वहाँ जितने भी मिलने आते हैं वो लड़की का हाल चाल पूछ कर एक ही बात कहते हैं इसके पति का क्या होगा ? उसकी क्या गलती हैं ?? सास ससुर और यहाँ तक की लड़की के माँ पिता भी विकल्प सोच रहे हैं लड़की के पति के लिये अभी से । कुछ लोग तो रिश्ते भी सुझाने लगे है उन लड़कियों के जहाँ ये लड़की बड़ी पत्नी बन कर रह सकेगी सम्मान के साथ .

दो दिन से चल रही सुखोई उड़ाने की बहस मे मेरी रूचि इस बहस के बाद ही ख़तम हो गयी । आप सब को क्या लगता हैं क्या निर्णय लिया जाएगा ।

औरतें और सीमित विकल्प

मेरे लेख पर अच्छी प्रतिक्रियाएं मिलीं. सबने मेरे सवाल का जवाब अपने-अपने दृष्टिकोण से दिया. पर अफ़सोस, अधिकतर लोगों ने मेरे सवाल के संदर्भ पर ध्यान नहीं दिया, सुमन को छोड़कर. मेरा सवाल उस संदर्भ में था, जब हमारे एयर वाइस चीफ़ मार्शल ने यह कहा था कि वे सुखोई विमान उड़ाने के लिये महिला पायलटों को इसलिये प्रशिक्षित नहीं कर रहे हैं क्योंकि वे जब गर्भवती होने के दरम्यान दस महीने का अवकाश लेंगी तो वायुसेना का उतना समय और श्रम बेकार जायेगा. मेरा यह पूछना था कि क्या उनका यह तर्क सही है? क्या एक औरत को सिर्फ़ इसलिये कोई एक विशिष्ट कार्य करने से रोका जा सकता है कि वह अपनी कार्यावधि में मातृत्त्व अवकाश लेती है? मेरा सवाल उन महिलाओं के लिये था, जो ऐसे कार्य की चुनौती भी लेना चाहती हैं और माँ बनने की भी? मेरा प्रश्न उन महिलाओं के लिये नहीं था जो बच्चे पैदा करना ही नहीं चाहतीं? मैं यह कतई नहीं मानती कि माँ बनना औरतों के लिये ज़रूरी है. पर यदि कोई औरत माँ भी बनना चाहती है(जैसा कि अधिकतर औरतें चाहती हैं, यह उनकी स्वाभाविक इच्छा भी है और अधिकार भी) और फ़ाइटर पायलट भी, तो क्या सिर्फ़ इसी कारण उसे इस कार्य से बाहर रखा जाय कि वह माँ बनने वाली है?
इस बात का जवाब सुमन ने अच्छी तरह से दिया है. मैं उनकी हर बात से सहमत हूँ, पर एक बात से नहीं. उन्होंने कहा है कि फ़ाइटर पायलट जैसे कैरियर परिवार के साथ नहीं चल सकते. पर ऐसा सिर्फ़ औरतों के साथ क्यों? मेरा प्रश्न यही है कि औरतों के लिये सीमित विकल्प क्यों होते हैं?
मैं नहीं मानती कि फ़ाइटर पायलट की जॉब परिवार के साथ नहीं चल सकते. आज एक समाचार चैनल की बहस में मैंने देखा कि एयरचीफ़ मार्शल एस.के.सरीन ने निम्नलिखित तर्क दिये अपने पक्ष में-
१. गर्भावस्था के दौरान होने वाले हॉर्मोनल परिवर्तन के कारण औरतें इतना स्ट्रेस नहीं झेल सकतीं जितना कि एक पायलट को झेलना पड़ता है.
२. उनका दूसरा तर्क वह है जिसे सुमन ने अपनी पोस्ट में लिखा है कि पायलटों पर चार से पाँच साल का समय तथा लगभग १५ करोड़ रुपये खर्च होते हैं और यदि युद्ध के समय आवश्यकता पड़ने पर महिला पायलट अनुपस्थित हो गयी तो सारी मेहनत बेकार हो जायेगी.
इसी तरह के और भी तर्क दिये हमारे चीफ़ मार्शल ने. कार्यक्रम में उपस्थित महिला अतिथियों ने, जिनमें एक डॉक्टर भी थीं सिरे से उनके तर्कों को खारिज कर दिया. उनके अनुसार-
-अमेरिका और चीन जैसे देशों में महिला पायलट होती हैं. तो क्या वे शारीरिक दृष्टि से भारतीय महिलाओं से अलग हैं.
-क्या औरत के द्वारा किसी क्षेत्र में भागीदारिता को मात्र आँकड़ों में आँकना सही है.
-एक सामान्य गर्भवती स्त्री अपने गर्भकाल में पाँच महीने तक सभी सामान्य काम कर सकती है. आखिरी चार महीनों में उसे अवकाश लेना होता है.
-क्या पुरुष कर्मी स्वास्थ्य-सम्बन्धी परेशानी में छुट्टी नहीं लेते हैं?
 संक्षेप में वहाँ उपस्थित डॉ. खन्ना ने उनके इस तर्क को भी खारिज़ कर दिया कि युद्ध के समय अचानक महिला पायलटों में से पचास प्रतिशत छुट्टी पर जा सकती हैं. एक ऐसे कार्य को करने वाली कोई महिलाकर्मी मात्र एक या दो बच्चे को जन्म देना चाहेगी. ऐसे में उनका यह तर्क बचकाना है.
यकीन मानिये मैंने यह कार्यक्रम बड़े ध्यान से देखा और आप में से जिसने भी देखा होगा उसे ही एयर चीफ़ मार्शल के सारे तर्क खोखले लगे होंगे. सच तो यह है कि हमारी सैनिक सेवा अभी भी पुरुष वर्चस्व का शिकार है. अक्सर जो खबरें आती हैं कि सेना में औरतों को आगे नहीं बढ़ने नहीं दिया जाता, वे बेबुनियाद नहीं होती हैं. हमारा समाज अब भी औरतों को "विकल्प की स्वतन्त्रता" से वन्चित किये हुये है. सुमन जी, मैं आपकी इस बात से सहमत तब हो सकती हूँ कि कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिनमें कार्य करने के लिये परिवार का मोह छोड़ना होगा यदि पुरुषों को भी वैसा ही त्याग करना पड़े. आखिर त्याग की अपेक्षा हमेशा औरतों से क्यों?

November 18, 2009

शादी आज भी एक जरुरी चीज़ हैं औरत को औरत समझे जाने के लिये ।

कल की मुक्ति की पोस्ट मे पूछा गया था
तो बात यहीं खत्म करके मैं आप सभी से यह पूछना चाहती हूँ कि क्या बच्चा पैदा करना औरत की कमज़ोरी है? क्या सिर्फ़ इसीलिये औरत को पुरुष से कमज़ोर मान लिया जाये?

नारी और उसका नौकरी
तथा
नारी और उसका केरीयर
दो बिल्कुल अलग अलग बाते हैं । हमको इन दोनों के फरक को समझना होगा । नौकरी कोई भी कर सकता हैं पर करियर सब नहीं बनाते । करियर मे आप को बहुत कुछ खो कर वो पाना होता हैं लक्षित हैं । शादी भी एक करियर होता हैं और इसको पूरी तरह से निभाना पड़ता हैं क्युकी इसकी अपनी जरूरते हैं । कोई भी नारी शादी करके , पारिवारिक सुख उठा कर साथ मे नौकरी तो कर सकती
हैं और कुछ करियर ऐसे हैं जिनको शादी के साथ भी बनाया जा सकता हैं लेकिन कुछ करियर शादी की पारंपरिक सोच के साथ नहीं चल सकते ।

कुछ काम की ट्रेनिंग मे सरकार का बहुत धन खर्च होता हैं और सुखोई विमान उड़ाने की ट्रेनिंग उन मे से एक हैंअब आप ख़ुद सोचे की अगर एक नारी को ये ट्रेनिंग दी जाये और उसके तुरंत बाद वो गर्भवती हो कर -. साल के अवकाश पर चली जाए { यहाँ आप को ध्यान देना होगा की सुखोई विमान को चलाने के लिये एक १००% फिट पाइलट की जरुरत होती हैं और गर्भावस्था के दौरान नारी का शरीर और मन १००% फिट नहीं होता } तो जब तक वो वापस कर काम शुरू करेगी जो कुछ उसने सीखा था वो भूल चुकी होगी या तकनीक उस से आगे चली गयी होगी
करियर का चुनाव बड़ा मुद्दा हैं उन महिला के लिये जो शादी करके पारिवारिक सुख की कामना भी करती हैं बहुत से करियर ऐसे हैं जहाँ बहुत सी चीजों को छोड़ना होता हैं
भारतीये समाज की यही विडम्बना हैं की आज भी औरत की मजबूती या कमजोरी प्रजनन की क्षमता से की जाती हैंशादी आज भी एक जरुरी चीज़ हैं औरत को औरत समझे जाने के लियेये अन्तर बहुत सी बातो मे दिखता भी हैंसमाज मे सिंगल वुमन आजभी ग़लत समझी जाती हैं चाहे उसका करियर कितना भी अच्छा क्यूँ ना हो और यही कारण हैं की बहुत सी महिला पहले शादी कर लेती हैं ताकि उनको सामाजिक अनुमति मिल जाएलेकिन जब वो करियर मे आगे जाने की सोचती हैं तो उनकी शादी का अंत हो जाता हैंऐसे अनेक उदहारण आप को मिल सकते हैं जहाँ शादी नहीं चली क्युकी करियर चल रहा थाकिरण बेदी एक ऐसा ही ज्वलंत उदहारण हैं हमारे समाज का और कल्पना चावला दूसराकिरण बेदी के केस में शादी टूट गयी पर संतान किरण बेदी के पास ही हैंकल्पना चावला क्युकी नासा मे astronaut थी उन्होने शादी की पर बच्चे की कामना नहीं की और अपना जीवन अपने केरीएर को समर्पित कर दिया

गैर पारम्परिक करियर जैसे सुखोई विमान को उडाना और शादी जैसे पारम्परिक करियर को एक साथ निभाना सम्भव ही नहीं हैंचुनाव का अधिकार समाज नारी को देगा या नहीं प्रश्न ये होना चाहिये

November 17, 2009

क्या बच्चे पैदा करना औरतों की कमज़ोरी है?

कल एक समाचार सुनकर मन प्रसन्न हुआ था. खबर थी कि एक कुश्ती मुकाबले में एक महिला पहलवान ने पुरुष पहलवान को पटखनी दे दी. सोचा कि "नारी" ब्लॉग पर एक आलेख लिखुँगी कि यह एक मिथक है कि महिलाएँ शारीरिक रूप से कमज़ोर होती हैं. यदि उनका पालन-पोषण भी लड़कों की तरह हो, उन्हें बचपन से शारीरिक श्रम कराया जाये, उनका खान-पान अच्छा हो तो वे भी शारीरिक रूप से पुरुषों की तरह मजबूत हों. जो बातें जैविक रूप से अपरिवर्तनीय हैं वो तो हैं ही, पर जिन बातों पर हमारा वश है उसे तो कर ही सकते हैं... ... ... पर ये आलेख लिखने का मेरा उत्साह जाता रहा, जब आज एयरफ़ोर्स के एक बड़े अधिकारी को यह कहते सुना कि वे सुखोई विमान उड़ाने के लिये महिला पायलटों को इसलिये प्रशिक्षित नहीं कर रहे हैं क्योंकि जब वे अपना परिवार बढ़ाने के लिये नौ-दस महीने की छुट्टी लेंगी तो उतना वक्त बेकार जायेगा... इस बात ने मुझे सोचने पर मज़बूर कर दिया कि कोई औरत जब एक बच्चा पैदा करती है तो क्या सिर्फ़ अपने लिये? क्या वह बच्चा समाज और देश की सम्पत्ति नहीं होता? तो क्या बच्चा पैदा करने की क्षमता उसकी शारीरिक कमज़ोरी मानना सही होगा? यह बात सही है कि कोई बाहर कार्य करने वाली महिला अपना परिवार बढ़ाने लिये छुट्टी लेती है तो वह उतने दिन अपनी कार्य की ज़िम्मेदारी नहीं निभा पाती, पर क्या वह एक दूसरी महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी नहीं निभा रही होती है? यदि हमारे देश के महत्त्वपूर्ण पदों पर बैठे लोग ऐसी सोच रखेंगे तो कौन सी महत्त्वाकांक्षी औरत शादी करना या परिवार बढ़ाना चाहेगी. और जब वो ऐसा करेगी तो ये ही लोग कहेंगे कि आजकल की औरतें तो ऐसी हो गयी हैं... तो बात यहीं खत्म करके मैं आप सभी से यह पूछना चाहती हूँ कि क्या बच्चा पैदा करना औरत की कमज़ोरी है? क्या सिर्फ़ इसीलिये औरत को पुरुष से कमज़ोर मान लिया जाये?

November 15, 2009

मै सचिन के खेल की ही नहीं सचिन की फैन हूँ




सचिन तेंदुलकर ने क्रिकेट खेलते हुए आज बीस साल पूरे कर लिये हैं । एक लम्बी लिस्ट हैं क्रीतिमानो की उनके इस २० साल के क्रिकेट दौर की । इस सब से ऊपर भी एक बात हैं जो बहुत महत्व पूर्ण हैं । एक सेलेब्रिटी हैं सचिन और फिर भी इस पूरे २० साल मे कही भी उनके किसी भी प्रेम प्रसंग का अपने विवाहित जीवन से इतर को उल्लेख नहीं आया हैं । अपने से ५ साल बड़ी महिला से प्रेम विवाह कर के , दो बच्चों के पिता बनके सचिन "एक पूर्ण पुरूष " की भूमिका मे ही रहे । दूसरे सेलेब्रिटी की तरह ना तो उनके कोई ऐसी संतान हैं जिसको वो "गलती " का नाम देते हैं और ना ही कोई ऐसी "प्रेमिका " हैं जिसको वो "भूलने " का दिखावा करते हैं ।

जिन्दगी सीधे रास्ते से भी जी जाती हैं और जीनी चाहिये और इसकी मिसाल हैं सचिन जो एक सच्चे देश भक्त भी हैं उनके लिये "इंडिया " से ज्यादा कुछ नहीं क्रिकेट भी नहीं वो सचिन ही थे जिन्होने सबसे पहले कारगिल युद्घ के बाद पाकिस्तान जा कर क्रिकेट खेलने से मना किया था

हमारी कामना हैं की ईश्वर ऐसे सचे इंसान और बनाता चले जो देश के लिये मर मिटना का जज्बा रखते हो और अपनी जिंदगी सही तरह से जीते हो । जो लोग भी " मिल सकता हैं " को केवल इस लिये ना ले क्युकी वो "ग़लत " हैं वही लोग इंसान कहलाने के हकदार होते हैं ।

गलत को रोकना मुश्किल हो सकता हैं पर गलत को ना करना बहुत आसन होता हैं और सचिन इस की मिसाल हैं
मै सचिन के खेल की ही नहीं सचिन की फैन हूँ

November 14, 2009

ये कैसी शादी ?

ऋचा और शेखर की शादी धूमधाम से हुई|दो साल से दोनों एक ही कम्पनी में साथ काम कर रहे थे ,दोनों की जाति में भी काफी समानता थी तो घरवालो को कोई आपति नही थी शादी में | ,दादा दादी, नाना नानी ,ताऊ ताई ,चाचा चाची ,मामा मामी, मोसा मोसी ,ढेर सारे अंकल अंटी दूर दूर से शादी में सम्मिलित होने आए खूब आशीर्वाद दिए बधाई दी उपहार दिए |
दो साल सब कुछ अच्छा चला घर में ऋचा की साँस ऋचा की नन्द और शेखर कुल चार प्राणी | ऋचा की तनखा घर की किश्ते भरने में दी जाती रही ओर नन्द की पढाई में खर्च किया जाता रहा नौकरी के आलावा घर के kसारे काम ऋचा ने खुशी खुशी अपनी जिम्मेवारी पर ले लिए मसलन बिल भरना ओर घर के जो भी mentens हो |क्योकि ये सब काम करने में उनके लडके शेखर को धुप ओर धूल की एलर्जी है ओर वो बहुत नाजुक है बीमार हो जाएगा ?धीरे शेखर ने सारी जिम्मेवारी अपनी पत्नी पर डाल दी|ख़ुद शाम को आना दोस्तों के साथ तफरीह करना |माँ के परिवार मामा मोसी के साथ समय बिताना यही दिनचर्या हो गई |ऋचा ओर शेखर की दूरियां बढती गई |आज ऋचा की शादी को पॉँच साल हो गये पिछले तीन सालो में उसने बहुत कोशिश की शेखर को समझने की उसके साथ अपने वैवाहिक जीवन को बचाने की | लेकिन शेखर के परिवार ने और शेखर ख़ुद ने उसे उसे घर में काम वाली जैसा समझकर व्यवहार किया घर के सारे महत्वपूर्ण निर्णय माँ बेटे लेते ऋचा को दरकिनार कर देते |रिचा बीमार रहने लगी उसे घर में सहानुभूति के दो बोल भी मिले जिसके लिए उसने इन बातो की भी परवाह नही की वही उसको अपनी सहधर्मिणी नही बना सका |तनाव में आज वो थायराइड से पीड़ित हो गई है और अब वो इस कारण से पिछले महीनो से अपने माँ बाप के पास रह रही है |शेखर ने उसे एक बार कहा -बचपना और नाटक छोड़ दे और घर जा |रिचा नही जाना चाहती उस घर में |
अब रिचा क्याकरे?

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