विधुर शायद ही कभी विलाप करते हो , वो उनके परिजन उनके विधुर होते ही उनके
लिये नयी जीवन संगिनी खोजते हैं ताकि उनका जीवन फिर किसी नारी के सहारे
सुखमय कट सके . समाज की नज़र में सधवा का मरना उस सधवा के लिये एक भाग्यशाली
होने की निशानी हैं क्युकी पति के रहते वो स्वर्ग सिधार गयी . यानी स्त्री
का भाग्य उसके पति की कुशलता से जुडा होता हैं और पति का भाग्य . सौभाग्य
कभी भी स्त्री / पत्नी के जीवन से नहीं जुडा होता हैं .
इसीलिये विधवा विलाप एक बहुत ही करुण स्थिति मानी गयी हैं जहां एक स्त्री
अपने पति के मरते ही अपनी सुध बुध खो देती हैं और चीख चीख कर अनगर्ल प्रलाप
करती हैं क्युकी आने वाले जीवन में समाज उस से बहुत कुछ छीनने वाला हैं .
आज
से सालो पहले जब बाल विवाह होते थे , गौना होता था , तब ना जाने कितनी
बच्चिया गौने से पहले ही विधवा हो जाती थी और मेरी अपनी दादी { जो मेरी
दादी की ममेरी बहिन थी } खुद ९ वर्ष की उम्र में विधवा हो गयी थी . फिर भी
ससुराल गयी और ९० वर्ष की उम्र में उनका निधन हमारे पास १९७० ही हुआ था . ९
वर्ष से ९० वर्ष का सफ़र अपनी ममेरी बहिन की ससुराल में उन्होने काटा
क्युकी १३ वर्ष की आयु में ही उनकी ससुराल में या मायके में क़ोई भी नहीं
बचा था . उनको क़ोई अपने साथ भी नहीं रखना चाहता था क्युकी विधवा का विलाप
क़ोई नहीं सुनना चाहता था . हमारी दादी उनको अपने साथ ले आई थी लेकिन क्या
स्थिति थी उनकी इस घर में केवल और केवल एक ऐसी स्त्री की जिसको क़ोई अपने
साथ ही नहीं रखना चाहता . उनके खाना पकाने के बरतन तक अलग होते थे . तीज
त्यौहार पर उनके लिये खाना सब के खाना खाने के बाद ही परोसा जाता था , उनको
ये अधिकार नहीं था की वो एक ही चूल्हे पर अपने लिये "कडाई चढ़ा सके { यानि
कुछ तल सके जैसे पूरी } . जब घर के पुरुष और सधवा खा लेगी तब उन्हे तीज
त्यौहार पर "पक्का खाना" दिया जाता था .
२ रूपए की पेंशन उनके पति की
आती थी , उस पति की जिसे ना कभी उन्होने देखा या जाना था , बहिन के चार
बेटों और १ बेटी को बड़ा करने में ही उन्होने अपन जीवन लगा दिया फिर भी उस
घर की नहीं कहलाई . बस रही एक विधवा दूसरे घर की जिसको सहारा दिया हमारी
दादी ने . दादी की पहली बहू , दूसरी बहू तो उनको एक नौकरानी से ज्यादा नहीं
समझती थी क्युकी दोनों तकरीबन निरक्षर थी और "संस्कारवान " थी . वो
संस्कार जो समाज ने उनको दिये थे की विधवा बस एक विधवा होती हैं . एक ऐसी
स्त्री जिससे दूर रहो .
माँ हमारी दादी की तीसरी बहू थी , जब शादी हुई
१९५9 तो लखनऊ विश्विद्यालय में प्रवक्ता थी और उम्र थी महज २२ साल . शादी
के बाद माँ ने दादी की ममेरी विधवा बहिन यानी मेरी दादी को बहुत मानसिक
संबल दिया क्युकी माँ शिक्षित थी . माँ ने कभी उन्हे विधवा नहीं कहा . जब
तक माँ ससुराल में रही दादी के लिये जितना सम्मान अर्जित करवा सकती थी
उन्होने किया . १९६५ में माँ सपरिवार दिल्ली आगयी और मेरी दादी को साथ लाई .
५ साल दादी हमारे साथ दिल्ली रही और कहती रही ये उनकी जिंदगी के सबसे
बेहतर साल रहे . हमारे घर में उन्हे बिना खिलाये खाना नहीं खाया जा सकता था , जो कुछ भी मिठाई इत्यादि अगर कभी कहीं से आत्ती थी तो सीधे दादी के हाथ में दे दी जाती थी ताकि वो अपने लिये पहले निकाल ले और झूठा ना हो जाए , उनके निकलेने के बाद ही हम उसमे से खा सकते थे .
हमारी माँ के बीमार पडते ही हमारी दादी अपने को ही कोसती {
विधवा विलाप इसे कहते हैं संतोष त्रिवेदी , प्रवीण शाह और अरविन्द मिश्र }
की वो अपशकुनी हैं जिसके पास रहती हैं वो मर जाता हैं . उस समय वो एक एक
उस व्यक्ति को याद करती जो मर गया था और उन्हे अपशकुनी , विधवा बना गया था .
माँ उनको कितना भी समझाती पर वो यही कहती दुल्हिन हम अपशकुनी हैं तुमको भी
खा जायेगे .
हमे तो दादी के देहांत तक कभी ये पता ही नहीं था की वो हमारी दादी की ममेरी बहिन हैं , विधवा , बेसहारा , अपशकुनी .
जिस
दिन दादी नहीं रही तो संस्कार करने की बात हुई , अडोस पड़ोस के लोगो ने
पापा से और माँ से कहा की आप इनके बड़े बेटे को बुला कर संस्कार करा दे ,
या सबसे छोटे को , क्युकी मझला बेटा संस्कार नहीं करता . तब माँ - पिता ने
कहा की ये हमारी माँ नहीं मौसी हैं . फिर मेरी माँ ने पूरे सनातन धर्म के
रीती रिवाजो से उनका संस्कार पापा से करवाया . पापा क्युकी इन सब में
विश्वास नहीं रखते थे इस लिये मैने कहा माँ ने करवाया . १३ दिन हम सब जमीन
पर सोये वही खाया जो बाहर से पडोसी दे गए .
क्या होता हैं विधवा
होना , ये क़ोई उस परिवार से पूछे जहां ऐसी विधवा होती हैं . क्या संतोष
त्रिवेदी जानते हैं या प्रवीण शाह जानते हैं या अरविन्द मिश्र जानते हैं की
विधवा को पखाना जाने के समय बिना कपड़ो के जाना होता था . विधवा को कोरा
कपड़ा पहनाना माना होता था ,
हमने देखा हैं अपनी दादी को बिना कपड़ो के
पखाना जाते . दिल्ली आने पर भी वो जाती थी , हज़ार बार पापा ने उनको माना
किया पर नहीं उनके विधवा होने के संस्कार उनको अपने को बदल कर रहने की
परमिशन नहीं देते थे .
कम से कम वो अपना अगला जीवन अपशकुनी हो कर नहीं
गुजारना चाहती थी ,
कितनी आसानी से संतोष त्रिवेदी , प्रवीण शाह और
अरविन्द मिश्र ने नारीवादियों के लेखन को ""रंडापा टॉइप स्यापा " " कह
दिया , और फिर मुझे समझा दिया की रंडवा का मतलब विधवा विलाप होता हैं . बड़ी
आसानी से समझा दिया की विधवा विलाप तो स्त्री पुरुष दोनों के लिये आता हैं
. क्या जानते हैं वो विधवा विलाप के बारे में ??
क्यूँ हैं आज समाज में
नारी वादियाँ क्युकी उन्हे सुनाई देता हैं विधवा विलाप . देखा हैं मैने
अपने घर में और भी बहुत से घरो में क्या होता हैं क्या हैं हमारे समाज में
विधवा की स्थिति और क्या होता हैं विधवा विलाप . और आप तो उस विधवा का भी
अपमान करते हैं क्युकी आप को तो "रंडापा टॉइप स्यापा " लगता हें विधवा का
विलाप .
दादी कहती थी माँ से दुल्हिन वो तो तुम्हारी सास ले आयी सो कम से कम एक छत मिल गयी वरना विधवा को रांड बनाने को सब तैयार रहते हैं .
अगली पोस्ट में लिखूँगी उस विधवा के बारे में जो १९८६ में २५ की उम्र में विधवा हुई , क्या विलाप था उसका और क्या बीती उस पर . शायद संतोष त्रिवेदी , प्रवीण शाह और अरविन्द मिश्र की संवेदन शीलता उनको एहसास कराये की नारीवादी लेखन को "रंडापा टॉइप स्यापा " कहना और फिर उसकी तुलना विधवा विलाप से करना गलत हैं .
मुझे से आप नाराज़ हैं , जील से आप नाराज हैं , अंशुमाला से आप नाराज हैं , मुक्ति से आप नाराज हैं , कोई बात नहीं जितने शब्द , अपशब्द कहने हैं हमारा नाम लेकर कहे , लेकिन हमारी वजह से नारीवादियों को विधवा ना कहे , उनके लेखन को विधवा और "रंडापा टॉइप स्यापा " " कह कर उनका अपमान ना करे
हमे कहे और फिर हमारी प्रतिक्रया के लिये तैयार रहे पर जब भी विधवा शब्द "रंडापा टॉइप स्यापा " " और छिनाल इत्यादि का प्रयोग करने " आम " के लिये नहीं नाम लेकर करे . इतनी हिम्मत रखें .
नारीवादी
कह कर उपहास करदेना कितना आसान हैं , गाव के रीती रिवाज की जानकारी देना
मुझे , गाँव के मुहावरे समझना मुझे बहुत आसन हैं
पर उन सब को ही बदलने और
उन सब के खिलाफ आवाज उठाने के लिये ही तो मैने ये नारी ब्लॉग बनाया हैं
शब्दकोष और बोलचाल में नारी के अपमान को , नारी के दोयम के दर्जे को ही तो बदलना हैं .
और
जितनी तीव्रता से मुझे समझाया जाता हैं उस से दस गुना ज्यादा तीव्रता से
मै बदलाव की बयार को लाने की मुहीम चलाने के लिये प्रेरित होती हूँ
प्रवीण शाह की पोस्ट
संतोष त्रिवेदी का कमेन्ट
अरविन्द मिश्र की पोस्ट
संतोष त्रिवेदी का कमेन्ट
प्रवीण शाह का कमेन्ट
जील की पोस्ट
मेरी दादी