पति की अर्थी उठने से पहले हाथो की चूड़िया एक पत्थर पर तोड़ कर अर्थी पर चढ़ाई जाती हैं . हाथो लहू लोहन हो जाए तो विधवा विलाप होता हैं
पैरो के बिछिये खीच कर उतारे जाते हैं चोट लगने पर जो आवाज आती हैं वो होता हैं विधवा विलाप
नाक की कील निकाली जाती हैं , तब जो दर्द होता हैं , जो आवाज निकलती हैं वो होता हैं विधवा विलाप
सर्दी हो या गर्मी सबके सामने बिठा कर सर से पानी डाल कर मांग के सिंदूर को बहाया जाता हैं और तब जो चीत्कार होता हैं वो होता हैं विधवा विलाप
गीली साडी उतरवा कर सफ़ेद साडी पहनाई जाती हैं और सबके बीच बिठा कर आँचल को पसारने को कहा जाता हैं ताकि वहाँ उपस्थित लोग उसमे कुछ आर्थिक राशी डाल सके यानी एक प्रकार की भिक्षा . तब जो आह निकलती हैं वो होता हैं विधवा विलाप .
आग्रह हैं जिन लोगो को अपने आस पास किसी ऐसी परम्परा का पता हो जो विधवा विलाप का कारण हो तो इस पोस्ट में जोड़ दे . कम से कम जो ये नहीं जानते विधवाओ को क्या क्या सदियों से झेलना पडा हैं वो जान सके और संभव हैं तब वो समझ सके जिन्दगी की सचाई भाषा विज्ञान से इतर होती हैं
कल की पोस्ट और उस पर आये कमेन्ट यहाँ देखे . लिंक
ReplyDeleteलोग और उनके ख़राब विचार शायद कभी नहीं बदलते है संभवतः दो ढाई साल पहले इसी नारी ब्लॉग पर किसी ने कहा था की भारतीय नारी को प्रसव पीड़ा नहीं होती है वो तो उसके लिए प्रसव आन्नद होता है और आज दो साल बाद कहा जा रहा है की "यहाँ विधवा विलाप का मतलब ध्यानाकर्षण के लिए अत्यधिक और बहुधा निरर्थक प्रयास से है -जैसे लोग घडियाली आंसू बहाते हैं -उसी तरह विधवा विलाप भी कर सकते हैं!" क्या कोई विधवा किसी के ध्यानाकर्षण के लिए निरर्थक विलाप करती है क्या उसे घडियाली आंसू के जैसा माना जा सकता है , संभव है की वो इस पोस्ट में कहे की क्या फ़िल्मी सीन होता है महिलाओ को ये करने में भी आन्नद आता होगा और लोगों से खूब पैसे और सहानुभूति भी मिलती होगी मुफ्त में , स्त्री के प्रति लोगों के असंवेदनशील विचारो को देखे तो लोगों के इस तरह के विचार में कोई आश्चर्य नहीं होगा | जिन्हें ये सब कुछ बहुत ज्यादा लग रहा हो या ये लग रहा हो की ऐसा तो बस फिल्मो में होता है सच में ऐसा नहीं होता होगा तो उन्हें बता दू की जिन शब्दों को रचना जी ने लिखा है आज भी २१ वी सदी में भी महिलाओ के साथ बिल्कुल ऐसा ही किया जाता है | यही सब कुछ बड़े सामान्य ढंग से महिला को खुद करने को कहा जा सकता है किन्तु ऐसा नहीं होता है जो बताया जा रहा है, पति की मौत के बाद किसी स्त्री के साथ ऐसा ही किया जाता है ये बिल्कुल उस पर भावनात्मक हिंसा करने जैसा होता है ताकि वो अच्छे से समझ सके की अब उसके जीवन में कुछ भी नहीं बचा है बाकि का जीवन उसे दुखी रह कर ही बिताना है और मजबूरी तो ये है की जिस पर ये भावनात्मक हिंसा की जाती है वो किसी भी तरीके से और कभी भी इसका विरोध नहीं कर सकती है , ये सब कुछ हो रहा है क्योकि ऐसा होता आया है यही परंपरा है और बिना सोचे समझे आँख मूंद कर हो रहा है बिल्कुल वैसे ही जैसे की बड़ी मासूमियत से कह दिया जाता है की रंडापा टाईप विलाप तो आम समाज में प्रचलित वाक्य है उसमे क्या गलत है इसका अर्थ तो निरर्थक और ध्यानाकर्षण के लिए किया गया विलाप है |
रचना ऐसे लोगों का कोई विकल्प नहीं होता है, क्योंकि वे अपने कहे गए शब्दों और उसको अलग अलग रूप से परिभाषित करके जो अपना ज्ञान बघार रहे हें तो ये शब्द कोई अलंकर नहीं है कि वे उसको अपने कथ्य को अलंकृत करें. इस भारतीय समाज में नारी कहीं भी पहुँच जाए लेकिन उसके दुर्भाग्य से अगर उसके पाती का निधन उससे पहले होता है तो फिर उसको इन सारी प्रक्रियों से गुजरना पड़ता है. उस औरत के दर्द को 'रांड टाइप स्यापा " कह कर उपहास करना होगा. अब उस शब्द की व्याख्या होने के बाद . उनके लिए प्रतिक्रिया व्यक्त करने वालों को त्रिवेदी ने "रुदाली " की विशेषण से विभूषित कर दिया. धृष्टता की हद होती है. अपनी गलती को स्वीकार करने के बाजे नए नए तर्क प्रस्तुत किये जा रहे हें. ऐसे लोगों के विचारों से सामंतवादी सोच पल रही है.
ReplyDelete'रांड टाइप स्यापा"
Delete@ ये तीन शब्द मानो अमुक त्रिवेदी के लिए वेद-वाक्य हो गए... और उन्हें इस वैदिक उद्घोष से संतोष हुआ होगा!!!
क्षोभ होता है ... मानस-पारायण विद्वान् भी स्त्रियों के प्रति ऎसी सोच रखते हैं जिस तुलसीदास ने 'रामपथ' पर चलने से पहले अपनी स्त्री 'रत्नावली' से प्रेरणा पायी.
स्त्री ने ही उन्हें प्रभु-भक्ति की ओर उन्मुख किया, ये कहकर कि ..
अस्थि चर्म मय देह ये, ता सों ऐसी प्रीति।
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीति।।
... कभी-कभी लगता है कि लोग प्रभु-भक्ति केवल सामाजिक दिखावे के लिए करते हैं . समाज में रहने वाले लोगों के लिए उनके मन में समता के भाव नहीं होते .
बुद्धिजीवियों के बीच अपशब्दों से वही खेलते पाए जाते हैं जो जबरदस्ती 'विद्वता का गुबार' निकालना चाहते हैं .... कोशिश तो वे बहुत श्रेष्ठ विचार निकालने की करते हैं लेकिन निकल गंद (मल) जाता है. जब श्रेष्ठ विचार होंगे, तभी तो निकलेंगे ना!. "बोया पेड़ बबूल का, तो आम कहाँ ते होय."
प्रतुल
Deleteविवाहित पुरुष के क़ोई "लक्षण" नहीं होते जो उनको विवाहित सिद्ध कर दे
विवाहित के स्त्री के "लक्षण " यानी सुहाग चिन्ह होते हैं
इस लिये विधुर विलाप की क़ोई लाक्षणिक और व्यंजनात्मक अर्थों परिभाषा नहीं मिलती
इसी लिये "विधवा विलाप" के लिये लोग लाक्षणिक और व्यंजनात्मक अर्थों परिभाषा दे पाते हैं
रचना जी,
ReplyDeleteबहुत मार्मिक वर्णन किया है आपने 'विधवा विलाप' का. पहली दृष्टि में यह सब अत्याचार लगता है. पुरुषप्रधान समाज की निरंकुशता प्रतीत होता है.
लेकिन जिसे किसी भी प्रकार का मानसिक घात लगता है वह कहीं बढ़ता ना जाए और वह पक्षाघात का शिकार न हो जाए.... स्यात इस कारण तो नहीं करते सदमे में आए व्यक्ति का शारीरिक उत्पीडन.
मुझे दो-एक अनुभवपरक घटना याद हैं :
पहली, एक बच्ची दूसरे मंजिल की सीढ़ियों से रिपटते हुए नीचे आ गिरी और खामोश हो गयी, इसे देखकर नीचे खड़ी प्रौढ़ महिला ने उसे जोरदार चाँटा मारा.... मैंने पूछा - ऐसा क्यों किया.. उन्होंने बताया कि उसकी चेतना को जगाना जरूरी था. यदि चोट लगने पर बच्चा रोये नहीं तो उसकी इन्द्रियाँ सुप्त हो सकती हैं. रोते हुए बच्चे की चेतना अधिक होती है. इसका मतलब ये नहीं कि बच्चे की चेतना तीव्र करने का ये कोई फार्मूला है.
दूसरी, अपनी मूर्खता में मोहवश मैंने एक अपराध किया था... उस अपराध (पाप) के दौरान बहुत पीटा गया... मुझे सदमा लगा. जितनी तीव्र पीड़ा मानसिक थी उस पीड़ा में शारीरिक पीड़ा महसूस नहीं हुई. मानसिक पीड़ा की जितनी अधिक तीव्रता होती है उसमें शारीरिक पीड़ा का बोध समाप्त हो जाता है. 'विश्वासघात की पीड़ा' हो या 'प्रिय आघात की पीड़ा' कहीं पक्षाघात की स्थिति में ना ला दें.... इसलिए शारीरिक उत्पीड़न औषधि बनता है.
मुझे कुछ दिनों बाद उस 'पिटाई' के रिजल्ट नज़र आए... कान का बहना और शारीरिक दर्द. वैसे तो मुझे इन बातों को शेयर नहीं करना चाहिये था... लेकिन जब कोई 'रूढ़ी' को तर्क की कसौटी पर कसने की बात आती है तो मैं स्वानुभूत अनुभवों को महत्व देता हूँ.
रति-विलाप (विधवा-विलाप) हो अथवा 'अज विलाप' (विदुर-विलाप) कोई भी सदमे में पक्षाघात का शिकार हो सकता है. राजा अज ने 'इंदुमती की मृत्यु पर जल-समाधि ले ली थी. यदि शारीरिक उत्पीड़न न किया जाए तो न जाने कितनी ही स्त्रियाँ जौहर खेलकर 'पद्मनियाँ' बन जाएँ.
बात को विस्तार फिर कभी....
प्रतुल
Deleteसती प्रथा के पुराने चित्र उठा कर देखे , नव वधु जैसा श्रृगार कर के विधवा को पति की चिता पर बिठाया जाता था और कहा जाता था देखो कितनी मधुर मुस्कान हैं जबकि वो अपने होश में होती ही नहीं थी . जब तक अग्नि की तपिश होश में लाती थी तब तक निकलने के रास्ते बंद होते थे या लोग डाँडो की सहयता से आग को उसकी तरफ बढ़ा देते थे
होश में लाने के लिये बहुत कुछ और भी किया जा सकता हैं , सबके सामने सर पर ठंडा पानी डाल कर नाली में सिंदूर बहाने की जगह . होश में लाने के लिये आँचल में भिक्षा डलवाने के अलावा भी बहुत कुछ हैं जो किया जा सकता हैं
और बात विधवा विलाप की हैं जिसको आप ने खुद प्रवीण शाह की पोस्ट पर परिभाषित कर दिया हैं
आप से विमर्श कर के काफी कुछ और समझ आता है जिस पर लिखने का मन हैं
यदि शारीरिक उत्पीड़न
Deleteन किया जाए तो न जाने
कितनी ही स्त्रियाँजौहर
खेलकर 'पद्मनियाँ' बन
जाएँ.
???!!
@ 'सतीप्रथा' .......मुगलिया मध्यकाल के समाज की कुरीति है... जो किन कारणों से शुरू हुई और किन वजहों से फैलती चली गयी... इस पर चिंतन करने की जरूरत है जिससे इसे पूरी तरह समाप्त करने में सहायता मिले.
ReplyDelete- पहला कारण 'अशिक्षा' है.
- दूसरा कारण उसे 'प्रतिष्ठा से जोड़कर समझना' है.
- तीसरा कारण उसे 'अबला' मानकर उसके भविष्य की अति चिंता करना है. जिस कारण परिवार के सदस्यों में ही 'संवेदनशून्यता' आ जाती है. रक्षा के लिए तो ताउम्र उसके इर्द-गिर्द डटे रहना होगा, लेकिन मौत पर सब झंझट समाप्त.
- एक अन्य कारण ... जिस धर्म के शिव आराध्य हों और आराध्या हों 'दक्षसुता' सती, जो स्वयं को होम करने के उपरान्त अगले जन्म में 'पार्वती रूप में शिव से आत्मसात होती हों... हिन्दू धर्म के अंध अनुयायी ऎसी पौराणिक कथाओं से गलत अर्थ ग्रहण कर लेते हैं.. परिवार और समाज द्वारा वर-वधु को सात-जन्म तक जबरन एक करने के भयंकर प्रयास किये जाते हैं. जबकि वैदिक धर्म (जो मनुष्यमात्र के सुखद जीवन के लिए संकल्पित है) में सभी विधान थे ... आयु अनुसार विवाह, स्त्री-पुनर्विवाह, स्वयं वरण करने की स्त्री को छूट, नियमानुसार नियोग, विवाह के एकाधिक प्रकारों को मान्यता (श्रेष्ठ, कम श्रेष्ठ, निम्न और निम्नतम प्रकारों के विवाह). धर्म का कार्य सतत नियमन करने का रहता था, व्यवहारिक सदाचार को बढ़ावा देना और सामाजिक व्यभिचार को रोकना उसका उद्देश्य था.
बहरहाल, लगता है कि 'सती' प्रथा' का आरम्भ पौराणिक युग की देन है... लेकिन जहाँ कथा में एक स्त्री अपने पति 'शिव' के अपमान को बर्दाश्त नहीं कर पाती और अग्निकुंड में छलांग लगा लेती है... सती का तात्कालिक निर्णय शिव-तांडव का कारण बनता है ... शिव अपनी चेतना को बरकरार रखने के लिए बिफरते हैं. लेकिन फिर भी अत्यंत हार्दिक पीड़ा से समाधिस्थ हो जात हैं. यहाँ विलाप एक 'विदुर' का होता है और एक बड़े अंतराल के बाद उनका पुनर्विवाह भी होता है. सभी दुर्भावनाओं को समाप्त करने की भावना से 'पार्वती' को 'सती का अवतार बताया जाता है... यहाँ तो दो बातें और स्पष्ट होती हैं :
- पहली, ये कि विवाह में वर-वधु की आयु का अंतराल महत्व हीन है. महत्व तो केवल प्रेम, विश्वास और 'काम' के उचित नियमन का है.
- दूसरी, जीवन को सुखद बनाने के लिए ही 'अवतारवाद' की अभिकल्पना की गयी है... यह अभिकल्पना प्रिय के 'मोह' में डूबे निराशमना को सदमे से निकालकर पुनः जीवंत कर देती है.
[वैसे 'अवतार' एक वैज्ञानिक अवधारणा है ... जो भौतिकवादी साइंटिस्ट्स को हज़म नहीं होती. इस कारण अध्यात्म की गोद में बैठी है. — विषयांतर न चला जाऊँ इस कारण विचार-वाह को थाम रहा हूँ.]