नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

May 30, 2008

मै जूते पोलिश करती हूं

हमारे देश में सदा से ऒरतों का शोषण होता आया हॆ ऒर इसके साथ ही उन्हें बहलाने के लिये देवी की महिमा में मढ दिया गया हॆ जॆसे 'नारी तू नारायणी', 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता'आदि-आदि।

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मेरे पीहर वालों की भी कुछ ऎसी ही सोच हॆ कि नारी देवी हॆ। मेरे पापा कहते हॆं: 'ऒरत शादी से पहले दुर्गा का रूप होती हॆ ऒर शादी के बाद लक्ष्मी का।' इसी वजह से उन्होंने कभी हम दोनों बहनों को अपने ऒर हमारे दोनों भाइयों के जूते-चप्पलों को हाथ भी नहीं लगाने दिया, उन्हें पोंछना या पोलिश करना तो बहुत दूर की बात हॆ। झाडू लगाते समय भी बीच में पडी चप्पलों को पांवों में पहनकर या पांवों से खिसकाकर ही एक तरफ करना सिखाया गया। यदि कभी जल्दबाजी में या यों ही चप्पलों को हाथ से उठाकर रख देते ऒर पापा देख लेते तो वे नाराज होकर कहते: 'तुम लडकियां हम बाप-बेटों की चप्पलों के हाथ मत लगाया करो, इससे हमें पाप लगता हॆ।' मुझे इस तरह की बातें कभी अच्छी नहीं लगी। मॆंने दो-चार बार अपने पापा से बहस भी की कि पापा क्या फर्क पडता हॆ। यदि भाई लोग आपकी चप्पलों को पोलिश कर सकते हॆं तो मॆं क्यों नही? लेकिन उनका एक ही जवाब होता: 'हमें पाप लगता हॆ।' साथ में यह भी जोड दिया जाता: 'जो करना हो अपने घर जाकर करना, हमें तो ऎसे ही रहने दो।' पहली बार तो यह सुनकर झटका सा लगा परन्तु धीरे-धीरे इन सब बातों की आदत सी हो गयी मुझे।
ऒर फिर एक दिन मॆं दुर्गा से लक्ष्मी बन गयी। ससुराल आयी तो सब कुछ एकदम अलग। शादी के हफ्ते भर बाद ही ससुर जी ने अपने जूते पोलिश करने के लिये कहा। उनके जूतों को पहली बार हाथ लगाया तो पापा के शब्द याद आ गये ऒर पूरे शरीर में एक सिहरन सी दॊड गयी। अब मॆं रोजाना अपने ससुर जी के जूते-चप्पल साफ करती हूं,कभी-कभार पति के भी। कभी-कभी ससुर जी का स्कूटर भी साफ करती हूं पर मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता। मेरी मम्मी भी मेरे पापा के जूते-चप्पल साफ करती हॆ जो मुझे पसन्द नहीं हॆ पर मेरे पीहर में बहनों से, बेटियों से ऒर छोटे भाइयों व बेटों की बहुओं से कभी जूते साफ नहीं करवाये जाते। बहनों-बेटियों के मामले में यह पाप-पुण्य की बात हॆ लेकिन बहुओं के मामले में यह उनके सम्मान की बात हॆ ऒर इस पूरे वाकिये में मुझे यही एक बात अच्छी लगती हॆ। मेरे ससुराल में तो बहनों (छोटी या बडी)से, बेटियों से, बीवी से, बहुओं से सभी से जूते चप्पल साफ करवाये जाते हॆं। मुझे इससे चिढ होती हॆ। ईमानदारी से कहूं, मुझे अपने पति के जूते साफ करना भी अपमानजनक लगता हॆ। मॆं एक बात सोचती हूं, क्या मेरे पति मेरी चप्पल को उठाकर दूसरी जगह रख भी सकते हॆं; कभी नहीं। उन्हें साफ करना तो बहुत दूर की बात हॆ। फिर मॆं उनके ये काम क्यों करूं, सिर्फ इसलिये कि मॆं ऒरत हूं। मेरे ख्याल से आदमी हो या ऒरत, अपने जूते चप्पल साफ करना, अण्डरगारमेन्ट्स धोना, जूठे बर्तन उठाना, व्हीकल साफ करना- इस तरह के छोटे-छोटे काम सभी को खुद करने चाहिये ऒर इनकी आदत बचपन से ही डालनी चाहिये। हां, यदि कभी किसी को देर हो रही हो या कोई शारिरिक समस्या हो तो मुझे किसी का भी कोई भी काम करने से हीनता महसूस नहीं होती परन्तु ऎसे रोजाना! क्या यह सही हॆ? मेरे ससुर जी कहते हॆं: 'जो आदमी अपना काम खुद करेगा, वह आराम पायेगा।' तो वे अपने ये काम खुद क्यों नही करते? 'पर उपदेस कुसल बहुतेरे।'

दर-असल, रिश्तों में स्वाभाविकता ऒर एक-दूसरे के प्रति सम्मान की भावना होनी चाहिये। मॆं न तो यह पसन्द करती हूं कि लडकी को देवी की तरह मानकर उसे कोई काम करने से रोका जाये ऒर न ही ये कि पुरुष खुद को बडा समझे ऒर ऒरतों को दोयम दर्जा देते हुए उनसे अपने जूते पोलिश करने जॆसे काम करवायें।

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ये भावनाएं मेरी जिस परिचित की हॆ उनका मॆं नाम नहीं दे रही हूं क्योंकि उनकी यही इच्छा हॆ। परन्तु राजस्थान के छोटे शहरों ऒर गांवों में यह अधिकांश घरों की कहानी हॆ। आज राष्ट्र-स्तर पर नारी-सशक्तिकरण की लम्बी-लम्बी बहसें चल रही हॆ परन्तु जब देश के आधारभूत ढांचे में इस तरह की सोच देखी जाती हॆ तो बहुत अफसोस होता हॆ। पता नहीं, हमारे समाज में ऒरतों को सही मायने में मान-सम्मान कब मिलेगा!

May 29, 2008

"दी शेम इस नोट माइन "

"नीता गोस्वामी" ने उस भारतीय समाज मे अपनी लड़ाई को लड़ा जहाँ बलात्कार का दोष भी , जिसका बलात्कार होता हैं उसकी का होता हैं । शिकारी नहीं दोषी शिकार होता हैं । "The shame is not mine" नाम हैं "अरुण चड्ढा की फ़िल्म का जो उन्होने "नीता गोस्वामी " के ऊपर बनाई थी । इस फ़िल्म मे दिखाया गया हैं की किस तरह "नीता गोस्वामी " ने अपने पर हुये बलात्कार के बाद " अपनी स्वतंत्र सोच " से अपनी लड़ाई को लड़ा और एक मिसाल कायम की । आज नीता गोस्वामी की पहचान एक लीडर के रूप मे होती हैं , एक बलात्कार से शोषित महिला के रूप मे नहीं क्योकि नीता गोस्वामी शर्मसार नहीं हुई अपने ऊपर हुए अमानवीय कृत्य से और उन्होने ये भी इंतज़ार नहीं किया की कोई आयेगा और उनको उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा वापस दिला जाएगा । जो लोग आज़ादी व्यक्तिगत से ज़्यादा एक सामाजिक क्वेस्ट है मानते हैं उन्हे "नीता गोस्वामी " के बारे जरुर पढ़ना और समझना चाहीये । मिसाल हैं नीता गोस्वामी क्योकि उसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की । और इसी को कहते हैं "The Indian Woman Has Arrvied "।
अगर ६० साल की आज़ादी के बाद भी ये पूछा जाए "मेरा तो सवाल है कि आप में से ऐसी कितनी महिलाएं हैं जो दावा कर सकती हैं कि खुद उनके साथ या उनकी सहेलियों, भतीजियों के साथ ऐसा कोई न कोई (छोटा ही सही, वैसे यह छोटा है क्या) वाकया नहीं हुआ जिनमें डॉक्टर, अंकल, चाचा, मामा वगैरह शामिल न रहे हों।" तो लेखक के मन की व्यथा तो उभरती ही हैं पर साथ साथ ये भी दिखता हैं की समाज मे इस प्रश्न का उत्तर कोई नही देता । जो समाज इस प्रश्न का उतर ही नही दे सकता ऐसे नपुंसक समाज से "सामाजिक क्वेस्ट " की बात करने से अच्छा हैं की "नीता गोस्वामी " की तरह अपनी लड़ाई को ख़ुद लड़ना शुरू किया जाए ।

May 28, 2008

बदलती सोच

अभी हाल में किया गया एक सर्वेंक्षण पढ़ा तो दिल खुश हो गया कि दिल्ली में आबादी का एक अच्छा खासा तबका यह चाहता है कि उनकी एक ही संतान हो और वह बेटी हो ..इस में बहुत से लोगों के विचार आमंत्रित किए गए थे जिस में से ७५% लोगों ने अपनी पहली चाहत बेटी ही बताई है इस में दिए गए तर्क में यह बताने की होड़ लगी थी कि समाज में लड़की की क्या अहमियत है और इंसान के लिए बेटी क्यों जरुरी है .
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कुछ लोगो का कहना था कि लड़का लड़की एक दूसरे के पूरक हैं जिनसे समाज बनता है और दोनों के बिना काम नही चल सकता ...अधिकतर लोगों ने भावात्मक पहलू को महत्व दिया कि आज के समाज में लड़की अपनी योग्यता से सारे पिछले मानदंडो को झुठला कर अपन विकास द्वारा यह सिद्द्ध कर के दिखा देंगी कि उनकी अपनी एक पहचान है ..कुछ लोगो का कहना था कि लड़की अपने माता पिता के प्रति ज्यादा फिक्रमंद होती है वह दूर जाने पर भी माता पिता से जुड़ी रहती है और वह एक सामजिक सामंजस्य बनाए रखने की एक अदभुत क्षमता रखती हैं ..यही वजह है की अब गैर जिम्मेदार बेटो की बजाये लोग बेटी का माता पिता बन कर ज्यादा गौरव महसूस करते हैं ...एक महिला का तर्क बहुत ही अलग था कि अगर आपका नन्हा बेटा आपकी ऊँगली पकड़ के चलना चाहे तो उसको झटके नही उसको ,थाम कर चले क्या पता फ़िर यह ज़िंदगी आपको मौका दे या न दे ..जबकि लड़किया चाहे आपसे कितनी दूर हों आपसे बंधी रहेंगी .

चलिए सदियों के बाद ही सही लड़कियों की अहमियत तो समझी जाने लगी है मातर शक्ति को सदियों पहले हमारे आदम समाज ने मान लिया था परन्तु जैसे जैसे मनुष्य विकास की और बढता गया वह अपने अतीत से दूर होता गया है दूसरी और हमारी आदिम जातियाँ अभी भी अतीत से दूर नही हुई है ..मध्य प्रदेश के बस्तर इलाके कुछ आदिवासी समाज में आज भी मातर सतामत्क व्यवस्था है और हैरानी की बात यह है कि वहाँ पुरुषों का भी विकास हो रहा है.
आज लडकियां हर जगह लड़कों से शिक्षा में आगे हैं ..इस चेतना का श्रेय निश्चित रूप से उन आत्मविश्वासी लड़कियों को जाता है जिन्होंने अपनी योग्यता के बल पर अपने आत्मविश्वास से सदियों पुरानी चली आ रही सामजिक बुराई के युद्ध को जीता है इसका कारण है शिक्षा -----शिक्षित समाज में जो लड़की के प्रति धारणा बदली है वह इसी प्रचार और प्रसार के कारण है इंदिरा गांधी से ले कर किरण बेदी ,अरुंधती राय ,मेघा पाटेकर , संतोष यादव जैसी अनेक नारियों ने शिक्षा के बल पर ही साबित कर दिया है कि उनके पास भी पुरुषों जैसा दिल और दिमाग है बस जरुरत है उन्हें एक मौका मिलने की एक अवसर की एक सही ख़ुद को साबित करने की ..और यह सिथ्ती अब सिर्फ़ शहरों में नही कस्बों और गांवों में भी देखने को मिल रही है भले की यह अभी कम है पर शुरुआत हो चुकी है पंचायतो में स्त्री की भागीदारी इसका एक उदाहरण है ..राजस्थान में ११० साल के बाद बारात की अगवानी इसी बदलती सोच का नतीजा है भारत और अन्य विकासशील देशों में महिलाओं के विकास की दरों में बहुत सुधार आया है .
.एडवांस समझे जाने वाली फ्रेंच संसद में ६ % सीट महिलाओं की है क्यूबा में यह आंकडा २३ % है ब्रिटेन अभी भी महिलाओं के मामले में ज्यादा आगे नही जा पाया है ,श्रीलंका में व्यावसायिक तकनीकी महिला की दर ४९ % है ...इस तरह अभी भी भारत में अधिक से अधिक जागरूकता लाने की जरुरत है ..फ़िर भी यह एक सुखद बदलाव है कि आज बेटी को सामाजिक अभिशाप के रूप में नही लिया जा रहा है !

यह जानकारी दिल्ली में किए गए एक सर्वेंक्षण के आधार पर है !!

May 26, 2008

आज जो पुरूष वर्ग महिला चरित्र हनन कर रहा हैं वह अपने बेटो के लिये खाई खोद रहा हैं ।

नारी पुरुष मे वैचारिक मतभेद बहुत बार होता हैं , होगा भी क्योकि दोनों को जीने के आयाम अलग अलग मिले हैं । लेकिन जब भी ये मतभेद होता हेँ तो कभी भी नारी किसी पुरुष के शरीर , वस्त्रों इत्यादी पर ऊँगली नहीं उठाती । विचारो की लड़ाई मे नारी शरीर / परिधान का इतना महत्व पुरुष समुदाय के लिये क्यो हो जाता हैं ?? बलात्कार के लिये क्यों हमेशा आतुर हैं पुरूष ? क्या बलात्कार केवल शरीर का होता हैं ? पाशविक मनोवृति हैं क्या पुरूष की आज भी ? तब तो शायद जो हमारी दादी / नानी यानी सन ६० के दशक मे ६० वर्षीया स्त्रियाँ कहती थी की बेटा पिता से भी दुरी बनाओ सही था । यानी हम आज भी जो ख़ुद दादी नानी बनने की उम्र मे हैं इस लिये खामोश रहे क्योकि हम नारी हैं , महिला हैं और आप गली मे टहलते पशु हैं जो घात लगा कर कभी भी हम को अनावरत कर सकते हैं । सो आप करते रहे ये सब क्योकि ये आप की मानसिकता हैं और हम भी आप सब के खिलाफ आवाज बुलंद करते रहेगे इसलिये नहीं की हम को आप से कोई दुश्मनी हैं बल्कि इसलिये की एक महिला होने के नाते हम आप की बेटी लिये भी समाज मे उतनी ही सुरक्षा चाहते हैं जितनी अपनी बेटी की और हम आप के बेटो के लिये भी एक ऐसा साफ सुथरा समाज चाहते हैं जहाँ उनको हमेशा कटघरे मे ना खडे होना पडे । आज जो पुरूष वर्ग महिला चरित्र हनन कर रहा हैं वह अपने बेटो के लिये खाई खोद रहा हैं । कभी सोच कर देखे आने वाले समय मे आप के बेटो को क्या क्या सुनना पड़ सकता हैं आप की इस मानसिकता की वजह से ।

May 25, 2008

क्या बच्चे सिर्फ़ माँ की जिम्मेवारी है ?????

सवाल कई है और जवाब भी कई ...? पर क्या यह सचमुच इतना आसान है ...परिवार टूटने लगे हैं बिखरने लगे हैं ..? और एक महिला घर पर रहे .क्या आपको लगता है की इस से समस्या सुलझ जायेगी ..."?महिला कभी कोई भी काम करे अपने परिवार को भूल नही पाती है ...पर जो हालत आज कल पैदा हो रहे हैं उस में उसका नौकरी करना भी उतना ही जरुरी है जितना परिवार को वक्त देना .और ना सिर्फ़ वक्त बेवक्त की मुसीबत के लिए उसके अपने लिए भी अपने पेरों पर खड़ा होना सवालंबी होना जरुरी है यही वक्त की मांग है ....पर इस में सबका सहयोग चाहिए ...बढ़ती महंगाई , बदलता समाज हमारे रहने सहने का ढंग सब इतने ऊँचे होते जा रहे हैं कि एक की कमाई से घर नहीं चलता है .. और यह सब सुख सुविधाये अपने साथ साथ बच्चो के लिए भी है ..बात महिला के घर पर रहने की या न रहने की नही है असल में बात है माता पिता दोनों को वक्त देने की अपने बच्चो को अपने बच्चो से निरन्तर बात करने की ..और उन को यह बताने की हम हर पल आपके साथ है ..आप क्या समझते हैं जिन घरों में महिलाए रहती है वहाँ बच्चे नही बिगड़ते हैं ..??आज का माहोल जिम्मेवार है इस के लिए ..अपने आस पास नज़र डालें जरा ..दिन भर चलता टीवी उस पर चलते बेसिरपैर के सीरियल अधनंगे कपड़ो के नाच ,माल संस्कृति ,और लगातार बढ़ती हिंसा .. जिन्हें आज कल बच्चे दिन रात देखते हैं इंटरनेट का बढता दुरूपयोग ...मोबाइल का बच्चे बच्चे के हाथ में होना ..क्या आप रोक पायेंगे या एक माँ घर पर रहेगी तो क्या यह सब रुक जायेगा ..नही ..यह आज के वक्त की मांग है और माता पिता यह सुविधा ख़ुद ही बच्चो को जुटा के देते हैं .ताकि उनका बच्चा किसी से ख़ुद को कम महसूस न करे और यही सब उनके दिमाग में बचपन से बैठता जाता है और तो और उनके कार्टून चेनल तक इस से इस से बच नही पाये हैं ..अब घर पर माँ है तब भी बच्चे टीवी देखेंगे और नही है तब भी देखेंगे ..इन में बढती हिंसा और हमारा इस पर लगातार पड़ता असर इन सब बातो को बढावा दे रहा है ..नेतिकता का पतन उतनी ही तेजी से हो रहा है जितनी तेजी से हम तरक्की की सीढियाँ चढ़ रहे हैं ..हर कोई अब सिर्फ़ अपने बारे में सोचता है...और जब उस राह पर मिलने वाली खुशी में कोई भी रोड अटकाता है तो बस उसको मिटाना है हटाना है अपने रास्ते से यही दिमाग में रहता है ....संस्कार माँ बाप दोनों मिल कर बच्चे को देते हैं ..शिक्षा का मध्याम ज्ञान को बढाता है और यही नए रास्ते भी सुझाता है .. पर जीवन के इस अंधाधुंध बढ़ते कदमों में जरुरत है सही दिशा की सही संस्कारों की ...और सही नेतिक मूल्यों को बताने की ...सिर्फ़ माँ की जिम्मेवारी कह कर पुरूष अपनी जिम्मेवारी से मुक्त नही हो सकता वह भी घर की हर बात के लिए हर माहोल के उतना ही जिम्मेवार है जितना घर की स्त्री ..यदि वह अपना आचरण सही नही रख पाता है तो एक औरत माँ कितना संभाल लेगी बच्चे को आखिर वह सब देखता है अपने जीवन का पहला पाठ वह घर से ही सिखाता है हर अच्छे बुरे की पहचान पहले उसको अपने माँ बाप दोनों के आचरण से होती है वही उसके जीवन के पहले मॉडल रोल होते हैं ...मैं तो यही कहूँगी कि आज के बदलते हालात का मुकाबला माता पिता दोनों को करना है और अपने बच्चो को देने हैं उचित सही संस्कार ..बबूल का पेड़ बो कर आम की आशा करना व्यर्थ है ..और नारी को सिर्फ़ घर पर बिठा कर आप इन बिगड़ते हालात को नही सुधार सकते ..यह हालात हम लोगो के ख़ुद के ही बनाए हुए हैं तो अब इनका मुकाबला भी मिल के ही करना होगा ..नही तो यूं ही अरुशी केस होते रहेंगे और इंसानियत शर्मसार होती रहेगी .

May 23, 2008

हम सब को "उस बच्ची" के लिये सच्चे मन से अपनी श्रद्धांजली अर्पित करनी चाहिए

आइये आरुशी की आत्मा की शान्ति की प्रार्थना करे । जिन परस्थितियों मे आरुशी की मृत्यु हुई हैं और जिन लोगो ने इस दुष्कर्म को किया हैं उन परस्थितियों मे शायद ही आरुशी का कोई अपना उसके लिये प्रार्थना कर रहा होगा । सो हम सब को उस बच्ची के लिये सच्चे मन से अपनी श्रद्धांजली अर्पित करनी चाहिए । बच्चे तो सबके होते हैं । इस समय हमे सिर्फ़ उस बच्ची के लिये सोचना होगा और मन से प्राथना करनी होगी की वह हम सब को माफ़ करे और जिस नयी दुनिया मे जाए उसमे उसे प्यार करने वाले लोग मिले।

नारी को अपने क्षमाशील होने की हद खुद ही तय करनी होगी .

कहते हैं क्षमा मनुष्य का आभूषण है.अब यह बात तो समस्त मानव जाति पर लागू होती है,किन्तु हमारे समाज में नारी से ही क्षमाशीलता आशा की जाती है.ज़्यादातर घरों में एक वाक्य सुनने को मिल जाएगा,माओं के मुंह से,”पापा नाराज़ हो जाएंगे".बहुत ही कभी आपने पिता के मुंह से ऐसा सुना होगा,"मां नाराज़ हो जाएगी".सबको पता है कि मां नाराज़ होगी भी तो माफ़ी जल्दी मिल जाएगी किन्तु पिता की नाराज़गी झेलना मुश्किल है.इसी प्रकार से पत्नी घर से या खुद से संबंधित कोई भी निर्णय स्वतन्त्र रूप से नहीं ले पाती, कारण पति नाराज़ होंगे जबकि ज़्यादातर पति अपने और परिवार से सम्बंधित सारे निर्णय स्वयं लेना चाहते हैं.मेरी एक सहेली बहुत संपन्न घराने की है, अपना व्यवसाय चलाती है किन्तु यदि उसे अपनी सहेलियों से मिलना है या खुद के लिये खरीदारी करनी है तो पति से स्वीकृति लेनी पडती है.
घर का कोई बच्चा गलत राह पर चल पडा तो पत्नी की जिम्मेदारी और गलती मानी जाएगी, पति यह कह कर छोड दिया जाता है कि वो तो घर से बाहर रहता है, रोज़ी-रोटी की फ़िक्र करे कि घर बार की समस्यायें देखे.नौकरी शुदा पत्नी भी अक्सर अपने बच्चों का सही तरह से लालन -पालन ना कर पाने की दोषी ठहराई जाती है.जबकि बच्चे अकेले स्त्री की नहीं, दोनों की जिम्मेदारी हैं.
यदि नारी घर से बाहर निकल कर काम करती है तो उसे दोहरा खयाल रखना पडता है, अपने मान सम्मान का.उसके चरित्र पर उंगली ना उठे, यह सोच उसे सदा परेशान करती है.किसी पुरुष सहकर्मी के साथ हंस बोल लेने पर ही उसके चरित्र की चीर-फ़ाड शुरु हो जाती है.घर आकर भी पति से घर के कामों मे हाथ बटाने की आशा, आशा ही बनी रहती है.मानती हूं जमाना बदल रहा है, आजकल के युवा अपनी पत्नी के साथ सहयोग करके भी खुश रहते हैं किन्तु यह प्रतिशत अभी बहुत ही कम है.
सदा से ही लडकी के मन में बैठा दिया जाता है,बडा दिल रखना है.हर छोटी बडी बात पर तुनकना नहीं है.माफ़ करना सीखो.जीवन में समझौता करने की आदत डालो.शादी से पहले भी विदा होते हुए घर की बुजुर्ग स्त्रियां उसे यही सीख देती हैं, ससुराल में धैर्य और समझदारी से चलना.सबके साथ ताल मेल बिठा के रहना.कई बार इसी समझदारी और धैर्य का परिचय देते देते, लडकी को अपनी जान तक देनी पडती है या शारीरिक और मानसिक यंत्रणा का शिकार होना पडता है. अभी कल परसों के अखबार में यह खबर थी कि सुन्दर,पढी लिखी शैली नाम की लडकी दहेज में बडी गाडी न लाने के कारण मार दी गई.उसके माता पिता अब पछता रहे हैं कि उन्होने शैली के बार बार शिकायत करने के बावज़ूद उसे ये ही समझाया कि अभी एड्जस्ट करके देखो, धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा.इस एड्जस्ट करने के चक्कर में उसे शादी के तीन माह के भीतर ही अपनी जान गंवानी पडी. कभी किसी लडके के माता पिता उसे शादी से पहले क्यूं नहीं ये सीख नहीं देते कि लडकी एकदम नये वातावरण में आ रही है,अपना घर और परिवार छोड कर आ रही है,उसके साथ धैर्य और समझदारी से काम लेना.शादी के बाद यदि पति खोखली इमानदारी जताते हुए पत्नी को यदि अपने पूर्व प्रेम संबंधों के बारे बता दे तो पत्नी से आशा की जाएगी क्षमाशीलता की, इस सारी बात को भूल जाने की, किन्तु यदि गलती से भी पत्नी ने अपने ऐसे संबंधों को पति के सामने उजागर कर दिया तो ज़िन्दगी भर पति उसे इस बात को लेकर कौंचता रहेगा.इसी प्रकार विवाहेतर संबंधों के उजागर हो जाने पर भी पत्नी से ही माफ़ी की आशा की जाती है.उसकी सास, अपनी मां तक उसे यही सीख देगी कि बेटा ऐसा तो होता ही रहता है,नाराज़ हो कर अपनी गृहस्थी की सुख-शान्ति मत भंग करो, अपने बच्चों का मुंह देख कर जियो, अपना फ़र्ज़ पूरा करो.अब यदि ऐसी ही गलती यदि पत्नी कर दे, तो आसमान सर पे उठा लिया जाता है.पति से तो माफ़ी की उम्मीद छोड ही देनी चाहिये, घर और समाज के लोग तक उसको खा जाएंगे,ताने मारेंगे.इन्फ़िडेलिटी अगर गुनाह है तो पति और पत्नी दोनों के लिये गुनाह है,फिर दोनो के साथ व्यवहार में यह फ़र्क क्यूं? कई बार यदि घर के बहू यदि घर के बडे सद्स्यों जैसे जेठ या ससुर के द्वारा यौन यन्त्रणा का शिकार होती है तो बदनामी के डर से उसे ही सालों साल चुप बैठना पडता है.उसकी अपनी सास उसे क्षमाशील होने का हु्क्म देती है.हमारे समाज में नारी ही नारी की दुश्मन रहेगी तो वो किस से उम्मीद रखेगी.कितनी सासें या मायें अपनी पीडित बहू-बेटी के पक्ष में खडी होंगी. नारी क्षमाशील ज़रूर बने किन्तु स्वाभिमान को ताक पर रख कर नहीं.आज की नारी यदि समझदारी से काम ले तो कोई भी उस का बेजा फ़ायदा नहीं उठा सकता, उसकी भावनाओं के साथ खिलवाड नही कर सकता. नारी को अपने क्षमाशील होने की हद खुद ही तय करनी होगी, तभी वो मुक्त आकाश में खुली सांस ले पायेगी.

May 22, 2008

नारी कब हारी है भाग २ ..अशिमा की जीत

इस साल सिविल सर्विस में महिला वर्ग में टॉप पर रहने वाली महिला दिल्ली की हैं नाम हैं उनका आशिमा डीयू के दिल्ली कॉलेज ऑफ इकनॉमिक्स की स्टूडेंट रहीं अशिमा सफलता पाने वालो में सबसे छोटी उम्र की हैं और पहले अटेम्प्ट में ही उन्होंने इसको क्लेअर करा है ..कभी उनके जन्म पर उनकी नानी रोई थी पर उनके पिता ने मिठाई बांटी थी और आज उन्होंने साबित कर दिया की पिता की लाडली यह बिटिया किसी से कम नही है और उसने वह मुकाम हासिल कर लिया जो कभी उनका सपना था उनका कहना है कि आजादी के बाद सरकार ने देश में वुमन एम्पावरमेंट की दिशा में तमाम उपाय किए हैं, अब यह बात और है कि इसमें अभी पूरी सफलता मिलना बाकी है। वह कहती हैं, 'पिछले 60 सालों में महिलाओं ने कॉरपोरेट, एजुकेशन, स्पेस, आर्मी, पुलिस सहित तमाम क्षेत्रों में सफलता के झंडे गाड़े, लेकिन व्यापक तौर पर देखा जाए तो महिलाओं को अभी मुकाम हासिल करना बाकी है। तमाम कोशिशों के बावजूद महिलाओं को उनका उचित हक नहीं मिल पाया है। जरूरत इस बात की है कि महिलाओं को हर फील्ड में पर्याप्त अवसर दिया जाए, ताकि वह समाज की मुख्य धारा में शामिल हो सकें। एजुकेशन, पॉलिटिक्स, इकॉनमिक सभी क्षेत्रों में उन्हें पूरा मौका मिलेगा, तभी महिला सशक्तिकरण का लक्ष्य हासिल किया जा सकेगा।'
अपने अनुभवों के आधार पर वह कहती हैं कि समाज को स्त्रियों के अपने नजरिए में बदलाव की जरूरत है। वह देश में ऐसा माहौल चाहती हैं, जो बालिका भूण हत्या को तुरंत रोकने में कामयाब हो।
अब जबकि आशिमा आईएएस बन गई हैं, वह अपनी प्रशासनिक जिम्मेदारी पूरी करते हुए महिलाओं के सशक्तिकरण से जुड़े प्रोग्राम्स को आगे बढ़ाना चाहती हैं। वह कहती हैं, 'मुझे लगता है कि आईएएस के के पास काफी एडमिनिस्ट्रेटिव पावर होते हैं और जब ऐसे महत्वपूर्ण पदों पर महिलाओं की संख्या बढे़गी, तो देश के लिए भी यह अच्छा होगा।'
महिलाओं के लिए संसद विधानसभाओं में 33 परसेंट रिजर्वेशन को भी वह जरूरी मानती हैं। उनका तर्क है, 'जब तक महिलाओं को मौका नहीं मिलेगा, तब तक वह अपनी क्षमताओं को दिखा नहीं पाएंगी।'
अपनी सफलता के जरिए वह तमाम महिलाओं को यह संदेश देना चाहती हैं कि समाज में लड़कियों के प्रति लोगों का नजरिया बदले, इसके लिए जरूरी है कि लड़कियां अपनी मंजिल ख़ुद चुने और हर हाल में आत्मनिर्भर हों यही समय की मांग भी है और देश भी इस से आगे बढेगा

May 21, 2008

महिला सशक्तिकरण के विरोध मे जो बोलते हैं उन्हे हर महिला एक "कॉल गर्ल " से ज्यादा नहीं लगती

महिला सशक्तिकरण के नाम लेते ही पुरूष समाज मे एक लहर दौड़ जाती हैं । ऐसा लगता हैं मानो एक संग्राम हैं महिला सशक्तिकरण पुरूष समाज के विरुद्ध । पर ऐसा क्यों लगता है पुरूष समाज को ? क्यों" महिला सशक्तिकरण की बात करने वाले पुरुषों पर हर तरह के हमले करते हैं " जैसी सोच पुरूष समुदाय से आती हैं । महिला सशक्तिकरण समाज की रुदिवादी सोच से महिला कि मुक्ति का रास्ता हैं । और समाज मे सिर्फ़ पुरूष नहीं होते , समाज केवल व्यक्ति से नहीं संस्कार और सोच से बनता हैं । समाज एक मानसिकता हैं जिस को हम सदियों से झेलते , ढ़ोते , काटते , जीते आ रहे हैं । वह परम्पराये जो न केवल पुरानी हैं अपितु बेकार थोपी हुई हैं उनसे मुक्ति हैं महिला सशक्तिकरण । महिला सशक्तिकरण का सीधा लेना देना पुरूष से नहीं हैं और ये भ्रम पलना किसी पुरूष के लिये भी सही नहीं हैं । इस भ्रम से पुरूष समाज जितनी जल्दी निकलेगा उसके लिये उतना ही अच्छा होगा क्योकि इसी भ्रम के चलते पुरूष को "अपने मालिक " होने का एहसास होता हैं जो गलत हैं । और बार बार महिला सशक्तिकरण को अपने विरुद्ध एक लड़ाई समझना ये दिखता हैं की " मालिक से बगावत , मसल दो " ।
महिला सशक्तिकरण के विरोध मे जो बोलते हैं उन्हे हर महिला एक "कॉल गर्ल " से ज्यादा नहीं लगती । मै तो कॉल गर्ल का भी सम्मान करती हूँ क्योकि वह तो अपना पेट भरने के लिये ये कृत्य करती हैं पर जो उसके पास जाते हैं वह क्या करते हैं ? और क्या हर काम काजी महिला यानी अल्फा वूमन लिव इन रिलेशनशिप मे रहती हैं ? उसी तरह "लिव इन रिलेशनशिप " कोई भी "आल्फा वुमन " अकेली नहीं रह सकती । पुरूष समाज को चाहिये ऐसी "आल्फा वुमन " के साथ ना रहे । "आल्फा वुमन " जो समाज मे अनेतिकता फेला रही हैं आप का समाज बच जायेगा । "लिव इन रिलेशनशिप " कोई आज की चीज नहीं हैं मन्नू भंडारी और राजेन्द्र यादव ३०-३५ साल से इस तरह रहे । इमरोज और अमृता प्रीतम को भी आप जानते ही होगे । भारतीये समाज मे एक बहुत बड़ी विशेषता हैं , यहाँ सब कुछ छुप के करने वालो को सही माना जाता हैं । सालो से पुरूष गन्धर्व विवाह करते रहे और पत्निया न चाहते हुए भी इसको स्वीकारती रही । किसी किसी घर मे तो बच्चे को बड़ी माँ और छोटी माँ का संबोधन करना भी सिखाया जाता रहा । पूजा पाठ घर के लिये पत्नी और घुमाने आने जाने के लिये प्रेमिका कब ऐसा नहीं हुआ ?? अगर किसी पत्नी ने कुछ कहा तो कहा गया हम पैसा कमाते हैं तुम को रहना हैं तो रहो जाना हैं तो जाओ , माँ \बाप ने समझाया तेरे लिये तो कमी नहीं करता फिर तुम मत बोलो । बदलते समय ने नारी को आर्थिक रूप से स्वतंत्र किया तो कुछ ""लिव इन रिलेशनशिप " भी बने जिनमे upper hand महिला का रहा क्योकि वहाँ पुरूष का आर्थिक स्तर महिला से कम था ।
महिला का धुम्रपान करना यानी एक और example महिला सशक्तिकरण का !!!!!!!!!!!!
"घर में यदि पुरुष इस बुरी आदत का शिकार होता है, तो स्त्री द्वारा इसकी बुराई को समझाते हुए बच्चों को इससे दूर रखा जा सकता है, किंतु जब घर की स्त्री ही इस बुरी आदत से लिप्त हो जाती है, तो बच्चों को समझाने का एकमात्र द्वार ही बंद हो जाता है।"क्या मोरल कि जिम्मेदारी सिर्फ महिला कि हैं ??"गर्भवती स्त्रियों के द्वारा तम्बाखू या सिगरेट का सेवन करने से इसका प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर पड़ना स्वाभाविक है। "रिसर्च कहती हैं गर्भ मे शिशु पर सिगरेट के धूये का असर होता हैं और बहुत से पिता धुम्रपान करते हैं ?? । "ऐसा नहीं है कि हमारे देश की ये आधुनिक युवतियाँ जो कि इस बुरी आदत का शिकार हो रही हैं, ये पढ़ी-लिखी नहीं है। शिक्षित होने के कारण इस आदत से होने वाले नुकसान को जानते हुए भी ये इसे छोड़ने में स्वयं को असमर्थ पाती हैं। केरियर के क्षेत्र में पुरुषों से प्रतिस्पर्धा की दौड़ में ये युवतियाँ सफलता के दोनों किनारे छू लेना चाहती हैं। ऑफिस में काम का दबाव और घर में गृहस्थी की जवाबदारी। दो पाटों के बीच पीसती आज की आधुनिकाएँ सिगरेट के एक कश में पल भर का सुकून महसूस करती हैं। "
स्त्रियों की केरियर सम्बन्धी महत्वकंक्षा को प्रतिस्पर्धा मानना है सब प्रोब्लेम्स कि जड़ हैं । स्त्री करे तो प्रतिस्पर्धा पुरूष करे तो केरियर का दबाव । जब तक ये सोच रहेगी , लड़किया उन सब बेडियों को तोड़ना चाहेगी जो समाज नए उन पर लगाई हैं ?? अगर सिगरेट बुरी हैं तो सामाजिक बुराई हैं बंद करवा दीजिये , दण्डित करिये लड़को को जब वो सिगरेट पी कर घर आए , तब ये मत कहे "बेटा बड़ा हो रहा हैं " । समाज पुरुषो कि व्यसन कि आदत को दंड दे कोई लड़की फिर उस व्यसन को नहीं अपनायेगी । बुराई सिगरेट , शराब मे हैं फिर चाहे महिला ले या पुरूष ।
महिला को सदियों से शोषित किया गया हैं , कभी परमपरा के नाम पर तो कभी समाज के नाम पर , तो कभी व्यवस्था के नाम पर । उनको बार बार चुप कराया जाता हैं । आज कि नारी जब हर जगह अपने काम से नाम कमा रही हैं तो पुरूष समाज मै हलचल हैं । अब उसकी काबलियत { आकडे देखे } पर उंगली नहींउठा सकते तो चरित्र हनन करना बंद कर दे क्यों कि आज कि माँ अपनी बेटी को जिन्दगी जीने कि शिक्षा दे रही हैं घुटने की नहीं ।

May 20, 2008

एक और बलात्कार

एक और बलात्कार
इस बार महिला नहीं
एक
बालिका तार-तार

बलात्कार तथा व्यभिचार की घटनाओं में प्रतिदिन इज़ाफा हो रहा है और हमारा प्रशासन मुँह ढ़ाँपकर सो रहा है। शर्म तो तब आती है,जब पुलिस कर्मी स्वयं इस घटना को अंजाम देते हैं। कौन सुनेगा पुकार जब रक्षक ही भक्षक बन जायेगा ?
इन सब घटनाओं से जहाँ एक ओर भय और आतंक का वातावरण फैलता है, वहीं बालिकाओं के हृदय में आत्म सुरक्षा के अनेक सवाल उठने लगते हैं। ऐसे में सबसे अच्छा तो यह है कि प्रत्येक माता-पिता अपनी बालिका को इसके विरूद्ध तैयार करें। मासूम बच्चियों की सुरक्षा अधिक सजगता से करें। उन्हें प्राथमिक स्तर पर ही सुरक्षा की सब जानकारी दें। उनमें आत्मविश्वास जगाएँ तथा जहाँ कोई भी कुत्सित दृष्टि से देखता या दुराचार करता पाया जाए उसे सामाजिक रूप से बहिष्कृत किया जाए।
कानून से बचने पर भी समाज से बहिष्कृत होना शर्मनाक होता है। यदि उसकी माँ, बहन या बेटी ही उसका विरोध करेगी तो अपराधी शर्मसार होगा। शायद अपराध कुछ कम हों। दोषी कोई भी हो- छोटा या बड़ा, अपना या पराया-सब लोग खुलकर उसका विरोध करें। पाप को संरक्षण देना पाप को बढ़ावा देना ही होता है।
अपने पुरूष मित्रों से अनुरोध है कि अपने आस-पास इस प्रवृत्ति को रखने वाले का प्रतिकार करें। समाज में बढ़ते अपराध को रोकना सभी की जिम्मेदारी है। अपराधी को भागने या छिपने का मौका ना दें।
यदि सब लोग सहयोग करेंगें तो समाज का विकास होगा और नारी में भय के स्थान पर आत्मविश्वास आएगा।
गूँजे जग में गुंजार यही-
गाने वाला नर अगला हो
नारी तुम केवल सबला हो ।
नारी तुम केवल सबला हो ।
इस विषय पर कितनी रुदिवादिता हैं हमे समाज मे , जानना हैं तो ये लिंक जरुर देखे

May 17, 2008

अगर नारी अत्याचार करती है तो उसे इस तरह नकारने की कोशिश क्यों करते हैं

जयपुर बम काण्ड मे एक महिला आतंकवादी का हाथ भी हो सकता हैं ऐसा माना जा रहा हैं । और कोई आश्चर्य नहीं होगा अगर ये साबित ही हो जाये । इस कांड के बाद से ब्लॉगर समाज मे एक लहर है उन ब्लोग्स की जिन पर ये लिखा है कि "क्या ये औरत हैं " क्योकि "औरत के अनेक रूप होते हैं माँ, बहन , बेटी, पत्नी, देवी ......... पर अब आतंकवादी भी हो गयी। "
इसके अलावा कुछ ब्लॉगर पुराने कुछ किस्सों मे जिनमे औरते जघन्य हत्या कांड कि दोषी पायी गयी हैं का हवाला देते हुए ये कहते पाये गए "एक पुरूष द्वारा किए गए अत्याचार पर हम सारे पुरूष वर्ग को कटहरे में खड़ा कर देते हैं। अगर नारी अत्याचार करती है तो उसे इस तरह नकारने की कोशिश क्यों करते हैं?"
सबसे पहले तो मुझे लगता हैं कि एक नारी होने के नाते मे समाज से माफ़ी कि याचना करती हूँ कि एक नारी ने ऐसा कृत्य किया । क्षमा इस लिये क्योकि हम सब का समाज के प्रति एक उतरदाईत्व हैं जिसे पूरा करने मे हम असमर्थ रहे । अगर हम पुरूष कि गलतियों के लिये उन्हे कटहरे मे खडा करते हैं तो नारी समुदाय को भी कटहरे मे खड़ा होना पडेगा ।


इस के बाद कुछ विचार है जो मन मे हैं जिनको बाँट कर मन हल्का हो जायेगा

क्रिमिनल शब्द का कोई लिंग नहीं हैं , कैदी शब्द का भी कोई लिंग नहीं हैं तो हम एक आतंकवादी को नारी या पुरूष मे क्यों विभाजित कर रहे हैं क्या ये सही हैं ? आतंकवादी केवल एक आंतकवादी , उसका कोई दीन , धर्म , ईमान या लिंग नहीं होता । ये सब मानसिक रूप से बीमार प्रजाती हैं और मै इश्वर से कामना करती हूँ कि इनसे हमे मुक्ति मिले ।

दूसरी बात हैं उन नारियों कि जिन्होंने अपने परिवार के सदस्यों को मौत के घाट उतार दिया क्या उनके इस कृत्य के लिये नारी जाती को दोषी मानना सही हैं या उन्हे कटहरे मे खडा करना सही हैं । इन स्त्रियों ने जो कृत्य किया हैं वह किसी एक समुदाय , या किसी एक जाती या किसी एक लिंग के ख़िलाफ़ नहीं किया हैं ।

स्त्रियाँ जब एक पुरूष द्वारा किए गए अत्याचार पर सारे पुरूष वर्ग को कटहरे में खड़ा करती हैं तो वह इसलिये क्योकि वह अत्याचार उस एक पुरूष ने किसी स्त्री के प्रति किया है । कभी भी किसी जघन्य अपराध जिसे किसी मुजरिम ने किया हैं उसके लिये किसी स्त्री ने किसी पुरूष को दोषी नहीं माना हैं तो फिर ये नारी पर दोषारोपण क्यों किया जा रहा हैं ।

पिछले एक हफ्ते मे कई ब्लोग्स पर नारी सशक्तिकरण पर काफी लिखा गया हैं । उसमे जो कमेंट्स आए हैं उनमे से एक कमेन्ट हैं " कि जिस नारी को मर्द घास नहीं डालते वोही ये सब बाते करती हैं "

और एक दूसरे ब्लॉग पर कामकाजी महिला के बारे मे जो कहा गया हैं वह ये हैं "मुम्बई जैसे महानगर में नौकरी करने वाली कैरियर वुमन आजकल आल्फा वुमन के नाम से पहचानी जाती है। ये आल्फा वुमन अब सभी मामलों पर आत्मसंतुश्ट हैं। उनके पास कॉलेज की डिग्री है, खुद की अपनी कार है, अच्छी नौकरी है, बढ़िया बैंक बेलैंस है, अपना फ्लैट है, जब चाहे विदेष दौर पर जा सकती है, अपनी जिंदगी के महत्वपूर्ण निर्णय वह स्वयं लेने में सक्षम है। इतना कुछ होने के बाद भी वह न तो षादी के झंझट में पड़ना चाहती है, न ही किसी से प्यार करना चाहती है, न किसी की बहू बनना चाहती है और न ही बच्चों की माँ बनना चाहती है। अब यह स्वछंद रहना चाहती हैं, इसलिए वह पार्टी में जाकर खूब षराब पीती है, स्मोकिंग करती हैं, वह जीवन अपने तरीके से जीना चाहती है। इसलिए आजकल महानगरों में इस तरह की आल्फा वुमन की संख्या लगातार बढ़ रही है। .......
...... इनके बारे एक दिलचस्प तथ्य यह है कि इन आल्फा वुमन के पास ऐसे व्यक्तियों की सूची होती है, जो इस काम को किसी पेषेवर की तरह नहीं देखते, बल्कि इसे उपभोग और उपभोक्ता की दृश्टि से देखते हैं।"
इस तरह के दोष रोपण क्यों किये जाते हैं नारियों के ऊपर और क्यों नारी सशक्तिकरण को एक पुरूष विरोधी आन्दोलन और समाज को पतित करने का माध्यम बना कर दिखाया जा रहा हैं ? क्या साबित करना चाहते हैं हम कि नारी जो पढी लिखी , नाकुरी पेशा हैं वह एक दूकान चला रही हैं ? अगर किसी के पास कोई भी ऐसा ब्लॉग हैं जिस मे किसी ब्लॉगर ने { ये भी एक नयूत्रल टर्म हैं जिसका जेंडर नहीं हैं } जो महिला हो ये लिखा हैं कि पुरूष जो नौकरी करता हैं वह शारीरक भूख मिटाने के लिये दूकान लगता हैं ।
बहुत अफ़सोस होता हैं जब पढे लिखे पुरूष वर्ग कि कलम से ये सब पढ़ना पड़ता हैं

नारी सशक्तिकरण क्या हैं इस पर बहस फिर कभी आज इतना ही , अब प्रतीक्षा हैं आप की राय की

जिन ब्लोग्स से मैने ये सब लिया हें उनके लिंक नीचे हैं



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May 16, 2008

नारी कब हारी है ...

जब से या संसार बना नारी की शक्ति से कोई अपरिचित नही रहा है ..उसने जब भी कोई काम किया पूरी लगन केसाथ किया और अपने पूरे जोश के साथ किया ...शायद तभी पुरूष समाज में धबराहट शुरू हुई होगी कि यदि यह यूंही ही चलता रहा तो हमारा तो पत्ता ही कट जायेगा ..तभी उसने कायदे कानून बनाये अपनी सुविधा के हिसाब सेअब नारी भावुक और भोली भी बहुत है ...उसके दिल दिमाग में भर दिया गया कि बाहर तुम जो चाहे काम करोपर घर कि जिम्मेदारी तो पूर्ण रूप से तुम्हारी है नारी के अन्दर यह गुण प्रकृति ने ही कूट कूट के भर दिया है कि वहएक साथ कई रिश्ते ,कई जिम्मेदारी और कई काम एक साथ संभाल सकती है ...मैं यह नही कहती कि उसको ईश्वरने सुपर पावर दे के भेजा है बलिक वह कुदरती ही ऐसी है और कई पुरूष भी इस बात को अब मानने लगे हैं ...परजो दिल दिमाग में भर दिया गया है कि उसको घर भी देखना है और कुदरती उसको अपने बनाए आशियाने से भीउतना ही लगाव होता है जितना वह अपना काम मतलब अपने प्रोफेशन से करती है और जब वह घर को नही देखपाती है या उस से जुड़ी कोई जिम्मेदारी पूरी नही कर पाती है तो एक अपराधबोध उसके अन्दर जन्म लेने लगता हैइसका एक ताजा उदाहरण अभी घटित हुआ .. मेरी छोटी बहन जो एक स्कूल में वाइस प्रिसिपल है स्कूल कीजिम्मेवारी वाली इस पोस्ट के साथ वह घर का भी सब काम ख़ुद ही संभालती है क्यूंकि उसके पति देव अक्सर टूरपर रहते हैं ... अब स्कूल वाले तो काम पूरा लेंगे पर घर पर कई बार वह ढंग से बच्चो को नही देख पाने के कारणवह अपराधबोध से घिर जाती है हालांकि उसके दोनों बच्चे पढ़ाई में और बाकी चीजो में आगे ही रहते हैं ...पर उसकोकई बार लगता है कि वह पूरा समय उनको नही दे पा रही है ...और इस अपराध बोध का उसके अन्दर कितनाअसर हुआ यह हमे कुछ दिन पहले देखने को मिला जब वह स्कूल में सीबीएसई की परीक्षा में व्यस्त थी और इधरउसके बच्चो का रिजल्ट आने के कारण उसने स्कूल से उस दिन छुट्टी ले ली पर स्कूल से अचानक बुलावा आने केकारण वह अपने बच्चो के स्कूल नही जा पायी ..और उधर स्कूल में कोई परेशानी होने के कारण उस पर इतनामानसिक दबाब पड़ा कि वह वही पर बेहोश हो कर गिर गई ..कुछ समय के लिए लिए लगा की वह गई हाथ सेहमारे ..उसकी हालत बहुत ही नाजुक हो गई और जब जब उसको होश में लाया गया तो वह कहीं अंदर बैठे अपनेअवचेतन मन से जो बोली तब जाना कि हम ऊपर से कितना ही ख़ुद को मजबूत दिखाए पर अन्दर ही अन्दर जाने कितने भाव कितनी बातें अपने अन्दर मन में दबाये रखते हैं जो वक्त आने पर यूं विस्फोट करती हैं जितनेसमय वह बेहोश रही वह उसी बेहोशी में यही बोलती रही कि मैं अपने बच्चो का ध्यान नहीं रख पाती उनको समयपर खाना नही दे पाती हूँ ....देखो आज मैं उनके स्कूल उनक रिजल्ट लेने तक नही जा पायी ...आई .सी .यू में कईदिन तक रही पर अब ईश्वर की कृपा से वह बिल्कुल ठीक है और स्कूल घर और अपने नए खोले शिक्षा और डांस केसंस्थान को भी बखूबी संभाल रही है ..घर पर सबका सहयोग है उनके साथ ..उनका साल का बेटा भी रोटी बहुतअच्छी बना लेता है ... १४ साल की बिटिया भी माँ की पूरी मदद करती है ....
एक औरत अन्दर से जानती है कि बच्चे और परिवार उसकी पहली जिम्मेदारी है और यह उसको विरासत औरपरम्पराओं में मिला हुआ है ... और फ़िर वह काम पूरे होने पर ख़ुद में ही कहीं कमी महसूस करती है जबकिअसल में शक्ति का सही रूप है वह ...वक्त अब बदल रहा है और उसकी इस शक्ति से अब कोई इनकार हो भी नही रहाहै आज हर जगह वह आगे हैं पर कहीं कहीं यह कुछ पीछे रह जाता है जैसे लड़की को आज भी घर के काम कीशिक्षा भी साथ साथ दी जाती है पर लड़कों को आज भी कुछ ऐसा नही सिखाया जाता है ॥तभी तो जब भी खानाबनाने कि बात आती है तो यह कमेंट्स हैरान करते हैं कि अपनी श्रीमती जी से कहेंगे कि बनाए ..क्यों भाई आपनेपढ़ा और आपको वह पसंद भी आया तो क्यों नही अजमाते ख़ुद रसोई में जा कर और उसको बना कर क्यों नहीअपनी श्रीमती को हैरानी में डाल देते एक बार कुछ ऐसा कर के तो देखिये इस से स्नेह और आपस में मिल जुल केकाम करने का जज्बा ही बढेगा और कुछ काम हलका भी हो जायेगा घर के काम बंट जाए तो फ़िर कहीं कोईमुश्किल नही रहेगी ..और सुपर वूमेन दोनों मोर्चे सही ढंग से संभाल लेगी ..और अच्छे से सही ढंग से साबित करदेगी ।कि वह आज की नारी है जो चाँद सितारों तक को छू के सकती है ...

रंजू
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सफलता का मापदंड अलग क्यों ?

समाज जिसे बनाने मे स्त्री और पुरूष दोनों की ही समान रूप से भागीदारी होती हैक्या किसी समाज की कल्पना बिना स्त्री या बिना पुरूष के की जा सकती है आज स्त्री हर क्षेत्र मे पुरुषों के साथ बराबरी से काम कर रही है पर तब भी अकसर देखा जाता है कि जहाँ पुरूष की सफलता का श्रेय उसकी मेहनत और काम के प्रति ज़ज्बे को दिया जाता है वहीं स्त्री की सफलता को ये कह कर कम और छोटा बना दिया जाता है कि इन्हे स्त्री होने का फायदा मिला है वरना इनमे काबलियत कहाँ ऐसे कितने ही उदाहरण देखने को मिल जायेंगे

ऐसा क्यों ?

May 15, 2008

आईये सोच बदले नये रास्ते तलाशे और बेटियों का दान ना करके उनको इंसान बनाए ।

क्यों जरुरी हैं ये दान ?? क्या पुत्री कोई वस्तु हैं की आप उसको दान करके अपने किसी पाप का प्रायश्चित करना चाहते हैं ?? आगे पढे और अपने विचार दे

May 14, 2008

जयपुर मे बम धमाको मे घायल और स्वर्गवासी भारतीयों को नमन

जयपुर मे बम धमाको मे घायल और स्वर्गवासी भारतीयों को " नारी " ब्लॉग के सदस्यों का नम । ये वक्त हैं हिम्मत ना हारने का , विश्वास ना खोने का । आप सब " भारत " परिवार का हिस्सा हैं और जब परिवार बड़ा होता हैं तो तकलीफ कितनी भी मिले सब मे बंटकर कम हो जाती हैं । देश मे आंतकवादी कुछ भी करले हमे , हमारी एकता को कभी नहीं तोड़ सकते । धीरज रखे और साथ बनाए रखे । अप्रवासी भारतीये आप को किसी को भी कहीं संदेश भेजना हो तो आप जयपुर से बाहर बसे हमलोगों से सम्पर्क कर सकते हैं । हम हर सम्भव कोशिश करेगे कि आप का संदेश आपके परिजन तक पहुँच सके ।

वंदे मातरम , जय हिंद

May 13, 2008

महिला आरक्षण

संसद में महिला आरक्षण का प्रश्न आज प्रत्येक व्यक्ति की चर्चा का विषय है। इसकी आवश्यकता इतनी बढ़ी है कि अन्तर्जाल पर भी चर्चा की जा रही है। चर्चा होना तो अच्छी बात है किन्तु उसका सार्थक ना होना उतना ही दुःख दाई है।

हमारे कुछ पुरूष मित्रों ने इसे नारी जाति पर प्रहार करने का तथा उनपर हँसने का मुद्धा बनाया है। मैं नहीं जानती कि यह कैसी मानसिकता है । महिलाओं के लिए हल्के शब्दों का प्रयोग करके अथवा अश्लील शब्दों की टिप्पणी देकर वे क्या साबित करना चाहते हैं ।

सत्य तो यह है कि महिला आरक्षण की चर्चा केवल दिखावटी है। कोई भी दल नहीं चाहता कि जिनका वे सदा से शोषण करते आए हैं, पैरों की जूती समझते आए हैं वे उनके साथ आकर खड़ी हो जाए। इसी कारण २० साल से यह विषय मात्र चर्चा में ही है। ना कोई इसका विरोध करता है और ना खुलकर समर्थन। उसको लाने का सार्थक कदम तो बहुत दूर की बात है। उनको लगता है कि नारी यदि सत्ता में आगई तो उनकी निरंकुशता कुछ कम हो जाएगी, उनकी कर्कशता एवं कठोरता पर अंकुश लग जाएगा तथा महिलाओं पर अत्याचार रोकने पड़ेंगें ।

अपने साथी मित्रों को मैं यह बताना चाहती हूँ कि यह पुरूष विरोधी अभियान कदापि नहीं है । इसलिए उटपटाँग शब्दावली का प्रयोग कर अपनी विकृत मानसिकता का परिचय ना दें। पुरूष और स्त्री अगर साथ चलेंगें तो समाज में सुन्दरता ही आएगी कुरुपता नहीं।

मुझे लगता है ३३ ही नही ५० स्थान महिलाओं को मिलने चाहिएँ। आज महिला बौद्धिक, शारीरिक, मानसिक, आत्मिक किसी भी क्षेत्र में कम नहीं फिर उसे आगे आने के अवसर क्यों ना दिए जाएँ? आपत्ति क्यों है ?

निश्चित रहिए -'नारी नर की शक्ति है उसकी शत्रु नहीं । आपस में दोषारोपण से सम्बन्धों में तनाव ही आएगा।

आज समय की माँग है कि नारी को उन्नत्ति के समान अवसर मिलें और खुशी-खुशी उसे उसके अधिकार दे दिए जाएँ।

May 12, 2008

बदलते समय की शुरुआत -- बुर्के मे लड़कियां कराटे सीखती हुई

ये खबर कल के अखबार मे छपी थी की किस तरह अहमदाबाद की मुस्लिम लड़कियों ने कराटे सीखना शुरू किया है। इसमे खास बात ये है की ये सारी लड़कियां बुरका पहनकर ही कराटे सीखती है पर उससे भी खास बात ये है कि इन लड़कियों ने हिम्मत और हौसला दिखाया है। पूरी ख़बर आप यहां पर पढ़ सकते है।

May 11, 2008

क्या हो हमारा कर्तव्य ?

हम सभी स्त्रियां समूचे नारी वर्ग की चिन्ता में घुली जा रही हैं. जिसे देखो, जहां देखो, एक ही डिस्कशन,नारी जाति का उत्थान कैसे हो? नारी उत्पीडन कैसे बन्द हो? समाज में नारी को बराबरी का हक कैसे दिलाया जाये? नारी, नारी नारी !!! बडे बडे सेमिनार, कॊन्फ़रेन्स,मीटिन्ग--एक ही विषय.कहीं नेता चीख रहे हैं,कहीं अभिनेत्रियां, समाज सेविकायें,पेज थ्री की शख्सियतें चिल्ला-चिल्ला कर नारी के समर्थन में नारे लगा रहे हैं.ऐसा नही कि इस दिशा में कोई काम नही हो रहा है या इन लोगों की कोशिशें व्यर्थ जा रही हैं.जो भी हो रहा है वो स्त्री की दशा को बदलने के लिये नाकाफ़ी है, काम की रफ़्तार धीमी है.सबसे बडी समस्या है आप और हम जै्सी स्त्रियों का उदासीन होना.हम नारी से सम्बंधित हर खबर को पढते हैं, उस पर चर्चा करते हैं और फिर अपनी अपनी गृहस्थी में रम जाते हैं. आपका सवाल जायज़ है, कि हम इसमें क्या कर सकते हैं?अपनी ही मुसीबतों से छुटकारा नहीं, किसी और की मदद कैसे करने जायें?मेरा ये मानना है कि बूंद-बूंद से घडा भरता है. यदि आप और हम जैसी शिक्षित नारियां थोडा थोडा ज्ञान बाटें, अपने आस पास की कमज़ोर वर्ग की महिलाओं को स्वावलम्बी बनने में सहायता दें तो बात बन सकती है. अपने हित से उठ कर सोचें , कुछ अपनी सुविधा-शौक-मनोरंजन में त्याग करके प्रयास करें तो बदलाव जल्दी आयेगा और ज्यादा मात्रा में आयेगा.मै सबसे मदर टेरेसा बनने को नही कहती.सिर्फ़ आपका थोडा सा समय और प्रयास चाहिये. इस क्षेत्र में जो मेरा प्रयास है वो मैं आप सब के साथ बांटना चाहती हूं. कृपया इसे आप मेरा बडबोलापन या उपदेश ना समझें. ना ही ये पोस्ट मैने तारीफ़ पाने के लिये लिखी है.सबसे पहले तो अशिक्षित काम वालियों को अलग से पैसे बचाने की सलाह देती हूं, चाहे वो एक रु रोज़ ही क्यों ना बचायें .इसके लिये मैने उनके लिये अलग अलग गुल्लक या बटुआ बना रखा है.आये गये के द्वारा दिये गये टिप के पैसे भी उसी में डलवाती हूं. किसी के पास यदि ५० रु महीना भी रेगुलर बचता है तो डाक खाने में खाता खुलवा देती हूं.इसके साथ ही मैं उनको परिवार नियोजन की महत्ता से परिचित करवाती हूं और उनके लिये नियमित रूप से गर्भ निरोधी गोलियां मंगवा कर अपने ही घर में खिलाती हूं.छोटी मोटी बिमारियॊं के लिये देशी नुस्खे बता देती हूं .इससे उनका परिश्रम से कमाया हुआ पैसा पानी में नही बहता. अपने तौर पर मै अपनी दोनों काम वालियों की बेटियों को घर पर बुला कर पढाती हूं. उनकी फ़ीस भी भर देती हूं.सरकारी स्कूल की एक महीने की फ़ीस २५-४० रु. होती है.इतने की तो हम मॊल में जाकर एक आइस्क्रीम या अमेरिकन कोर्न ही खा लेते हैं.मेरी धोबिन की बिटिया की पढाई छूट रही थी, मैने उसे समझाया, मेरे घर के कपडे तू प्रेस कर के पैसे बचा अपनी फ़ीस के.उसे इसी तरह ५ घरों का काम दिला दिया.बिना किसी के सामने हाथ फ़ैलाये आज वो १२वीं पास कर चुकी है.साथ ही साथ मैने उसे और दो पितृहीन लडकियों को एक साल की सिलाई कक्षा में डाल दिया.अब वो आर्थिक रूप से ना अपने पिता या भाई पर निर्भर है, ना शादी के बाद पति पर निर्भर रहेगी.हम परिवार की किसी शादी या उत्सव में सम्मिलित होने के लिये २-२.५ हज़ार की साडी खरीद लेते हैं, यदि सालाना इतना ही पैसा हम किसी लडकी को वोकेशनल कोर्स करवाने में लगा दें तो उसका जीवन संवर जायेगा. पढाई चाहे लडकी १०वीं या १२वीं तक करे लेकिन उसे कोई हाथ का हुनर सिखा दिया जाये तो वह आर्थिक रूप से सशक्त रहेगी.चाहे वो ब्यूटी पार्लर का काम हो, सिलाई, कढाई हो, खाना बनाना हो, कुछ भी करके पैसे कमा सकती है.इस से उसे भविष्य के निर्णय लेने में आसानी होगी.इस प्रकार से मैं कुल जमा १०-१२ बच्चों को या तो पढा रही हूं या कोई कोर्स करवा रही हूं. ये सब मैं आप को इसलिये बता रही हूं कि अपने स्तर पर आप नारी के लिये क्या कर सकते हैं.यदि हम महीने का अधिकतम १००० रु या न्यूनतम २०० रु इस काम के लिये अलग रखेंगे तो समाज का बहुत भला हो सकेगा.एक फ़िल्म देखने पर या बाहर रेस्त्रॊ में खाना खा कर हम १००० रु का पत्ता उडा देते हैं, थोडा सा त्याग करके हम अपने बच्चों में भी त्याग और सामाजिक उत्थान की भावना जगा सकेंगे.दोपहर में अपनी १ घण्टे की नींद छोड देंगे तो गरीब बच्चों को घर पर पढा सकेंगे या कुछ सिखा सकेंगे.ज़रूरत है बस अपने आप में और अपनी जीवन शैली में बस थोडा सा बदलाव लाने की.आपने ये तो सुना् ही होगा "CHARITY BEGINS AT HOME". हमें किसी स्लम या झोपडपट्टी में जाकर समाज सेवा नही करनी है, बस अपने आस पास नज़र उठा कर ज़रूरतमन्द को ढूंढना है.यदि आप में से किसी के पास ऐसे ही कोई और सुझाव हों तो कृपया यहां हम सबसे बाटें.हो सकता हमें कोई और नयी राह मिल जाये नारी उत्थान के लिये.

अपनी बेटी को मातृत्व का सुख देने के लिये एक माँ ने जो किया वह केवल एक माँ ही कर सकती हैं

मातृत्व की ऐसी मिसाल मिलाना बहुत मुश्किल हैं । २१ सितम्बर २००७ को एक ६० वर्षीय महिला ने अपनी कोख से अपनी पुत्री के जुड़वा बच्चो को जन्म दिया । सरोगेट माँ बनी इस महिला की बेटी कैंसर के कारण माँ नहीं बन सकती थी और वह बच्चा चाहती थी जिसमे उसके अपने genes हो . अपनी बेटी की इच्छा को पूरा करने के लिये एक ६० वर्ष की माँ ने अपनी जिंदगी की परवाह ना करते हुए जुड़वा बच्चो को जन्म दिया । हमारे समाज मे इन बातो को बहुत ही हये दृष्टि से देखा जाता हैं इस लिये जिस अस्पताल मे ये मेडिकल कारनामा हुआ , उस अस्पताल ने इन दोनों के नामो को पूरी तरह से गुप्त रखा ।

अपनी बेटी को मातृत्व का सुख देने के लिये एक माँ ने जो किया वह केवल एक माँ ही कर सकती हैं । अधिक जानकारी के लिये लिंक क्लिक करे ।

और इसे ही कहते हैं

The Indian Woman Has Arrived

May 10, 2008

एक महिला जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की

मिसाल हैं ३२ साल की " पूजा " जिसने अपने पति की मृत्यु के दो साल बाद एक पुत्र को जन्म दिया । कोई नैतिकता का प्रश्न ना उठाये क्योकि उसने अपने पति के वीर्य से ही इस पुत्र रतन को पाया । २००३ मे एक उपचार के तहत उसके पति राजिब के वीर्य को वीर्य बैंक मे रखा गया था । उपचार खत्म होने से पहले ही राजिब की अचानक मौत हो गयी । दो साल पूजा ने बहुत ही घुटन के साथ काटे क्योकि वह राजिब से बहुत प्यार करती थी और फिर एक दिन उसको इस वीर्य बैंक मे रखे वीर्य की याद आयी । उसने तुरंत फैसला लिया की उसको अपने पति का बच्चा चाहिये । डॉ बैद्यनाथ चक्रबर्टी की सहायता से उसने इस बच्चे को जन्म दिया । वकीलों ने भी इस बच्चे को जायज़ माना हैं । पर क्या ये सब इतना आसान रहा होगा पूजा के लिये । समाज मे कितना सुना होगा उसने फिर भी उसने अपनी घुटन से अपनी आजादी ख़ुद अर्जित की ।

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और इसे ही कहते हैं

"The Indian woman has arrived "

May 09, 2008

आईये सोच बदले नये रास्ते तलाशे और बेटियों का दान ना करके उनको इंसान बनाए ।

कन्यादान करते समय हमारे कायस्थ समाज मे माता पिता अपनी पुत्री और दामाद के पैर छूते हैं । कन्यादान के समय बेटी के हाथ पर कोई न कोई जेवर रखना जरुरी होता हैं क्योकि दान कभी खाली हाथ नहीं किया जाता । जेवर हाथ मे रख कर उसका हाथ वर के हाथ मे दिया जाता हैं । जेवर के साथ साथ वस्त्र भी रखना होता हैं ।

क्यों जरुरी हैं ये दान ?? क्या पुत्री कोई वस्तु हैं की आप उसको दान करके अपने किसी पाप का प्रायश्चित करना चाहते हैं ?? क्यों पुत्री और दामाद के पैर माता पिता छुते हैं ?? क्या आप अपने इस दुष्कर्म की माफ़ी मांग रहे हैं की आप अपने सेल्फिश इन्टरेस्ट के लिये दान कर रहे उस का जिसको दुनिया मे आप ही लाये हैं । सेल्फिश इन्टरेस्ट ... ये मैने क्या कह दिया , सही नहीं कहा क्या , की धर्म ग्रंथो मे क्योकि ये लिखा है की कन्यादान से मोक्ष मिलता हैं माता पिता अपना परलोक सुधारने के लिये पुत्री का दान करते हैं ।

कन्याभूण हत्या को अपराध मानने वाला ये समाज क्यों कन्यादान पर चुप्पी साध लेता हैं ?? क्यों कोई भी लड़की मंडप मे इसका विरोध नहीं करती और क्यों किसी भी लड़के का अहम दान लेने पर नहीं कम नहीं होता ।

कम से कम कन्याभूण हत्या के समय तो कुछ ही हफ्तो का जीवन हैं जो खत्म कर दिया जाता हैं और आप इतना हल्ला मचाते हैं पर कन्यादान जैसी परम्परा को जहाँ एक लड़की को जो कम से कम भी १८ साल की हैं एक जानवर की तरह , किसी वस्तु की तरह दान कर जाता हैं , आप निभाते जाते हैं ।

जब तक कन्या का दान होता रहेगा तब तक औरते भोग्या बनती रहेगी क्योकि दान मे आयी वस्तु का मालिक उसका जैसे चाहे भोग करे उपयोग करे या काम की ना लगने पर जला दे । क्या हमने तरक्की की हैं ?? लगता नहीं क्योकि मानसिक रूप से हम सब आज भी बेकार की परम्पराओं मे अपने को जकडे हुये हैं ।

आलेख आपने पढा , सही नहीं लगा ?? भारतीये संस्कृति के खिलाफ हैं ?? नारी को भड़काने वाला हैं ?? ऐसी बहुत सी बाते आप के मन मे आयेगी , पर अगर एक को भी ये पढ़ कर कन्यादान ना करने की प्रेरणा मिलाए तो मुझे लगेगा मेरा लिखना सार्थक हुआ । मुझे आप के कमेन्ट नहीं , आप की वाह वाही नहीं बस आप की बदली हुई सोच मिलजाये तो एक बदलाव आना शुरू होगा ।

बदलाव लेख लिख कर , पढ़ कर या वाद संवाद करके नहीं आ सकता , बदलाव सोच बदलने से आता हैं , जरुरी नहीं हैं की जो होता आया हैं वो सही ही हैं , और ये भी जरुरी नहीं हैं की सबको एक ही रास्ते पर चलना हैं

आईये सोच बदले नये रास्ते तलाशे और बेटियों का दान ना करके उनको इंसान बनाए ।

कहां है मेरा घर?

मै एक नारी हूं.बचपन से ही सुनती आयी हूं, नारी देवी के समान है.जब छुटपन में नवरात्रों की अष्टमी- नवमी के दिन कन्या के रूप में बुला कर पैर पूजे जाते थे, पैसे और उपहार दिये जाते थे तो सच में मुझे अपने लडकी होने पर बेहद गर्व होता था.लेकिन जब धीरे-धीरे बडी होने लगी तो ये अह्सास दिलाया जाने लगा कि तुम लडकी हो, तुम्हें पराये घर जाना है, ये करो, ये मत करो.देखती थी भाई को कहीं आने जाने की रोक टोक नहीं थी, बस मुझे अकेले कहीं आने जाने की इज़ाज़त नही थी.शुरु से ही वाचाल थी, इसलिये हमेशा दादी कहती थी, यहां ये बातूनीपन बन्द कर, अपने घर जाकर बातें बना के देखना, तेरे घर वाले तुझे ठीक कर देंगे.मेरा बालमन अचरज से भर जाता, ये ही तो मेरे घर वाले हैं, और कहां से आयेंगे.कभी भी कुछ अपनी मर्ज़ी से करती, तो सुनने को मिलता यहां तुम्हारी मर्ज़ी नहीं चलेगी, अपने घर जाकर जो करना हो करना.भाई से कभी कोई ऐसी बात नहीं करता था,क्यों ? स्कूल की पढाई खत्म हो गई, दादी ने पापा को समझाया, अब इसे घर गृहस्थी के काम सिखाएंगे, नहीं तो ये अपना घर कैसे चलायेगी? मुझे कभी समझ नहीं आया, ये मेरा घर क्यों नहीं है? यहां मैने जन्म लिया है, यहां मैं बडी हुई हूं, फ़िर ये मेरा घर कैसे नही? जो भाई को स्वतन्त्र्ता मिली हुई है, वो मुझे कब मिलेगी ? मैने स्थिति से समझौता कर लिया. धीरे धीरे,कॊलेज की पढाई करते हुए आंखों में रंगीन सपने तैरने लगे, अपने घर के.जब बात शादी की चली तो सब की राय ली गई, (छोटे भाई की भी), मेरे सिवा.फिर मेरी शादी हो गई.
मन में उत्साह था, अपने घर संसार की शुरुआत करने का.जिस तरह के पर्दों की बचपन से तमन्ना थी, अब वैसे ही अपने घर में लगाऊंगी, बाहर बाल्कनी में गमले खुद ही पसंद करून्गी. वहां तो दादी नींबू, गुलाब और मोगरे से आगे ही नहीं बढने देती थी.और हां, अब अपने हिसाब से ही कपडे पहनूंगी,वहां तो भाई जीन्स या स्कर्ट को हाथ भी नहीं लगाने देता था.ससुराल में कदम रखते ही सास बोली, "देखो बहू,यहां तुम्हे सब का लिहाज़ करना होगा.सबकी पसन्द के हिसाब से रहना होगा".सिर झुका कर सुन लिया.मैं खुद भी खुश रहना चाहती थी, सबको भी खुश रखना चहती थी.जब पहली बार सोकर उठने में देर हुई तो सास बोली , ये तुम्हारा घर नही है, जहां जब जी आया उठ गये,सुबह जल्दी उठने की आदत डालो. पति के साथ बाहर जाते वक्त जीन्स पहन ली तो सब की भृकुटी तन गयी.पति ने आंख तरेर कर कहा, ये सब अपने घर में पहन चुकी हो, यहां तो मेरे और परिवार की पसंद से कपडे पहनो.घर की सजावट में फ़ेरबदल करनी चाही तो सुनने को मिला, ये तुम्हारा घर नहीं जहां जब जो जी में आया हटा दिया, जो जैसा है वैसा ही रहने दो.ननद की शादी तय करते वक्त भी मेरी राय नहीं ली गई, बिन मांगे देनी चाही तो कहा गया, अपनी राय अपने घर वालों के लिये रखो, हमें निर्णय लेने की समझ है.अब मैं बैठी सोच रही हूं ,मेरा घर है कहां? है भी या नहीं? आज याद आया शादी के ३० साल बाद भी मां को दादी से यही सुनने को मिलता है जो मैं सुनती आयी हूं.मां ने अपनी ज़िन्दगी का अधिकांश हिस्सा इस घर को दे दिया, फ़िर भी ये घर उनका नही.मां के पास आज भी इस प्रश्न का उत्तर नही.क्या आप मुझे बताएंगे, कहां है मेरा घर?
नोट:
ये लेख समूची नारी जाति की स्थिति का चित्रण करता है.आप और मैं, बेशक इस दायरे में ना आते हों परन्तु हममें से अधिकांश स्त्रियां आज भी इस सवाल से जूझ रही है.ये हर पीढी की नारी का सवाल है.

May 08, 2008

लड़की जन्म से जुड़ी लोक मान्यताये ..कितनी सच है यह ....

आज हम दोष देते हैं कि लड़की का जन्म उनका अधिकारों से वंचित रहना आख़िर कहाँ से कब शुरू हुआ होगा .. ..आख़िर यह सब हमारे ही बनाए समाज से शुरू हुआ होगा न ..मैंने इसी खोज में एक लेख में पढ़ा और जाना कि जब एक बात जैसे घुट्टी में घोल के हम सबको युगों से पिलाई जा रही है ..वह इतनी जल्दी आसानी से कैसे बदलेंगी ? और इन लोक मान्यताओं के और लोक विचारों को बनाने वाले रहे हैं हमारे समाज के पुरूषवाद निर्माता वह अपनी सामंती विचारधारा को शक्ति को अपने आश्रितों पर थोपते रहे और उन्हें वह नियम मानने के लिए मजबूर करते रहे पुरूषवादी समाज ने बहुत ही चालाकी से ऐसी लोक मान्यताएं बना दी जिस से न तो महिलायें पुरुषों जैसे अधिकार के योग्य बने न ही उन में वह क्षमता विकसित हो और न ही वह इसके ख़िलाफ़ सिर उठा सके ...इन जन्मी मान्यताओं ने लड़का -लड़की भेदभाव में ऐसी ऊँची दीवार बना दी कि जिसे गिरा पाना सरल न रहे ..पर वक्त हमेशा एक सा नही रहता है बदलता है और बदल रहा है ...फ़िर भी जरा एक नज़र डालते हैं इन लोक मान्यताओं पर
एक लोक प्रचलित है की लड़की की तुलना में लड़का कुलदीपक या वंश चालक होता है उसका पालन पोषण लड़की से अधिक अच्छा किया जाता है और वह सब उन मानव अधिकारों को प्राप्त करता है जो पुरूष समाज द्वारा स्वीकृत हैं ...परिवार में लड़की को दूसरे दर्जे का व्यवहार देने में घर की दादी- नानी भी सहयोग करती है यह बात और है बाद में वह कुल दीपक पूछे भी नही पर उसको अधिकार सारे मिले हैं और जिस बेटी के साथ दूसरे दर्जे का व्यवहार किया गया वही बेटों की तुलना में ज्यादा बेहतर सिद्ध हुई हैं ..लेकिन लोक परम्पराओं की यह दीवार न तो बेटी पार कर पाती है न माता पिता एक लोक कहावत में देखे ...कहा गया है
सास घर जमाई कुत्ता .बहन के घर भाई कुत्ता
सब कुत्तो का वह सरदार बाप बसे बेटी के द्वार !!
क्या कहना चाहता है यहाँ पर पुरुषों द्वारा बनाया नियम ..यानी कि बेटी एक बार घर से चली गई तो भाई न पिता किसी को उस से मदद लेने का नैतिक अधिकार यह लोक परम्पराये नही देती ..एक और कहावत बनायी गई है ''बिटिया के धन खाए के बाप नरक में जाता है ""..पुरूष वादी नियामकों ने लोक जीवन में यह मान्यताये जान बुझ के बनायी क्यूंकि उन्हें डर था कि यदि बेटी की संवेदनशीलता को ज्यादा महत्व दिया गया तो बेटी शायद इसका ग़लत लाभ उठाये या हावी हो जाए ..उनकी सम्पति पर ..बेटी को शुरू से ही पराया धन कहा गया जहाँ वह पैदा हुई वहाँ से उसको काट दिया गया और सुसराल में ही उसका अस्तित्व है यह बात कूट कूट के पीढ़ी दर पीढ़ी भर दी गई ..वह अपने पुरूष संतानों से ही सिर्फ़ प्रेम और संवेदना हासिल कर सकता है बेटी से नहीं ...इस लोक परम्परा की परकष्ठा यह तय की गई कि यदि पिता बेटी के घर से एक गिलास पानी भी पी ले तो नरक का भागी दार बनता है इस लोकविश्वास ने समाज में ऐसा भय बना दिया कि आज भी कई पढे लिखे लोग शास्त्री -विद्वान् तक इस नियम का पालन करते हैं यदि गलती से बेटी के घर का चाय पानी पी ले तो मूल्य चुकता कर देते हैं ..आख़िर वह किस भय से इस को छोड़ नही पाते हैं ..? आखिर बेटी को उनसे अलग करने का यह लोकव्यापी
षडयन्त्र को कभी किसी ने सोचा है ?
राजस्थान में बेटी के जन्म पर कई कहावते प्रचलित हैं ...कुछ देखिये बेटी के होने पर क्या कहा जाता है वहाँ पर ..दिन अस्त हो गया .यानी बेटी क्या हुई सब और अँधेरा हो गया ...दूसरी कहावत है चोर आ गया ..यानी बेटी आ गई है अब वह दहेज़ के रूप में सारी सम्पति ले जायेगी ...क्यूंकि वह तो पराए घर की है न ....तीसरी कहावत है पत्थर पैदा कर दिया ..यानी बेटा तो पारस है वह कमा के लाएगा और बेटी क्या है? उसका तो बोझ सिर पर पढ़ गया है ...अब तेलगु में बेटी के जन्म की कहावत सुने ..बेटी के लालन पालन का अर्थ है कि पडोसियों के घर के पेड़ को पानी देना ..उत्तर प्रदेश में कहावत है कि बेटी पैदा होने पर एक बित्ता बलिशत जमीन नीचे धंस जाती है ...जरा सोचे जब स्त्री पुरूष दोनों ही प्रकति की संताने हैं तो यह बेहद भाव क्यों पर समाज में पुरूष का बोलबाला रहे इस लिए यह कहावते बना दी गई कि स्त्री का स्थान कभी न उठने पाये और आज भी उसने हम पीछा नही छुडा पा रहे हैं अपना ..विज्ञान द्वारा भी यह सिद्ध हो जाने पर की बच्चे का लिंग माँ के द्वारा नही पिता के द्वारा होता है तब भी माँ ही दोषी बनायी जाती है ..ऐसी एक एक दुखी माँ एक लोक गीत में कहती है कि तेरे जन्म की बात सुन कर सास और ननद ने घर का दिया बुझा दिया है और ऐसा लगा है की जैसे भगवान रूठ गया है यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि बेटी के जन्म को बुरा मनाने वाली लोक परम्परा में नारी सास और ननद का भी समर्थन है ....जो ऐसी लोक मान्यताओं के पोषण में सहायक बनती रहीं हैं आगे ..
यह भी एक विंड बना है कि जिस बेटी को जन्म से कोसा जाता है उसी को नवरात्री में देवी बना के पूजा जाता है जिस बेटी को बोझ समझा जाता है उसका कन्या दान कर के पुण्य लेने की परम्परा है कैसी विचित्र परम्परा है न यह की लोग अपनी संतान का दान कर देते हैं क्यूंकि वह स्त्री है और उसको दान में देने से उसको मुक्ति मिलेगी ..फ़िर उसको ऐसे अलग कर दिया जाता है जैसे दूध में से मक्खी कितनी कठरोता से ..बेटी को अलग कर दिया है हमारी ही बनायी इन लोक परम्पराओं ने और इन लोक विश्वासों ने ...बेटी के विवाह के बाद एक लोक विश्वास है की गंगा नहाने जाना चाहिए यानी की एक बहुत बड़े काम से मुक्ति मिली ..अब क्या कहे इन लोक मान्यताओं को जड़ जमा के अभी भी मानव के दिलो दिमाग में छाई हुई हैं ..और कितनी षडयन्त्र भरी हैं यह बेटी लोक मान्यताएं ?
पर मैंने जैसा ऊपर लिखा है कि वक्त बदल रहा है और बदलेगा .इसके बारे में एक बहुत ही रोचक सर्वेंषण पढने को मिला है वह अगली बार की पोस्ट में आपके सामने ले के आऊँगी..
यह जानकारी हमारी लोक परम्पराएं लेख पर आधारित है

May 07, 2008

कितने बौने,गोलमहल में? सरकारें बीमार !!


भारतीय स्त्री की भिन्न - भिन्न छवियाँ समय समय पर कई प्रेरणाप्रद भूमिकाएँ सक्रिय रूप से निभाती आई हैं. ये भूमिकाएँ कभी उसे तेजस्वी, कभी गौरवशील, कभी सबला, कभी सामाजिक नेत्री, कभी राजनीति के दाँव- पेंच में पटखनी देने वाली या पारिवारिक दायित्वों में प्रखर प्रतिभा को समुन्नत रखे हुए, भी मिल सकती हैं. समस्त दुरभिसंधियों में धुरी की भाँति अटल व स्थिर भी.अभी अभी की ही तो बात है कि फिर फिर भारत के तथाकथित राजनीतिज्ञों को संसद की सीमा में पाँव रखती स्त्री से भयाक्रांत होने का सच डरपाने लगा है.

इन सब के बीच एक भारतीय स्त्री वह भी है जो संसार की सबसे छोटी स्त्री के रूप में गिनी जाती है. कुल जमा १ फ़ुट ११ सेंटी. (५८ से.मी. ) ऊँचाई की ज्योति आम्गे संसार में सबसे छोटी महिला के रूप में गिनी जाती है. ज्योति की आयु १४ वर्ष तथा भार कुल ११ पौंड (लगभग ५ किलो ) है; जो किसी भी सामान्य २ वर्ष के बच्चे से भी कम है .डॉ. के अनुसार ज्योति एक प्रकार की बौनेपन की बीमारी से ग्रस्त है, जिसे मेडिकल की भाषा में achondroplasia कहा जाता है .

निजी जीवन में उसके लिए बर्तन तक सामान्य से छोटे उपयोग में लाए जाते हैं क्योंकि वह बहुधा उपलब्ध व प्रयोग होने वाले बर्तनों को सम्हालने तक की क्षमता नहीं रखती है . दैनिक जीवन में उपयोग होने वाली अन्य वस्तुओं की भी यही स्थिति है, इनमें उसके वस्त्र, गहने व अन्य आवश्यकताओं का सामान सम्मिलित है. उसका बिस्तर तक एक खिलौने या पालने जैसा प्रतीत होता है.

किंतु इन सभी दैहिक दुर्बलताओं के बावजूद उसका मनोबल किसी भी सामान्य बच्ची से ज़रा भी कम नहीं है. वह सामान्य बच्चों के लिए चल रहे एक विद्यालय में सामान्य छात्र की ही भाँति जाती व शालागत गतिविधियों में भाग लेती है .सिवाय इसके कि नागपुर स्थित उसके विद्यालय में उसके लिए एक नन्हीं- सी व्यवस्था कुर्सी मेज की अलग से की गई है । उसके सहपाठी उसके मनोबल व अन्य सभी गतिविधियों में बराबर की होने के कारण उसे अपने से इतर की भाँति नहीं अपितु सहजता से स्वीकारते व व्यवहार करते हैं जैसा कि किसी भी दूसरे सहपाठी के साथ बरता जाता है या बरता जाना चाहिए और क्यों न हो जबकि ज्योति स्वयं अपनी हमउम्र लड़कियों की तरह सोचती, करती - कहती व अनुभव करती है। किसी भी दूसरे बच्चे की तरह उसे भी भाँति - भाँति के नए परिधान व नई - नई डीवीडी का शौक है.

ज्योति के अनुसार - "अपना छोटा होना मुझे गौरवान्वित करता है, तो क्यों न मुझे इस से प्यार हो? इसके कारण जब लोग मुझे ठिठक कर देखते हैं तो मुझे अपनी ओर उनका यह ध्यान बहुत अच्छा लगता है. न तो मुझे इसे लेकर कोई शर्मिन्दगी उपजती है व न ही मुझे कोई आशंका या भय इस से लगता है ."
" मैं भी इन सभी समाज के दूसरे सामान्य लोगों जैसी ही हूँ, जो उन्हीं की भाँति खाती- पीती है, स्वप्न देखती व कल्पनाएँ करती है और अपने भीतर किसी भी तरह का अन्तर या अभाव अनुभव नहीं करती".

ज्योति को उस के नगर में किसी 'सेलेब्रिटी' - सी के रूप में देखा माना जाता है . लोगों में सामान्यत: उस से मिलने का चाव व उत्सुकता दिखाई देती है व कई तो उसे देवी तक मानते हैं.

आगामी दिनों में उसका अपने चहेते भारतीय पॉप स्टार मीका सिंह के साथ एक एल्बम तक संभाव्य है.

ज्योति की माँ रंजना के अनुसार "ज्योति जन्म के समय बिल्कुल सामान्य व अन्य बच्चों जैसी थी. उसके ५ वर्ष की होने पर ही हमें उसके जीवन की इस चुनौती के बारे में पता चला. हम भी दूसरे माता-पिता भाँति घबराए डॉक्टरों के चक्कर लगाते रहे किंतु अंत में हमें यह सुनिश्चित बता दिया गया कि वह जीवन- भर यों ही रहने वाली है और उसका कद इस से आगे कभी नहीं जाएगा। यह सच है कि वह देखने में भले दूसरों की तुलना में बहुत असामान्य लगती हो किंतु जीवन के दूसरे व्यवहारों में वह बहुत भोली, प्यारी व सरल हृदय की है."

ज्योति की इच्छा है कि वह बड़ी होकर किसी अन्य आम लडकी की तरह नहीं बल्कि विशिष्ट ख्याति प्राप्त अभिनेत्री की तरह नाम कमाए। उसका कहना है -" मैं भारत के मुम्बई जैसे बड़े नगर में काम करना, नाम कमाना व फिर लंदन व अमेरिका भी जाना चाहती हूँ " , "मुझे तो अपना छोटा होना ही प्रिय है क्योंकि यही मेरे लिए समाज के आकर्षण का कारक है ।"
उसके ५२ वर्षीय पिता का तो कहना है कि " मैं एक दिन के लिए भी उसे अपने से दूर नहीं कर सकता, मुझे वह अत्यधिक प्रिय है", वह मेरे गर्व का कारण है. जाने कितने गुरु- महात्मा आते हैं उसे देखने व आशीर्वाद दे कर जाते हैं, यह क्या उसके बिना सम्भव था?"
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ज्योति के इस मनोबल के समक्ष बड़े - बड़े सामान्य कद - काठी के लोगों का हौसला कभी कभी कितना बौना प्रतीत होता है न ? अभी हमारे गोलमहल में बैठे प्रभुता - सम्पन्नों के हौसले
ऐसी ही मजबूत स्त्री की छवि की कल्पना तक से कैसे पस्त हुए हैं , यह देश - विदेश में भला किस से छिपा है। हो सकता है आप के आसपास भी किसी ज्योति की किरण को दबा कर अंधेरों में बंद करने की साजिशें पनप रही हों, तो चूकिए मत; उन्हें समाज का उजियारा बनने में सहयोग करें, खिड़की - पट खोल कर उसकी आभा को वातावरण में उमगने दें. आने वाली पीढियाँ आप की कृतज्ञ होंगी. आमीन...

--- कविता वाचक्नवी

May 06, 2008

किसके खिलाफ़ आवाज उठाऊँ...

जवाब चाहिये.....
कौन है जिसके खिलाफ़ हम आवाज़ उठायें...
खुद अपने खिलाफ़ कि हम आँख बंद नही कर पाते?
-या इस समाज के खिलाफ़?
-या उस औरत के खिलाफ़ जो मजबूर हो जाती है और हमें भी कर देती है रोने को मजबूर?
-या आज की हमारी न्याय-व्यवस्था के खिलाफ़ जहाँ मुजरिम को नाबालिग या पागल का सर्टिफ़िकेट मिलते ही बाइज्जत बरी कर दिया जाता है ?
-या हमारी पुलिस जो अक्सर पैसा खाकर छोड़ देती है असली गुनाह्गारों को?

आज एक और किस्सा मै लेकर आई हूँ...यह बात कुछ साल पहले की है...आज मुजरिम तिहाड़ जेल से छूट कर अपने घर आ गये है,बेटे की दूसरी शादी भी हो गई,कारोबार पहले वाला तो न रहा मगर चल रहा है...
राजस्थान पिलानी मेरे मोहल्ले में ही एक प्रतिष्टित परिवार रहा करता था...सब सम्मान से उन्हे गुप्ता जी कहा करते थे...कई नौकर और कपड़े की दुकान....चारों तरफ़ उनके पैसे का डंका बजता था...दो बेटे और दो बेटी का परिवार एक सुखी परिवार....एक बेटा अपंग था परंतु पैसे के बल पर उसकी शादी हो चुकी थी...बहने भी ब्याही गई...एक ही बेटा एसा था जो सुन्दर और स्वस्थ था...उसकी शादी भी पास ही के सूरजगड़ क्षेत्र में कर दी गई...बहू सुन्दर सुशील....कुछ समय बीता...घर में बहू के चीखने-चिल्लाने की आवाजें आने लगी...मोहल्ले वालो को पता चला कि बहू को पीटा जाता है...मगर सब गुप्ता जी के पैसे को देख कर कुछ न बोल पाये...ये समाज भी अजब है...यह नही समझता की जब घर की आवाज़ बाहर सुनाई दे तो वह घर की बात नही रहा करती...और पैसे से बढ़कर तो नही है एक इंसान की जिंदगी...
रोज-रोज की मारा-मारी से तंग आकर बहू ने पडोसी के हाथ अपने माता-पिता को पत्र दिया कि मुझे रोज मारा जाता है यह कह कर की घर सही नही है...हम अपने बेटे की दूसरी शादी करेंगे...हो सकता है मै कल का दिन भी न देख पाऊँ आपको जैसे ही यह खत मिले आप आकर अपनी बेटी को ले जाओ...
बेटी का पत्र पाकर उसके परिवार में हल्ला मच गया...तुरंत गाड़ी निकाल सभी भाई और पास-पडोसी लाठीयां ले कर पिलानी के लिये निकल पड़े...
और इधर दिल दहला देने वाला कांड हुआ...बहू के मुँह में कपड़ा ठूसकर मारा गया...वो रोती रही ...मगर नर-पिशाचो कि तरह सास-ससुर मारते रहे...उसकी एक न सुनी...कपड़ा पीटने वाले मोगर से उसे तब-तक पीटा गया जब तक की वो बेसुध न हो गई... सारे कुकृत्य को अन्जाम देकर गाड़ी में डालकर बहू को अस्पताल ले जाने की तैयारी हुई...मगर रास्ते में ही बहू के घर वालो ने उन्हे घेर लिया...जब नब्ज पकड़ कर देखा तो उनकी बेटी मर चुकी थी...तुरंत पुलिस में रिपोर्ट हुई जहाँ ससुराल वालों ने बताया की उसे पैर फ़िसल कर चोट लग गई है...लेकिन परिवार के लोगो ने बताया कि हमारी बेटी की चिट्ठी आई थी कि कल उसे मारने की साजिश की जा रही है...वो शायद न बचे...उन्होने चिट्ठी हवलदार को दिखाई...तुरंत पोस्टमार्टम हुआ...जिसकी रिपोर्ट ने दिल दहला दिया...रिपोर्ट में साफ़ लिखा था कि बहू को बेदर्दी से मारा गरा था उसके शरीर पर वहशियाना हमला किया गया था...बहू को दो महिने का गर्भ था जिसे उन्होने किसी राक्षस की तरह उसके गुप्तांग पर प्रहार कर मार डाला...पोस्ट-मार्टम की रिपोर्ट सुन भाई-माँ पिता सकते में आ गये...और उन्होने गुप्ता और गुप्ता कि पत्नी को सरे बाजार पीट डाला...गुप्ता की पत्नी की साड़ी फ़ाड़ डाली गई,एसा ही हाल गुप्ता और उसके बेटे का हुआ...मोहल्ला दहल गया इस करतूत पर कि बेटी जिस घर को अपना घर समझती है...माँ-बाप अनजान घर में अपनी बेटी ब्याह देते है क्या सोच कर???
गुप्ता परिवार को जेल हुई...तिहाड़ जेल मगर छूट गये...आज बेटे की दूसरी शादी भी कर डाली...इसी समाज में रह रहे है...वही कपडे़ की दुकान मगर फ़िके हो गये पकवान...
आज समाज में कोई बोलबाला नही उनका...फ़िर भी क्या आपको नही लगता कि सजा बहुत कम हुई है...क्या जान लेने कि इतनी छोटी सजा होगी...और वो भी दो-दो जाने...नृशंस हत्या...!!!
जवाब दें...मेरे सवाल को इन्तजार है आपके जवाब का...वरना बेटीयाँ ब्याहते वक्त माँ-बाप शक करेंगे कि यह उसकी अंतिम विदाई तो नही....

सुनीता शानू

May 05, 2008

जिंदगी इम्तिहान लेती है ....

शादी जिसे एक पावन बन्धन माना जाता है पर कई बार यही पावन बन्धन अपना इतना घिनौना रूप दिखाता है कि इंसान ये सोचने को मजबूर हो जाता है कि शादी एक पवित्र बन्धन है या कुछ और। आज की घटना भी कोई तीस साल पहले की ही है।
हम लोगों के पड़ोस मे एक परिवार रहता था क्या रहता है।पिता बहुत बड़े एडवोकेट , और इस परिवार मे ४ लड़कियां है।सभी लड़कियां सुंदर ,पढी-लिखी और तेज मतलब सर्व गुण संपन्न ।जब बड़ी बेटी एम.ए. इंग्लिश के प्रथम वर्ष मे थी तभी से इस के माता-पिता ने शादी के लिए लड़के देखना शुरू कर दिया।क्यूंकि एम.ए.पास करते करते वो बेटी की शादी कर देना चाहते थे। माता-पिता की इच्छा थी की लड़की की शादी आई.ए.एस. से हो और उनकी ये इच्छा भी पूरी हुई।और लड़की की शादी बिहार के रहने वाले एक आई.ए.एस लड़के के साथ तय हो गई।(खूब दान-दहेज़ भी दिया गया था। और कार भी दी गई थी।) और शादी की तैयारियां जोर-शोर से शुरू हो गई। और आख़िर शादी का दिन भी आ गया । खैर शादी संपन्न हो गई और बिदाई के समय जब लड़की चलने लगी तब उसकी ननदें उसका खूब ख़्याल रख रही थी जैसे लहंगा जो दुल्हन के पैर मे बार-बार फंस रहा था उसे वो पीछे से पकड़ कर झुक कर चल रही थी।लड़की की बिदाई के बाद सभी खुश थे कि उसे बड़ा ही अच्छा घर-परिवार मिला है।
अभी २ महीने ही बीते होंगे कि एक दिन पता चला कि उनकी बेटी को ससुराल वाले तंग कर रहे है।ये सुनकर किसी को यकीन नही हुआ था क्यूंकि वो लड़की उस समय के हिसाब से काफ़ी तेज थी यानी की वो जुल्म सहने वालों मे से नही थी।पर शायद हालात इंसान को मजबूर कर देते है। और जब उनकी बेटी घर आई तो कोई उसे पहचान नही पाया क्यूंकि जो लड़की अभी २ महीने पहले तक इतनी खूबसूरत थी उसका ये क्या हाल हो गया था।उसका मुंह कुछ-कुछ जला सा था और तब पता चला कि एक दिन उसकी ननद ने उसके ऊपर गरम पानी फेक दिया था (वही ननद जो शादी मे उसका ख़याल रख रही थी)। और तब उसने अपने ऊपर होने वाले जुल्म बताये जिसे सुनकर दिल दहल गया था ।और शादी के एक साल के अंदर ही उसका तलाक हो गया। पर शायद इस लड़की की मुसीबतों का अंत नही हुआ था।
लड़की ने अपनी जिंदगी को फ़िर से संभाला और उसने law की पढ़ाई की।उस समय law तीन साल का होता था । उसकी पढ़ाई ख़त्म होते-होते माता-पिता को एक बार फ़िर अपनी बेटी का घर बसाने की चिंता होने लगी क्यूंकि उनकी बाकी ३ बेटियाँ भी बड़ी हो रही थी। और संयोग से एक बार फ़िर उसकी शादी एक आई.ए.एस से तय हुई और इस बार लड़का कोई अन्जाना नही था बल्कि उनके एक बहुत ही अच्छे दोस्त का बेटा था और इस बार लड़के वालों ने ही लड़की मांगी थी।(वैसे इस लड़के की भी एक शादी हो चुकी थी और तलाक भी हो चुका था ) लड़की के माता-पिता को कोई ऐतराज नही था क्यूंकि लड़काऔर लड़की दोनों एक-दूसरे को जानते थे और ये भी संतोष था कि इस बार बेटी किसी दूसरे शहर ना जाकर उन्ही के शहर (local) मे रहेगी। एक बार फ़िर उस लड़की की शादी धूम-धाम से हुई और लड़की अपनी ससुराल चली गई । माँ-बाप को खुशी थी कि उनकी बेटी का घर बस गया है। पर अचानक एक दिन वो लड़की वापिस अपने मायके आ गई और उसके साथ फ़िर वही सब दोहराया गया था । और एक बार फ़िर उस लड़की का तलाक हो गया।
जब लड़की की दूसरी शादी टूटी थी तब लोगों ने उस लड़की मे ही दोष निकलना शुरू कर दिया था। कुछ लोगों ने तो ये तक कह दिया की हर बार उसके साथ ही ऐसा कैसे हो सकता है। जरुर लड़की का दिमाग ख़राब है। जितने लोग उतनी बातें। कोई उसके ससुराल वालों को दोष देता तो कोई लड़की को।
समाज मे दो-दो बार तलाक शुदा होने का ठप्पा इस लड़की पर लग गया था। लोग मुंह पर तो नही पर पीठ पीछे हजारों बातें करते थे। इस लड़की ने और इसके परिवार ने उस दरमियाँ बहुत कुछ झेला था। इस लड़की ने जिसने सिर्फ़ अपने माता-पिता और बहनों के लिए ही दूसरी शादी की थी उसने इस दूसरी शादी के टूटने के बाद अपने आपको एक बार फ़िर से संभाला । इस बार उसने वकालत शुरू की और आज सुप्रीम कोर्ट मे वो प्रैक्टिस कर रही है।और उसकी अच्छी खासी प्रैक्टिस है।उसकी तीनो छोटी बहनों की शादियाँ हो गई है।

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