दिल्ली विश्वविद्यालय के सेंट स्टीफेंस कॉलेज के प्रिंसिपल चाहते हैं की
लडको के लिये कम से कम ४० % कोटा एडमिशन में रखा जाये !!!!!! कारण वहाँ अब
६५ % से ऊपर लडकियां एडमिशन ले रही हैं . लड़कियों के नंबर १२ कक्षा में
लडको के मुकाबले बहुत बेहतर हैं . प्रिंसिपल को लगता हैं की अब समय आगया
हैं की लडको के अधिकार को कोटा से दिया जाए . अभी ये प्रस्ताव कॉलेज ने
खारिज कर दिया हैं और कहा हैं जैसे पहले क़ोई कोटा नहीं था और विद्यार्थी
को अंक प्रतिशत से दाखिला मिलता था वैसे ही अब होगा . जो बेहतर होगा वो आगे
जाएगा .
sixty-five per cent of students in the city’s prestigious St Stephen’s
College are women. Hence, to “fix this skewed sex ratio”, a proposal has
been moved to reserve 40% of seats for men.Principal Valson Thampu sprung this surprise on his faculty at a meeting on Friday. The
decision, he said, had been taken by the supreme council. The faculty immediately shot it down. “The principal called a meeting in the morning to discuss the proposal, which was unanimously rejected. The supreme council does not have the power to make academic decisions,” said faculty member Karen Gabriel.
But her colleagues said the proposal had been shot down only for this year and “it will be back on the table next year”.
“This is a retrograde step. This is a space where women are flourishing and we should encourage it, not restrain it,” said Nandita Narain, another staff member.
Thampu couldn’t be contacted despite repeated attempts.
The supreme council is responsible for maintaining the religious and moral character of the institution as a Christian college. Headed by the bishop of the Church of North India in Delhi, Church members, the diocesan board of education and the principal, it has no jurisdiction over administrative or academic matters.
Teachers said another reason for the proposal was a decision taken way back in 1975 that said 75% of students in the college should be men.
समय अब तेजी से बदलेगा , और लडकियां शिक्षा का महत्व समझ कर इसको खुद बदलेगी . लोग कहते हैं की लड़कियों के पास विकल्प कम होते हैं , शादी ब्याह ससुराल , बच्चे और पति में उनकी जिंदगी की धुरी घुमती रहती हैं , मैने हमेशा कहा हैं की लड़कियों को अपना कम्फोर्ट ज़ोन छोड़ना होगा , उनको संरक्षण को त्यागना होगा और अपने लिये सही विकल्प का चुनाव करना होगा . कब तक हम अबला का टैग लेकर आंसू बहाते रहेगे और चाहते रहेगे की क़ोई हमारे लिये रास्ते खोलता रहे . निरंतर लडकिया कितना प्रतारित की जाती हैं ससुराल में उनका कितना शोषण होता हैं पर लेख , कविता और कहानी लिख कर खुद भी रोना और समाज में प्रदुषण फेलाना अब नारी को बंद कर देना चाहिये क्युकी आज से सालो पहले जब विकल्प कम थे तब केवल साहित्य ही जरिया था लड़कियों में बदलाव लाने का पर अब और भी विकल्प हैं और भी कहानियाँ हैं जहां महिला ने इतना कुछ किया हैं की उस से प्रेरणा ली जासकती हैं और आगे बढ़ा जा सकता हैं
एक ऐसी ही महिला हैं रश्मि सिन्हा जिन्होने सॉलिड शेयर नामक कम्पनी की शुरुवात पांच साल पहले की थी और कल उन्होने उस कम्पनी को ६४० करोड़ रूपए में बेच दिया . रश्मि सिन्हा जैसी महिला के बारे में पढ़ कर पता चलता हैं की शिक्षा और आत्म बल से दिशाए बदली जा सकती हैं . केवल रोने कर ये कह देने से की लडकिया असुरक्षित हैं कुछ नहीं होता .
कल वैशाली के एक माल के बेसमेंट में रेप होने की खबर भी थी , मेरी भांजी जो १८ साल की हैं बोली" मौसी लडकियां बड़ी चालु हो गयी हैं , फंसा देती हैं अपने ही दोस्तों को अगर वो उनकी बात ना माने . मेरी दोस्त की दोस्त ने अपने एक बॉय फ्रेंड को ऐसी धमकी दी थी ."
मेरा आग्रह हैं की जिनके बेटियाँ हैं वो अपनी बेटियों से अवश्य बात करके उनका सही मार्ग दर्शन करते रहे . लड़कियों का सदियों से शोषण हुआ मानसिक भी और शारीरिक भी इस लिये अब वो नैतिकता का उस पाठ को जो सदियों से उनको पढ़ाया गया हैं . "बिचारी " का टैग अब आज की लड़की को पसंद नहीं हैं
कल वैशाली के एक माल के बेसमेंट में रेप होने की खबर भी थी , मेरी भांजी जो १८ साल की हैं बोली" मौसी लडकियां बड़ी चालु हो गयी हैं , फंसा देती हैं अपने ही दोस्तों को अगर वो उनकी बात ना माने . मेरी दोस्त की दोस्त ने अपने एक बॉय फ्रेंड को ऐसी धमकी दी थी ."
मेरा आग्रह हैं की जिनके बेटियाँ हैं वो अपनी बेटियों से अवश्य बात करके उनका सही मार्ग दर्शन करते रहे . लड़कियों का सदियों से शोषण हुआ मानसिक भी और शारीरिक भी इस लिये अब वो नैतिकता का उस पाठ को जो सदियों से उनको पढ़ाया गया हैं . "बिचारी " का टैग अब आज की लड़की को पसंद नहीं हैं
लडको के अभिभावकों को लडको को समझना होगा की लड़की को महज शरीर समझना बंद कर
दे और आपसी मत भेद किसी लड़की का यौन शोषण और बलात्कार कर के कभी ना करे
क्युकी आज की लड़की समझ चुकी हैं की ये होता हैं और कानून में इसके लिये सजा
का प्रावधान हैं . इस लिये आज की लड़की अपनी बात मनवाने के लिये कानून से
मिली सुविधा का दुरपयोग भी कर सकती हैं . अगर लडके/ पुरुष / समाज अपनी मानसिकता नहीं बदलेगे तो आगे आने वाले समय में उनकी यही मानसिकता और
लड़कियों की सबलता और कानून से मिली सुविधा , खुद पुरुष समाज के लिये खतरा
बन जाएगी
चलते चलते इस बार की आ ई अस टोपर लड़की हैं स्नेह अगरवाल यहाँ आप उस से मिल सकते हैं
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काश की दहेज के मामले में भी ऐसा हो...
ReplyDeleteसचमुच लडकियों ने अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए सभी विकल्पों पर विचार करना और उन्हें अपनाना शुरु कर दिया हैं.इसमें उन्हें सफलता भी मिल रही हैं.
ReplyDeleteपोस्ट में एक बात से मैं बिल्कुल असहमत हूँ कि पहले महिलाओं पास प्रेरणा लेने के लिए कहानियाँ नहीं थी.ये सच नहीं हैं.इतिहास सफल और जुझारू महिलाओं से भरा पडा हैं,महिलाएँ शुरु से हिम्मत करती रही हैं बस आज प्राचार ज्यादा हो रहा हैं और थोडे प्रतिमान बदल गये हैं.आप अपनी इस बात पर दुबारा विचार करें.
@ कब तक हम अबला का टैग लेकर आंसू बहाते रहेगे और चाहते रहेगे की क़ोई हमारे लिये रास्ते खोलता रहे .
ReplyDeletecorrect - aansoo bahaane se kuchh nahi hoga - sirf diikhave bhar kee kavitayein likhne se kuchh nahi hoga. we have to do our part not just act that we are doing something....
Who made him principal ? What a stupid idea!
ReplyDeleteagree - he should not be the principal with that kind of thought process
Deleteसौदी अरब में भी ६० प्रतिशत से अधिक उच्च शिक्षा की छात्र महिलाएं ही हैं.
ReplyDeleteऔर बंगलौर के कई कॉलेज में लडको के लिए कट ऑफ लड़कियों से कम हैं, क्योंकि लड़कियां हर साल ज्यादा अंक ला रही हैं, इससे बहुत सी कम आय वाले वर्गों की छात्राओं को शायद दाखिला न मिल पता हो, चाहे उन्होंने घर का काम करते करते, सड़क पर यौन शोषण झेलते झेलते लड़कों से अधिक अंक पाए हों.
is that true ? cutoff difference ?
Deleteकब तक कर सकेगे ? २ साल से टॉप पर आईएस मे लडकियां हैं . सिस्टम बदल देगे धीरे धीरे वो जैसे जी टीवी पर पतंग उडाती लडकिया आती हैं लिंक खोजती हूँ
Deleteप्रधानाचार्य के अन्दर बढती असुरक्षा देखकर ये एहसास हुआ की वाकई स्त्री, विजय पथ पर अग्रसर है। बधाई समस्त स्त्रियों को !
ReplyDelete.
ReplyDelete.
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रचना जी,
मेरे विचार में तो प्रधानाचार्य वाल्सन थंपू का यह प्रस्ताव सही है और उन सभी को, जो संसद के भीतर महिलाओं के लिये ३३ प्रतिशत व ग्राम पंचायतों में ५० प्रतिशत आरक्षण के समर्थक हैं, इसका भी समर्थन करना चाहिये... रही बात इमतिहानों में टॉप करने की, तो हमारी शिक्षा पद्धति व अधिकतर इम्तिहान भी Rote Learning की तरफ Biased हैं और लड़कियाँ इसमें लड़कों से बेहतर होती हैं... वैसे हमारे IIM's व IIT's में लड़कियों का प्रतिशत कितना है... और कब कोई महिला विश्व ओपन शतरंज चैंपियन बनेगी... :)
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मुझे याद पड़ता है कि आपके ब्लॉग पर महिला आरक्षण बिल के ठण्डे बसते में जाने पर चिंता व्यक्त करता हुआ एक लेख पढ़ा था .... :)
Deleteवैसे मैं इस बारे में बहुत कुछ लिख सकती हूँ, किन्तु आप अक्सर टिपण्णी लिख कर उसका उत्तर देखने नहीं आते, और वैसे भी मुझ पर टिप्पणियों में बहस करने के काफी इलज़ाम लग रहे हैं | आपके लिए तो नहीं, किन्तु दूसरे लोगों के लिए अवश्य लिखूंगी आपकी इस टिपण्णी पर अपना प्रत्युतर :)
१. आरक्षण तब ही काम आता है जब जिसके लिए आरक्षण किया जा रहा हो वह सामाजिक वजहों से, मौके न दिए जाने से पिछड़ रहा हो, न कि अपनी खुद की मेहनत की कमी के कारण पीछे हो - पढ़ाई और नंबरों के बारे में ऐसा नहीं है , जबकि लोकसभा अदि में जाने के लिए ऐसा है |
२. आरक्षण सिर्फ तब तक ही वाजिब है - जब तक पिछड़े हुए वर्ग को आगे आने के समुचित मौके नहीं मिल जाते | उसके बाद भी आरक्षण को जारी रखना नाइंसाफी है दूसरे वर्ग के साथ | उसी तरह - समय से पहले ही आरक्षण बंद कर देना पहले वर्ग के साथ नाइंसाफी है |
३. आरक्षण की सबसे बड़ी समस्या यह है - कि जिस पिछड़े हुए वर्ग के लिए इसे लाया गया हो - उसके सब सदस्य इसका फायदा नहीं ले पाते | उनमे से कुछ लोग इससे लाभान्वित हो कर अभिजात्य वर्ग में आ जाते हैं -- फिर उन्ही की पीढियां इसका फायदा लेती रहती हैं, और उसी वर्ग के दूसरे पीड़ित - इसके बारे में जानकारी / मौके के अभाव से पिछड़े ही रह जाते हैं | जो फायदा ले लेते हैं - वे इसे ढाल के बजाय तलवार के रूप में इस्तेमाल करने लगते हैं और दूसरे ऐसे लोग जिन्होंने कोई पीडन न किया हो - उन पर भी "पीडक" का और खुद को "पीड़ित" दिखने का और सामाजिक सहानुभूति पाने का प्रयास करने लगते हैं | न सिर्फ प्रयास ही करते हैं, बल्कि इस प्रयास में अक्सर सफल भी होते हैं, क्योंकि अक्सर हम उतना ही देखते हैं जितना हमें दिखाया जाए - गहराई में जाने की जहमत हम मोल नहीं लेते |
यह सब जगह हो रहा है | सिर्फ भारत में ही नहीं - सारे संसार में | यह शायद बेसिक ह्युमन नेचर है कि हम सिर्फ अपने निज स्वार्थ के आगे कुछ देख सोच ही नहीं पाते |
@ rote learning - it applies to all candidates - not just to girls or boys - undoubtedly our education system needs a lot of reforms ..... but that is not the topic here - some other time may be .....
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Delete.
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शिल्पा जी,
न जाने क्यों मुझे लग रहा है कि आपको मेरी टिप्पणी को एक बार फिर से पढ़ कुछ कहना चाहिये... :)
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This comment has been removed by the author.
Delete:)
Deleteमुझे ऐसा लगता है कि आपकी टिपण्णी इस आरक्षण को भी सपोर्ट नहीं कर रही, उस आरक्षण को भी नहीं | आप सिर्फ एक बात कह रहे हैं कि यदि यह गलत है तो वह भी, और यदि यह सही है तो वह भी [ शायद आप यह कह रहे हैं - मेरी अल्प बुद्धि से तो मुझे बस इतना ही समझ में आया :) ]| इसीलिए मैंने कहा की आरक्षण कब काम कर सकता है और कब नहीं :)
आप की उस पोस्ट पर मैं उस बिल पर अपने विचार रख ही चुकी हूँ | खोज रही हूँ वह लेख - मिल नहीं रहा :( | वैसे ही काफी तमगे मिल रहे हैं मुझे महिला विरोधी होने के - तो अब यहाँ फिर क्या कहूं ..... |
मैं भी तो यही कहती हूँ , लड़कियां बदल रही हैं तेजी से ...
ReplyDeleteपुरुषों को भी बदलना होगा , उसे देह से अलग हटकर देखना ही होगा !
Jo rokega, wo khud ruk jayega...yeh sochkar zindagi jeena sikh le warna rukne ki taiyari kar len.
ReplyDeleteBanki women virodhiyon se to ham nipat hi lenge:-)