नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था
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November 02, 2009

मैं बेचारी रह गयी

आजकल नारी ब्लॉग में विवाह-संस्था पर चर्चा चल रही है. मुझे जब इस ब्लॉग पर लिखने के लिये आमन्त्रित किया गया तो मैंने सोचा कि मैं भी अपने कुछ अनुभव बाँटूं. विवाह भारत में एक पवित्र संस्था मानी जाती है. इस पर सभी सहमत होंगे कि समाज में व्यवस्था बनाये रखने के लिये विवाह आवश्यक है. पर स्त्रियों के संबंध में समस्या तब आती है जब विवाह को उनके जीवन का एक मात्र उद्देश्य बना दिया जाता है. हमारे यहाँ लड़कियों को बचपन से ही दुल्हन बनने के लिये बड़ा किया जाता है. उनको बार-बार यह अहसास कराया जाता है कि माता-पिता का घर उनका नहीं है. उन्हें तो एक दिन अपनी ससुराल जाना है. उन्हें किचेन सेट दिया जाता है जिसके साथ वे घर-घर खेल सकें, गुड़ियों का ब्याह रचायें. बच्चों की मालिश एक स्वाभाविक सी बात है, पर बच्चियों के लिये यह एक त्रासद अनुभव बन जाता है. उनकी रगड़-रगड़ कर मालिश की जाती है ताकि सारे रोयें समाप्त हो जायें. ऐसी बहुत सी बातें हैं, पर मैं यहाँ अपने साथ घटी कुछ घटनाओं का उल्लेख करना चाहुँगी. इन घटनाओं के कारण मैं बचपन में कभी-कभी अवसाद में आ जाती थी, पर अब उन पर हँसी आती है.
     मेरा पालन-पोषण अन्य लड़कियों से कुछ अलग ढंग से हुआ है. इसका कारण मेरे पिताजी थे, जो एक बौद्धिक और आदर्शवादी व्यक्ति थे और लड़का-लड़की में बिल्कुल भेद नहीं करते थे. पर आस-पड़ोस के लोग और नाते-रिश्तेदार मुझे लेकर बहुत चिन्तित रहते थे क्योंकि मेरे अंदर बहुत सी ऐसी कमियाँ थीं जो कि आगे चलकर मेरे ब्याह में बाधक बनने वाली थीं. मैं थोड़ी सांवली थी, इसलिये जब मैं धूप में खेलती थी तो आँटियाँ अम्मा को समझाती थीं, "आपकी बेटी धूप में खेलकर काली हो जायेगी तो इसकी शादी कैसे होगी." जब मेरी लंबाई तेजी से बढ़ने लगी तो सुनने को मिला कि इसके बराबर का दूल्हा कैसे मिलेगा. जब और थोड़ी बड़ी हुयी तो मुझे साइकिल चलाने से रोका जाने लगा. साइकिल चलाने का शादी में समस्या आने से क्या संबंध है यह बहुत बाद में पता चला. मैं घरेलू कामों में रुचि नहीं लेती थी तो कहा जाता था कि ससुराल जाकर नाक कटायेगी यहाँ तक कि एक बार मेरी एक पड़ोसन आँटी मुझसे बोलीं, "अरे, तुम्हारी तो एक उंगली छोटी है, तुम्हारी शादी में तो इससे दिक्कत आ सकती है." ( मेरी बांये हाथ की एक उंगली जन्म से ही छोटी है) ये सारी बातें सुनने में अजीब लग सकती हैं, पर मैंने यह सब झेला है. यहाँ तक कि मेरी शैक्षिक योग्यता को भी मेरी शादी में एक बाधक के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा. मेरी किस्मत अच्छी थी कि मेरे पिताजी ने इन सब बातों पर कभी ध्यान नहीं दिया और मेरे जीवन के निर्णय मुझे लेने की पूरी आज़ादी दी.
     अब से तीन साल पहले मेरे पिताजी का देहांत होने पर सभी नाते-रिश्तेदारों को एक ही चिन्ता सता रही थी कि बाकी दो बच्चों को तो निपटा दिया यही बेचारी रह गयी. उन रिश्तेदारों में से कुछ तो कन्नी काट गये कि कहीं मेरी शादी का बोझ उनके सिर न पड़ जाये और कुछ लोग मेरे कन्यादान का पुण्य लेने बड़ी उदारता से आगे आ गये. मेरी योग्यता का, मेरे व्यक्तित्त्व का, मेरे एक मेधावी छात्रा होने का, मेरी डी.फिल. की डिग्री का कोई मोल नहीं क्योंकि मेरी शादी नहीं हो पायी.
     मैं नहीं चाहती कि कोई मेरे संग सहानुभूति दिखाये. मैं अपनी स्थिति से संतुष्ट हूँ. पर लोगों को मेरी चिन्ता बनी हुई है. उनकी नज़रों में मैं बेचारी हूँ और मेरी नज़रों में वे बेचारे हैं.

May 15, 2009

एक गाँव के लोगों ने दहेज़ न लेने-देने का उठाया संकल्प

दहेज लेने के किस्से समाज में आम हैं। इस कुप्रथा के चलते न जाने कितनी लड़कियों के हाथ पीले होने से रह गये। प्रगतिशील समाज में अब तमाम ऐसे उदाहरण देखने को मिलते हैं, जहाँ लड़कियों ने दहेज लोभियों को बारात लेकर वापस लौटने पर मजबूर किया या बिना दहेज की शादी के लिए प्रेरित किया। इन सब के बीच केरल का एक गांँव पूरे देश के लिए आदर्श बन कर सामने आया है। मालाखुरम जिले के नीलंबर गाँव के लगभग 15,000 युवक-युवतियों ने प्रण किया है कि इस गाँव में न तो दहेज लिया जाएगा और न ही किसी से दहेज मांगा जाएगा। यह प्रण अचानक ही नहीं लिया गया बल्कि इसके पीछे एक सर्वेक्षण के नतीजे थे। इस सर्वेक्षण के दौरान पता चला कि गाँव में लगभग 25 प्रतिशत लोग बेघर थे और बेघर होने की एकमात्र वजह दहेज थी। ग्रामीणों को अपनी बेटियों की शादी के लिए अपना घर बेचना पड़ा था। हर शादी पर तीन-चार लाख खर्च होते हंै और इसकी वजह से लोगों को अपना मकान व जमीन बेचनी पड़ती है और अन्ततः वे कर्ज के बोझ तले दब जाते हैं। इससे मुक्ति हेतु गांव को दहेजमुक्त बनाने का यह अनूठा अभियान आरम्भ किया गया है। फिलहाल इस पहल के पीछे कारण कुछ भी हो पर इस पहल का स्वागत किया जाना चाहिए और आशा की जानी चाहिए कि अन्य युवक-युवतियां भी इससे सीख लेंगे।
आकांक्षा

September 25, 2008

“ विवाह सार्वजनिक जीवन से निर्वासन न बने तो स्त्री इतनी दयनीय न रहेगी ” भाग २

“ विवाह सार्वजनिक जीवन से निर्वासन न बने तो स्त्री इतनी दयनीय न रहेगी ” --- –महादेवी वर्मा सुप्रणीति वरेण्या

पिछले अंक से आगे (भाग-२)

वर्ग की नारियों को महादेवी तीन वर्गों में बाँटती हैं : पहली वे, जिन्होंने राजनैतिक आंदोलनों को बढ़ाने के लिए पुरुषों की सहायता की, दूसरी वे, जो समाज की त्रुटियों का समाधान न पाकर अपनी शिक्षा व जागृति को ही आजीविका का साधन बना लेती हैं और तीसरी वे सम्पन्न महिलाएँ जो थोड़ी- सी शिक्षा के रहते पाश्चात्य शैली की सहायता से अपने गृहजीवन को नवीन रंग देती हैं।आधुनिक महिलाओं को प्राचीन विचारों में जकड़ा पुरुष अवहेलना की दृष्टि से देखता है और जो आधुनिक सोच रखते हैं, वे भी समर्थन करके कोई क्रियात्मक सहायता नहीं करते और उग्र विचारधारा रखने वाले प्रोत्साहन देकर भी उन्हें अपने साथ ले चलने में झिझकते हैं।

महादेवी के अनुसार आधुनिक नारी जितनी अकेली है, उतनी प्राचीन नारी नहीं, क्योंकि “उसके पास निर्माण के उपकरण-मात्र हैं, कुछ भी निर्मित नहीं।“जिन महिलाओं ने राष्ट्रीय आंदोलनों में भाग लिया, बलिदान – त्याग किए, जागृति की ओर बढ़ीं, उन्हें स्त्री के दुर्बल प्रतीत होते रूप को किसी सीमा तक समाप्त करने में सफलता मिली। परंतु इन आंदोलनों में शिक्षिताओं के साथ अनेक अशिक्षिताएँ भी थीं, जिनके बौद्धिक विकास पर किसी का ध्यान ही नहीं गया। शायद यहीं जागृति फैलने से मिले मधुर फल में कड़वाहट भी आ गई क्योंकि इन आंदोलनों से उपजी कठोरता उनके बाह्यजीवन के साथ उनके गृहजीवन को भी प्रभावित करने लगी।स्त्रियों को कठोर परिस्थितियों का सामना करने के लिए कठोरता अपनानी पड़ी और इससे उनकी कोमलता नष्ट हो गई। जो स्त्रियाँ विचारशील न थीं उन्हें अपने स्त्रीत्व पर कम और संघर्ष तथा विद्रोह पर अधिक भरोसा था। संघर्ष मानव के आदिकाल से ही चला आ रहा है। इतने युगों में यदि मानव द्वारा कुछ सीखा न गया है, तो वह है जीने की कला। जिसको सीखकर एक व्यक्ति का जीवन पूर्ण है, परंतु उसके बिना केवल एक संघर्षपूर्ण जीवन अपूर्ण ही है। नाश करते संघर्ष से स्वयं को बचा, विकास के लिए संघर्ष की ओर बढ़ना ही जीने की कला है।प्रगति के दौरान विपरीत परिस्थितियों को भी अपने अनुकूल बनाना पड़ता है, किंतु सामाजिक जीवन में विविधताएँ हैं और इन्हीं के कारण महिला कभी समय-समय पर उन्हें अपने अनुकूल नहीं बना पाई। इस युग की महिला की दृष्टि भी वातावरण तथा परिस्थिति नहीं देख पा रही, जबकि मार्ग में कई बाधाएँ हैं। अपने गृह बंधनों के विरुद्ध कदम उठाती आधुनिक महिलाएँ बाहर त्याग और बलिदान के लिए प्रस्तुत थीं।

घर में उनसे त्याग की माँग भी हद पार कर गई और वे भी समझ गईं कि इस अस्वेच्छा से किए गए त्याग को कभी दान का सम्मान नहीं मिलेगा।स्त्री समाज की समस्याओं का हल निकालने की जिम्मेदारी आज की शिक्षित स्त्री पर है। स्त्री द्वारा विरोध को भावी समाज के बेहतर अस्तित्व के लिए अपना लक्ष्य बनाना और पुरुष द्वारा समझौते को अपनी पराजय समझना, दोनों ही हानिकारक हैं। नारी को क्रांति के लिए एक स्वस्थ सृजन में अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए, ध्वंस में नहीं।’घर और बाहर’ की समस्याओं और परिस्थितियों का अवलोकन करते हुए महादेवी समय के साथ बदली स्थितियों पर नज़र डालती हैं। पहले घर की दीवारों में स्त्री का बंद होना निश्वित था, आज वहाँ थोड़ा सुधार है। आज महिलाओं के लिए बाहर का कार्यक्षेत्र भी उतना ही आवश्यक बन गया है।

आज शिक्षित महिलाएँ घर और बाहर के जीवन में सामंजस्य बिठाने का प्रयत्न कर रही हैं। ऐसी शिक्षित महिला का मिलना आज दुर्लभ है जो केवल घर के कामकाज कर संतुष्ट हो। आज की युवा पीढ़ी वर्षों से चले आ रहे

रीति-रिवाज़ों पर भी प्रश्न उठाती है, तर्क और उपयोगिता के संदर्भ में सफल प्रमाणित बात पर ही विश्वास करती है। इसी तरह सदा घर में बैठकर काम करती महिला की छवि पर भी प्रश्नचिह्न लग गए हैं और शिक्षित महिलाओं ने इसे अस्वीकार कर बाह्य जगत में भी अपनी कार्य कुशलता का सुंदर परिचय दिया है। ऐसे समय में महिलाओं को इस घर-बाहर के द्वन्द्व में सामंजस्य बिठाने में समय लगेगा।घर के वातवरण में ठहराव और निश्चयता तब है जब गृहिणी की परिस्थिति समझी जाए और उसके साथ सहानुभूति रखी जाए। बाहर समाज के वातावरण में भी तभी तक सामंजस्य है जब तक स्त्री-पुरुषों के कर्तव्यों में सामंजस्य है।

वर्तमान काल में कई क्षेत्र स्त्री-सहयोग की उतनी ही अपेक्षा रखते हैं जितनी पुरुष के सहयोग की। कई ऐसे भी क्षेत्र हैं जहाँ पुरुष के सहयोग से अधिक स्त्री की स्नेहपूर्ण सहानुभूति की आवश्यकता है। उनमें से एक कार्यक्षेत्र शिक्षा का है जहाँ कितने ही बच्चों को विद्यार्जन का सुअवसर मिलता है। विद्यालयों में कठोर और निष्ठुर मास्टरों और अनुभवहीन कुमारियों के व्यवहार से बच्चों के सुकोमल मन पर जितना बुरा असर पड़ता है, वहीं एक समझदार सुलझी शिक्षित स्त्री अपने स्नेह से उनके उज्ज्वल भविष्य की नींव रख सकती है।

बच्चों की मानसिक शक्तियाँ स्त्री के मातृत्व स्नेह से अधिक परिपूर्ण होती हैं।मनुष्य को सामाजिक प्राणी होने के नाते, समय-समय पर अपने स्वार्थ को भुलाकर समाज के लाभ के बारे में भी सोचना पड़ता है। समाज के प्रति सहयोगपूर्ण दृष्टिकोण रखने का गुण बचपन में ही पैदा होता है। यदि बच्चे को अन्यों से अलग-थलग कर रखा जाए तो वह अवश्य ही आगे चलकर स्वार्थी और आत्मकेंद्रित बन जाएगा। तभी बड़े आदमियों के बच्चों में यह नैसर्गिक गुण नहीं पैदा होता। उन्होंने बचपन में दूसरे बच्चों के साथ धूल-मिट्टी, हवा का आनंद ही नहीं लिया होता, फिर उनमें वह भाव कैसे उत्पन्न हो जो सामान्य बच्चों में एक-दूसरे के लिए और भविष्य में समाज के लिए पैदा होता है।माता का स्वाभाविक स्नेह भी सीमित नहीं होना चाहिए कि वह मात्र अपनी संतान के लिए स्नेहमयी बनी रहे और दूसरी स्त्री की संतान के प्रति निष्ठुर।

किशोरावस्था में कदम रख चुकी कन्याओं की शिक्षा के लिए ऐसी अनुभवी महिलाओं की आवश्यकता होगी जो उन्हें गृहस्थ जीवन और गृहिणी के गुणों के बारे में उचित शिक्षा दे सकें। आजकल शिक्षा के क्षेत्र में अनेक ऐसी महिलाएँ उतर आयी हैं जो अपनी संस्कृति और गृह-जीवन से अनभिज्ञ हैं। फलस्वरूप विद्यार्जन करती युवतियों को अविवाहित जीवन अधिक आकर्षक लगता है (जिसका आकर्षण असली रूप में उतना सुंदर नहीं है)। वे अपने स्वच्छंदता के स्वप्न को समाप्त नहीं करना चाहतीं।

कोई भी पुस्तक उन्हें गृहस्थ जीवन के सच्चे रूप का उतना दर्शन नहीं करा सकती जितना एक महिला का जीता-जागता उदाहरण।आजकल ऐसी शिक्षित महिलाएँ कम मिलती हैं जो घर के लिए उतनी ही उपयोगी सिद्ध हों जितना वे बाहर कार्यक्षेत्र में होती हैं, लेकिन यह कथन सत्य है कि समाज ने उनकी शक्तियों को नष्ट करने की भरपूर कोशिश की है। यदि शिक्षा जैसे विभिन्न विषयों में वे कार्यरत हैं तो घर उन्हें स्वीकार नहीं करता। वे कार्य तभी कर सकती हैं जब आजीवन संतान और गृहस्थी के सुख के बारे में सोचें तक नहीं।

विवाह के बाद पुरुष की प्रतिष्ठा की दर्शिनी बनने वाली महिला अपनी इस बेढंगी छवि से आहत है, यह स्वाभाविक भी है। इसी तरह के कितने ही कारणों का परिणाम है कि आज की युवतियाँ विवाह से विरक्त हो रही हैं। आधुनिक और शिक्षित महिला अच्छी गृहिणी नहीं बन सकती, यह एक ऐसी धारणा है जो पुरुष ने स्वयं को केंद्र में रख कर बना दी है, स्त्री की कठिनाइयों पर ध्यान देकर नहीं। पुरुष के जीवन में विवाह के बाद भी कोई परिवर्तन नहीं आता, उसकी दिनचर्या, घर, मित्र सभी कुछ पूर्ववत्‌ रहता है। किंतु इन सबके विपरीत स्त्री को अपना सब कुछ छोड़ यहाँ तक कि पैतृक निवास भी, अपने आपको पुरुष की इच्छानुसार उसकी दिनचर्या में ढालना पड़ता है।

शिक्षित स्त्री को मैत्री के लिए भी शिक्षित स्त्रियाँ कम मिलती हैं और इस तरह उनके जीवन में एक अभाव-सा रह जाता है। अच्छी गृहिणी बनने के लिए उसे कुछ नहीं करना, बस, पति की इच्छानुसार काम करना है और जब पति खाली हो तो उसे खुश रखना है, लेकिन क्या इससे उस स्त्री का अभाव पूरा किया जा सकता है?ऐसी पढ़ी-लिखी महिलाओं के अभावों को पूरा करने के लिए उन्हें बाहर भी काम करने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। इस घर-बाहर की समस्या का समाधान निकालना आवश्यक है, अन्यथा उसके मन की उथल-पुथल घर की शांति और समाज का स्वस्थ वातावरण ही नष्ट कर देगी।

स्त्रियों की उपस्थिति बाहर भी उतनी ही आवश्यक है जितनी घर में और इसलिए उन्हें एक ही सीमा में नहीं बाँधा जा सकता।शिक्षा के क्षेत्र के बाद महादेवी चिकित्सा के क्षेत्र में स्त्रियों की आवश्यकता का अवलोकन करती हैं। पुरुष यदि चिकित्सक हो तो उसकी व्यावसायिक बुद्धि ही काम करेगी, लेकिन यदि महिलाएँ इस क्षेत्र में उतरें तो रोगियों को आधे से अधिक मर्जों की दवा मिल जाएगी। उन्हें स्नेह और सहानुभूति महिलाएँ ही दे सकती हैं। कानून जैसे विषय में भी महिलाओं की स्थिति अनिवार्य ही है। यदि वे इस क्षेत्र में बढ़ें तो समाज में महिलाओं की स्थिति और आवश्यकताओं पर भी ध्यान दिया जा सकेगा। इतनी संख्या के वकीलों-बैरिस्टरों से जो संभव नहीं है, वह स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती चंद महिलाओं से संभव है।पुरुषों का यह कथन कि अधिक पढ़ी-लिखी महिलाओं से उन्हें विवाह करते डर लगता है, हास्यास्पद होने के साथ-साथ उनके अहम्‌ और स्वार्थ का दर्पण है।

यदि अनपढ़ या पुरुष के कार्यक्षेत्र के विषय में जरा भी जानकारी न रखने वाली महिला उसी पढ़े-लिखे, ऊँची पदवी के पुरुष से विवाह करने में बिल्कुल नहीं हिचकिचाती तो पुरुष को क्यों डर लगता है? इसका कारण यह है कि उसे सदा भय रहता है कि भावी पत्नी मूकभाव से उसका अनुसरण नहीं करेगी, शिक्षित और आवश्यक जानकारी रखती महिला उसके आचरण पर प्रश्न उठा सकती है। तभी पुरुषों का मन उस कल्पना से ही सिहरता है और उनका अहम्‌ डरता है।बालकों की प्रगति में संलग्न संस्थाएँ चलाने, स्त्री संगठन बनाने और स्त्रियों को स्थतियों से परिचित कराने के कार्य का भार आज स्त्री के ऊपर है और निश्चय ही केवल वही इन्हें सुचारु रूप से पूरा कर सकती है। जब बाहर इतने आवश्यक कार्यभार उसकी प्रतीक्षा कर रहे हों तब उससे घर में बैठे रहने की अपेक्षा करना मूर्खता है। यह एक और मूर्खता है कि यह आशा रखी जाए कि बाहर काम करती स्त्री घर से सन्यास ले ले।

उन्हें घर-बाहर दोनों स्थानों पर कार्य करने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए।इस सोच को कि संतान पालन के लिए स्त्री का घर होना आवश्यक है, महादेवी एक भ्रांति सिद्ध करते हुए बताती हैं कि कार्यरत महिलाओं की संतान घर बैठी महिलाओं की संतान से अधिक प्रखर हैं और साथ में कामकाजी महिलाएँ शाम को घर लौट कर संतान को गोद में ले खेलती हैं, वहीं यह गुण थके माँदे घर लौटे एक पुरुष में नहीं देखा जाता। मूलरूप में यदि “विवाह सार्वजनिक जीवन से निर्वासन न बने तो निश्चय ही स्त्री इतनी दयनीय न रह सकेगी।“साहित्य एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ स्त्री घर बैठे ही उन्नति कर सकती है। यह बहुत चकित कर सकता है कि जहाँ पुरुषों के कमरे पुस्तकों से भरे होते हैं, वहाँ महिला की अपनी दस पुस्तकें भी नहीं होतीं। संभवतः इसलिए कि उन्हें पुस्तकों के लिए उचित नहीं माना जाता, फिर यह भी कि घर के कामकाज में जुटी औरत की रुचि कभी इस ओर बढ़ी ही नहीं। साहित्य जैसे क्षेत्र में घर बैठे स्त्रियाँ बालकों के लिए भी बहुत कुछ कर सकती हैं। बाल-साहित्य में उनके हाथ अनुभवी प्रमाणित हो सकते हैं, क्योंकि बच्चों के मनोविज्ञान को एक माता के अलावा शायद ही कोई ठीक से समझ पाए।इन क्षेत्रों में स्त्रियों को कुछ करने देने के लिए पुरुषों को उदार होना पड़ेगा, क्योंकि इनमें स्त्रियों की आवश्यकता जब-तब पड़ती रहेगी और कदाचित्‌ स्त्री को भी पुरुष के समान सामाजिक कोण और आयाम स्थापित करने का पूरा अधिकार है।भारत में नारी की स्थिति ने दयनीय रूप ले लिया है। यह एक ऐसा अजीब देश है, जहाँ इस क्षेत्र में दूसरे देशों की तरह प्रगति नहीं पतन हुआ है। आज दूसरे देशों में नारियों ने पुरानी रीतियों को तोड़ कर एक स्वतंत्र जीवन शुरू किया है, जबकि भारत में वही स्थिति बरकरार है। घर के लोग पुत्री के विवाह की चिंता उसके जन्म से ही करने लगते हैं, उसके विवाह के समय बड़ी से बड़ी रकम देते हैं।

यह समस्या भारत में इसलिए है क्योंकि यहाँ के लोगों को महिला की आजीविका का इससे सरल उपाय नहीं मिलता। यदि विवाह के बाद स्त्री स्वावलंबी बन कर रहे तो विवाह जीवन का सुंदर पड़ाव बन जाए। वैदिक काल की चर्चा करते हुए महादेवी बताती हैं कि उस काल में आर्य-पुरुष ईश्वर से उत्तम संतान की कामना करते थे और स्त्री उस समाज का एक बहुत सम्मानित और महत्वपूर्ण अंग थी। हर स्त्री इतनी आदरणीय थी कि उँचे से ऊँचे कुल के पुरुष किसी भी वर्ण या कुल की स्त्री को पत्नी स्वीकार कर सकते थे। समय के साथ नीचे कुल की कन्याओं से विवाह के पश्चात्‌ उनके परिवार से कुल में अंतर होने के कारण, दूरी बनाने के लिए यह विधान उभरने लगा की माता-पिता पुत्री के विवाह के बाद दामाद के घर जाना उचित न समझें। आज उसी का रूप हम एक विकृत प्रथा में देखते हैं, जहाँ “बेटी के घर का पानी” तक नहीं पिया जाता।आज दूसरे देशों में स्त्री-पुरुष दोनों ही जीवन-साथी चुनने में पूरी तरह से स्वतंत्र हैं।

भारत में भी प्राचीनकाल में ऐसी ही व्यवस्था थी, जब नारी को अपनी इच्छा से ब्रह्मचारिणी का जीवन चुनने का अधिकार था और एक राजकन्या भी एक ऋषि का वरण कर सकती थी। यूरोप के देशों में कुछ वर्ष पहले तक स्त्री एक पशु के समान थीं, परंतु क्रांतियाँ उलट-फेर करने में सक्षम हैं और वही हुआ। लेकिन भारत के सामान्य पुरुष की सोच आज भी यही है कि आँगन में बँधे पशु और घर की स्त्री में कोई अंतर नहीं है और इसलिए स्त्री के मन और शरीर पर उसका पूरा अधिकार है।कुछ लोगों का मानना है कि स्त्री स्वावलंबी बनने पर विवाह नहीं करेगी और इस तरह दुराचार बढ़ जाएगा।

यदि यही सत्य है तो जिन देशों में स्त्रियाँ स्वतंत्र और स्वावलंबी हैं, वहाँ तो विवाह जैसी संस्था का नामोनिशान ही मिट जाना चाहिए था! हमारे यहाँ तो कन्या की शिक्षा के लिए खर्च करना घरवालों से सहन नहीं होता। स्त्री पुरुष के अधिकार से बाहर न चली जाए इसलिए उसके लिए एक ही विद्या प्राप्त करना उपयुक्त है – मनोरंजन विद्या। कभी भारतीय पत्नी अपने देश के लिए गौरव का कारण थी, आज वह एक विडंबनामात्र है।आरंभ से ही नारी ने शारीरिक बल (पशुबल) में अपने को पुरुष से हेय पाया और साथ ही पुरुष की बाहरी कठोरता के अंदर छिपी कोमल भावनाओं को भी उसने ढूँढ लिया। इस खोज के बाद से नारी ने पुरुष के समक्ष अपने बल या विद्या के प्रदर्शन का विचार छोड़ दिया, क्योंकि इससे तो प्रतिद्वन्द्विता उपजती और वैसी स्थिति में केवल हार-जीत संभव है, आत्मसमर्पण नहीं।

इसलिए उसने अपने स्त्रीत्व और रूप के बल पर पुरुष को चुनौती दी और इसमें नारी की जीत हुई। उसकी यह जीत लगातार चलती रही; क्योंकि उसके पास वह था जो पुरुष के जीवन में कोमलता और सरसता भर सकता था। परंतु प्रेयसी होने के साथ-साथ नारी का कर्तव्य और भी बढ़ गया, क्योंकि उस पर मातृत्व का भी भार आ गया। एक स्नेहिल मातृत्व का कर्तव्य निभाते-निभाते वह धीरे-धीरे अपने रमणीत्व को भूल गयी, क्योंकि नारीत्व के विकास के लिए संतान साध्य है और रमणीत्व साधन-मात्र है।पुरुष ने नारी के इस माता के रूप का आदर किया, अर्चना भी की, लेकिन उसे आत्मतुष्टि नहीं मिली।

उसकी इच्छा हुई कि वह आजीवन ऐसी स्त्री के साथ रहे जो सदैव प्रेयसी बनकर मनोंजन करती रहे। उसके इस असंतोष का परिणाम है कि आज बाजारों में ऐसी स्त्रियाँ मिल जाती हैं जो केवल एक रमणी की भूमिका निभा सकती हैं, दूसरे शब्दों में पुरुषों का मनोरंजन कर सकती हैं। उन स्त्रियों में मोहकता है, स्थायित्व नहीं। उनके नारीत्व का ध्येय दूसरों का मनोरंजन है। स्त्री पत्नी के रूप में पुरुष के जीवन को और सरल और सुंदर बना सकती है, परंतु मातृत्व में उत्तेजना नहीं है जबकि पुरुष उत्तेजना की कामना करते हैं, जिसे पाकर वे कुछ समय तक बेसुध हो जाएँ। अपने नारीत्व को बाजार में बेचती स्त्रियों के हृदय के मर्म को पुरुष ने कब समझा? और समझने की आवश्यकता भी उसे कब लगी? जीवन-भर इस क्रय-विक्रय में लीन स्त्री अपनी सभी कोमल भावनाओं तथा आत्मसमर्पण की इच्छाओं को कुचल कर रख देती है और अंत में भी उसे एकाकी दुःख ही मिलता है।

इन स्त्रियों को केवल भावुकता के दृष्टिकोण से न देखकर यथार्थ को समझने के लिए व्यावहारिक दृष्टिकोण से भी देखना होगा। कुछ लोगों का कहना है कि हर स्त्री – समुदाय में ऐसी स्त्रियाँ मिल जाएँगी जो मातृत्व के भार से बचकर स्वतंत्र जीवन बिताना चाहती हैं और कुछ का कहना है कि कितने ही पुरुषों को मनोरंजन करने के लिए ऐसी स्त्रियों की आवश्यकता रहेगी; परंतु यह विचारणीय है कि क्या किसी सामाजिक प्राणी को अपनी आवश्यकता के लिए दूसरे के स्वत्व को कुचलने का अधिकार है?इतने बलिदान करती और दुःख सहती ऐसी स्त्री फिर भी समाज में पतिता मानी जाती है लेकिन इन स्त्रियों में और चुपचाप पति का घर संभालने पर देवी कहलाने वाली मानवी में स्थिति के संकट के अलावा क्या अंतर है? यदि प्रेम और त्याग कर एक विवाहिता अमर बन सकती है तो एक मजबूर महिला के लिए भी यह काम असंभव नहीं। यह तो समाज है जो उसके काम में रुकावट डाल देता है। समाज ने कुष्ठ रोगियों और विक्षिप्तों के लिए भी आश्रम-चिकित्सालय बनाए, परंतु इन पतिता कही जाने वाली स्त्रियों के कल्याण के बारे में कभी नहीं सोचा। इनके मन को भी किसी के स्नेह की आवश्यकता है। दिखावटी मुसकान सजा कर शरीर के साथ अपनी आत्मा बेचती महिलाओं को खरीदने वाले इनकी हत्या नहीं कर रहे तो क्या कर रहे हैं? इतिहास साक्षी है कि इस प्रथा के चलन में गिरावट नहीं आई है, क्योंकि मदिरा से कभी प्यास नहीं बुझती।

पुरुष की इस पशुता को जैसे-जैसे भोजन मिला वह और बलशाली होकर अधिक भोजन की अपेक्षा रखने लगा। यदि कोई ऐसी स्त्री मिल भी जाए जो ऐसे व्यवसाय में अपना अपमान न मानती हो तो इसका अर्थ है कि अवश्य ही उसके जीवन में कोई ऐसी घटना घट चुकी है जो उसके हृदय के समूचे स्नेह को उड़ा ले गई, जिससे उसका हृदय जीवन के प्रति इतना निष्ठुर है। इन स्त्रियों के प्रति जो घृणा हम देखते हैं, वह बाहरी है, दिखावटी है, जब-तब समाज अपनी लालसा बुझाने के लिए इन्हीं स्त्रियों की सहायता लेता है, अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान बचाने के लिए निंदा भी इन्हीं की करता है।

“समाज पुरुष-प्रधान है, अतः पुरुष की दुर्बलताओं का दंड उन्हें मिलता है, जिन्हें देखकर वह दुर्बल हो उठता है।“ इस तरह स्त्रियों को दोहरा दंड मिलता है। उनके सपने भी धरे रह जाते हैं और उनके ही सभी सामाजिक अधिकार भी खो जाते हैं। दूसरी ओर पुरुष का चारित्रिक पतन उसके सामाजिक अधिकारों में कटौती नहीं लाता, उसे गृह जीवन से भी निर्वासन नहीं मिलता। वह उँचे से ऊँचे पद पर विराजमान हो सकता है और स्वयं पतित व दुराचारी होकर भी एक सती स्त्री के जीवन पर, चरित्र पर कीचड़ उछाल सकता है। महादेवी वर्मा स्त्री के शरीर-व्यवसाय संबंधी विषय पर इस टिप्पणी से अपनी बात पूरी करती हैं कि “जब तक पुरुष को अपने अनाचार का मूल्य नहीं देना पड़ेगा, तब तक इन शरीर व्यवसायिनी नारियों के साथ किसी रूप में कोई न्याय नहीं किया जा सकता।“

September 24, 2008

“ विवाह सार्वजनिक जीवन से निर्वासन न बने तो स्त्री इतनी दयनीय न रहेगी ”

“ विवाह सार्वजनिक जीवन से निर्वासन न बने तो स्त्री इतनी दयनीय न रहेगी ” --- –महादेवी वर्मा सुप्रणीति वरेण्या
(भाग-१)
स्त्री-पुरुष, दोनों ही समाज के मुख्य अंग हैं। यह बहुत आश्चर्य में डाल सकता है कि स्त्री-पुरुष दो ऐसी आत्माएँ हैं जिनमें मात्र शरीर-संरचना में ही अंतर है। परंतु यही शरीर-संरचना उनके मानसिक विकास पर सबसे अधिक प्रभाव डालती है। स्त्री में कोमलता स्वभाववश ही पैदा होती है। इससे ही स्त्री की दशा आज दुविधाजनक है, यह कथन पूर्णतया उचित नहीं, परन्तु अनुचित कहना सत्य भी नहीं। समय ने ऐसी विषमता खड़ी कर दी है कि उसने स्त्री की इस स्वभाववश उत्पन्न कोमलता को स्थान-स्थान पर उसकी कायरता, उसकी कमज़ोरी बना दिया है। दुर्भाग्य यह है कि भारतीय नारी ने उसे विधि का विधान मानकर चुपचाप स्वीकार कर लिया है।भारतीय समाज में स्त्री की महत्ता का अवमूल्यन चिंतनीय है। वह अब भी हर घरेलू काम के लिए विवश है। आज भी उसे सिर ढँकना पड़ता है। आज भी उसे ससुराल की इच्छानुसार धनादि की आपूर्ति न करने पर प्रताड़ना सहनी पड़ती है, मृत्यु तक के लिए विवश होना पड़ता है। आज भी विवाहादि के समय कोई अनिष्ट होने पर मिथ्याओं में विश्वास करने वाले समाज के उलाहने जीवनभर सुनने पड़ते हैं। थोड़े शब्दों में, आज भी स्त्री का महत्व पशु के ऊपर आँका जा रहा है, इतना भी नहीं कहा जा सकता।महिलाओं के लिए दुर्भाग्य का विषय है कि उन्हें ’मानवी’ छोड़, समाज ने बहुत कुछ माना।
वे कभी देवी बनकर पूजनीय वस्तु मान ली गईं, कभी नरक का द्वार। परन्तु यह समझने योग्य बात है कि वह पुरुष कितना कमज़ोर होगा जो एक स्त्री के संपर्क मात्र से नरक में ढकेला जा सकता है।जब समाज में कहीं कुछ ऐसा घटित हो रहा हो, जिसकी उपस्थिति नाशकारी है तो संभवतः समाज के उस भाग को जो इससे अवगत नहीं है, अवगत कराने के लिए स्वतः ही क्रांतिकारी विचारों वाले व्यक्तियों का प्रवेश हो जाता है। स्त्री की इस दुर्दशा का विषय हम सभी से अछूता नहीं रहा है। हम सभी इन परिस्थियों से अवगत हैं और इन विपरीत परिस्थियों के विरुद्ध कई लोग कई प्रयास कर चुके हैं। इन प्रयासों के बारे में बात करते समय महादेवी वर्मा जैसे व्यक्तित्व के बारे में भूल जाना सर्वथा अनुचित होगा।महादेवी वर्मा की स्त्री के सशक्तीकरण के विषय में बहुत महती भूमिका रही है।

’श्रृंखला की कड़ियाँ’ उनके इस कार्य का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। यह पुस्तक उनके विचारों से ओत-प्रोत है और वे निस्संदेह इस विषय को नए आयाम देने और सोच के लिए नए प्रश्न उठाने में अग्रणी व सफल रही हैं।’श्रृंखला की कड़ियाँ’ पाश्चात्य और पूर्वी समाज की कमज़ोरियों, कमियों व नारी की दशा तथा समस्याओं पर प्रकाश डालती है। आरंभ में ’अपनी बात’ को संक्षेप में यह कहकर वे निष्कर्ष देती हैं कि भारतीय नारी की मूल समस्या असंतुलन है। उसमें कहीं असाधारण दीनता है और कहीं असाधारण विद्रोह। ’श्रृंखला की कड़ियाँ’ का प्रकाशन पुस्तक रूप में १९४२ ई० में हुआ, जबकि इसमें सम्मिलित विविध आलेख १९३१, १९३३, १९३४, १९३५, १९३६ तथा १९३७ में लिखे जा चुके थे और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से चर्चा का विषय बन चुके थे।महिलाओं का स्वभाव अधिक कोमल होता है। प्रेम और घृणा जैसे भाव अधिक स्थायी रूप में उनके हृदय में वास करते हैं।

महादेवी इसे स्पष्ट करके कहती हैं कि नारी की इन्हीं विशेषताओं से उनका व्यक्तित्व समाज के उन अभावों की पूर्ति करता है जो पुरुष द्वारा संभव नहीं। दोनों की प्रकृति पूर्णतया विपरीत है। उन विशेषताओं की अनुपस्थिति समाज में ऐसे रिक्त स्थान उत्पन्न कर देगी जो अन्यथा नहीं भरे जा सकते। प्राचीनकाल में समाज का स्त्री के प्रति स्नेह और सम्मान प्रकट करना इसका द्योतक है कि नारी समाज का महत्वपूर्ण और आदरणीय अंग थी। आर्य नारी ने वैदिक काल में कभी सहधर्मिणी के रूप में पति का अंधानुसरण किया हो, ऐसे प्रमाण नहीं मिले हैं। वे कहती हैं, “छाया का कार्य आधार में इस प्रकार अपने आप को मिला देना है, जिससे वह उसी समान जान पड़े और संगिनी का अपने सहयोगी की प्रत्येक त्रुटि को पूर्ण कर उसके जीवन को अधिक से अधिक पूर्ण बनना “।

“स्त्री सहधर्मिणी से अधिक पुरुष की छाया है”, यह सोच शायद किसी अशांत वातावरण की देन है, जिसने पुरुष की इस आपत्तिजनक धारणा को भी सिद्धान्त का रूप दे दिया। साथ ही स्त्री ने अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को भुला कर अपने विवेकशक्ति खो दी। उसे अपनी सफलता - असफलता पुरुष की संतुष्टि में दीखने लगी, और इसी कारण-वश, जहाँ स्त्री माता या पत्नी के रूप में गौरवान्वित होती थी, वहीं उसे जीवन उदेश्यहीन तथा पिंजड़े- सा लगने लगा। ऐसे समय में उसे लगा कि ऐसी समस्या का निवारण तब होगा जब वह भी पुरुष के समान बने। परिणामस्वरूप उसने व्यक्तित् ें एक टेढ़ेपन को लाने की कोशिश की, जिसके कारण वह पुरुष समान कठोर बन गई। परंतु स्त्री के मधुर व्यक्तित्व का लोप हो गया। इसी से आज की विद्रोहशील नारी अधिक कठोर, निर्मम, स्वाधीन, स्वच्छन्द परंतु अपनी “निर्धारित रेखाओं की संकीर्ण सीमा की बंदिनी” है। लेकिन यह एक स्वाभाविक तथ्य है कि केवल नारी की कोमलता और सहानुभूति ही समाज पर शीतल लेप की भाँति काम कर सकती है।

“हमारी श्रृंखला की कड़ियाँ” शीर्षक के अन्तर्गत महादेवी वर्मा आगे लिखती हैं कि अपने पूर्ण से पूर्ण विकसित रूप में होते हुए भी कोई वस्तु दूसरी वस्तु हो ही नहीं सकती। जो वस्तु उससे भिन्न है, उसका अभाव उसमें सदा रहेगा। एक पूर्ण नारी भी इतनी पूर्ण नहीं हो सकती कि पुरुष के स्वभाव को समाहित कर सके। किसी और गुण की पूर्णता स्वयं के अस्तित्व को पूर्ण बना ही नहीं सकती, इसलिए समाज में संतुलन के लिए स्वभावों का आपसी सहयोग ठीक है, परंतु प्रतिद्वन्द्विता ठीक नहीं।प्रायः पुरुषों का जीवन स्वच्छन्दता में और स्त्रियों का परंपराओं की सीमा के भीतर बीतता है जो उन्हें बाहर के जीवन से अवगत होने का मौका नहीं देता। इसी से महिलाओं में शुष्कता और आक्रोश जैसे भाव अधिक पाए जाने लगे हैं। ऐसे में स्त्रियों के व्यक्तित्व में स्वाभाविक कोमलता के साथ-साथ साहस और विवेक की आवश्यकता है, जिससे वे किसी भी अन्याय के प्रति जवाब देने में जरा भी न चूकें।शासन आदि व्यवस्थाओं में आधे समाज के प्रतिनिधि के रूप में स्त्रियों का होना आवश्यक है।

स्त्रियों की आवश्यकताएँ, हित संबंधी बातें तो स्त्रियाँ ही समझ सकती हैं और यदि वे प्रतिनिधित्व करें तो समाज भी स्त्रियों के हित-अहित से परिचय पा सकता है।महादेवी वर्मा के अनुसार ’विवाह’ नामक संस्था पवित्र व उच्चकोटि की है, परंतु वर्तमान काल में उसमें कुछ परिवर्तनों की आवश्यकता है क्योंकि इस पवित्र मानी जाने वाली संस्था में कई रूढ़ियों के प्रवेश के कारण लगातार पतन ही दीख रहा है। स्त्रियों की दुर्दशा के निवारण में समर्थ महिलाएँ भी उचित कदम उठाती नहीं दीख रहीं। जो संपन्न महिलाएँ हैं, वे अपनी गृहस्थी और संतान के लिए सेवक नियुक्त करती हैं, परंतु दुर्भाग्यवश अपना धन और ऊर्जा व्यक्तिगत मनोरंजन आदि में खर्च कर देती हैं। यदि वे इनका सदुपयोग आत्मनिरीक्षण कर अपने स्वत्व को पहचान कर इसी ज्ञान से समाज की मदद कर सकें तो अवश्य ही सुधार के लक्षण दीखेंगे।

उन्हें अपने देश की अन्य साधारण महिलओं के अधिकारों, उन्नति के साधनों और अवनति के कारणों से परिचित होना चाहिए। महिलाओं को स्वयं को किसी से ऊँचा जताने की आवश्यकता नहीं, न ही किसी को ऊँचा जताने की, बस आवश्यकता उन्हें उस स्वत्व ही की है जिसे पाकर पुनः समाज का उतना ही महत्वपूर्ण अंग बन सकें; ऐसा स्वत्व जो अचानक रूढ़ियों में कस कर दब गया है। मध्यम वर्ग की नारी स्वावलंबन से रहित है। वह जीवन-भर घरेलू क्लेशों में बँधी रहती है। समाज में भी कोई ऐसी व्यवस्था नहीं जो उन्हें ऐसी परिस्थितियों से उबार कर उनमें आत्मविश्वास भर दे। श्रमजीवी वर्ग की महिलाओं की कहानी सबसे दुःखद है। दिन-भर के असह्य शारीरिक श्रम के पश्चात् जब रात्रि में घर लौटती हैं तब भी उन्हें कुछ शांति के क्षण नहीं मिल पाते।

सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यह है कि समाज-सुधार के कार्यक्रमों में उन्हें भुला दिया जाता है और वे आजीवन अपने द्रारिद्रय में पीड़ा सहती रहती हैं। उनकी सबसे बड़ी आवश्यकता ज्ञान-प्राप्ति है ताकि वे अपने ऊपर होते अत्याचार का विरोध कर सकें।महिलाओं का सबसे बड़ा गुण यह है कि वे अपने को और बाह्यजीवन को परिस्थितियों के अनुसार ढाल लेती हैं। वे अपने स्वभाव के गुणों को भी छोड़ने में तत्पर हो सकती हैं, दुःख को परीक्षा मान उसका सामना करती हैं और इसलिए उनकी सतर्कता पुरुष से अधिक प्रतीत होती है। स्त्री में त्याग अथवा बलिदान करने की असीम शक्ति है और वह यह प्रमाणित कर चुकी है कि परिस्थितिवश दुर्बल प्रतीत होती नारी में पुरुष से किसी भी दशा में कम शक्ति नहीं है।’युद्ध और नारी’ के अन्तर्गत महादेवी लिखती हैं कि पुरुष के जीवन में संघर्ष है तो नारी के जीवन में आत्मसमर्पण। इसी से नारी ने पुरुष की दुर्बलता को पहचान लिया, जब उसकी नीरसता को समझा। गृह के संबंध में वह कहती हैं कि गृहों की नींव स्त्री की बुद्धि पर रखी गई है। स्त्री और पुत्र के आगमन से पुरुष को लगा कि उसे किसी सबल पर शासन नहीं करना बल्कि एक नन्हें निर्बल को सबल बनाना है और एक सामंजस्यपूर्ण गृहस्थी बसाने में उसे कोई आपत्ति नहीं
स्त्री ने यह स्पष्ट किया कि अपने शिशु को सबल बनाने के लिए उसे पुरुष की आवश्यकता है और तब से गृह रक्षा और भरण-पोषण की जिम्मेदारी स्वयं पर ली। तब से दैनिक आवश्यकताओं के लिए छीना-झपटी के युद्ध का उद्देश्य बदल गया और युद्ध गृह-समूह की रक्षा के लिए होने लगे। परंतु स्त्रियाँ कभी युद्ध से संबंधित हिंसक धारणा नहीं बना पाईं। उनके लिए युद्ध, युद्ध के अलावा और कुछ नहीं था, था तो उनके गृह-जीवन को धमकाता एक कारण, जिससे उन्हें भय था। क्योंकि वही गृहस्थी अब उनका जीवन बन गई थी।युद्ध के लिए स्त्री मानसिक और शारीरि, ोनों ही रूप से अनुपयुक्त तो रही ही, साथ ही उसके विकास में भी यह आड़े आया। जहाँ युद्ध का वातावरण हो, वहाँ एक स्त्री अपने गुणों में स्वतः अपूर्ण हो जाती है, क्योंकि अगले दिन मृत्यु की आशंका लिए बैठे पुरुष के पास नारी के सभी गुण आँकने का समय नहीं, उनकी कोई उपयोगिता ही नहीं। वह एक रूप की पुतली से अधिक सार्थक नहीं हो पाती और ऐसे में उसके सभी गुण विकसित नहीं हो पाते।पुरुष के स्वार्थों का दायरा धीरे-धीरे बढ़ने लगा। उसे अधिकारों की सीमा का विस्तार करने की चाह परेशान करने लगी। उसके लिए यह असह्य हो गया कि स्त्री अधिकारों की कामना में रुकावट बने।

स्त्री सलाह दे तो अहम् पर चोट पड़ती और यदि उसकी हर बात दुःखी मन से चुपचाप स्वीकार ले तो उसके साहस का उपहास होता। अतः बीच का मार्ग अंततः उसने निकाल ही लिया। उसने नारी के सम्मुख यह तर्क रखा कि युद्ध के प्रति उसकी विमुखता उसकी कायरता है, मूल रूप से दुर्बल होने पर उसकी भावुकता का आवरण काम आता है। बस, फिर स्त्री में चुनौती का उत्तर देने की ललक जाग उठी और वह यह कामना करने लगी कि वह पुरुष की बराबरी में खड़ी हो जाए और जो निष्ठुरता उसकी प्रकृति के विरुद्ध थी, वही निष्ठुरता उसके स्वभाव में बसने लगी। पुरुष को भी अपना मार्ग विस्तृत प्रतीत हुआ। फलस्वरूप आज सामान्यतः युद्ध-प्रिय आधुनिक देशों की नारियों को लगता है कि यदि उनमें दया, करुणा, प्रेम जैसे स्वाभाविक गुण हैं, तो वे जीने योग्य नहीं। पुरुष-सा पाशविक बल और संहार करने की लालसा उनके मन में प्रतिदिन बढ़ रही है।नारी की कोमलता में उसकी दुर्बलता ने शरण ले ली है। ’नारीत्व का अभिशाप’ की चर्चा करते हुए महादेवी कहती हैं कि मानसिकता और शारीरिक बल का समन्वय अत्यन्त आवश्यक है, परंतु प्रायः एक बल की कमी दूसरे की अधिकता से भर जाती है। अतः उसके पशुबल की न्यूनता को आत्मबल से भरना बहुत ही स्वाभाविक है।

अपने युद्ध-कौशल में भी प्रतिद्वंद्वियों को चकित करने वाली स्त्री निहत्थी होकर भी, बलवान विपक्षियों से घिरी रह कर भी, अपने आत्मसम्मान की रक्षा कर चुकी है।समाज को अपनी शक्ति से अधिक देकर, त्याग कर आज की नारी संज्ञाहीन हो गई है, इतनी कि कठोर से कठोर दिल दहला देने वाली यंत्रणाएँ भी वह मूकभाव से सह लेती है। समाज और घर, दोनों ही ओर स्त्री की दशा दयनीय है। विवाह से पूर्व वह पराया धन है, जहाँ उसे सदा ’अपने’ घर जाने की शिक्षा मिलती है। विवाह के समय मानो उसका मोल-भाव होता है और उसी का घर विवाहोपरांत इतना पराया हो जाता है कि दुःख के क्षणों में उसे आत्मीयता और संबल नहीं मिलता, विपत्ति में अन्न के दाने तक नहीं। पतिगृह भी उपेक्षा के अलावा और कुछ देने में असमर्थ ही लगता है। यदि वह अपने पति की अपेक्षा के अनुकूल न हो या उसे वह देने में समर्थ न हो जो पति की इच्छा हो तो उसका शेष जीवन अंधकार में ही बीत जाता है। स्त्री एक बंदिनी के समान है, चाहे सोने का पिंजरा हो या लोहे का, वह स्वतंत्रता की अधिकारिणी नहीं है। वह जिस व्यक्ति की बंदिनी है, वह उसके साथ कैसा भी व्यवहार करे, उसे अवश्य साधुवाद मिल जाएगा। महादेवी स्पष्ट करती हैं – “उनके विचारों में नारी मानवी नहीं, देवी है और देवताओं को मनुष्य के लिए आवश्यक सुविधाओं का करना ही क्या है! नारी के देवत्व की कैसी विडंबना है!

”यदि दुर्भाग्य से वह विधवा हो जाए तो अपने बालक के भरण-पोषण की जिम्मेदारी भी उसी पर आ पड़ती है। रूढ़ियों से बँधे समाज में शास्त्रों के नियमों को पालने की इतनी ललक अचानक पैदा हो जाती है कि वह इसके लिए एक निरपराध स्त्री को मृत्यु से भी भयंकर दुःखों में ढकेलने के उपरांत भी नहीं हिचकिचाता।समाज में स्त्री का मूल्य आज जरा भी नहीं। यह तो इसी से स्पष्ट होता है कि स्त्री के अपहरण जैसी कुरीति आज समाज में निरंतर फैल रही है। स्त्री स्वयं भी आज अपने दुःखी जीवन से इतनी परेशान है कि वह इससे छुटकारा पाने के लिए कोई भी मूल्य देने को तैयार है। नारी-अपहरण जैसी समस्या जहाँ मुँह-बाए खड़ी है वहाँ हमारे युवकों का लम्बी तान कर सोना एक आश्चर्य है।सबसे मूर्खतापूर्ण स्थिति तो तब प्रकट होती है,जब कुछ तर्कशील पुरुष यह तर्क देते हैं कि स्त्रियों को आत्मरक्षा करने से कौन रोकता है? यदि प्रत्येक मानव आत्मरक्षा में इतना ही समर्थ होता तो मनुष्य जाति को कभी सैनिकों और हथियारों की आवश्यकता नहीं पड़ती। आज आत्मनिर्भरता, अपनी गरिमा, अपने अस्तित्व तक को भुला चुकी महिला से यदि अपने आत्मसम्मान और गरिमा की रक्षा की बात की जाए तो वह अवश्य ही एक निरर्थक प्रयास है।यदि इसके विरुद्ध एक ऐसा देशव्यापी आंदोलन स्थान ले जिससे लोगों का हृदय नारी वेदना के प्रति संवेदनशील बने और नारी स्वयं भी अपने अस्तित्व और गरिमा को पहचाने तो परिस्थितियों में सुधार की संभावना है “....... अन्यथा नारी के लिए नारीत्व अभिशाप तो है ही.....।“आधनिक स्त्री परंपरागत रूढ़ियों से जकड़ी स्त्री से अधिक सतर्क लगती है। जब स्त्री को लगा कि उसकी कोमलता पुरुष के सामने उसकी कमजोरी है तो उसने उे समूल नष्ट कर दिया। अपनी भावुकता और बाह्य संघर्ष के लिए पुरुष पर निर्भर होने की इस प्रकृति को उसने जड़ से उखाड़ फेंका। परंतु वह इस तथ्य से अपरिचित नहीं थी कि कोमलता उसका प्राकृतिक गुण है। अपने इस प्राकृतिक गुण पर नियंत्रण पाकर वह चाहे बाहरी परिस्थितियों का सामना कर लेती हो, परंतु वह अंदर सुखी नहीं।पाश्चात्य जीवन शैली की नारी भारतीय नारी की अपेक्षा अधिक स्वतंत्र प्रतीत होती है – साधारणतः आर्थिक आदि दृष्टि से, परंतु महादेवी के अनुसार सामाजिक बंधनों से वह आज भी (चाहे अनभिज्ञ होकर ही) बँधी हुई है। पाश्चात्य नारी की स्वतंत्रता उसे पुरुष के मनोविनोद की वस्तु बने रहने के जंजाल से छूटने का अवकाश देती है, परंतु उसका श्रृंगार के प्रति लगाव, रूप को स्थिर रखने का आकर्षण, साधन और उपकरणों का प्रयोग उसकी दुर्बलता दिखाता है कि उसकी रमणीत्व की इच्छा नहीं नष्ट हुई, उसे गरिमा प्रदान करने वाले गुण अवश्य खो गए। जहाँ उसने पुरुष को नीचा दिखाने के लिए कठिन परिश्रम किया, वहीं वह पुरुष की अपने प्रति जिज्ञासा को जगाने के लिए सौंदर्य को प्रधानता देने लगी। उसका मन सौंदर्य आकर्षण में इतना उलझा है कि उसे स्वतंत्र नहीं कहा जा सकता।जिस तरह इंद्र धनुष के रंग हमें विस्मित तो कर देते हैं, पर इससे अधिक उनकी सार्थकता नहीं बन पाती, एक आकर्षक नारी की पुरुष के सामने महत्ता भी वैसी ही रह जाती है।

आधुनिक नारी अपने नारीत्व की उपेक्षा भी नहीं सह सकती और इसलिए ऐसा मार्ग अपनाती है। परंतु इस आकर्षित करने वाले मार्ग में भी निरर्थकता है क्योंकि उसका अस्तित्व पुरुष के लिए अधिक मायने नहीं रखता। अतः दोनों ही स्थितियाँ महिलाओं के लिए दुष्कर हैं और आधुनिक पश्चिमी (और भारतीय भी) नारियाँ इन्हीं में जकड़ कर रह गई हैं
दूसरा भाग कल

June 08, 2008

बगावत का उदघोष

आज रविवार सुबह का अखबार पढ के मन प्रसन्न हो गया.पूछिये क्यूं? एक बार फ़िर ग्रामीण तबके की लडकी ने बगावत कर के दिखा दिया है कि नारी जाति अब कायरता और मजबूरी का चोला उतारने को तत्पर हो रही है.जैसलमेर के पास पोखरण जिले के एक छोटे से गांव सेढाना की एक १३ वर्षीया बच्ची ने बाल विवाह के खिलाफ़ कदम उठाया है.१३ साल की आसुकंवर का विवाह उसके पिता ने पिछले साल ४० वर्ष के सवाई सिंह के साथ तय कर दिया था.इस के लिये आसु कंवर के पिता ने अधेड सवाई सिंह से ४९,००० हज़ार रुपये नकद और एक सोने की चेन लेना तय किया था.रुपये लडकी का पिता पहले ही ले चुका था और विवाह पर चेन लेना बाकी था.किसी भी प्रकार से आसु कंवर पिता और समाज के दबाव में नही आयी, साथ ही उसने अपनी मां को भी अपने पक्ष में ले लिया.जब वे पुलिस की मदद लेने पहुंची तो पुलिस भी इस मामले में पडने से मुकर गई.पंचायत ने भी लडकी को हुक्म दिया कि उसे पिता के वादे को निभाना ही होगा.गांव वालों ने माता-पुत्री दोनों का घेराव कर के उन पर हर प्रकार का दबाव डाला किन्तु वो दोनों ही नही झुकी.ऐसे में उनकी मदद को आगे आई एक महिला, इन्दु चोपडा, जो वहीं एक नारी उत्थान केन्द्र में कार्यरत हैं.इन्दु चोपडा के दखल से पुलिस ने आसुकंवर और उसकी मां के लिये संरक्षण की व्यवस्था की और गांव वालों को सख्त हिदायत दी कि वो इस मामले से दूर ही रहें.
यदि नारी,नारी का साथ दे तो समाज का कोई भी तबका उसे पीडित नहीं कर सकता.
शहरों की लडकियों को आसु कंवर से सीखना चाहिये कि वो अवान्छित दबाव में ना आयें और अपनी ज़िन्दगी की राह का निर्धारण स्वयं करें. लडकी कोई पशु या वस्तु नही जिसे चन्द रुपयों के लिये खरीदा बेचा जाये.यह हकीकत समाज में एक नयी जागरूकता की ओर इंगित करती है.नारी वर्ग जाग रहा है,अभी तो हमें ऐसी कई आसुकंवर का इन्तज़ार है.अभी तो बगावत का उदघोष हुआ है, आगे आगे देखिये होता है क्या?

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