" जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की " "The Indian Woman Has Arrived " एक कोशिश नारी को "जगाने की " , एक आवाहन कि नारी और नर को समान अधिकार हैं और लिंगभेद / जेंडर के आधार पर किया हुआ अधिकारों का बंटवारा गलत हैं और अब गैर कानूनी और असंवैधानिक भी . बंटवारा केवल क्षमता आधारित सही होता है
हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।
15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं
15th august 2012
१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं
"नारी" ब्लॉग
" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "
September 30, 2008
ये भेद-भाव मिट सकता है अगर...
क्या आपको नहीं लगता कि जब हमारे आस-पास इतनी तेजी से बदलाव हो रहे हैं, हर रोज कुछ न कुछ नया आ रहा है, तो क्या इस रिश्ते में एक नया बदलाव नहीं आना चाहिए? जब हम इस सच से इंकार नहीं कर सकते कि स्त्री-पुरुष एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं, फिर एक-दूसरे को मजबूत आधार देने में हमें परेशानी क्यों होती है! ऐसा मत समझिए कि अड़ियल केवल पुरुष ही होते हैं, अड़ियल स्त्रियां भी होती हैं।
अगर हम यह सोचती हैं कि हम पुरुषों को कोसकर स्वयं को बहुत बड़ी क्रांतिकारी महिला सिद्ध कर लेंगी, तो मेरे विचार से यह सोच बेमानी ही है। दूसरी तरफ पुरुष अगर यह सोचते हैं कि वो हर स्तर पर स्त्री को दबाकर ही रखेंगे, तो यह उनकी खुशफहमी भर है। दोनों की अपनी-अपनी जिद्द है। लेकिन इस जिद्द का अगर हम सही जगह और सही अर्थों में उपयोग कर सकें, तो शायद ज्यादा बेहतर होगा।
मैंने तो स्त्री-विमर्श भी काफी पढ़ और जानकर देख लिया, मगर वहां मुझे सिर्फ पुरुषों के खिलाफ विष-वमन ही दिखाई पड़ा, कहीं कोई सार्थक बात पढ़ने-समझने को नहीं मिली। स्त्री-विमर्श में स्त्री-पुरुष के बीच समानता की बात कहीं नहीं कही गई है। अगर स्त्री-पुरुष को वैचारिक, सामाजिक, पारिवारिक और आर्थिक विकास करना है, तो एक-दूसरे को समझ कर चलना ही पड़ेगा। हम उन्हें कोसें, वो हमें कोसें, यह कोसा-कासी किसी भी समस्या का हल नहीं निकाल पाएगी। रास्ते तमाम निकल सकते हैं, पर उसके लिए स्त्री-पुरुष दोनों को ही अपने-अपने अहमों का त्याग करना होगा। पुरुष के पास उसका वर्चस्व है, जिससे वो महिला को दबाकर रखना चाहता है। साथ ही, स्त्री को भी पुरुष के प्रति अपनी एकरूपी अवधारणाओं को बदलना होगा।
मैं यह मानती हूं कि हर पुरुष एक जैसा नहीं होता। हर स्त्री भी एक जैसी नहीं होती। अगर दोनों ही अपनी-अपनी खामियों-खराबियों पर थोड़ा-थोड़ा पुर्नविचार कर लें, तो ये भेद-भाव निश्चित ही मिट सकता है।
विवेचन : महिलाएं, मातृत्व अवकाश और पक्षपात
अंजलि सिन्हा
हाल ही में केन्द्र सरकार ने घोषणा की है कि सरकारी महिला कर्मचारी, जो मां हैं या बनने वाली हंै उन्हें मातृत्वकाल के लिये विशेष छूट मिलेगी। इसके तहत सरकार ने व्यवस्था दी है कि महिला कर्मचारियों को अब 135 दिन की जगह 180 दिन का मातृत्व अवकाश मिलेगा। इसके अलावा अपनी नौकरी के दौरान वे दो साल (730 दिन) की छुट्टी ले सकेंगी। यह छुट्टी बच्चे के 18 साल के होने तक वे कभी भी ले सकती हंै। यानी कि बच्चे की बीमारी या पढ़ाई आदि में, जैसी जरूरत हो। कहा गया है कि घरेलू जिम्मेदारियों के कारण महिलाएं नौकरियां छोड़ देती है, उन्हें नौकरी में बनाये रखने के लिये यह कदम उठाया जा रहा है। छठे वेतन आयोग की सिफारिशों में भी कहा गया था कि मातृत्व अवकाश 6 माह या अधिक दिया जाय।
मीडिया के एक हिस्से में इस घोषणा का स्वागत हुआ है और कहा गया है कि यह घोषणा महिलाओं के प्रति बहुत उदार तथा उनकी पक्षधर है। निश्चित ही इस सिफारिश में महिलाओं के लिये विशेष प्रावधान रखा गया है। लेकिन दूरगामी रूप से महिला समुदायों पर इस सिफारिश क्या प्रभाव पड़ेगा, यह समझना होगा तथा इस पक्षधरता के पीछे की सोच और मानसिकता की पड़ताल करनी पड़ेगी।
सर्वप्रथम यह सरकारी कर्मचारियों के लिये है और सरकारी नौकरियों में महिलाओं का प्रतिशत अभी भी हाशिये पर है। प्राइवेट सेक्टर में कार्यरत महिला कर्मचारियों को तो अधिकांश जगहों में प्रसूतिकाल के दौरान तीन महीने की छुट्टी भी नहीं मिलती है। ऐसी नौबत आने पर वे नौकरी से ही छुट्टी दे देते हंै। समूचे रोजगार का 92 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में है और इसी क्षेत्र में महिलाएं अधिक हंै। कहने के लिये इस क्षेत्र के लिये कानून हंै किन्तु कानून का उल्लंघन सब करते है और कोई सजा नहीं होती है।
इस बात पर बहस होनी चाहिये कि बच्चे से संबंधित कौन-कौन सी जरूरतें ऐसी हंै जिसे सिर्फ मां पूरा कर सकती है। बच्चे को जन्म देना तथा उसे स्तनपान कराना, यह काम निश्चित तौर पर सिर्फ मां करेंगी। लेकिन शेष जिम्मेदारी भी सिर्फ वही निभायेंगी ऐसा हमारी सरकार ने क्यों मान लिया? किसी भी बच्चे का पिता उसे खाना खिलाना, ऊपर का दूध पिलाना, साफ-सफाई करना या बीमारी में देखभाल, पढ़ाई या इम्तेहान की जिम्मेदारी क्या नहीं निभा सकता? यह सब पूरा करने के लिये पितृत्व अवकाश क्यों नहीं बढ़ाया जाना चाहिये जो अभी केवल 15 दिन का है?
दरअसल हमारे पुरूषप्रधान समाज की सामाजिक सोच का ही प्रतिबिम्ब इसमें दिखता है, जिसमें घर-गृहस्थी, बच्चा औरत के जिम्मे है और बाहर का काम पुरूष के जिम्मे। जो औरत 730 दिन तक अपने कार्यालय या कार्यक्षेत्र से बाहर रहेगी वह क्या ज्यादा सक्षम और सशक्त बन पायेगी या उसकी क्षमता, जानकारी, आत्मविश्वास पर भी कुछ असर होगा? कुल मिलाकर स्त्री के पक्ष में दिखनेवाली यह सिफारिश औरत को घर तक समेटने, उसे घर के आकर्षण में घेरे रखने तक नजर आती है।
यहां प्राकृतिक कारण, सामााजिक निर्णय का बहाना मात्र है। जब कोई मेडिकल सुविधा नहीं थी तब भी औरत जचगी के कुछ दिनों बाद काम पर लग जाती थी। यह जरूर है कि तब माहौल में फर्क था, इतना अलगाव नहीं था किन्तु अब सुविधाएं तो मौजूद हैं। यह घिसे-पिटे/स्टीरियोटाइप नजरिये का नतीजा है कि बच्चे के पालन–पोषण की जिम्मेदारी सिर्फ औरत पर डाली जाय तथा उसे अपनी नौकरी पर काम करने के अवसर वे वंचित किया जाय। कोई यह भी मान सकता है कि जो औरत छुट्टी न लेना चाहे तो वह नहीं लेगी लेकिन इससे आखिर बढ़ावा किस प्रवृत्ति को मिलने वाला है ? सरकार को अपनी तरफ से घरेलू काम की इन जिम्मेदारियों के लिये पुरूषों को भी प्रेरित करना चाहिये।
हमें समझना होगा कि हमारे देश में महिलाओं ने घर के बाहर सार्वजनिक दायरे में कदम रखने के लिए बहुत प्रतिरोध झेले हंै। घर के भीतर का उत्पीड़न, रोक–टोक, उपेक्षा के साथ बाहर का असहयोग, असुरक्षा की चुनौती उन्होंने स्वीकार की है। यदि बाहर प्रशासन के स्तर पर असहयोग न होता तो काम की कई जगहों पर महिला शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए भी औरतों को वंचित क्यों रखा जाता ? क्यों नहीं बराबर से उनका निर्माण हुआ ? पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था करने की जिम्मेदारी न लेकर असुरक्षा का भय दिखाया गया है कि घर ही उनके लिए सुरक्षित जगह है। पिछले साल तक फैक्टरी एक्ट का वही प्रावधान लागू रहा जिसमें औरत को रात की पाली में काम करवाना गैरकानूनी था। यह सही है कि बाहर असुरक्षित माहौल है किन्तु यह कैसा विधान है जिसमें पीड़ित को ही उपजीविका के लिए काम करने पर पाबन्दी हो? और इस तरह वह पीड़ित ही दण्डित हो ? माहौल को सुरक्षित होने की गारण्टी करना सम्बन्धित फैक्टरी मालिक, सरकार तथा प्रशासन की तथा पूरे समाज की जिम्मेदारी बनती है।
काम का अवसर मिलना हर व्यक्ति का महत्वपूर्ण अधिकार है क्योंकि वह व्यक्ति को अपने भरोसे गरिमामय जीवन जीने की परिस्थिति तैयार करता है। कहा जाता है कि हर हाथ को काम चाहिए यानी ऐसा काम जिसके बदले व्यक्ति को पारिश्रमिक मिले, जिसके द्वारा वह अपनी दूसरी जरूरतें पूरी कर सके। वह हाथ औरत के पास भी होता है और उसे भी अपने परिश्रम का पारिश्रमिक चाहिए। सहानुभूति और दान खाते के पारिश्रमिक का वह मूल्य नहीं होगा जो उसके अपने पसीने का मूल्य होगा। वह भी अपने कार्यस्थल की एक कर्मचारी हो और एक व्यक्ति की तरह अपनी क्षमता और दक्षता साबित करने का अवसर उसे मुहैया कराना चाहिए। तभी वह सही मायने में, क्षमता-सम्पन्न आत्मविश्वास से परिपूर्ण व्यक्ति की पहचान हासिल कर सकेगी।
निजी और सार्वजनिक दायरे का गैर–बराबरीपूर्ण बंटवारा बराबरीपूर्ण समाज का सृजन कैसे करेगा? निजी दायरा जहां व्यक्ति की एक जरूरत पूरा करता है वहीं सार्वजनिक दायरा व्यक्ति की दूसरी जरूरत पूरी करता है। घर के सुकून के साथ बाहर की दुनिया इंसानों के ज्ञानफलक को विस्तारित करती है। खुद को अलग प्रकार से साबित करने का अवसर देती है। इसीलिए सभी को दोनों अवसर मिलने चाहिये। नयी सिफारिशें ऐसा माहौल तैयार करेंगी जो दूरगामी तौर पर औरत के पक्ष में नहीं होंगी। वह सार्वजनिक दायरे में अधिक से अधिक औरत की उपस्थिति के बजाय निजी दायरे की उपस्थिति सुनिश्चित करेगा। वह औरत को अधिक अवसर देने के बजाय उसे बांधने के काम में सहयोग देगा।
कल को घर का पुरूष सदस्य यह कह सकेगा कि तुम्हें सरकार से इसीलिए छूट मिली है कि घर में रहकर अपनी जिम्मेदारी निभाआ॓। इसी समझ के कारण परिवार कल्याण मंत्रालय ने पिताओं के लिए कभी क्रैश/पालनाघर की सुविधा की बात नहीं सोची न ही पिताओं ने अपने लिए ऐसी सुविधा की मांग सरकार से की। दूसरी समस्या यह आयेगी कि प्राइवेट नियोक्ता यह सोचेगा या सोेचेगी कि यदि औरत को फलां समय तक बैठ बिठाये वेतन देना है तो उसे नियुक्त ही क्यों करे ?
( लेखिका अंजलि सिन्हा ‘स्त्री अधिकार संगठन’ से सम्बद्ध हैं)
September 29, 2008
कब तक हम ओछी मानसिकता का सेहरा बाजारवाद के सर पर पहनाते रहेगे ।
"अतः जरूरी है की बाजारवाद के इस बढ़ते प्रभाव जिसमे आंतरिक गुणों की जगह बाह्य सुन्दरता जैसे गुणों को तरजीह दी जा रही है उसे हतोत्साहित किया जाना चाहिए । और योग्य और गुणवान लोगों को प्रोत्साहित कर एक स्वस्थ्य समाज के विकास की कामना की जानी चाहिए । " आज एक ब्लॉग पर ये पढ़ते हुए मन किया की पूछू आप सब से की ऊपर दिये गए चित्रों से जो दिख रहा हैं वो क्या हैं ? कब तक हम ओछी मानसिकता का सेहरा बाजारवाद के सर पर पहनाते रहेगे ।
September 28, 2008
मथुरा हमारा अतीत है, भविष्य नहीं
पिछले दिनों एक ऐसी घटना हुई, जिसने तीस साल पुरानी याद ताजा कर दी। हुआ यह कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने बलात्कार के एक मामले में यह नतीजा निकाला कि पीड़ित महिला का चरित्र संदिग्ध है। इसी आधार पर इस केस के दोनों आरोपियों को बरी कर दिया गया। अपील में यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया। देश की सबसे बड़ी अदालत ने सख्त रुख अपनाते हुए कहा कि हाई कोर्ट ने संवेदनशीलता के साथ काम नहीं किया है। जस्टिस अरिजित पसायत और जस्टिस एम. शर्मा की बेंच ने कहा कि यह बात तीस साल पहले ही साफ कर दी गई है कि बलात्कार के मामले में चरित्र का हवाला नहीं दिया जा सकता। बेंच ने तमाम सबूतों को देखते हुए आरोपियों को कसूरवार करार दिया।
बेंच ने कहा कि अगर महिला अक्सर यौन संबंध बनाती रही हो, तो भी फैसले का आधार यह नहीं हो सकता। फैसला इस आधार पर होना चाहिए कि महिला जिस समय बलात्कार की शिकायत कर रही है उस समय बलात्कार हुआ या नहीं। महिला के व्यक्तिगत चरित्र के आधार पर किसी व्यक्ति को बलात्कार करने की छूट नहीं दी जा सकती।
वैसे यौन अत्याचार के मामले में स्त्री के चरित्र को मुद्दा बनाना हमारे समाज की प्राचीन परंपरा में शामिल है। कई अदालतों ने पीड़िता की कथित बदचलनी को आरोपियों के पक्ष में बड़ा तर्क माना है। यह समझा जाता है कि अगर औरत चरित्रहीन है, तो उसे बलात्कार की शिकायत करने का हक नहीं रह जाता। आज से तीस साल पहले 1978 में ऐसा ही कुछ हुआ था, जिसे मथुरा बलात्कार कांड के नाम से जाना गया। मुंबई के नजदीक ठाणे की आदिवासी युवती मथुरा के साथ थाने में हुए बलात्कार की घटना में सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आया, वह काफी उद्वेलित करने वाला था। इस फैसले में अदालत ने आरोपी पुलिसकर्मियों को सन्देह का लाभ देते हुए बरी किया था और इसकी वजह यह बताई थी कि मथुरा के पहले से ही शारीरिक संबंध रहे हैं और इस घटना में उसकी तरफ से प्रतिरोध के निशान नहीं मिलते।
लोगों को याद होगा कि इस फैसले के खिलाफ देश के अग्रणी वकीलों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने एक खुला पत्र जारी कर अपनी घोर असहमति प्रगट की थी। यह बात अब इतिहास हो चुकी है कि देश भर से उठी प्रतिक्रिया और लम्बे अभियानों के बाद 1983 में बलात्कार विरोधी अधिनियम में सुधार किया गया। तब से लगातार यह बात किसी न किसी रूप में चर्चा में रही है कि सुनवाई घटित घटना के आधार पर हो, न कि किसी के चरित्र के व्यक्तिगत लेखेजोखे के आधार पर। बावजूद इसके हमेशा यह बात किसी न किसी रूप में सामने आती है कि 'वह' इतनी रात बाहर क्यों गई? अकेले क्यों गई? क्या वह आरोपियों को पहले से जानती थी? इसी तरह छेड़खानी जैसे मामलों में कहा जाता है हैं कि वह भड़काऊ ड्रेस क्यों पहनती है या अपने हावभाव से लड़कों को उकसाती है।
ये तमाम प्रसंग इसी बात को रेखांकित करते हैं कि हमारे सोच पर मर्दवाद हावी है। वरना खराब चरित्र या खराब कपड़े तो क्या, स्त्री निर्वस्त्र हो, तो भी उसके साथ मनमानी करने का हक किसी का नहीं बनता। पड़ताल सिर्फ इसी बात की हो सकती है कि उस खास मौके पर वह घटना आपसी सहमति से हुई या जबर्दस्ती और दबाव से। अदालत का न्याय क्षेत्र इतना ही है।
हमारे देश में बलात्कार आज भी औरत को दबाने का सबसे बड़ा हथियार बना हुआ है। बलात्कार के जो आंकड़े हर साल सामने आते हैं उनकी संख्या 12 हजार से भी ज्यादा है, लेकिन घटनाएं इससे कई गुना ज्यादा घटती हैं, क्योंकि सभी मामले थाने और कोर्ट तक नहीं पहुंचते। कुछ दर्ज ही नहीं किए जाते, कुछ शुरुआत में खारिज कर दिए जाते हैं, तो कुछ में दबाव या लालच देकर बयान बदलवा दिया जाता है। अगर देश की राजधानी की ही बात करें तो हर साल यहां पांच से छह सौ तक बलात्कार के मामले दर्ज होते हैं। देश भर में यह आंकड़ा 12 हजार तक पहुंच जाता है। सन 2002 में एक सर्वेक्षण के आधार पर खुलासा किया गया था कि हर 35 मिनट में एक औरत बलात्कार की शिकार होती है।
हाल ही में एक जिला अदालत ने सामूहिक दुष्कर्म के तीन आरोपियों को बाइज्जत बरी किया। बात यह नहीं थी कि तीनों आरोपी निर्दोष साबित हो गए थे, बल्कि पीड़िता के बयान में फर्क बता कर उन्हें बरी किया गया था। बताया गया कि सेशन कोर्ट में दिए बयान और मैजिस्ट्रेट के सामने दिए बयान में फर्क था। गौरतलब है कि इस मामले में पुलिस द्वारा कराई गई मेडिकल जांच में बलात्कार की पुष्टि हो चुकी थी। पुलिस ने अदालत को यह भी बताया था कि बलात्कार के बाद इस किशोरी ने छत से कूद कर आत्महत्या की कोशिश की थी। अभी कुछ समय पहले हाई कोर्ट का फैसला आया था कि बलात्कार के मामले में पीड़िता की गवाही ही काफी है, किसी अन्य सबूत की जरूरत नहीं। एक तरफ हाई कोर्ट जहां बलात्कार के मामले में जुर्म तय करने के लिए ज्यादा उदार पैमाने की हिमायत करता दिखता है, वहीं बयान में फर्क जैसे आधार पर निचली अदालत का फैसला एक गहरी विडंबना पैदा करता है।
बलात्कार की घटनाओं का जो कुछ विश्लेषण किया गया है, उसमें साफ तौर पर यह बात सामने आई है कि हमारे समाज में यह सिर्फ मानसिक विकृति या मौज-मजे का मामला नहीं है। हमारे मर्दवादी समाज में औरत को सबक सिखाने के लिए या पारिवारिक, जातीय और धार्मिक मामलों में सत्ता व शक्ति प्रदर्शन के लिए भी बलात्कार किए जाते हैं। ऐसे हाल में यह और भी जरूरी है कि औरत की सुरक्षा तथा समाज के हिंसामुक्त रहने के हक को सुनिश्चित करने के लिए पीड़िता थाने और कोर्ट तक पहुंचने की हिम्मत जुटा सके। उसे इंसाफ की भी उम्मीद हो। केस ठीक से चलें और तकनीकी आधार पर मामले को उलझा कर या पीड़िता के चरित्र पर लांछन लगा कर केस खारिज होने की कोई भी घटना न हो। कम से कम हम यह तय करें कि मथुरा हमारा इतिहास है, भविष्य नहीं!
( लेखिका अंजलि सिन्हा स्त्री अधिकार संगठन से जुड़ी हैं)
September 27, 2008
कम्युनिकेशन या दो तरफा बातचीत
नारियां बिना भावनात्मक हुए और बिना पर्सनल हुए क्यों बहस या डिस्कशन नहीं कर पाती है ?
किसी भी बहस को करने का अन्तिम उदेश्य क्या होना चाहिये ?
कम्युनिकेशन या दो तरफा बातचीत मे नारी क्यों वक्ता कम और श्रोता ज्यादा रहती है ?
क्यों न स्त्री-शिक्षा को हम मिशन बना लें
सबसे पहले तो हमें औरत के बीच से जाति, धर्म और वर्ग की संकीर्णताओं को समाप्त करना होगा। ये सब औरत को न केवल कमजोर बल्कि यथास्थितिवादी भी बनाती हैं। हमें इस धारणा को जड़ से खत्म करना होगा कि धर्म, जाति और वर्ग के हित औरत के हित से पहले हैं। इन संकीर्णताओं के बीच औरत अपने हितों को दरकिनार कर देती है। क्योंकि अंधा समाज उससे यह सब करने और मानने के लिए कहता है। कहता ही नहीं, बल्कि दबाव भी बनाता है। औरत को अब दबाव में रहने और जीने की आदत को त्यागना होगा। क्योंकि इस दवाब में न कोई सुख है, न ही प्रगति।
ये संकीर्णताएं तभी मिट सकती हैं, जब हम प्रत्येक नारी को शिक्षित करने-बनाने का संकल्प लेंगे। पुरुषों के मुकाबले महिलाओं का शैक्षिक स्तर अब भी नीचे है। शहरों की बात छोड़ अगर गांव-कस्बों का रूख करें, तो नारी-शिक्षा की स्थिति अब भी शोचनीय है। पुरानी धारणाओं पर चलने वाले परिवार आज भी लड़कियों को स्कूल भेजने में कतराते हैं। उनकी मान्यता है कि लड़की ज्यादा पढ़ लिखकर क्या करेगी क्योंकि आगे चलकर करना उसे चौका-बर्तन ही है। हमें प्रयास यही करना है कि हम लड़कियों-महिलाओं को चौका-बर्तन से बाहर निकालकर एक नई दुनिया में लेकर जाएं, जहां शिक्षा और ज्ञान का विस्तार हो। शिक्षा और ज्ञान का विस्तार-संचार ही उन्हें सही दिशा की ओर ले जा सकेगा। इससे सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि समाज और परिवारों की तमाम रूढ़ स्थापनाएं ध्वस्त होंगी। बेटा-बेटी का फर्क मिटेगा। उसे जाति, धर्म और वर्ग के बंधनों से मुक्ति मिलेगी।
मुझे तो अक्सर परदों में दबी-छिपी मुस्लिम औरतों को देखकर रंज होता है। आखिर वो कैसे परदे के बोझ को जड़ा-गर्मी-बरसात में अपने चेहरे पर ढोए रहती होंगी? क्या मुस्लिम औरत का चेहरा इतना अपवित्र होता है कि उसे परदे के पीछे अपने चेहर को छिपाना पड़ता है? अगर पुरुष या समाज को उसका चेहरा दिख गया तो कयामत आ जाएगी, यह भी कोई बात हुई भला! ऐसा कर हम औरत को पुरुष-वर्चस्व के बंधनों में बांध रहे हैं। अगर ऐसा ही है, तो पुरुष अपने चेहरे को किन्हीं परदों के पीछे क्यों नहीं छिपाते? ऐसे धार्मिक बंधन औरतों पर ही क्यों और किसलिए?
मुस्लिम समाज में भी शिक्षा का बेहद अभाव है। खासकर महिलाओं में तो बहुत ही ज्यादा। औरतों के प्रति जो धार्मिक रुणताएं हमारे यहां हैं, वही उनके यहां भी हैं। दरअसल, यही रुणताएं हर औरत की प्रगति और स्थिति में बाधा की परिचायक हैं। औरत को शिक्षित हो-बनकर इन (कु)व्यवस्थाओं को तोड़ना और खारिज करना होगा। औरत को सिर्फ दीनी शिक्षा की नहीं, वैज्ञानिक और वैचारिक शिक्षा की जरूरत है। सदियां गुजर गईं औरत को दीन-दुनिया की गुलामी को सहते-सहते, अब इस २१वीं सदी में इस सब को खारिज करने की जरूरत है। जब सदी बदल रही है, तो फिर हम क्यों न बदलें! समाज और परिवारों में बेटा-बेटी का फर्क भी दरअसल अशिक्षा के कारण ही है। यह भेद स्वतः ही मिट जाएगा, जब हम प्रगतिशील और शिक्षित समाज हो-बनकर उभरेंगे।
मैं जानती हूं, आज भी हम महिलाओं के समक्ष एक नहीं हजारों चुनौतियां हैं। लेकिन हमें विश्वास है कि हम उन सब पर पार पा जाएंगी, क्योंकि हम अबला नहीं, एक 'सबल शक्ति' हैं। कल्पना कीजिए, उस समय की, जब हमारे देश-समाज की हर स्त्री शिक्षित होगी, तमाम बंधनों को तोड़ चुकी होगी, अपनी एक अलग पहचान बना चुकी होगी शायद तभी हम गर्व के साथ कह-बोल सकेंगे कि देखो, नए दौर और नई सदी की स्त्री जा रही है। मगर, यह सब संभव तभी हो सकेगा, जब हम अपने आस-पास हर लड़की, हर महिला को शिक्षित करने का फैसला लेंगे। तो बताएं, इस मिशन में कितनी महिलाएं (कितने पुरुष भी) हमारे साथ हैं।
September 25, 2008
“ विवाह सार्वजनिक जीवन से निर्वासन न बने तो स्त्री इतनी दयनीय न रहेगी ” भाग २
“ विवाह सार्वजनिक जीवन से निर्वासन न बने तो स्त्री इतनी दयनीय न रहेगी ” --- –महादेवी वर्मा सुप्रणीति वरेण्या
वर्ग की नारियों को महादेवी तीन वर्गों में बाँटती हैं : पहली वे, जिन्होंने राजनैतिक आंदोलनों को बढ़ाने के लिए पुरुषों की सहायता की, दूसरी वे, जो समाज की त्रुटियों का समाधान न पाकर अपनी शिक्षा व जागृति को ही आजीविका का साधन बना लेती हैं और तीसरी वे सम्पन्न महिलाएँ जो थोड़ी- सी शिक्षा के रहते पाश्चात्य शैली की सहायता से अपने गृहजीवन को नवीन रंग देती हैं।आधुनिक महिलाओं को प्राचीन विचारों में जकड़ा पुरुष अवहेलना की दृष्टि से देखता है और जो आधुनिक सोच रखते हैं, वे भी समर्थन करके कोई क्रियात्मक सहायता नहीं करते और उग्र विचारधारा रखने वाले प्रोत्साहन देकर भी उन्हें अपने साथ ले चलने में झिझकते हैं।
महादेवी के अनुसार आधुनिक नारी जितनी अकेली है, उतनी प्राचीन नारी नहीं, क्योंकि “उसके पास निर्माण के उपकरण-मात्र हैं, कुछ भी निर्मित नहीं।“जिन महिलाओं ने राष्ट्रीय आंदोलनों में भाग लिया, बलिदान – त्याग किए, जागृति की ओर बढ़ीं, उन्हें स्त्री के दुर्बल प्रतीत होते रूप को किसी सीमा तक समाप्त करने में सफलता मिली। परंतु इन आंदोलनों में शिक्षिताओं के साथ अनेक अशिक्षिताएँ भी थीं, जिनके बौद्धिक विकास पर किसी का ध्यान ही नहीं गया। शायद यहीं जागृति फैलने से मिले मधुर फल में कड़वाहट भी आ गई क्योंकि इन आंदोलनों से उपजी कठोरता उनके बाह्यजीवन के साथ उनके गृहजीवन को भी प्रभावित करने लगी।स्त्रियों को कठोर परिस्थितियों का सामना करने के लिए कठोरता अपनानी पड़ी और इससे उनकी कोमलता नष्ट हो गई। जो स्त्रियाँ विचारशील न थीं उन्हें अपने स्त्रीत्व पर कम और संघर्ष तथा विद्रोह पर अधिक भरोसा था। संघर्ष मानव के आदिकाल से ही चला आ रहा है। इतने युगों में यदि मानव द्वारा कुछ सीखा न गया है, तो वह है जीने की कला। जिसको सीखकर एक व्यक्ति का जीवन पूर्ण है, परंतु उसके बिना केवल एक संघर्षपूर्ण जीवन अपूर्ण ही है। नाश करते संघर्ष से स्वयं को बचा, विकास के लिए संघर्ष की ओर बढ़ना ही जीने की कला है।प्रगति के दौरान विपरीत परिस्थितियों को भी अपने अनुकूल बनाना पड़ता है, किंतु सामाजिक जीवन में विविधताएँ हैं और इन्हीं के कारण महिला कभी समय-समय पर उन्हें अपने अनुकूल नहीं बना पाई। इस युग की महिला की दृष्टि भी वातावरण तथा परिस्थिति नहीं देख पा रही, जबकि मार्ग में कई बाधाएँ हैं। अपने गृह बंधनों के विरुद्ध कदम उठाती आधुनिक महिलाएँ बाहर त्याग और बलिदान के लिए प्रस्तुत थीं।
घर में उनसे त्याग की माँग भी हद पार कर गई और वे भी समझ गईं कि इस अस्वेच्छा से किए गए त्याग को कभी दान का सम्मान नहीं मिलेगा।स्त्री समाज की समस्याओं का हल निकालने की जिम्मेदारी आज की शिक्षित स्त्री पर है। स्त्री द्वारा विरोध को भावी समाज के बेहतर अस्तित्व के लिए अपना लक्ष्य बनाना और पुरुष द्वारा समझौते को अपनी पराजय समझना, दोनों ही हानिकारक हैं। नारी को क्रांति के लिए एक स्वस्थ सृजन में अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए, ध्वंस में नहीं।’घर और बाहर’ की समस्याओं और परिस्थितियों का अवलोकन करते हुए महादेवी समय के साथ बदली स्थितियों पर नज़र डालती हैं। पहले घर की दीवारों में स्त्री का बंद होना निश्वित था, आज वहाँ थोड़ा सुधार है। आज महिलाओं के लिए बाहर का कार्यक्षेत्र भी उतना ही आवश्यक बन गया है।
आज शिक्षित महिलाएँ घर और बाहर के जीवन में सामंजस्य बिठाने का प्रयत्न कर रही हैं। ऐसी शिक्षित महिला का मिलना आज दुर्लभ है जो केवल घर के कामकाज कर संतुष्ट हो। आज की युवा पीढ़ी वर्षों से चले आ रहे
रीति-रिवाज़ों पर भी प्रश्न उठाती है, तर्क और उपयोगिता के संदर्भ में सफल प्रमाणित बात पर ही विश्वास करती है। इसी तरह सदा घर में बैठकर काम करती महिला की छवि पर भी प्रश्नचिह्न लग गए हैं और शिक्षित महिलाओं ने इसे अस्वीकार कर बाह्य जगत में भी अपनी कार्य कुशलता का सुंदर परिचय दिया है। ऐसे समय में महिलाओं को इस घर-बाहर के द्वन्द्व में सामंजस्य बिठाने में समय लगेगा।घर के वातवरण में ठहराव और निश्चयता तब है जब गृहिणी की परिस्थिति समझी जाए और उसके साथ सहानुभूति रखी जाए। बाहर समाज के वातावरण में भी तभी तक सामंजस्य है जब तक स्त्री-पुरुषों के कर्तव्यों में सामंजस्य है।
वर्तमान काल में कई क्षेत्र स्त्री-सहयोग की उतनी ही अपेक्षा रखते हैं जितनी पुरुष के सहयोग की। कई ऐसे भी क्षेत्र हैं जहाँ पुरुष के सहयोग से अधिक स्त्री की स्नेहपूर्ण सहानुभूति की आवश्यकता है। उनमें से एक कार्यक्षेत्र शिक्षा का है जहाँ कितने ही बच्चों को विद्यार्जन का सुअवसर मिलता है। विद्यालयों में कठोर और निष्ठुर मास्टरों और अनुभवहीन कुमारियों के व्यवहार से बच्चों के सुकोमल मन पर जितना बुरा असर पड़ता है, वहीं एक समझदार सुलझी शिक्षित स्त्री अपने स्नेह से उनके उज्ज्वल भविष्य की नींव रख सकती है।
बच्चों की मानसिक शक्तियाँ स्त्री के मातृत्व स्नेह से अधिक परिपूर्ण होती हैं।मनुष्य को सामाजिक प्राणी होने के नाते, समय-समय पर अपने स्वार्थ को भुलाकर समाज के लाभ के बारे में भी सोचना पड़ता है। समाज के प्रति सहयोगपूर्ण दृष्टिकोण रखने का गुण बचपन में ही पैदा होता है। यदि बच्चे को अन्यों से अलग-थलग कर रखा जाए तो वह अवश्य ही आगे चलकर स्वार्थी और आत्मकेंद्रित बन जाएगा। तभी बड़े आदमियों के बच्चों में यह नैसर्गिक गुण नहीं पैदा होता। उन्होंने बचपन में दूसरे बच्चों के साथ धूल-मिट्टी, हवा का आनंद ही नहीं लिया होता, फिर उनमें वह भाव कैसे उत्पन्न हो जो सामान्य बच्चों में एक-दूसरे के लिए और भविष्य में समाज के लिए पैदा होता है।माता का स्वाभाविक स्नेह भी सीमित नहीं होना चाहिए कि वह मात्र अपनी संतान के लिए स्नेहमयी बनी रहे और दूसरी स्त्री की संतान के प्रति निष्ठुर।
किशोरावस्था में कदम रख चुकी कन्याओं की शिक्षा के लिए ऐसी अनुभवी महिलाओं की आवश्यकता होगी जो उन्हें गृहस्थ जीवन और गृहिणी के गुणों के बारे में उचित शिक्षा दे सकें। आजकल शिक्षा के क्षेत्र में अनेक ऐसी महिलाएँ उतर आयी हैं जो अपनी संस्कृति और गृह-जीवन से अनभिज्ञ हैं। फलस्वरूप विद्यार्जन करती युवतियों को अविवाहित जीवन अधिक आकर्षक लगता है (जिसका आकर्षण असली रूप में उतना सुंदर नहीं है)। वे अपने स्वच्छंदता के स्वप्न को समाप्त नहीं करना चाहतीं।
कोई भी पुस्तक उन्हें गृहस्थ जीवन के सच्चे रूप का उतना दर्शन नहीं करा सकती जितना एक महिला का जीता-जागता उदाहरण।आजकल ऐसी शिक्षित महिलाएँ कम मिलती हैं जो घर के लिए उतनी ही उपयोगी सिद्ध हों जितना वे बाहर कार्यक्षेत्र में होती हैं, लेकिन यह कथन सत्य है कि समाज ने उनकी शक्तियों को नष्ट करने की भरपूर कोशिश की है। यदि शिक्षा जैसे विभिन्न विषयों में वे कार्यरत हैं तो घर उन्हें स्वीकार नहीं करता। वे कार्य तभी कर सकती हैं जब आजीवन संतान और गृहस्थी के सुख के बारे में सोचें तक नहीं।
विवाह के बाद पुरुष की प्रतिष्ठा की दर्शिनी बनने वाली महिला अपनी इस बेढंगी छवि से आहत है, यह स्वाभाविक भी है। इसी तरह के कितने ही कारणों का परिणाम है कि आज की युवतियाँ विवाह से विरक्त हो रही हैं। आधुनिक और शिक्षित महिला अच्छी गृहिणी नहीं बन सकती, यह एक ऐसी धारणा है जो पुरुष ने स्वयं को केंद्र में रख कर बना दी है, स्त्री की कठिनाइयों पर ध्यान देकर नहीं। पुरुष के जीवन में विवाह के बाद भी कोई परिवर्तन नहीं आता, उसकी दिनचर्या, घर, मित्र सभी कुछ पूर्ववत् रहता है। किंतु इन सबके विपरीत स्त्री को अपना सब कुछ छोड़ यहाँ तक कि पैतृक निवास भी, अपने आपको पुरुष की इच्छानुसार उसकी दिनचर्या में ढालना पड़ता है।
शिक्षित स्त्री को मैत्री के लिए भी शिक्षित स्त्रियाँ कम मिलती हैं और इस तरह उनके जीवन में एक अभाव-सा रह जाता है। अच्छी गृहिणी बनने के लिए उसे कुछ नहीं करना, बस, पति की इच्छानुसार काम करना है और जब पति खाली हो तो उसे खुश रखना है, लेकिन क्या इससे उस स्त्री का अभाव पूरा किया जा सकता है?ऐसी पढ़ी-लिखी महिलाओं के अभावों को पूरा करने के लिए उन्हें बाहर भी काम करने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। इस घर-बाहर की समस्या का समाधान निकालना आवश्यक है, अन्यथा उसके मन की उथल-पुथल घर की शांति और समाज का स्वस्थ वातावरण ही नष्ट कर देगी।
स्त्रियों की उपस्थिति बाहर भी उतनी ही आवश्यक है जितनी घर में और इसलिए उन्हें एक ही सीमा में नहीं बाँधा जा सकता।शिक्षा के क्षेत्र के बाद महादेवी चिकित्सा के क्षेत्र में स्त्रियों की आवश्यकता का अवलोकन करती हैं। पुरुष यदि चिकित्सक हो तो उसकी व्यावसायिक बुद्धि ही काम करेगी, लेकिन यदि महिलाएँ इस क्षेत्र में उतरें तो रोगियों को आधे से अधिक मर्जों की दवा मिल जाएगी। उन्हें स्नेह और सहानुभूति महिलाएँ ही दे सकती हैं। कानून जैसे विषय में भी महिलाओं की स्थिति अनिवार्य ही है। यदि वे इस क्षेत्र में बढ़ें तो समाज में महिलाओं की स्थिति और आवश्यकताओं पर भी ध्यान दिया जा सकेगा। इतनी संख्या के वकीलों-बैरिस्टरों से जो संभव नहीं है, वह स्त्रियों का प्रतिनिधित्व करती चंद महिलाओं से संभव है।पुरुषों का यह कथन कि अधिक पढ़ी-लिखी महिलाओं से उन्हें विवाह करते डर लगता है, हास्यास्पद होने के साथ-साथ उनके अहम् और स्वार्थ का दर्पण है।
यदि अनपढ़ या पुरुष के कार्यक्षेत्र के विषय में जरा भी जानकारी न रखने वाली महिला उसी पढ़े-लिखे, ऊँची पदवी के पुरुष से विवाह करने में बिल्कुल नहीं हिचकिचाती तो पुरुष को क्यों डर लगता है? इसका कारण यह है कि उसे सदा भय रहता है कि भावी पत्नी मूकभाव से उसका अनुसरण नहीं करेगी, शिक्षित और आवश्यक जानकारी रखती महिला उसके आचरण पर प्रश्न उठा सकती है। तभी पुरुषों का मन उस कल्पना से ही सिहरता है और उनका अहम् डरता है।बालकों की प्रगति में संलग्न संस्थाएँ चलाने, स्त्री संगठन बनाने और स्त्रियों को स्थतियों से परिचित कराने के कार्य का भार आज स्त्री के ऊपर है और निश्चय ही केवल वही इन्हें सुचारु रूप से पूरा कर सकती है। जब बाहर इतने आवश्यक कार्यभार उसकी प्रतीक्षा कर रहे हों तब उससे घर में बैठे रहने की अपेक्षा करना मूर्खता है। यह एक और मूर्खता है कि यह आशा रखी जाए कि बाहर काम करती स्त्री घर से सन्यास ले ले।
उन्हें घर-बाहर दोनों स्थानों पर कार्य करने की स्वतंत्रता मिलनी चाहिए।इस सोच को कि संतान पालन के लिए स्त्री का घर होना आवश्यक है, महादेवी एक भ्रांति सिद्ध करते हुए बताती हैं कि कार्यरत महिलाओं की संतान घर बैठी महिलाओं की संतान से अधिक प्रखर हैं और साथ में कामकाजी महिलाएँ शाम को घर लौट कर संतान को गोद में ले खेलती हैं, वहीं यह गुण थके माँदे घर लौटे एक पुरुष में नहीं देखा जाता। मूलरूप में यदि “विवाह सार्वजनिक जीवन से निर्वासन न बने तो निश्चय ही स्त्री इतनी दयनीय न रह सकेगी।“साहित्य एक ऐसा क्षेत्र है जहाँ स्त्री घर बैठे ही उन्नति कर सकती है। यह बहुत चकित कर सकता है कि जहाँ पुरुषों के कमरे पुस्तकों से भरे होते हैं, वहाँ महिला की अपनी दस पुस्तकें भी नहीं होतीं। संभवतः इसलिए कि उन्हें पुस्तकों के लिए उचित नहीं माना जाता, फिर यह भी कि घर के कामकाज में जुटी औरत की रुचि कभी इस ओर बढ़ी ही नहीं। साहित्य जैसे क्षेत्र में घर बैठे स्त्रियाँ बालकों के लिए भी बहुत कुछ कर सकती हैं। बाल-साहित्य में उनके हाथ अनुभवी प्रमाणित हो सकते हैं, क्योंकि बच्चों के मनोविज्ञान को एक माता के अलावा शायद ही कोई ठीक से समझ पाए।इन क्षेत्रों में स्त्रियों को कुछ करने देने के लिए पुरुषों को उदार होना पड़ेगा, क्योंकि इनमें स्त्रियों की आवश्यकता जब-तब पड़ती रहेगी और कदाचित् स्त्री को भी पुरुष के समान सामाजिक कोण और आयाम स्थापित करने का पूरा अधिकार है।भारत में नारी की स्थिति ने दयनीय रूप ले लिया है। यह एक ऐसा अजीब देश है, जहाँ इस क्षेत्र में दूसरे देशों की तरह प्रगति नहीं पतन हुआ है। आज दूसरे देशों में नारियों ने पुरानी रीतियों को तोड़ कर एक स्वतंत्र जीवन शुरू किया है, जबकि भारत में वही स्थिति बरकरार है। घर के लोग पुत्री के विवाह की चिंता उसके जन्म से ही करने लगते हैं, उसके विवाह के समय बड़ी से बड़ी रकम देते हैं।
यह समस्या भारत में इसलिए है क्योंकि यहाँ के लोगों को महिला की आजीविका का इससे सरल उपाय नहीं मिलता। यदि विवाह के बाद स्त्री स्वावलंबी बन कर रहे तो विवाह जीवन का सुंदर पड़ाव बन जाए। वैदिक काल की चर्चा करते हुए महादेवी बताती हैं कि उस काल में आर्य-पुरुष ईश्वर से उत्तम संतान की कामना करते थे और स्त्री उस समाज का एक बहुत सम्मानित और महत्वपूर्ण अंग थी। हर स्त्री इतनी आदरणीय थी कि उँचे से ऊँचे कुल के पुरुष किसी भी वर्ण या कुल की स्त्री को पत्नी स्वीकार कर सकते थे। समय के साथ नीचे कुल की कन्याओं से विवाह के पश्चात् उनके परिवार से कुल में अंतर होने के कारण, दूरी बनाने के लिए यह विधान उभरने लगा की माता-पिता पुत्री के विवाह के बाद दामाद के घर जाना उचित न समझें। आज उसी का रूप हम एक विकृत प्रथा में देखते हैं, जहाँ “बेटी के घर का पानी” तक नहीं पिया जाता।आज दूसरे देशों में स्त्री-पुरुष दोनों ही जीवन-साथी चुनने में पूरी तरह से स्वतंत्र हैं।
भारत में भी प्राचीनकाल में ऐसी ही व्यवस्था थी, जब नारी को अपनी इच्छा से ब्रह्मचारिणी का जीवन चुनने का अधिकार था और एक राजकन्या भी एक ऋषि का वरण कर सकती थी। यूरोप के देशों में कुछ वर्ष पहले तक स्त्री एक पशु के समान थीं, परंतु क्रांतियाँ उलट-फेर करने में सक्षम हैं और वही हुआ। लेकिन भारत के सामान्य पुरुष की सोच आज भी यही है कि आँगन में बँधे पशु और घर की स्त्री में कोई अंतर नहीं है और इसलिए स्त्री के मन और शरीर पर उसका पूरा अधिकार है।कुछ लोगों का मानना है कि स्त्री स्वावलंबी बनने पर विवाह नहीं करेगी और इस तरह दुराचार बढ़ जाएगा।
यदि यही सत्य है तो जिन देशों में स्त्रियाँ स्वतंत्र और स्वावलंबी हैं, वहाँ तो विवाह जैसी संस्था का नामोनिशान ही मिट जाना चाहिए था! हमारे यहाँ तो कन्या की शिक्षा के लिए खर्च करना घरवालों से सहन नहीं होता। स्त्री पुरुष के अधिकार से बाहर न चली जाए इसलिए उसके लिए एक ही विद्या प्राप्त करना उपयुक्त है – मनोरंजन विद्या। कभी भारतीय पत्नी अपने देश के लिए गौरव का कारण थी, आज वह एक विडंबनामात्र है।आरंभ से ही नारी ने शारीरिक बल (पशुबल) में अपने को पुरुष से हेय पाया और साथ ही पुरुष की बाहरी कठोरता के अंदर छिपी कोमल भावनाओं को भी उसने ढूँढ लिया। इस खोज के बाद से नारी ने पुरुष के समक्ष अपने बल या विद्या के प्रदर्शन का विचार छोड़ दिया, क्योंकि इससे तो प्रतिद्वन्द्विता उपजती और वैसी स्थिति में केवल हार-जीत संभव है, आत्मसमर्पण नहीं।
इसलिए उसने अपने स्त्रीत्व और रूप के बल पर पुरुष को चुनौती दी और इसमें नारी की जीत हुई। उसकी यह जीत लगातार चलती रही; क्योंकि उसके पास वह था जो पुरुष के जीवन में कोमलता और सरसता भर सकता था। परंतु प्रेयसी होने के साथ-साथ नारी का कर्तव्य और भी बढ़ गया, क्योंकि उस पर मातृत्व का भी भार आ गया। एक स्नेहिल मातृत्व का कर्तव्य निभाते-निभाते वह धीरे-धीरे अपने रमणीत्व को भूल गयी, क्योंकि नारीत्व के विकास के लिए संतान साध्य है और रमणीत्व साधन-मात्र है।पुरुष ने नारी के इस माता के रूप का आदर किया, अर्चना भी की, लेकिन उसे आत्मतुष्टि नहीं मिली।
उसकी इच्छा हुई कि वह आजीवन ऐसी स्त्री के साथ रहे जो सदैव प्रेयसी बनकर मनोंजन करती रहे। उसके इस असंतोष का परिणाम है कि आज बाजारों में ऐसी स्त्रियाँ मिल जाती हैं जो केवल एक रमणी की भूमिका निभा सकती हैं, दूसरे शब्दों में पुरुषों का मनोरंजन कर सकती हैं। उन स्त्रियों में मोहकता है, स्थायित्व नहीं। उनके नारीत्व का ध्येय दूसरों का मनोरंजन है। स्त्री पत्नी के रूप में पुरुष के जीवन को और सरल और सुंदर बना सकती है, परंतु मातृत्व में उत्तेजना नहीं है जबकि पुरुष उत्तेजना की कामना करते हैं, जिसे पाकर वे कुछ समय तक बेसुध हो जाएँ। अपने नारीत्व को बाजार में बेचती स्त्रियों के हृदय के मर्म को पुरुष ने कब समझा? और समझने की आवश्यकता भी उसे कब लगी? जीवन-भर इस क्रय-विक्रय में लीन स्त्री अपनी सभी कोमल भावनाओं तथा आत्मसमर्पण की इच्छाओं को कुचल कर रख देती है और अंत में भी उसे एकाकी दुःख ही मिलता है।
इन स्त्रियों को केवल भावुकता के दृष्टिकोण से न देखकर यथार्थ को समझने के लिए व्यावहारिक दृष्टिकोण से भी देखना होगा। कुछ लोगों का कहना है कि हर स्त्री – समुदाय में ऐसी स्त्रियाँ मिल जाएँगी जो मातृत्व के भार से बचकर स्वतंत्र जीवन बिताना चाहती हैं और कुछ का कहना है कि कितने ही पुरुषों को मनोरंजन करने के लिए ऐसी स्त्रियों की आवश्यकता रहेगी; परंतु यह विचारणीय है कि क्या किसी सामाजिक प्राणी को अपनी आवश्यकता के लिए दूसरे के स्वत्व को कुचलने का अधिकार है?इतने बलिदान करती और दुःख सहती ऐसी स्त्री फिर भी समाज में पतिता मानी जाती है लेकिन इन स्त्रियों में और चुपचाप पति का घर संभालने पर देवी कहलाने वाली मानवी में स्थिति के संकट के अलावा क्या अंतर है? यदि प्रेम और त्याग कर एक विवाहिता अमर बन सकती है तो एक मजबूर महिला के लिए भी यह काम असंभव नहीं। यह तो समाज है जो उसके काम में रुकावट डाल देता है। समाज ने कुष्ठ रोगियों और विक्षिप्तों के लिए भी आश्रम-चिकित्सालय बनाए, परंतु इन पतिता कही जाने वाली स्त्रियों के कल्याण के बारे में कभी नहीं सोचा। इनके मन को भी किसी के स्नेह की आवश्यकता है। दिखावटी मुसकान सजा कर शरीर के साथ अपनी आत्मा बेचती महिलाओं को खरीदने वाले इनकी हत्या नहीं कर रहे तो क्या कर रहे हैं? इतिहास साक्षी है कि इस प्रथा के चलन में गिरावट नहीं आई है, क्योंकि मदिरा से कभी प्यास नहीं बुझती।
पुरुष की इस पशुता को जैसे-जैसे भोजन मिला वह और बलशाली होकर अधिक भोजन की अपेक्षा रखने लगा। यदि कोई ऐसी स्त्री मिल भी जाए जो ऐसे व्यवसाय में अपना अपमान न मानती हो तो इसका अर्थ है कि अवश्य ही उसके जीवन में कोई ऐसी घटना घट चुकी है जो उसके हृदय के समूचे स्नेह को उड़ा ले गई, जिससे उसका हृदय जीवन के प्रति इतना निष्ठुर है। इन स्त्रियों के प्रति जो घृणा हम देखते हैं, वह बाहरी है, दिखावटी है, जब-तब समाज अपनी लालसा बुझाने के लिए इन्हीं स्त्रियों की सहायता लेता है, अपनी प्रतिष्ठा और सम्मान बचाने के लिए निंदा भी इन्हीं की करता है।
“समाज पुरुष-प्रधान है, अतः पुरुष की दुर्बलताओं का दंड उन्हें मिलता है, जिन्हें देखकर वह दुर्बल हो उठता है।“ इस तरह स्त्रियों को दोहरा दंड मिलता है। उनके सपने भी धरे रह जाते हैं और उनके ही सभी सामाजिक अधिकार भी खो जाते हैं। दूसरी ओर पुरुष का चारित्रिक पतन उसके सामाजिक अधिकारों में कटौती नहीं लाता, उसे गृह जीवन से भी निर्वासन नहीं मिलता। वह उँचे से ऊँचे पद पर विराजमान हो सकता है और स्वयं पतित व दुराचारी होकर भी एक सती स्त्री के जीवन पर, चरित्र पर कीचड़ उछाल सकता है। महादेवी वर्मा स्त्री के शरीर-व्यवसाय संबंधी विषय पर इस टिप्पणी से अपनी बात पूरी करती हैं कि “जब तक पुरुष को अपने अनाचार का मूल्य नहीं देना पड़ेगा, तब तक इन शरीर व्यवसायिनी नारियों के साथ किसी रूप में कोई न्याय नहीं किया जा सकता।“
September 24, 2008
“ विवाह सार्वजनिक जीवन से निर्वासन न बने तो स्त्री इतनी दयनीय न रहेगी ”
(भाग-१)
स्त्री-पुरुष, दोनों ही समाज के मुख्य अंग हैं। यह बहुत आश्चर्य में डाल सकता है कि स्त्री-पुरुष दो ऐसी आत्माएँ हैं जिनमें मात्र शरीर-संरचना में ही अंतर है। परंतु यही शरीर-संरचना उनके मानसिक विकास पर सबसे अधिक प्रभाव डालती है। स्त्री में कोमलता स्वभाववश ही पैदा होती है। इससे ही स्त्री की दशा आज दुविधाजनक है, यह कथन पूर्णतया उचित नहीं, परन्तु अनुचित कहना सत्य भी नहीं। समय ने ऐसी विषमता खड़ी कर दी है कि उसने स्त्री की इस स्वभाववश उत्पन्न कोमलता को स्थान-स्थान पर उसकी कायरता, उसकी कमज़ोरी बना दिया है। दुर्भाग्य यह है कि भारतीय नारी ने उसे विधि का विधान मानकर चुपचाप स्वीकार कर लिया है।भारतीय समाज में स्त्री की महत्ता का अवमूल्यन चिंतनीय है। वह अब भी हर घरेलू काम के लिए विवश है। आज भी उसे सिर ढँकना पड़ता है। आज भी उसे ससुराल की इच्छानुसार धनादि की आपूर्ति न करने पर प्रताड़ना सहनी पड़ती है, मृत्यु तक के लिए विवश होना पड़ता है। आज भी विवाहादि के समय कोई अनिष्ट होने पर मिथ्याओं में विश्वास करने वाले समाज के उलाहने जीवनभर सुनने पड़ते हैं। थोड़े शब्दों में, आज भी स्त्री का महत्व पशु के ऊपर आँका जा रहा है, इतना भी नहीं कहा जा सकता।महिलाओं के लिए दुर्भाग्य का विषय है कि उन्हें ’मानवी’ छोड़, समाज ने बहुत कुछ माना।
वे कभी देवी बनकर पूजनीय वस्तु मान ली गईं, कभी नरक का द्वार। परन्तु यह समझने योग्य बात है कि वह पुरुष कितना कमज़ोर होगा जो एक स्त्री के संपर्क मात्र से नरक में ढकेला जा सकता है।जब समाज में कहीं कुछ ऐसा घटित हो रहा हो, जिसकी उपस्थिति नाशकारी है तो संभवतः समाज के उस भाग को जो इससे अवगत नहीं है, अवगत कराने के लिए स्वतः ही क्रांतिकारी विचारों वाले व्यक्तियों का प्रवेश हो जाता है। स्त्री की इस दुर्दशा का विषय हम सभी से अछूता नहीं रहा है। हम सभी इन परिस्थियों से अवगत हैं और इन विपरीत परिस्थियों के विरुद्ध कई लोग कई प्रयास कर चुके हैं। इन प्रयासों के बारे में बात करते समय महादेवी वर्मा जैसे व्यक्तित्व के बारे में भूल जाना सर्वथा अनुचित होगा।महादेवी वर्मा की स्त्री के सशक्तीकरण के विषय में बहुत महती भूमिका रही है।
’श्रृंखला की कड़ियाँ’ उनके इस कार्य का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है। यह पुस्तक उनके विचारों से ओत-प्रोत है और वे निस्संदेह इस विषय को नए आयाम देने और सोच के लिए नए प्रश्न उठाने में अग्रणी व सफल रही हैं।’श्रृंखला की कड़ियाँ’ पाश्चात्य और पूर्वी समाज की कमज़ोरियों, कमियों व नारी की दशा तथा समस्याओं पर प्रकाश डालती है। आरंभ में ’अपनी बात’ को संक्षेप में यह कहकर वे निष्कर्ष देती हैं कि भारतीय नारी की मूल समस्या असंतुलन है। उसमें कहीं असाधारण दीनता है और कहीं असाधारण विद्रोह। ’श्रृंखला की कड़ियाँ’ का प्रकाशन पुस्तक रूप में १९४२ ई० में हुआ, जबकि इसमें सम्मिलित विविध आलेख १९३१, १९३३, १९३४, १९३५, १९३६ तथा १९३७ में लिखे जा चुके थे और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से चर्चा का विषय बन चुके थे।महिलाओं का स्वभाव अधिक कोमल होता है। प्रेम और घृणा जैसे भाव अधिक स्थायी रूप में उनके हृदय में वास करते हैं।
महादेवी इसे स्पष्ट करके कहती हैं कि नारी की इन्हीं विशेषताओं से उनका व्यक्तित्व समाज के उन अभावों की पूर्ति करता है जो पुरुष द्वारा संभव नहीं। दोनों की प्रकृति पूर्णतया विपरीत है। उन विशेषताओं की अनुपस्थिति समाज में ऐसे रिक्त स्थान उत्पन्न कर देगी जो अन्यथा नहीं भरे जा सकते। प्राचीनकाल में समाज का स्त्री के प्रति स्नेह और सम्मान प्रकट करना इसका द्योतक है कि नारी समाज का महत्वपूर्ण और आदरणीय अंग थी। आर्य नारी ने वैदिक काल में कभी सहधर्मिणी के रूप में पति का अंधानुसरण किया हो, ऐसे प्रमाण नहीं मिले हैं। वे कहती हैं, “छाया का कार्य आधार में इस प्रकार अपने आप को मिला देना है, जिससे वह उसी समान जान पड़े और संगिनी का अपने सहयोगी की प्रत्येक त्रुटि को पूर्ण कर उसके जीवन को अधिक से अधिक पूर्ण बनना “।
“स्त्री सहधर्मिणी से अधिक पुरुष की छाया है”, यह सोच शायद किसी अशांत वातावरण की देन है, जिसने पुरुष की इस आपत्तिजनक धारणा को भी सिद्धान्त का रूप दे दिया। साथ ही स्त्री ने अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व को भुला कर अपने विवेकशक्ति खो दी। उसे अपनी सफलता - असफलता पुरुष की संतुष्टि में दीखने लगी, और इसी कारण-वश, जहाँ स्त्री माता या पत्नी के रूप में गौरवान्वित होती थी, वहीं उसे जीवन उदेश्यहीन तथा पिंजड़े- सा लगने लगा। ऐसे समय में उसे लगा कि ऐसी समस्या का निवारण तब होगा जब वह भी पुरुष के समान बने। परिणामस्वरूप उसने व्यक्तित् ें एक टेढ़ेपन को लाने की कोशिश की, जिसके कारण वह पुरुष समान कठोर बन गई। परंतु स्त्री के मधुर व्यक्तित्व का लोप हो गया। इसी से आज की विद्रोहशील नारी अधिक कठोर, निर्मम, स्वाधीन, स्वच्छन्द परंतु अपनी “निर्धारित रेखाओं की संकीर्ण सीमा की बंदिनी” है। लेकिन यह एक स्वाभाविक तथ्य है कि केवल नारी की कोमलता और सहानुभूति ही समाज पर शीतल लेप की भाँति काम कर सकती है।
“हमारी श्रृंखला की कड़ियाँ” शीर्षक के अन्तर्गत महादेवी वर्मा आगे लिखती हैं कि अपने पूर्ण से पूर्ण विकसित रूप में होते हुए भी कोई वस्तु दूसरी वस्तु हो ही नहीं सकती। जो वस्तु उससे भिन्न है, उसका अभाव उसमें सदा रहेगा। एक पूर्ण नारी भी इतनी पूर्ण नहीं हो सकती कि पुरुष के स्वभाव को समाहित कर सके। किसी और गुण की पूर्णता स्वयं के अस्तित्व को पूर्ण बना ही नहीं सकती, इसलिए समाज में संतुलन के लिए स्वभावों का आपसी सहयोग ठीक है, परंतु प्रतिद्वन्द्विता ठीक नहीं।प्रायः पुरुषों का जीवन स्वच्छन्दता में और स्त्रियों का परंपराओं की सीमा के भीतर बीतता है जो उन्हें बाहर के जीवन से अवगत होने का मौका नहीं देता। इसी से महिलाओं में शुष्कता और आक्रोश जैसे भाव अधिक पाए जाने लगे हैं। ऐसे में स्त्रियों के व्यक्तित्व में स्वाभाविक कोमलता के साथ-साथ साहस और विवेक की आवश्यकता है, जिससे वे किसी भी अन्याय के प्रति जवाब देने में जरा भी न चूकें।शासन आदि व्यवस्थाओं में आधे समाज के प्रतिनिधि के रूप में स्त्रियों का होना आवश्यक है।
स्त्रियों की आवश्यकताएँ, हित संबंधी बातें तो स्त्रियाँ ही समझ सकती हैं और यदि वे प्रतिनिधित्व करें तो समाज भी स्त्रियों के हित-अहित से परिचय पा सकता है।महादेवी वर्मा के अनुसार ’विवाह’ नामक संस्था पवित्र व उच्चकोटि की है, परंतु वर्तमान काल में उसमें कुछ परिवर्तनों की आवश्यकता है क्योंकि इस पवित्र मानी जाने वाली संस्था में कई रूढ़ियों के प्रवेश के कारण लगातार पतन ही दीख रहा है। स्त्रियों की दुर्दशा के निवारण में समर्थ महिलाएँ भी उचित कदम उठाती नहीं दीख रहीं। जो संपन्न महिलाएँ हैं, वे अपनी गृहस्थी और संतान के लिए सेवक नियुक्त करती हैं, परंतु दुर्भाग्यवश अपना धन और ऊर्जा व्यक्तिगत मनोरंजन आदि में खर्च कर देती हैं। यदि वे इनका सदुपयोग आत्मनिरीक्षण कर अपने स्वत्व को पहचान कर इसी ज्ञान से समाज की मदद कर सकें तो अवश्य ही सुधार के लक्षण दीखेंगे।
उन्हें अपने देश की अन्य साधारण महिलओं के अधिकारों, उन्नति के साधनों और अवनति के कारणों से परिचित होना चाहिए। महिलाओं को स्वयं को किसी से ऊँचा जताने की आवश्यकता नहीं, न ही किसी को ऊँचा जताने की, बस आवश्यकता उन्हें उस स्वत्व ही की है जिसे पाकर पुनः समाज का उतना ही महत्वपूर्ण अंग बन सकें; ऐसा स्वत्व जो अचानक रूढ़ियों में कस कर दब गया है। मध्यम वर्ग की नारी स्वावलंबन से रहित है। वह जीवन-भर घरेलू क्लेशों में बँधी रहती है। समाज में भी कोई ऐसी व्यवस्था नहीं जो उन्हें ऐसी परिस्थितियों से उबार कर उनमें आत्मविश्वास भर दे। श्रमजीवी वर्ग की महिलाओं की कहानी सबसे दुःखद है। दिन-भर के असह्य शारीरिक श्रम के पश्चात् जब रात्रि में घर लौटती हैं तब भी उन्हें कुछ शांति के क्षण नहीं मिल पाते।
सबसे बड़ा दुर्भाग्य तो यह है कि समाज-सुधार के कार्यक्रमों में उन्हें भुला दिया जाता है और वे आजीवन अपने द्रारिद्रय में पीड़ा सहती रहती हैं। उनकी सबसे बड़ी आवश्यकता ज्ञान-प्राप्ति है ताकि वे अपने ऊपर होते अत्याचार का विरोध कर सकें।महिलाओं का सबसे बड़ा गुण यह है कि वे अपने को और बाह्यजीवन को परिस्थितियों के अनुसार ढाल लेती हैं। वे अपने स्वभाव के गुणों को भी छोड़ने में तत्पर हो सकती हैं, दुःख को परीक्षा मान उसका सामना करती हैं और इसलिए उनकी सतर्कता पुरुष से अधिक प्रतीत होती है। स्त्री में त्याग अथवा बलिदान करने की असीम शक्ति है और वह यह प्रमाणित कर चुकी है कि परिस्थितिवश दुर्बल प्रतीत होती नारी में पुरुष से किसी भी दशा में कम शक्ति नहीं है।’युद्ध और नारी’ के अन्तर्गत महादेवी लिखती हैं कि पुरुष के जीवन में संघर्ष है तो नारी के जीवन में आत्मसमर्पण। इसी से नारी ने पुरुष की दुर्बलता को पहचान लिया, जब उसकी नीरसता को समझा। गृह के संबंध में वह कहती हैं कि गृहों की नींव स्त्री की बुद्धि पर रखी गई है। स्त्री और पुत्र के आगमन से पुरुष को लगा कि उसे किसी सबल पर शासन नहीं करना बल्कि एक नन्हें निर्बल को सबल बनाना है और एक सामंजस्यपूर्ण गृहस्थी बसाने में उसे कोई आपत्ति नहीं
स्त्री ने यह स्पष्ट किया कि अपने शिशु को सबल बनाने के लिए उसे पुरुष की आवश्यकता है और तब से गृह रक्षा और भरण-पोषण की जिम्मेदारी स्वयं पर ली। तब से दैनिक आवश्यकताओं के लिए छीना-झपटी के युद्ध का उद्देश्य बदल गया और युद्ध गृह-समूह की रक्षा के लिए होने लगे। परंतु स्त्रियाँ कभी युद्ध से संबंधित हिंसक धारणा नहीं बना पाईं। उनके लिए युद्ध, युद्ध के अलावा और कुछ नहीं था, था तो उनके गृह-जीवन को धमकाता एक कारण, जिससे उन्हें भय था। क्योंकि वही गृहस्थी अब उनका जीवन बन गई थी।युद्ध के लिए स्त्री मानसिक और शारीरि, ोनों ही रूप से अनुपयुक्त तो रही ही, साथ ही उसके विकास में भी यह आड़े आया। जहाँ युद्ध का वातावरण हो, वहाँ एक स्त्री अपने गुणों में स्वतः अपूर्ण हो जाती है, क्योंकि अगले दिन मृत्यु की आशंका लिए बैठे पुरुष के पास नारी के सभी गुण आँकने का समय नहीं, उनकी कोई उपयोगिता ही नहीं। वह एक रूप की पुतली से अधिक सार्थक नहीं हो पाती और ऐसे में उसके सभी गुण विकसित नहीं हो पाते।पुरुष के स्वार्थों का दायरा धीरे-धीरे बढ़ने लगा। उसे अधिकारों की सीमा का विस्तार करने की चाह परेशान करने लगी। उसके लिए यह असह्य हो गया कि स्त्री अधिकारों की कामना में रुकावट बने।
स्त्री सलाह दे तो अहम् पर चोट पड़ती और यदि उसकी हर बात दुःखी मन से चुपचाप स्वीकार ले तो उसके साहस का उपहास होता। अतः बीच का मार्ग अंततः उसने निकाल ही लिया। उसने नारी के सम्मुख यह तर्क रखा कि युद्ध के प्रति उसकी विमुखता उसकी कायरता है, मूल रूप से दुर्बल होने पर उसकी भावुकता का आवरण काम आता है। बस, फिर स्त्री में चुनौती का उत्तर देने की ललक जाग उठी और वह यह कामना करने लगी कि वह पुरुष की बराबरी में खड़ी हो जाए और जो निष्ठुरता उसकी प्रकृति के विरुद्ध थी, वही निष्ठुरता उसके स्वभाव में बसने लगी। पुरुष को भी अपना मार्ग विस्तृत प्रतीत हुआ। फलस्वरूप आज सामान्यतः युद्ध-प्रिय आधुनिक देशों की नारियों को लगता है कि यदि उनमें दया, करुणा, प्रेम जैसे स्वाभाविक गुण हैं, तो वे जीने योग्य नहीं। पुरुष-सा पाशविक बल और संहार करने की लालसा उनके मन में प्रतिदिन बढ़ रही है।नारी की कोमलता में उसकी दुर्बलता ने शरण ले ली है। ’नारीत्व का अभिशाप’ की चर्चा करते हुए महादेवी कहती हैं कि मानसिकता और शारीरिक बल का समन्वय अत्यन्त आवश्यक है, परंतु प्रायः एक बल की कमी दूसरे की अधिकता से भर जाती है। अतः उसके पशुबल की न्यूनता को आत्मबल से भरना बहुत ही स्वाभाविक है।
अपने युद्ध-कौशल में भी प्रतिद्वंद्वियों को चकित करने वाली स्त्री निहत्थी होकर भी, बलवान विपक्षियों से घिरी रह कर भी, अपने आत्मसम्मान की रक्षा कर चुकी है।समाज को अपनी शक्ति से अधिक देकर, त्याग कर आज की नारी संज्ञाहीन हो गई है, इतनी कि कठोर से कठोर दिल दहला देने वाली यंत्रणाएँ भी वह मूकभाव से सह लेती है। समाज और घर, दोनों ही ओर स्त्री की दशा दयनीय है। विवाह से पूर्व वह पराया धन है, जहाँ उसे सदा ’अपने’ घर जाने की शिक्षा मिलती है। विवाह के समय मानो उसका मोल-भाव होता है और उसी का घर विवाहोपरांत इतना पराया हो जाता है कि दुःख के क्षणों में उसे आत्मीयता और संबल नहीं मिलता, विपत्ति में अन्न के दाने तक नहीं। पतिगृह भी उपेक्षा के अलावा और कुछ देने में असमर्थ ही लगता है। यदि वह अपने पति की अपेक्षा के अनुकूल न हो या उसे वह देने में समर्थ न हो जो पति की इच्छा हो तो उसका शेष जीवन अंधकार में ही बीत जाता है। स्त्री एक बंदिनी के समान है, चाहे सोने का पिंजरा हो या लोहे का, वह स्वतंत्रता की अधिकारिणी नहीं है। वह जिस व्यक्ति की बंदिनी है, वह उसके साथ कैसा भी व्यवहार करे, उसे अवश्य साधुवाद मिल जाएगा। महादेवी स्पष्ट करती हैं – “उनके विचारों में नारी मानवी नहीं, देवी है और देवताओं को मनुष्य के लिए आवश्यक सुविधाओं का करना ही क्या है! नारी के देवत्व की कैसी विडंबना है!
”यदि दुर्भाग्य से वह विधवा हो जाए तो अपने बालक के भरण-पोषण की जिम्मेदारी भी उसी पर आ पड़ती है। रूढ़ियों से बँधे समाज में शास्त्रों के नियमों को पालने की इतनी ललक अचानक पैदा हो जाती है कि वह इसके लिए एक निरपराध स्त्री को मृत्यु से भी भयंकर दुःखों में ढकेलने के उपरांत भी नहीं हिचकिचाता।समाज में स्त्री का मूल्य आज जरा भी नहीं। यह तो इसी से स्पष्ट होता है कि स्त्री के अपहरण जैसी कुरीति आज समाज में निरंतर फैल रही है। स्त्री स्वयं भी आज अपने दुःखी जीवन से इतनी परेशान है कि वह इससे छुटकारा पाने के लिए कोई भी मूल्य देने को तैयार है। नारी-अपहरण जैसी समस्या जहाँ मुँह-बाए खड़ी है वहाँ हमारे युवकों का लम्बी तान कर सोना एक आश्चर्य है।सबसे मूर्खतापूर्ण स्थिति तो तब प्रकट होती है,जब कुछ तर्कशील पुरुष यह तर्क देते हैं कि स्त्रियों को आत्मरक्षा करने से कौन रोकता है? यदि प्रत्येक मानव आत्मरक्षा में इतना ही समर्थ होता तो मनुष्य जाति को कभी सैनिकों और हथियारों की आवश्यकता नहीं पड़ती। आज आत्मनिर्भरता, अपनी गरिमा, अपने अस्तित्व तक को भुला चुकी महिला से यदि अपने आत्मसम्मान और गरिमा की रक्षा की बात की जाए तो वह अवश्य ही एक निरर्थक प्रयास है।यदि इसके विरुद्ध एक ऐसा देशव्यापी आंदोलन स्थान ले जिससे लोगों का हृदय नारी वेदना के प्रति संवेदनशील बने और नारी स्वयं भी अपने अस्तित्व और गरिमा को पहचाने तो परिस्थितियों में सुधार की संभावना है “....... अन्यथा नारी के लिए नारीत्व अभिशाप तो है ही.....।“आधनिक स्त्री परंपरागत रूढ़ियों से जकड़ी स्त्री से अधिक सतर्क लगती है। जब स्त्री को लगा कि उसकी कोमलता पुरुष के सामने उसकी कमजोरी है तो उसने उे समूल नष्ट कर दिया। अपनी भावुकता और बाह्य संघर्ष के लिए पुरुष पर निर्भर होने की इस प्रकृति को उसने जड़ से उखाड़ फेंका। परंतु वह इस तथ्य से अपरिचित नहीं थी कि कोमलता उसका प्राकृतिक गुण है। अपने इस प्राकृतिक गुण पर नियंत्रण पाकर वह चाहे बाहरी परिस्थितियों का सामना कर लेती हो, परंतु वह अंदर सुखी नहीं।पाश्चात्य जीवन शैली की नारी भारतीय नारी की अपेक्षा अधिक स्वतंत्र प्रतीत होती है – साधारणतः आर्थिक आदि दृष्टि से, परंतु महादेवी के अनुसार सामाजिक बंधनों से वह आज भी (चाहे अनभिज्ञ होकर ही) बँधी हुई है। पाश्चात्य नारी की स्वतंत्रता उसे पुरुष के मनोविनोद की वस्तु बने रहने के जंजाल से छूटने का अवकाश देती है, परंतु उसका श्रृंगार के प्रति लगाव, रूप को स्थिर रखने का आकर्षण, साधन और उपकरणों का प्रयोग उसकी दुर्बलता दिखाता है कि उसकी रमणीत्व की इच्छा नहीं नष्ट हुई, उसे गरिमा प्रदान करने वाले गुण अवश्य खो गए। जहाँ उसने पुरुष को नीचा दिखाने के लिए कठिन परिश्रम किया, वहीं वह पुरुष की अपने प्रति जिज्ञासा को जगाने के लिए सौंदर्य को प्रधानता देने लगी। उसका मन सौंदर्य आकर्षण में इतना उलझा है कि उसे स्वतंत्र नहीं कहा जा सकता।जिस तरह इंद्र धनुष के रंग हमें विस्मित तो कर देते हैं, पर इससे अधिक उनकी सार्थकता नहीं बन पाती, एक आकर्षक नारी की पुरुष के सामने महत्ता भी वैसी ही रह जाती है।
आधुनिक नारी अपने नारीत्व की उपेक्षा भी नहीं सह सकती और इसलिए ऐसा मार्ग अपनाती है। परंतु इस आकर्षित करने वाले मार्ग में भी निरर्थकता है क्योंकि उसका अस्तित्व पुरुष के लिए अधिक मायने नहीं रखता। अतः दोनों ही स्थितियाँ महिलाओं के लिए दुष्कर हैं और आधुनिक पश्चिमी (और भारतीय भी) नारियाँ इन्हीं में जकड़ कर रह गई हैं
दूसरा भाग कल
September 23, 2008
अगर आप एक बेटी की माँ हैं तो इन प्रश्नों का उत्तर आप दे सकती हैं
१ क्या आप अपनी बेटी से नौकरी कराएगी
२ क्या आप अपनी बेटी की आय का कोई भी हिस्सा सहर्ष स्वीकारेगी उसके विवाह से पहले और बाद मे भी
३ क्या आप अपनी बेटी के साथ उसकी ससुराल मे रहना पसंद करेगी
४ क्या आप को फरक पड़ेगा अगर आप का संस्कार आप की बेटी करे या आप केवल बेटे से ही संस्कार कराना सही समझती है ।
September 22, 2008
अगर आप एक बेटी के पिता हैं तो इन प्रश्नों का उत्तर आप दे सकते हैं
१ क्या आप अपनी बेटी से नौकरी करायेगे
२ क्या आप अपनी बेटी की आय का कोई भी हिस्सा सहर्ष स्वीकारेगे उसके विवाह से पहले और बाद मे भी
३ क्या आप अपनी बेटी के साथ उसकी ससुराल मे रहना पसंद करेगे
४ क्या आप को फरक पड़ेगा अगर आप का संस्कार आप की बेटी करे या आप केवल बेटे से ही संस्कार कराना सही समझते हैं ।
बहू और बेटी के प्रति हमारी मानसिकता एकसी क्यों नहीं है?
भले ही विभिन्न मंचों से लड़के-लड़की में भेद न करने की सलाह दी जाती हो, मगर समाज में आज भी बहुत से ऐसे परिवार हैं, जहां लड़की के जन्म पर मातम और लड़के जन्म पर घी के दीए जलाए जाते हैं। अगर बहू ने लड़की को जन्म दे भी दिया तो ऐसा कौन-सा विपत्ति का पहाड़ आ टूटा! बच्चे के जन्म लेने में जितना दायित्व एक मां का होता है, उतना ही उसके पति का भी। मगर हम पति को हर आरोप, हर तिरस्कार से मुक्त कर देते हैं। दोष अंततः बहू पर ही मढा जाता है। मगर क्यों?
अखबारों में हर रोज ऐसी कोई न कोई खबर पढ़ने को मिल ही जाती है, जहां लड़की के जन्म पर या तो बहू को घर से बाहर निकाल या फिर जिंदा मार दिया जाता है। शायद हम घर-परिवार में बहू को इसलिए लेकर आते हैं, ताकि उसे एक दिन मार दें। हम अपनी बेटी पर वैसे अत्याचार कभी क्यों नहीं करते, जब वो अपने परिवार में लड़की को जन्म देती है। बहू और बेटी के प्रति हमारी मानसिकता एकसी क्यों नहीं है? औरत वो भी है, औरत यह भी। फिर भेद कैसा और क्यों?
मेरे भी बेटी है। मगर सच कहूं आज तक हमें यह कभी लगा ही नहीं कि हम बेटी को पाल रहे हैं। मेरी पति की तो इच्छा ही यह थी कि हमारे बेटी ही हो। जब मेरी बेटी ने जन्म लिया था, तब मुझसे कहीं ज्यादा खुश मेरे पति थे। फिर मुझे मेरे परिवार का भी भरपूर सहयोग मिला।
सही मायनों में हमें बेटियों के प्रति अपने नजरिए को बदलना ही चाहिए। सोचो जरा। अगर हमारे बीच बेटियां ही नहीं रहेंगी, फिर बेटे भी कहां से आएंगे? अनुपात बना रहे, इसलिए जरूरी है कि लड़कियों के जन्म पर मातम नहीं खुशियां मनाई जाएं।
September 21, 2008
विचार आमंत्रित हैं ।
September 20, 2008
जिस दिन महिलाए अपने अभिभावकों से ये तीन अधिकार ले लेगी उसदिन वो समानता की सही परिभाषा को समझगी ।
१ जब आपने हमे इस लायक बना दिया { पैरो पर खड़ा कर दिया } की हम धन कमा सकते हैं तो हमारे उस कमाये हुए धन पर आप अपना अधिकार समझे और हमे अधिकार दे की हम घर खर्च मे अपनी आय को खर्च कर सके । हम विवाहित हो या अविवाहित पर हमारी आय पर आप अधिकार बनता हैं । आप की हर जरुरत को पुरा करने के लिये हम इस धन को आप पर खर्च कर सके और आप अधिकार से हम से अपनी जरुरत पर इस धन को खर्च करे को कह सके।
२ आपकी अर्थी को कन्धा देने का अधिकार हमे भी हो । जब आप इस दुनिया से दूसरी दुनिया मे जाए तो भाई के साथ हम भी दाह संस्कार की हर रीत को पूरा करे । आप की आत्मा की शान्ति के लिये मुखाग्नि का अधिकार हमे भी हो ।
३ आप हमारा कन्या दान ना करे क्युकी दान किसी वस्तु का होता हैं और दान देने से वस्तु पर दान करने वाले का अधिकार ख़तम हो जाता हैं । आप अपना अधिकार हमेशा हम पर रखे ताकि हम हमेशा सुरक्षित रह सके।
जिस दिन महिलाए अपने अभिभावकों से ये तीन अधिकार ले लेगी उसदिन वो समानता की सही परिभाषा को समझगी । उसदिन समाज मे "पराया धन " के टैग से वो मुक्त हो जाएगी । समानता का अर्थ यानी मुक्ति रुढिवादी सोच से क्योकि जेंडर ईक्वलिटी इस स्टेट ऑफ़ माइंड { GENDER EQUALITY IS STATE OF MIND }
September 19, 2008
ये हैं खरा और तीखा सच
कानूनी तौर पर 18 साल की व्यस्क स्त्री को परिपक्व शायद ही समझा जाता है..पहले पिता और भाई फिर पति और पुत्र उसकी जीवन दिशा निर्धारित करने के लिए तैयार रहते हैं. दरअसल वह खुद ही अपने जीवन के महत्त्वपूर्ण निर्णयों के लिए पुरुष का ही मुँह देखती है.. समाज के स्त्री वर्ग का बहुत कम प्रतिशत अपने बलबूते पर अपनी जीवन धारा को बदलने में सक्षम है।
जितेन्द़ भगत said...
मैं शर्मिंदा हूँ कि अपनी स्त्री के लिए इनमें से कुछ चीजें थोपने की गल्ती करता हूँ, (मसलन-उसे क्या मिलना चाहिए क्या नहीं, उसे क्या करना चाहिए क्या नहीं,वह कैसा मनोरंजन करे,कितना करे)ऐसा क्यों करता हूँ मैंने कई बार सोचा भी है, सोचकर फिर वही गल्ती करता हूँ। इसलिए आपने जिन सवालों पर राय मॉंगा है, उसपर राय देने का मुझमें न दंभ है न काबिलियत! ये सवालों से कतराना भी नहीं है, कुछ गोल-मोल राय भी दे सकता था, पर आजकल झूठ बोलने पर शीशे में दो मुँह दिखाई देने लगा है। शीशे में अक्श धुँधला पड़ते ही मैं राय देने जरुर आऊँगा, और बताऊँगा कि ऑकडों के आधार पर इन सवालों का जवाब नहीं दिया जा सकता। विश्वास करें, मैं चाहूँ भी तो मेरे साथी इस शीशे को कभी धुँधला नहीं पड़ने देंगे, इस जनम में तो बिल्कुल नहीं!!
ये हैं खरा और तीखा सच जो मीनाक्षी और जितेन्द़ भगत ने अपने कमेन्ट मे इस पोस्ट पर दिया ,
स्त्री के अलावा समाज का हर व्यक्ति जानता है कि स्त्री की क्या आवश्यकताएँ हैं
टिपण्णी करने का कोई मकसद होता हैं जिसे मीनाक्षी और जितेन्द़ भगत ने निभाया । हिन्दी ब्लोगिंग को आगे लेजाना हैं तो केवल टिपण्णी ना करे , कुछ सार्थक लिखे कम से उन ब्लोग्स पर जहाँ ब्लोगिंग को पेशेवर{ प्रोफेशनल } तरीके से किया जाता हैं । उत्साह वर्धन करना जरुरी हैं जहाँ ब्लॉगर का ब्लॉग नया हो बाकी जगह जरुरी हैं की अगर आप की टिपण्णी चर्चा को कुछ सार्थक बनाती हैं तभी करे । ब्लोगिंग टिपण्णी के लिये ना करे , ब्लोगिंग करे उन मुद्दों के लिये जो आप के दिल के करीब हैं और आप उन पर अपनी बात रखना चाहते हैं । अगर आप हफ्ते मे केवल एक दिन ब्लॉग्गिंग करे हैं तो उन सब लिंक्स को पढे जो किसी पोस्ट पर होते हैं टिपण्णी करने से पहले ताकि आप को चर्चा कहा तक पहुँच गयी हैं पता हो । केवल इस लिये ना टिपण्णी करे की लोग ब्लोगिंग मे आप को याद रखे इसलिये करे क्युकी आप या तो पोस्ट से सहमत हैं या असहमत और अपनी बात कहना चाहते या चर्चा मे कुछ नवीन पहलु जोड़ना चाहते हैं
September 18, 2008
माँ यानी वो महिला जो आप को अपने पैरो पर खड़े होना सिखाये
माँ यानी वो महिला जो आप को अपने पैरो पर खड़े होना सिखाये
और
अपने पैरो पर आप को खडे होना वही सिखा सकता हैं जो ख़ुद अपने पैरो पर खडा हो
जो माँ अपनी पैरो पर खडी होती हैं उसके बच्चे उतनी जल्दी आत्म निर्भर बनते हैं
और जो माँ अपने पैरो पर नहीं खडी हैं उसकी बेटी बहुत जल्दी पैरो पर खडी होती हैं
एक बेटी को उसके पैरो पर खडा करके आप भावी समाज मे एक परिवार को आत्म निर्भर बनाते हैं ।
September 17, 2008
स्त्री के अलावा समाज का हर व्यक्ति जानता है कि स्त्री की क्या आवश्यकताएँ हैं
quote
स्त्री के अलावा समाज का हर व्यक्ति जानता है कि स्त्री की क्या आवश्यकताएँ हैं, उसे क्या मिलना चाहिए क्या नहीं, उसे क्या करना चाहिए क्या नहीं, उसे कितना कमाना चाहिए, कितनी इच्छाएँ रखनी चाहिए,कितनी उन्नति करनी चाहिए, कितनी प्रतिस्पर्धा करनी चाहिए,क्या विशेषताएँ होनी चाहिएँ,क्या उसका गहना है (जैसे लज्जा, सहनशक्ति, शील आदि आदि)। एक बेचारी वह स्वयं है जो यह सब अपने लिए जान समझ नहीं सकती, निर्धारित नहीं कर सकती। ऐसे में समाज को उसके लिए सबकुछ निर्धारित करना पड़ता है। यह भी कि वह कैसा मनोरंजन करे,कितना करे,किसके साथ करे और कितने बजे तक करे।
unquote
कमेन्ट पढ़ कर मन मे आया की आप सब राय लूँ कि
किस उम्र तक स्त्री बालिग़ हो पाती ?
किस उम्र तक आ कर हम स्त्री को इस लायक समझ सकते हैं की वो अब परिपक्व हो गयी हैं ?
किस उम्र पर आकार स्त्री को हम ये अधिकार दे सकते हैं की वो फैसला ले सके की उसके लिये सही और ग़लत क्या हैं ?
हर जवाब का स्वागत हैं । दे दे ताकि सब को पता लगे कि हमारे समाज के लिए सही और ग़लत क्या हैं ??
September 16, 2008
महिला लेखन , हम खुश हैं की आप भी अब इस पर बात करते हैं
छवि , कितना महात्म है इस छवि का की हम ब्लॉग लेखन मे भी अपनी छवि बनाए रखना चाहते हैं । हिन्दी ब्लॉग लेखन मे ब्लॉगर प्रोफाइल देखा जाए तो ७५% से ज्यादा ब्लॉगर ५० वर्ष के आयु के होंगे । इस मे ९०% विवाहित हैं और उनके बच्चे इस समय विवाह योग्य हैं ।
वर्ग १
अब इनमे जो महिला हैं और एक विवाह योग्य पुत्री की माँ हैं वो किसी भी ऐसी पोस्ट पर कमेन्ट नहीं करती जहाँ लड़किया की समानता की बात को पुरजोर तरीके से कहा जाता हैं या जहाँ किसी महिला पर कमेन्ट होता हैं क्युकी उन्हे लगता हैं की ऐसा करने से उनकी छवि के ऐसी माँ के रूप मे उभरेगी जो अपनी पुत्री को ससुराल भेजने से पहले ही "बराबरी " की बात के लिये तैयार कर रही हैं , यानी ब्लोगिंग समाज मे अगर कोई ऐसा परिवार हो सकता हैं जहाँ उनकी पुत्री का विवाह हो सकता हो तो उनकी बातो से नहीं होगा यानी उनकी छवि अगर सही नहीं होगी तो उनकी पुत्री की छवि भी बिगड़ जायेगी फिर कौन इस समाज मे उसका हाथ थामेगा । सो अभी समय नहीं हैं की वो अपनी मन की बात कहे , कुछ ग़लत कही लिखा जा रहा हैं , लिखने दो हम नहीं कमेन्ट करेगे हमे अपनी बेटी ब्याहनी हैं ।
वर्ग २
अब इनमे जो महिला हैं और जिनके विवाह योग्य पुत्र हैं वो भी अपनी छवि को लेकर बहुत सजग हैं । भाई बेटा ब्याहना हैं अगर ज्यादा ये लिखेगी की बहु मे क्या क्या होना चाहिये या ये की बेटियों के माता पिता को उन्हे क्या सिखाना चाहिए तो कही एसा ना हो की लोग समझे की बड़ी "कड़क " सास साबित होगी । या कही किसी ब्लॉग पर किसी महिला के लिये अपशब्द बोले जा रहे हो तो वो बिल्कुल ही चुप रहती हैं वरना छवि बिगड़ जायेगी लोग सोचेगे की ये तो हमेशा झंडा लिये रहती हैं इनके घर मे बेटी दे कर अपनी बेटी की जिन्दगी कौन ख़राब करे ।
वर्ग ३
अब इनमे जो पुरूष हैं और ५० की आयु को पार कर चुके हैं और विवाह योग्य पुत्री के पिता हैं बार बार ऐसे आलेख लिखेगे जिसमे ये बताया जाता हैं की वो कितनी अच्छे संस्कार दे रहे हैं अपनी पुत्री को ताकि सबको लगे की जब पिता इतना संस्कारी हैं तो बेटी कितनी संस्कारी होगी । सो छवि बन गयी संस्कारी पिता की संस्कारी पुत्री ।
वर्ग ४
अब इनमे जो पुरूष हैं और ५० की आयु को पार कर चुके हैं और विवाह योग्य पुत्र के पिता हैं उनको हर ब्लॉग लिखती महिला फेमिनिस्ट लगती हैं और उनका डर की ऐसी ही कोई उनके घर आगई तो क्या होगा ?? अब उन सब को तो यही बताया गया हैं की औरत का मतलब जो घर मे रहे और काम करे , ये क्या ब्लॉग लिखने लगी ।
यानी हिन्दी ब्लॉगर समाज भारतीये समाज का आईना बन गया हैं जहाँ लोग ब्लॉग्गिंग को नहीं अपनी छवि को ज्यादा महत्व देते हैं । यहाँ भी आप उसी रुढिवादी सोच से ग्रसित लगते हैं जो बाहर हैं । यहाँ भी आप वही बोलना चाहते हैं जो आप को लगता हैं की समाज मे होना चाहिये । लेकिन अगर कोई महिला ये लिख दे की समाज मे ये होना चाहिये तो आप को लगता हैं की महिला लेखन पुरूष विरोधी हैं । अगर आप को अधिकार हैं अपनी बात कहने का तो हमे क्यं नहीं हैं ??
हिन्दी ब्लोगिंग समाज का एक वर्ग निरंतर इस बात को लिखता हैं की जो भी महिला ब्लॉग लेखन मे नारी सशक्तिकरण की , नारी समानता की और नारी के प्रति समाज की रुढिवादी सोच की बात करती हैं वो पूर्वाग्रह या किसी व्यक्तिगत घटना से ग्रसित हैं ।
क्या ये जरुरी हैं की किसी अंधे और गूंगे की पीडा को समझने के लिये हमे अंधे बनना होंगा । क्या हम अपनी संवेदना को इतना नहींजगा सकते की कुछ समय उनके साथ व्यतीत कर के उनके लिये कुछ पत्र इत्यादि लिख कर हम उनकी निशब्द शब्दों मे एक गूंज सुन सके ।
ब्लोगिंग का जो वर्ग ये मानता हैं की महिला लेखन इसलिये तीखा है की हम सब को हमारे माँ बाप ने संस्कार नहीं दिये हैं या हमे पुरुषों के ख़िलाफ़ भड़काया हैं उन सब को "vicious circle " के बारे मे जरुर जानना चाहिये .
नारी पुरूष की समानता की बात करने से एक बात बिल्कुल साफ़ तरीके से उभर कर सामने आती हैं की बच्चो को संस्कार देने का दाइत्व आज भी माँ का ही समझा जाता हैं पर
आज की पीढी उसकी रुढिवादी सोच और कुंठा , उसका नारी के बदले रूप से आंतकित होना , उसका बार बार उन महिला की तारीफ़ करना जो पारंपरिक छवि मे ढली हैं और उन महिला पर निरंतर व्यक्तिगत आक्षेप करना जो अपनी पारंपरिक छवि की चिंता नहीं करती , २- ६० वर्ष की महिला का यौन शोषण करना , केवल अपनी बहिन और अपनी बेटी तक अपने संस्कारो को सुशील रखना ......
अगर ये सब माँ की संस्कारी शिक्षा का परिणाम हैं तो मेरी सब पिताओं से प्रार्थना हैं की समय रहते चेत जाए और नारी को दिये गए इस " अभूतपूर्व " अधिकार को वापस ले ले और अपने बच्चो के ख़ुद पढाये , संस्कार दे ताकि आगे आने वाली पीढी आप की सोच मे ढली हो ।
September 15, 2008
जीत जाएंगे हम
September 13, 2008
बलात्कार की साइकोलॉजी - यह एक मनोवैज्ञानिक ट्रॉमा है
किसी भी महिला के लिए बलात्कार का शिकार होना बहुत बड़ा हादसा है। शायद उसके लिए इससे बड़ी त्रासदी कोई है ही नहीं। बदकिस्मत से अपने देश में महिलाओं से बलात्कार की दर निरंतर बढ़ती जा रही है। यह एक जघन्य अपराध है, लेकिन अक्सर गलतफहमियों व मिथकों से घिरा रहता है। एक आम मिथ है कि बलात्कार बुनियादी तौर पर सेक्सुअल एक्ट है, जबकि इसमें जिस्म से ज्यादा रूह को चोट पहुंचती है और रूह के जख्म दूसरों को दिखायी नहीं देते। बलात्कार एक मनोवैज्ञानिक ट्रॉमा है। इसके कारण शरीर से अधिक महिला का मन टूट जाता है। बहरहाल, जो लोग बलात्कार को सेक्सुअल एक्ट मानते हैं, वह अनजाने में पीड़ित को ही `सूली' पर चढ़ा देते हैं। उसके इरादे, उसकी ड्रेस और एक्शन संदेह के घेरे में आ जाते हैं, न सिर्फ कानून लागू करने वाले अधिकारियों के लिए, बल्कि उसके परिवार व दोस्तों के लिए भी।
महिला की निष्ठा व चरित्र पर प्रश्न किये जाते हैं और उसकी सेक्सुअल गतिविधि व निजी-जीवन को पब्लिक कर दिया जाता है। शायद इसकी वजह से जो बदनामी, शर्मिंदगी और अपमान का अहसास होता है, बहुत-सी महिलाएं बलात्कार का शिकार होने के बावजूद रिपोर्ट नहीं करतीं। बलात्कार सबसे ज्यादा अंडर-रिपोर्टिड अपराध है।
बहुत से मनोवैज्ञानिकों और समाजशास्त्रियों का मानना है कि बलात्कार हिंसात्मक अपराध है। शोधों से मालूम हुआ है कि बलात्कारी साइकोपैथिक, समाज विरोधी पुरूष नहीं हैं जैसा कि उनको समझा जाता है। हां, कुछ अपवाद अवश्य हैं। बलात्कारी अपने समुदाय में खूब घुलमिल कर रहते हैं।
बलात्कार पीड़ित की जरूरतें
बलात्कार पीड़ित महिला की मदद कैसे की जाये? इस पर खूब विचार करने के बावजूद भी आसान उत्तर उपलब्ध नहीं है। वैसे भी जो महिला बलात्कार से गुजरी है, उसने जिस ट्रॉमा का अनुभव किया है, उसे दो और चार के नियम से ठीक नहीं किया जा सकता। डॉक्टर जिस्मानी घावों को तो भर सकते हैं, लेकिन जज्बात को पहुंची चोट जो दिखायी नहीं देती, उनको भरना बहुत मुश्किल होता है। लेकिन उनको भरने से पहले यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि वह मौजूद हैं।
बलात्कार के बाद ज्यादातर महिलाएं शॉक की स्थिति में होती हैं। कुछ महिलाएं हिस्ट्रिकल हो जाती हैं जब कि अन्य इन्कार के स्तर से गुजरती हैं। लेकिन सभी पीड़ितों को अलग-अलग डिग्री का डर, ग्लानि, शर्मिंदगी, अपमान और गुस्सा महसूस होता है। यह भावनाएं एक साथ जागृत नहीं होतीं, लेकिन अपराध के लंबे समय बाद तक यह महिला को प्रभावित करती रहती हैं। इसलिए जो भी उस महिला के नजदीकी हैं, खासकर पुरूष सदस्य, उनके लिए उसकी भावनाओं को समझना व मदद करना महत्वपूर्ण है।
बलात्कार से बचना
महिलाएं, चाहे वह जिस उम्र की हों, आमतौर से यह सोचती हैं कि वह बलात्कारी का मुकाबला कर सकती हैं, उससे बच सकती हैं। बदकिस्मती से कम महिलाएं इस बात पर विचार करती हैं कि वह अपना बचाव किस तरह से करें सिवाय इसके कि वह बलात्कारी की टांगों के बीच में जोर की लात मार देंगी। सवाल यह है कि महिला क्या करे? पहली बात तो यह है कि वह अपने आपको कमजोर स्थिति में पहुंचने से बचाये। अन्य विकल्प हैं-
- बातचीत करके अपने आपको संकटमय स्थिति से निकाल लें। कुछ महिलाओं ने बलात्कारी से अपने आपको यह कहकर बचा लिया कि वे मासिक-चक्र से हैं, गर्भवती हैं या उन्हें वीडी (गुप्तरोग) है।
- बुरे लगने वाले फिजिकल एक्ट जैसे उल्टी करना, पेशाब करना या स्टूल पास करके हमलावर को आश्चर्यचकित कर दें।
- कुछ मामलों में दोस्ताना व सभ्य बर्ताव करने और आशंकित बलात्कारी का विश्वास अर्जित करने से भी बचाव हो सका है।
अगर बच नहीं सकीं, तो
- अपने आपको दोष न दें
- उस पर विचार-विमर्श करें और मदद लें
- मेडिकल सहायता लें
बाद के प्रभाव
पीड़ित अक्सर अपनी सुरक्षा के अहसास पर विश्वास खो बैठती है। उपचार कराते समय वह निम्न स्तरों से गुजरती हैं-
- शुरूआती स्तर : चुप्पी और बेयकीनी से लेकर अत्यधिक एंग्जाइटी और डर की भावनाएं उत्पन्न होती हैं
- दूसरा स्तर : डिप्रेशन या गुस्सा
- तीसरा स्तर : बलात्कार की यादें अब भी अतिवादी भावनात्मक प्रतिक्रिया शुरू कर सकती हैं
- अंतिम स्तर : सब कुछ पीछे छोड़ने के लिए तैयार।
September 11, 2008
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September 09, 2008
" कुतर्क " नहीं तर्कसंगत हैं सोच
The survey, in which 4,700 couples from cities across India were interviewed, shows that only 4% working fathers spend time with their kids or take responsibilities like supervising homework. The remaining 96% cite professional pressures and other reasons to play a minimal role in the upbringing of their children.
Of these, 7% respondents said they help their children with homework occasionally, 24% said they help only when their children ask for it while 65% said they never help at all. The trend obviously means that more and more children are being sent to coaching centres and creches etc, eating into the family's budget.
On the other hand, 65% working mothers help their children with homework, finish school projects for them, read with them and also play with them. The interesting point here though is that despite the high level of participation in all other activities — 83% do school projects for their children and 79% read with them or help them in activities like cooking, drawing and painting — only 20% mothers actually play a sport with their children.
In a telling statement of how gender roles have not changed at all, it is usually the male parent who takes part in active physical sports with the child. The survey also found that in two-parent families, the father's involvement in the child's school has a distinct, independent and positive influence on the child's performance. Children do better in school, are more likely to participate in extracurricular activities and enjoy school more if their fathers are involved in the school.
The benefits go beyond school and children who have fathers who are highly involved in their upbringing include better relationships in adolescence, have fewer behavioural problems, better psychosocial development and are less likely to take to substance abuse. The involvement level, predictably is at par in case of single parent families — with 46% single fathers and 48% single mothers being highly involved in the child's school. In fact, both fathers and mothers in single- parent families have the same level of involvement in school as mothers in two-parent families.
The survey covered all Metro cities and also smaller ones like Lucknow, Chandigarh, Dehradun, Bangalore, Ahmedabad, Pune, Udaipur, Shimla, Cochin, Chennai etc.
कल के अमर उजाला के ब्लाग कोने में नारी .ब्लॉग की एक पोस्ट की चर्चा
September 08, 2008
आधी शक्ति का सशक्त ब्लॉग
आज हिन्दी मीडिया पर नारी ब्लॉग की सार गर्भित समीक्षा की गयी हैं । जिस के लिये नारी ब्लॉग की सदस्या दिल से आभारी हैं ।
समीक्षा मे कहा गया हैं
दुनिया की आधी आबादी स्त्री जाति की है। हिन्दी ब्लागिंग की दुनिया में भी यह अपना कदम मजबूती से जमा रही है । आगे यहाँ पढे
फुल टाइमपास बोले तो भजन पार्टी
September 07, 2008
पुरूष की नैतिक ज़िम्मेदारी क्या हैं , इस पर क्यों नहीं डिस्कशन होता ??
१. जब एक नाबालिक बच्ची का बलात्कार होता हैं ??
२ जब एक NUN का बलात्कार होता हैं
३. जब एक ५८ साल की विदेशी महिला का बलात्कार होता हैं जैसी ही वो एअरपोर्ट पर टैक्सी लेती हैं
अब ये कह कर रास्ते ना बदले और डिस्कशन को ख़तम ना करे की ये हादसे हैं .
जवाब दे की कहा थी वो अध् नंगी . तीनो एक्साम्प्ले के लिंक भी दे सकती हूँ
ये जो पुरूष की मानसिकता हैं की अपनी कमजोरी को वो स्त्री पर थोपता हैं हम सब उस पर चर्चा करना चाहते हैं ।
उस पर ये कहना की जवान पुरूष स्त्री को देख कर अपना आपा खो देता हें और इस लिये स्त्री को अपने पूरे शरीर को ढांक कर रखना होगा कितना सही हैं ??
या ये कहना की पुरूष और स्त्री मे biological difference का परिणाम हैं बलात्कार सो स्त्री की नैतिक ज़िम्मेदारी हैं की वो अपने को पुरूष की कामुक नज़रो से बचाए ??
पुरूष की नैतिक ज़िम्मेदारी क्या हैं , इस पर क्यों नहीं डिस्कशन होता ??
क्या क्या पुरूष करे की अपनी इन्दिर्यों पर उसका कंट्रोल बढे इस पर क्यूँ नहीं बात होती ??
क्यों हर डिस्कशन का दायरा केवल नारी को नैतिक मूल्य समझाने मे ख़तम होता हैं ।
जब हिंदू सनातन धरम को मानने वालो के घरो मे पूजा होती हैं तो एक रजस्वला स्त्री को पूजा इत्यादि मे नहीं भाग लेने देते लेकिन वही हिंदू सिख समाज मे गुरु ग्रन्थ साहिब के पाठ के समय एसी कोई दुविधा नहीं होती क्युकी वहाँ स्त्री पुरूष की समानता को माना जाता हैं । आप से भी निवेदन हैं की बात समानता की करे उस डिस्कशन को करे जिस को करने से आप सब हमेशा बचते हैं . नारी के शरीर और कपड़ो से ऊपर उठ कर बात हो .
अध् नंगी कह कर आप अपनी गलतियों पर "परदा " डालते हैं और बार बार "एक बीच का रास्ता निकले " की गुहार लगाते हैं पर कभी अपनी कमियों पर और उनको दूर करने का कोई हल नहीं बताते हैं ??
कब तक "भारतीये परम्परा " की दुहाई दे कर आप सब अपनी रुढिवादी सोच से समाज मे फैली गंदगी को और बढाते रहेगे । कब आप जागेगे और निर्माण करना चाहेगे एक स्वस्थ समाज का जहाँ आप की गलती के लिये नारी जिम्मेदार न हो । जवाब दे , विचार दे या ना दे पर कोई हल जरुर सोचे अपनी कमियों को दूर करने का और उसको अपने बेटो को जरुर बताये ताकि आने वाले समय मे आप के बेटे वो गलती ना करे जो आप से जाने अनजाने हो रही हैं ।
September 06, 2008
"वूमन नहीं सुपर वूमन चाहिए "
आर्थिक और राजनीतिक सशक्तीकरण के ढेरो उदाहरण के बावजूद लिंग भेद की िस्थति जस की तस बनीं हुई है। जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमें वैवाहिक विज्ञापनों में देखने को मिलता है। यदि आप किसी दैनिक अखबार या पत्रिका में प्रकाशित होने वाले विज्ञापन पर गौर करें तो लिंगभेद का सहज एहसास होगा। लंबी, छरहरी, गोरी, सुंदर, कॉन्वेंट एड्यूकेटेड, कामकाजी, घर मैनेज करने वाली और इन सब पर घरेलू । अधिकतर पत्र-पत्रिकाओं में इन शब्दों से निकलने वाले विज्ञापन यह आभास कराते है जैसे शादी के लिए वूमन नहीं सुपर वूमन चाहिए। आज आदमी संस्कारों से घरेलू लड़की तो चाहता है लेकिन उसे कामकाजी भी होना है, घर को मैनेज करने वाली भी होना है, बच्चों और सास ससुर की देखभाल करने वाली भी होना है। केवल सुपर वाइफ ही नहीं सुपर मॉम, ग्लैमर डॉल, प्रोफेशनल और एक लड़की को बाहर से अंदर तक सभी कामों में दक्ष भी होना है। जिसे अंग्रेजी भी बोलना है और घूंघट में भी रहना है। आज अधिकतर माता पिता या स्वयं लड़का भी अपने लिए ऐसी ही जीवनसाथी की तलाश करता है। महिलाओं के अधिकार, सशक्तीकरण और समानता की बड़ी बातें करने वाले लोग भी जब अपने लिए पत्नी और बहू की तलाश करते है तो ऐसे शब्दों के इस्तेमाल से परहेज नहीं करते। इन विज्ञापनों के प्रारंभ में वधू की तलाश के लिए निलकलने वाले शब्दों पर गौर करें तो बदलते समय का प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाई पड़ेगा। वर्ष 1960 में वैवाहिक विज्ञापन में सुंदर और कुंवारी शब्द पर जोर दिया जाता था। विवाह के लिए जाति और नारियोचित गुणों का विशेष ध्यान रखा जाता था। सुंदरता को योग्यता से ज्यादा महत्व मिलती थी। 1970 में इस सोच में थोड़ा बदलाव आया। हालांकि सुंदरता अब भी पहली प्राथमिकता रही। लेकिन उसके साथ आकर्षक व्यक्तित्व कद काठी और अंग्रेजी बोलने वाली लड़कियों (इंग्लिश स्पीकिंग, कॉन्वेंट एड्यूकेटेड) जैसे शब्द जुड़ते गये। 1980 के दशक में भी शारीरिक सुंदरता को महत्व दिया गया। लेकिन साथ ही महिला के लिए कामकाजी (अनिंर्ग वूमन) होना अच्छे वर की चाह करने वालों के लिए आवश्यक हो गई। वहीं 1990 में "सुंदर' और "कुंवारी' शब्द का स्थान "लंबी' और "गोरी' जैसे शब्द ने ले लिया। इस समय प्रशिक्षित और दक्ष लड़कियों की मांग वैवाहिक विज्ञापन में देखने को मिली। सबसे ज्यादा महत्व प्रशिक्षित महिलाओं का था, वहीं शारीरिक सुदंरता अब भी पहली शर्त्त है। 1995 के आसपास वैवाहिक विज्ञापन में लड़कियों का कामकाजी होना सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया। विज्ञापन में सबसे ज्यादा जोर इसी बात पर दिखाई दिया जाने लगा कि लड़कियां कामकाजी होनी चाहिए और कुंवारी शब्द का महत्व पीछे छूट गया। हालांकि जाति, धर्म, शारीरिक सुंदरता की स्थिति पहले की ही तरह मजबूत रही। यदि आज विज्ञापनों पर नजर दौडाएं तो साफ पता चलता है कि शारीरिक सुंदरता के साथ अब ज्यादा जोर मनी मेकिंग लाइफ पार्टनर के लिए दिया जाता है। फिर चाहे वह दहेज के माध्यम से आये या फिर लड़की कामकाजी हो। बातजहां तक जाति, धर्म और परिवार के लिए है तो इन वैवाहिक विज्ञापनों में 90 फीसदी में इसका महत्व ज्यों का त्यों बना हुआ है।
September 05, 2008
शिक्षा का प्रसार निरंतर चलता रहे इसी आशा के साथ हर गुरु मेरा नमन स्वीकारे और हम सब को आशीर्वाद दे की माँ सरस्वती का वास हम सब के घरो मे हो ।
गुरु और गोविन्द मे से जब भी चुनो , गुरु को की चुनो क्युकि गुरु ही गोविन्द से मिलवाता हैं ।
शिक्षा का प्रसार निरंतर चलता रहे इसी आशा के साथ हर गुरु मेरा नमन स्वीकारे और हम सब को आशीर्वाद दे की माँ सरस्वती का वास हम सब के घरो मे हो ।
September 04, 2008
आग
मेरे सीने में नही तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए
सहमत हूँ इस विचार से , यह आग ही तो जीवनशक्ति है ,जो हर कीमत पर जलाये रखना है इसी से नए विचार , नई सोच जनम लेती है ..और आगे बढ़ने की प्रेरणा भी...........
---नीलिमा गर्ग
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