नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

July 30, 2008

उसने जेल जाकर औरो के लिये नया कानून बनवाया

एक बहुत अच्छी पहल हैं UK कानून मे बदलाव लाने की । यू के मे कानून बनाने वालो ने माना हैं कि कि कानून बराबर नहीं था वहाँ पुरूष और नारी के लिये इस लिये इस पहल के जरिये शुरुवात कि हैं कानून मे सजा देने के अधिकार को दोनों के लिये बराबर करने कि । और इस बदलाव को लाया गया किरनजीत अहलुवालिया कि वजह से । किरनजीत अहलुवालिया डोमेस्टिक वोइलेंस का शिकार थी और उन्होने अपने पति कि ह्त्या की थी । इस जुर्म कि सजा आजीवन कैद थी । पूरी जानकारी नीचे इंग्लिश मे हैं और इस को यहाँ पोस्ट करने का कारण सिर्फ़ इतना हैं ये बदलाव भी एक भारतीय महिला लाई हैं । पढ़ कर लगा कि एक बार precedence सेट हो जायेगा तो इंडिया मे कानून बनाने वाले भी शायद चेत जाए ।

आज कि ये पोस्ट इंग्लिश मे हैं क्योकि सीधा कॉपी पेस्ट किया हैं मेने हिंदुस्तान टाईम्स पेपर से।
हिंदुस्तान टाईम्स

The imprisonment of the Indian-origin housewife Kiranjit Ahluwalia who was jailed for life for killing her violent and abusive husband in 1989 by setting his feet on fire after suffering utter degradation from him would not have taken place, if the law now on anvil had been in force then.
Under reforms of laws on murder, women who kill abusive partners could escape conviction for murder if they can prove they lived in “fear of serious violence”.
The overhaul of the homicide laws was announced on Tuesday by the Home Office. A further defence against murder charges which allows people to argue that they were driven to kill by “words and conduct” that left them “seriously wronged” will also be made available to defendants.
But the defence on the plea of being provoked — like husband killing wife he finds in bed with another man — would be scrapped. Such defence is incorporated in the Indian Penal Cod has over the years helped a lot of jealous husbands escape the noose.
Jagmohan Mundra, who made the movie Provoked on the true story of Kiranjit, with Aishwarya Rai’ playing the lead role, while talking to HT said “I think the law of diminished liability is very good. It is victory of what Kiranjit had set out to achieve.” He pointed out that men could get away the murder charge on the plea of “the heat of the moment. But women cannot react immediately. But in cases where they react after sustained violence they are charged with murder. The injustice has been corrected.”
Even a male rape victim who kills his attacker after being taunted over what happened could avoid a murder conviction under reforms now. Similarly, a mother who returns home to find a man raping her daughter and kills the assailant could also be sentenced for manslaughter rather than murder.

July 29, 2008

मिलिये निर्झरणी से, जिन्होंने अपनी राह खुद बनाई

आइये आपका परिचय एक ऐसी महिला से करवायें जो जीवन के हर मोड पर लगातार संघर्ष करते हुए आगे बढती रही.पश्चिम बन्गाल के कांचरापाडा नामक गांव की रहने वाली इस महिला का नाम है निर्झरणी चक्रवर्ती.निर्झरणी उस कोलेज की प्रिन्सीपल हैं जहां कभी वो झाडू लगाया करती थी.जिस स्कूल में निझरणी पढने जाती थी वहां उन्हें ८वीं के बाद शिक्षा छोडनी पडी कारण था पिता का रिटायरमेण्ट जिसके चलते वो अपने परिवार का भरण-पोषण करने में असमर्थ थे.ये थी पढाई में अग्रणी.स्कूल की शिक्षिकाओं ने उनकी मजबूरी समझते हुए बंकिम चन्द्र कोलेज में ग्रुप डी के दर्जे पर नौकरी पर रखवा दिया,जहां वो कप धोना,झाडू लगाना,घण्टी बजाना, बेन्चें साफ़ करने जैसे कार्य करते हुए पढती रहीं.इस काम के लिये उनको ६० रु मिलते थे.इस आर्थिक आत्मनिर्भरता के चलते वो अपनी शिक्षा जारी रख सकी और साथ ही घर के खर्चों में मदद भी देने लगी.फ़िर उस स्कूल में क्लर्क का स्थान रिक्त होने पर अध्यापिकाओं द्वारा वहां रखवा दिया गया.इस के साथ वो बंकिम चन्द्र कोलेज से बी एस सी करने लगी.१९७३ में स्नातक की डिग्री लेते ही स्कूल ने उनको साइन्स टीचर के स्थान पर रख लिया.इसके साथ ही उन्होंने टीचर्स ट्रेनिन्ग कर ली. एम.एड कर लेने के पश्चात निर्झरणी ने कोलेज में लेक्चरर के पद के लिये आवेदन कर दिया.इस नौकरी पर वो १६ साल तक बनी रही और इसके लिये वो रोजाना ८ घण्टे का सफ़र तय करती थी.१९९१ में पी.एच डी करने के पश्चात २००२ में वो उसी कोलेज की प्रिन्सीपल के पद के लिये चुनी गई जहां कभी वो खुद पढी थीं और नौकरी करती थी.तदोपरांत सी पी एम ने उन्हें असेम्ब्ली चुनाव के लिये टिकट दिया और वो जीती.आज निर्झरणी एम.एल.ए और प्रिन्सीपल के पद बखूबी संभाल रही है.सुबह वो कोलेज जातीं हैं और बाकी का पूरा दिन अपने क्षेत्र में घूमते हुए बिताती हैं.फ़िल्हाल वो कांचरापाडा में एक फ़्लाईओवर और एक नहर बनवाने की कोशिश में लगी हुई हैं.इस सब के बावजूद वो कोलेज बंद होने के पश्चात ब्लैकबोर्ड पौंछना नहीं भूलती.शांत,संयमी और निर्झर की तरह जीवन को जीने वाली निर्झरणी जी के जीवट को सलाम .५४ वर्षीया निर्झरणी सिद्ध करती हैं कि THE INDIAN WOMAN HAS ARRIVED.

July 28, 2008

ये वक्त हैं हिम्मत ना हारने का , विश्वास ना खोने का ।

बम धमाको मे घायल और स्वर्गवासी भारतीयों को " नारी " ब्लॉग के सदस्यों का नमन । ये वक्त हैं हिम्मत ना हारने का , विश्वास ना खोने का । आप सब " भारत " परिवार का हिस्सा हैं और जब परिवार बड़ा होता हैं तो तकलीफ कितनी भी मिले सब मे बंटकर कम हो जाती हैं । देश मे आंतकवादी कुछ भी करले हमे , हमारी एकता को कभी नहीं तोड़ सकते । धीरज रखे और साथ बनाए रखे । अप्रवासी भारतीये आप को किसी को भी कहीं संदेश भेजना हो तो आप हमलोगों { ब्लॉग समाज मे किसी से भी } से सम्पर्क कर सकते हैं । हम हर सम्भव कोशिश करेगे कि आप का संदेश आपके परिजन तक पहुँच सके ।
वंदे मातरम , जय हिंद
इस के साथ साथ ईमेल का इस्तमाल बहुत सोच समझ कर करे। अपनी ईमेल मे cc कि जगह bcc का use करे । अपनी ईमेल id और पासवर्ड का ध्यान रखे और बदलते रहे । जिनको नहीं जानते हैं उनका ईमेल बिलकुल ना खोले bulk ईमेल भेज कर किसी का id आप CIRCULATE कर देते हैं जो उसके लिये खतरा भी हो सकता . हैं .

July 27, 2008

असंख्य माँओ ने वो दान किया जो केवल एक माँ ही कर सकती हैं .

भारत मे हर १००० जन्मे बच्चो मे ५७ बच्चे की मृत्यु जनम लेते ही होजाती हैं और१००० मे ४३ बच्चे जनम ले ने के महीने के अंदर नहीं रहते । डॉ अर्मिदा फेर्नान्देज़ { Dr Armida Fernandez } ह्यूमन मिल्क बैंक की फाउंडर हैं । उनके अथक परिश्रम और उनकी दूरगामी सोच के कारण भारत ही नहीं एशिया का पहला ह्यूमन मिल्क बैंक १९८९ से SION MILK BANK के नाम से बना । ये बैंक लोकमान्य तिलक मुनिसिपल जनरल हॉस्पिटल मुंबई मे हैं । इस बैंक को ९२४ लीटर दूध का डोनेशन " डोनर मदर " ने किया हैं जो अपने आप मे इक रिकॉर्ड हैं । डॉ अर्मिदा फेर्नान्देज़ का कहना हैं की ये सब इतना आसन नहीं हैं पर मुश्किल भी नहीं हैं । उनके अनुसार १२००० डिलिवरी हर साल होती हैं और अगर हर माँ को समझाया जाये तो वह " माँ का दूध " का दान अपनी इच्छा से कर देती हैं । ये दूध वज्ञानिक तरीको से सुरक्षित रखा जा सकता हैं ६ माह के लिये और उन बच्चो के लिये " राम बाण औषधि " साबित होता हैं जो माल नुत्रिशन के शिकार हैं या जिनेह छोड़ / त्याग दिया जाता हैं ।


डॉ अर्मिदा फेर्नान्देज़ "स्नेहा " की फाउंडर हैं । स्नेहा , डॉक्टरो के द्वारा चलाई जा रही संस्था हैं जो माल नुत्रिशन { malnutrition } पर काम करती हैं . ज़रा सी शिक्षा ने असंख्य माँओ से वो दान करवा दिया जो केवल एक माँ ही कर सकती हैं । आज बहुत से अस्पतालों मे ये बैंक चल रहे हैं ।

ज्यादा जानकारी के लिये लिंक क्लिक करे और इसे ही कहते हैं " The Indian Mother Has Arrived " .

July 26, 2008

क्या करूँ और क्या जवाब दूँ???

कुछ महीनो पहले अमेरिकासे आयी बिटिया (अब तो जानेका समय आ गया है) और परसों पोहोंचे मेरे दामाद्से मेरा अक्सर एक बातपे टकराव हो जाता है! उनके मुताबिक हिन्दोस्तान रहने लायक जगह नही रही है!!मेरा कहना है की जो बाहर जाके बस गए हैं, उन्हें ये टिपण्णी देनेका कोई इख्तियार नही!!हाँ, यहाँ रहें, इस देशके लिए कुछ करें, तभी कुछ टीका करनेका हक बनता है!!
कुछ रोज़ पहले बिटियाके पेटमे दर्द उठा। किडनी स्टोन का निदान हुआ। दोक्टार्स जो मेरे मित्र गन हैं, सलाह देने लगे की खूब पानी पिके देखो शायद खुदही बाहर आ जाए। खैर एक दिन मैंने उस से कहा की, अच्छा हुआ जो होना था, हिन्दोस्तान मे अपनी माँ के घर हुआ। बिटियाने मचलके घुस्सेसे कहा," क़तई नही ! वहाँ होता तो अच्छा होता!अबतक तो मुझे आपातकालीन रूम मे ले गए होते और पत्थर बाहर आ गया होता"!
मै खामोश हो गयी। इस दरमियान कुछ दिनोके लिए वो अपने ननिहाल रहके आयी थी। छाया चित्रकारीका नया नया शौक़ और खूब सारी तस्वीरें खींचना ये उसकी दिनचर्यामे शामिल हो चुका है। वास्तुशात्र छोड़ वो पूरी तरह इसीको अपना व्यवसाय बनाना चाहती है। और क्यों नही??बेहद अच्छी तस्वीरें उसने खींच रखी हैं...हजारों की तादात मे...अपना ब्लॉग और वेबसाइट दोनों बना रखा है। मुझे नेटपे बैठा देख, उठ्नेका तुंरत आदेश मिल जाता है!!(अभी इत्तेफाक से बिजली है और बेटी- दामाद बाहर घूमने गए हुए हैं)!
खैर ! जब अपने नानिहालसे लौटी तो पटके दूसरे हिस्सेमेभी दर्द शुरू हो गया। उसकी दोबारा सोनोग्राफी करनेका मैंने तुंरत इन्तेजाम कर दिया। वहाँसे लौट ते हुए वो रिपोर्ट लेके हमारे डॉक्टर मित्रके पास सीधा पोहोंच गयी। उधरसे फोन करके मुझे कहा,"माँ! मुझे अपेंडिक्स का ओपेराशन करवाना होगा। डॉक्टर ने तुंरत करवाना है तो अभी एकदमसे अस्पताल पोहोंच जाओ! मै वहीं जा रही हूँ।"
मैंने कहा," बेटे, मैभी आउंगी तुम्हारे साथ। तुम बघार आके मुझे लेते जाओ।"
उसने कहा," घर तो मै आही रही हूँ। अपनी कुछ पाकिंग करूंगी तथा पहलेके रिपोर्ट्स आदी साथ ले लूंगी। पन्द्रह मिनिटों मे पोहोंच रही हूँ। आप तैयार रहिये। झटसे चलेंगे।"
मै स्नानकी तैय्यारीमे थी। मैंने कहा," बेटा मुझे कमसे आधा पौना घंटा तो लगेगाही...."
"तुम्हे इतनी देर लेने की क्या ज़रूरत है??वो इतनी देर नही रुक सकते! उन्हों ने ओपरेशन थिएटर बुक कर दिया है। एक घंटेमे मेरी सर्जरी भी तय की है!आप तुंरत निकल पडो!"
मै बोली," बेटे, मुझे बैंक सेभी कुछ रक़म निकालनी होगी...औरभी कागज़ात जो बोहोत ज़रूरी हैं, साथ लेने होंगे, मेरे अपने रहनेके लिहाज़ से कपड़े आदी रखने होंगे ...मुझे कुछ तो समय लगेगाही। तुम ऐसे करो, आगे चलो, अपना खून आदी तपस्वाना शुरू कर दो, ड्रायवर को वापस भेज दो, मै पोहोंच जाउंगी।"
बिटिया जब घर पोहोंची तो मै स्नान करके अपने कपड़े आदी रख रही थी। उसने अपनी चीज़ें इकट्ठी की और वो निकल गई। ड्राईवर लौट आया। मै रास्तेमे बैंक हो ली। अस्पताल पोहोंची तो पता चला सर्जरी का समय दोपहर ३ बजेका तय हुआ है। मेरी सांसमे साँस आयी! चलो और पूरे दो घंटे हाथमे हैं!
मैंने कमरेमे ठीकसे सामान लगा लिया। उसके टेस्ट आदी चलते रहे। शामतक सर्जरी हो गयी। रातमे बिटिया दर्दमे थी। मै जागती रही। कभी नर्सको बुलाती तो कभी उसके सूखे होंट पानी घुमाके तर करती। सुबह उसका कथीटर निकाला गया। मैंने उसे bedpan देना शुरू किया।
चार दिन पूरी सतर्क तासे गुज़ारे। कभी अजीब जगाह्पे इव लगते तो मै शिकायत लेके दौड़ पड़ती...मेरी बेटी तक्लीफ्मे है...IV बाहर हो गयी है...जहाँ डाली है वो जगह ठीक नही है...उँगली के सान्धो पे डालनेकी क्या ज़रूरत है? आदी , आदी शिकायतें जारी रहती!!माँ का दिल जो ठहरा!!
जब घर आना था उस रोज़ उसके पिता मुम्बई से पोहोंचे। हालाँकि उसे अस्पताल उस दिन छोडा जाएगा इसकी मुझे ख़बर नही थी, लेकिन क्योंकि एक पलभी न उसे न मुझे वहाँ आराम मिल रहा था, मैंने डॉक्टर से गुजारिश ज़रूर की थी। मेरे पती आए तो मैंने कहा," मै घर जाके इसके लिए ढंग का सूप और पतली खिचडी बना लाती हूँ।"
मै जैसेही घर पोहोंची, खाना चढ़ा दिया, कपडों की मशीन चला दी। ये सब करही रही थी के फोन आया," उसे डिस्चार्ज मिल रहा है!"
मै खुश हो गयी। भागके उसका कमरा ठीक किया। तकिये रचाए। बिटिया घर पोहोंची तो सब तैयार था। वो पहले मेरे कमरेमे आयी। मैनेही विनती की। मुझे उसी कमरेमे सोके उसका ध्यान रखना ज्यादा आसान होगा।
वहाँ पे तकिये आदी रचाके उसे बिठाया और मै सूप और खिचडी ले आयी। जैसेही पहला कौर मुहमे गया, मेरी लाडली चींख पडी," माँ!! ये क्या है??इसमे कितना नमक पडा है!"
मैंने हैरान होके खिचडी चखी। नमक तो ठीक था!!इनसेभी चख्वा ली । इन्हों नेभी कहा,"हाँ! नमक तो ज़्यादा नही लग रहा!"
लेकिन बिटियाने खिचडी हटा दी। सूप पिया। खिचडी मे मैंने बादमे और चावल मिला दिए। कुछ देरके बाद बिटियाने कहा," मुझे मेरेही कमरेमे ले चलो। मुझे यहाँ आराम नही लग रहा"।
मै उसे वहाँ ले गयी। कई रानते उसके साथ सोती रही। अस्पतालमे अगर मेरे सोनेवाले सोफेका हल्का-साभी आवाज़ होता मेरी लाडली दहाड़ उठती ,"माँ!! आप कितना शोर करती हो! मुझे क़तई आवाज़ बर्दाश्त नही होता! आप क्यों ऐसा करती हो?"
मै खामोश रहती। कोई बात नही। अपने नैहरमे आयी लडकी है। माँ पे कुछ तो अपनी चलायेगी!!
मैंने एकदिन उसे कह दिया," बेटा इसतरह का आराम तुम्हे अमेरिकामे कोई दे सकता था? न तुम्हे बाज़ार जानेकी फ़िक्र, न घरका कोई दूसरा काम...तुम जो चाहती हो मै हाज़िर कर देती हूँ...ड्राईवर तैनात है....कपड़े धुले धुलाये, इस्त्री होके मिल जाते हैं....एक दिनमे मैंने तुम्हारे लिए दो नाईट गाऊन सी दिए...जो तुम मुहसे निकालती हो मै दौड़के उसका इंतेज़ाम कर देती हूँ...ये सुख परदेसमे तुम्हे हासिल होता?? "
इस बातका उसके पास जवाब नही था। वो मान गयी। पर जैसे कुछ ठीक हुई, हिन्दोस्तान और माँ दोनोपे टिप्पणी कसना शुरू हो गया! वैसे किडनी स्टोन को क्रश किए बिना वो भारत छोड्नाभी नही चाहती!!
और माँ का दिल जानता है की मै उसे कितना याद करूंगी जब वो लौट जायेगी....! अपनी पैठनी साडियां कटवा रही हूँ उसके कुरते सीनेके लिए, कढाई करकेभी सिलवा राहीहूँ ...! दिनरात मेरी लाडली के खिदमत मे लगी हूँ...पर कभी, कभी रातोंमे, जब कुछ बोहोत कड़वा बोल जाती है तो चुपचाप आँसू भी बहा लेती हूँ!!
जवाब खुदही सूझ गया,ये माँ का दिल है...ऑलाद कुछभी कह जाय, वो दुआ ही देगा!!सिर्फ़ अपने देशकी नुक्ता चीनी बार-बार नही सह पाती!!

July 25, 2008

" औरतो जैसी बात मत करो "

नारी ही नारी कि दुश्मन हैं और नारी जो नारी आधारित विषयों पर बात करती हैं वो फेमिनिस्ट हैं । फेमिनिस्म यानी नारी का समाज से विद्रोह । ये सब धारणाए कहां से आती है ? किसने इनको बनाया और क्यों ??
इला और अनुजा दोनों कि पोस्ट इस पोस्ट से पहले आयी हैं । और दोनों ही इस बात को मानती हैं कि नारी जब नारी के लिये संवेदन शील हो जायेगी समाज मे बदलाव , नारी कि स्थिति परस्थिति को ले कर ख़ुद आजायेगा । पर क्या सचमुच ऐसा हैं ?? समस्या हैं हमारे दिमाग कि सोचने की जो सालो से आदि हो चुका हैं हर बात को विभाजित करने मे पुरूष और स्त्री के सन्दर्भ से । हम कोई भी बात करते हैं यहाँ तक कि हम सोचते भी हैं तो विभाजित सोच से ।

पल्लवी त्रिवेदी ने इला कि पोस्ट पर कमेन्ट किया हैं

"यह बात केवल नारियों पर ही लागू नहीं होती ...चाहे वह कोई भी इंसान हो,स्त्री या पुरुष यह प्रवत्ति होती है की सामने वाला व्यक्ति ज्यादा प्रसन्न नज़र आता है!नौकरीपेशा आदमी को बिजनेसमैन ज्यादा सुखी लगते हैं!घरेलु औरत को कामकाजी महिला ज्यादा सुखी लगती है!यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है जो सभी में पाई जाती है और ऐसा इसलिए है क्योकी सामने वाले की परेशानियों से हम वाकिफ नहीं होते!इसे स्त्री और पुरुष के नज़रिए से सोचना मेरे हिसाब से उचित नहीं है!यदि एक पुरुष कहता है की फलाना पुरुष मुझसे ज्यादा खुश है तो इसे तो कोई पुरुष पुरुष का दुश्मन है के रूप में नहीं लेता? सिर्फ नारियों पर ही ये बात क्यों?" पल्लवी त्रिवेदी कि बात शत प्रतिशत सही हैं ।

हम एक नारी के प्रति दूसरी नारी के संवेदनशीलता या असंवेदनशीलता के भाव को "वैमनस्य" क्यों मानते हैं जबकि हम एक पुरूष के प्रति दूसरे पुरूष के संवेदनशीलता या असंवेदनशीलता के भाव को " human nature या इंसानी प्रकृति " का नाम देते हैं । क्यों हमारे सोच के दायरे इतने संकुचित हैं ? कि हम समान व्यवहार प्रक्रिया को भी अलग अलग नाम देते हैं ?

नारी को नारी के विरुद्ध खडा कौन करता हैं ?? हम नारियां कभी इस बारे बात क्यों नहीं करती ?? अँगरेज़ चले गए " डिवाइड एंड रुल " नहीं गया । घर मे एक हर नारी एक साथ जुड़ जायेगी तो " पितृसत्ता " का क्या होगा ? सभ्य से सभ्य घरो मे किसी न किसी समय एक आवाज जरुर गूंजती हैं " औरतो जैसी बात मत करो " । और नारी चाहे गृहणी हो या नौकरीपेशा या बिजनेस वूमन कही ना कही इस आवाज को जरुर कभी ना कभी सुनती हैं । अब "बात " भी औरतो या मर्दों जैसी होती हैं ??


बहुत सी महिला इस बात को मानती हैं कि "घर" कि शान्ति के लिये पुरूष के अहेम को बढ़ावा देते रहो और अपनी जिन्दगी " शान्ति " से काट लो । वो अपनी जगह एक कूटनीति का इस्तमाल करती हैं पर ये भूल जाती हैं कि जिन्दगी जीने के लिये मिली हैं काटने के लिये नहीं और बिना कूटनीति के भी नारी को जिन्दगी जीने का अधिकार ही "समानता" की पहली सीढी हैं । उनकी ये सोच आने वाली नारी कि पीढी के लिये सबसे ज्यादा हानिकारक हैं क्योकिं ये सोच नारी को एक कुचक्र मे फसाती हैं और "तिरिया चरित्र " कि उपाधि दिलाती हैं । अरे जो अधिकार हमारा हैं उसके लिये "चालबाजी" हम क्यों करे ??

एक सवाल ये भी हैं कि नारी ऐसा क्यों करती हैं इसका सीधा जवाब हैं जो दिनेशराय द्विवेदी ने अपने कमेन्ट मे दिया हैं

"....... देश की अधिकांश महिलाएं उन के अधिकारों से ही परिचित नहीं हैं। व्यावहारिक ज्ञान के नाम पर उन के दिमागों में इतना कूड़ा भर दिया जाता है कि उसे साफ करना भी असंभव प्रतीत होता है, ऊपर से वे उसे ही ज्ञान समझने लगती हैं। ....."

ये व्यवहारिक ज्ञान नारी को कहाँ से मिला । शिक्षा का ज्ञान पहले पुरूष ने पाया { मेरी हिस्ट्री कमजोर हैं सो अगर ये ग़लत prove हो जाए तो सबसे ज्यादा खुशी मुझको होगी } और अपनी पूरक !!!!!!!!!!!! को छान छान कर पुरूष ने वोह ज्ञान दिया जो केवल व्यावहारिक ज्ञान था और जिसमे सबसे ज्यादा महत्व इस बात को दिया गया कि नारी का स्थान बराबर का नहीं हैं , "हम को खुश रखो , हम देते रहेगे । " "तुम घर मे रहो , बाहर कि दुनिया तुम्हारे लिये "सही" नहीं हैं ।" "हम मरे तो तुम हमारे साथ "सती" हो जाओ क्योकि तुम अकेली नहीं रह सकती ।"" हमारा क्या हम तो तुम्हारे मरते ही दुसरी तुम्हारे जैसी लेही आयेगे । "

फिर कुछ humane पुरूष आए जिन्होने नारी शिक्षा का प्रसार किया , सती प्रथा का विरोध किया और नारी को एक नये रास्ते का रास्ता दिखाया । उस समय जो भी नारी इस नये रास्ते पर चली " विद्रोही" कहलाई । उसके बाद फेमिनिस्म का प्रसार हुआ फेमिनिस्म यानी नारी का समाज से विद्रोह ।

हर उस चीज़ से विद्रोह जो उसके लिये " बनी " थी । अब हाल ये हैं कि ब्लॉग भी लिखो तो "ब्लॉग फेमिनिस्म " कहा जाता हैं । एक तरफ़ फेमिनिस्म को "विरोध " माना जाता हैं तो दूसरी तरफ़ नारी का किया हुआ हर कार्य "फेमिनिज्म " के दायरे मे आता हैं । यानी नारी कुछ भी करे अपनी मर्ज़ी का तो वह विद्रोह हो जाता हैं ।
ज्यादा दूर क्यों जाते हैं इस हिन्दी ब्लॉग समाज को लीजिये । नारी ब्लॉग के एक अन्य ब्लॉग दाल रोटी चावल से भी लोगो को परेशानी हैं और वो ये मानते हैं हैं कि रसोई मे खाना बनाना "फेमिनिज्म का विरोध " हैं यानी विरोध का विरोध । अभिप्राय सिर्फ़ इतना हैं कि नारी को अपनी मर्ज़ी से कुछ भी क्यों करना हो ? अब जब ब्लॉगर समाज जो एक जहीन पढा लिखा समाज हैं वो इस सोच का आदि हैं तो उस समाज कि क्या बात करनी जहाँ अशिक्षा हैं । सवाल ये नहीं हैं कि नारी को नारी का साथ नहीं मिलता इस लिये परेशानी हैं , सवाल हैं कि नारी से समाज चाहता क्या हैं ?? नारी नारी के ख़िलाफ़ नहीं होती , नारी को नारी के खिलाफ किया जाता हैं "survival " का डर दीखा कर ।
साले - बहनोई के द्वेश यानि मतभेद
नन्द - भाभी का मतभेद यानी द्वेश
ससुर - दामाद का मतभेद यानी पिता का पुत्री के लिये प्यार
सास - बहु का मतभेद यानी एक दूसरे के प्रति डाह { यहाँ इसे माँ का बेटे के लिये प्यार क्यों नहीं }
पिता - पुत्र का मतभेद
माँ - बेटी का द्वेश या माँ कि रोक टोक
आज कि पोस्ट मे बस इतना ही

July 24, 2008

बिगडी हुई लड़की ?

मेरे पिछले लेख पर एक बेनामी टिप्पणी आयी,
mai age ki padhai karne ke liye dusre sahar gayi,pg ban kar rahi aur baad me naukri bhi ki.love marriage kiya to saas ne kharab character hone ka ingit bhi kiya hai.ek rishtedar to ye bhi kaha ki chote saharo ki ladkiyo ka yehi kaam hai ke bahar aao aur affair karo.kya sirf itni si karan ke liye chote saharo ki ladkiya apne ghar ka nirapatta chodna chahti hai?kya ghar baithe affair nahi hota?aap sab itni acchi baate karte hai is baare me kya rai hai?

ये अक्सर सुना जाता है, लडकी को पढने या नौकरी करने के लिये बाहर मत भेजो,बिगड जाएगी.ये बताइये, बिगडना क्या होता है? जब कोई लडकी,घर की चार-दीवारी से से बाहर पढने या नौकरी करने जाती है,तो उसका संपूर्ण परिदृष्य बदल जाता है.अब तक उसने घर का वातावरण ही देखा होता था,उसे स्कूल-कॊलेज तक जाने की छूट या ज़्यादा से ज़्यादा अपनी सहेलियों के घर तक जाने की इज़ाजत मिली होती थी.घर से बाहर भी वो अपने परिवार के साथ ही जाती थी .अब जब वो घर से दूर रहना शुरु करती है तो उसे कई बदलावों का सामना करना पडता है.अपने घर के सुरक्षित वातावरण से दूर,ना ही कोई बंधन.हर समस्या के लिये पहले घर वाले उपलब्ध होते थे,अब उसके आस पास सहपाठी या रूम मेट्स होते हैं.पहले हर छोटे बडे निर्णय के लिये वो घर वालों पर निर्भर रहती थी,अब उसे खुद ही सारे निर्णय लेने पड जाते हैं.इस तरह धीरे धीरे उसमें मानसिक परिपक्वता आ जाती है,निर्णय क्षमता आ जाती है.साथ ही उसे कहीं भी आने जाने की,किसी से भी मिलने मिलाने की हिम्मत भी आ जाती है..
इस सब से उसके अन्दर एक किस्म का आत्मविश्वास आ जाता है.उसके मिलने जुलने वालों का दायरा भी बडा होता जाता है.इतना सब होने से वो छुई मुई सी लडकी जो छोटे शहर से आयी होती है,उस की पूरी शख्सियत बदल जाती है.यह ट्रान्सिशन धीरे धीरे और स्वाभाविक होता है.खुद कई बार लडकी को भी अपने भीतर आये हुए बदलाव का पता नहीं चलता.ऐसे में यदि वो अपने शहर वापस जाती है तो ये बदलाव सबकी नज़रों में खटकता है.वो किसी भी बात पर अपना मत प्रकट करती है तो सबसे पहले घर वाले ही उसे टोकते हैं,मोहल्ले और समाज की तो बात ही क्या करें.लडकी के बदले हुए नज़रिये को समाज स्वीकार नहीं कर पाता, ऐसे में उसका अपने जीवन से संबंधित कोई भी निर्णय बिगडी हुई साबित कर देता है.यदि वो प्रेम विवाह करती है तो मानों पहाड टूट पडता है.ऐसा नहीं कि घर में रहने वाली लडकियों के प्रेम संबंध नही होते,किन्तु ज़्यादातर ये संबंध उजागर नहीं हो पाते और अक्सर आगे जा भी नहीं पाते.दबे छुपे किया गया प्रेम, विवाह की वेदी तक पहुंचने से पहले ही दम तोड देता है क्यूंकि घर में रहने वाली लडकी के पास एक आज़ाद द्रष्टिकोण नहीं होता.उसके पास अपने परिवार से लडनी की हिम्मत नहीं होती,क्योंकि परिवार ही तो उसके जीवन का आधार है.आपने कितने ऐसे प्रेम-विवाह देखे होंगे जहां लडकी घर में ही रही हो.स्वाभाविक रूप से बाहर रहने वाली लडकियों के प्रेम संबंध/विवाह का प्रतिशत ज़्यादा होता है.किन्तु इस सब में अकेले लडकी को दोष देना कहां तक उचित है? हर लडकी जो घर से बाहर निकल कर पढ्ती है या करियर बनाती है,वो बिगडी हुई नहीं है.उसे तो मेहनत करने और अपना घर चलाने से इतनी फ़ुर्सत ही नहीं होती कि वो इधर उधर झांके.हां,यदि उसके परिवेश में, वातावरण में लडकों का साथ है तो ऐसे प्रेम सम्बंध जन्म ले सकते हैं. लडके भी तो घर से ,शहर से बाहर जाकर पढते या कमाते हैं.उनके निर्णय का समाज या परिवार पर ज़्यादा फ़र्क नहीं पडता.यह कह कर कि ये तो लडका है,ऐसा करना इसका अधिकार है,हमारा समाज उसके हर अच्छे बुरे फ़ैसले पर अपने मुहर लगा देता है.अब समय आ गया है कि लडकी को भी लडके के बराबर हक मिले.वो भी पढ लिख कर, अपने नौकरी या व्यवसाय में सफ़ल हो कर लडकों की बराबरी कर रही है तो उसे अपने जीवन के निर्णय लेने का अधिकार क्यों नहीं मिल पा रहा? उसे ही क्यों घर परिवार और समाज के ताने सुनने पडते हैं ,उसी की खुशियों पर ग्रहण क्यों लगता है बार बार?अपनी इच्छा से विवाह करना चाहती है तो क्यों और अविवाहित रह कर अपने करियर को गति देना चाहती है तो क्यों? ऐसे सवालों से अब उसे निजात मिलनी ही चाहिये.अब समय आ गया है कि घर की माएं अपनी बेटियों के सपनों को समझें और उनकी उडान को सफ़ल बनाने में सहयोग दें,संघर्ष करें. जब तक मां नहीं जागेगी,लडकियों के सपनों की भोर नहीं होगी.

July 23, 2008

बस इंतज़ार है उस बदलाव का

हर तरफ हल्ला मचा है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति में बदलाव आ रहा है। स्त्री का स्तर ऊंचा उठ रहा है। समाज और परिवार में उसको सुना जा रहा है। गांव की स्त्री शहरी स्त्री से कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। अगर वाकई यह बदलाव आ रहा है तो सामने दिखता क्यों नहीं! कहीं यह मेरा दृष्टि-दोष तो नहीं कि मैं बदलाव को देख नहीं पा रही। या कहीं कुछ गड़बड़ है।
स्त्री की सामाजिक-पारिवारिक स्थिति पर रात-दिन लिख-लिखकर पन्ने रंगते रहना, कभी मौके-बेमौके आंदोलन की धींगा-मुश्ती कर लेना, इससे भी बात न बन पाए तो टेलीविजन पर कथित आधुनिक स्त्री को दिखाकर या देखकर 'देखो स्त्री बदल रही है' जैसी ख़ुशफ़हमी दिमागों में पालकर खुद ही प्रसन्न होते रहना। लगता है शायद यही और यहीं तक बदलाव आ रहा है। जिसे हम आज की भाषा में आधुनिक बदलाव की संज्ञा देते हैं।
इधर स्त्री-विमर्श के रखवाले तो स्त्री को देह से दूर रखकर कुछ भी देखना और समझना ही नहीं चाहते। वे महज़ इसी बात से खुश और संतुष्ट हैं कि स्त्री की देह चर्चा में है। हमारा स्त्री-विमर्श सफल हुआ। हमें और क्या चाहिए। स्त्री को देह मानने वालों के लिए वही नयनसुख का साधन है।
खैर इस मत-विमत के बहाने मैं बहस को स्त्री-देह की कीचड़ के निकालकर कुछ अलग उस स्त्री पर बात करना चाहती हूं जो कथित बदलाव से दूर ही नहीं बल्कि बहुत दूर है। सदियां गुज़र जाने के बावजूद मुझे भारतीय स्त्री आज भी दबी-कुचली, सहमी और पितृसत्तात्मक्ता की गुलामी में ही बंधी नज़र आती है। उसका बजूद आज भी पिता, पति और सामाजिक परंपराओं-रूणियों की चारदीवारी में कैद है। यहां कहीं आजादी नहीं है उसे। पहले पिता का डंडा। फिर पति की हिटलाशाही। और इसके बाद समाज की कही-अनकही लालछनें। इन सब से लुट-पीटकर उसका एक यातना गृह और है, वह है, स्त्री द्वारा स्त्री को ही दबाने-सताने उसका उत्पीड़न करने की नीच कोशिशें। बेशक, हम पुरुष-सत्ता को स्त्री पर किए गए आत्याचारों के लिए खूब कोस सकते हैं। किसने रोका है हमें। लेकिन हम उस आत्याचार पर प्रायः चुप्पी साध जाते हैं जो स्त्री द्वारा स्त्री पर ही किया-करवाया जाता है। हां, अगर कोई विरोधी आवाज़ इसके खिलाफ उठती है तो डांटकर उसे बैठा दिया जाता है कि अरे यह तुम क्या कह रही हो! स्त्री होकर स्त्री का अपमान करना चाहती हो। शर्म आनी चाहिए तुम्हें। आदि-इत्यादि।
स्त्री द्वारा स्त्री का शोषण-उत्पीड़न आज हर घर, हर समाज, हर जाति की चिर-परिचित कहानी बन गया है। तिस पर भी हमारा नारी-समाज उससे परिचित नहीं होना चाहता। जाने क्यों आवाज़ उठाने से डरता है? घर में मां की सख्ती। ससुराल में सास का कहर। समाज में एक-दूसरे के खिलाफ षड्यंत्र। आज टीवी पर आने वाले सीरियल इसी 'तानाशाह स्त्री' को दिखा-दिखाकर पैसा भी बना रहे हैं और टीआरपी की रेस को जीत भी लेना चाहते हैं। स्त्री को स्त्री के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है।
इसे हमारे समाज की बिडंवना ही कहा-माना जाएगा कि यहां स्त्री को स्त्री के खिलाफ आत्याचार करते हुए हम-आप आराम से देख-सुन सकते है लेकिन जहां बात समलैंगिक संबंधों की स्वीकृति की आती है तब हमें अपनी सभ्यता-संस्कृति तुरंत खतरे में पड़ती नज़र आने लगती है। समलैंगिक संबंधों का नाम सुनते ही हमें सांप-सा सूंघ जाता है। दीपा मेहता की वाटर फिल्म पर मचा बवाल तो याद होगा ही आपको। एक स्त्री जब दूसरी स्त्री का शोषण कर सकती है तो उसके शारीरिक संबंधों पर इतना विरोध और अफसोस क्यों और किसलिए। उत्तर दें।
स्त्री पर चल रहे तमाम बदलावों के मद्देनज़र स्त्री के खिलाफ स्त्री के उत्पीड़न में अपने समाज और परिवारों में अभी तक कोई बदलाव नहीं आ पाया है। मुझे इस बात की भी बेहद तकलीफ है कि अभी तक किसी भी महिला-ब्लॉगर ने इस मुद्दे पर गंभीरता से न अपनी बात को रखा और न ही किसी बहस का आयोजन किया है। जबकि यह हम से ही से जुडा एक गंभीर मुद्दा है। इस मुद्दे पर बात ही नहीं लंबी बहस भी होनी चाहिए।
पुरुष को बुरा-भला कहना-लिखना बेहद सरल है पर एक दफा हमें अपने उन आत्याचारों पर भी निगाह डालनी चाहिए जो हम अपनों के ही खिलाफ घर-बाहर रचते या देखते-सुनते रहते हैं।
मैं प्रायः ऐसी तमाम महिलाओं से रू-ब-रू होती रहती हूं जो किसी न किसी बात में, कहीं न कहीं किसी दूसरी महिला के खिलाफ ज़हर उगलने में ज़रा भी सकुचाती नहीं। बुराई करने में उन्हें आनंद आता है। मगर इस आनंद को कभी न कभी तो बंद करना ही पड़ेगा। अगर ऐसा कुछ होता है तब मुझे लगेगा कि हां बदलाव की असल बात और बयार अब शुरू हुई है यहां।
देखते हैं, कितनी स्त्रियां इस आत्याचार पर कितना और कहां तक पहल कर पाती हैं! और कितनी कोशिश कर पाती है बदलाव के आधार को मजबूत बना पाने में।

July 22, 2008

नारी नारी में भेद

कल रचना के लेख में एक बात उभर कर सामने आयी,जो हमें बहुत कुछ सोचने को विवश कर देती है.रचना ने अपने लेख में बहुत ही अच्छी तरह से पूरक और ज़रूरत के बीच का भेद समझाया है.हम सभी को मालूम है कि परिवारों से समाज का निर्माण होता है,और परिवार में महिला और पुरुष दोनों ही साझीदार होते हैं.यहां तक सब ठीक रहता है.फ़र्क कहां आता है? जब कोई स्त्री विवाहित ना हो ,तलाकशुदा हो या विधवा हो,तो समाज का नज़रिया स्वत: ही एक नेगेटिव दृष्टिकोण से ओतप्रोत हो जाता है.यदि इस प्रकार की स्त्री परिवार के साथ रहे तो फिर भी समाज थोडा बहुत सहन कर लेता है किन्तु यदि वो अकेले रहना चाहे,अपना जीवन यापन करना चाहे तो समाज के लिये यह अक्षम्य हो जाता है.हम लाख कहें कि ज़माना बदल रहा है,किन्तु कहां बदल रहा है ज़माना?दिल्ली जैसे महानगर में मकान मालिक अकेली महिलाओं को मकान किराये पर नहीं देते,और यदि दे भी देते हैं तो हज़ारों वर्जनाओं के साथ,जैसे कोई पुरुष आपके घर नहीं आयेगा,रात १० बजे के बाद आप घर नहीं आ सकेंगी,घर की एक चाबी मकान मालिक के पास रखनी होगी आदि.हम छोटे शहरों और गावों में तो कल्पना भी नहीं कर पाते एक अकेली रहने वाली स्त्री की.मोहल्ले वाले भी ऐसी अकेली नारी के हर कदम पर नज़र रखते हैं,कब आ रही है,रात को किस के साथ कितने बजे लौटी,रात को कब तक इसके घर की बत्ती जल रही थी इत्यादि.इस सब में पुरुष नहीं महिलायें ही ज़्यादा आगे रहती हैं.पुरुष तो ज़्यादातर घर से बाहर रह कर रोज़ी रोटी की जुगाड में लगे रहते हैं,कुछेक पुरुष इसका अपवाद हो सकते हैं,किन्तु स्त्री जगत इस बात को सबसे ज्यादा तूल देता है.अब यहां पर हम सब नारियां ही प्रगतिशील नारियों की दुश्मन हो जाती हैं.इसके साथ ही एक खाई पैदा होती है समाज में,वो भी नारियों के बीच.अकेली/शादीशुदा नारीऔर नौकरीशुदा/घर पर रहने वाली नारियों के बीच एक स्वाभाविक वैमनस्यता देखी जाती है जो कि अत्यन्त दुर्भाग्यपूर्ण है.शादी शुदा, परिवार के साथ रहने वाली स्त्रियों को अकेली महिला एक सम्भावित घर तोडू महिला लगती है.इसे और क्या काम है,ना पति ,ना बच्चे?मस्त रहती है,खुद कमाती है,खुद पर ही खर्च करती है,जिम्मेदारी क्या होती है कोई हमसे पूछे?कभी यहां जा ,कभी वहां जा,कोई रोकने टोकने वाला तो है नहीं?
दूसरी ओर अकेली महिला सोचती है,इन घर पर रहने वाली औरतों को क्या काम है,बच्चे पालो,खूब टीवी देखो,दोपहर में पैर फ़ैला कर सो जाओ,शाम को पति के सामने सजधज कर आ जाओ.दिन भर इसकी उसकी चुगली करने के सिवा इन औरतों को काम ही क्या है.कोई हमसे पूछे,रोज़ाना दफ़्तर में काम,बौस की डांट,सहकर्मियों की निगाहें/मज़ाक झेलती हुई घर आती हैं तो कभी आटा खत्म कभी दूध खत्म.घर गृहस्थी अकेले चला कर दिखाये कोई?कभी सिर्फ़ चाय ब्रेड खाकर सोना पडता है,कभी बिना इस्तरी किये कपडे पहनने पड जाते है.हमें तो ये देखने की फ़ुर्सत भी नहीं होती कि पडोस में क्या हो रहा है.
मुझे तकलीफ़ इसी बात से होती है कि जब हम नारियां ही आपस में विभक्त हैं तो नारी उत्थान की बात करने का क्या फ़ायदा.हम क्यूं इर्ष्या करती हैं एक दूसरे से? यदि हम इस पूरी वस्तुस्थिति को बदल के देखें तो ये भी हो सकता है कि पडोस में यदि इस प्रकार की कोई महिला रहती है तो घर में रहने वाली स्त्री उसके साथ सहयोग करे और बदले में उस के लिये बाहर का काम नौकरी से लौटते हुए अकेली महिला कर दे.कई ऐसे तरीके हैं जिन से स्त्रियां एक दूसरे की पूरक हो सकती हैं.यहां पर पूरक शब्द खरा उतरता है.ज़रूरी नहीं कि स्त्री पुरुष ही एक दूसरे के पूरक हों,नारी भी दूसरी नारी की पूरक हो सकती है.ज़रूरत है सिर्फ़ विचारधारा में बदलाव लाने की.यही बदलाव हममें अपने आप में लाना है.स्वाधीनता या आज़ादी घर में रह कर भी पायी जा सकती है और बाहर जा कर भी.कितनी ही ऐसी महिलाओं को जानती हूं जो नौकरी करते हुए भी हर छोटे बडे निर्णय के लिये घर के पुरुषों पर निर्भर करती हैं.जब तक स्त्री समाज आपस में सामन्जस्य स्थापित नहीं करेगा,एक जुट नहीं होगा,एक दूसरे की निन्दा करना बंद नहीं करेगा तब तक स्त्री मुक्ति या स्त्री उत्थान की चर्चा करना फ़िज़ूल है.याद रखिये हम नारियां ही हैं जो अपने घर में एक पुरुष को जन्म देती हैं,कोई भी बच्चा,चाहे वो लडका हो या लडकी,मां के साथ सबसे ज़्यादा समय बिताता है.इसलिये घर की नारी का ये फ़र्ज़ है कि वो अपने हर बच्चे को सही गलत का मार्ग दिखायें,उसे स्त्री की इज़्ज़त करना सिखायें. तभी ऐसा दिन भी आयेगा जब नारी को अपना हक स्वाभाविक रूप से मिल जाएगा,उसे किसी से लडना नहीं पडेगा.तभी हम सब गर्व से कह सकेंगी,THE INDIAN WOMAN HAS ARRIVED.

July 20, 2008

दोनों को एक दुसरे कि जरुरत हैं वो चाहे भावनात्मक हो , या शारीरिक या मानसिक ।

मेरी पिछली पोस्ट मे जितनी भी टिप्पणी आयी उन सब मे अगर मेरे कहे हुए शब्द " जरुरत " पर आपति दर्ज हुई तो बात घूम कर फिर आगई " पूरक " पर । राष्ट्र प्रेमी जी और इलेश जी दोनों ने जो उदाहरण दिये वह फिर घूम कर नारी - पुरूष को केवल एक ही सम्बन्ध मे देखते हैं पत्नी - पति । इस विषय पर सदियों से बात होती रही हैं की पति -पत्नी एक दूसरे के पूरक हैं और इस लिये जरुरी हैं की दोनों इस बात को समझे । लेकिन ये एक पारम्परिक सोच हैं नारी को एक ही ढांचे मे देखने की या कहे तो एक ही तरह के चश्मे से रिश्तो को देखने की । ये सोच हैं बार बार उसी बात को कहने की , कि अगर आप नारी हैं तो आप किसी कि पत्नी होगी यानी औरत हैं तो घर और शादी आप का फाइनल डेस्टिनेशन या पढाव होना ही हैं । यानी अगर औरत हो तो इससे आगे मत सोचो और यही से शुरवात होती हैं असमानता की । पुरूष के लिये सबसे जरुरी नौकरीसमझी जाती हैं नारी के लिये सबसे जरुरी शादी । इसी वज़ह से ज्यादातर अभिभावक लड़कियों कि पढाई पर ध्यान नहीं देते थे और लडकियां भी इससे अपनी नियति मान कर साज सिंगार , गुडियों , मेंहदी , चूड़ी , बिंदी , खाना बनाना इत्यादि मे अपना सारा ध्यान लगाती थी और शादी होते ही ससुराल मे रम कर वो सब manipulation { छल-कपट } सीखती थी जिसे करके वो सुविधा से अपनी जिन्दगी काट सके .
समय बदला और शिक्षा के प्रसार से कुछ महिला नौकरी करने बाहर आई पर समाज मे उनको वो सम्मान नहीं मिला जो एक नौकरी करते पुरूष को मिलता था । एक और असमानता ।
अब जब नारी नौकरी करने लगी तो उसके सम्बन्ध पुरूष से पिता/ पति / पुत्र/ भाई के दायरे से अलग हुए यानी वोह पूरक नहीं हुई उसने अपनी जरुरत बाँई हर उस कार्य स्थल मे जहाँ पुरूष काम करते थे । बदलते समय ने नारी को बहुत जगह पुरूष का बॉस भी बनाया तो वहां भी पूरक का प्रशन ही नहीं होता हैं । हाँ दोनों को एक दूसरे की जरुरत है ।
इस सब मे नारी घर मे कम और बाहर ज्यादा रहने लगी इससे सबसे ज्यादा फरक उसके पति को पडा क्योकि एक टीचर / कॉलेज कि प्राध्यापिका तो मंजूर कर ली थी samaaj ने क्योकि वह ४ घंटे बहार काम करती थी और फिर घर संभालती थी । ये नहीं हैं कि उसके पति काम मे हाथ नहीं बटाते थे पर घर का काम मतलब औरत का काम और इसीलिये कुछ पारम्परिक कहावते भी कही गयी " बिन घरनी घर भूत का डेरा " यानी बीवी नहीं तो आप का घर कौन साफ़ करे !!!!!!!!!!!!!! सो सीधी बात हुई कि पत्नी भी पूरक ना होकर घर कि जरुरत होती हैं ।
आज कल अभिभावक बेटी कि शिक्षा और नौकरी के प्रति जागरूक हैं सो नारियां बहुत आगे जाने कि सोच सकती हैं । अब जैसे कल्पना चावला जो स्पेस मिशन मे थी अगर उसका पति ये सोचता कि बच्चे होने चाहिये तो शायद कल्पना चावला उस ऊंचाई पर ना पहुच पाती जहाँ पहुची पर ध्यान देने की बात हैं कि उसका पति भारतीये नहीं था । वो दोनों भी भावनात्मक सुरक्षा देते थे एक दूसरे को , उसका पति उतनी ऊँची पोस्ट पर भी नहीं था पर फिर भी उन दोनों कि शादी कामयाब थी और वो दोनों एक दूसरे कि जरुरत थेक्योकि वो दोनों समान थे । जरुरी नहीं हैं कि नारी अपनी कैरियर कि तिलांजलि देना चाहे संतान उत्पति के लिये ।
परम्परागत तरीको से हट कर सोचने का समय हैं क्योकि इस पीढी कि लड़किया अपने कैरियर के प्रति सजग हैं उनमे से बहुत सी केवल इसलिये शादी नहीं करती क्योंकि भारतीये पुरूष आज भी अपनी पत्नी के कैरियर के प्रति उतना चिंतित नहीं होता जितना जिन्तित एक भारतीय पत्नी होती हैं अपनी पति के कैरियर के लिये । जब सब कुछ इतना असमान हैं , कोई बराबरी कि बात नहीं हैं तो फिर ये कहना कि पति पत्नी पूरक हैं अपने आप मे एक भ्रम ही लगता हैं । हाँ दोनों को एक दूसरे कि जरुरत हैं वो चाहे भावनात्मक हो , या शारीरिक या मानसिक । पूरक तो तब होते जब हर चीज बराबर बटती / मिलती ।

July 18, 2008

हम सब सामाजिक व्यवस्था मे बदलाव लाने से इतना डरते क्यों हैं ?

किसी भी ब्लॉग पर अगर स्त्री पुरूष की समानता की बात होती हैं तो जितनी भी टिप्पणियां आती हैं सब मे एक ही बात होती हैं की स्त्री पुरूष मे लिंग भेद के आधार पर असमानता भारतीये पारम्परिक सामाजिक व्यवस्था की देन हैं ।

नीचे लिखे कुछ कमेन्ट देखे


रंजना [रंजू भाटिया] said...
यह फर्क इस लिए है क्यूंकि अभी यह हमारे संस्कारों में बसा हुआ है । पैदा होते ही यह यह फर्क दिखने लगता है और बाद में होने वाले वक्त में यह बढ़ता ही जाता है ॥सोच में बदलाव आएगा तभी सब ठीक हो पायेगा .

Anonymous said...
घर की समस्याओं का हल घर में ही खोजा जाए, तो ही अच्छा है।---------sahi to hai , likh likh ke blog spece bekaar karne se to achcha hai . aur ghar ka mamla ghar me rahna chahiye na !!!! use public sphere me mat uchhalo bhaii .ghar toot jaaegaa to sab khatma ho jayega . ghar tabhi tootega jab aurat zid karegi aur pati ahankari hoga . aurat ko hi jhukna hoga , agar ghar bachana hai .ye marxvad kaise beech me aayaa ?
July 9, 2008 6:19 PM

Ila said...
बेनाम जी ने सिर्फ़ औरत को ही झुकने की सलाह दे डाली है,उसे जिद्दी करार दे दिया है, सुरेश जी ने औरत को धमका ही डाला है कि ज्यादा अधिकारों की मांग करोगी तो पहले के मिले अधिकार छीन लिये जाएंगे.क्षमा करें यदि इस प्रकार के पुरुष/महापुरुष स्त्री विमर्श की चर्चा में शामिल होंगे तो स्त्री का भला होने से रहा.हां ये सही बात है कि घर मे ही इस समस्या का समाधान ढूंढा जा सकता है किन्तु ये नौबत आई ही घर से है जहां स्त्री द्वारा किये गये कार्यों का कोई मूल्य नही आंका जाता.
July 9, 2008 7:22 PM

अनुराग अन्वेषी said...
बेशक, अधिकतर मर्द की निगाह में घर के काम की कोई कीमत नहीं (यहां कीमत का संबंध पैसे से नहीं, बल्कि महत्व देने से है)। दरअसल, पुरुष प्रधान भारतीय समाज की निगाह में अब उसी काम की कोई कीमत होती है, जिसके किये जाने से आर्थिक लाभ हो। यह समाज मानता है कि जहां प्रत्यक्ष आर्थिक लाभ नहीं, वैसे किसी भी काम की कोई कीमत नहीं हो सकती। इस समाज को अपनी यह दृष्टि बदलनी चाहिए।पर एक और स्थिति भी दिखती है। इस समाज के कई पुरुष ऐसे कई काम करते हैं, जो प्रत्यक्ष रूप में आर्थिक लाभ नहीं पहुंचाते। बल्कि वह सामाजिक संबंधों को मजबूत करते हैं। अपने इर्द-गिर्द एक समाज बुनते हैं, जो 'उनके (पुरुष के) घर-परिवार' को सुरक्षा देता है। ऐसे कामों में पुरुष जब ज्यादा उलझता है, तो उसे अपने घर से ही नसीहत मिलती है - क्या बेकार के कामों में उलझे रहते हो। ऐसी स्थिति में पुरुष अपने पक्ष में हजार तर्क गढ़ता है, जैसे घरेलू कामों के संदर्भ में महिलाएं। पर दुखद यह है कि दोनों मिलकर एक-दूसरे के लिए न तर्क गढ़ते हैं, न तर्क तलाशते हैं। ऐसी ही स्थितियों के कारण 'नर्क' बनता है। जिसे भोगते हुए हम बिलबिलाते हैं, छटपटाते हैं। सचमुच, जब तक हम एक-दूसरे के प्रति और एक-दूसरे के काम के प्रति सम्मान की निगाह नहीं रखेंगे, नर्क की आग हमें झुलसाती रहेगी।

Mired Mirage said...
स्त्रियों को मायके में जमीन जायदाद में हिस्सा नहीं दिया जाता था अतः इस तरह से वह कसर पूरी की जाती थी। यह बात और है कि इससे स्त्री का बिल्कुल भी भला न होकर हानि ही होती है। यदि मायके वाले दें भी तो सबको मिले बँटें कपड़ों आदि से उसे क्या लाभ? यदि न दें तो उसका अपमान ! जमीन जायदाद में हिस्सा तो पुरुष को तभी मिलता है जब जमीन जायदाद हो, स्त्री के मायके वालों के लिए वह हो या न हो देना अनिवार्य बन गया है। सो यह मायके से लपकने झपटने की प्रवृत्ति हानिकारक ही है। उससे तो बेहतर हो कि स्त्री को भी जमीन जायदाद में हिस्सा या उसके मूल्य की अचल सम्पत्ति दे दी जाए। विवाह के समय नहीं, तब जब बंटवारा हो।घुघूती बासूती
July 5, 2008 9:07 PM

Mired Mirage said...
कोई गहरा छिपा हुआ कारण नहीं है सिवाय स्वामित्व व दासित्व के!घुघूती बासूती
June 28, 2008 12:21 PM

राष्ट्रप्रेमी said...
मीनाक्षी जी एक दम सही फ़रमा रहीं हैं आप विकासवाद, बाजारवाद, भौगोलीकरण व समानता के अधिकारों की अन्धी प्रतिस्पर्धा में ऐसा न हो जीवन ही पीछे छूट जाय और हम मशीन बनकर रह जायं.
June 24, 2008 9:32 AM

Suresh Chandra Gupta said...
विचार विमर्श में हठ नहीं होना चाहिए. चर्चा तभी आगे बढ़ती है जब मुद्दे पर एक से अधिक राय होती हैं. दूसरी राय को विरोध नहीं समझना चाहिए. दूसरी राय हमारी राय को या तो परिष्कृत करती है या और मजबूत करती है. बचपन में मैंने पढ़ा था कि स्त्री-पुरूष एक गाढ़ी के दो पहिये हैं. दोनों मिल कर खीचेंगे तभी गाढ़ी आगे बढ़ेगी. एक अगर अपनी प्रधानता दिखायेगा, या दूसरे को अपने से कम समझेगा तो गाढ़ी आगे नहीं जा पाएगी. परिवार एक गाढ़ी है जिसे स्त्री पुरूष दोनों मिल कर चला रहे हैं. दोनों बराबर हैं. जिन परिवारों में दोनों को समान अधिकार हैं वह परिवार आगे बढ़ते हैं. जिन परिवारों में यह समानता टूटती है वह परिवार भी टूट जाते हैं.

July 17, 2008

बात हो अपनी गलतियों कि , बात केवल परिवार को बचाने कि ही नहीं बात हो समाज मे बराबरी की ।

आईये दुनिया को आधा आधा बाँट कर नारी और पुरूष के वैमनस्य को ख़तम करके , एक सार्थक समाज और सार्थक भारत का नव निर्माण करे । ऐसा भारत जहाँ हमारे नियम अपनी बेटे और बेटी के लिये एक ही हो । बात करे उन विषयों पर जो आज तक हमे ऐसा करने से रोकते रहे हैं . आधी दुनिया को बाँट कर हम एक पूरी दुनिया का निर्माण करे । पुरूष और नारी को एक दूसरे का पूरक ना मानकर एक दूसरे की जरुरत माने तो शायद हम कुछ बदल पायेगे इस समाज को ॥ तो दे आहुति अपने विचारों की इस नव निर्माण के यज मे । चर्चा के लिये पोस्ट और कमेन्ट दोनों आमन्त्रित हैं । बात हो अपनी गलतियों कि , बात केवल परिवार कि ही नहीं बात हो समाज मे बराबरी की । विचार आमन्त्रित हैं। ५० % ब्लॉग पर देखे और पोस्ट दे महिला और पुरूष दोनों ही । पुरूष मित्रो ने बार बार कहा की वोह साथ मे लिखना चाहते हैं । सो ५०% उनके लिये ही हैं ।
Gender InEquality is state of mind and nothing more . Biological differnce is no reason for indiscrimination or inequality .

July 16, 2008

अनाथालय राउंड - एक रैंप शो

जिस महिला आनाथालय में मदों का अंदर आना मना है वहां अगर रैंप पर उतरने वाले मॉडल लड़के आ जाये तो इसे क्या कहा जायेगा? ऐसा ही हुआ मेरठ के एक अनाथालय में। रैंप पर उतरने से पहले उनके लिये एक राउंड रखा गया, अनाथालय राउंड, आपको हैरानी हो रही होगी, अनाथालय राउंड क्या ??मुझे भी हुई थी। जो कंपनी मॉडल तैयार कर रही ही थी उसने महिला अनाथालय में एक आयोजन किया। इस आयोजन में अल्हड़ उम्र की जवान लड़कियों को पहले सबके सामने ला कर जमीन पर बिठा दिया। बाद में मॉडल लड़कों ने उन्हें फल व चाकलेट देने के बहाने बातचीत शुरू कर दी। बातचीत के दौरान लड़के उन मासूमो को गहरे से देख रहे थे, अनाथ लड़कियों को समझ नहीं आ रहा था कि वे उनसे क्या बात करें। जिन्होंने कभी बाहर की हवा भी नहीं देखी उनके सामने मॉडल आ गये तो उनका हैरान होना वाजिब था। बड़े लड़कों को देख कर वे मासूम लड़कियां लजाने लगी। कोई अपनी चुनरी को सही करने लगी तो किसी ने लजा कर अपने चेहरे पर हाथ पर रख लिया। मुझे यह सब काफी अजीब लगा तो कंपनी की एक परमोटर में से मैने पूछा कि मॉडल लड़कों को यहां लड़कियों की बीच लाने का क्या अर्थ?वह बोली, हम देखना चाहते हैं कि इन लड़कियों से मिल कर मॉडल लड़कों के मन में कैसे भाव आते है? इसके लिये इन्हें अंक भी दिये जायेंगे। मैंने मौके से लौट कर अपने संपादक से बात की तथा असलियत बतायी, यह भी पूछा कि अपने एंगल से खबर को लिखूं या सपाट खबर लिखूं, मॉडलों ने कुछ पल बिताये अनाथालय में ? तय हुआ सपाट खबर लिखी जाएं। मैंने सपाट खबर लिख दी लेकिन जो मैंने महसूस किया वह सिर्फ यहां लिख रही हूं। 'सवाल यह है कि क्या मॉडलों को महिला अनाथालय में इस तरह से घुसने की इजाजत देनी चाहिए? आखिर उन मासूम और उम्र से अल्हड़ों को क्या पता कि यह कंपनी का परमोषन भर है, उन्हें एक एक चाकलेट, बिस्कुट या फल देना तो उन्हें मात्रा यूज करने जैसा है। कंपनी को पता है, उसकी खबर अखबारों में छपेगी, उसे प्रचार मिलेगा, वह भी बिना कुछ खर्च किये। दूसरे दिन सभी अखबारों में खबर भी छपी, उनका फोटो भी छपा . कभी कभी अपने से ही एक वितृष्णा होती हैं , एक मायूसी भी जो अपने को अपनी नज़र मे छोटा बनाती हैं

July 15, 2008

यौन शोषण के खिलाफ लड़ी और जीती

मिसाल हैं डॉ आशा सिंह जो CRPF मे डॉक्टर हैं । डॉ आशा सिंह को उनके सीनीयर ने मजबूर किया की वह एक पुरूष कैडेट के साथ घर शेयर कर के रहे जबकि और घर खाली पडे हुए थे । डॉ आशा सिंह को बार बार उन जगहों पर पोस्ट किया जाता था जहाँ केवल पुरूष बटालियन होती थी और कोई महिला अधिकारी नहीं होती थी । उनको 100-200 km दूर दराज CRPF companies मे निरंतर पोस्ट किया जाता था जहाँ कोई भी मेडिकल की सुविधा नहीं थी और उनसे रात मे ओफ्फिसर्स मेस मे शराब पिलाने की ड्यूटी करने को कहा जाता था । अजीब लगता है ये जानकर की एक महिला को जिसने अपनी जिन्दगी के बहुमूल्य ७ साल मेडिकल की पढाई मे लगाए और CRPF को ज्वाइन किया उसका इस प्रकार से यौन शोषण और उत्पीडन किया जाए । पर तारीफ करनी होगी डॉ आशा सिंह की , उन्होने RTI का उपयोग करके अपने सीनियर को जवाब देने के लिये मजबूर किया । Central Information Commission ने माना हैं की CRPF को RTI के तहत आई इस शिकायत याचिका पर जवाब देना होगा , CRPF चाहती थी की सुरक्षा एजेन्सी होने की वज़ह से उसको RTI के दायरे से बाहर रखा जाये । इस चरित्र कोई यहाँ रखने का मकसद हैं की नारी को यौन शोषण के ख़िलाफ़ हमेशा सजग रहना होगा और समय रहते ही इसके ख़िलाफ़ लड़ना भी होगा । किसी भी डर के बिना नए रास्तो पर चलना होगा और बंधी बंधाई लिक पर ना चल कर घुटन से अपनी आज़ादी को ख़ुद अर्जित करना होगा । सच हर मुश्किल से मुश्किल रास्ते को आसन करदेता हैं और किसी न किसी तो पहल करनी ही होती हैं तो हम क्यों नहीं ??
ज्यादा जानकारी के लिये लिंक देखे
डॉ आशा सिंह जैसी महिला को जानकर फिर एक बार The Indian Woman Has Arrived

July 14, 2008

सिर्फ़ औरत थी वह, कमजोर थी

रोज़ जब अखबार पढने बैठो तो एक ख़बर जैसे अखबार का अब हिस्सा ही बन गई है , कभी १२ साल की लड़की का रेप कभी घर में ही लड़की सुरक्षित नही है क्यूँ बढता जा रहा है यह सब ? क्या इंसानी भूख इतनी बढ़ गई ही कि वह अपनी सोच ही खो बैठा है ...और वही बात जब रोज़ रोज़ हमारी आँखों के सामने से गुजरे तो हम उसके जैसे आदि हो जाते हैं फ़िर वही गंभीर बात हमें उतना प्रभावित नही करती है जितना पहली बार पढ़ कर हम पर असर होता है और हम उसको अनदेखा करना शुरू कर देते हैंकुछ दिन पहले अनुराग जी की एक पोस्ट ने जहन को हिला के रख दिया .कैसे कर सकता है कोई ऐसे मासूम बच्ची के साथ
क्यूँ आज अपने ही घर में लड़की सुरक्षित नही है ? यह प्रश्न कई बात दिलो दिमाग पर छा जाता है और फ़िर दूसरी ख़बरों की तरफ़ आँखे चली जाती है ..अब यदि अरुशी हत्याकांड का जो सच बताया जा रहा है वह भी अपने ही घर में असुरक्षित मामले से ही जुडा हुआ है यदि वह सच है तो शर्मनाक है यह सब सोच कर गुलजार की एक कविता याद आ जाती है ..

ऐसा कुछ भी तो नही था जो हुआ करता था फिल्मों में हमेशा
न तो बारिश थी ,न तूफानी हवा ,और न जंगल का समां ,
न कोई चाँद फ़लक पर कि जुनूं-खेज करे
न किसी चश्मे, न दरिया की उबलती हुई फानुसी सदाएं
कोई मौसीकी नही थी पसेमंजर में कि जज्बात हेजान मचा दे!
न वह भीगी हुई बारिश में ,कोई हुरनुमा लड़की थी

सिर्फ़ औरत थी वह, कमजोर थी
चार मर्दों ने ,कि वो मर्द थे बस ,
पसेदीवार उसे "रेप "किया !!!

July 13, 2008

रानी थी सो गोली हुई

रानी थी सो गोली हुई
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मैने पिछली पोस्ट पर कुछ सवाल उठाये थे पति पत्नी के संबधों को ले कर, उसी कड़ी में कुछ और बातें, आज सवाल नहीं कर रही, कुछ अपने आस पास देखी सुनी बातें आप से बांट रही हूँ।
एक बात जो मैने अक्सर नोट की है वो ये कि मीडिया नारी उत्पीड़ीन की जब भी बात करता है तो 99% बहू पर हुए अत्याचार की बात करता है, शायद इस लिए कि ये स्टोरी बिकती है, ज्यादा सहानुभूति बटौरती है। कभी किसी मीडिया में ये नही कहा जाता कि सास को बहू के हाथों क्या क्या यातनाएं सहनी पड़ती हैं , शायद आप में से भी कई लोगों को मेरा इस दूसरी नारी की व्यथा की ओर ध्यानाकर्षण करना पसंद न आये पर मेरे परिवेश के जो अनुभव हैं वो भी उतने ही सच है जितने मीटिया में रिपोर्ट किए हुए बहू या पत्नी के साथ हुए अत्याचार। मेरा परिवेश शायद पूरे भारत का प्रतिनिधत्व नही करता लेकिन फ़िर भी भारत के एक बड़े हिस्से का प्रतिनिधतव तो करता ही है। मैने देखा है कि आज कल की सासें अपनी बहुओं से डरती हैं। मेरे ही कॉलेज में एक समय में दो टीचरों के बच्चों की शादियां हो रही थीं( एक दूसरे के साथ नहीं) एक के लड़के की शादी थी और दूसरे की लड़की की। हमने नोट किया कि शादी तय होते ही लड़के की मां के चेहरे पर तो हवाइयां उड़ी हुई थी और लड़की की मां ठ्सके से इधर उधर उड़ रही थी। और ये हाल उनका मैने शादी के हॉल में भी देखा।

ये तो थी बम्बई की बात , अभी हाल ही में मेरी एक अंतरंग सहेली अपने एक नजदीकी रिश्तेदार की शादी में देहली गयी थी, लौट कर बता रही थी कि पूरी शादी में लड़की वालों ने एक रुपया भी नही खर्चा और ऐसे घूमते रहे जैसे वो मेहमान हों और लड़के की मां ने अपनी ईज्जत के अनुसार सारा इंतजाम किया। लड़के की मां के माथे पर फ़िर भी शिकन तक न थी वो यही कहती रही कि चलो इतनी तो गनीमत है कि लड़की के घरवाले आ तो गये, ईज्जत बच गयी, नहीं तो लोग क्या कहते कहीं भगा के तो नहीं लाया ल्ड़की को या अनाथ तो नहीं। वैसे अगर ऐसा होता भी तो क्या फ़र्क पड़ जाना था। उनकी बातें सुन कर मेरी आखों के सामने पिक्चरों में देखे वो सारे सीन घूम रहे थे जिसमें लड़की का बाप दहेज के रुपये जमाने के चक्कर में अपना सत्यानाश कर लेता है।क्या वो पुरानी बातें नहीं हो गयीं। शायद नहीं, मुझे लगता है कि कुछ प्रातों में अभी भी दहेज की प्रथा है। बम्बई में तो दहेज की बात करने का मतलब है खुद को जलील करना।
एक और किस्सा सुनिए। हमारी एक मित्र कई दिनों बाद मिली, उसके इकलौते लड़के की शादी के बाद उसने बड़े चाव से अपनी बहू से हमें मिलवाया था। बहू बेहद सुंदर और बातचीत करने में शालीन। हमने उसे बधाई दी थी। अब एक साल बाद मिली तो हमने पूछा भई क्या हाल, तुम तो मजे मना रही होगी। उसने लंबी सांस भरी और चुप हो ली। बहुत कुरेदने पर बताया कि उसका बेटा मिलिट्री में होने के कारण साल में एक हफ़ते के लिए ही घर आ पाता है। बहू बेटे के साथ ही उस एक हफ़्ते के लिए आती है और वही एक हफ़्ता ऐसा होता है जब मेरी सहेली सोचती है कि मैं कहां चली जाऊँ घर छोड़ के। उसे समझ नहीं आ रहा कि अपनी इक्लौती बहू को कैसे खुश रक्खे। एक बार की बात बताते हुए बोली कि उस एक हफ़्ते में वो अपने लड़के पर पूरा लाड़/ममतत्व उडेल देना चाह्ती है पर उसकी बहू को ये बिल्कुल पसंद नहीं इस लिए वो मन मसौस कर रह जाती है , बेटे से प्यार के दो शब्द भी नहीं बोलती। उसी एक हफ़्ते में एक दिन सुबह का वक्त था, नाशते का वक्त हो चुका था, मां ने बेटे से पूछा क्या नाश्ता खाना पसंद करोगे और उसने कहा ऑमलेट टोस्ट, मां ने बड़े प्यार से ऑमलेट बनाया, और परोसा, इतने में बहू भी उनींदी आखों को मलती आ गयी। सास ने कहा कि तुम भी साथ में नाश्ता कर लो। वो खुशी खुशी नाशता कर गयी। दूसरे दिन सुबह लड़का बड़ा चिंतित सा आता दिखाई पड़ा , मां ने पूछा क्या हुआ तो लगभग मां पर इलजाम लगाते हुए उसने कहा कि मां बेकार में घर की शांती भंग करती रहती हैं। वो हैरान कि मैने क्या किया या क्या कहा। वो बोला कि मेरी पत्नी नाराज हो कर कोप भवन में बैठी है। बहुत पूचाने पर बोली कि सास बेटे और बहू में फ़र्क करती है, सास ने कहा ऐसा मैने क्या कर दिया, बहू बोली, कल नाशते में आप जानबूझ कर मुझे जले हुए टोस्ट दे रहे थे और अच्छे से सिके टोस्ट अपने बेटे को। सास तो मानों आसमान से गिर पड़ी। सफ़ाई देते हुए कहा कि ऐसा तो मैने कुछ नही किया फ़िर भी अगर तुम्हे ऐसा लग रहा था तो पति की प्लैट से टोस्ट बदल लेतीं।अब वो मेरी सहेली उन लोगों के आने का नाम सुन ही डर जाती है। शादी में इकलौता बेटा दान में दे आई जैसे, कन्यादान लिया नहीं, पुत्र दान दिया।
ये सुनते ही हमारे मन में कर्वाचौथ की कथा गूंज गयी और मन कह उठा, रानी थी सो गोली हुई, गोली थी सो रानी हुई।

हमें तो आज कल की बड़ी बूढ़ी औरतों की तरफ़ ज्यादा ध्यान देने की जरुरत है, फ़िर वो चाहे मां हो या सास्। आज हर लड़की नौकरीपैशा है, ऐसे में सास को आराम देने का तो सवाल ही नहीं आता, नाती नाते, पोते पोती को पालने का जिम्मा भी हक्क से इन पर ढकेला जाता है, बिचारी माएं बेटियों के, बहुओं के घर भी संभालती हैं और बच्चे भी। पूरी जिन्दगी निकल जाती है बुढ़ापे को संवारने के यत्न में और सपने देखने में कि जब हम फ़्री होगें तो कहां कहां जाएगें। क्या वो फ़्री हो पाते हैं।

हमने अपनी पहली पोस्ट के एक कमैंट के जवाब में पूछा है कि ऐसा क्युं होता है कि अगर ननंद शादी के बाद किसी प्रकार की मुसीबत में पड़ जाए और मां बाप उसकी मदद करना चाहें तो सबसे पहला और सबसे तीव्र एतराज उसकी भाभी से आता है। भाभी खुद भी नारी है फ़िर भी। केस बताने की जरुरत नहीं, हमारा समाज ऐसी कई कहानियों से पटा पड़ा है।
एक बार फ़िर मुझे लगता है कि सारा खेल ताकत बटौरने, अपने अहं की तुष्टी करने का ही है।
बाकी बातें फ़िर कभी, अभी के लिए इतना ही…॥:)

राजस्थान पत्रिका का खुलासा हिन्दी के सबसे ज्यादा पेमेंट पाने वाले ब्लॉगर

राजस्थान पत्रिका का खुलासा हिन्दी के सबसे ज्यादा पेमेंट पाने वाले ब्लॉगर के बारे मे जो भी जानना चाहे इस लिंक को देखे । और हमेशा की तरह किसी भी ब्लॉग का नाम नहीं जिस पर महिला लिखती हैं । क्या ये अख़बार की अज्ञानता हैं ? या आप एडिटिंग का दोष या खेल कहेगे ? अब क्योकि प्रिंट मीडिया ने खुलासा कर दिया हैं तो टीवी चॅनल भी हिन्दी के सबसे ज्यादा पेमेंट पाने वाले ब्लॉगर को खोजेगे ताकि मसाला मिले ज्यादा कमाई का .

July 11, 2008

जिसकी लाठी उसकी भैस

दिनों से नारी ब्लोग पर लिखने का सोच रही थी, रचना जी से इस बात के लिए डांट भी खा चुकी थी कि अब तक मैने नारी ब्लोग के लिए एक भी पोस्ट नहीं लिखी। लेकिन मैं जब भी कलम उठाती हाथ रुक जाते , समझ ही नहीं आता क्या लिखूं, सब कुछ तो आप सब लोग लिख ही चुके थे, नया कुछ कहने को था ही क्या?दूसरा सवाल जो मेरे मन में उठता है वो ये कि मैं किस आधार पर इस विषय पर लिख सकती हूँ। दो ही आधार नजर आते हैं -
एक तो ये कि मैं खुद नारी हूँ तो नारी होने के नाते कुछ अनुभव अर्जित किए हैं।
लेकिन ये अनुभव कितने विस्तृत हैं?
क्या ये मुझे हर नारी की तरफ़ से बोलने का अधिकार देते है या ये सिर्फ़ मेरे निजी जीवन पर ही लागू होते हैं।
अगर मैं अपने अनुभवों को छोड़ इधर उधर नजर दौड़ाऊं ति क्या मै हर वर्ग की नारी को जानती हूँ, नहीं मैं सिर्फ़ उन नारियों को जानती हूँ जो मेरे संपर्क में आयीं, या मेरे परिवेश से जुड़ी हुई थी।
नारियों को जानने का दूसरा रास्ता है मेरे पास साहित्य, फ़िल्में और मिडिया- प्रिंट और इलेकॉट्रानिक दोनों।
इन सब स्त्रोतों को अगर मिला दूँ तो मुझे लगता है कि भारत कई तहों में जीता है।
नारियों के भी परिवेश काफ़ी विविधता लिए हैं। एक तरफ़ हम बड़े शहरों की नारियां है, पढ़ी लिखी, स्सशक्त, लोगों के कहे की परवाह न करने वालीं, खुले विचारों वाली। कइयों के लिए आदर्श और रश्क का कारण्। हम वो भाग्यशाली महिलाएं हैं जिनके जन्म पर खुशियां मनायी गयी थीं, जिन्हें बड़े लाडों से पाला गया और दुनिया की हर खुशी देने के लिए मां बाप ने दिन रात एक कर दिया।
दूसरी तरफ़ वो स्त्रियां है जिनके पैदा होने पर मातम छा गया था,जिनका पूरा जीवन सिर्फ़ एक बनावटी स्नेह से पगा हैऔर जिन्हें जिन्दगी भर खुद को मार कर दूसरों को सींचना है। जिन्हें रीति रिवाजों के नाम पर मर्दों की गुलामी भी करनी होती है और आज के युग की नारी होने के नाते अपने और दूसरों के पेट की आग बुझाने के लिए हर तरह का जुगाड़ भी करना होता है। मीडिया में खास कर टी वी सिरियलस में जो नारी का चरित्र दिखाया जाता है वो या तो बहुत ही अबला है या बहुत ही सबला। या तो जमाने की जन्मों की सतायी हुई या एक्दम स्कीमिंग टाइप, दंभी, निष्ठुर्।
अब ये पूछे जाने पर कि क्या नारियां ऐसी होती हैं कहा जा सकता है कि नहीं ये भी मर्दों की नारी को बदनाम करने की चाल हैं , सुना है सारे सिरियल लिखने वाले मर्द होते हैं।
जो भी है, मेरे जहन में कुछ बुनयादी सवाल हैं जिनका जवाब मैं आज तक नहीं ढूंढ पायी, उसमें से कुछ सवाल आप के सामने रख रही हूँ, मुझे पक्का विश्वास है किआप के पास जरूर इनमें से कई सवालों के जवाब होगें
1) हममें से कितनी नारियां शादी करने के वक्त इस बात को सहर्ष स्वीकार कर लेतीं कि हमारा भावी पति हाउस हस्बैंड बन के रहना चाह्ता है।
वो घर अच्छे से संभाल सकता है और आप पढ़ी लिखी कामकाजी महिला हैं, क्या हम ऐसी व्यवस्था से खुश होतीं। अगर स्त्री पुरुष समानता है, अगर दोनों को ह्क्क है कि वो बाहर जा कर कमाएं तो क्या दोनों को ये हक्क नहीं कि दोनों में से जो चाहे घरेलू ग्रहस्थ बन कर जीवन जी ले और दूसरा उसको स्पोर्ट कर ले।
2।) हममें से कितनी नारियां अपनी किसी सहेली को और उसके पति को पूर्ण आदर दे सकती अगर वो ऊपर लिखे सिस्टम का हिस्सा होती।
3) आज हर नारी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के लिए नौकरी करना चाह्ती है, उसके लिए जी तोड़ मेहनत भी करती है।
आर्थिक आत्मनिर्भरता होनी भी चाहिए। लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं हो रहा कि कुछ पाने के चक्कर में हम कुछ खो भी रहे हैं।
क्या आज नारी कल से ज्यादा आजाद है? शादी के बाजार में आज ऐसी लड़की की क्या कीमत है जो पैसा नहीं कमाती, अगर वो पढ़ लिख कर भी काम न करना चाहे तो क्या वो ऐसा करने के लिए स्वतंत्र है?
मैने बहुत सी कहानियों में पढ़ा कि अगर एक नारी अपने परिवार को आर्थिक रूप से संभालने लगती है तो उसके अपने मां बाप उसकी शादी नहीं करवाना चाह्ते, क्युं कि सोने के अंडे देने वाली मुर्गी हाथ से निकल जाएगी।
4) हम लोग अक्सर लड़की को ससुराल भेजने में जो तकलीफ़ होती है उसकी बात करते हैं , लड़की के दमन की बात करते हैं। अगर कल घर जमाई मिल जाए तो हममें से कितने लोग इस बात के लिए तैयार हो जायेगें, और क्या घर जमाई का शोषण न होगा ये कहते हुए कि अरे घर का ही आदमी है अब दामाद जैसे नखरे क्या करने।
5) हममें से कितने अपनी बेटी की शादी ऐसे व्यक्ति से करने को तैयार होगें जो हमारी बेटी से कम पढ़ा लिखा हो और कम कमाता हो।
6) किसी लड़की का रेप हो जाए तो हम उसके बारे में काफ़ी आवाज उठायी जाती है, और वो सही भी है लेकिन उन लड़कों का क्या जिनका यौन शौशन होता है, उनके लिए वही कानून बनने चाहिए इसके बारे में हम क्युं इतने जोर से नहीं बोलते
7) घर की चार दिवारी के अंदर होने वाली मारपीट में नारी पर होते अत्याचार को कई बार मीडिया में उछाला जाता है, क्या मर्दों पर ऐसे अत्याचार नहीं होते, होते हैं ये भी आज का सत्य है, पर उसे हम क्युं इतने जोर शोर से नकारते हैं, ऐसी औरतें जो पतियों पर अत्याचार करती हैं शारिरिक रूप से, मानसिक रूप से और भावनात्मक रूप से उन्हें कानून की गिरफ़्त में क्युं नही लिया जाता।
मैने खुद अपनी जिन्दगी अपनी शर्तों पर जी है, फ़िर भी ऊपर के सब सवालों का जवाब मेरे जहन में न है, तो क्या मैं अभी तक अपने विचारों में मुक्त हो सकी हूँ। शायद नहीं, आज भी मेरा मन बचपन से हुए आज तक के समाजिकरण से बंधा है। अगर कोई भारी वस्तु उठानी है या ट्रेन में ऊपर की सीट पर चढ़ना है तो उम्र बराबर होते हुए भी मैं मर्द से अपेक्षा रखुंगी कि वो यहां आगे बड़ कर कमान संभाले।मेरे हिसाब से बात मर्द औरत की नहीं है सारा किस्सा ताकत की लड़ाई का है, जिसकी लाठी उसकी भैंस।
अनूप शुक्ल जी के ब्लोग से मेरी पसंद की एक कविता जो मुझे लगता है आज की नारी पर भी सटीक बैठती है
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम.
पिंजरे जैसी इस दुनिया में,
पंछी जैसा ही रहना है,
भर पेट मिले दाना-पानी,
लेकिन मन ही मन दहना है,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे संवाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम।
आगे बढ़नें की कोशिश में ,
रिश्ते-नाते सब छूट गये,
तन को जितना गढ़ना चाहा,
मन से उतना ही टूट गये,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आबाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम.
पलकों ने लौटाये सपने,
आंखे बोली अब मत आना,
आना ही तो सच में आना,
आकर फिर लौट नहीं जाना,
जितना तुम सोच रहे साथी,
उतना बरबाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम.
आओ भी साथ चलें हम-तुम,
मिल-जुल कर ढूंढें राह नई,
संघर्ष भरा पथ है तो क्या,
है संग हमारे चाह नई
जैसी तुम सोच रहे साथी,
वैसी फरियाद नहीं हैं हम,
जैसे तुम सोच रहे साथी,
वैसे आजाद नहीं हैं हम.
-विनोद श्रीवास्तव

July 10, 2008

आठ साल की बच्ची तलाक माँगने अकेली ही कोर्ट जा पहुँची....

नूरानी रूप , मुस्कान विजय की , ऊर्जादायिनी

आठ साल की नोजूद ने अपने से 22 साल बड़े ज़ालिम पति से तलाक लेने का फैंसला ले लिया और अकेले ही कोर्ट पहुँच गई। नन्हीं सी जान समझ गई थी कि ज़िन्दगी में आने वाले तूफ़ानों से उसे अकेले ही मुकाबला करना है.
मासूम नोजूद कोर्ट में बैठी अपने सपनों की दुनिया में खोई हुई थी. जज साहब जैसे ही कोर्ट में दाखिल हुए तो उस छोटी सी बच्ची पर नज़र गई. पहले तो समझ न पाए कि एक बच्ची कोर्ट में क्या कर रही है लेकिन "मैं तलाक लेने आई हूँ" नोजूद की आत्मविश्वास से भरी आवाज़ सुनकर जज मुहम्मद अल क़ैथी हैरानी से उसे देखते रह गए.

हाँलाकि यमन के कानून के मुताबिक कोई औरत तलाक नहीं ले सकती लेकिन क्योंकि नोजूद कम उम्र की थी इसलिए फौरन उसके पिता नासेर और पति फैज़ को गिरफ़्तार करने का आदेश दे दिया. यमन के कानून के मुताबिक 15 साल की उम्र के बाद ही लड़के लड़कियों की शादी हो सकती है लेकिन 1988 के संशोधन के बाद माता-पिता 15 साल से कम उम्र के बच्चों का कोंट्रैक्ट बना कर शादी करवा सकते हैं लेकिन फिर भी बालिग होने के बाद ही पति-पत्नी का रिश्ता बनाने की बात कही गई है जिसे कम ही लोग मानते हैं. 30 साल का फैज़ उन दुष्ट लोगों में से था जो मासूम नाबालिग आठ साल की लड़की का दो महीने तक ब्लात्कार करता रहा.

शादी करने से मना करने पर मारा गया और जबरन शादी कर दी गई. खिलौनों से खेलने की उम्र में उसे ही खिलौने की तरह इस्तेमाल किया जा रहा था. माता-पिता और रिश्तेदारों के सामने गिड़गिड़ाने पर भी कोई मुक्ति का रास्ता दिखाने को तैयार था.

यमन में ऐसा पहली बार हुआ था कि आठ साल की बच्ची ने खुद कोर्ट जाकर तलाक माँगा हो. आज पति फैज़ जेल में है जो अब भी अपने आप कसूरवार नहीं मानता. खराब सेहत के कारण पिता को छोड़ दिया गया लेकिन नोजूद को वापिस माता पिता के पास इस डर से नहीं भेजा जा रहा है कि क्या पता फिर कुछ सालों में जबरदस्ती उसकी शादी किसी के साथ करवा दी जाएगी.
नोजूद के वकील ने उसे बच्चों की गैर सरकारी संस्था में रखने का सोचा है जहाँ उसे शिक्षा पाकर अपने पैरों पर खड़े होने का मौका मिल सकता है.

यह खबर यमन टाइम्स में ही नहीं गल्फ न्यूज़ में भी थी जिसे पढ़कर कई दिनों तक नोजूद जैसी कई बच्चियाँ दिल और दिमाग में आती रहीं जो शायद नोजूद जैसी हिम्मत न कर पातीं हों और जीते जी उस आग में झुलसतीं हो......

काश ..... नोजूद जैसे उनमें भी लड़ने की ताकत आ सके...!!

हम कब सुधारेंगे?

आज सुबह से ही तरह तरह के विचार दिलो-दिमाग को मथ रहे हैं.खबर आयी है कि मेरी पति की मौसेरी बहन का जहां तीन महीने पहले रिश्ता हुआ था,वहां से ना आ गई है.कारण? आप सुनेंगे तो चौंक जायेंगे !! उन्हें कहीं से पता चला है कि लडकी चश्मा लगाती है.जब लडका उसे देखने आया था तो लडकी ने कॊ्टेक्ट लेन्स पहन रखे थे.रिश्ता तय होने पर जब लडका और लडकी की फ़ोन पर बातें और आपसी मुलाकातें होने लगीं तो लडकी ने इमानदारी का परिचय देते हुए लडके को अपने चश्मे के बारे में बता दिया.यही इमानदारी उसकी परेशानी का सबब बन गई.हमारे समज में लदकी का रिश्ता टूटना,बहुत बुरा माना जाता है.समाज को भी इस घटना के बाद लडकी के चरित्र की छीछालेदारी करने का मौका मिल गया.मैं उस लडकी और उसके परिवार की मानसिक हालत समझ सकती हूं.लडकियां स्वाभाव से भावुक होती हैं,उसने रिश्ता तय होने पर कितने ही ख्वाब संजोये होंगे, वो सब किरच किरच हो गये. दिखने में सुंदर,संस्कारी, पढी लिखी,एक अच्छी नौकरी में जमी हुई लडकी सिर्फ़ इसलिये नकार दी गई कि वो चश्मा लगाती है, उसकी नज़र कमज़ोर है? मुझे बेहद तरस आया उन लोगों पर जिनकी खुद की नज़र इतनी कमज़ोर हो चुकी है कि लडकी का रूप गुण कुछ नज़र नहीं आ रहा.मज़े की बात ये है कि लडका खुद चश्मा लगाता है,किन्तु उसे चश्मे वाली पत्नी नहीं चलेगी.हम कैसे कह सकते हैं कि नारी को वो मुकाम हासिल हो गया है जिसकी वो हकदार है?हकीकत कुछ और है,हम देखना कुछ और चाहते हैं.आज भी हमारे समाज की यही मानसिकता है कि लडकी कितनी भी प्रगति कर ले, पढाई लिखाई में, कार्य क्षेत्र में, उसकी सफ़लता का माप-दण्ड आज भी उसके शादी शुदा होने से नापा जाता है. मैं यहां पर अपने ऊपर बीती हुई एक बात सब के साथ बांटना चाहती हूं.मेरी लम्बाई कुल मिला कर ५ फ़ुट पर बैठती है, मै तब(कौलेज के दिनों में) दुबली पतली भी बहुत थी.कुल मिला कर मैं शादी लायक मटीरियल नहीं थी.हां पढाई और अन्य गतिविधियों में अव्वल रहती थी,लेकिन ये सब उपलब्धियां शादी के लिये मान्यता नही रखती ना? जैसे ही मैने बी.एससी के द्वितीय वर्ष में कदम रखा, मेरे पापा और मम्मी के पास लोग सलाहों की पोटली लेकर आने शुरु हो गये, अभी से लडका ढूंढना शुरु कर दो, न इसके पास कद है, ना भरा पूरा शरीर, कोई भी लडका मिलते मिलते ४-५ साल लग जायेंगे.ऐसे ही इसे देख कर कोई हां नहीं भर देगा,तुमको तो दहेज में रुपया भी ज़्यादा देना स्वीकार करना होगा तब कहीं जाकर इसकी नैया पार हो पायेगी.मुझे गर्व है मेरे पापा पर, जिनका विश्वास था कि मेरी लडकी को यदि उसकी गुणों और उपलब्धियों के लिये पसंद किया जाता है तो ठीक,वर्ना मेरी बेटी मुझ पर किसी भी तरह से बोझ नहीं है.मै किसी को उत्कोच देकर अपनी बेटी का विवाह नहीं करूंगा. मुझे अपनी बेटी की हर छोटी-बडी उपलब्धि पर गर्व है.हुआ भी यही, मेरे पापा की शर्तों पर ही मेरा विवाह हुआ और आज मैं अपने जीवनसाथी के साथ बेहद खुश और संतुष्ट हूं.
कितनी ही माय़ें अपनी बेटी की सफ़लता पर गर्व नहीं कर पाती क्योंकि उन्हें सब जगह से सुनना पडता है
कि इसकी शादी कब करोगी?
घर में कब तक बिठा के रखोगी,
क्या इसकी कमाई का लालच हो गया है?
मैं समझती हूं कि यदि लडका नौकरी लगने पर अपने मां-बाप को पैसे दे सकता है तो लडकी क्यों नही? क्या उसकी पढाई लिखाई पर ,लालन पालन पर उन्होंने खर्च नहीं किया ?
उसे कब तक पराया माना जाता रहेगा?
माता पिता तक लडकी की कमाई को हाथ लगाने से इनकार कर देते हैं, इसे अलग रखो, तुम्हारे काम आयेगा.लडकी विवश रह जाती है।
मेरा मानना है कि जिस सामाजिक बदलाव की हम इच्छा रखते हैं,उसके लिये हम सब को अपनी समस्त ताकत और आत्मबल के साथ प्रस्तुत होना होगा।
हर लडकी के अन्दर इतना आत्मबल जगाना होगा कि वो खुद निर्णय ले कि उसे कैसा जीवन साथी चाहिये,उसे विवाह करना चाहिये कि नही? वो अपनी कमाई को किस पर खर्च करना चाहती है,इसके निर्णय की आज़ादी उसे मिलनी ही चाहिये,चाहे वो कुंवारी हो या शादी शुदा.तभी हम सब गर्व से कह सकेंगे, THE INDIAN WOMAN HAS ARRIVED.

July 09, 2008

"घर की समस्याओं का हल घर के बाहर तलाश रही है. " कूप मंडूक क्यों नहीं बनी रहती ???

नारी को कमजोर बनाती उसकी सोच की " ये काम क्योकि हम सालो से कर रहे हैं इस लिये ये काम नारी का काम हैं और इस लिये ये निम्न क्षेणी मे आता हैं . ये हमारा पूर्वाग्रह हैं कि क्योकि हम सालो से ये करते रहे रहे हैं ये निम्न क्षेणी चला गया हैं . और क्योकि हम सालो से ये करते रहे रहे हैं इस लिये हम इसको छोड़ कर ही आगे जा सकते हैं " खाना बनाना और उसमे प्रवीण होना ऐसा काम हैं जिसमे जितनी महारथ हो जाए उतना बढिया . नारी बरसो से रसोई संभाल रही हैं अब अगर वोह mutidimensional task करती हैं और समय नहीं पाती की खाना बना सके तो इसके लिये उसके मन मे ना तो कोई गिल्ट होना चाहीये और इसके साथ साथ उसके परिवार वालो को भी ये नहीं मानना चाहीये की " ये उसी का काम हैं " लेकिन अगर वह बाकी काम को साथ खाना बनाना भी करना चाहती हैं तो ये उसके एक्स्ट्रा स्ट्रोंग होने का सबूत हैं । काम का विभाजन समस्या नहीं हैं . समस्या हैं " सोच " कि काम का विभाजन हो लिंग भेद के आधार पर .
"
घर की समस्याओं का हल घर के बाहर तलाश रही है. "

ये कह कर आपने मूल समस्या को दर किनार कर दिया . समस्या हैं कि क्या "घर " केवल नारी की जिम्मेदारी हैं , क्या उसको बनाए रखना नारी का काम हैं . अगर कोई भी ये सोचता हैं तो उसका मानसिक मंथन का आधार लिंग भेद हैं . घर अगर नारी और पुरूष से बनता हैं , अगर वह एक दुसरे के पूरक हैं तो फिर ये प्रश्न ही क्यों "घर की समस्याओं का हल घर के बाहर तलाश रही है."

अगर कोई भी ये बात कहता हैं की " घर से बाहर निकल कर घर की समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता." तो कही न कही वह ये जरुर मान रहा हैं की "नारी / औरत " को घर से बाहर नहीं निकलना हैं , समस्या का समाधान अगर घर मे होता तो नारी सशक्तिकरण की जरुरत ही ना होती , आर्थिक रूप से सुध्ढ़ होने की जरुरत ना होती .
सब को ये समान अधिकार हो की अपनी पसंद का काम कर सके . जहाँ नारी को ये अधिकार नहीं दिया जाता हैं वहां उसकी सुरक्षा के लिये उसके किये हुआ हर काम का आर्थिक मूल्य हो तो ग़लत क्या हैं ?? कब तक स्त्री को ये सुनवाते रहेगे की "जाओ खाना बनाओ मै कमा कर आया हूँ " " सारा दिन घर मै गैप मारती हो बाहर जा कर कमा कर लाना पडे तो समझ आयेगा "


घर की समस्याओं का हल घर के बाहर ही हैं और मिलेगा भी क्योकि नारी का कूप मंडूक बने रहने का समय ख़तम हो गया हैं . अपने अधिकारों के प्रति सजग होना बहुत जरुरी हैं .अधिकार समानता का ५०% की हिस्सेदारी का तकलीफ और आराम दोनों मे .

ऑनर किलिंग

दुनिया भर में परिवार की इज्जत के नाम पर हजारों महिलाओं की हत्या कर दी जाती है अंग्रेजी में ऑनर किलिंग कहते हैं ऐसा तब किया जाता है जब लड़की एक ऐसे जीवनसाथी को चुन लेती है या किसी ऐसी जीवन शेली को अपना लेती है जिस से हमारे द्वारा ही बनाए गए समाज के नियमो की अवलेहना हो जाती है इस तरह की घटना अभी अरुशी मर्डर केस में सुनाई पढ़ रही थी .सच क्या है और इस में झूठ क्या यह तो केस सुलझने पर ही पता चलेगा पहले माना जाता था की इस तरह की घटनाएँ सिर्फ़ कट्टर मुस्लिम या हिंदू परिवारों में होती है लेकिन अब यह घटनाएँ सभी धार्मिक व देश की सीमायें पार कर दुनिया भर में होने लगी हैं सयुंक्त राष्टीय के आंकडों में ऐसी घटनाओं का हर साल ५००० महिलाओं की बलि दिए जाने की बात कही है लेकिन यह संख्या और भी अधिक हो सकती है

स्टाकहोम में आनर वायलेस पर एक बहुत बड़ा सम्मलेन भी हुआ ॥स्वीडन में २००२ में आनर किलिंग के नाम पर एक कुर्द मुस्लिम पिता ने अपनी बेटी को इस लिए गोली मात दी क्यूंकि वह एक स्वीडिश युवक से प्यार करती थी इस तरह के मामले सिर्फ़ धार्मिक भावनाओं के चलते नही होते हैं सिर्फ़ बलिक यह समाज में पुरूष वर्चस्व का मामला भी है पुरूष हमेशा यही मान कर चलते हैं की वह औरतों से ज्यादा बुद्धिमान है श्रेष्ट हैं अभी कुछ दिन पहले पकिस्तान की खबरों में पढने में आया था की एक डेनिश नागरिकता की महिला ताहिरा बीबी को बदचलनी के आरोप में उसके ससुर और रिश्तदारों ने मार डाला था ताहिरा के माता पिता का कहना था कि बेटा पैदा न कर सकने के कारण ताहिरा की हत्या करने के लिए उसके पति को किसी ने उकसाया और उसने उसकी हत्या कर दी पर आरोपी इस बात से इनकार कर रहा है पकिस्तान अभी भी मर्दवादी देश है वहां की महिलाओं की हालत अभी भी बहुत ख़राब है और वह निरंतर अपने हक की लड़ाई लड़ रही हैं लेकिन उनके ख़िलाफ़ होने वाली हिंसा पर किसी का ध्यान नही जा रहा है मर्दवादी समाज की सोच अभी औरतों को बराबर का इंसान मानने को तेयार नही हैं और अगर उनकी सरकार यह सोचती है कि कानून बनाने से यह सोच बदल जायेगी तो यह ग़लत होगा उस के लिए पहले सोच बदलनी होगी ..यही सोच उन सभी देशो पर भी लागू होती है जहाँ अभी भी यह माना जाता है कि महिलाए किसी से कम हैं...

रंजू

July 08, 2008

हर जनम मोहे बिटिया ही कीजो

हर जनम मोहे बिटिया ही कीजो

हर जनम मे मुझे शक्ति इतनी ही दीजो की जब भी देखू कुछ गलत , उसे सही करने के लिये होम कर सकू , वह सब जो बहुत आसानी से मुझे मिल सकता था /है /होगा ।
चलू हमेशा अलग रास्ते पर जो मुझे सही लगे सो दिमाग हर जनम मे ऐसा ही दीजो की रास्ता ना डराए मुझे , मंजिल की तलाश ना हो ।
बिटियाँ बनाओ मुझे ऐसी की दुर्गा बन सकू , मै ना डरू , ना डराऊँ पर समय पर हर उसके लिये बोलू जो अपने लिये ना बोले , आवाज बनू मै उस चीख की जो दफ़न हो जाती है समाज मे।
रोज जिनेह दबाया जाता है मै प्रेरणा नहीं रास्ता बनू उनका । वह मुझसे कहे न कहे मै समझू भावना उनकी बात और व्यक्त करू उन के भावो को अपने शब्दों मे।
ढाल बनू , कृपान बनू पर पायेदान ना बनू ।
बेटो कि विरोधी नही बेटो की पर्याय बनू मै , जैसी हूँ इस जनम मै ।
कर सकू अपने माता पिता का दाह संस्कार बिना आसूं बहाए ।
कर सकू विवाह बिना दान बने ।
बन सकू जीवन साथी , पत्नी ना बनके ।
बाँट सकू प्रेम , पा सकू प्रेम ।
माँ कहलायुं बच्चो की , बेटे या बेटी की नहीं ।
और जब भी हो बलात्कार औरत के मन का , अस्तित्व का , बोलो का , भावानाओ का या फिर उसके शरीर का मै सबसे पहली होयुं उसको ये बताने के लिये की शील उसका जाता है , जो इन सब चीजो का बलात्कार करता है ।
इस लिये अभी तो कई जनम मुझे बिटिया बन कर ही आना है , शील का बलात्कार करने वालो को शील उनका समझाना है । दूसरो का झुका सिर जिनके ओठो पर स्मित की रेखा लाता है सर उनका झुकाना हैं । वह चूहे जो कुतर कर बिलो मे घुस जाते हैं , बाहर तो उन्हें भी लाना है ।
दाता हर जनम मोहे बिटिया ही कीजो ।

अबला नहीं सबला बन

कल ही मैं जून माह की कादम्बिनी पढ़ रही थी। उसमें तसलीमा जी का एक लेख बहुत प्रभावी लगा। सारंश कुछ इस प्रकार था- " दूरदर्शन के एल कार्यक्रम में महिलाओं से पूछा जा रहा था कि वे किस प्रकार के पुरूषों को ज्यादा पसन्द करती हैं। यह देखकर बड़ी हैरानी हुई कि अधिकतर तारिकाएँ आक्रामक पुरूष को पसन्द करती हैं। आक्रामक माने माचो मैन। कितने आश्चर्य की बात है कि पुरूष द्वारा पीड़ित,शोषित नारी पुनः आक्रामक पुरूष चाहती है "
तसलीमा जी की बात से मैं भी सहमत हूँ। पुरूष तो सदा से आक्रामक ही रहा है। फिर ऐसी कामना क्यों ?
मुझे ऐसा लगता है कि अधिकतर स्त्रियाँ स्वभाव से ही कमजोर होती हैं। इन्हें बचपन से ही कमजोर बनाया जाता है। हमेशा पिता या भाई की सुरक्षा में रहने के कारण असुरक्षा की भावना उसके दिल में बैठ गई है। एसी भावना से प्रेरित होकर वह कभी भाई की दीर्घ आयु की कामना के लिए व्रत उपवास रखती आई है तो कभी पति की लम्बी उम्र के लिए । क्या कभी किसी भाई या पति ने इनके मंगल की कामना हेतु कोई उपवास किया है ?
प्रेम और समर्पण नारी का स्वभाव है। किन्तु अपनी कमजोरी के प्रति स्वीकार्य की भावना निन्दनीय है। उसकी सोच ही उसे कमजोर बनाती है। इतिहास साक्षी है कि जब भी नारी ने अपने को कमजोर समझा उसपर अत्याचार हुआ और जब भी उसने अपने आत्मबल को जगाया, अन्यायी काँप गया। स्त्री को यदि स्वाभिमान से जीना है तो सबसे पहले अपने भीतर के डर को भगाना होगा, अपनी शक्ति को पहचानना होगा । उसके भीतर छिपा भय ही उसके शोषण का कारण है।
अतः वर्तमान में आवश्यकता है कि हर नारी पर जीवी बनना छोड़ दे। परिवार में प्यार और मधुर सम्बन्ध अवश्य होने चाहिए किन्तु कमजोरी से ऊपर उठें और अपने बच्चों को भी सशक्त बनाएँ। आत्मविश्वास को अफनी पहचान बनाएँ क्योंकि -
जब भी मैने सहायता के लिए किसी को पुकारा, स्वयं को और भी कमजोर बनाया
जब भी आत्म विश्वास को साथी बनाया, रक्त में शक्ति का संचार सा पाया।
अतः मै यही कहूँगी कि- सशक्त बनें और निर्भीक रहें। इस संसार में ऐसा कुछ भी नहीं जो तुम नहीं कर सकती।
यही युग की पुकार है और यही जीत का मूल मंत्र।

July 07, 2008

महादेवी : चिंतन की कड़ियाँ



संसार के कण-कण की वेदना को अनुभूत करने वाली, महान्‌ दैवी गुणों से युक्त संवेदनशील कवयित्री महादेवी जी के रचना-संसार में जिन्हें भी विचरने का सुअवसर मिला है, वे जानते हैं कि वे संवेदनशीलता की जितनी तलस्पर्शी अनुभूति से ओत-प्रोत हैं, उतनी ही विचार की प्रखरता के शिखर की विजयिनी भी

मा निषाद! प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वती समा:।
यत्क्रौञ्चमिथुनादेकमवधी काममोहितम्‌

पीड़ा का यह उद्रेक आर्यावर्त के आदिकवि ने अपनी परम्परा को ला थमाया था। उसी का विरेचन, विवेचन साहित्य में जिन्होंने जितनी स्वाभाविकता तथा गरिमा से किया, वे उतने ही स्मरणीय होते गए। आत्मवत्‌ सर्वभूतेषु के ’सब’ का ’मैं’ हो जाना, परपीड़ा को आत्मपीड़ा मानने के संदर्भों में जितना सार्थक होगा, उतना ही सद्‌साहित्य, सृजनात्मक साहित्य की पृष्ठभूमि को उर्वर बनाने में। इसका प्रतिफलन महादेवी जी के साहित्य में उनकी अभिव्यक्तियों में (चाहे वे अभिव्यक्तियाँ भावपरक हों या विचारपरक, गद्य हों या पद्य) सर्वत्र आप्यायित है। उनका ’मैं’ मानो सबको ’मैं’ लगने लगता है। उनकी अनुभूति साधनापरक अनुभूति है, मात्र कल्पना का प्रामुख्य या छायाभास नहीं है; और क्योंकि उनमें साधनापरक अनुभूति की प्रमुखता, गहनता, साझेदारी व निख़ालिस सच्चाई है, इसलिए वे सीधी अतल हृदय में उतरती चली जाती हैं। उनका यह प्रवेश वस्तुतः उन्हीं के हृदय के मर्मस्थल को घेरेगा, जिनके लिए वे चाहती हैं –

प्रिय! जिसने दुःख पाला हो

वर दो यह मेरा आँसू

उसके उर की माला हो।

और फिर साथ ही यह भी कह देती हैं, आँसू का मोल न लूँगी मैं । यद्यपि अपने लिए उपर्युक्त वर माँगने के साथ एक और आग्रह भी करती हैं

मेरे छोटे से जीवन में देना न तृप्ति का कण भर

रहने दो प्यासी आँखों को भरतीं आँसू के सागर

उनके पाठक जानते हैं कि तृप्ति को दरकिनार करते हुए महादेवी जी ने जो पाया – आँसुओं का कोष उर, दृग अश्रु की टकसाल वह वास्तव में यही था। अपनी इस धरोहर को लेकर वे एक सकारात्मक सोच साहित्य में जन-जन को देती हैं। सुख ही सकारात्म है अथवा दुःख नकारात्मक है, ऐसा कुछ पूर्वाग्रह उन्हें नहीं रहा। मनुष्य स्वयं दुःख को सुख में ढाल सकता है

किसको त्यागूँ किसको माँगूँ

है एक मुझे मधुमय विषमय

मेरे पद छूते ही होते

काँटे किसलय, प्रस्तर रसमय

दुःख का मूल विनाश, विनष्टि, अभाव आदि होते हैं, तो इन मायनों में तो सारा संसार ही नश्वर है। एक दिन तो

विकसते मुरझाने को फूल

उदय होता छिपने को चाँद

किंतु उनके लिए यह विनष्टि, यह नश्वरता दुःखदायी नहीं अपितु यह तो

अमरता है जीवन का हास
मृत्यु जीवन का चरम विकास

हैं। अमरत्व और मोक्ष पाना अथवा सांसारिकता के चक्र से छूटना, आत्मा का परमानन्द में लंबे विश्राम के लिए जाना, हमारा शास्त्रीय ध्येय रहा है। किन्तु ’मृत्यु’? यह तो जीवन का निर्धारित ध्येय है। मृत्यु तभी है जब जन्म है पर आत्मा का मृत्यु और जन्म के बंधन से छूटना भी पीछे छूट जाता है मानो उनके संसार में। विरह का जलजात जीवन में भी ’विरह’ और ’जीवन’ साथ-साथ हैं। ऐसे में ’विरह’ उन्हीं को रुलाता है, जिनको ’उसके’ वियोग में ’उसकी’ सत्ता से दूरी का आभास सदा बना रहता है। यह आभास सदा बना रहे, तभी तो ’उसके’ निकट जाने के लिए तड़प, प्रयत्न, वांछा उत्पन्न होगी। रामनरेश त्रिपाठी की दो पंक्तियाँ अनायास स्मरण आ रही हैं – मिलन अन्त है मधुर प्रेम का, और विरह जीवन का। प्रेम को जीवित रखने की यह लालसा, यह कामना ही महादेवी को विरह के प्रति सकारात्मक सोच प्रदान करती है।

कौन मेरी कसक में नित

मधुरता भरता अलक्षित

कौन मेरे लोचनों में

उमड़ घिर झरता अपरिचित

कसक में भी जिसे मधुरता का आभास हो या आँसू में ’उसके’ उमड़ कर निकट आ जाने का, तो वह प्रत्येक स्थिति में, असंगति और विसंगति में भी संगति खोज ही लेता है। साथ ही जो ’कसक’ में ’मधुरता’ भर रहा हो, वह क्योंकर प्रिय न होगा?

महादेवी जी की पूरी काव्ययात्रा मानो विरह के पड़ाव पर है। वे दुःख, पीड़ा, कसक, विष, प्यास, आस सब सहती हैं। साथ ही, इस सारी प्रक्रिया में जो गरिमा है, गाम्भीर्य है, उसके दर्शन अन्यत्र सुलभ नहीं। जो व्यक्ति भीषण झंझावात में भी संतुलन न खोए, अपितु धीरता से उसे प्रेरणादायी समझ क संयत रहे, उसकी अन्तर्निहित स्थितप्रज्ञता पर किसे संदेह होगा?

इत आवति चलि जाति उत चलि छः सातक हाथ, चढ़ि हिंडोरे-सी रहे....... जैसे विरह वर्णन पढ़ने में जितने अरुचिकर लगते हैं, उतने ही विरह को हास्यास्पद बना देते हैं। ऐसे में महादेवी जी का महिमामंडित लगना और भी तीव्रता से अनुभव होता है। छायावाद में विरह, पीड़ा, दुःख, वेदना के साथ जिस निराशा के दर्शन होते हैं, ये पूरा उसका चित्र ही बदल देती हैं। ऐसी स्थितियाँ इनके लिए आशा की प्रतीक रहीं। जब ’पीड़ा’ में ’प्रिय’ को पहचानने का भाव निहित हो, ’प्रिय’ की खोज हो, वहाँ मिलन की संभाव्यता तो सदा विद्यमान रहती ही है

तुमको पीड़ा में ढूँढा, तुम में ढूँढूँगी पीड़ा

अपितु यह तो उनके लिए क्रीड़ा है। आँसू देखकर जब मिलन के सुख की स्मृतियाँ घिर आती हों तो ये आँसू क्योंकर प्रिय न होंगे? अपने इस प्रिय के लिए आत्मतत्व की तड़प ही उसका ज्वलन है – मधुर-मधुर मेरे दीपक जल/प्रियतम का पथ आलोकित कर – इस ज्वलन को पथालोकन हेतु प्रयोग करना? जिससे मिलन की चाह है, वह तो स्वयं जाज्वल्यमान है। क्या उसे किसी पथालोकन की आवश्यकता है? पर मन नहीं मानता, बार-बार स्वयं को मेट कर, जलाकर उसकी ओर जाने का अपना पथ प्रशस्त करना चाहता है। है न कितना विचित्र? जाज्वल्यमान, प्रकाशमान के लिए अपने को जला कर राह का दिग्दर्शन करना?

तू जल–जल जितना होता क्षय
वह समीप आता छ्लनामय

यहाँ ’छ्लनामय’ अकेला ऐसा प्रयोग है, जो उपर्युक्त स्थिति के प्रश्नचिन्ह को स्पष्ट करता है, अन्यथा तो ’वह’ ’करुणामय’ ही है। इसलिए वे उसे यहाँ ’छलनामय’ कह जाती हैं, क्योंकि ’अमरता’ में, मिलने में यद्यपि हास है तथापि मृत्यु का अभाव है। अभिप्राय यह हुआ कि ऐसी मृत्यु में ’चरम-विकास’ है, जो ’अमरता’ के हास की ओर ले जाती है, अन्यथा सब ’छ्लना’ है। यही इस ’छलनामय’ का रहस्य है।

रहस्यवाद की पाँच अवस्थाएँ मानी गई हैं व चिन्तन शैली के आधार पर तीन प्रकार यदि इसके किए जाएँ

१. आध्यात्मिक रहस्यवाद

२. दार्शनिक रहस्यवाद

३. धार्मिक रहस्यवाद

तो यह तीनों प्रकार का रहस्यवाद कहीं एक साथ नहीं मिलता। कहीं एक है तो कहीं दूसरा व कहीं तीसरा। महादेवी अकेली ऐसी हैं जिनमें तीनों प्रकार के रहस्यवाद का सुन्दर मेल, सुन्दर समन्वय निहित है।

वैदिक दर्शन में त्रैतवाद की बात की गई है –

१. प्रकृति (जो ’सत्‌’ है)
२.जीवात्मा (जो ’सत्‌’+ ’चित्‌’ है)
परमात्मा ( जो ’सत्‌’+ ’चित्‌’+’आनन्द’ है) ।

यहाँ यह ध्यातव्य है कि उपर्युक्त में ’दुःख’ किसी का लक्षण नहीं है। दुःख का कारण जीवात्मा का देह से सम्पृक्त होकर अज्ञान व तज्जन्य कर्म हैं। वैदिक ऋचाओं में इसकी सुंदर अभिव्यक्ति मिलती है। साथ ही यह भी स्मरण रखना चाहिए कि ’आनन्द’ केवल परमात्मा का लक्षण है; तीसरी बात – ’सुख’-दुःख’ ऐन्द्रिय धरातल के व ’शान्ति-अशान्ति’ स्मृतिजन्य, मन व बुद्धि के धरातल से जुड़े हैं। अब महादेवी जी का यह अंश देखें –

कैसे कहती हो सपना है

अलि! उस मूक मिलन की बात

भरे हुए अब तक फूलों में

मेरे आँसू उनके हास

यहाँ –

- ’उनके हास’ = ’आनन्द’ केवल ’परमात्मा’ का लक्षण

- ’मेरे आँसू’ = ’जीवात्मा’ की सुख/दुःख की अनुभूति

- ’फूलों में’ = ’प्रकृति’ जो ’सत्‌’ है

में तीनों तत्व (त्रैतवाद) और तीनों के लक्षण व उनकी साम्यता तुलनीय है। ‘आत्मतत्व’ ‘मैं’ की साधना वेदना ही को आधार बनाकर पूरी होती है, क्योंकि वेदना की अनुभूति के कारण ही ‘आत्मतत्व’ ‘प्रयत्न’ में संयुक्त होता है। इसलिए महादेवी जी को वेदना प्रियकर लगती है। आध्यात्मिक रहस्यवाद में महादेवी जी की कविताएँ ही साधनात्मक अनुभूति का परिणाम हैं। इनमें कल्पना की नहीं अपितु अनुभूति की प्रधानता है।

साधनात्मक अनुभूतियों की पारलौकिक स्थितियों में वे लोक को भूली हों, ऐसा कदाचित् नहीं हुआ। लौकिक विधान ही उनकी पीड़ा का जनक है और पीड़ा उन्हें प्रिय भी है। यह बात काँच की भाँति स्पष्ट है। साध्य की ओर जाने के लिए पीड़ा साधना है। साधना स्थली और उसके आसपास का परिवेश भूलकर उन्होंने साधना की हो, ऐसा नहीं हुआ। साधना स्थली और आसपास के परिवेश के प्रति वे कितनी सचेत रहीं, इसका प्रमाण मुख्यतः उनका गद्य व अनेक काव्य-रचनाएँ भी हैं। ‘गद्यम् कवीनाम् निकषम् वदन्ति’। समाज में रहकर समाज की चिंताओं से सरोकार रखना व तद्‍विषयक प्रयत्न करते रहना, यह उनकी प्रकृति में ही था। आत्मवत् सर्वभूतेषु’’ वाली ही बात। उनके ‘मैं’ का विस्तार इसके कारणों में रहा।

बंगाल के अकाल के समय बंगदर्शन और चीन के आक्रमणकाल में हिमालय काव्य-संकलन इसका प्रमाण हैं कि राष्ट्र उन में कितना रचा - बसा था और वे राष्ट्र में कितनी रची-गुँथी थीं-

बंग – भू शत वंदना ले
ज्ञान गुरु इस देश की कविता हमारी वंदना ले’’।

जहाँ तक समाज और उसके आसपास के परिवेश तथा लोक की बात है, उनका –

सब आँखों के आँसू उजले, सबके सपनों में सत्य पला’’ – में यह जुड़ाव ही ध्वनित होता है। राष्ट्रीयता, सामाजिकता और तत्कालीन परिस्थितियों के प्रभाव से वे अछूती कदापि नहीं रहीं। जन-जन में प्रेरणा और उद्‍बोधन फैलाने का महती दायित्व उनकी संवेदनशील वृत्ति के अनुरूप ही था-

कीर का प्रिय आज पिंजर खोल दो’’ में सामाजिक यथार्थ से जुड़ाव खोजना रत्तीभर भी असंभव नहीं। बाँध लेंगे क्या तुझे....’’ में अभिव्यक्त

विश्व का क्रन्दन भुला देगी मधुप की मधुर गुनगुन

क्या डुबो देंगे तुझे यह फूल के दल ओस गीले’’ –

में वे अपने ही सामाजिक जुड़ाव व दायित्व की भी तो बात करती हैं। बसे हुए अब तक फूलों में मेरे आँसू’’ वाले ‘फूल’ फूल के दल ओस गीले’’ हैं और ‘मधुप’ वह है जिसका ‘हास’ वहाँ फूलों में था। कितना स्पष्ट है कि वे स्वयं को भी कह रही हैं मानो कि यह कहाँ संभव है कि विश्व का क्रन्दन....’’ सुनकर भी मैं भूली रहूँ, डूबी रहूँ।

तू न अपनी चाह को अपने लिये कारा बनाना ” - का संदेश और जाग तुझको दूर जाना ’’ – का उद्‍बोधन उनके तत्कालीन राष्ट्रीय, सामाजिक परिवेश तथा स्थितियों के सम्बन्ध में व्यक्त हुए नितान्त गहरे भाव व तत् सम्बन्धी चिंता, सोच, कर्तव्य भावना को ध्वनित करता है।

उन्होंने गीत को शिखर तक पहुँचाया, विचारपरक गद्य लिखा, सन्तुलन तथा समन्वय से परिपूर्ण सृजनात्मक समीक्षाएँ दीं, संस्मरण लिखे, प्रखर वक्‍तृत्व से प्रेरित किया, समाज-सेवा में तल्लीन रहीं, अर्थात् देह, मन, बुद्धि, भावना, समय – इन सब का प्रयोग उन्होंने राष्ट्र की चेतना को जगाने व क्रियाकलापों की भागीदारी में लगा दिया। कांग्रेस सरकार की हिंदी विरोधी नीति के कारण पद्‍मभूषण ठुकरा दिया। राष्ट्र, राष्ट्रभाषा व राष्ट्रीय अस्मिता इन सबसे वे पूर्णतः सम्बद्घ, सम्पृक्‍त रहीं। अपने विचारों को, अपने जीवन में क्रियात्मक रूप में संभव कर दिखाया। उन्हीं के शब्दों में – आज के कवि को अपने लिए अनागरिक होकर भी संसार के लिए गृही, अपने प्रति वीतराग होकर भी सबके प्रति अनुरागी, अपने लिए सन्यासी होकर भी सबके लिए कर्मयोगी होना होगा।

जहाँ तक उनके गद्य में व्यक्त हुए विचारों का संबंध है, वह आज भी उतना ही विचारोत्तेजक एवं आवश्यक है, उसके पारायण की अपरिहार्यता अभी भी हमारे प्रत्येक वर्ग के लिए है। ‘’श्रृंखला की कड़ियाँ’’ में वे लिखती हैं – ‘’विवाह की संस्था पवित्र है, उसका उद्देश्य भी उच्चतम है, परन्तु जब वह व्यक्तियों के नैतिक पतन का कारण बन जावे, तब अवश्य ही उसमें किसी अनिवार्य संशोधन की आवश्यकता समझनी चाहिए।‘’

नैतिकता का अर्थ, समाज सीमित रूप से, चरित्र से सम्बन्धित लगाता रहा है (विशेषतः विवाह के सम्बन्ध में); यह चरित्र का जो अत्यन्त संकीर्ण अर्थ प्रचलित हो गया है, वस्तुतः नैतिकता का उसी से ही अभिप्राय नहीं है। नैतिकता यानि नीतिगत या नीति से सम्बन्धित आचरण। एक समय ऐसा था जब ’विवाह’ और ‘परिवार’ प्रचलन में नहीं थे। मानव सभ्यता में पारस्परिक संबंधों के कारण अनेकानेक समस्याएँ उठी होंगी व निश्चित, निर्धारित एकरूपता की आवश्यकता उत्पन्न होकर विवाह की अवधारणा स्पष्ट हुई। एक स्पष्ट नीति सबके लिए निर्धारित कर दी गई। जिसके द्वारा बड़े ही सुचारु रूप से सभी प्रकार का निर्वहन संभव था; किंतु विवाह की जो नीतिपरक संस्था रची गई, जब उसी के माध्यम से, अथवा उसी के अन्तर्गत नीतिपरक दूसरी अवमाननाएँ होने लगीं, यथा – बालविवाह, स्त्री पर अत्याचार, अंकुश, स्त्री द्वारा विवाह न करने का प्रावधान हेय, पुरुषों का बहु-विवाह, अल्पायु की स्त्री से विवाह, गुण-कर्म-स्वभाव की साम्यता की अनदेखी करके विवाह, विवाह के कारण कार्यक्षम स्त्री की भी परवशता, या विवाह – मात्र करने के लिए युद्धों की व्यूह– रचना, जैसे ढेरों कारण हैं जो विवाहगत नैतिकता के मानदंडों को झकझोरते हैं। ऐसे में इस पवित्र संस्था विवाह के संबंध में पुनः विचार –पूर्वक कुछ ठोस परिवर्तनों और निर्धारणों की जो आवश्यकता महादेवी जी का १९३१ के सन्‌ में इंगित रहा, उस दिशा में आज तक किसी समाज ने कोई कार्य नहीं किया। व्यक्तिगत प्रयास अपने आचर में कुछ एक गिने-चुने व्यक्तियों ने किए, पर जो जागरण इस दिशा में अनिवार्य था व है भी, वह कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता। स्कैन्डेनेवियन देशों में तो एक दूसरी प्रकार की अति हो गई है, जहाँ बच्चे अब राष्ट्र की सम्पत्ति हैं। वहाँ राष्ट्र उनके माता-पिता को बाध्यतापूर्वक उनसे जुड़े रहने की माँग करता है। विवाह कि संस्था वहाँ बड़े अर्थों में टूट गई है। है तो बस ’लिविंग टुगेदर’। यह कोई समाधान नहीं है। इससे उत्पन्न होने वाले संत्रास को झेलने वाले इसे अधिक बेहतर रूप में बता सकते हैं कि किस प्रकार की अनिश्चयात्मकता में वे जीवन काट देते हैं, कितनी छोटी बातों पर परिवार टूट जाते हैं, बच्चे कितने अकेले हैं, क्यों वहाँ का नवयुवावर्ग नशे में झोंक रहा है स्वयं को, क्यों मनोविकार ग्रस्तों की संख्या में अंधाधुंध बढ़ोतरी हो रही है व क्यों वृद्धाश्रमों में कुंठित जीवन की यंत्रणा झेलते अकेले मर जाना होता है। ऐसे ही ढेरों ढेर उदाहरण प्रस्तुत किए जा सकते हैं,..... १६ वर्ष से छोटी आयु कि लड़कियाँ गर्भवती हो जाती हैं, पारिवारिक व वैवाहिक स्थायित्व के एकल अभाव में एड्‍स जैसे रोग की चपेट में विश्व मुँह बाए खड़ा है।

इन सभी के पीछे कारण है – बिना विचार किए स्वेच्छा से स्थितियों में परिवर्तन कर देना। महादेवी जी ऐसे असंतुलनकारी किसी संशोधन की, परिवर्तन की पक्षधर नहीं रहीं। वे `संशोधन’ के साथ `अनिवार्य शब्द भी जोड़ती हैं और आगे यह भी स्पष्ट कर देती हैं कि ये `संशोधन’ `सामाजिक व वैयक्तिक विकास में सहायक’ हों। ये `संशोधन’, ``.....समझनी चाहिए’' द्वारा समझपूर्वक होने चाहिएँ। `हमारी श्रृंखला की कड़ियाँ' में वे आगे यह भी लिखती हैं – हमें न किसी पर जय चाहिए, न किसी से पराजय, न किसी पर प्रभुता चाहिए, न किसी का प्रभुत्व। केवल अपना वह स्थान, वे स्वत्व चाहिएँ जिनका पुरुषों के निकट कोई उपयोग नहीं है, परन्तु जिनके बिना हम समाज का उपयोगी अंग नहीं बन सकेंगी। हमाई जागृत और साधन संपन्न बहिनें इस दिशा में विशेष महत्वपूर्ण कार्य कर सकेंगी, इसमें संदेह नहीं।

मानव की इस वृत्ति से वे विशेषतः परिचित रही होंगी (विशेषतः इसलिए क्योंकि उनकी अनुभूति और पकड़ बहुत गहरी है) कि पीढ़ियों से प्रभुत्व झेलता व्यक्ति सामान्यतः छूटते ही प्रभुता पाना चाहता है। अत्याचारी पर, अवसर मिलते ही, अत्याचार की प्रवृत्ति, मानव के स्वभाव में आने की संभावना अधिकतर बनी रहती है। इसलिए वे इसकी सीमाओं को भी रेखांकित करती चली जाती हैं, वे कहीं भी अत्याचारों से पीड़ित स्त्री के दुःख से व्यथित होकर भड़काऊ बातें करने की पक्षधर नहीं हैं। १९३४ (रचनाकाल) की स्थिति और १९९० के बाद की महिलाओं की स्थिति में जमीन-आसमान का अन्तर है तथापि एक ओर महादेवी तो सृजनात्मकता व संतुलन की प्रेरणा व शिक्षा देती हैं और दूसरी ओर तस्लीमा नसरीन जैसी साहित्यकार समाज में निर्मित होती हैं, जो महिलाओं को उकसाती हैं कि अपने आँसू मत बहाओ, अपने दर्द को अंदर सहेज कर इकट्ठा करके रखो और फिर ज्वालामुखी की भाँति विस्फोट कर दो पुरुषों के विरुद्ध (जैसी बातें)। सृजनात्मकता से भरा आह्वान न हो तो दिग्भ्रमित होकर कुँए से निकल खाई में गिरने से कैसे बचेंगी स्त्रियाँ? साथ ही महादेवी जिस `स्वत्व की आवश्यकता स्त्री के लिए समझती हैं, उस `स्वत्व’ की कसौटी भी साथ ही दे देती हैं – जिनका पुरुषों के निकट कोई उपयोग नहीं है स्पष्ट है कि दैहिक प्रदर्शन अथवा सौंदर्य के प्रतिमानों के लिए पुरस्कार ले आना ’स्वत्व’ पाना नहीं है। इस दृष्टि से, क्योंकि यह दैहिक सौंदर्य ऐसा नहीं है कि इसका पुरुषों के निकट (लिए) कोई उपयोग नहीं है।

श्रृंखला की कड़ियाँ की भूमिका १९४२ में लिखते समय यह पूर्वाभास व इस वास्तविकता का बोध उन्हें था, तभी, उन्होंने लिखा – सामान्यतः भारतीय नारी में इसी का अभाव मिलेगा। कहीं उसमें असाधारण दयनीयता है और कहीं असाधारण विद्रोह है, परन्तु संतुलन से उसका जीवन परिचित नहीं। वे कहती हैं –विचार के क्षणों में मुझे गद्य लिखना ही अच्छा लगता रहा है, क्योंकि उसमें अपनी अनुभूति ही नहीं, बाह्य परिस्थितियों के विश्‍लेषण के लिए भी पर्याप्त अवकाश रहता है।जहाँ उनके पद्य में एक रहस्य की संभावना बनी रहती है, गद्य अपना स्पष्ट भाव व्यक्त करता है। गद्य में उनका समन्वय का दृष्टिकोण बहुत स्पष्ट रूप में दीखता है। स्त्री-पुरुष विषयक चिंतन में इनकी अवधारणा यही है कि नैसर्गिक रूप में पुरुष के अपने गुण हैं एवं स्त्री के अपने गुण हैं। पुरुष को पुरुषोचित गुणों में आगे बढ़ना चाहिए तो स्त्री को स्त्रियोचित गुणों का अर्जन करना चाहिए। उनका यह समन्वित दृष्टिकोण आधुनिक नारी के विद्रोही रूप को भी गलत बताता है। एक स्त्री का पुरुष की छाया बन जाना, दब्बू बने रहना भी उन्हें गलत लगता है और कई सदियों के पुरुष प्रधान समाज द्वारा किए गए अत्याचारों की प्रतिक्रिया स्वरूप स्त्री का यह दिखावा कि वह पुरुषोचित कर्मों में भी पुरुषों की बराबरी कर सकती है – यह भी उन्हें नैसर्गिक नहीं दीखता। उन्हें भारतीय स्त्री में सभी संस्कार-जन्य गुण दीखते हैं पर इन सब के बावजूद वह इन अलौकिक गुणों को अलौकिक कर्मों का प्रखर रूप नहीं दे पाती, अपने इस भाव को वे इस प्रकार व्यक्त करती हैं – परन्तु क्या हम उसकी निष्क्रियता की प्रशंसा ....

`हिंदू स्त्री का पत्नीत्व में शिक्षा की दृष्टि में दो प्रतिशत भी साक्षर नहीं हैं। प्रथम तो माता पिता कन्या की शिक्षा के लिए कुछ व्यय ही नहीं करना चाहते, दूसरे यदि करते भी हैं तो विवाह की हाट में उसका मूल्य बढ़ाने के लिए, कुछ उनके विकास के लिए नहीं।" अपने इसी आलेख में पत्नीत्व की अनिवार्यता से विद्रोह को वे अपनी दशा के प्रति जताया गया असन्तोष करार देती हैं, पर साथ ही ऐसी स्त्रियों के लिए यह भी स्पष्ट कर देती हैं – जिससे शेष महिमा भी नष्ट हो जावे अर्थात् पत्नीत्व की अनिवार्यता से विद्रोह, स्त्री की शेष महिमा को विनष्ट कर देता है। अतः यह कोई समाधान नहीं है। `जीवन का व्यवसाय’ में उसके स्त्रीत्व के विकास तथा व्यक्तित्व की पूर्णता के लिए सत्ता साध्य है और ’रमणीत्व’ साधन-मात्र इतनी बेबाक बयानी, निष्पक्ष भाव, चिन्तन व सत्य की स्थापना खुलकर करना, क्या यों ही संभव है? यहाँ यह बात और भी महत्वपूर्ण एवं विशिष्ट इसलिए हो उठती है, क्योंकि महादेवी द्वारा कही जा रही है, किसी गृहस्थिन-मात्र के द्वारा नहीं।

अपने उद्धार के लिए स्त्री को स्वयं भी प्रयत्न करने होंगे। समाज का योगदान क्या हो, इसके लिए – उसमें फिर गरिमामय स्त्रीत्व की प्राण-प्रतिष्ठा करने के लिए मनुष्य की समाज सहानुभूति तथा स्निग्धतम स्नेह चाहिए।" आज के परिप्रेक्ष्य में भी १९३४ में व्यक्त उनके विचार उतने ही सटीक हैं- पतित कही जाने वाली स्त्रियों के प्रति समाज की घृणा हाथी के दाँत के समान बाह्य-प्रदर्शन के लिए है और उसका उपयोग स्वयं उसकी मिथ्या प्रतिष्ठा की रक्षा तक सीमित है। पुरुष इनका तिरस्कार करता है समाज से पुरस्कार पाने की इच्छा से और इन अभागे प्राणियों को यातनागार में सुरक्षित रखता है अपनी अस्वस्थ लालसा की आग बुझाने के लिए, जो इनके जीवन को राख का ढेर करके भी नहीं बुझती। समाज पुरुष-प्रधान है, अतः पुरुष की दुर्बलताओं का दंड उन्हें मिलता है, जिन्हें देखकर वह दुर्बल हो उठता है।"

आधे शतक से भी अधिक की अवधि बीत जाने के बाद भी कहीं, रत्तीभर परिवर्तन इन स्थितियों में आया होता तो `मण्डी’ जैसी फिल्में न बनतीं; अर्थात् हम जस के तस हैं और आधुनिकता के उपकरण जुटा कर स्वयं के आधुनिक होने के बोध से ग्रस्त। इसका समाधान व प्रतिकार कैसे संभव हो, इसकी व्यवस्था भी महादेवी ने वहीं दी है –जब तक पुरुष को अनाचार का मूल्य नहीं देना पड़ेगा, तब तक इन शरीर व्यवसायिनी नारियों के साथ किसी रूप में कोई न्याय नहीं किया जा सकता।" यह मूल्य क्या हो? अर्थदण्ड-मात्र नहीं, यह एकदम स्पष्ट है और साथ ही यह भी मूल्य नहीं है जो अति आधुनिक सभ्यता में रँगे महानगरीय परिवारों की स्त्रियाँ एक नया खेल (भाड़े के पुरुष के वस्त्र एक-एक कर उतारने, नोचने का खे), खेल कर ले रही हैं। -सावधान !!

जीने की कलामें कहा – जीवन का चिह्न केवल काल्पनिक स्वर्ग में विचरण नहीं है, किन्तु संसार के कंटकाकीर्ण पथ को प्रशस्त बनाना भी है। जब तक बाह्य तथा आन्तरिक विकास सापेक्ष नहीं बनते, हम जीना नहीं जान सकते। महादेवी स्वयं इसका साक्षात् प्रमाण रहीं। वे जिन आध्यात्मिक, धार्मिक अनुभवों को अनुभूत कर चुकीं थीं, मात्र उन्हीं से संतुष्ट होकर उन्हीं में ’विचरण’ करने नहीं बैठ गईं बल्कि क्रियात्मक रूप से जीवन के, जन-जन के पथ को प्रशस्त करने के कार्यों में वे यावज्जीवन जुटी रहीं। वे जैसे अपने अन्तर्जगत् के प्रति सचेत थीं, वैसे ही बाह्य जगत् के प्रति क्रियाशील।

उनके संस्मरणात्मक निबन्धों में जहाँ एक ओर प्यार बाँटती फिरती महादेवी दृष्टिगोचर होती हैं, वहीं ’भारतीय संस्कृति का स्वर’ में, श्रृंखला की कड़ियाँ’ में, ’मेरे प्रिय सम्भाषण’ में ज्ञान बाँटतीं, प्रेरणा और संदेश बाँटतीं, सहायता प्रस्तुत करतीं महादेवी।

एक आलेख के कलेवर में महादेवी के समूचे रचना-संसार को समाहित करना, बड़ा ही बचकाना प्रयास है, तथापि उनकी स्मृति में उनसे प्रेरणा लेने का संकल्प करें, आत्मावलोकन करें, स्त्री-विमर्श को इस देश की मिट्टी का संस्कार दें; यही उनके प्रति सच्चा आदर है, सम्मान है।

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