हर तरफ हल्ला मचा है कि स्त्री की सामाजिक स्थिति में बदलाव आ रहा है। स्त्री का स्तर ऊंचा उठ रहा है। समाज और परिवार में उसको सुना जा रहा है। गांव की स्त्री शहरी स्त्री से कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। अगर वाकई यह बदलाव आ रहा है तो सामने दिखता क्यों नहीं! कहीं यह मेरा दृष्टि-दोष तो नहीं कि मैं बदलाव को देख नहीं पा रही। या कहीं कुछ गड़बड़ है।
स्त्री की सामाजिक-पारिवारिक स्थिति पर रात-दिन लिख-लिखकर पन्ने रंगते रहना, कभी मौके-बेमौके आंदोलन की धींगा-मुश्ती कर लेना, इससे भी बात न बन पाए तो टेलीविजन पर कथित आधुनिक स्त्री को दिखाकर या देखकर 'देखो स्त्री बदल रही है' जैसी ख़ुशफ़हमी दिमागों में पालकर खुद ही प्रसन्न होते रहना। लगता है शायद यही और यहीं तक बदलाव आ रहा है। जिसे हम आज की भाषा में आधुनिक बदलाव की संज्ञा देते हैं।
इधर स्त्री-विमर्श के रखवाले तो स्त्री को देह से दूर रखकर कुछ भी देखना और समझना ही नहीं चाहते। वे महज़ इसी बात से खुश और संतुष्ट हैं कि स्त्री की देह चर्चा में है। हमारा स्त्री-विमर्श सफल हुआ। हमें और क्या चाहिए। स्त्री को देह मानने वालों के लिए वही नयनसुख का साधन है।
खैर इस मत-विमत के बहाने मैं बहस को स्त्री-देह की कीचड़ के निकालकर कुछ अलग उस स्त्री पर बात करना चाहती हूं जो कथित बदलाव से दूर ही नहीं बल्कि बहुत दूर है। सदियां गुज़र जाने के बावजूद मुझे भारतीय स्त्री आज भी दबी-कुचली, सहमी और पितृसत्तात्मक्ता की गुलामी में ही बंधी नज़र आती है। उसका बजूद आज भी पिता, पति और सामाजिक परंपराओं-रूणियों की चारदीवारी में कैद है। यहां कहीं आजादी नहीं है उसे। पहले पिता का डंडा। फिर पति की हिटलाशाही। और इसके बाद समाज की कही-अनकही लालछनें। इन सब से लुट-पीटकर उसका एक यातना गृह और है, वह है, स्त्री द्वारा स्त्री को ही दबाने-सताने उसका उत्पीड़न करने की नीच कोशिशें। बेशक, हम पुरुष-सत्ता को स्त्री पर किए गए आत्याचारों के लिए खूब कोस सकते हैं। किसने रोका है हमें। लेकिन हम उस आत्याचार पर प्रायः चुप्पी साध जाते हैं जो स्त्री द्वारा स्त्री पर ही किया-करवाया जाता है। हां, अगर कोई विरोधी आवाज़ इसके खिलाफ उठती है तो डांटकर उसे बैठा दिया जाता है कि अरे यह तुम क्या कह रही हो! स्त्री होकर स्त्री का अपमान करना चाहती हो। शर्म आनी चाहिए तुम्हें। आदि-इत्यादि।
स्त्री द्वारा स्त्री का शोषण-उत्पीड़न आज हर घर, हर समाज, हर जाति की चिर-परिचित कहानी बन गया है। तिस पर भी हमारा नारी-समाज उससे परिचित नहीं होना चाहता। जाने क्यों आवाज़ उठाने से डरता है? घर में मां की सख्ती। ससुराल में सास का कहर। समाज में एक-दूसरे के खिलाफ षड्यंत्र। आज टीवी पर आने वाले सीरियल इसी 'तानाशाह स्त्री' को दिखा-दिखाकर पैसा भी बना रहे हैं और टीआरपी की रेस को जीत भी लेना चाहते हैं। स्त्री को स्त्री के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है।
इसे हमारे समाज की बिडंवना ही कहा-माना जाएगा कि यहां स्त्री को स्त्री के खिलाफ आत्याचार करते हुए हम-आप आराम से देख-सुन सकते है लेकिन जहां बात समलैंगिक संबंधों की स्वीकृति की आती है तब हमें अपनी सभ्यता-संस्कृति तुरंत खतरे में पड़ती नज़र आने लगती है। समलैंगिक संबंधों का नाम सुनते ही हमें सांप-सा सूंघ जाता है। दीपा मेहता की वाटर फिल्म पर मचा बवाल तो याद होगा ही आपको। एक स्त्री जब दूसरी स्त्री का शोषण कर सकती है तो उसके शारीरिक संबंधों पर इतना विरोध और अफसोस क्यों और किसलिए। उत्तर दें।
स्त्री पर चल रहे तमाम बदलावों के मद्देनज़र स्त्री के खिलाफ स्त्री के उत्पीड़न में अपने समाज और परिवारों में अभी तक कोई बदलाव नहीं आ पाया है। मुझे इस बात की भी बेहद तकलीफ है कि अभी तक किसी भी महिला-ब्लॉगर ने इस मुद्दे पर गंभीरता से न अपनी बात को रखा और न ही किसी बहस का आयोजन किया है। जबकि यह हम से ही से जुडा एक गंभीर मुद्दा है। इस मुद्दे पर बात ही नहीं लंबी बहस भी होनी चाहिए।
पुरुष को बुरा-भला कहना-लिखना बेहद सरल है पर एक दफा हमें अपने उन आत्याचारों पर भी निगाह डालनी चाहिए जो हम अपनों के ही खिलाफ घर-बाहर रचते या देखते-सुनते रहते हैं।
मैं प्रायः ऐसी तमाम महिलाओं से रू-ब-रू होती रहती हूं जो किसी न किसी बात में, कहीं न कहीं किसी दूसरी महिला के खिलाफ ज़हर उगलने में ज़रा भी सकुचाती नहीं। बुराई करने में उन्हें आनंद आता है। मगर इस आनंद को कभी न कभी तो बंद करना ही पड़ेगा। अगर ऐसा कुछ होता है तब मुझे लगेगा कि हां बदलाव की असल बात और बयार अब शुरू हुई है यहां।
देखते हैं, कितनी स्त्रियां इस आत्याचार पर कितना और कहां तक पहल कर पाती हैं! और कितनी कोशिश कर पाती है बदलाव के आधार को मजबूत बना पाने में।
" जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की " "The Indian Woman Has Arrived " एक कोशिश नारी को "जगाने की " , एक आवाहन कि नारी और नर को समान अधिकार हैं और लिंगभेद / जेंडर के आधार पर किया हुआ अधिकारों का बंटवारा गलत हैं और अब गैर कानूनी और असंवैधानिक भी . बंटवारा केवल क्षमता आधारित सही होता है
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था
हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।
यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का ।
15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं
15th august 2012
१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं
15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं
15th august 2012
१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं
"नारी" ब्लॉग
"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।
" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "
हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था
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अनुजा आपने सब के सामने वास्तविकता का चित्रण किया है.जो भी स्त्री की प्रगति हो रही है वो सिर्फ़ बडे शहरों मे,वो भी बहुत छोटे पैमाने पर हो रही है.इन्तज़ार तो उस दिन का है जब स्त्री स्त्री की दुश्मन ना हो कर उसके कंधे से कंधा मिला कर चलेगी.
ReplyDeleteअनुजा जी ये सिर्फ़ कहने की बात ही नही हे मगर निहायत सच हे की स्त्री शक्ति का स्वरुप हे ,जब स्त्री कोई बात थान लेती हे तो कैसे भी वो पार कर लेती हे ...आपने सही कहा की पुरूष के स्त्री के उत्पीडन की बात करना आसान हे क्यूंकि लिंग भेद की वजह से , आजतक रही सामाजिक रुधि की वजह से वो ही स्त्री के उत्पीडन का सहज कारण माना जा रहा हे ...पुरूष से स्त्री को जो खतरा हे वो कुछेक बातो तक ही सिमित हे जैसे आपने कहा हे की स्त्री देह को मधे नजर रखते हुए स्त्री को पुरूष से सबसे ज्यादा यौन शोषण का खतरा हे .....चूँकि पुरूष स्त्री को दैहिक भूक की निगाह से देखता हे ....इसके आलावा स्त्री की उन्नति के आगे आने वाले प्रोब्लेम्स में स्त्री ही स्त्री की दुश्मन बनी हुई हे ....डोमेस्टिक वोइलेंस को ही लेले इस में जितना हिस्सा स्त्री का स्त्री के प्रति हे उतना पुरूष का नही हे ......आपने इस विषय में बहोत कुछ कह दिया हे ( स्त्री ही स्त्री की दुश्मन हे )सो में ज्यादा लिखना नही चाहता....मगर आप स्त्री शोषण के किस्से देखेगी तो साफ़ दिखाई देगा की स्त्री को पुरूष से उपरोक्त एक कारण के सिवा इतना खतरा नही हे जितना स्त्री से हे .....अगर स्त्री को समाज में अपनी पोसिशन सही बनानी हे तो एक स्त्री को ही स्त्री का सहकार देना होगा ....साँस अगर बहू को बेटी मानकर चले ......माँ अगर बेटी को अपने बेटे के समान दर्जा दे ....जी हा पति अपनी पत्नी को सही मायने में अर्धांगिनी माने ....समाज सही में सुहाना बन सकता हे ...एकता कपूर जो की एक स्त्री हे उसकी नौटंकी आप टीवी पर देखे हर सीरियल में स्त्री को ही खलनायक दिखाती आ रही हे ...क्या सही में स्त्री ऐसी हे? में नही मानता जितनी ख़राब स्त्री को बताई जाती हे उतनी स्त्री ख़राब हे ....स्त्री के पास इतना टाइम ही कहा हे की वो ऐसी खल्नैकी करती फिरेगी ....मुझे डर हे जैसा अनुजा जी ने कहा टी आर पि बढ़ाने का यह चक्कर कही स्त्री को स्त्री से ही ज्यादा दूर न ले जाए....कौन कहता हे की स्त्री के हालत नही बदल सकते?....बदलाव तो इस संसार का आफर नियम हे ....परिवर्तन के बिना संसार का टिक पाना मुश्किल हे .....जरुरत हे तो बस इतनी ही की संयत दिमाग से बदलाव लाया जाए ...थोश कदम मगर मुश्किलें न बढाते हुए मुश्किल को आसान करके लिए जाए तो बदलाव तो आएगा ही .....स्त्री या पुरूष एक दूजे के दुश्मन नही हे मगर वैचारिक भेद उन्हें बहस में घसीट रहे हे .....इंसान - इंसानी जज्बे को जब समजने लगेगा .....इंसान इंसान की इज्जत करने लगेगा तो कोई बात मुश्किल नही हे .......हमें हमारा नजरिया बदलना हे ......
ReplyDeleteअनुजा जी हम इलेश जी की टिप्पणी से सहमत हैं, हमें भी लगता है कि स्त्री को स्त्री से ही ज्यादा खतरा रहता है। हमारा अनुभव ये कहता है कि दफ़तरों में स्त्रियां भी मर्द बॉस ही ज्यादा पसंद करती है बनिस्पत स्त्री बॉस के, और वो इस लिए कि पुरुष बॉस स्त्रियों की परेशानियों के प्रति ज्यादा संवेदनशील होते हैं जब की स्त्री बॉस ये कह कर बात खत्म कर देती हैं कि हम भी ये सब झेलते है इस लिए ये सब बातों का कोई मतलब नहीं।
ReplyDeleteसम लैगिक संबधों की जहां तक बात है मुझे लगता है कि कुछ सालों की बात है, आप के हमारे जीवन काल में ही इसे सामाजिक मान्यता मिल जाएगी।
स्त्री के प्रति स्त्री के ही कठोर रुख के बारे में बात करते हुए आप ने जो उदाहरण दिया "ससुराल में सास का कहर। " इससे हमें लगता है कि आप की भी मानसिकता बदलने में अभी वक्त है, क्या आप ने बहू का कहर नहीं देखा।
हमने तो बहू का कहर भी बहुत देखा है, इस लिए बात ये नहीं कि नारी किस रिशते से नारी का उतपीड़न कर रही है, बात ये है कि जो भी शक्तिशाली है (चाहे वो ताकत रिशते से मिली हो) वही कमजोर का शोषण करती है/ करता है
waah! waah
ReplyDeletepar sahi mayane me mere shabd kam par rahen hain, sach 'naari' ki jitni taarif ki jay kam hai. blog ne pahli nazar me parbhavit kiya.
shelleykhatri
baar-baardekho.blogspot.com