नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

September 15, 2011

झूठन खाना पत्नी की नियति हैं आज भी

२००५ में फ्री लांस काम के सिलसिले में बीकानेर जाना हुआ था । एक एक्सपोर्टर को डिजाईन चाहिये थे और वो चाहते थे की उनके यहाँ जा कर उनके कालीन की क्वालिटी देख कर , उनकी ज़रूरत समझ कर वापस दिल्ली आकर कम्पुटर पर डिजाईन बना कर दे दूँ । अब मेरा तो यही काम हैं सो बीकानेर उनके बुक कराये होटल में पहुच गयी ।
वहाँ से उनके ऑफिस पहुच कर काम को समझा और उनके बारे में जाना । पता चला उनके यहाँ तीन पीढियां हैं और इस समय तो जो मालिक हैं मुझे उनके बेटे से संपर्क रखना होगा । मालिक के एक भाई और भी साथ में व्यवसाय करते हैं । बेटा भी विवाहित हैं और उसके एक ४ साल की बेटी भी हैं ।

दोपहर के खाने का समय हुआ तो वो कहने लगे की आप घर साथ में चले , हम लोग घर जा कर ही खाना खाते हैं । घर पहुची तो उनका भव्य घर और उसकी सजावट देखी । फिर उन्होने अपनी पत्नी जो शायद मेरी हम उम्र होगी यानी ४५-४८ के बीच , भाई की पत्नी जो ४० - ४५ के बीच और अपनी बहू जो २० -२२ के आस पास रही होगी से मिलवाया ।

बहू को छोड़ कर दो महिला काफी भारी शरीर की थी और साडी पहने थी । उनके शरीर पर जेवर भी बहुत थे । बहू जेवर खूब पहने थी पर उनके मुकाबले दुबली थी ।

रसोई में एक रसोइया खाना बना रहा था और मेज पर ३ थालियाँ घर के तीनो पुरुषो की लगी थी । उसके अलावा एक थाली मेरे लिये भी थी ।

तीनो गृहणियों ने अपने अपने पति की थाली परस दी और बगल में खडी होगयी । पति लोग आये तो बारी बारी वो रसोई से जा कर गरम रोटी ला ला कर खिलाने लगी ।
मै खाना खाती रही और हर प्रक्रिया को देखती रही ।
पति खाना खा कर उठ गए तो पत्नियों वहाँ खड़ी रही जब तक वो कुल्ला करते रहे ।
मै शिष्टता वश नहीं उठी की अभी घर की महिला ने खाना नहीं खाया हैं सो उनके साथ बैठ सकती हूँ ।
कुछ पल के बाद पत्नियां अपने अपने पति की छोड़ी हुई थाली के सामने वाली कुर्सी पर बैठ गयी और रसोइया उनके लिये रोटी ले आया । उसी झूठी थाली कटोरी और बची हुई सब्जी में उन्होने और परोस लिया और खाना शुरू कर दिया ।
मेरे लिये अब बैठने मुश्किल था । अशिष्ट होकर मै उठ कर सोफे पर जा बैठी और चंद मिनट में घर के पुरुषो के साथ ऑफिस चली गयी बाकी काम के लिये ।

शाम के समय उन्होने अपनी बहू को भेज दिया की वो मुझे बीकानेर घुमा दे । पता चला वो खुद भी डिजाइनर हैं । मैने कहा आप तो उम्र में मुझ से कम हैं , यानी आप के पास नये आईडिया बेहतर होगे फिर आप क्यूँ नहीं काम करती । कहने लगी हमारे यहाँ लड़कियों का कम करना सही नहीं मानते हैं ।

रात को वही होटल में मैने खाना खाया जबकि वो लोग बहुत चाहते थे घर पर खाऊ । मेरे लिये दुबारा वो सब देखना ना मुमकिन था ।

इस सदी में भी , आज भी बहुत से घरो में पति की झूठन के साथ ही खाना खाना पत्नी धर्म समझा जाता हैं । इस से प्यार बढ़ता हैं ।

बढ़िया कपड़ो और गहनों से लद्दी सेठानियाँ अपने लिये एक अलग प्लेट नहीं मंगवा सकती । घर में हर सुविधा उनके एशो आराम के लिये उपलब्ध हैं पर खाना झूठन ही होगा क्युकी यही परम्परा हैं


लोग कहते हैं बराबरी मिलती है स्त्री और पुरुष को , क्या वाकई


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34 comments:

  1. Women who do not demand freedom and quietly surrender themselves to the age-old traditions of the society are hailed as 'Bharatiya Nari' or the sign of womanhood. And if any woman ever dares to question this conservative thinking of the society, then she is measured by the words like disobedient and stubborn etc bla bla!

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  2. Actually, baat sirf jhothe khane ki nahi hai...jootha to ham bhai - bahan and friends ka bhi khate hain. Lekin dono ke peeche different intentions and reasons hain. Is jotthan khane ke peeche jo reaosn hai wo galat hai, jise women apni niyati maan baithi hai.

    Her galat cheez ko sweekar karna nari ki aadat si ban gayi hai aur purushon se pana uski niyati!

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  3. कहाँ देख आईं आप ये सब , सिर्फ टीवी धारावाहिकों के अतिरिक्त हमने ये दृश्य कभी नहीं देखा . ,सेठ /सेठानियों के यहाँ भी खूब जाना हुआ है , मगर ना तो उन्हें गहनों से लदे फंदे देखा और ना पति की जूठन को नियति मानते हुए !
    आलस्यवश दूसरी थाली नहीं लें ,पति की थाली में किसी कारण से कुछ अनखाया रह गया हो तो अन्न का निरादर ना करते हुए भले ही खा लें , मगर नियति या अनिवार्य रूप में ऐसी कोई प्रथा नहीं है !

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  4. vani
    पोस्ट में लिखा बीकानेर के एक्सपोर्टर हैं आँखों देखा लिखा हैं बिना जोड़ घटा के
    ज़रा कभी मथुरा और वृन्दावन जाये वहां की विधवा के ऊपर भी वही से देख कर लिखा था इसी ब्लॉग पर
    और आप ने अगर गहनो से लद्दी सिठानी नहीं देखी हैं तो कुछ नहीं कर सकती हूँ क्युकी मेरा काम मुझे इन जैसे बहुत से परिवारों में ले जाता हैं

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  5. सुना भी है और देखा भी है...पति की जूठी थाली में अपना धर्म मान कर निष्ठा से खाते देखा है..चाहे लड़ते लड़ते ज़िन्दगी कटे लेकिन प्यार का दिखावा करते हुए एक ही थाली में खाना खाते भी देखा है..रोचक बात यह दिखती थी कि अगर भूले से पति ने पत्नी के जूठे गिलास में पानी पी लिया तो घर की बड़ी औरतें ही गुस्सा करती दिखाई दीं.....

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  6. वाणी गीत जी, ऐसा क्यों नहीं होता कि पत्नी ने खाया और कुछ नापसन्द कर छोड़ दिया तो संस्कारी भारतीय पुरुष, खाने का आदर करने हेतु, फेंकने की बजाय स्वंय बचे को झूठी थाली से खा ले? क्या सारे संस्कार स्त्री के हिस्से आते हैं? संस्कृति, धरोहर, नाम, देश सब पुरुष का और उसे ढोने वाली स्त्रियाँ ही क्यों?
    रचना, जो तुमने लिखा वह सच है। चाहे आज के समय में बहुत कम घरों का सच। वैसे हम शहर में रहने वाले, न्युकलियर परिवार वाले इस सब को क्या जानें? किन्तु जरा सतह को खुरेंचो, सब सच सामने आ जाता है।
    इस विषय पर मैं अपनी माँ के सत्तर वर्ष पुराने रोचक संस्मरण सुना सकती हूँ।
    घुघूती बासूती

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  7. @ घुघूती जी,
    मारवाड़ में यह परंपरा हो सकती है। इधर हमारे हाडौती में नहीं है। हम तो अक्सर साथ खाते हैं। पहले एक ही थाली में खाते थे। अब अलग अलग खाते हैं। बीच में पत्नी कहती है कि उसे कोई सब्जी या अन्य वस्तु अचछी नहीं लग रही है तो हम चाव से ले लेते हैं। शायद उस के पीछे बचपन से घर कर गई यह धारणा रही हो कि अन्न का एक भी दाना बेकार नहीं जाना चाहिए। पिताजी और दादाजी की थाली में तो कभी कुछ छूटते देखा ही नहीं। बल्कि उन की थाली कटोरी तो भोजन के बाद इतनी चमकती रहती थी कि उन्हें साफ की हुई समझा जा सकता था।

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  8. कुछ रुढ़िवादी लोगों में इस तरह की परम्पराएँ अभी तक बची हैं ।
    बेशक ये पुराने ज़माने की बातें हैं । बदलाव तो आ रहा है , मगर धीरे धीरे ।
    शिक्षा का महत्त्व यहीं समझ आता है ।

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  9. @द्विवेदीजी...यह सच है..अपनी आँखों देखा ...अपने मौसेरे भाई का अहम पुष्ट होते देखते थे जब भाभी को उनके बाद झूठी थाली में खाना पड़ता..वे पढ़े लिखे जाने माने व्यापारी है..भाभी भी व्यापार के लिए विदेश आती जाती..यहाँ अन्धविश्वास नही था बस अहम था...गुजरात के नामी वकील घराने की पत्नी अपने पति की थाली धोकर अमृत जैसे पीती हैं...पंजाब और हरयाणा की महिलाएँ भी जूठी थाली में खाती हुई दिखीं.. जिनका विश्वास है कि ऐसा करने से सात जन्मों तक पति का साथ रहेगा..वे सुहागन मरेंगी और स्वर्ग में जाएँग़ी...

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  10. वाणी जी से सहमत,घटना सच हो सकती है,पर यहाँ पर कारण आलस्य या अन्न जूठा न छोड़ने की इच्छा संभव है।दुःख की बात है दुनिया का शायद ही कोई भाग होगा जहाँ कभी न कभी नारी का दोयम दर्जा स्पष्ट दिखाई न देता हो।

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  11. पाँचों अंगुली बराबर नहीं होती है।

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  12. अरे! मेरे गाँवों में भी बहुएँ अक्सर अपने पति की थाली में ही खाती हैं, और अगर जूठा ना भी खाएँ, तो पति के बाद ही खाती है. कौन सी नयी बात है?

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  13. ये किसी एक क्षेत्र की बात नहीं, पूरे भारत की है. औरतों को दोयम दर्जे का नागरिक मानने की मानसिकता के चलते ऐसा होता है, और बड़े घरों में कुछ ज्यादा ही होता है.

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  14. pyar badhne ki baat ko mai tab hi samajh paati jab itne hi prem se pati bhi apni patniyo ka jhootha kha sakte..... agar ann ka feka jana bachane ke liye bhi patniya apne pati ka jhootha khati hai to fir kya kabhi mauka aane par pati aisa kar sakte hain? mere vichar se bilkul nahi... ye samarpan ye prem.. sab bahut sammaaniye hai.. lekin ek tarfa hi kyun???

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  15. बीकानेर के सेठों के यहाँ तो नहीं जाना हुआ पर हाँ राजस्थान के कई सेठों के घर बहुत बार जाना हुआ है हमने तो ऐसा रिवाज कहीं नहीं देखा|
    हाँ बालिका वधु धारावाहिक में इस प्रथा के बारे में पहली बार देखा और दूसरी बार यहाँ पढ़ा|

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  16. @ झूठन किसी भी हालत में किसी को किसी का नहीं खाना चाहिए... ऐसा ही स्वास्थ्य-चर्चाओं में मेरे गुरुजनों ने बताया था लेकिन विवाह से पहले मैं अपने पिता और भाइयों का झूठा खाना इसलिये खा लेता था कि उसे फैंका ना जाये... उसे निपटाने में माँ का सहयोग करता था.. वैसे झूठन से हमेशा बचता था. विवाह के बाद पत्नी को झूठा खाने से मना किया और स्वयं भी सप्रयास वैसा ही किया लेकिन रिश्तेदारों के बीच और ससुराल में उठते-बैठते यह परहेज भी छूट गया... आज़ पत्नी मेरा झूठा खा लेती है.. और मैं पत्नी का... सोचता हूँ इस परम्परा को जल्द छोड़ दूँ.. लेकिन छूटती नहीं.
    हाँ कभी-कभी एक ग़लत बात जरूर बोंल देता हूँ... जब थाली में भोजन बच जाता है... "तुम्हारे लिये प्रसाद छोड़ दिया है."

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  17. मुझे पत्नी के झूठन खाने में कुछ और भी नज़र आता है... वह यह कि... अन्न बरबाद न हो.

    पहले तो पत्नियाँ प्रेमवश .... इतना अधिक परस देंगी ... फिर पति के द्वारा थाली में झूठन छोड़ देने पर अन्न की बरबादी में गुनाह मानेंगी ... धोने के बरतन भी कम होते हैं... पत्नियाँ इसलिये भी एक थाली में खाना पसंद करती हैं.. ऐसे छोटे-छोटे कई अन्य कारण भी हैं जिसपर ध्यान नहीं जाता... इसे केवल 'पत्नी धर्म' कहना ठीक नहीं.

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  18. हमारे मिथिला में एक प्रथा है, जिस दिन शादी होती है उस दिन ही एक पान दिया जाता है। जिसमें बीवी (हो रही/ होने वाली) के मुंह के जूठे पान की सुपारी रहती है। और हम खा लेते हैं।
    यानी बीवी के जूठन खाने से विवाहित जीवन की शुरुआत होती है। सही में प्रेम बढ़ता है।

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  19. मैने प्रतुल यहाँ जो लिखा हैं वो प्रत्यक्ष देखा हैं । उस देखने से पहले मै भी ये सब केवल टी वी और फिल्मो की हकीकत समझती थी पर फिर और भी जगह देखा ।

    बहुत संभव हैं की रतन सिंह की आप ने जब भोजन किया हो तो वो घर के अन्दर न किया हो । मैने एक स्वाभाविक रूप से जैसे घर में रोज खाया जाता हैं रसोई के सामने उस तरह इनके के यहाँ खाना खाया था

    बहुत से घरो में जब मेहमान आते हैं तो घर की स्त्रियाँ खाना पुरुषो के साथ नहीं खाती हैं और उस दिन ये सब नहीं दिख सकता हैं
    पर ये सब आज भी हो रहा हैं और अच्छे संपन्न घरो में हो रहा हैं ।
    और ये अन्न बचाने वाली बात , ज्यादा परसने वाली बात उन घरो में सही हैं जो बी पी अल से हैं । बाकी जगह इसका औचित्य ही नहीं हैं क्युकी बचा हुआ खाना गाय को खिलाते मै रोज देखती हूँ । घर की काम करने वाली नौकरानी को भी दिया जाता हैं

    बजाये हम ये माने की जो मैने लिखा हैं वो होता ही नहीं हैं ये मानना जरुरी हैं की इस प्रकार की बाते हो रही हैं और एक आम बात मानी जाती हैं । टी वी इत्यादि में ये कम ही दिखता हैं जबकि होता बहुत ज्यादा हैं

    सबकी सुविधा के लिये लिंक हैं जहां मैने ये पहले पोस्ट किया था वहाँ किसी पाठक को ये गलत नहीं लगा ।


    http://indianhomemaker.wordpress.com/2011/05/27/were-indian-women-better-off-as-homemakers/#comment-41953

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  20. किसी एक- दो परिवार में देखा हुआ सच सबकी नियति या परम्परा नहीं हो सकता !

    सेठानियाँ खूब देखी हैं , करोड़पतियों और अरबपतियों की पत्नियों को भी बहुत करीब से देखा है , ताश की महफ़िलें भी खूब जमाई है उनके साथ , इन परिवारों में भी डाईनिंग टेबल पर पूरे परिवार को एक साथ ही खाते ज्यादा देखा है .गहने खूब होते हैं उनके पास मगर दिखावे से लदी फंदी नहीं होती , हाँ , हमारी नानी /दादी के ज़माने में जरुर महिलाएं हमेशा सिर पर बोर , कानों में बड़े झुमके , हार आदि पहने रखती थी .आजकल महिलाएं सिर्फ तीज- त्यौहार पर ही पहनती हैं !

    हमारे राज्य की भूतपूर्व मुख्यमंत्री वसुंधराजी , महारानी गायत्री देवी , उनकी पुत्रवधुएँ क्या सेठानियाँ नहीं हैं ?? वे सामान्य महिलाओं से भी कम गहने पहनती हैं!

    द्विवेदीजी और रतनसिंह जी ने भी बता ही दिया है कि ऐसी कोई परम्परा नहीं है ! जैसा कि द्विवेदी जी ने बताया , हमारे घरों में पुरुष अपनी थालियों में कुछ भी अन्न छोड़ना अपराध ही मानते रहे हैं ,
    @ घुघूती जी ,
    जूठा तो किसी को भी किसी का नहीं खाना चाहिए , मगर माएं और पत्नियाँ खाती हैं क्योंकि लाड़ दिखाते हुए वे ही परोसती भी ज्यादा है . किसी बहुत पुराने ज़माने में जूठन खाना नियति माना जाता रहा होगा , आजकल ऐसा नहीं है . हम पति- पत्नी (हमारे जैसों की गिनती ज्यादा है) अक्सर एक साथ एक ही थाली में खाते हैं , तो जूठा तो दोनों ही खाते हैं!

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  21. jab kuch logo ne maan hi liya hi ki naari doyam darje ki hai tab purus samaj kiya keh sakta hai.......

    jutha aur juthan main bahut fark hai .....aur ek baat aur SAWAAN KE ANDHE KO HARA HI HARA NAZAR AATA HAI......
    DUNIA EK SE EK ACCHHE LOGO SE BHARI PADI HAI...AGAR AAP KA NAJARIA ACCHHA HAI ....

    JAI BABA BANARAS....

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  22. रचना - यदि यह धर्म समझ कर जबरदस्ती होता है - तो - सिर्फ गलत ही नहीं - सरासर अन्याय है | यही बात करवा चौथ, तीज आदि व्रतों पर भी लागू होती है |किन्तु यदि यह प्रेम जनित है - कोई किसीको प्रेम करने के कारण अपनी मर्ज़ी से करना चाहे - तो यह उस व्यक्ति का निजी डिसिशन है | परन्तु - यदि पूरे परिवार में सब ही पत्नियाँ पति के बाद उसकी झूठी थाली में भोजन कर रही हों - तो यह ज़रूर कायदा बना हुआ होगा उस परिवार का (और ऐसे कई परिवारों का ) - absolutely unfair | these things need to be stopped . but the problem is - customs start with acts of love and affection and go on to become unwritten laws .... यही सबसे बड़ी प्रॉब्लम है |

    agree with rewa,meenakshi

    @ vani ji - @वाणी जी - आपने अपने आस पास नहीं देखा - का अर्थ यह नहीं कि यह परंपरा नहीं है | मैं जेवेलरी नहीं पहनती - वसुंधरा सिंधिया नहीं पहनती - तो क्या यह मान लिया जाय कि कोई भी महिलाएं पहनती होंगी? वैसे भी - रचना जी इस पोस्ट में गहनों की नहीं - झूठा खाने की बात कर रही हैं | भारत बहुत बड़ा देश है - यदि तीन जन - आप, द्विवेदी जी, रतनसिंह जी कह रहे हैं कि उनके यहाँ ऐसी कोई परम्पराएं नहीं हैं - तो सभी जगह नहीं हो गयी क्या ??? बहुत जगहों पर हैं - आप जो कह रही हैं कि - माएं झूठा खाती हैं क्योंकि वे लाड के कारण ज्यादा परोसती हैं - सरासर उसी लीक पर है जिस पर अक्सर लोग कहते हैं कि "बलात्कार इसलिए होता है कि लड़कियां कपडे ऐसे पहनती हैं "| अगला वाक्य यह होगा कि - पत्नी जान बूझ कर ज्यादा पति की थाली में परोस देती है कि उसे एक थाल ज्यादा न धोनी पड़े !!!! यदि आप समस्या का कारण उसके विक्टिम को ही बता देंगे - तब तो समस्याओं के हल निकल ही नहीं सकते |

    if it is done on both sides with an intention to "not waste" तब बात अलग है - परन्तु जब यह जबरदस्ती हो और सिर्फ स्त्री के लिए ज़रूरी हो - तब बात अलग है

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  23. इंसानों मैं हमेशा यही देखा गया है कि जो पति खाता है वही पत्नी और बच्चे भी खाते हैं.

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  24. @Shilpa,

    Well said! I agree with your opinion...Actually, bharat jaise desh mei agar log yeh kah de ki maine apni ya apne beti ke shadi mein dowry nahi diya hai to iska matlab yeh nahi hai ki dowry system khatm ho chuka hai. Dowry system to hai haan bhale hi ye ek ghar se khatm ho gaya hai lekin samaj se khatm hone mein abhi sadi lagegi. Her parampara ke sath yahi hai.

    rgds

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  25. @एस.एम.मासूम

    Sir ji, aapki baat sahi hai, lekin jo khate hain wo sab khate hain. I mean agar main roti,dal,sabji kha rahi hun to mere bhai bahan maa papa sabhi wahi khate hain. Lekin yahan kya khate hain ki baat to ho hi nahi rahi hai. Yahan kaise khate ya khialya jata hai ki baat ho rahi hai. Post ko dobara padhne ka kasht karen mahoday!

    rgds

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  26. अगर कुछ परिवारों में भी ऐसी परंपरा है तो भी गलत तो गलत ही रहेगा.और पूरविया जी इस हिसाब से तो फिर किसी भी समस्या पर कोई बात ही नहीं कर पाएगा.आमिर खान अपनी फिल्म 'देहली बेली' का बचाव करते हुए कहते है कि इसमें गालियाँ उन लोगों को ही सुनाई दे रही है जिनका दिल साफ नहीं है.
    वाह!
    और मासूम जी आपकी बातों से तो ऐसा लग रहा है जैसे पत्नी और बच्चों की तो कोई अलग इच्छा ही नहीं होती गोया पति ये पिता होना ही कोई एहसान की बात हो.और यहाँ एक जैसा खाने न खाने की बात नहीं हो रही बल्कि परंपरा के नाम पर पत्नी के झूठन खाने की बात हो रही है.साफ क्यों नहीं बताते कि ये गलत है या नहीं.

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  27. @
    सेठानियाँ खूब देखी हैं , करोड़पतियों और अरबपतियों की पत्नियों को भी बहुत करीब से देखा है , ताश की महफ़िलें भी खूब जमाई है उनके साथ ,

    वाणी जी
    आप बड़ी लकी हैं की आप को ताश पार्टी का समय मिलजाता हैं इन सबके के साथ :)

    @
    हमारे राज्य की भूतपूर्व मुख्यमंत्री वसुंधराजी , महारानी गायत्री देवी , उनकी पुत्रवधुएँ क्या सेठानियाँ नहीं हैं ?? वे सामान्य महिलाओं से भी कम गहने पहनती हैं!


    जो खबरे अखबारों में आती हैं अगर उनको सच माने तो इनके तो कान के हीरे का एक एक हीरा ही लाखो रुपये का आता हैं . सोलिटाय्र होता हैं . लेकिन आप का उठाना बैठना हैं उनके साथ तो आप ही सही कहती होगी की वो लोग हीरा नहीं पहनती हैं

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  28. यहाँ हर पक्ष पर काफी बातें हो गयी हैं पर कुछ पूछना चाहूंगी...

    @प्रतुल जी,
    आपने कहा
    "हाँ कभी-कभी एक ग़लत बात जरूर बोंल देता हूँ... जब थाली में भोजन बच जाता है... "तुम्हारे लिये प्रसाद छोड़ दिया है."

    परन्तु आपकी पत्नी, कभी मजाक में भी ऐसा कह सकती है???

    @शिल्पा
    तुमने कहा..." अगला वाक्य यह होगा कि - पत्नी जान बूझ कर ज्यादा पति की थाली में परोस देती है कि उसे एक थाल ज्यादा न धोनी पड़े "

    प्रतुल जी बिलकुल यही...ऊपर की टिप्पणियों में कह चुके हैं.

    "धोने के बरतन भी कम होते हैं... पत्नियाँ इसलिये भी एक थाली में खाना पसंद करती हैं.."

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  29. शिल्पा
    मैने ये एक आम दिन एक पैसे वाले परिवार में दिनचर्या की तरह होता देखा था . इसका किसी धार्मिक अनुष्ठान से क़ोई लेना देना नहीं हैं . ये सब चल रहा आज भी बस यही सोच कर संस्मरण की तरह इस पोस्ट को दिया .

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  30. @ नहीं रचनाजी , अब कहाँ मिलता है समय ...आपने कहा कि सेठानियाँ नहीं देखी , तब बताया कि सेठानियाँ बहुत देखी हैं ..

    वैसे कुल मिलाकर यही ठीक लगा कि अपनी इच्छा से जूठा खाया जाए तो ठीक है , जोर- जबरदस्ती या परम्परा के रूप में नहीं !

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  31. ---क्या आजकल के नवजवान प्रेमी जोड़ों ..पति-पत्नी जोड़ों को एक ही स्टिक से एक ही गिलास में जूस पीते नहीं देखा....यह क्या है...?????
    ---सब अपनी इच्छा पर निर्भर है तो ठीक है ..अनिच्छा जोर जवर्दस्ती, रिवाज़ -रवायत के नाम पर नाजायज़ है....

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  32. ---अन्न बचाने के लिए पुरुष को भी थाली में कुछ नहीं छोडना चाहिए....पत्नी द्वारा जबर्दस्ती रखा जाने पर उसे पत्नी को खाना ही पड जायगा ताकि अन्न बरवाद न हो ...
    ----किस करने में भी तो एक दूसरे का झूठा मुंह लगाया जाता है...सब कुछ इच्छा पर निर्भर होना चाहिए...और इच्छा .?????

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  33. @मेरा उठना बैठना नहीं है उनके साथ, वो ये नहीं हैं . पिता की नौकरी के कारण ऐसी ही सेठानियों से मिलना हो जाता था ,और सच ही हमेशा नहीं पहने रहती हीरे से जड़े गहने ...

    कहीं किसी को गलतफहमी ना हो जाये कि हमारा इन लोगों से परिचय है , इसलिए लिखना पड़ रहा है !

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