नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

September 12, 2011

माँ , घर , बच्चे

क्या माँ बनना औरत की जिंदगी की सम्पूर्णता हैं ?
या शादी करना और फिर माँ बनना औरत की जिंदगी की सम्पूर्णता हैं ?

अगर माँ बनना सम्पूर्णता हैं तो अविवाहित माँ अभिशाप क्यूँ होता हैं ?
अगर शादी करके माँ बनना सम्पूर्णता हैं तो शादी की अहिमियत हैं या माँ बनने की

क्या बच्चे को जनम देने मात्र से ही औरत माँ बन जाती हैं ?
क्या बिना बच्चे को जनम दिये औरत माँ नहीं बन सकती हैं ?

क्या आप को पता हैं एक अविवाहित स्त्री को बच्चा गोद लेने का क़ानूनी अधिकार नहीं था , १९९४ के बाद ये अधिकार दिया गया हैं और वो भी विश्व सुन्दरी सुष्मिता सेन के प्रयासों से । उन्होने इसके लिये एक लम्बी लड़ाई लड़ी थी और कानून को बदलवाया था । आज वो दो बेटियों की माँ हैं और अविवाहित हैं ।

लोग हमेशा नारी के माँ बनने को महिमा मंडित करते हैं और लेकिन अविवाहित माँ को समाज स्वीकृति नहीं देता । विवाह की प्रधानता इस लिये हैं क्युकी उससे पुरुष की प्रधानता हैं ।

घर बनाने का अधिकार नारी का नहीं होता

घर बनाने का अधिकार
नारी का नहीं होता
घर तो केवल पुरुष बनाते हैं
नारी को वहाँ वही लाकर बसाते हैं
जो नारी अपना घर खुद बसाती हैं
उसके चरित्र पर ना जाने कितने
लाछन लगाए जाते हैं

बसना हैं अगर किसी नारी को अकेले
तो बसने नहीं हम देगे
अगर बसायेगे तो हम बसायेगे
चूड़ी, बिंदी , सिंदूर और बिछिये से सजायेगे
जिस दिन हम जायेगे
उस दिन नारी से ये सब भी उतरवा ले जायेगे
हमने दिया हमने लिये इसमे बुरा क्या किया


कोई भी सक्षम किसी का सामान क्यूँ लेगा
और ऐसा समान जिस पर अपना अधिकार ही ना हो
जिस दिन चूड़ी , बिंदी , सिंदूर और बिछिये
पति का पर्याय नहीं रहेगे
उस दिन ख़तम हो जाएगा
सुहागिन से विधवा का सफ़र
लेकिन ऐसा कभी नहीं होगा
क्यूंकि
घर बनाने का अधिकार
नारी का नहीं होता


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अपडेट
इस पोस्ट के अंशो से यहाँ पोस्ट बनाई गयी हैं और उस पर विमर्श भी हुआ हैं

क्या औरत की जिंदगी में विवाह का होना ज़रूरी है?

24 comments:

  1. माफ कीजिएगा यहाँ मैं आपकी बातों से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ। क्यूकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। चाहे औरत हो या मर्द हम समाज में रहते हैं और इसलिए हमको समाज के नियमों का जहां तक संभव हो पालन करना चाहिए। रही माँ बनने की बात तो बिना विवाह के भी औरत माँ बन सकती है। जैसे सुष्मिता सेन जी, जिनका आप ने स्वयं ही example दिया है। कहने का अर्थ है सही तरीके से यदि बिना शादी के माँ बना जाए तो कोई हर्ज नहीं .... अन्यथा जो गलत है वो गलत ही रहेगा।
    कभी समय मिले तो आयेगा मेरी पोस्ट पर आपका स्वागत है
    http://mhare-anubhav.blogspot.com/

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  2. रचना जी अब आप भी वहीं पहुँच गई है आपने सुष्मिता सेन का महिमा मंडन कर डाला है.यानी महिला किसी भी तरह माँ बने ही वर्ना वो कुछ कमतर है.कोई महिला किसी भी तरह किसी भी वजह से माँ न बनना चाहे तो भी आप उसे जबरदस्ती सुष्मिता सेन क्यों बनाना चाहती है.ये तो फिर एक तरह का विभाजन ही है.किसी अविवाहित पुरुष की तरह ही कोई महिला भी बिना बच्चों के खुश रहना चाहती है तो इसमें क्या समस्या है.वैसे सम्भव हुआ तो मैं जल्दी ही दुबारा लौटता हूँ.

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  3. चूड़ी, बिंदी , सिंदूर और बिछिये से सजायेगे
    जिस दिन हम जायेगे
    उस दिन नारी से ये सब भी उतरवा ले जायेगे
    हमने दिया हमने लिये इसमे बुरा क्या किया
    ....

    बहुत ही सार्थक प्रश्न उठाये हैं. शायद आज समाज इनके उत्तर देने को तैयार न हो, लेकिन पुरुष प्रधान समाज को एक न एक दिन अपनी सोच बदलनी होगी. नारी को केवल नारी बन कर क्यों नहीं जीने दिया जाता ? सामाजिक नियम उसी पर क्यों ज़बरदस्ती थोपे जाते हैं? बहुत ही सार्थक प्रश्न और बहुत मर्मस्पर्शी कविता. बहुत सटीक और सार्थक. आभार

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  4. मुझे कविता अच्छी लगी. और भाव भी. वैसे इन चीजों का चलन अब धीरे धीरे कम होता जा रहा है.

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  5. सुन्दर रचना आपकी, नए नए आयाम |
    देत बधाई प्रेम से, हो प्रस्तुति-अविराम ||

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  6. :)

    impressive!

    aur haan.. reactions bilkul expected the.. ab sacchai hajam hone me mushkile to hoti hi hain.... lekin lekin hats off ki aap itna spasht bol bhi leti hain aur reactions jhelne ko bhi taiyar!

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  7. हाँ ये बात तो है रचना जी स्पष्ट बोलने के लिए ही जानी जाती है.और आमतौर पर अपनी छवि की चिंता नहीं करती.एक हद तक इस श्रेणी में मै सुरेश चिपलूनकर जी ओर प्रवीण शाह जी को भी रखता हूँ लेकिन फिर भी रचना जी की तुलना किसीसे नहीं की जा सकती उनके विरोधी भी इस बात को मानते है.हाँ कुछ मामलों मेँ असहमति अपनी जगह होती है.और क्या रचना जी को भी लगता है कि मुझे सच्चाई हजम करने में मुश्किल हो रही है?
    खैर विषय पर आते है.मेरे कमेंट मैं जो सवाल है वो रचना जी के लिए ही नहीं है और न ही उसमें सुष्मिता सेन से मतलब सिर्फ सुष्मिता सेन है.ये बात रचना जी भी समझ रही होंगी.ये सवाल मैंने इसलिए पूछा कि जब हम कहते है कि मातृत्व ही महिला कि जिंदगी की सम्पूर्णता नहीं है तो इसका मतलब होता है कि बिना बच्चों के भी महिला का खुद का स्वतंत्र अस्तित्व है और बिना मातृत्व सुख या बच्चों के उसे अपने जीवन में कोई आधूरापन महसूस नहीं होता और यदि होता भी है तो ईसलिए क्योंकि मातृत्व को ही समाज ने महिमामंडित किया है और अब इस महिमामंडन से छुटकारा पाने की जरूरत है.लेकिन जब आप सुष्मिता सेन जैसे उदाहरण देकर ये बताते है कि देखो माँ तो ऐसे भी बना जा सकता है तो कहीं न कहीं आप भी मातृत्व का ही बखान कर रहे है और उसी पुरुषवादी समाज की सोच पर मोहर लगा रहे है कि बच्चों के बिना महिला को अपने जीवन में अधूरापन महसूस होता है.और इसके बाद ही महिल को किसी भी त्याग या समझौते के लिए तैयार किया जाता है.अभी और स्पष्ट करता हूँ...

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  8. मातूत्व को महिला की सम्पूर्णता ही नहीं बल्कि समाज के प्रति एक जिम्मेदारी के रूप में भी देखा जाता है.यूँ तो विवाहित पुरुष की भी पिता के रुप में कुछ जिम्मेदारियाँ तय की गई हैं लेकिन कम से कम एक अविवाहित पुरुष को पितृत्व को लेकर उस तरह के सवालों का सामना नहीं करना पडता.न तो पुरुष को ये लगता है कि पिता न बनकर वह सम्पूर्ण होने से रह गया और न ही इस बात को लेकर उसे कोई ग्लानि महसूस होती है कि उसने अपने सामाजिक दायित्व नहीं निभाए क्योंकि उन पर कोई सामाजिक दबाव नहीं है.अविवाहित पुरुषों के संदर्भ में कभी ये क्यों नहीं कहा जाता कि देखो पिता तो तुम बच्चे को गोद लेकर भी बन सकते हो.
    कहने का मतलब है कि माँ बनना न बनना महिला की इच्छा पर ही छोड दिया जाए चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित जैसा कि पुरुषों के मामले में भी है.और सामाजिक दायित्वों की जहाँ तक बात है तो ये कई दूसरे तरीकों से बिल्कुल निस्वार्थ भावना से(बच्चे गोद लेकर पालने में तो कोई अपना स्वार्थ भी हो सकता है) बहुत से अविवाहित भी निभाते ही है यदि वे सक्षम है तो.
    माँ बनने न बनने का अधिकार महिला को होना चाहिये ऐसे ही अविवाहित महिला को भी बच्चा गोद लेने न लेने का फैसला भी महिला का स्वयं का हो जैसे कि पुरुषों को भी है लेकिन किसी भी कारण से यदि बच्चों के बिना अधूरेपन या दायित्व निर्वहन संबंधी सवालों पर केवल महिला को अलग थलग जब तक महसूस कराया जाता है तब तक ये सवाल उठते रहेंगे.लगता है मैं कुछ ज्यादा ही कह गया हूँ आपको लगता है कि ये सब कहना सही नहीं तो ठीक है.आगे तो बढा ही जा सकता है.और भी कई मसले है उन पर बात करेंगें.

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  9. एक हमसफ़र और बच्चों का साथ स्त्री पुरुष के जीवन को आनंददायक बनाता है , मगर जो लोंग इसके बिना भी खुश है , रहना चाह्ते हैं , उन पर किसी प्रकार के दबाव को मैं अनुचित मानती हूँ .

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  10. राजन
    आप इस ब्लॉग के पाठक हैं और मै आप पर स्नेह भी इसलिये रखती हूँ क्युकी जो मन आता हैं सन्दर्भ के अन्दर आप निसंकोच कह देते हैं
    मै सुष्मिता सेन का सन्दर्भ शायद आप को समझा नहीं पायी
    १९९४ से पहले किसी भी अविवाहित महिला को हमारा कानून बच्चे गोद लेने का अधिकार नहीं देता था . यानी अगर क़ोई स्त्री बिना शादी के बच्चा लेना चाहे { जो उसकी इच्छा हैं यानी चुनने का अधिकार } तो उसको ये अधिकार ही नहीं था . यानी माँ बनने के लिये "पुरुष " का उसके जीवन में होना बहुत जरुरी था . पुरुष के इस वर्चस्व को चुनौती दी सुष्मिता सेन ने और न्याय प्रणाली को मजबूर किया की वो स्त्री को उसका ये अधिकार दे .
    ये एक प्रकार का क्रातिकारी कदम था जो एक महिला ने उठाया जो अविवाहित थी . इस लिये मेरी नज़र में उसने "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित की " और इस लिये वो दूसरो से फरक हैं .
    मै कभी ये नहीं कहती विवाह मत करो , लेकिन मै ये जरुर कहती हूँ की विवाह क़ोई नियति नहीं स्त्री के लिये .
    उसी तरह बच्चो का सवाल हैं , बहुत से स्त्रियाँ बच्चे चाहती हैं पर शादी नहीं चाहती तो उनको इस अधिकार से क्यूँ वंचित होना चाहिये .
    नारी सशक्तिकरण का अर्थ हैं हम इतने मजबूत हो की जो चाहे { कानून और संविधान के दायरे के अन्दर } वो ले सके .
    हम ये नहीं कह सकते हैं की जो माँ हैं वो क्यूँ हैं क्युकी तब हम उनके चुनने के अधिकार पर ऊँगली उठा रहे हैं
    अगर अब भी मेरी बात साफ़ ना हुई हो तो फिर प्रशन करिये मै कोशिश करुँगी की अपने लिखे को बेहतर समझा सकूँ

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  11. Rachna jee आपको अग्रिम हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं. हमारी "मातृ भाषा" का दिन है तो आज से हम संकल्प करें की हम हमेशा इसकी मान रखेंगें...
    आप भी मेरे ब्लाग पर आये और मुझे अपने ब्लागर साथी बनने का मौका दे मुझे ज्वाइन करके या फालो करके आप निचे लिंक में क्लिक करके मेरे ब्लाग्स में पहुच जायेंगे जरुर आये और मेरे रचना पर अपने स्नेह जरुर दर्शाए...
    BINDAAS_BAATEN कृपया यहाँ चटका लगाये
    MADHUR VAANI कृपया यहाँ चटका लगाये
    MITRA-MADHUR कृपया यहाँ चटका लगाये

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  12. रचना जी,
    स्पष्ट करने के लिए धन्यवाद.आपकी बात समझ रहा हूँ.लेकिन बात तो आप महिला जीवन की सम्पूर्णता की कर रही थी.सुष्मिता के जिक्र के कारण आपका सवाल दरअसल ये हो गया-मातृत्व सुख विवाह के बिना भी सम्भव है या नहीं.जबकि मैं अभी भी ये पूछ रहा हूँ कि मातृत्व सुख के बिना भी महिला(जो ऐसा चाहती है) का जीवन सम्पूर्ण या सार्थक है या नही चाहे वो विवाहित हो अविवाहित.और अगर नहीं है तो ये बात पितृत्व के संबंध में पुरुषों पर लागू क्यों नही होती खासकर अविवाहित पुरुषों पर.वैसे तो सुष्मिता की लडाई ज्यादा मायने रखती है लेकिन उनके अलावा चंडीगढ की कल्पना डेनियल ने भी मातृत्व के अधिकार के लिए प्रयास किया था.तब भी ये कहा गया था कि माँ बनना यदि महिला का अधिकार है तो इसमें माँ न बनने का अधिकार अपने आप शामिल हो गया है.ये ही बात अविवाहित महिलाओं पर भी लागू होती है.सुष्मिता सेन के प्रयास से यदि अविवाहित महिलाओं को 'चुनने का अधिकार' मिला है तो 'न चुनने का अधिकार' भी मिला है और यदि नहीं मिला है तो मिलना चाहिये.लेकिन बात तो वही है कि इस संबंध में विवाहित और एक हद तक अविवाहित महिला की 'हा' को तो समाज स्वीकार करने को तैयार है लेकिन 'ना' को नहीं.जबकि पुरुषों के मामले में ऐसा नहीं है.और बात केवल कानूनी अधिकारों की नहीं है समाज के रवैये की भी है तभी तो 'नारी' जैसे प्रयास हो रहे है वर्ना कानून तो महिला पुरुष को समान मान ही रहा है.नहीं मैं ये नहीं कहता कि जो माँ है उससे ये पूछा जाए कि वो माँ क्यों है लेकिन जो माँ नहीं है या नहीं बनना चाहती उससे भी ये न पूछा जाऐं की वो माँ क्यों नहीं है क्योंकि ये उसके अधिकार पर प्रश्न ही नहीं लगाता वरन् उसे एक कमतरी का एहसास भी कराता है.अभी इसे मैं अन्ना के शब्दों मेँा आधी जीत कहूँगा.और ये बात मैं इसलिए भी कह रहा हूँ कि बिना शादी या बच्चों के रहने वाली महिलाओं की ठीक ठाक संख्या देश दुनिया में आज भी है और आप भी समझती है कि हमारे देश में भी आने वाले समय में ऐसी महिलाओं की संख्या और बढेगी.तब ये सवाल और भी उठेंगें.
    हो सकता है आपकी पोस्ट से विषय थोडा अलग हो गया हो लेकिन ये प्रश्न मुझे जरूरी तो लगते है.

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  13. बेहतरीन प्रस्‍तु‍ति ।

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  14. राजन
    माँ शब्द केवल जनम देने की प्रक्रिया से जोड़ कर देखा जाता हैं जब की माँ शब्द की मेहता इस से बहुत बड़ी हैं .
    मै नारी सश्क्तिकर्ण की बात करती हूँ और उसमे सबसे पहले ये समझना होगा की हम यानी स्त्री को किसी भी काम को इसलिये नहीं छोड़ना चाहिये की वो हमारा काम नहीं हैं , हम को अपना हर काम बेहतर से बेहतर करना चाहिये और उसके अलावा उन सब कामो को करने की चेष्टा करनी चाहिये जिनको लिंग के आधार पर पुरुषो के लिये माना जाता हैं यानी हम को इतना सशक्त होना होगा की हम चुन सके की हम क्या करना चाहते हैं
    माँ बनना ना तो क़ोई बड़ी बात हैं और ना ही इसके लिये जनम देना ही आवश्यक हैं जो नहीं बनती या नहीं चाहती वो भी कमतर नहीं हैं जो .
    बदलते समय के साथ बहुत कुछ बदलता हैं और जो लोग बदलते समय की आहट को नहीं पहचानते वो अटक कर रह जाते हैं
    चलो इस विषय पर पोस्ट ही लिखती हूँ जल्दी

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  15. स्कूल के बच्चों की जिला स्तरीय वाद-विवाद प्रतियोगिता का विषय है-
    'घर के दैनिक कामकाज में माता-पिता दोनों की भूमिका समान होनी चाहिए'
    आपके मूल्यवान विचारों का पक्ष या विपक्ष में योगदान अपेक्षित है।

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  16. आपकी बातों से सहमत कि विवाह या माँ बनने का चुनाव हर व्यक्ति का अपना अधिकार है । जब आप विवाह कर लेते हैं तो ये अधिकार आप दूसरे व्यक्ति के साथ बांट लेते हैं ये केवल आपका अपना नही रह जाता । पर हमारे पुरुष प्रधान समाज में पुरुष का अधिकार हावी रहता है ।

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  17. @ यानी हम को इतना सशक्त होना होगा की हम चुन सके की हम क्या करना चाहते हैंमाँ बनना ना तो क़ोई बड़ी बात हैं और ना ही इसके लिये जनम देना ही आवश्यक हैं जो नहीं बनती या नहीं चाहती वोभी कमतर नहीं हैं जो .बदलते समय के साथ बहुत कुछ बदलता हैं और जो लोग बदलते समय की आहट को नहीं पहचानतेवो अटक कर रह जाते हैं
    यही...बस यही कहना चाहता था मैं.यदि समाज भी इस बात को समय रहते समझ ले तो कोई प्रश्न ही न रहे.नहीं तो इससे पहले उठने वाले सवालों को नहीं रोका जा सकता.

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  18. विवाह करना स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ये नियति नहीं होनी चाहिए और माँ बनना भी | माँ बनना भावना के साथ ही जिम्मेदारी की बात भी जो नहीं करना चाहता उसे उसकी पूरी छुट मिलने चाहिए जैसा की रचना जी और राजन जी ने कहा की चुनने का अधिकार सभी के पास होना चाहिए चाहे स्त्री हो या पुरुष | इस बात से बिल्कुल सहमत हु की माँ बनना ( पिता बनना भी ) बस जन्म देने से नहीं जुड़ा है आज एकल माँ और पिता जो बच्चे गोद ले कर बने है की संख्या बढ़ रही है | किन्तु आज भी एक विवाहित महिला बिना पति के सहमती से बच्चा गोद नहीं ले सकती है | यदि किसी जोड़े को बच्चा नहीं हो रहा है और पत्नी बच्चा गोद लेना चाहे तो उसके लिए पति की सहमती जरुरी है यदि पति ना कह दे तो वो चाह कर भी कभी माँ नहीं बन पायेगी ऐसा क्यों है ये भी हमारे कानून में एक विसंगति है इसके लिए भी कम किया जाना चाहिए |

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  19. अंशुमाला जी,यदि कानून के नजरिये से देखें तो ये कोई विसंगति नहीं है.ऐसा शायद इसलिए है क्योंकि बच्चे को गोद देने संबंधी नियम कानूनों में हर हाल में बच्चे का हित ही सबसे पहले देखा जाता है.शायद यही कारण है कि विवाहित महिला या पुरुष के माँ या पिता बनने की इच्छा पर आपसी सहमति को वरीयता दी गई है.पुरुष को भी पत्नी की अनुमती जरूरी होती है यदि पत्नी मानसिक रोगी नहीं है.लेकिन यदि सामाजिक नजरिये से देखें तो ये वास्तव में विसंगति ही है.क्योंकि महिलाओं की स्थिति अभी अच्छी नहीं है.कई नालायक पुरूष तो इसीलिए बच्चा लेने से इंकार कर देते होंगे कि ये दूसरे का खून है.यदि कानून बन जाए और इसका भरपूर प्रचार किया जाएँ तो पुरुष पहले ही ये मानकर चलेंगें कि उन्हें मना करने का अधिकार है ही नहीं और इसके लिए वो खुद ही अपने को मानसिक रूप से तैयार कर लेंगे.इसके अलावा तलाक का लंबा मुकदमा लडने वाली या सेपरेशन में रह रही महिला कौ भी पति की अनुमति बगैर बच्चा गोद लेने की अनुमती होनी चाहिये बाकि सारी शर्तें लागू हों.महिला की सामाजिक स्थिति को देखते हुए कुछ कानून उसीके पक्ष में थोडे ज्यादा झुके हुए होने चाहिए लेकिन समय समय पर इनकी समीक्षा होनी चाहिए (अरे वाह मैं तो कानून के जानकारों की तरह बात करने लगा :))
    वैसे मैं अपनी सीमित जानकारी के आधार पर ही कह रहा हूँ.वास्तविक स्थिति अलग हो सकती है.रचना जी या कोई और कुछ बता सकें कि क्या होना चाहिये.

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  20. अंशुमाला
    दत्तक कानून और उत्तरा अधिकार कानून कहीं ना कहीं आपस में जुड़े हैं
    विवाहित स्त्री बिना पति की सहमति के बच्चा नहीं ले सकती हैं क्युकी बहुत सी विवाहित स्त्रियाँ नौकरी नहीं करती यानी अपने बच्चे को आर्थिक सुरक्षा नहीं दे सकती हैं .
    और जिस दिन किसी नौकरी पेशा विवाहित महिला को ऐसा लगेगा की उसको दत्तक बच्चा चाहिये तो वो कोर्ट में गुहार लगा कर अपनी आर्थिक क्षमता को प्रूव करके अपने लिये गुहार लगा कर कानून बदलवा लेगी
    आप को ये भी बता दूँ की अगर सुष्मिता सेन शादी करती हैं तो उनकी लडकिया उस व्यक्ति की तब तक उत्तराधिकारी नहीं बनेगी जब तक वो भी उन्हे कानून गोद नहीं लेता . महज शादी करलेने से सुष्मिता के बच्चे उसके पति के नहीं हो जाते हैं . कुछ दिन पहले मैने दो तीन पोस्ट इन्हीं विषयों पर दी थी जिसमे दिनेश जी जो वकील हें उनकी पोस्ट का उल्लेख भी था .
    और इसी विषय से जुड़ी बात हैं की अबोर्शन के लिए अब पति की सहमति आवश्यक नहीं रह गयी हैं .

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  21. राजन
    मैने सोचा था तुम्हारे सवालो से नयी पोस्ट बना दूँ पर याद आया वो तो पहले ही दे चुकी हूँ
    तुम ये पोस्ट दुबारा पढना http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2011/01/blog-post_08.html
    असली में जिन बातो को तुम कह रहे हो वो सब शायद नारीवाद से जुड़ी हैं जहां आज़ादी का मतलब था वो सब ना करना जो कर रहे हैं . लेकिन सशक्तिकर्ण इस से ऊपर हैं जहां आर्थिक स्वतंत्रता से सशक्त बन कर जो चाहो वो कर सको यानी पहले सशक्त होना जरुरी हैं क्युकी वो आप को सब अधिकार खुद दिला देता हैं क्युकी आप किसी पर निर्भर नहीं होते अपनी लड़ाई के लिये .
    अभी तो विवाहित स्त्री जो खुद कमाती नहीं वो ये निर्णय भी नहीं ले सकती हैं की वो आगर बच्चा ना चाहे तो अपना ओपरेशन करा ले क्युकी उसके लिये भी पैसा चाहिये .

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  22. रचना जी पहले सोचा वहीं कमेंट करूँ पर अब यहीं कर देता हूँ इसे आपकी नई पोस्ट मानकर.
    @जहां आज़ादी का मतलब था वो सब ना करना जो कर रहे हैं .
    रचना जी आपने शायद मेरी बात का गलत मतलब निकाल लिया.मैं यदि ये कह रहा हूँ कि जो महिला बच्चे को जन्म नहीं देती तो ये उसका अधिकार है तब आपको लग रहा है कि मैं हर महिला को ऐसा ही करने को कह रहा हूँ और मान रहा हूँ कि ये ही महिला सशक्तिकरण भी है.नहीं ऐसा मैंने कभी नहीं कहा.और न ही नारीवाद ऐसा कह रहा है.अगर मैं कहता हूँ कि समलैंगिकों के प्रति हमें अपना नजरिया बदलना चाहिये तो क्या इसका मतलब ये है कि मैं बाकि सभी को भी समलैंगिक बना देना चाहता हूँ?रचना जी ये बात उतनी ही गलत है जितनी ये कि राहुल गाँधी अब परिपक्व और समझदार हो गये है.
    महिलाओं से जुडी हुई बातें उठाई जा रही है इसलिए इसे नारीवाद कहा जाता है.नारीवादियों में भी आपस में असहमति हो सकती है.हाँ कुछ गलत लोग भी जुडे हो सकते है.जैसे पश्चिम में कुछ महिलाओं ने नारीवाद के नाम पर ही ये कहना शुरु कर दिया कि महिलाओं को शारीरिक जरुरतों के लिए पुरुषों पर निर्भर रहने के बजाए आपस में ही संबंध बनाने पर जोर देना चाहिये.इस मूर्खतापूर्ण कदम का विरोध आम महिलाओं और नारीवादियों ने मिलकर किया.यदि कोई महिला मातृत्व विवाह के पक्ष में है तो उसे नारीवाद क्यों रोकने लगा.नारीवाद महिला की इच्छा को महत्तव देने की बात करता है.इस पोस्ट में मुक्ति जी की टिप्पणी सबसे अच्छी लगी.आपने कहा पहले महिला सशक्त हो जाए फिर जो चाहे करे.लेकिन महिला सशक्त होगी कैसे.मुक्ति जी ने रिश्तो के महिमामंडन के बारे में बिल्कुल सही कहा है.आज यदि कोई महिला सशक्त हो जाए या होने की कोशिश करे तो वह अच्छी पत्नी या अच्छी बेटी के दायरे से बाहर निकाल दी जाएगी.पत्नी है तो बहुत संभव है उसे इसकी बडी कीमत चुकानी पडे.क्या इस कीमत पर सशक्तिकरण चाहा था उसने जो आप कह रही है कि सशक्त होने के बाद जो चाहे करे.सशक्त महिला पर भी तो समाज के रवैये का असर पडता है.एक महिला जो हर तरह से आत्मनिर्भर है अपनी शर्तों पर जीती है लेकिन शहर कि किसी तंग गली से गुजरने से पहले महिला होने का एहसास हो जाता है तो इसका मतलब है कि वो सशक्त तो है पर समाज की मानसिकता का असर भी उस पर पड रहा है.

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  23. अपडेट
    इस पोस्ट के अंशो से यहाँ पोस्ट बनाई गयी हैं

    "क्या औरत की जिंदगी में विवाह का होना ज़रूरी है?"

    http://mhare-anubhav.blogspot.com/2011/09/blog-post_16.html

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