" जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की " "The Indian Woman Has Arrived " एक कोशिश नारी को "जगाने की " , एक आवाहन कि नारी और नर को समान अधिकार हैं और लिंगभेद / जेंडर के आधार पर किया हुआ अधिकारों का बंटवारा गलत हैं और अब गैर कानूनी और असंवैधानिक भी . बंटवारा केवल क्षमता आधारित सही होता है
हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।
15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं
15th august 2012
१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं
"नारी" ब्लॉग
" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "
June 29, 2011
ये नारी ब्लॉग पर मेरी अंतिम पोस्ट हैं
हिंदी ब्लॉग जगत में ५ साल रहने के बाद अब नारी ब्लॉग से विदा लेने का वक्त आगया हैं
नारी ब्लॉग पर ये मेरी आखिरी पोस्ट हैं
नारी ब्लॉग को मै बंद नहीं कर रही हूँ वो सदस्यों और पाठको के लिये खुला रहेगा ।
सदस्यों में से कोई भी अगर सूत्रधार बन कर इसको अपने हिसाब से चलाना चाहे तो वो संपर्क कर सकती हैं
मै अपने काम से खुश हूँ क्युकी मेरा समय यहाँ बहुत सार्थक और अच्छा बिता ।
इस ब्लॉग पर और ना लिखने का मन बन चुका हैं । बिना बताये जाना नहीं चाहती थी सो ये पोस्ट दे कर सूचित कर रही हूँ । जाने का कारण महज इतना हैं की जाने के लिये ये समय सबसे उपयुक्त हैं । जाना तब ही चाहिये जब समय अनुकूल हो और मन में ये शांति जो हम करने आये थे वो हमने किया ।
सादर
रचना
June 28, 2011
दूसरों की खातिर शहीद होने की राह पर : शर्मीला इरोम
बाबा रामदेव का अनशन ख़त्म करवाने के लिए क्या क्या उपाय और तिकड़म लगाए गए...इस से सब वाकिफ हैं. वहीँ साधू निगमानंद ने ११५ दिनों के अनशन के बाद दम तोड़ दिया....और किसी को सुध नहीं आई. अब उनकी मौत के पीछे एक साज़िश थी....इस तरह की खबरे आ रही हैं.पर किसी स्वार्थवश सरकार की उदासीनता भी एक वजह तो थी ही.
पर एक और महिला पिछले ग्यारह साल से अनशन पर हैं....और आम जनता को खबर तक नहीं है. शर्मीला इरोम, भारतीय सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम 1958 को हटाये की मांग को लेकर 11 सालों
से भूख हड़ताल बैठी हैं.11 सितम्बर, 1958 को भारतीय संसद ने सशस्त्र सेना विशेषाधिकार क़ानून [आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (ए.एफ.एस.पी.ए)] पारित किया . शुरू में इसे 'सात बहनों' के नाम से विख्यात पूर्वोत्तर के सात राज्यों असम, मणिपुर, अरुणांचल प्रदेश, मेघालय, नागालैंड, मिजोरम और त्रिपुरा में लागू किया गया . 1990 में इसे जम्मू कश्मीर में भी लागू कर दिया गया. बेकाबू आतंरिक सुरक्षा स्थिति को नियंत्रित करने केलिए सरकार द्वारा सेना को यह विशेषाधिकार दिया गया.
इम्फाल से 10 किलोमीटर मालोम (मणिपुर) गाँव के बस स्टॉप पर बस के इंतज़ार में खड़े 10 निहत्थे नागरिकों को उग्रवादी होने के संदेह पर गोलियों से निर्ममतापूर्वक मार दिया गया. मणिपुर के एक दैनिक अखबार 'हुयेल लानपाऊ' की स्तंभकार और गांधीवादी 35 वर्षीय इरोम शर्मिला 2 नवम्बर 2000 को इस क्रूर और अमानवीय क़ानून के विरोध में सत्याग्रह और आमरण अनशन पर अकेले बैठ गई. 6 नवम्बर 2000 को उन्हें 'आत्महत्या के प्रयास' के जुर्म में आई.पी.सी. की धारा 309 के तहत गिरफ़्तार किया गया और 20 नवम्बर 2000 को जबरन उनकी नाक में तरल पदार्थ डालने की कष्टदायक नली डाली गई. पिछले 11 साल से उनका सत्याग्रह जारी है. शर्मीला का कहना है कि जब तक भारत सरकार सेना के इस विशेषाधिकार क़ानून को पूर्णतः हटा नहीं लेती तबतक उनकी भूख़ हड़ताल जारी रहेगी.
शर्मिला के समर्थन में कई महिला अधिकार संगठनों ने इम्फाल के जे. एन. अस्पताल के बाहर क्रमिक भूख़ हड़ताल शुरू कर दी है, यानी कि समूह बनाकर प्रतिदिन भूख़ हड़ताल करना. शर्मिला के समर्थन में मणिपुर स्टेट कमीशन फॉर वूमेन, नेशनल कैम्पेन फॉर पीपुल्स राइट टू इंफॉरमेशन, नेशनल कैम्पेन फॉर दलित ह्यूमन राइट्स, एकता पीपुल्स यूनियन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स, ऑल इंडिया स्टुडेंट्स एसोसिएशन, फोरम फॉर डेमोक्रेटिक इनिसिएटिव्स, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी आदि शामिल हैं...विदेशों से भी कई संगठन उनका समर्थन कर रहे हैं...पर अपने देश के सरकार के कान पर जून नहीं रेंगती.
उनकी मांग सही है या नहीं.......वे पूरी की जा सकती हैं या नहीं....ये एक अलग विषय है. पर शर्मीला को अपना अनशन तोड़ने के लिए तैयार तो किया जा सकता है...क्या उनकी जान की कोई कीमत नहीं है? उन्हें भी जीने को एक ही जिंदगी मिली है. पिछले ग्यारह साल से उन्होंने मुहँ में कुछ नही डाला...किसी चीज़ का स्वाद नहीं जाना....ये सब उनके मौलिक अधिकार का हनन है..सरकार की जिम्मेवारी नहीं कि वो अपने एक नागरिक के मूलभूत अधिकारों की रक्षा करे??
बाबा रामदेव के स्वास्थ्य की पल-पल खबर मिडिया में प्रसारित हो रही थी. उनके स्वास्थ्य बुलेटिन जारी किए जा रहे थे. सिर्फ नौ दिन के उपवास में उनके अंग-प्रत्यंगों पर होने वाले दुष्प्रभावों की चर्चा की जा रही थी. १० साल के उपवास से ,शर्मीला के लीवर-किडनी-ह्रदय पर क्या असर हुआ है...इस से किसी को सरोकार नहीं. इसलिए कि वो एक आम इंसान हैं?? यानि कि किसी आम इंसान को अपनी आवाज़ उठाने का कोई हक़ नहीं??
जबतक हज़ारों-लाखों की तादाद में उनके समर्थक ना हों...किसी को अपनी बात कहने का हक़ नहीं...और अगर किसी ने कहने की कोशिश की भी तो उसका कोई असर किसी पर नहीं पड़ेगा. उसका सारा प्रयास व्यर्थ जाएगा... चाहे वो अपनी जान भी क्यूँ ना दे दे. और हमें गर्व है कि हम एक जनतांत्रिक देश में रहते हैं...जहाँ का शासन जनता के लिए और जनता के द्वारा है.
शर्मीला के अनशन को बिलकुल ही नज़रंदाज़ किया जा रहा है...क्या इसलिए कि वे जिन मुद्दों के लिए लड़ रही हैं..उस से हमें कोई फर्क नहीं पड़ता. अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जिन मुद्दों को लेकर आन्दोलन कर रहे हैं...उस से कहीं ना कहीं हमें भी लाभ होनेवाला है. इसीलिए हम भी उनका साथ दे रहे हैं....इसका अर्थ है..इतने स्वार्थी हैं हम.
मणिपुर के वासियों की भाषा-रीती-रिवाज-रहन-सहन हमसे अलग हैं...पर है , तो वो हमारे ही देश का एक अंग. वहाँ, भी उसी उत्साह से स्वतंत्रता दिवस..गणतंत्र दिवस मनाये जाते हैं...राष्ट्रगीत गाया जाता है. क्रिकेट विश्व-कप जीतने पर खुशियाँ मनाई जाती हैं...हिंदी फिल्मे देखी जाती हैं. फिर वहां की समस्याओं से...हमारी ही एक बहन के इस आमरण अनशन से हम यूँ निरपेक्ष कैसे रह सकते हैं??
वहाँ के मुख्यमंत्री...अन्य मंत्रीगण..सांसद क्यूँ नहीं प्रयास करते कि समझौते की कोई राह निकले...और शर्मीला अपना अनशन ख़त्म करे. शायद केंद्र सरकार पर वहाँ की उथल-पुथल से कोई दबाव नहीं पड़ता. इसलिए भी सरकार यूँ उदासीन है.
और मिडिया को भी शायद ये अहसास है कि शर्मीला इरोम के आन्दोलन को प्रमुखता देकर वह सरकार पर कोई दबाव नहीं बना सकती ,इसीलिए वो भी चुप है.
यानि एक और निगमानंद ..अपने लोगो के हक़ के लिए लड़ते हुए शहीद हो जाने की राह पर हैं...और हम सब चुपचाप, उसका यूँ पल-पल मौत के मुहँ में जाना देखते रहेंगे.
( इस पोस्ट को कुछ दिनों पहले मैने अपने ब्लॉग पर पोस्ट किया था.... )
June 27, 2011
slut वाल्क एक मार्च हैं इस सोच के खिलाफ की स्त्री अगर सर से पाँव तक ढकी नहीं रहती तो वो slut हैं ।
समाचार था की टोरंटो कनाडा में एक पुलिस अधिकारी ने कहा था महिला को अगर सुरक्षित रहना हैं तो slut की तरह कपडे ना पहना करे । इस पर वहां की महिला ने आपत्ति दर्ज कराने के लिये वाल्क यानी मार्च किया जिसमे उन्होने हर तरीका कपड़ा पहना और कुछ बहुत ही कम कपड़ो में भी रही ।
इस के बाद ये मार्च / वाल्क कई और देशो में भी हुई और अब शायद ये दिल्ली में भी होगी ।
मीडिया ने इस पर लिखना शुरू कर दिया हैं क्युकी इंडिया में ऐसी वाल्क की कल्पना मात्र ही क्रांति हैं ।
मुद्दा क्या हैं इस slut वाल्क का । महज इतना की महिला कुछ पहने या ना पहने वो समाज में केवल इस लिये असुरक्षित हैं क्युकी वो महिला का शरीर ले कर पैदा हुई हैं ।
टोरंटो में या कहीं भी किसी भी देश में महिला कुछ भी पहने या न पहने , पुरुष की गन्दी दृष्टि और हरकतों ने उसका जीना मुश्किल कर दिया हैं । बड़े बड़े लोग !!!!! होटल के कमरे में नगन हो कर रहते हैं और रूम क्लीनर से बलात्कार की कोशिश करते । क्युकी बड़े हैं इस लिये उम्मीद करते हैं की रूम क्लीनर उनके इस कृत्य से गद गद हो जायेगी नहीं होती तो कहते हैं वो slut की तरह कपड़े पहन कर उनको लुभा रही थी ।
slut यानी एक ऐसी स्त्री जिसके अनेक पुरुषो से यौनिक सम्बन्ध हैं । एक तरफ आप के कानून कहते हैं की पत्नी से उसकी मर्जी के बिना स्थापित यौन सम्बन्ध भी बलात्कार हैं और वेश्या से भी सम्बन्ध उसकी मर्जी के बिना बनाना बलात्कार हैं, वही आप चाहते हैं की औरते सर से पाँव तक ढकी रहे ।
slut वाल्क एक मार्च हैं इस सोच के खिलाफ की स्त्री अगर सर से पाँव तक ढकी नहीं रहती तो वो slut हैं ।
अब इस मार्च / वाल्क को करने वाली लडकियां अपने मकसद को पाने के लिये किस तरह इस का आयोजन करती हैं ये देखना होगा ।
इस मार्च के विरोध में जितने हैं वो सब इस मार्च का मकसद समझे , लडकियां शरीर दिखाने या कम कपड़े पहने की मांग नहीं कर रही हैं । लडकियां एक सुरक्षित समाज की मांग कर रही हैं जहां वो जैसे सही और उचित लगे रह सके ।
संविधान और कानून हर देश में हैं और स्त्री - पुरुष के अधिकार हर देश के संविधान और कानून में { कुछ इस्लामिक देश छोड़ दे } बराबर हैं फिर अपने अधिकारों की लड़ाई इस सदी में भी नारियों को लड़नी पड़ रही हैं कभी इस विषय पर बात क्यूँ नहीं होती । क्यूँ हमेशा लड़कियों के सामायिक विद्रोह को { इस से पहले पिंक चड्ढी कैम्पेन के समय} उनकी असभ्यता समझी जाती हैं ।
हमारे अधिकारों का हनन होता हैं , हमे दोयम का दर्जा दिया जाता हैं , हमे slut वेश्या , नारीवादी , फेमिनिस्ट , प्रगतिशील इत्यादि तन्चो से नवाजा जाता हैं और अगर हम उसके विरोध में कुछ करते हैं तो भी हमे ही ये समझया जाता हैं विरोध कैसे करो ।
समस्या हमारी हैं क्युकी समाज आज भी हमको दोयम मानता हैं , तो विरोध भी हम ही करेगे और जैसे मन होगा वैसे करेगे । जितना जितना समाज हमको दबायेगा उतना उतना विरोध का स्वर मुखर होगा और हर विद्रोह का स्वर अगर संविधान और न्याय प्रणाली के भीतर हैं तो फिर उस पर आपत्ति करना व्यर्थ हैं
इस से पहले की ब्लॉग जगत में पोस्ट आनी शुरू हो और लड़कियों को असंस्कारी की उपाधि दी जाए मै अपने कर्त्तव्य की इती करते हुए इस वाल्क का मकसद आप के सामने रख रही हूँ सोच कर आपत्ति करे इस वाल्क पर । विरोध में साथ नहीं देना चाहते ना दे पर विरोध का विरोध बिना मकसद जाने और समझे ना करे
चलते चलते
अगर ये सब लडकियां जो slut वाल्क में जा कर विरोध कर रही हैं किसी बड़े मैदान में इकट्ठी होकर योग कर करके लेकिन उसी तरह जैसे बाबा लोग करते हैं यानी केवल एक वस्त्र में जहां शरीर का हर अंग दिखता हैं अपना विरोध करे और साथ में अनशन भी तो क्या भारतीये संस्कृति बच सकती हैं ।
बताये ताकि slut वाल्क के आयोजक जो अभी निर्णय नहीं ले पाए हैं की भारत में इसको किस प्रकार से किया जा सकता हैं कुछ सोच सके
June 25, 2011
June 24, 2011
देश में बुजुर्ग की स्थिति पर आज कल ब्लॉग जगत में मंत्रणा चल रही हैं
साल १९८८
गौरी की शादी होती हैं । गौरी एक सुंदर लड़की हैं पढ़ी लिखी हैं, विवाह सामाजिक रीति रिवाजो के साथ होता हैं । महेश का अपना छोटा कारोबार हैं । महेश के पिता का छोटा से DDA का फ्लैट हैं । दो बराबर के भाई भी हैं । माता पिता और ३ भाई के इस परिवार में गौरी बहु बन कर आती हैं ।
साल १९८९
गौरी और सास में तनातनी रहती हैं । जिस घर में विवाह से पहले नौकरानी थी वहाँ गौरी के आते ही नौकरानी हटा दी जाती हैं पता चलता हैं केवल विवाह तय होने तक ही नौकरानी रखी गयी थी । सास चाहती हैं बहु अपने सब फ़र्ज़ निभाये यानी झाड़ू , पोछा , बर्तन , और ५ लोगो का खाना पकाना । सास चाहती हैं बहु सुबह ५ बजे उठे , पति , दोनों देवर और ससुर के जाने के बाद १० बजे नाश्ता करे । गौरी ने अपने घर में इतना काम कभी नहीं किया था । उसकी माँ -पिता दोनों नौकरी करते थे और घर में हमेशा नौकर रहता था काम के लिये । बर्तन , झाड़ू पोछा तो उसने कभी सोचा भी नहीं था कि रोज करना होगा । लिहाजा सास बहु में तनाव कि स्थिति हो गयी ।
साल १९९०
होली के दिन किसी बात पर सास ने गौरी पर हाथ उठाया । गौरी ने हाथ वहीँ पकड लिया और मोड़ दिया । घर में सास , ससुर पति और एक देवर था । सास ने तुरत गौरी के घर फ़ोन लगाया और लड़की के पिता को तलब किया ।
माता पिता तुरंत पहुचे । पिता ने जब किस्सा सुना तो वो आग बबूला होगये और उन्होने सास को कहा कि हमने अपनी लड़की पिटने और नौकरानी बनने का लिये यहाँ नहीं भेजी थी । इस पर ससुर बोले अब औरतो कि बातो में क्या बोलना लेकिन गौरी को माफ़ी मांग लेनी चाहिये क्युकी गौरी बहु हैं । गौरी ने माफ़ी नहीं मांगी क्युकी हाथ सास ने उठाया था ।
गौरी ने कहा सास ने उसका जीना मुश्किल कर रखा हैं । सास उस से उम्मीद करती हैं कि वो घर कि नौकरानी कि तरह काम करे । सास नहीं चाहती वो घर में ससुर या देवर से बात करे क्युकी वो एक परायी स्त्री हैं और उसको इस घर में अधिकार नहीं हैं ।
गौरी के पिता के ये कहने पर कि मेरी लड़की भाग कर आप के घर नहीं आयी हैं , मैने उसका विवाह किया हैं और इस घर पर उसका भी अधिकार हैं ससुर बोले कि इस घर में अगर उसको रहना हैं तो हमारी तरह रहना होगा । वरना अपने पति के साथ अलग हो जाये । पति कि आय उतनी नहीं थी कि अलग रहा जा सके । ससुर का कहना था ये मेरा घर हैं और आप कि लड़की को हमारे हिसाब से ही रेहना होगा । मेरी पत्नी { गौरी कि सास } का मेनोपौस चल रहा हैं सो वो चिड चिड करती हैं । लेकिन मैने कहूँ तो मेरे जूते भी पोलिश करती हैं ।
साल १९९३
गौरी के पिता ने गौरी को एक फ्लैट खरीद कर दे दिया और गौरी अपने पति के साथ वहाँ आगयी । जिस समय गौरी का सामान ससुराल से टेम्पो में रखा जा रहा था सास ने गैस का सिलिंडर वापस रखवा दिया और कहा ये तुम्हारा नहीं मेरा हैं । इस पर एक पड़ोसन ने कहा माता जी बहु को भेज रही हैं या अलग कर रही हैं । वो खाना कैसे बनायेगी ।
नए घर में गौरी के पास ना टी वी था ना फ्रिज ना सोफा क्युकी जब शादी हुई थी गौरी के ससुर ने गौरी के पिता से कहा था कि ये सब मत दे , क्युकी ये सब दे कर लड़की वाले लड़की को अलग रहने कि बात करते हैं ।
गौरी कि माँ पिता के लिए अब और समान देना संभव नहीं था क्युकी शादी के निमित जो २.५ लाख रुपया था उसको वो लें दाएं जेवर इत्यादि पर खर्च कर चुके थे । अगर उस समय वो सामान वो दे देते तो आज उनकी बेटी इस तरह परेशान ना होती
साल १९९४
गौरी ने एक स्वस्थ कन्या को जनम दिया पर गौरी अपनी ससुराल नहीं गयी ।
गौरी के पिता का निधन हो जाता हैं ।
समय के साथ गौरी की माँ के समझाने पर गौरी ने तीज त्यौहार पर ससुराल जाना शुरू किया पर सास और ससुर और देवर से उसके संबंधो में कोई सुधार नहीं हुआ ।
गौरी के मायके और गौरी कि ससुराल में आना जाना रहता हैं । तीज त्यौहार मायके से ससुराल मिठाई और नेग जाता रहता हैं लेकिन इस के बावजूद हर समय गौरी के ससुराल वाले गौरी कि बुरायी करते हैं उसकी माँ के सामने
ससुराल वाले हमेशा उसके हर काम में बुराई खोज लेते थे । छोटे देवर ने तो यहाँ तक कहा कि वो जब शादी करेगा तो उसकी बीवी सब काम भी करेगी और नौकरी भी । आज तक उस देवर को ऐसी लड़की नहीं मिली जो दहेज़ भी लाये , नौकरी भी करे और घर में नौकरानी कि तरह सब काम भी करे ।
साल २०१०
दोनों देवर विदेश में बस गए । सास कि आँखों कि रौशनी चली गयी , गौरी का पति अपने घर आता जाता रहता हैं । गौरी निर्लिप्त हैं । सास को कपड़े बदलने से ले कर हर काम के लिये कोई चाहिये पर कोई नहीं हैं क्युकी उनके स्वाभाव के चलते कोई नहीं रहना चाहता हैं ।
साल २०११
गौरी कि सास का निधन हो जाता हैं । गौरी अपने पति कि बात मान कर हिन्दू कर्म काण्ड के हिसाब से ३ दिन ससुराल में रह कर अपने घर वापस जाती हैं । गौरी कि माँ गौरी के ससुर से हाथ जोड़ कर कहती हैं कि १३ वी के बाद एक दिन वो सपरिवार गौरी के मायके आये
ससुर का जवाब होता हैं उनका परिवार और महेश - गौरी का परिवार एक नहीं हैं ।
आज गौरी के ससुर तीन बेटो के होते हुए भी वृद्ध आश्रम जा कर रहना चाहते हैं क्युकी उनके पास इतना पैसा हैं कि वो वहाँ रह सके । ये बात जब उन्होने गौरी और महेश से कही तो गौरी कुछ नहीं बोली हां महेश ने इतना ही कहा देख लीजिये जैसा आप को ठीक लगे
आज गौरी के ससुर ८० साल के अशक्त हैं और क्युकी अकेले हैं इस लिये झाड़ू पोछा लगाने वालियां भी काम नहीं पकड़ना चाहती हैं और गौरी ये मानती हैं कि काम वाली उनको रखनी ही क्यूँ चाहिये ।
आप को क्या लगता हैं इस सच्ची घटना में बुजुर्ग कि कोई गलती नहीं हैं सारी गलती गौरी कि हैं
June 23, 2011
आरक्षण में महिलाओं की स्थिति जस की तस
संयुक्त परिवार में बुजुर्ग महिलाओं की स्थिति ...
भरा पूरा संयुक्त परिवार है ...बहू तीन छोटे बच्चों को घर छोड़ कर सुबह कार चलाना सीखने और दोपहर में फैशन डिजायनिंग का कोर्स सीखने जाती है ...कार चलाना सीखना तो फिर भी महीने भर का कार्यक्रम ही है , मगर फैशन डिजायनिंग कोर्स पूरा एक साल चलने वाला है ...बहू टैलेंटेड है , सिलाई , चित्रकला में प्रवीण ...वह कुछ और नया सीखे और आत्मनिर्भर होने की ओर कदम बढ़ाये , अच्छा ही है ...अब चूँकि घर में सिर्फ दो ही महिलाएं हैं , पुरुष सदस्यों को घरेलू काम काज में दिलचस्पी नहीं है या फिर उनकी कंडिशनिंग इस तरह की गयी हैं कि वे इन कार्यों को करना अपनी हेठी समझते हैं ...ऐसे में घर में एकमात्र बची बुजुर्ग विधवा माँ के पास घर को सँभालने के सिवा कोई चारा नहीं है ....उनकी परेशानी की बात की गयी तो बहू अपने बच्चों के लिए खाना अलग पकाने लगी ...मगर बाकी बचे सदस्यों, अतिथियों की जिम्मेदारी , बुजुर्ग महिला पर ही है ...
दृश्य दो ...
यहाँ भी संयुक्त परिवार है मगर सिर्फ एक बेटा -बहू, अपने दो छोटे बच्चों के साथ रहते हैं ... इस पुत्र का विवाह बहुत बड़ी उम्र में हुआ ...उसके विवाह नहीं होने तक तीनों का सुखी परिवार चल रहा था , मगर अब जब वह भी विवाहित और दो बच्चों का पिता है , गृहक्लेश से स्थिति तनावपूर्ण बनी रहती है ...कारण कि पुत्रवधू सरकारी शिक्षक की नौकरी प्राप्त करने के प्रयास में पढने -लिखने में भी समय देती है , बात यहाँ भी वही कि उनके बाल गोपाल ,रसोई और अतिथियों का सत्कार उक्त वृद्ध महिला की जिम्मेदारी ही है , यहाँ थोड़ी कंडीशन अलग है कि पुरुष सदस्यों को घर के काम काज से परहेज नहीं है...
दोनों दृश्यों में जो कॉमन है वह है, नारी की अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता , आर्थिक मोर्चे पर भी पति के कदम से कदम मिला कर चलना..जाहिर है कि इस स्थिति में घर की जिम्मेदारी प्रत्येक सदस्य को समान रूप से उठानी पड़ेगी ...मगर चूँकि ये बुजुर्ग महिलाएं आजीवन अपना कर्तव्य ही निभाती रही हैं , अधिकारों को लेकर उन्होंने कभी सोचा ही नहीं , इन परिस्थितियों में वे न सिर्फ खुद को उपेक्षित महसूस करती हैं, अपितु उनकी उम्र के मद्देनजर गृहस्थी का भार भी उनपर अधिक होता है ...कमोबेश मध्यमवर्गीय परिवारों में बुजुर्ग महिलाओं की दशा आर्थिक और सामाजिक स्तर दोनों ही दिशा से दयनीय है ...
आधी आबादी की क्षमता , प्रतिभा और कार्यशक्ति देश और समाज के उत्थान में प्रयोग करना ही होगा , इसमें कोई दो राय नहीं ...ये उच्च शिक्षित अथवा आत्मनिर्भर होने की मंशा रखती महिलाएं यदि दबाव में सिर्फ घर तक सीमित रही तो उनके कुंठित होकर मानसिक बिमारियों का शिकार होने की सम्भावना भी बनती है ...मध्यम आय वर्ग के लिए बुजुर्ग व्यक्तियों की देखभाल के लिए अलग से सेवक की नियुक्ति करना आर्थिक भार ही साबित होगा ...
पिछले दिनों ऐसे कई परिवारों में बुजुर्गों की दुर्दशा देखने के बाद ओल्ड एज होम की सार्थकता पर मेरे विचारों में बदलाव आया है ...पहले मुझे यह शब्द गाली- सा लगता था , मगर अब मैं सोचती हूँ कि यदि घर में रहकर बेगानों सा रहना पड़े तो , ओल्ड एज होम एक अच्छा माध्यम है जहाँ अपने हमउम्र लोगो के साथ सुख दुःख बाँट कर मन हल्का कर सकते हैं , अपनी मर्जी और सुविधा से रह सकते हैं ...
ओल्ड एज होम से बेहतर विकल्प मुझे डे -केअर सेंटर लगता है , जहाँ बुजुर्ग और बच्चे दोनों अपना क्वालिटी समय साथ बिता सकते हों , बच्चे बुजुर्गों की आँखों के सामने भी हो और उन पर अतिरिक्त जिम्मेदारी भी ना हो ...पुरुष , महिलाएं और बच्चे भी इन सेंटर्स में अपना फ्री समय देकर इन सेंटर्स के माहौल को खुशनुमा और आरामदायक बना सकते हैं ... सरकार और सामाजिक संस्थाओं को इस दिशा में प्रयास करने चाहिए ...अधिक से अधिक सुविधायुक्त डे केयर सेंटर की स्थापना इस सामाजिक समस्या के हल की ओर एक बेहतर कदम है ...
नई पीढ़ी की अपनी जिम्मेदारियों से भागने की बात अथवा पुराने समय को बेहतर बता कर उसका गुणगान करते रह कर हम इस समस्या से भाग नहीं सकते ... हमें इस पर विचार करना होगा कि ऐसे में घर के बच्चों और बुजुर्ग सदस्यों की देखभाल किस तरह की जाए कि वे स्वयं को उपेक्षित ना समझे , यही इस पोस्ट का उद्देश्य है ...इस पर बहस और कार्य किया जाना अपेक्षित है...
आपकी राय और प्रतिक्रिया का इंतज़ार है !!
June 22, 2011
एक जानकारी चाहिये
क्या केट का इम्तिहान १२ वी के छात्र भी दे सकते हैं । अगर हां तो बताये किस जगह से ये जानकारी मिलेगी
आभार होगा
June 21, 2011
अगर उत्तराधिकार लड़की का मायके की संपत्ति पर होता हैं तो लड़की की आय पर पहला अधिकार माता पिता की ही क्यों नहीं होता ???
एक प्रश्न उत्तर की प्रतीक्षा में
क्या विवाहित , नौकरी करती , महिला को अपनी सैलरी अपने माता पिता को देनी चाहिये ?
जो जवाब आये थे
13 comments:
- वन्दना said...
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एक विवाहित नौकरी करती महिला को अपनी सैलरी अपने माता पिता को देने मे हर्ज़ ही क्या है?
कम से कम तब तो बिल्कुल नही जब उसके माता पिता को उसके पैसो की जरूरत हो । यदि माता पिता सम्पन्न है तो कोई जरूरत नही है या वो लडकी जहाँ उसकी शादी हुई है वहां कि स्थिति इस लायक नही है कि उसकी सैलरी के बिना गुजारा हो सकता हो तब तो उसे पहले अपने परिवार को देखना होगा मगर दोनो तरफ़ ही आर्थिक दृष्टि से कमजोरी हो तो उसे सामंजस्य बैठाना पडेगा क्योंकि दोनो तरफ़ ही उसे ध्यान देना होगा ………ये सब निर्णय परिस्थितियो पर निर्भर करते हैं। - June 20, 2011 12:30 PM
- Neeraj Rohilla said...
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महिला को अपनी सैलरी किसी को भी नहीं देनी चाहिये। विवाहित अथवा अविवाहित, दोनो स्थितियों में उसकी सैलरी केवल उसकी है। इस पर किसी और का अधिकार नहीं। ये अलग बात है कि महिला अपनी सैलरी का प्रयोग एक अथवा अनेक स्थानों पर कर सकती है, जो अक्सर वो करती भी है।
विवाहित होने की स्थिति में उसके स्वयं के परिवार के खर्च में हाथ बंटाने के साथ साथ यदि वो अपने मातापिता की भी आर्थिक रूप से सहायता करना चाहती है तो इसमें कुछ गलत नहीं है। भारतीय परिवार और समाज सरंचना के हिसाब से यदि माता पिता आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर हों तो वे स्वयं ही ऐसी सहायता लेने से इंकार कर देंगें। लेकिन अगर महिला को महसूस होता है कि घर की स्थिति को देखते हुये उनकी सहायता करने उसका दायित्व बनता है तो ऐसे में उसको अपने जीवनसाथी से खुलकर बात करते हुये स्वयं निर्णय लेना चाहिये।
मेरी समझ में यही बात पुरूष पर भी लागू होती है। वैवाहिक सम्बन्ध में रूपये पैसे पर भी आपस में बात होनी चाहिये और इससे सम्बन्धित महत्वपूर्ण निर्णयों में दोनो की भूमिका होनी चाहिये। - June 20, 2011 12:38 PM
- blogjamvda said...
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hum sahmat hai bandna ji ki baat se yaha bhi aaye aur apni raay hame de aap aaye aur hame apni baat se anugrhit kare
- June 20, 2011 1:16 PM
- शालिनी कौशिक said...
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yes agar uske maa-baap ko iski aavshyakta hai beti ka farz kahin bhi bete se kam nahi aur yadi maa-baap ki sthiti sahi hai to bharat me to ve beti kee kamai kabhi bhi nahi lena chahte.
- June 20, 2011 1:44 PM
- अन्तर सोहिल said...
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ये तो व्यक्तिगत निर्णय है।
अगर पुत्री चाहे तो अपने माता-पिता की आर्थिक मदद करने में हर्ज ही क्या है। जबकि आज पुत्र अपने कर्त्तव्य नहीं निभा रहे हैं।
हाँ, हमारे समाज में(कानून में भी शायद) असमर्थ माँ-पिता के भरण-पोषण की जिम्मेदारी पुत्र की होती है।
प्रणाम - June 20, 2011 4:55 PM
- अन्तर सोहिल said...
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जब एक पुरुष अपनी आय पत्नी से पूछकर खर्च नहीं करता है तो महिला की भी मर्जी है कि वह अपनी सेलरी जहां मर्जी खर्च करे।
प्रणाम - June 20, 2011 4:56 PM
- संगीता पुरी said...
-
नियम हमेशा लचीले होने चाहिए .. परिस्थितियों पर बहुत कुछ निर्भर करता है !!
- June 20, 2011 5:04 PM
- indianhomemaker said...
-
I agree with Neeraj Rohilla. और यह बात पुरूष पर भी लागू होती है।
- June 20, 2011 5:12 PM
- राजन said...
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नीरज जी से सहमत.बहुत कुछ परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है.
- June 20, 2011 5:49 PM
- निर्मला कपिला said...
-
रचना न्जी आप वो सवाल पूछ रही हैं जिस की लोगों ने अभी कल्पना भी नही की होगी । मैं बेटियों की माँ हूँ और सच कहती हूँ कि कभी कभी लगता है कि सब कुछ हमने बच्चों पर खर्च कर दिया बेटियाँ बडे बडे पदों पर काम कर रही हैं फिर भी दिन त्यौहार पर खर्च करना ही पडता है शायद अभी पढ लिख कर भी बेटिओं की सोच अगर कुछ बदली भी है तो ससुराल के लोग क्या कहेंगे इस डर से माँ बाप को देना तो दूर लेने से भी परहेज नही करती। शायद शुरू से हमे भी जो संस्कार मिले हैं कि बेटी से लेना नही उसकी वजह से भी अभी सोच बदली नही है
सीधा जवाब ये है कि अगर माँ बाप को जरूरत है तो उन्हें जरूर देना चाहिये बिना माँगे। आखिर उन पर भी उतना ही खर्च किया माँ बाप ने जितना बेटे पर। आप ये बात करती हैं मैने कितनी ही लडकियाँ देखी हैं जिन्हें माँ बाप को देना तो दूर अपने पास भी अपनी पगार नही रख सकती वो भी पति या सासू माँ को देनी होती है। खैर हर घर की अपनी अपनी सोच है। मुझे नीरज रोहिला जी की बात सही लगी । धन्यवाद। - June 20, 2011 6:26 PM
- Sonal Rastogi said...
-
क्या होना चाहिए ..और क्या होता है इसमें ज़मीन आसमान का अंतर है ...यहाँ माँ -बाप बेटी के घर का पानी आज भी नहीं पीते...वहां जिद करके मौको पर गिफ्ट देना भी उन्हें रास नहीं आता किसी ना किसी तरह सारे पैसे ..तीज- त्यौहार गिनाकर वापस कर देते है ...
- June 20, 2011 9:01 PM
- anshumala said...
-
नीरज जी ने सही बात कही है उनसे सहमत हूँ किन्तु इसके लिए पुरे समाज कि मानसिकता में बदलाव लाना होगा न केवल लड़की के घर पानी न पिने वाले माता पिता का बल्कि माँ बाप बेटो कि ही जिमेदारी होते है और मेराअसली घर तो केवल मेरा ससुराल ही है जैसी सोच वाली बेटियों का भी |
- June 20, 2011 10:24 PM
- जाट देवता (संदीप पवाँर) said...
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जरुरत पडने पर क्या परेशानी हो सकती है।
अब सवाल ये हैं की अगर उत्तराधिकार लड़की का मायके की संपत्ति पर होता हैं तो लड़की की आय पर पहला अधिकार माता पिता की ही क्यों नहीं होता ???
बहुत सी नौकरियों में आय के साथ मिलने वाले perk { सहूलियतो } पर महिला कर्मचारी के माता पिता का ही अधिकार होता हैं । एयर इंडिया में कर्मचारी के माता पिता को फ्री सीट दी जाती हैं साल में एक बार { ओहदे के हिसाब से } अब अगर महिला कर्मचारी विवाहित हैं तो भी ये अधिकार उसके माता पिता का ही हैं ।
इसके अलावा कानून ने अब प्रावधान भी निकाल दिया हैं की बेटा या बेटी दोनों को अपने माता पिता के बुढ़ापे में उनको धन देना होगा उनकी जरूरतों के लिये । यानी माता पिता क़ानूनी रूप से अपने पुत्र या पुत्री से अपने रख रखाव के लिये धन मांग सकते हैं ।
१५ जून को World Elder Abuse Awareness Day मनाया गया था । ना जाने कितने वृद्ध माता पिता आर्थिक रूप से परेशान हैं । आप उनमे से किसी एक को भी जानते हो और अगर उनके बच्चे आर्थिक साहयता नहीं दे रहे हैं तो कम से कम उन माता पिता को उनके क़ानूनी अधिकारों से अवगत करा दे । कई बार सामाजिक दबाव के चलते लोग लड़कियों को आज भी पराया धन समझते हैं उनको समझाए की वो अपनी लड़की से पैसा साधिकार ले ।
हर बेटी का कर्तव्य हैं की वो अपने माता पिता को अपनी तनखा का एक हिस्सा अवश्य दे । माता पिता को लेना सीखाये । और ये तब ही संभव हैं जब आप विवाह से पहले अगर आप नौकरी करती हैं तो अपने माता पिता को घर खर्च का पैसा दे । इस से आप को देना आएगा और उनको आप से लेना ।
अधिकार कभी एक तरफ़ा नहीं होते , बदलाव की बयार बने सब लडकियां
केवल जरुरत के लिये ना दे , कर्तव्य समझ कर दे क्युकी आप उनकी उतराधिकारी हैं और उत्तराधिकारी का मतलब केवल लेना और मिलना नहीं होता
learn to give , make your parents accept , once you start it will become a norm and habit
and belive me it gives every parent a happiness to know that their child is capable of taking care of them financially . then they will not feel insecured that they gave birth to a girl rather they will be proud of their child
begin today before its too late
June 20, 2011
कहाँ से लायें पिता का नाम ?
पिछले दिनों अपनी मूक बधिर बलात्कार की शिकार बेटी के बच्चे को स्कूल में नाम लिखने के लिए एकपिता गया तो उससे बच्चे के पिता का नाम पूछा गया और न बता पाने पर उसको लौटा दिया गया। बाप ने बेटी कोसमझाया तो वह चीख चीख कर रोने लगी क्योंकि यह संतान उसके बलात्कार के शिकार का ही परिणाम थी और उसेएक नहीं कई लोगों ने बलात्कार का शिकार बनाया था। वह किसका नाम ले ये तो उसको भी पता नहीं है।
इतना ही नहीं बल्कि इस बलात्कार की शिकार लड़की को गाँव से बाहर निकाल दिया गया क्योंकि पूरागाँव उन दबंगों के खिलाफ बोल नहीं सकता है अतः दोषी इसी को बना दिया गया। उस गूंगी और बहरी लड़की ने जिसबच्चे को जन्म दिया उसके लिए ये सबसे बड़ा प्रश्न है? ऐसे एक नहीं कई किस्से हो सकते हैं लेकिन कुछ ही घटनाएँऐसे बन जाती हैं की सोचने के लिए मजबूर कर देती हैं। ये उसका साहस की उसने चुनौती दी उन लोगों को जिन्होंनेउसे अपनी हवस का शिकार बनाया लेकिन अब?
इस अब के लिए अब सोचना होगा , कौन सोचेगा? ये समाज, हम, कानून या फिर हमारी सरकार? येप्रक्रिया इतनी आसान भी नहीं है, ऐसे बच्चों को पिता का नाम देने के लिए विकल्प सोचना होगा क्योंकि ऐसीलड़कियाँ या महिलाएं इन बलात्कारियों का नाम अपने बच्चे को दें यह उनके लिए अपमान होगा। अब कानून कीनजर में अगर बाप का नाम जरूरी है तो फिर ये क्या करें? हमें इसका विकल्प कोई भी सुझा सकता है। एक बाप केनाम को पाने के लिए या फिर अपनी अस्तित्व को स्वीकार करने के लिए ऐसे बच्चे खुद क्या लड़ पायेंगे? रोहितशेखर जैसे लड़के इसके लिए लड़ रहे हैं और फिर उसके द्वारा किये गए दावे के लिए जिम्मेदार लोग उससे भाग रहे हैंक्यों ? इसलिए कि उनकी प्रतिष्ठा का सवाल है और ये सौ प्रतिशत सच है कि अगर वह दोषी न होता तो उसको डी एनए टेस्ट कराने में कोई भी आपत्ति न होती।
वह तो मामला ही इतर है , लेकिन ऐसे बच्चे के लिए क़ानून के द्वारा माँ का नाम ही काफी होना चाहिए। जोजीवित है उसका नाम दें। पिता का नाम माँ के अतिरिक्त कोई नहीं बता सकता और फिर ऐसे मामले में तो कोई पिताकहा ही नहीं जा सकता है। ऐसे लोग क्या डी एन ए टेस्ट करने की चुनौती दें और फिर बच्चे को दाखिला दिलाएं। अबआवाज ऐसे ही उठाई जानी चाहिए कि ऐसे मामलों में पिता का नाम न हो तो उसको माँ के नाम के आधार पर शिक्षासंस्थानों में प्रवेश दिया जाना चाहिए। इस बात के लिए एक लम्बी लड़ाई लड़नी होगी क्योंकि ऐसा काम आसान नहींहै और फिर इसको अब सोचने का एक मुद्दा तो मिल ही गया है। अब आप भी कहें की क्या मेरी ये सोच गलत है? याफिर इस पर विचार किया जाना चाहिए।
UN General Assembly declares June 23 as International Widows Day
General Assembly Distr.: General
23 February 2011
Sixty-fifth session
Agenda item 28 (a)
Resolution adopted by the General Assembly
[on the report of the Third Committee (A/65/449)]
65/189.
International Widows’ Day
The General Assembly,
Recalling all its relevant resolutions, including the United Nations Millennium
Declaration,
1 as well as the Universal Declaration of Human Rights,
2 theConvention on the Rights of the Child,
3 the outcomes of the major United Nationsconferences and summits in the economic and social fields, and, in particular, थे agreed conclusions endorsing the eradication of poverty through the empowermentof women throughout their life cycle adopted by the Commission on the Status of
Women at its forty-sixth session,
4 and the Beijing Declaration and Platform forAction adopted at the Fourth World Conference on Women on 15 September 1995,
5Recalling also the Convention on the Elimination of All Forms ofDiscrimination against Women,6 in particular article 3, according to which parties shall take in all fields, in particular in the political, social, economic and cultural fields, all appropriate measures, including legislation, to ensure the full development and advancement of women,Affirming that ensuring and promoting the full realization of all human rights and fundamental freedoms for all women is critical to achieving all internationallyagreed development goals, including the Millennium Development Goals,
Emphasizing that the economic empowerment of women, including widows, is
a critical factor in the eradication of poverty,
Recognizing that all aspects of the lives of widowed women and their children
are, in many parts of the world, negatively affected by various economic, social and
cultural factors, including lack of access to inheritance, land tenure, employment
and/or livelihood, social safety nets, health care and education,
Recognizing also the link existing between the situation of widows and that of
their children,
Deeply concerned that millions of widows’ children face hunger, malnutrition,
child labour, difficult access to health care, water and sanitation, loss of schooling,
illiteracy and human trafficking,
Reaffirming that women, including widowed women, should be an integral
part of the society in the State where they reside, and recalling the importance of
positive steps on the part of Member States to that end,
Emphasizing the need to give special attention to the situation of widows and
their children, including those living in rural areas,
1. Decides, with effect from 2011, to observe International Widows’ Day on
23 June each year;
2. Calls upon Member States, the United Nations system and other
international and regional organizations, within their respective mandates, to give
special attention to the situation of widows and their children;
3. Invites all Member States, relevant organizations of the United Nations
system and other international organizations, as well as civil society, to observe
International Widows’ Day and to raise awareness of the situation of widows and
their children around the world;
4. Requests the Secretary-General to take the measures necessary, within
existing resources, for the observance by the United Nations of International
Widows’ Day.
एक प्रश्न उत्तर की प्रतीक्षा में
June 18, 2011
कन्या को मत आने दें!
हम चीख चीख कर अख़बारों में , पत्रिकाओं में और ब्लॉग सभी पर गुहार लगा रहे हैं की इस जाती को भी जीने का हक़ है और वे आते ही अपने अधिकारों की मांग नहीं करने लगती हैं , वे बालक की तरह से ही जीवन जीती हैं , उन्हें संतान समझ कर जीवन दीजिये और अगर नहीं देना है तो फिर अगर आपके पास कोई निश्चित पुत्र ही पैदा करने का उपाय है तो उसको अपना लीजिये लेकिन भ्रूण की हत्या का पाप मत लीजिये। इसके परिणाम कभी कभी कितने गंभीर हो जाते हैं इस बात को वही समझ सकता है जो इसका भुक्तभोगी है।
पिछले दिनों में विदर्भ क्षेत्र में ही थी और एक दिन ये खबर ने तो अन्दर तक हिला दिया की महाराष्ट्र के बीद जिले के एक नाले में बह रहे ९ कन्या भ्रूण पर लोगों की नजर पड़ी और उन सबको लेकर जब उनका परीक्षण किया गया तो पता चला की वे सारे कन्या भ्रूण थे।इस जिले में सर्वाधिक लिंगानुपात १०००/८०१ (२०११) में आँका गया है। महाराष्ट्र में यह१०००/८८३ है। इन सारे भ्रूणों के एक स्थान पर पाना इस बात का प्रतीक है कि इसमें कितने लोग शामिल हैं? सिर्फमाता पिता या उनके घर वाले नहीं, इसमें शामिल है वह डॉक्टर जो इस काम को अंजाम दे रहे हैं और वह नर्सिंग होम याहॉस्पिटल जो अपने यहाँ खुले आम भ्रूण हत्या करवा रहे हैं।
हम सुधर रहे हैं, हमारी सोच बदल रही है या फिर हम कन्या को एकमात्र संतान की तरह से ख़ुशी ख़ुशीस्वीकार कर रहे हैं। हमारी इन दलीलों पर ये घटना प्रश्न चिह्न लगा रही है। अब हम क्या और करें कि अपनी इस जाति कोबचाने के लिए लोगों को बदल सकें। कुछ आप सोचें और कुछ हम। ऐसे अपराधी लोगों के लिए कौन सी सजा होनीचाहिए चाहे वे प्रतिष्ठित लोग हों या फिर समाज के निर्माता ही क्यों न हों? हमें अपने प्रयास और तेज करने होंगे।
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