कल के समाचारों में आपने भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र की पूर्व वैज्ञानिक डॉ. उमा राव की आत्महत्या की खबर सुनी होगी। एक महत्वहीन खबर की तरह इसे सुना दिया गया था, क्योंकि न तो इसमें राजनीतिक कारण शामिल थे और न ही भ्रष्टाचार। जिसपर एक पैनल बैठा कर चर्चा की जाती। यह एक ऐसे अवसादग्रस्त व्यक्ति की आत्महत्या की खबर थी। जिसने बीएआरसी में एक काम करते हुए देश के विकास में अपना योगदान दिया था।
डॉ. राव की मौत से मुझे एक मानसिक आघात जरूर लगा क्यों कि मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानती थी। बहुत घनिष्ठता नहीं थी, पर जानती जरूर थी। यह भी जानती थी कि वे लम्बे समय से डीप डिप्रेशन से गुजर रही हैं। एक बेटा अमेरिका में व्यवसायी था और दूसरा बेटा घर के पास रहता था पर घर में नहीं। अमूमन जैसा की होता है सब की अपनी ज़िंदगी थी और सब अपने ढंग से उसे जी भी रहे थे। जबतक पति ज़िंदा थे। एक सहारा था। अहसास था कि कोई है जिसे उनकी फ्रिक है। पति की मृत्यु के बाद वह सहारा भी जाता रहा। व्यवहार में सहजता न होने के कारण उनके अपने साथ काम करने वाले भी कटने लगे। कभी कुछ कहती भी तो चुपचाप सुन लेते और चले जाते, क्योंकि कोई उनसे उलझना नहीं चाहता था।
अवकाश लेने के बाद वह खिड़की भी बंद हो गई जो उन्हें लोगों से जोड़ती थी। उन्होंने खुद को अपने ही बनाए घेरे में कैद कर लिया। कल रात उनकी मृत्यु की खबर सुनने के बाद मैंने महसूस करने की कोशिश की कि यह आत्मघाती निर्णय लेते वक्त उनके मन में क्या चल रहा होगा। शायद अपना वह परिवार याद आया होगा जो कभी एक साथ रहता था। फिर उन्होंने उस खाली अकेले घर में घूमते हुए, उन वस्तुओं को छू कर उनसे घनिष्ठता महसूस करने की कोशिश की होगी, जो कभी उनके अपनों ने उन्हें दी थीं। लाख एंटी डिप्रेशन और नींद की गोलिया खाती हो पर काली रात के साए घिरते ही मन किसी अपने से बात करने के लिए आकुल हो उठता होगा। पर शायद बात करती नहीं होगी क्योंकि फोन पर किसी की उखड़ी आवाज़ सुनने का भय और कहीं यह आवाज़ अपने किसी प्रिय की हो तो पीड़ा और बढ़ जाती है। मन खुद को ताने देने लगता है क्यों किया था फोन। चुप नहीं बैठ सकती तुम। ऐसी स्थिति में हाथ नींद और एंटीडिप्रेशन ड्रग्स की और अचानक बढ़ने लगते है। हो सकता है डॉ. राव के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ हो।
यह भौतिकवाद के प्रति कैसी दौड़ है जो उस समय आपको तन्हा कर देती है, जब आपको किसी की सबसे अधिक जरूरत होती है।
डॉ. राव आप जहां कहीं भी हों, ईश्वर से मेरी यही कामना है कि वह आपको शांति प्रदान करे।
-प्रतिभा.
हमारे बदलते सामाजिक मूल्यों और एकाकी परिवार की अवधारणा ने अकेले बचे बुजुर्गों और वृद्धों को अवसादग्रस्त बना दिया है , वही बढ़ कर उमा राव जी की तरह आत्महत्या में बदलते देर नहीं लगती. बहुत अफसोस बल्कि यही कहना उचित है कि अब हमें सुधारने की जरूरत है.
ReplyDeleteभौतिकतावादी प्रवृत्तियां और आधुनिकता की दौड़ तो कहीं ऐसा नहीं करवा रही... लोगों को डिप्रेशन में ले जाकर मारने का काम कर रही है...
ReplyDeleteआप की बहुत अच्छी प्रस्तुति. के लिए आपका बहुत बहुत आभार आपको ......... अनेकानेक शुभकामनायें.
ReplyDeleteमेरे ब्लॉग पर आने एवं अपना बहुमूल्य कमेन्ट देने के लिए धन्यवाद , ऐसे ही आशीर्वाद देते रहें
दिनेश पारीक
http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/
http://vangaydinesh.blogspot.com/2011/04/blog-post_26.html
"यह भौतिकवाद के प्रति कैसी दौड़ है जो उस समय आपको तन्हा कर देती है, जब आपको किसी की सबसे अधिक जरूरत होती है।"
ReplyDeleteबेहद दुखद !
अब ऐसी परिस्थितियां भारतीय समाज में भी बहुत तेजी से विकसित हो रही हैं -
जब मां बाप को सहारा चाहिए तो उनका कोई भी साथ नहीं होता ..
मगर इन कारणों का और विस्तार से विश्लेषण करना होगा
समाज में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो एकलौते बेटे बेटी को पैसे की चकाचौध में अपने से इतनी दूर चले जाने को तैयार हो जाते हैं जहाँ से वे चाह कर भी नहीं लौट पाते ...
वाकई दुखद है ...
ReplyDeleteएक वाकया यहाँ भी देख लें ...
http://www.bhaskar.com/article/NAT-affluent-brothers-sidelined-ailing-sister-friends-come-to-help-2067301.html
आज परिवार टूट रहे हैं लोग तनाव से छुटकारे के लिये दवाओं का सहारा ले रहे हैं जरूरत है जीवन में आस्था,योग, ध्यान और मूल्यों की इससे परिवार भी बचेंगे और मन हल्का रहेगा !
ReplyDeleteबहुत ही दुखद समाचार और सच तो यही है बचा रह गया है अब समाज का, विशेषकर शहरी समाज का एक कडवा सच । ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दें
ReplyDeleteबहुत मार्मिक प्रस्तुति है. ‘kaneriabhivainjana.blogspot.com’ में आप का स्वागत है
ReplyDeleteदुखद घटना है ....
ReplyDeleteसमाज की विषमता देखिये कि एक तरफ हम उम्रदराज लोगों को दौड से ख़ारिज कर अलग बैठने को मजबूर कर रहे और दूसरी तरफ बच्चों को अंधाधुन्ध भागने कह रहे हैं इस सब के बीच हम स्वयं कहाँ हैं कल कहाँ होंगे यह सोचने की फुर्सत ही नहीं है एक पीढ़ी को हमने छोड़ दिया और दूसरी हमें छोड़ रही है तो अकेले तो होना ही होगा
Ek dukhad ghtna. . . . . . . . . . . . . . ,
ReplyDeleteये हमारे समाज की विडंबना है जाने कैसी अंधी दौड़ में दौड़ रहे हैं हम लोग ...जहां आज हमारे पास अपनों के लिए यहां तक कि अपनों के लिए भी वक्त नही हैं....यही कारण है कि घुट-घुट कर जी रहे हैं हम....तरस जाते हैं लोगों को देखने के लिए...उनकी आवाज सुनने के लिए....और एक दिन जीवन का अंत भी करते देऱ नहीं लगती..इसलिए आप जहां भी रहे दोस्त बनाए...यकीन मानिए बहुत अच्छा लगता है।
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