नारी ही नारी कि दुश्मन हैं और नारी जो नारी आधारित विषयों पर बात करती हैं वो फेमिनिस्ट हैं । फेमिनिस्म यानी नारी का समाज से विद्रोह । ये सब धारणाए कहां से आती है ? किसने इनको बनाया और क्यों ??
इला और अनुजा दोनों कि पोस्ट इस पोस्ट से पहले आयी हैं । और दोनों ही इस बात को मानती हैं कि नारी जब नारी के लिये संवेदन शील हो जायेगी समाज मे बदलाव , नारी कि स्थिति परस्थिति को ले कर ख़ुद आजायेगा । पर क्या सचमुच ऐसा हैं ?? समस्या हैं हमारे दिमाग कि सोचने की जो सालो से आदि हो चुका हैं हर बात को विभाजित करने मे पुरूष और स्त्री के सन्दर्भ से । हम कोई भी बात करते हैं यहाँ तक कि हम सोचते भी हैं तो विभाजित सोच से ।
पल्लवी त्रिवेदी ने इला कि पोस्ट पर कमेन्ट किया हैं
"यह बात केवल नारियों पर ही लागू नहीं होती ...चाहे वह कोई भी इंसान हो,स्त्री या पुरुष यह प्रवत्ति होती है की सामने वाला व्यक्ति ज्यादा प्रसन्न नज़र आता है!नौकरीपेशा आदमी को बिजनेसमैन ज्यादा सुखी लगते हैं!घरेलु औरत को कामकाजी महिला ज्यादा सुखी लगती है!यह एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है जो सभी में पाई जाती है और ऐसा इसलिए है क्योकी सामने वाले की परेशानियों से हम वाकिफ नहीं होते!इसे स्त्री और पुरुष के नज़रिए से सोचना मेरे हिसाब से उचित नहीं है!यदि एक पुरुष कहता है की फलाना पुरुष मुझसे ज्यादा खुश है तो इसे तो कोई पुरुष पुरुष का दुश्मन है के रूप में नहीं लेता? सिर्फ नारियों पर ही ये बात क्यों?" पल्लवी त्रिवेदी कि बात शत प्रतिशत सही हैं ।
हम एक नारी के प्रति दूसरी नारी के संवेदनशीलता या असंवेदनशीलता के भाव को "वैमनस्य" क्यों मानते हैं जबकि हम एक पुरूष के प्रति दूसरे पुरूष के संवेदनशीलता या असंवेदनशीलता के भाव को " human nature या इंसानी प्रकृति " का नाम देते हैं । क्यों हमारे सोच के दायरे इतने संकुचित हैं ? कि हम समान व्यवहार प्रक्रिया को भी अलग अलग नाम देते हैं ?
नारी को नारी के विरुद्ध खडा कौन करता हैं ?? हम नारियां कभी इस बारे बात क्यों नहीं करती ?? अँगरेज़ चले गए " डिवाइड एंड रुल " नहीं गया । घर मे एक हर नारी एक साथ जुड़ जायेगी तो " पितृसत्ता " का क्या होगा ? सभ्य से सभ्य घरो मे किसी न किसी समय एक आवाज जरुर गूंजती हैं " औरतो जैसी बात मत करो " । और नारी चाहे गृहणी हो या नौकरीपेशा या बिजनेस वूमन कही ना कही इस आवाज को जरुर कभी ना कभी सुनती हैं । अब "बात " भी औरतो या मर्दों जैसी होती हैं ??
बहुत सी महिला इस बात को मानती हैं कि "घर" कि शान्ति के लिये पुरूष के अहेम को बढ़ावा देते रहो और अपनी जिन्दगी " शान्ति " से काट लो । वो अपनी जगह एक कूटनीति का इस्तमाल करती हैं पर ये भूल जाती हैं कि जिन्दगी जीने के लिये मिली हैं काटने के लिये नहीं और बिना कूटनीति के भी नारी को जिन्दगी जीने का अधिकार ही "समानता" की पहली सीढी हैं । उनकी ये सोच आने वाली नारी कि पीढी के लिये सबसे ज्यादा हानिकारक हैं क्योकिं ये सोच नारी को एक कुचक्र मे फसाती हैं और "तिरिया चरित्र " कि उपाधि दिलाती हैं । अरे जो अधिकार हमारा हैं उसके लिये "चालबाजी" हम क्यों करे ??
एक सवाल ये भी हैं कि नारी ऐसा क्यों करती हैं इसका सीधा जवाब हैं जो दिनेशराय द्विवेदी ने अपने कमेन्ट मे दिया हैं
"....... देश की अधिकांश महिलाएं उन के अधिकारों से ही परिचित नहीं हैं। व्यावहारिक ज्ञान के नाम पर उन के दिमागों में इतना कूड़ा भर दिया जाता है कि उसे साफ करना भी असंभव प्रतीत होता है, ऊपर से वे उसे ही ज्ञान समझने लगती हैं। ....."
ये व्यवहारिक ज्ञान नारी को कहाँ से मिला । शिक्षा का ज्ञान पहले पुरूष ने पाया { मेरी हिस्ट्री कमजोर हैं सो अगर ये ग़लत prove हो जाए तो सबसे ज्यादा खुशी मुझको होगी } और अपनी पूरक !!!!!!!!!!!! को छान छान कर पुरूष ने वोह ज्ञान दिया जो केवल व्यावहारिक ज्ञान था और जिसमे सबसे ज्यादा महत्व इस बात को दिया गया कि नारी का स्थान बराबर का नहीं हैं , "हम को खुश रखो , हम देते रहेगे । " "तुम घर मे रहो , बाहर कि दुनिया तुम्हारे लिये "सही" नहीं हैं ।" "हम मरे तो तुम हमारे साथ "सती" हो जाओ क्योकि तुम अकेली नहीं रह सकती ।"" हमारा क्या हम तो तुम्हारे मरते ही दुसरी तुम्हारे जैसी लेही आयेगे । "
फिर कुछ humane पुरूष आए जिन्होने नारी शिक्षा का प्रसार किया , सती प्रथा का विरोध किया और नारी को एक नये रास्ते का रास्ता दिखाया । उस समय जो भी नारी इस नये रास्ते पर चली " विद्रोही" कहलाई । उसके बाद फेमिनिस्म का प्रसार हुआ फेमिनिस्म यानी नारी का समाज से विद्रोह ।
हर उस चीज़ से विद्रोह जो उसके लिये " बनी " थी । अब हाल ये हैं कि ब्लॉग भी लिखो तो "ब्लॉग फेमिनिस्म " कहा जाता हैं । एक तरफ़ फेमिनिस्म को "विरोध " माना जाता हैं तो दूसरी तरफ़ नारी का किया हुआ हर कार्य "फेमिनिज्म " के दायरे मे आता हैं । यानी नारी कुछ भी करे अपनी मर्ज़ी का तो वह विद्रोह हो जाता हैं ।
ज्यादा दूर क्यों जाते हैं इस हिन्दी ब्लॉग समाज को लीजिये । नारी ब्लॉग के एक अन्य ब्लॉग दाल रोटी चावल से भी लोगो को परेशानी हैं और वो ये मानते हैं हैं कि रसोई मे खाना बनाना "फेमिनिज्म का विरोध " हैं यानी विरोध का विरोध । अभिप्राय सिर्फ़ इतना हैं कि नारी को अपनी मर्ज़ी से कुछ भी क्यों करना हो ? अब जब ब्लॉगर समाज जो एक जहीन पढा लिखा समाज हैं वो इस सोच का आदि हैं तो उस समाज कि क्या बात करनी जहाँ अशिक्षा हैं । सवाल ये नहीं हैं कि नारी को नारी का साथ नहीं मिलता इस लिये परेशानी हैं , सवाल हैं कि नारी से समाज चाहता क्या हैं ?? नारी नारी के ख़िलाफ़ नहीं होती , नारी को नारी के खिलाफ किया जाता हैं "survival " का डर दीखा कर ।
साले - बहनोई के द्वेश यानि मतभेद
नन्द - भाभी का मतभेद यानी द्वेश
ससुर - दामाद का मतभेद यानी पिता का पुत्री के लिये प्यार
सास - बहु का मतभेद यानी एक दूसरे के प्रति डाह { यहाँ इसे माँ का बेटे के लिये प्यार क्यों नहीं }
पिता - पुत्र का मतभेद
माँ - बेटी का द्वेश या माँ कि रोक टोक
आज कि पोस्ट मे बस इतना ही
अर्ध सत्य
ReplyDeleteकिंतु रोचक तरीके से प्रस्तुत किया गया.
रचना जी, आप हर बात सही कहती हैं। यहाँ भी आप सही हैं। लेकिन हम कोई आदिम मानव नहीं हैं। मानव की शक्ल अख्तियार करने के बाद से इस जीव ने बहुत परिवर्तन झेले हैं और धीरे धीरे आज की स्थिति में पहुँचा है। उस पर उन ऐतिहासिक परिस्थितियों का प्रभाव है जो उस ने परिवार के विकास के दौरान झेली हैं। नारी और पुरुष इन परिस्थितियों के सहभागी रहे हैं। नारी की जो स्थितियाँ परिवार के विकास के इस काल में रही हैं उन्हें जीते हुए उस ने एक विशिष्ठ प्रकृति, स्वभाव प्राप्त किया है। उसी से उस की बातें भी अलग किस्म की हैं। इसीलिए यह वाक्य सुनने को मिलता है कि औरतों जैसी बातें क्यों करते हो?
ReplyDeleteहम चाहते हैं ऐसा वाक्य सुनने को न मिले। लेकिन चाहने से कुछ नहीं होता। फणीश्वरनाथ रेणु के किसी उपन्यास शायद 'जूलूस' में एक पात्र नारी पात्र है सब उसे माताराम कहते हैं। माताराम शब्द का अर्थ है मर्दाना औरत। अगर नारी और पुरुष के चरित्र, व्यवहार, स्वभाव में अंतर न होता तो यह चरित्र माताराम भी न होता। औरत के बराबरी प्राप्त कर लेने पर भी उस से माता का स्वभाव कौन छीन लेने वाला है। कौन है जो उस के कंठ के महीन सुरीले स्वर को छीनेगा, कौन है जो उस की कोमल त्वचा को पुरुषों सी खुरदुरा करेगा? कोई नहीं। इसलिए औरत की बातें भी औरत की बातें ही रहेंगी यह वाक्य बराबरी के अधिकारों के युग में भी बनी रहेंगी। शायद कोई यह कहे कि औरत की बात ही कुछ और है।
"औरत की बात के कोई मायने नही होते" उस पर भरोसा नही करना चाहिये, शायद यही भाव होता है, जब ये कहा जाता है कि औरतो जैसी बात मत करो.
ReplyDeleteये एक बडी विडम्बना है कि औरत की गम्भीर से गम्भीर बात पर लोग यकीन नही करना चाहते, अक्सर् इस सोच की परछायी, सिर्फ कहावत मे ही नही झलकती, बल्कि व्यवहार मे भी मिलती है. और बहुत अच्छे पढे-लिखे लोगों के व्यवहार मे भी. जो औरत की बात को, तर्क से, मज़ाक से, और हर सम्भव दूसरे हथियार से धव्स्त करना चाहते है. शायद ये भी एक बडी वजह है, कि औरतो का आत्म विश्वास छोटी-छोटी बातो मे डोल जाता है, और वो घर परिवार से लेकर सामाजिक परिवेश मे भी, उतनी मज़बूती से अपनी बात नही रख् पाती है.
परोक्ष प्रभाव मे देखे, तो एक महिला डाक्टर , वकील, यहा तक कि कूक से ज्यादा भरोसा लोगो को पुरुष डाक्टर , वकील ...पर होता है.
ये बात महिलाओ के मन मे भी इस कदर भरी है, कि कोई उनकी बात पर भरोसा नही करेगा, इसीलिये बहुत कुछ चुपचाप सह लेती है. इसकी परिणिती यहा तक है कि बहुत हद तक sexual abuse की घट्नाये, बच्चो और महिलाओ के साथ रोशनी मे नही आती.
इन सब चीज़ो के तार बहुत बारीक है.
स्त्री पुरूष समाज का अभिन्न अंग हे,चाहे कितना भी उन्हें विभक्त करके सोच लो कभी भी स्त्री-पुरूष से अपने विचारो को जुदा नही कर सकते हम .....नारी के लिए इतना लिखने की जरुरत भी तो तभी आ रही हे जब पुरूष को ध्यान में लाते हो ...सिर्फ़ पुरूष के प्रति की सोच को दिमाग से निकाल दे तो फ़िर नारी को कोई पोर्ब्लेम ही नही हे......कुदरत ने समाज रचना जब की तब से उन्हें एक दुसरे के लिए बनाया गया हे .....उन्हें विभक्त नही कर सकते ...(( पति-पत्नी के रिलेशन को ध्यान में न लेते हुए सिर्फ़ स्त्री-पुरूष के रिलेशन से ही देखा जाय )) समाज में ९०% प्रोब्लेम्स वाही हे जो ILA JI -ANUJA JI ने अपने अगले पोस्ट में दिखाए हे और उन्हें नजर अंदाज नही किया जा सकता क्यूंकि वही सचाई हे .....स्त्री - पुरूष इस संसार के आधार स्तम्भ हे उन दोनों के बिना संसार का चक्कर पुरा नही हो सकता हे .....जिन चीजो में जीव हे वैसे पेड पौधे ,पशु पक्षी हर एक में स्त्रीलिंग - पुर्लिंग हे क्यूंकि एक दुसरे के बिना सेर्विवल फिटेस्ट का सिधांत पुरा नही होता ....सारी सृष्टि एक दुसरे के आधार पर ही तो टिकी हुई हे.....क्यूँ स्त्री - पुरूष के रिलेशन में उनके लिंग भेद को ही देखा जाता हे?उनको सिर्फ़ इंसान समज के हम अपनी सोच को नई दिशा नही दे सकते?""वो फेमिनिस्ट हैं । फेमिनिस्म यानी नारी का समाज से विद्रोह । ये सब धरनायो को सोचने का भी आम नारी के पास वक्त नही हे फ़िर भी वो अपने संसार में खुश रहती हे ...क्या किसी पुरूष को कोई तकलीफ नही हे?क्या संसार में सिर्फ़ स्त्री को ही प्रोब्लेम्स हे?नही सबको कही न कही किसी से प्रोब्लेम्स हे ..मगर जरुरत हे हमें हमारे दिमाग को सही रास्ते पर लाने की ......सिर्फ़ प्रोब्लेम्स को तारासता हुआ दिमाग सही ढंगसे काम नही देता हे क्यूंकि उसके पास समय नही होता अछे की और देखने का ....
ReplyDeleteहर इंसान को दुसरे का जीवन अच्छा लगता हे ...क्यूंकि हम दुसरे की जीवनी को दुरसे देखते हे ....मगर कोई इंसान चाहे वो स्त्री हो या पुरूष ....सबकी जिंदगी में धुप छाँव हे ही ....Pallavi ji के कमेंट्स को आप सैट प्रतिशत सही बताती हे तो फ़िर क्यूँ आपको Ila ji ya Anuja ji के विचार पर ऐतराज हे ? उन्होंने भी तो अपने दायरे में सही बयां किया हे आजके हालत को जैसे की Pallavi ji ने किया हे .
आपका ये कमेन्ट "हम एक नारी के प्रति दूसरी नारी के संवेदनशीलता या असंवेदनशीलता के भाव को "वैमनस्य" क्यों मानते हैं जबकि हम एक पुरूष के प्रति दूसरे पुरूष के संवेदनशीलता या असंवेदनशीलता के भाव को " human nature या इंसानी प्रकृति " का नाम देते हैं । क्यों हमारे सोच के दायरे इतने संकुचित हैं ? कि हम समान व्यवहार प्रक्रिया को भी अलग अलग नाम देते हैं ? " जो हे वो इस लिए हे आप उन पोस्ट्स के भाव को नही समजी हे ...उन्होंने ये पोस्ट की उसका मतलब था की जो हम ये कहते हे की स्त्री को पुरूष से ज्यादा परेशानी हे मगर ऐसा नही हे स्त्री को स्त्री से ही ज्यादा परेशानी हे और ये तो हमारे सामने हे ,साफ़ दीखता हे संसार में ....ANITA KUMAR ने भी इस बात की पुष्टि की हे जो ILA JI NE KAHA AUR ANUJA JI NE KAHA ...इन सबके विचार तो द्वेष पूर्ण या ग़लत नही हो सकते.
जी बात भी औरत या पुरूष जैसी होती हे क्यूंकि उन दोनों में सिर्फ़ लिंग भेद ही नही हे ....वैचारिक दिफेरेंस भी हे ....क्यूंकि कुदरत ने दोनों को बनाया ही अलग अलग मकसद से हे ....वरना क्या जरुरत थी की वो भी ऐसी गलती करते?
""बहुत सी महिला इस बात को मानती हैं कि "घर" कि शान्ति के लिये पुरूष के अहेम को बढ़ावा देते रहो और अपनी जिन्दगी " शान्ति " से काट लो ।"" यहाँ आप ये भी बोल सकती हे की पुरूष भी वही सोचता हे ...क्यूंकि घर में शान्ति भी तो जरुरी हे ...उन महिला को या पुरूष को पता हे की जीन्दगी समजोते से ही काटी जा सकती हे .....इंसान न सिर्फ़ अपने घर में मगर हर जगह समजोता करता ही हे और तभी वो अपनी जिन्दगी आराम से काट सकता हे वरना उसका ज्यादातर समय सिर्फ़ बहस में चला जाता हे और जब आगे जाके देखता हे तो उसे पता चलता हे की उसने पाने के बजाव बहोत कुछ खो दिया हे ...वही संसार का नियम हे....थोड़ा तुम साथ दो थोड़ा हम दे और ऐसे ही ये संसार रथ चलता रहता हे.
वाह रे नारी ...कूटनीति ,अधिकार ये सोच तुजे कहा ले जायेगी?कूटनीति राजनैतिक सीमा तक ठीक हे ,,,,व्यावहारिक मामले इंसानी जज्बात में कूटनीति आ गई तो फ़िर भावनात्मक पहलु ही ख़तम हो जाएगा,जहा अधिकार आता हे वहा से प्यार अपनी जगह छोड़ देता हे,अधिकार से सेर्विवल हक लिया जा सकते हे ,अधिकार से एक दुसरे के प्रति का विशवास ,प्यार ख़तम हो जाता हे .....स्त्री हो या पुरूष अगर सिर्फ़ देना ही समजे गे ,एक दुसरे को समजे गे और लेना भूल जायेंगे तभी ये मसला सोल्वे हो सकता हे .....समानता की पहली सीढ़ी यही हे विश्वास की निगाह से देखा जाय एक दुसरे के प्रति...
विद्रोह से नही ....एक दुसरे को जोड़ने के तरीके ढूंढने चाहिए...अगर संसार में समानता लानी हे तो ऐसे भावः पहले ख़ुद में ,अपनी लिखाई में लाने चाहिए .....हर मसले का एक ही पहलु न देखते हुए सारे पहलु को देख कर स्त्री-पुरूष की भावनात्मक एकता के प्रति थोश कदम उठाने चाहिए .....सिर्फ़ आक्रोश उगल देने से समानता नही आती.....इस से विद्रोह की भावना फैलाती हे और वो तोड़ने का काम करती हे.....दो इंसान के बिच मतभेद होना ग़लत नही हे मगर मनभेद नही होना चाहिए.....यहाँ स्त्री पुरूष की समानता के बारे में अच्छे विचार प्रस्तुत होंगे तो वो दोनों जाती के लिए अच्छे हे,इस से दोनों का भला होगा,इतने अच्छे लेखक हे यहाँ जो इस बारे में अच्छा काम कर सकती हे......नारी के प्रोब्लेम्स के पोसिटिव थिंकिंग से हल ढूंढे जाए तो वो बहोत ही अच्छी बात होंगी .....
सारा खेल पावर का है ? ? ?
ReplyDeleteसबने अपनी अपनी बात कह दी है,किसी की बात को भी हम नकार नहीं सकते.रचना,आपकी ये पोस्ट विचारणीय है.
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