नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

March 31, 2010

लिव इन रिलेशनशिप

लिव इन रिलेशनशिप यानी सहजीवन। आपको याद होगा कि अपने देश में इस विषय पर विवाद की शरुआत दक्षिण भारतीय सिने जगत की सुपर स्टार खुशबू के उस बयान से शुरू हुई थी जिसमें उन्होंने विवाह पूर्व सेक्स संबंधों को जायज ठहराया था और इसके फलस्वरूप तमिलनाडु में काफी हो-हल्ला हुआ था। अब कोर्ट ने उनके पक्ष में निर्णय देकर एकबार फिर उस विवाद को हवा दे दी है। पक्ष-विपक्ष में हर तरह के विचार आ रहे हैं। कुछ लोग विवाह नाम की संस्था को सामाजिक ढकोसला मानकर इसकी आवश्यकता पर ही प्रश्न चिह्न लगा रहे है।

प्रागैतिहासिक काल में विवाह नाम की संस्था नहीं थी, स्त्री-पुरुष आपस में सेक्स संबंध बनाने के लिए स्वतंत्र थे। समाज को सुचारु रूप से चलाने के लिए कुछ नियम बनाए गए और विवाह नाम की संस्था ने जन्म लिया। समय के साथ समाज की रीति नीति में काफी परिवर्तन आए है, इंसान की पैसे की हवस और अहम की भावना ने इस संस्था को काफी नुकसान पहुँचाया है, लेकिन मात्र इसके कारण इसकी आवश्यकता पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया जा सकता।

सहजीवन पश्चिमी अवधारणा है, जिसके कारण वहां का सबसे ज्यादा सामाजिक विघटन हुआ है। परंतु धीरे-धीरे अपने देश में भी लोकप्रिय हो रही है। खासकर देश के मेट्रोपोलिटन शहरों में रहने वाले युवाओं के मध्य इस तरह के रिश्ते लोकप्रिय हो रहे है। पहले इस तरह के रिश्ते समाज में एक तरह के टैबू के रूप में देखे जाते थे, पर अब फैशन के तौर पर इन्हें अपनाया जा रहा है। इस तरह के रिश्तों को युवाओं का समाज के रीति-रिवाजों के प्रति एक विद्रोह माना जाय या एक आसान जीवन शैली- जिसमें वे साथी की जिम्मेदारियों से मुक्त एक स्वतंत्र जीवन जीते है। यह एक तरह की ट्रायल एंड एरर जैसी स्थिति होती है जिसमें यदि परिस्थितियां मनोकूल रही हैं तो साथ लंबा रहता है अन्यथा पहले साथी को छोड़ कर आगे बढ़ने में देर नहीं लगती। अगर आप भावुक है और रिश्तों में वचनबद्धता को महत्व देते है तो आपको सहजीवन की अवधारणा से दूर ही रहना चाहिए, यहां वचनबद्धता जैसे नियम लागू नहीं होते। यहां सामाजिक नियमों को दरकिनार कर साथ रहने का रोमांच जरूर होता है, लेकिन इस बात की गारंटी नहीं होती कि परिवार और समाज की अवहेलना कर यह रोमांच कितनी अवधि तक जीवित रहेगा।

यहां पर मैं सुप्रीम कोर्ट के ही एक और निर्णय की ओर भी आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगी, जिसके अनुसार मां-बाप का यह हक है कि उनके बच्चे बुढ़ापे में उनकी देखभाल करें। ऐसा न करने पर उन्हें कानूनन दंडित किया सकता है। अब यही पर कन्फ्यूजन क्रिएट होता है। सहजीवन भारतीय समाज द्वारा मान्य नहीं है दूसरे ऐसे बच्चे जिनकी अपनी जीवन-धारा ही सुनिश्चित न हो, वे अपने मां-बाप को इसमें कैसे शामिल करेंगे? इस तरह के रिश्ते सिवाय सामाजिक विघटन के हमें और कुछ नहीं दे सकते।

अंत में मैं एक बार फिर अभिनेत्री खुशबू का उल्लेख करना चाहूंगी। खुशबू ने अपने लिव इन रिलेशनशिप से उस समय काफी गहरी चोट खाई थी, जब शिवाजी गणेशन के सुपुत्र प्रभु से अपने रिश्तों को सार्वजनिक करने के बाद भी, प्रभु ने न तो इन रिश्तों को स्वीकारा और न ही अपनी पत्नी से अलग हुए । बाद में खुशबू ने दक्षिण भारतीय फिल्मों के मशहूर एक्टर और डायरेक्टर सी.सुदंर से विवाह करने के लिए मुस्लिम धर्म छोड़कर हिंदू धर्म अपना लिया। शायद उस समय तक उनको इस बात का अहसास पूरी तरह हो गया था कि विवाह ही एक ऐसी संस्था है जो आपको भावात्मक सुरक्षा और जीवन में साथ निभाने की वचनबद्धता देती है। सहजीवन थोड़े समय के लिए आपको रोमांचित तो कर सकता है, लेकिन लंबे साथ की कामना आप इससे नहीं कर सकते।

आज जरूरत है कि विवाह संस्था में आई कुरीतियों को दूर करने की, ताकि पारिवारिक संबंधों में पारस्परिक गरमाहट बढ़े। हमारा चिंतन परिवार नाम की संस्था को दृढ़ता बढ़ाने के लिए होना चाहिए।

-प्रतिभा वाजपेयी

March 30, 2010

पर उपदेश कुशल बहुतरे वाली स्थिति हैं

कल कि पोस्ट का मूल प्रश्न था कि जो लोग निरंतर नारी के लिये क्या अच्छा हैं और क्या बुरा हैं , विवाह नारी के लिये कितना सुरक्षात्मक हैं , कितना जरुरी हैं इत्यादि पर निरंतर टिप्पणी देते हैं बहस करते हैं ,
क्या उन्होने अपने विवाह मे अपना सहचर खुद चुना था ,?
क्या उन्होने शादी के समय दहेज़/ स्त्री धन या अन्य प्रकार का व्यय किया था ?
क्या अपने विवाह का निर्णय उनका अपना था , ?

लेकिन अफ़सोस किसी भी ब्लॉगर ने अपनी स्थिति से परचित नहीं कराया ।
जितने भी विवाहित ब्लॉगर हैं जब तक वो अपने कारणों से अवगत नहीं कराते हैं हम कभी भी बहस को किसी भी निष्कर्ष तक नहीं ले जा सकते । और वो जितने भी नारी को ये समझते हैं कि शादी से बेहतर नारी के लिये कुछ नहीं हैं अपने समय मे उन्होने क्या निर्णय लिया था ये कभी नहीं बताते ।

पर उपदेश कुशल बहुतरे वाली स्थिति हैं
और शब्दों के छलावे से इतर ही दुनिया हैं

March 29, 2010

अपने सहचर का चुनाव करने कि भी क्षमता अगर आप मे नहीं थी या हैं तो आप शादी जैसी संस्था पर बहस ही बेकार करते हैं ।

शादी ना तो obsolete institution हैं और ना ही गैर जरुरी । शादी आप क्यूँ करते हैं सवाल और जवाब उस पर निर्भर करता हैं । जैसे मेरे पास शादी ना करने के कारण हैं आप के पास करने के होगे उन कारणों के ऊपर बात किये बिना बहस करना केवल बहस करने के लिये बहस करना होता हैं जिस का फायदा केवल documentry होता हैं ।

शादी से किसी भी नारी का शोषण नहीं होता क्युकी शोषण तब होता हैं जब कोई चीज़ आप कि मर्जी के विरुद्ध हो । हाँ शादी नारी के लिये "नियति " नहीं हैं इसके आगे भी जहान थे और हैं ।बस महिला पति को सामाजिक सुरक्षा कवच ना समझे !!

शादी नारी को दोयम का दर्जा नहीं देती बल्कि दोयम का दर्जा ये समाज देता हैं जहाँ स्त्री को सहचरी न मान कर सम्पति माना जाता हैं और ये बात लिव इन रिलेशन शिप मे भी उतनी ही मान्य हैं .

शादी मे होता खर्चा जिसमे दहेज़ / स्त्रीधन दोनों हैं स्त्री को दोयम बनाता हैं । इस को कुछ लोग संस्कृति के नाम पर बढ़ावा देते हैं और इसके विपरीत जहां पुरुष को शादी पर स्त्री के लिये पैसा देना पड़ता हैं या स्त्री के घर रहना पड़ता हैं { कुछ पहाड़ी इलाको मे ऐसा हैं } वहां पुरुष कि स्थिति दोयम होती हैं । यानी दोयम शादी से नहीं "पैसे " से होता हैं । और यही करण हैं जहां पत्नी दहेज़ लाती हैं वो अपने सास ससुर और पति कि मन से कभी इज्ज़त नहीं करती हैं क्युकी वो कर ही नहीं सकती हैं । जो विवाहित महिला ब्लॉगर हैं वो अगर कभी अपनी "image " कि चिंता ना करके अपनी स्थिति को सही रूप से आकलित करके व्यक्तिगत लेख / कमेन्ट दे तो बहस सार्थक होगी अन्यथा नहीं ।

शादी को क़ानूनी मान्यता हैं यानी जो पति का वो पत्नी का यही सबसे बड़ी वजह होती हैं विदेशो मे शादी ना करने कि क्युकी वहाँ "alimony" और "compensation" बहुत ज्यादा होता हैं अगर तलाक हो सो लोग बिना शादी के साथ रहने मे विश्वास करते हैं ताकि "उनकी कमाई " पर दूसरे का अधिकार ना हो । लोग मैने इस लिये कहा क्युकी वहाँ के कानून मे स्त्री और पुरुष दोनों को alimony देनी पड़ती हैं यानी अगर पत्नी के पास पैसा ज्यादा हैं और पति के पास कम तो पत्नी को alimony देनी होगी । भारत मे क्युकी वोमन एम्पोवेर्मेंट बहुत देर से आया हैं ये बात यहाँ अभी नहीं हैं इसलिये यहाँ स्त्री का शोषण होता हैं और बहुत जगह तलाक ना लेकर पति के रहते पति अन्य के साथ लिव इन रिलेशन शिप मे रहता हैं । ये कानून का दुरूपयोग हैं और इसके लिये पत्नी भी उतनी ही दोषी हैं जितना पति क्युकी वो सामाजिक सुरक्षा के लिये अपने पति के अनैतिक { सामाजिक दृष्टिकोण से } काम मे सहभागी हैं ।
जब तक पैसा दो लोग को शादी मे बांधने और छोडने का कारण होगा शादी कि जरुरत पर सवाल उठते रहेगे ।

शादी से बच्चो को पिता का नाम मिलता हैं , अब जितने नये कानून हैं उनमे माता का नाम ही काफी हैं {लेकिन लोग कानून को नहीं समाज और संस्कृति को मानते हैं जहां बच्चो को माता पिता जाति वर्ग उंच नीच मे बांटा जाता हैं } इस लिये ये तर्क अब गैर जरुरी हैं ।

शादी ना करने के / ना होने के कारणों पर निरंतर बहस होती हैं क्युकी शादी को व्यवस्था का हिस्सा माना जाता हैं और जो लोग विवाह नहीं करते उनको व्यवस्था को बिगाडने वाला माना जाता हैं जबकि बहस का मुद्दा होना चाहिये कि समाज मे जो लोग शादी करते हैं उन्होने क्यूँ शादी कि और जब तक इसके ऊपर सचाई से आलेख नहीं आयेगे तब तक हर बहस बेमानी होगी ।


शादी अपने आप मे एक बहुत अच्छी व्यवस्था हैं अगर उसमे पैसे का लेनदेन ना हो , अगर उसमे स्त्री पुरुष कि हर बात मे सहभागीदारी हो और सबसे बड़ी बात शादी लोग खुद करे नाकि उनके अभिभावक ताकि जो फैसला वो खुद ले उसके लिये वो खुद जिम्मेदार हो । अपने सहचर का चुनाव करने कि भी क्षमता अगर आप मे नहीं थी या हैं तो आप शादी जैसी संस्था पर बहस ही बेकार करते हैं


अगर आप खुल कर ये बता नहीं सकते कि क्यूँ आप ने विवाह किया , कैसे किया , चुनाव कैसे किया इत्यादि तो आप उन लोगो पर कैसे प्रश्न चिन्ह लगा सकते हैं जो इस व्यवस्था को नकारते हैं या उस से हट कर नये रास्तो पर चलते हैं ।

नए रास्ते बनते हैं तो नए कानून भी बनते हैं ताकि उन रास्तो पर चलने वालो को भी सुरक्षा दी जा सके ।

March 28, 2010

प्राथमिकता

समाज
संस्कृति
संविधान
कानून

इन चारो मे से आप की प्राथमिकता क्या हैं
मेरी प्राथमिकता हैं
संविधान
कानून
संस्कृति
समाज

March 27, 2010

अंधविश्वास की भेट चढ़े दो बच्चे


देश के विकास की गति बेहद असमान है। देश के मेट्रोपोलिटन शहर विकास की दौड़ में काफी आगे हैं। यहां के निवासियों को शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छ पेयजल सभी कुछ उपलब्ध है, लेकिन गांवों में इन सभी का नितांत अभाव है। ये मूलभूत जरूरते हैं जिस पर देश के हर नागरिक का अधिकार है। कुछ प्रदेशों में इस दिशा में काम हो रहा है परंतु झारखंड जैसे प्रदेश सुविधाओं के मामले में बहुत पीछे हैं, खासकर यहां के आदिवासी इलाकों में। इन इलाकों में न कायदे के स्कूल हैं, न अस्पताल, न पीने योग्य पानी, न सड़के, न बिजली। कही-कही बिजली के तार बिछे हैं, लेकिन उनमें करेंट यदा-कदा ही दौड़ता है।

जाहिर सी बात है इसका सीधा असर वहां के निवासियों पर पड़ा है। ज्ञान और स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव में ये अपने हर दुःख और तकलीफ के लिए तथाकथित ओझा और गुनिया के पास जाते हैं। ओझा-गुनियों द्वारा कहा गया हर वाक्य इनके लिए ब्रह्म वाक्य सरीका होता है। ये किसी की बीमारी के लिए किसी भी औरत को दोषी ठहरा कर उसे डायन घोषित, उसे गांव से निष्कासित करवाने की क्षमता रखते हैं। अभी तक इनका शिकार असहाय, अकेली, विधवा औरतें ज्यादा बनती थीं लेकिन पिछले दो दिनों में दो मासूमों को इनके कहने पर बलिवेदी पर चढ़ा दिया गया।

पहला मामला कोडरमा के डोमचांच इलाके का है। पुरनाडीह निवासी मुंशी साव के पुत्र अमन कुमार का अपहरण करने के बाद उसकी नरबलि दे दी गई।बुधवार को अमन का शव उसके घर से थोड़ी दूर पर बरामद हुआ था। पुलिस तहकीकात के अनुसार पुरनाडीह निवासी राजेश पंडित की पत्नी सरिता देवी की तबियत खराब रहती थी। भक्तिन इन्द्री देवी ने राजेश पंडित को नरबलि देने के लिए उकसाया और उसे विश्वास दिलाया कि उससे उसकी पत्नी ठीक हो जाएगी। भक्तिन इंद्री देवी के बहकावे में आकर राजेश और उसके सात साथियों ने मिल कर इस हत्याकांड को अंजाम दिया। सरिता देवी की तबियत तो ठीक नही हुई, पर मासूम अमन को अपनी जान से हाथ जरूर धोना पड़ा। गौरतलब है कि इस हत्याकांड में इंद्री देवी की बेटी संतोषी कुमारी भी शामिल थी। छह लोग गिरफ्तार किए जा चुके हैं, दो को अभी गिरफ्त में आना बाकी है। दूसरी घटना कल की है जब जगन्नाथपुर की तुलसी ने ओझा-गुनी के चक्कर में पड़कर अपने ही तीन वर्षीय बेटे सनातन को तलवार से मौत के घाट उतार दिया, ये तो कहो समय रहते गांव वालों ने देख लिया और उसे पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया। किस ओझा के कहने पर तुलसी ने यह जघन्य अपराध किया है, इसकी जानकारी अभी मिलनी बाकी है।

भले ही इस तरह की घटनाएं राष्ट्रीय समाचारों में हिस्सा नहीं बना पाती, लेकिन इससे इन अपराधों की गंभीरता को कम करके नहीं आंका जा सकते। झारखंड खनिज संपदा से भरपूर प्रदेश है, परंतु भ्रष्टाचार रूपी दीमक इसे बुरी तरह नुकसान पहुँचा रहा है। अगर समय रहते सामाजिक और प्रशासनिक सुधारों पर ध्यान नहीं दिया गया तो अंधनिश्वासों की गर्त में डूबे इस प्रदेश को बचाना मुश्किल होगा।

-प्रतिभा वाजपेयी






March 25, 2010

आप लोग अपने विचार दे कि क्यूँ ये सब हो रहा हैं ।

आज कल सुप्रीम कोर्ट / हाई कोर्ट के बहुत से जजमेंट आ रहे हैं
जैसे
समलैगिकता कानून अपराध नहीं हैं
लिव इन रिलेशनशिप कानून अपराध नहीं हैं
शादी से पहले दो व्यस्को के बीच सम्मति से बनाया गया यौन सम्बन्ध कानून अपराध नहीं हैं
नाबालिक कन्या का विवाह अपनी मर्जी से वैध करार
ससुराल ब्याहता क़ानूनी रूप से घर नहीं हैं


कुछ दिन पहले चिदंबरम जी ने कहा हैं कि अब रेप के कानून मे भी बदलाव किया जाएगा और यौन शोषण का अपराध दोनों स्त्री / पुरुष पर समान रूप से लागू होगा ।

इतने विविध निर्णय लेने के लिये क्या कारण हैंवो सब जो "भारतीये संस्कृति " को मान्य नहीं हैं "गैर क़ानूनी " नहीं रहा हैं क्यूँ ?? बहस का मुद्दा आज ये नहीं हैं कि इन निर्णय का दूरगामी नतीजा क्या होगा बल्कि बहस का मुद्दा ये हैं कि ये निर्णय क्यूँ लिये जा रहे हैं

आप लोग अपने विचार दे कि क्यूँ ये सब हो रहा हैं ।
*प्रयास से परिवर्तन संभव*
बहुधा हम अपने आस-पास गलत घटित ,लिखित,सुनी बातों या घटनाओं को पढकर-देखकर-सुनकर विचलित हो जाते हैं. हम जितना आगे बढ़ते हैं उतने ही कुछ लोग पीछे लोग धकेलने की कोशिश करते हैं. चाहे वो ब्लोगर्स हों ,पेपर्स में हों, या किसी की बातें हालाँकि इनकी संख्या ऊँगली पर गिनने वालों की रहती है. ये वे लोग होते हैं जो कुंठित रहते हैं या अपने आप में असफल रहकर निराश रहते हैं , हम इनको *मानसिक विकलांग* कह सकते हैं ,जो दूसरों को पीड़ा पहुंचाकर खुश होते हैं. हालाँकि ऐसी ओछी मानसिकता वाले लोग हमारे ही घर या बाहर कहीं भी हो सकते हैं. ये कुछ लोग अपने आप को श्रेष्ट साबित करने का कितना भी दंभ भरें इसकी कोशिश में वे स्वयं निम्न विचारों के बन जातें हैं. "तो इनको नजरंदाज न करके इनपर पैनी निगाह तो रखें " साथ ही अपने हक या अधिकार के लिए सदैव आगे बढें. अपने संकीर्ण विचार त्यागकर ,अपनी आवाज बुलंदकर कोई जुल्म या अत्याचार न सहें पर अपने धैर्य का परित्याग कभी न करें ,निराश न हों सदैव आशावादी द्रष्टि रहे स्वनिर्णय लेने की क्षमता रहे. अपना आत्मसंयम-अनुशासन हमें बड़ी से बड़ी समस्या, विकट कठिनाइयों व विपरीत परिस्थितियों में भी हमें आसानी से विजय दिलाता है. बस योजनाबध्द तरीके से अपने कार्य को करें.
NEVERDOUBT THAT A SMALL GROUP OF THOUGHTFUL ,COMMITED CITIZENS CAN CHANGE THE WORLD .
INDEED ITS THE ONLY THING THAT EVER HAS.
वर्त्तमान समय में हमारी *नवयुवा पीढ़ी* स्वयं स्फुटित ज्योतिपुंज स्वरुप बनकर सशक्त हो रही है। संपूर्ण चेतना से जागरूक ,चैतन्यशील व सुशिक्षित होकर अपना मार्ग निर्धारण करने का साहस बटोरकर निरंतर उज्जवल भविष्य की ओर अग्रसर होती जाती है.
जीवन के संघर्ष-कड़े रास्ते, कटु वचन-मानसिक या शारीरिक हिंसा भी उनको डिगा नहीं पाते बल्कि उत्क्रष्टता के मार्ग को प्रशस्त करते हैं ।

"योग्यता व सफलता" एक ही सिक्के के दो पहलू हैं ,"सफलता" के आकाश को विस्तृत करने के लिए अपनी "योग्यता" को निरंतर विकसित करते रहना आवश्यक है.
*बहुत विशाल होता है ख्वाहिशों का आसमां-----और उतना ही मुश्किल होता है ,हर इच्छा को साकार कर पाना ,लेकिन जब कुछ हासिल करने का जज्बा दिल में रहे नई राहें मिल जातीं हैं व मंजिलें करीब आ जातीं हैं आपके प्रयास से सफलता आपके कदम छूने को आतुर हो जाती है.*
हाँ निस्वार्थ भाव से हमें अपने भाई-बहिनों को भी पीछे न धकेलकर ,दुर्व्यवहार न कर उनकी योग्यता के अनुरूप सबको साथ लेकर सतत सहयोग को तत्पर होना होगा . हमारा प्रयास सार्थक होगा व जैसा परिवर्तन हम चाहते है अवश्य होगा . समय के साथ बदलना होगा ,स्वाभिमानी-स्वावलंबी-साहसी बनने के लिए समर्पित -संकल्पित यज्ञ की प्रगति में सहायक होना है.
*इस अँधेरी रात को हरगिज मिटाना है हमें. इसलिए हर खेत से सूरज उगाना है हमें.*
अलका मधुसूदन पटेल
*लेखिका व साहित्यकार*

March 24, 2010

मज़हब बड़ा है या इंसानियत...?

मज़हब ही सिखाता है, आपस में बैर रखना...आज जिस तरह दुनियाभर में मज़हब के नाम पर क़त्ले-आम हो रहा है, उसे देखकर तो यही लगता है...ईसाई-मुस्लिम और हिन्दू-मुस्लिम जंग और दंगे... अपने मज़हब को सर्वश्रेष्ठ साबित करने की मानसिकता के नतीजे हैं...

मज़हब के नाम पर लड़ने की बजाय अगर भूख, ग़रीबी, महामारियां और भ्रष्टाचार के खिलाफ़ संघर्ष करने में इतनी क्षमता और वक़्त का इस्तेमाल किया जाए तो यक़ीनन लोग जन्नत की कल्पना करना तक छोड़ देंगे, क्योंकि यह दुनिया ही स्वर्ग से सुन्दर हो जाएगी...

इस बात से क्या फ़र्क़ पड़ता है कि किसका मज़हब क्या है...हर बच्चे को अपनी मां ही दुनिया की सबसे श्रेष्ठ मां लगती है, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं हो जाता कि औरों की मां बुरी हो गईं या वो अच्छी नहीं हो सकतीं...यह मानव स्वभाव है कि उसे अपनी हर चीज़ अच्छी लगती है...

इसी तरह हर इंसान के लिए उसका मज़हब अच्छा है...रूढियां और कुप्रथाएं हर मज़हब में हैं, हिन्दू धर्म की यह विशेषता है कि इसमें तर्क किया जा सकता है और इसलिए इसमें सुधार की गुंजाइश है...इसी का नतीजा है कि भारत में सती प्रथा ख़त्म की गई...बाल विवाह, विधवा विवाह और तलाक़ जैसे मसलों को भी समाज के अनुकूल बनाया गया है...

हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी विशेषता...औरत को सम्मानजनक स्थान दिया गया है...यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता...यानी जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता वास करते हैं... अगर शिव की पूजा होती है तो साथ में पार्वती की भी होती है...इसी तरह राम के साथ सीता और कृष्ण के साथ राधा को भी पूजा जाता है...

काश! और मज़हब में भी सुधार की गुंजाइश होती...

किसी धर्म विशेष का होने से न तो कोई बुरा हो जाता है और न ही अच्छा...अच्छे-बुरे लोग सभी मज़हबों में होते हैं...अकसर (सभी के बारे में दावा नहीं ) लोग अपना उल्लू सीधा करने के लिए इस्लाम कुबूल करते हैं...यानि कानूनी झमेलों से बचने के लिए...जिसकी ताज़ा मिसाल हैं...हरियाणा के तत्कालीन उप मुख्यमंत्री चन्द्रमोहन बिश्नोई उर्फ़ चांद मुहम्मद और अनुराधा बाली उर्फ़ फ़िज़ा...जिन्होंने विवाह करने के लिए इस्लाम अपनाया...दिल्ली के प्रेस क्लब में दोनों ने दावा किया कि उन्होंने विवाह के लिए नहीं, बल्कि इस्लामी शिक्षाओं में आस्था रखते हुए इस्लाम कुबूल किया है...यह तो सभी जानते थे कि उनकी किस 'शिक्षा' में आस्था थी...ख़ैर, हुआ भी वही, बाद में चांद मुहम्मद बिश्नोईयों के पवित्र धाम मुक़ाम में जाकर वापस चन्द्रमोहन बिश्नोई बन गए और फ़िज़ा द्वारा चंडी मंदिर में विशेष पूजा करवाने का मामला भी सामने आया...अगर चन्द्रमोहन बिश्नोई ने इस्लामी शिक्षाओं से प्रभावित होकर इस्लाम क़ुबूल किया था तो इतनी जल्दी इस्लामी शिक्षाओं से क्यों उनका मोह भंग हो गया...?

सवाल कई हैं...आज हमें सोचना होगा... मज़हब बड़ा है या इंसानियत...? मज़हब इंसान के लिए है या इंसान मज़हब के लिए...? आखिर कब तब एक-दूसरे के मज़हबों का मज़ाक़ उड़ाया जाता रहेगा...? क्या दूसरे धर्मों की अच्छाइयों को अपनाया नहीं जा सकता...? क्या अपने समाज की बुराइयों को दूर नहीं किया जा सकता...?


आपसे तीन सवाल...

पहला सवाल...क्या हिन्दुस्तान में मुसलमानों में तलाक़ 'क़ुरआन' के हिसाब से होता है...? 'क़ुरआन' में हमने तो कहीं नहीं पढ़ा कि नशे की हालत में एक साथ तीन बार 'तलाक़' कह देने से तलाक़ हो जाता है...तलाक़ के मामले में हिन्दुस्तानी मुसलमान 'क़ुरआन' को क्यों ताक़ पर रख देते हैं...? क्या ऐसा करना 'क़ुरआन' की अवहेलना करना नहीं है...?

दूसरा सवाल...'क़ुरआन' में कहा गया है कि अपनी सभी पत्नियों के साथ समान बर्ताव करो...अगर ऐसा न कर सको तो बेहतर है कि एक ही निकाह करो...कोई मां भी अपने सभी बच्चों के साथ समान बर्ताव नहीं कर पाती...उसके बर्ताव में बाल बराबर भी फ़र्क़ भी आता है तो वो समान नहीं कहा जा सकता...(अगर उसूल की बात हो तो) फिर यह कैसे मुमकिन है कि कोई पुरुष अपनी सभी पत्नियों के साथ समान बर्ताव कर सकता है...? इसके बावजूद अनेक मुसलमान चार निकाह करते हैं...क्या यह 'क़ुरआन' की अवहेलना नहीं है...

तीसरा सवाल...इस्लाम के मुताबिक़ मां के पैरों के नीचे जन्नत है...फिर क्यों मांओं को यह कहकर ज़लील किया जा रहा है...कि औरतें सिर्फ़ बच्चे पैदा करने के लिए हैं...क्या यह बयान देने वाला व्यक्ति अपनी मां को शर्मिंदा नहीं कर रहा है...? क्या यह 'क़ुरआन' की अवहेलना करना नहीं है...?

'क़ुरआन' का पालन करो...पूरी तरह करो...

March 23, 2010

शर्म करो मुलायम सिंह

मुलायमसिंह ने लखनऊ में जो कुछ कहा उसे सुनकर मुझे तो यही लगा कि तथाकथित समाजवादी नेता का दिमाग चल गया है। ये खुद को गरीब और अकलियत का नेता कहते हैं। कहते है ये उनके हित के लिए महिला विल का विरोध कर रहे हैं। लेकिन जो विरोध ये कर रहे हैं और विरोध के लिए जिस भाषा का प्रयोग कर रहे हैं, ये भाषा सभ्य समाज की नहीं हैं। ऐसी भाषा तो गुण्डे-मवाली महिलाओं को धमकाने के लिए इस्तेमाल करते हैं। ये भी यही कर रहे हैं। अगर उद्योगपति घराने के पुरुष चुनाव लड़ते हैं तो ठीक है और अगर महिला चुनाव लड़ेगी, तो सांसद को सीटियां मारी जाएगी। कौन मारेगा सीटी, इन चुनी महिला सांसदों को, पुरुष सांसद ही न। तो क्या ये मान लिया जाए कि समाजवादी पुरुष एक पढ़ी-लिखी, सभ्य, सुसंस्कृत महिलाओं की संसद में आने की कल्पना तक बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। मुलायम सिंह अगर आपको संसद के चरित्र पर इतना संदेह है, तो आप अपनी बहू डिंपल को क्यों सांसद बनाना चाहते थे? माशाअल्लाह वे भी जवान हैं, खबसूरत हैं, पढ़ी-लिखी है और एक करोड़पति खानदान से ताल्लुक भी रखती हैं। ये तो अच्छा हुआ कि जनता ने उन्हें हरा दिया वरना आपके खानदान की तो इज्जत ही खतरे पड़ जाती।

आप उत्तर प्रदेश जैसे सूबे के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। आपके मुँह से ऐसी भाषा शोभा नहीं देती। अपनी उम्र नहीं तो पार्टी का तो ख्याल रखिए, लोहिया जैसे महापुरुषों का नाम जुड़ा हुआ है आपकी पार्टी से। मुझे दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि लोहिया जी अगर आज जिंदा होते और आपके मुख से महिलाओं के प्रति इस तरह की भाषा का प्रयोग सुनते, तो शायद जिस तरह आज कनु सान्याल ने नक्सल आंदोलन के भटकने की पीड़ा के कारण आत्महत्या कर ली, उसी तरह ही भटके समाजवादियों को देखकर वे भी आत्महत्या को बाध्य हो जाते।

वैसे ये भी सच है कि अब आपकी पार्टी में कोई लोहिया वादी नहीं है। सब सत्ता के भूखे लोग है, जो पुरुष प्रधान समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं। और समय-समय पर भिन्न-भिन्न मुखौटे ओढ़ कर सत्ता का शिकार करते हैं। आपको किसी महिला की कोई चिंता नहीं हैं। फालतू के ढोग बंद करिए और लालू की तरह साऱ-साफ कहिए कि आपको पुरुष प्रधान सत्ता के खोने का भय सता रहा है। और अगर ये सच नहीं है तो आप अपनी पार्टी का टिकट अपनी मर्जी से किसी भी जाति, धर्म और वर्ग की महिलाओं को दे सकते हैं। भला किसने आपका हाथ रोका है।

एक तरफ आप गरीब, अनुसूचितजाति और जनृजाति की महिलाओं की बात करते हैं और दूसरी तरफ चुनाव के समय आपको जयाप्रदा जैसे ग्लैमरस चेहरों की जरूरत पड़ जाती है! जब इन लोगों को आप संसद भेज रहे थे तो आपको ख्याल नहीं आया कि आपका कोई भाई-बंधु इन्हें भी सीटी मार सकता है। विचारधारा में ऐसा दोगलापन क्यों?

शर्म करो मुलायम सिंह आप भी बहू-बेटियों वाले हो। महिलाओं को सीटी मारने वाले अमीर और गरीब का भेद करते वे सब को सीटी मारते हैं, क्योंकि सीटी मारना उनकी चरित्रगत कमजोरी है, कहीं इस उम्र में आकर ....।

महिलाओं से छेड़छाड़ एक सामाजिक समस्या है। हम तो सोचते थे कि हमारे नेता ऐसे लोगों के प्रति कुछ कड़े कानून बनाएंगे ताकि महिलाएं घर से बाहर खुद को सुरक्षित महसूस करें, पर यहां तो संसद में ही उनकी सुरक्षा पर सवाल खड़ा हो गया है। तो ऐसे में हमें क्या करना चाहिए? चुनाव के समय ऐसे नेताओं कचरे के डिब्बे में डम्प कर देना चाहिए, ताकि इनकी औकात ही न रहे की ये महिलाओं के लिए अनाप-शनाप भाषा का प्रयोग कर सकें।

-प्रतिभा वाजपेयी

March 22, 2010

ये पोस्ट केवल एक जरुरी सूचना के लिये हैं

जिन लोगो ने अपने मोबाइल नंबर ब्लॉग या नेट पर सार्वजनिक कर रखे हैं वो सावधान रहे क्युकी एक वेबसाइट पर मात्र १० डॉलर का शुल्क जमा करके ऑन लाईन अस ऍम अस भेजे जा सकते हैंउसमे किसका भी मोबाइल नंबर भेजने वाले मोबाइल कि जगह दिया जा सकता हैं और वो नंबर आप का भी हो सकता हैं
आप के नंबर से अश्लील अस ऍम अस या आंतक फेलाने वाले अस ऍम अस भेजे जा सकते हैं बिना आपकी सूचना के

सावधानी रखने मे फायदा हैं क्युकी तकनीक के अपने फायदे और नुक्सान होते हैं

क्या मुस्लिम औरतों को इसी तरह बेइज्ज़त होते रहना होगा...?

देश के एक वरिष्ठ पत्रकार से बात हुई... बात दुआ सलाम के बाद महिला आरक्षण और फिर शिया धर्म गुरु कल्बे जव्वाद के शर्मनाक बयान पर आकर रुक गई... वरिष्ठ पत्रकार महोदय ने हमारी प्रतिक्रिया जाननी चाही...

हमने कहा- कौम के लिए इससे ज़्यादा डूब मरने की बात क्या होगी कि कल्बे जव्वाद जैसा व्यक्ति मुस्लिम औरतों के बारे में सरेआम बेहद शर्मनाक बयान दे रहा है और मुस्लिम मर्द तमाशा देख रहे हैं...आख़िर कोई अपनी मां, बहन और बेटियों की इस 'बेइज्ज़ती' पर खामोश कैसे रह सकता है...? क्या लोगों की ग़ैरत मर चुकी है...? क्या मुस्लिम औरतों को हमेशा इसी तरह बेइज्ज़त होते रहना होगा...?

-फ़िरदौस ख़ान

March 21, 2010

दोनों कि मुस्कुराहट ने वो सब कह दिया जो शब्द कभी बयान नहीं कर सकते

दोनों कि मुस्कुराहट ने वो सब कह दिया जो शब्द कभी बयान नहीं कर सकते


WITH FLYING COLOURS: A woman cadet celebrates with her grandmother during the passing-out parade at the Officers Training Academy in Chennai on Saturday

दिल्ली विश्विद्यालय दीक्षान्त-समारोह मे लडकियां नयी बुलंदियों पर

दिल्ली विश्विद्यालय दीक्षान्त-समारोह मे लडकियां नयी बुलंदियों पर १८४ मेडल मे से १३८ मेडल लड़कियों ने जीते एक नयी पीढ़ी तैयार होगई हैं पढी लिखी महिला कीइस उपलब्धि पर सभी विजेताओ को बधाईसमाचार विस्तार से नीचे पढे और अपनी बेटियों को शिक्षित करेउनको अवसर दे की वो अपनी योग्यता सिद्ध कर सकेमिले हुए हर समान अवसर मे वो निरंतर अपनी योग्यता का झंडा फेहरा रही हैंफक्र करे की आप एक बेटी के अभिभावक हैं और उसकी योग्यता को बेटे का परियाए ना माने



A record 485 Ph.D. degrees awarded in 71 subjects; over 67,000 degrees conferred
- Photo: Shiv Kumar Pushpakar

Winners' DAY: Delhi University Vice-Chancellor Deepak Pental (above) presenting a doctorate degree to Kavita Venkataraman and (right) Shikha Gupta proudly showing her various medals and certificates at the Convocation in Delhi on Saturday.


DU Convocation shows women on top

NEW DELHI: Shikha Gupta's eyes sparkled with excitement as she juggled her multiple certificates and gold medals. It was the 87 {+t} {+h} Annual Convocation of Delhi University on Saturday at which Shikha received a grand total of seven awards for excelling in a subject that many dread -- Mathematics.

Buoyed with joy, Shikha said: “I received five gold medals and two prizes for my performance in M.Sc. Mathematics. During my undergraduate days at Kirori Mal College my teachers helped me a great deal .”

Currently pursuing her M.Phil. in Mathematics with plans for a Ph.D., Shikha received the M. Makhan Lal Gold Medal, Prof. Ram Behari Medal, Shri Ram Chandra Memorial Medal, J. N. Mitra Memorial Medal, Prof M.C. Puri Memorial Gold Medal, Lala Banarsi Dass Charity Trust Prize and Kumari Rajeshwari Razdan Memorial Prize.

Shikha has earlier received three gold medals and a prize for her performance in B.Sc. Maths (Honours).

It was a joyous occasion for many others too who converged in robes of yellow and red to receive their certificates, prizes and medals.

The Convocation saw over 67,000 degrees being conferred on students for 2008-09 including those who have lately become entitled to degrees. A record 485 Ph.D. degrees were awarded in 71 subjects. Apart from the Ph.D. degrees and some other degrees, the rest were conferred in absentia.

Toppers in different courses and subjects were awarded 184 medals and prizes of which women bagged a sizeable chunk of 138. Three medals were constituted reportedly for the first time for disabled students of which two were awarded. No candidate was reported to have qualified for the third medal.

Also for the first time, the convocation was transmitted through the website www.du.ac.in and broadcast live on the DU Community radio 90.4 Mhz. Plasma screens were placed near the venue.

Delivering the Convocation Address, Principal Scientific Adviser to the Union Government Dr. R. Chidambaram, who was the Chief Guest, said: “Delhi University has a great tradition and many great scientists and academicians have taught here. In terms of its academic excellence and research quality DU continues to be among the top few universities in India.”

Lauding academic initiatives undertaken by DU, Dr. Chidambaram said: “As we reach global standards in more and more frontier areas of science, the need for large-scale development of young human resource in science and technology areas will become imperative and universities should gear themselves up for this task.”

Speaking about the problem of attracting and retaining talent in basic sciences, Dr. Chidambaram suggested beginning five-year integrated courses in pure sciences. He said other fields besides science too had to attract and retain talent.

The Vice-Chancellor, Prof। Deepak Pental, presided over the ceremony.


न्यूज़ साभार Urvashi Sarkar

March 20, 2010

बेटी को किस मकसद से गोद लेते है?

आज के दैनिक भास्कर अख़बार में इंदौर संस्करण में खबर है "पहली पसंद है बेटियां "७० प्रतिशत लोग बेटियों को लोग दत्तक ले रहे है |साथ ही ये भी लिखा है कि वास्तव में सामाजिक व्यवस्था तहत लोग कन्या दान करने कि इच्छा पूर्ती करने के लिए भी निराश्रित बालिका को बेटी बनाते है |
और कुछ निराश्रित बालिका आश्रमों के आंकड़े दिए है |"लोगो को लगता है बेटे कि तुलना में बेटियां ज्यादा अच्छे से ख्याल रखती है "
गोद लेने में भी तोल मोल ,नफा नुकसान ,लिंग भेद के आधार पर मुझे कुछ अटपटा सा लगा |
बेटी को गोद लेना गर्व कि बात है कितु उपरोक्त कारणों से गोद लेते है तो मेरे विचार से यह नया ही तरीका है शोषण का ?
आप क्या कहते है?

प्रतिभा का आलेख जनसत्ता मे --- बधाई

आभार

March 19, 2010

अश्लील विज्ञापन के विरोध मे आपत्ति

जो लोग भी किसी अश्लील विज्ञापन के विरोध मे आपत्ति दर्ज करना चाहते हैं इस लिंक पर जा कर कर सकते हैं
advertising Standards Council of India

उड़ान

बादलों से कह दो
कि अगर देखनी है हमारी उड़ान
तो अपना कद बढ़ा लें
हम पंखों से नही ,हौसलों से उड़ान भरते हैं

......सच ही है कि आज कि नारी का विश्वास , साहस ही उसकी पहचान है , उसकी उड़ान निहित है मन कि शक्ति में .....मेरी नजर में येही सही नारीवाद है ...

अश्लील विज्ञापन एक समाधान क्युकी हम थानेदार हैं !!!!!!

अनिल पुसदकर के ब्लॉग पर एक जंग छिड़ी दिखती हैं अश्लील विज्ञापनों के खिलाफ । सार्थक ब्लोगिंग का ये रूप बहुत अच्छा लगता हैं लेकिन वही पर आये कमेन्ट उस पोस्ट के मंतव्य यानी अश्लीलता को ख़तम करने कि बात से एक दम उल्ट हैं ।

लड़की,बिकनी और समुद्र का सीमेन्ट से क्या लेना-देना? अब इस पोस्ट पर आये कमेन्ट लीजिये

Ajay Tripathi said...

लड़की वो भी बिकनी मे समझ मे नही आया उसे दिखा कर सेल कैसे प्रमोट हो सकती है अनिल भय्या आप तो महिलायों खास कर लडकियों के शुभ चिन्तक और प्रेमी रहे है और आपको तो इसके सोंदर्य पर चर्चा करनी चाहिए आप कहा इस लफड़े में पड़े है आज की महिलायों को आप सिखाने जायेगे और वो दकियानूस कहेगे शायद आप ..........................तो छत्तीसगढ़ और प्रदेश के सीमेंट निर्माता संघ की कोटरी को अच्छे से जानते है जिसने जनता की चुनी सरकार को खरीद कर जनता के साथ द्रोपदी जेसा चीरहरन करते हुए रेट पर रेट बढ़ाये पड़े है और हम मूकदर्शक

या इस पोस्ट पर

लड़कियां मोबाईल का प्लान नही है टाटा सेठ जो चाहे रोज़ बदल लो!

राज भाटिय़ा said...

ऎसे विज्ञापन पर लोग कयो नही एतराज करते, ओर ब्लांग कि कुछ खास नारिया जो अपने आप को ब्लांग की ओर नारियो की ठेके दार समझती है वो क्यो नही ऎसे मामलो पर बोलती?? जो सभी ब्लांग पर थाने दारो की तरह घुमती फ़िरती है.... अगर हम सब इन बातो का बिरोध करे तो किसी की हिम्मत नही हो सकती ऎसे विज्ञापन दिखाने की.
आप ने इस ओर ध्यान दिलाया, आप का बहुत बहुत धन्यवाद

क्या हैं ये मानसिकता जो महिला के प्रति जब भी कहीं कुछ लिखा जाता हैं उस मे भाषा का । पुरुष अगर कुछ समझये तो वो उसका नैतिक अधिकार हैं और अगर हम अपने ब्लॉग के माध्यम से कमेन्ट के माध्यम से आपत्ति दर्ज करे तो वो मुद्दे को भटकाना हैं और सद-भावना से कही बातों को गलत दिशा में ले जाना हैं !!!


ख़ैर आप सब कि जानकारी के लिये बता दूँ किसी भी अश्लील विज्ञापन के खिलाफ आप कहाँ अपनी आपत्ति दर्ज करा सकते हैं ,

आप को इस लिंक पर जा कर Advertising Standards Council of India कि साईट पर अपनी शिकायत दर्ज करानी हैं । जितनी ज्यादा शिकायत दर्ज होगी उतना ज्यादा जल्दी वो विज्ञापन हटाया जायेगा ।
और हाँ वहाँ आप को नियमो की भी जानकारी मिल जायेगी । उनको पढ़ कर ये भी साफ़ हो जाएगा कि किस विज्ञापन के खिलाफ वाकयी शिकायत दर्ज भी लिख जासकती हैं या नहीं ।

किसी भी विज्ञापन मे काम कर रही महिला के प्रति असहिष्णु होने से पहले ये जरुर सोचे कि वो मात्र एक मोडल हैं और ये भी कि किसने सिखाया हैं नारी को कि वो अपने शरीर को जरिया बना कर पैसा / रोजी रोटी कमा सकती हैं । कौन पढता हैं प्ले बौय मैगजीन , कौन देखता हैं एफ टी वी और कौन लेता हैं किंग फिशेर कैलेंडर , कौन सा वर्ग हैं ??

अब आप थानेदार कहो , जमादार कहो या जो भी नाम देना हो दो कोई फरक नहीं पड़ता क्युकी हमारा मकसद साफ़ हैं हम ब्लॉग पर नारी के प्रति असहिष्णुता और निर्मम व्यंगो को ऊपर लाकर पारदर्शिता कायम करते रहेगे ।

आप कि तरह हम कहते कुछ हैं करते कुछ हैं मे विश्वास नहीं करते विद्रूपता और अश्लीलता अगर और माध्यमो मे हैं और आप ब्लॉग पर लिख कर उसको दूर करना चाहते हैं तो पहले ब्लॉग पर से तो उसको हटाये ।और वैसे हर एक के लिये अश्लीलता अलग अलग होती हैं क्युकी नैतिकता हमेशा सामाजीक होती हैं कभी व्यक्तिगत नहीं होती !!!! अगर ऊपर लिंक मे दी हुई जैसे पोस्ट कोई महिला लिखती तो अब तक उसके खिलाफ हिंदी ब्लॉग जगत मे फतवा दे ही दिया गया होता और वहाँ स्माईली कि बहार हैं क्युकी पुरुष जो भी लिखे वो सब जायज और ठीक हैं और उसको बर्दाश्त करना औरत कि नियति हैं ।

नहीं करुगी , निरंतर लिखुगी हर फतवे के बाद भी हर व्यंग के बाद भी

आशा हैं आप सब अश्लील विज्ञापनों के खिलाफ एक जंग अब सही तरीके से छेड़ सकेगे । हम आप का रास्ता इतनाआसान तो कर ही सकते हैं हर समस्या का कोई ना कोई समाधान होता हैं और वही समाधान खोजे , समस्या को बार ना बताये । क्युकी समाधान खोजने मे समय लगता हैं सो वो समय निकले और ब्लोगिंग पर औरो को भी उस समाधान से अवगत कराये ।



March 16, 2010

इसके आगे कुछ और लिखा जा सकता हैं क्या ??

जेल से छूटने के बाद उसने दुबारा उसी लड़की का बलात्कार किया

इसके आगे कुछ और लिखा जा सकता हैं क्या ??

क्यूँ नहीं

इस बार उसकी पत्नी ने भी उसका साथ दिया

अब आप कहे

दिमाग का दिवालियापन दर्शाती कहानी - सारंगी


वनिता के 2010 के अप्रैल अंक में 92 पेज पर एक कहानी छपी है। कहानी का शीर्षक है सारंगी। लेखिका है डॉ. सुषमा श्रीराव। यह कहानी स्त्री के चरित्र का अतिरंजनापूर्ण चित्रण करती है। लेखिका अपनी अपनी महिला पात्र से वह सब कुछ करवाती और कहलवाती है जो एक सामान्य व्यक्ति कर ही नहीं सकता। पात्र अत्यन्त दार्शनिक है...सुख-दुख से परे है...वह अपने परिवार का एक मात्र सहारा है, पर परिवार उसे हमेशा प्रताड़ित करता रहता है.....लड़के आवारगी करते हैं....बहुएं घर का कोई काम नहीं करती....पर सारंगी अपने दार्शनिक अंदाज में घर में सुख-शांति बनाए रखने के लिए सबकुछ झेलती रहती है... कहानी में बहुत सारे झोल हैं.... लेखिका के अनुसार सारंगी घर का संडास धोने वाली पीडब्ल्यूडी की अदना सी कर्मचारी है। वह धारावी में रहती है और चर्चगेट काम करने जाती है। वह 40 फ्लैटों के फ्लोर झाड़ना, कचरा फेंकना और बाथरूम रूम धोने का कार्य करती है। यह कहते है वह यह भूल जाती है कि धारावी से चर्चगेट कैसे पहुँचा जाता है....क्योंकि उसने अपने पात्र को लोकल ट्रेन से सफर करवाया है तो चलिए हम भी लोकल ही पकड़ते हैं। धारावी से लोकल का निकटस्थ स्टेशन सायन है। जहां तक पहुँचने में कम से कम 10 मिनट लगते हैं, वहां से दादर आने में 15 मिनट। वह दादर सेंट्रल में उतरेगी....वहां से दादर का पुल पार करके पश्चिम में जाएगी....सारंगी चूँकि सुबह आठ बजे की लोकल पकड़ती है....इस समय तक दादर में काफी भीड़ हो जाती है इसलिए यदि वह भागते-दौड़ते भी पुल पार करेगी, तब भी उसे कम से कम पाँच मिनट लगेंगे। और फिर वहां से चर्चगेट जाने में बीस से पच्चीस मिनट यानी कुल मिला कर लगभग एक घंटा में सारंगी चर्चगेट पहुँच जाएगी।
पहला प्रश्न तो यही उठता है कि एक सरकारी कर्मचारी लेखिका की गैर सरकारी नौकर कैसे बन गई....खैर जाने दीजिए कहानी है...लेखिका के मन की उड़ान वह अपने पात्र से कहीं भी काम करवा सकती है....इसलिए वह उससे 40 फ्लैटों के फ्लोरों को झड़वाती पुछवाती है....40 फ्लैटों का फ्लोर झाड़ना, कचरा फेंकना और बाथरूम धोना .....कितना भी फास्ट करे.....कम से कम तीस मिनट तो उसे एक घर को देने ही पड़ेगे..... यानी बीस घंटा प्रतिदिन वह अपने काम को देती है और एक-एक घंटा आने जाने का। कुल समय हुआ बाइस घंटा... बाकी के बचे दो घंटों में सारंगी खाती है, सोती है, दो नकारे बेटों के परिवारों के लिए खाना पकाती है, घर का सब काम करती है और लेखिका को अपना दुखड़ा भी सुना देती है.....एक सामान्य इंसान तो ऐसा नहीं कर सकता .....
सारंगी के अवकाश ग्रहण करने के बाद बेटों की नज़र उसके प्रॉविडेंट फंड पर है....सरकारी कर्मचारी भी उनका साथ देते हैं, लेकिन एक तारणहार की तरह लेखिका उसको भ्रष्ट सरकारी बाबुओं से बचा लेती है और सलाह देती है कि उसे अपने बेटों के खिलाफ पुलिस में शिकायत करनी चाहिए परंतु एक तथाकथित आदर्श भारतीय नारी का उदाहरण देते हुए सारंगी प्यार और शांति की बात करती है.....सारंगी की इस आदर्शवादी छवि के पलट नालायक बेटे उसके प्रॉविडेंट फंड को लेकर झगड़ा करते रहते है.... चिढ़कर सारंगी कहती है कि नहीं करूंगी घर तुम्हारे नाम...और न ही पैसे दूंगी.... क्या करोगे ज्यादा से ज्यादा मार डालोगे ना.... मार डालो...इस पर छोटा बेटा क्रूरता से हँसते हुए कहता है....मारूंगा नहीं तुम्हारा रेप कर दूंगा..!!!!!!!......लेखिका कहना क्या चाहती है कि जबतक औरत को बलात्कार धमकी न मिले .....उसकी बुद्धि के द्वार नहीं खुलते.....इसीलिए रेप की धमकी मिलते ही सारंगी वृद्धाश्रम जाने को बेचैन हो गई।
क्या भारतीय समाज इतना पतित हो गया है या सम्पत्ति का लालच इतना बढ़ गया है कि बेटों को मां को सम्पत्ति न देने पर बलात्कार की धमकी देनी पड़े.....लेखिका सारंगी को वृद्धाश्रम आश्रम भेजने का कोई तरीका भी ढूढ़ सकती थी.....वह अपने परिवार से परेशान थी... दुखी थी... परिवार उसकी सम्पत्ति हथियाना चाहता था.... बहुत सारे कारण हो सकते थे... उसके वृद्धाश्रम जाने के, अपनी सम्पत्ति आश्रम को दान करने के....इसके लिए रेप की बात करने कोई जरूरत नहीं थी....रेप दुनिया का औरत के प्रति किया जाने वाला सबसे घृणित अपराध है.....और बेटा मां के रेप की बात करे.....यह भारतीय समाज का तो चित्रण नहीं हो सकता....लेखिका किस समाज की बात कर रही है.....उसने इस तरह के समाज की कल्पना की तो कैसे की......मुझे उसकी घटिया सोच पर तरस आता है..... साथ तरस आता है संपादक महोदया की सोच पर ....जिन्होंने महिलाओं की लंबरदार बनने के लालच में ऐसी घटिया और अतिरंजनापूर्ण कहानी को अपनी पत्रिका में स्थान दे दिया....यह पत्रिका महिलाओं की हमदम, उनकी दोस्त बनने का दावा करती है.....लेकिन इस तरह की कहानियों के माध्यम से अपनी महिला पाठकों के लिए कौन सा आदर्श और संदेश परोस रही है!!!! इस तरह की कहानियों का प्रकाशित होना लेखक और संपादक दोनों के दिमागी खलल को प्रदर्शित करता है.....अगर वनिता अपने पाठकों को POSITIVE ENERGY नहीं दे सकती.....तो न दे....पर भगवान के लिए ऐसी अतिरंजनापूर्ण घटिया मानसिकता भी न परोसे .....इस तरह की कहानियों को वनिता का प्लेटफार्म मिलना दुखद है।
-प्रतिभा वाजपेयी

March 15, 2010

नारी ब्लॉग का दूसरा जन्मदिन याद दिला रहा हैं मकसद जिस को ले कर सब सदस्य साथ चले ।

हताशा के विमर्श से
अलग
सफलता
की कुछ
कहानियां
से शुरू
हुआ था
नारी
ब्लॉग जहां कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा ... हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह ।
नारी प्रतीक शक्ति का , नारी जननी , नारी माँ , नारी बेटी , ओ८ था पहल फिर ये नारी महसूस करे कि वह बन्धन मे हैं । अजीब paradox हैं । पर भारतीय समाज मे ऐसा ही हैं । हमारी कुछ मान्यताये हैं , कुछ परम्पराएं हैं जो सदियों से हैं इसलिये आज की "सोच" मे रुढ़िवादी होगई हैं । "आज की सोच " जो १९६० मे भी थी जब मैं पैदा हुई और १९९४ मे भी वहीं सोच थी जब मेरी भांजी पैदा हुई । मेरी माँ ने तब सुना था "अरे बेटी हुई , चलो पहली हैं कोई बात नहीं !! " और जब नातिन आयी तो उन्होने सुना " अरे नातिन आयी हैं । नाती हो जाता तो कम से कम कोई दाह संस्कार तो कर देता "!! । " आज की सोच " ३४ साल मे भी नहीं बदली । बेटी यानी एक सेकंड क्लास सिटिज़न . आज मेरी भांजी १४ साल की हैं और इकलौती शहजादी हैं क्योकि उसकी नानी को अपने दाह संस्कार की कोई फिक्र नहीं हैं !! ।
"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।


बदलते समय का आह्वान एक माँ की पाती बेटी के नामये पोस्ट बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योकि ये पोस्ट एक गृहणी , माँ की हैं जिसने अपनी जिन्दगी को रास्ता बना दिया अपनीबेटियों के लिये उसका प्रश्न था " क्यों वह मिसाल नहीं हैं , क्या उसने कुछ नहीं किया हैं " ? वह अनाम हो कर लिखना चाहती हैं नारी हैं वो भी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद के लिये ना सही अपनी बेटियों के लिये अर्जित की । जीया हैं उसने भी उन सपनो को जोउसकी आँख मे थे अपनी बेटियों की आँखों मे देखा है उसने सच होते हुए और आज उसकीबेटी की आंखो में सपना है अपनी माँ की किताब आने का ..आगे बढ़ने का ..जो समय बीतगया वह वापस नही आएगा पर जो संस्कार और ज़िंदगी से लड़ने का जज्बा उनकी माँ नेउन्हें दिया है वह अब सिर्फ़ उनकी ज़िंदगी को नई राह नही दिखायेगा बलिक माँ को भी जोज़िंदगी अभी बाकी है उस में उसके अनुसार जीने का मौका देगा ..यही आशा की चमक माँबेटी की आंखो में एक नई रोशनी भर जाती है .

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"नारी " निरंतर शक्ति का संचार करती रहेगी , कभी स्तन से उफनते दूध से तो कभी कलम की निकली स्याही से । कभी दुर्गा बनकर , तो कभी सरस्वती बनकर । कभी अम्बे तो कभी गौरी , कभी लक्ष्मीबाई तो कभी किरण बेदी , कभी मीरा तो कभी तसलीमा , कभी इंदिरा तो कभी बेनजीर । अनेको रूप धरे निरंतर प्रगति के रास्ते पर अग्रसर

कल से नवरात्री शुरू हो रही हैं । नारी की पहली पोस्ट ०८ अप्रैल कि नवरात्रि की पहली तिथि पर आयी थी । सो हमने सोचा अग्रेजी कलेंडर को दरकिनार कर के हम हिन्दी तिथि से आज आप को सूचना दे दे की आज नारी ब्लॉग को दो वर्ष पूरे हुए
नारी ब्लॉग के सदस्यों के नाम की लिस्ट भी संलगन हैं क्युकीवो ना होते तो हिन्दी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग जहाँ केवल महिला ब्लॉगर , ब्लॉग पोस्ट करती हैं , भी ना होता । संवाद होता रहा , विवाद होता रहा , सदस्य आते जाते !!! रहे सो ये सूची आप भी देखे ।
सदस्यों को बधाई

सदस्य

सब को अपनी अपनी मंजिल ख़ुद पानी हैं । चलना जरुरी हैं और जरुरी नहीं हैं की एक लाइन मे ही चला जाये । महिला की लाइन का मतलब महिला के लिये अलग लाइन नहीं हैं महिला की लाइन का मतलब केवल बंधी बंधाई लाइन { लीक } हैं जिस पर महिला को चलना ही हैं या होता हैं । मेरा मतलब किसी आरक्षण या कानून से नहीं हैं बल्कि घिसी घिसाई मानसिकता से ऊपर उठ कर चलाना हैं । ये तो सब मानते हैं की महिला के लिये एक लाइन अभी भी बनी हैं .उस लाइन को तोड़ कर बराबरी की बात जो महिला करती हैं वही जिन्दगी मे आगे जाती । विद्रोह व्यक्ति या जाति से नहीं किया जाता हैं , विद्रोह किया जाता हैं समाज मे फैली रुढिवादिता से , दोयम फेलाने वाली मानसिकता से लेकिन किसी भी विद्रोह से पहले अपने पैरो के नीचे की जमीन को देखना जरुरी होता हैं । अगर आप के पैरो के नीचे दलदल हैं तो आप का विद्रोह आप के लिये ही हानिकारक होगा ।

नारी सशक्तिकरण यानी वूमन एम्पोवेर्मेंट मे सबसे जरुरी हैं की हर स्त्री अपने को आर्थिक रूप से स्वतंत्र करे । मेहनत करे और अपनी रोटी ख़ुद कमाए । सिर्फ़ और सिर्फ़ शिक्षा और आर्थिक स्वाबलंबन ही सदियों से जकड़ी औरत को आज़ादी दे सकता हैं ।

हर महिला को आज़ादी हो , अपनी सोच से ये तय करने के लिये वह क्या करना चाहती हैं । और आज़ाद वह होता हैं जो मन से आजाद होता हैं । समाज क्या हैं और कैसे बना हैं ? क्या व्यक्ति समाज को नहीं बनाता ? समाज के नियम देश और काल से बनते बदलते हैं । समाज की सोच समय के साथ बदलती रहती हैं और उस सोच को बदलने मे कुछ व्यक्तियों का ही हाथ होता हैं ।



ये एक बड़े फलक के सवाल है, और एक बड़ी ज़मीन, और बड़ा आसमान माँगते है लेकिन अगर सब अपने अपने हिस्से के सवालो के जवाब खुद खोजे तो उन्हे ज्यादा इंतज़ार नहीं करना होगा की कोई आएगा और उन्हे एक बड़ी जमीन दे जायेगा ।
समूह बनते हैं काम होते हैं समय लगता हैं , पर जिन्दगी बहुत छोटी हैं और कुछ लोग उस जिन्दगी को जीना चाहते हैं काटना नहीं इस इंतज़ार मे की एक दिन सब ठीक हो जायेगा । समाज मे उन व्यक्तियों की हमेशा आलोचना हुई हैं जो लीक पर नहीं चले .
जिस समाज मे औरत की आजादी को ये समझा जाता हैं की वह " आजाद ख्याल यानी स्वछंद हैं " उस समाज से लड़ने बेहतर हैं की हम अपने लेवल पर अपने को आज़ाद करे ।
महिला होने की वजह से मेरी सामाजिक भागेदारी केवल ५०% हैं और अगर मै उस ५०% मेरे अपने जीवन को सम्पूर्ण और सार्थक बना लूँ और किसी एक को भी और "जगा" सकूं तो हम २ नहीं ११ हैं ।
हम समाज से नहीं , समाज हम से हैं । घुटन से आजादी मिलती नहीं अर्जित की जाती हैं और उसे पाने के लिये पाने से पहले बहुत कुछ खोने के लिये भी तैयार रहना होता हैं ।
ग़लत को ना स्वीकारना ,सच बोलना , ग़लत को जानते हुए अपनी सुविधा अनुसार compromise कर लेना और बाद मे आत्म मंथन कर के समाज मे और समाज से स्वतंत्रता का आवाहन केवल एक लाइन पर चलना होता हैं , एक सोच पर चलना होता हैं।
अपनी समस्याओं को हल जो नारी ख़ुद खोज लेगी वो अपने को ही नहीं अपने साथ एक पूरे परिवार , एक पूरे समाज , एक पूरे देश को बदलने की ताकत रखती हैं । ताकत हमारे अंदर होती हैं बस उसको पहचानने की जरुरत हैं ।

समाज मे बदलाव तभी होगा जब समाज मे नियम सबके लिये बराबर होगे और नारी को निरंतर इस बात के लिये प्रगतिशील रहना होगा ।
नारी के प्रति हिंसा का हिस्सा मानती हूँ ,मै उन कमेंट्स को जिसमे नाम से या अनाम किसी भी महिला ब्लॉगर के लिये अप्शब्द होते हैं । जिस प्रकार से डोमेस्टिक वोइलेंस के ख़िलाफ़ आवाज उठाने के लिये आवाहन होता हैं मेरा भी सब से निवेदन हैं कहीं भी महिला के प्रति ग़लत कमेन्ट देखे आवाज उठाये और विरोध करे । समाज की रुढिवादी सोच को ब्लॉग पर ना पसरने दे । नारी कोई doormat नहीं हैं । गंदगी को साफ़ करना बहुत जरुरी होता हैं ताकि बदबू ना आये । नारी ब्लॉग पर मेरी यही कोशिश हैं की हिन्दी ब्लॉग जगत मे कहीं भी कोई भी अपशब्द किसी भी महिला के लिये ना हो । हमारे नज़रिये भिन्न हो सकते हैं लेकिन हर बहस पर जब बात से उत्तर कर नारी के वस्त्रो और शरीर पर आती हैं और गाली गलोज होती हैं तो वो किसी भी बलात्कारसे कम नहीं हैं और बलात्कार का दोषी केवल बलात्कारी ही नहीं होता वो सब लोग भी होते हैं जो इस बलात्कार को नहीं रोकते । सो आप सब से अनुरोध हैं इस हिंसा का हिस्सा ना बने और उसे रोके
अगर आप जानना चाहते हैं आपने इस ब्लॉग पर कब और कितनी टिपण्णी दी हैं तो साइड पट्टी मे अपने नाम को क्लीक करके देखे ।

नारी ब्लॉग का जन्मदिन याद दिला रहा हैं मकसद जिस को ले कर सब सदस्य साथ चले । अब किसने कितना उस मकसद को जिया और नहीं जिया तो क्यूँ नहीं जिया ये मै सदस्यों के ऊपर ही छोड़ देती हूँ । व्यक्तिगत रूप से मेरे लिये वो पल बहुत खुशी का होता हैं जब कोई भी महिला मेल भेज कर ब्लॉग से अपने को जोड़ना चाहती हैं ।

जिस पाठक ने भी इस ब्लॉग पर कमेन्ट किया हैं उसको आज थैंक्स कह कर मै नारी ब्लॉग का जन्मदिन
मना रही हूँ । मेरी खुशी मे हिस्सा बांटने का वक्त हैं आप सब को निमन्त्रण हैं ।

थैंक्स आप सब को


दो साल मे तक़रीबन ६०००० लोगो ने इस ब्लॉग को पढ़ा हैं और २०४ लोग निरंतर फोल्लो करते हैं

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March 13, 2010

हे ईश्वर इन्हें माफ़ करना...

शिया धर्म गुरु कल्‍बे जव्‍वाद का यह बयान बेहद शर्मनाक है कि महिलाएं सिर्फ़ बच्‍चे पैदा करें, राजनीति उनका काम नहीं है. जिस समाज के 'ठेकेदार' ऐसे (तुच्छ मानसिकता वाले) हों, वह समाज किस दिशा (गर्त) में जाएगा, कहने की ज़रूरत नहीं.

हालांकि महिला आरक्षण विधेयक को लेकर अनेक गैर मुस्लिम लोग पिछड़ी महिलाओं के साथ ही मुस्लिम महिलाओं के लिए भी आरक्षण की बात कर रहे हैं, लेकिन वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं (हे ईश्वर इन्हें माफ़ करना, यह नहीं जानते कि...यह क्या कर रहे हैं...? (कब मज़हब के ठेकेदार इन नेताओं को इस्लाम का दुश्मन क़रार देकर इनके ख़िलाफ़ फ़तवा जारी कर दें, कहा नहीं जा सकता).

कुछ हिन्दू भाइयों ने कल्‍बे जव्‍वाद के बयान पर प्रतिक्रिया जताते हुए हैरत ज़ाहिर की है कि किसी भी मुस्लिम संगठन ने मुस्लिम महिलाओं के बारे दिए गए शर्मनाक बयान के ख़िलाफ़ आवाज़ नहीं उठाई... हैरत इस बात की भी है कि हिन्दू भाई अब तक भी नहीं समझे कि "इस्लाम के 'प्रचारक' सिर्फ़ यह बताने का बीड़ा उठाए हुए हैं कि मुस्लिम औरतों को मारना-पीटना मर्दों का 'नैतिक अधिकार' है, मर्दों को चार-चार औरतें रखने की 'विशेष सुविधा' है, और पत्नी 'भोग की सर्वोत्तम वस्तु' (यानि पति की अर्धांगिनी नहीं) है...

-फ़िरदौस ख़ान

महिलाओं ने जीती एक और जंग

आरक्षण पर शुरुआती किला फतह करने के बाद शुक्रवार को महिलाओं ने एक और जंग जीत ली। सेना में स्थायी कमीशन देने को लेकर जारी भेदभाव के खिलाफ लड़ाई में महिलाओं ने विजय श्री हासिल कर ली है। दिल्ली हाईकोर्ट ने सैन्य सेवा में महिलाओं को स्थायी कमीशन देने का सरकार को आदेश दिया है। कोर्ट के अनुसार, 2006 से पहले सेना में भर्ती महिलाओं को स्थायी कमीशन प्रदान किया जाए। हाईकोर्ट ने सेना में भर्ती में महिला-पुरुष लिंगभेद पर सरकार को कठघरे में खड़ा किया है। अपने ऐतिहासिक फैसले में हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार को निर्देश दिया है कि वह भविष्य में सैन्य सेवाओं की भर्ती व नौकरियों में लिंगभेद की नीति न अपनाए।

गौरतलब है कि 2006 से पूर्व भर्ती महिलाओं को स्थायी कमीशन न देकर 14 साल के बाद उन्हें नौकरी से रिटायर कर दिया जाता है। जबकि पुरुष व महिलाओं की भर्ती पहले शार्ट सर्विस कमीशन के माध्यम से ही होती थी। पांच साल बाद पुरुषों को स्थायी कमीशन दे दिया जाता था, जबकि महिलाओं को शार्ट सर्विस कमीशन में ही रखकर 14 साल बाद रिटायर कर दिया जाता है। करीब 60 मौजूदा व पूर्व महिला सैन्य अफसरों ने इस नीति के खिलाफ कोर्ट में याचिकाएं दायर कर रखी थी। जिसमें सरकार पर स्थायी कमीशन देने के नाम पर भेदभावपूर्ण नीति अख्तियार करने का आरोप लगाया गया था।

सेवारत एवं सेवानिवृत्ता महिला अधिकारियों की याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए जस्टिस संजय किशन कौल की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह फैसला सुनाया है। हाईकोर्ट ने बीते 14 दिसंबर को इन याचिकाओं पर फैसला सुरक्षित रखा लिया था। याचिका में सशस्त्र सेनाओं में पुरुष अधिकारियों की तरह ही महिला सैन्य अधिकारियों को भी स्थायी कमीशन प्रदान करने संबंधी निर्देश दिए जाने की मांग की गई थी। यह भी कहा गया था सुनहरे भविष्य का सपना दिखा उन्हें भर्ती किया जाता है और 14 साल बाद रिटायर कर दिया जाता है।

फैसले में पीठ ने कहा है कि वह सरकार की नीति में हस्तक्षेप नहीं करना चाहती। लेकिन सरकार ने जो नीति बना रखी है, उसमें लिंगभेद नहीं बरती जानी चाहिए। हाईकोर्ट ने कहा कि ऐसी महिलाएं जिन्होंने कोर्ट का दरवाजा खटखटाया है और वे जो सेवानिवृत्ता हो चुकी है, उन्हें फिर से बहाल कर स्थायी कमीशन दिया जाए। पीठ ने सरकार से महिला सैन्य अधिकारियों को सभी प्रकार के अनुवर्ती लाभ मुहैया कराने को भी कहा है। कोर्ट ने दो महीने के अंदर फैसले पर अमल करते हुए याचिकाकताओं को सुविधाएं देने को कहा है।

कोर्ट ने माना कि 2006 में सरकार ने जो नई नीति बनाई है, वह तो ठीक है। किंतु इससे पहले तो कोई नीति ही नहीं थी। इससे पूर्व सैन्य सेवाओं में भर्ती हुई महिलाओं को 14 साल बाद रिटायर कर दिया जाता था। यह भेदभाव ठीक नहीं था।

ध्यान रहे कि 2006 के बाद सरकार ने जो अधिसूचना जारी की है, उसके तहत महिला या पुरुष किसी को भी स्थायी कमीशन दिए जाने का प्रावधान नहीं है। इसलिए कोर्ट ने सरकार की इस पालिसी पर कोई टिप्पणी नहीं की है। याचिका में इस नई पालिसी को भी रद करने की मांग की गई थी। किंतु उनकी इस मांग को ठुकरा दिया गया।

संघर्ष ने भरी सफलता की 'उड़ान'

वायुसेना में शुरुआती पांच साल के करियर में उनके प्रदर्शन को सभी ने सराहा। अधिकारियों ने उनकी खूब तारीफ की। मेडल दिए गए और सर्टिफिकेट भी। साथ ही एक झटका भी। उन्हें कहा गया कि वह अब आगे काम नहीं कर सकती। मन ही मन सोचा जब मैं पुरुषों से बेहतर कर सकती हूं तो फिर आगे बढ़ने से क्यों रोका जा रहा है। आला अधिकारियों से लेकर चीफ तक से इस पर प्रश्न पूछा, लेकिन जवाब किसी ने नहीं दिया। अंत में हाईकोर्ट की शरण ली। रिटायरमेंट के बाद थकी नहीं, अपने संघर्ष को जारी रखा। नतीजा आज सेना में काम करने वाली महिलाओं को स्थायी कमीशन देने के रूप में सामने आया। इस नतीजे से वह बहुत खुश हैं। वे इसे महिला अधिकारों की जीत मानती हैं। उन्हें उम्मीद है कि महिलाओं को अब कांबेट ट्रेनिंग में भी लिया जा सकेगा।

बात हो रही है देहरादून में रहने वाली विंग कमांडर अनुपमा जोशी की। जिन्होंने सेना में रहते हुए महिला अधिकारियों के अधिकार की आवाज बुलंद की और अपने संघर्ष को अंजाम तक पहुंचाया। अनुपमा जोशी का 1992 में एयर फोर्स में पहली महिला अधिकारी के रूप में चयन हुआ। इसके बाद वह अपनी मेहनत और जज्बे के बल पर आगे बढ़ती रही। पहले पांच साल की सर्विस के बाद उन्होंने आवाज उठाई तो उन्हें तीन साल और फिर तीन साल का एक्सटेंशन मिला। हर बार टुकड़ों में मिल रहे एक्सटेंशन से वह खिन्न आ गई। उन्होंने 2002 में इसके लिए अपने सीनियर अधिकारियों से लिखित में जवाब मांगा। यहां से कोई जवाब न मिलने पर वायु सेना प्रमुख को पत्र लिखकर जवाब मांगा। कहीं से कोई जवाब नहीं आया तो फिर उन्होंने इसके लिए कोर्ट में मुकदमा करने की ठान ली। 2006 में उन्होंने अन्य महिला अधिकारी के साथ कोर्ट में याचिका दर्ज की। ऐसा करने वाली वह पहली महिला अधिकारी थी। कोर्ट ने इस केस की सुनवाई में नई भर्तियों को स्थायी कमीशन देने का फैसला दिया, लेकिन सर्विग महिला अधिकारियों का फैसला नहीं हो पाया। 2008 में वह रिटायर हो गई, लेकिन उनका संघर्ष जारी रहा। इस बीच कुछ अन्य अधिकारियों ने भी सेना में तैनात महिलाओं को स्थायी कमीशन देने के लिए मुकदमा दायर किया। इस पर हाईकोर्ट ने एक संयुक्त सुनवाई ने महिला अधिकारियों के पक्ष में अपना निर्णय सुनाया है।

दोबारा कर सकती हैं सेवा

विंग कमांडर जोशी दोबारा वायुसेना को अपनी सेवाएं दे सकती हैं। विंग कमांडर अनुपमा जोशी कहती हैं कि कोर्ट ने याचिका में शामिल महिला अधिकारियों की सर्विस कंटीन्यू करने की बात कही हैं। ऐसे में उन्हें उम्मीद है कि दोबारा अपनी सेवाएं देने का मौका मिल सकता है।

महिला अधिकारियों में खुशी की लहर

नई दिल्ली। सेना में स्थायी कमीशन देने के कोर्ट के फरमान से महिला अधिकारियों की खुशी का ठिकाना नहीं है। उनका कहना है कि अब वे अपने पुरुष सहकर्मियों की तरह ही बगैर किसी भेदभाव के देश की सेवा कर सकती हैं।

कोर्ट में महिला अधिकारियों की ओर से पेश वकील रेखा पाली ने कहा कि यह एक बड़ी जीत है। महिलाओं को समानता का हक दिलाने वाले इस फैसले के लिए मैं कोर्ट की शुक्रगुजार हूं।

याचिकाकर्ता विंग कमांडर रेखा अग्रवाल ने खुशी जाहिर करते हुए कहा, 'मैं काफी खुश हूं। मैं फिर से काम पर जाऊंगी और राष्ट्र की सेवा करूंगी।' रेखा के मुताबिक, खुशी है कि आखिरकार महिलाओं को भी स्थायी कमीशन का अधिकार मिल गया। सेना में पहले महिलाओं को पुरुषों के समान अधिकार नहीं प्राप्त था, लेकिन इस फैसले से अब हमें भी वह सभी अधिकार मिल जाएंगे, जो पुरुष सैन्य अधिकारी को मिलते हैं। यह सचमुच महिलाओं की जीत है।

मेजर सीमा सिंह ने कहा, 'तीन वर्ष की लड़ाई रंग लाई। न्यायालय ने सेना में महिला अधिकारियों के साथ होने वाली असमानता को आखिर समझ लिया है।' उनका कहना है कि इस आदेश से न केवल मौजूदा अफसरों को ही फायदा होगा, बल्कि सेना ज्वाइन करने की सोच रहीं महिलाएं भी इससे उत्साहित होंगी।

याचिकाकर्ता अवकाश प्राप्त विंग कमांडर पुष्पांजलि ने कहा, 'हाईकोर्ट के फैसले ने हमारे दिल की मुराद पूरी कर दी है। यह हमारा हक था, जिसके लिए हम संघर्ष कर रहे थे। 14 साल की देश सेवा के बाद मुझे अवकाश दिया गया तो बहुत दुख हुआ था। ऐसे में हमने कोर्ट में याचिका दायर की और अपने हक के लिए संघर्ष शुरू किया।'

साभार : जागरण

आकांक्षा यादव

गरिमा कि पोस्ट जनसत्ता में


साभार

March 12, 2010

शादी और उपनाम


क्या महिलाओं को शादी के बाद अपनी उपनाम बदलना चाहिए? पढ़कर अजीब लग रहा होगा क्योंकि पारम्परिक रूप से दुनिया भर में शादी होने के बाद महिलाओं का कुल गोत्र वही हो जाता है जो उनके पति का है। इस परम्परा को निबाहने के मामले में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी एक है। महाराष्ट्र में तो शादी के बाद लड़की का उपनाम ही नहीं उसका नाम भी बदल दिया जाता है। यानी जो कुछ उसका पिछला है वह सब कुछ छोड़कर, वह पति के परिवार को अपनाती है।

समाज में जब यह परम्परा बनाई जा रही होगी, उस समय के समाज शास्त्रियों ने शायद यह नहीं सोचा होगा कि एक समय आएगा जब विवाह के इस अटूट बंधन में दरारे उभरेगी और तलाक जैसे शब्दों का जन्म होगा। ऐसा नहीं है कि उस युग में स्त्री-पुरुष के संबंध सदैव मधुर ही रहते होगें, पर उस समय स्त्री पति द्वारा परित्यक्त होती थी। उसे तलाक नहीं दिया जाता था। इसलिए एक बार जो पति को नाम उसके साथ जुड़ गया, वह आजीवन जुड़ा रहता था और इसमें दोनों ही पक्षों को कोई आपत्ति नहीं होती थी।

पर समय के साथ समाज बदला। उसकी रीति-नीति बदली। जब हर परिस्थिति में रोते-झीकतें पति के चरणों की दासी बनने से स्त्री ने इंकार किया तो तलाक के नियम, कायदे-कानून बने और स्त्रियों ने पति से अलग अपने अस्तित्त्व भी तलाश लिया, लेकिन व्यवहारिकता के तकाजे के कारण तलाक के बाद भी कुछ महिलाओं ने अपने पूर्व पति के उपनाम को नहीं छोड़ा। परंतु अब कुछ लोग इस पर आपत्ति उठा रहे है, उनका कहना है इस तरह वे अपनी पति के नाम का दुरुपयोग कर सकती हैं। इस तरह की बातें करने वालों की बुद्धि पर मुझे तरस आता है, क्योंकि तलाक पति-पत्नी की चरम कटुता का परिणाम होता है। इसके बाद उनके सरनेम क्या उनके नाम तक से घृणा हो जाती है। अगर उस नाम का कोई शख्स भी उनके इर्द-गिर्द हो, तो उलझन होती है। लेकिन हमारा सामाजिक ढाचा कुछ इस तरह का है कि महिलाओं को उनके प्रथम नाम से नहीं पुकारते। कोई न कोई पुछल्ला जरूर लगा देते है। वो चाहे पति के नाम का पुछल्ला हो या पिता के नाम का।

तलाक एक बहुत वैयक्तिक निर्णय होता है। और एक बार यह निर्णय ले सिए जाने के बाद स्त्री को कई फ्रंटों पर संघर्ष करना पड़ता है। उस समय उसके नाम के पीछे क्या सरनेम लगा है यह इतना महत्वपूर्प नहीं रह जाता। लेकिन आज के युग में आदर्श स्थिति तो यही होगी कि शादी के समय ही लड़की थोड़ी दृढ़ता का परिचय दे और और अपनी वैयक्तिता बरकरार रखते हुए जिंदगी का बाकी का सफर अपने मूल, कुल, गोत्र के साथ ही पूरा करें। जिससे आज जो समस्या स्मिता ठाकरे के सामने खड़ी है वो उनके सामने न खड़ी हो। स्मिता के पति बीस साल से उनसे अलग रहे है। इस दौरान कभी किसी ठाकरे ने उनसे ठाकरे उपनाम का प्रयोग करने से मना नहीं किया। अब बीस साल बाद उनपर इस बात का दबाव डाला जा रहा है कि वे महाराष्ट्र के ब्रांड नेम ठाकरे की तिलांजलि दे कर, अपने पूर्व सरनेम चित्रे को अपना लें। ऐसा न करने पर उद्धव में कोर्ट जाने की धमकी भी दी है। अगर वे ठाकरे न लिखकर चित्रे लिखने लगेगी तो क्या उनके व्यक्तित्त्व में कोई फर्क आ जाएगा? लोग तो उन्हें उसी रूप में जानेगें जिस रूप में वो उन्हें जानते हैं। वे तो जो है वही बनी रहेगी या ये जरूर संभव है कि इससे ठाकरे परिवार का अहम थोड़ा पुष्ट हो। जिसे पिछले दिनों काफी ठेस लगी है।

-प्रतिभा वाजपेयी

कुछ खबरे news clippings






your valuable reaction awaited write in Hindi or English but write and express your self openly on woman oriented issues and discuss them without the fear of what others will say . we are here to blog and we are here because we have a social issue on hands . blogging for me is a tool to share what i want to a woman oriented issue . its a platform given to me free of cost to share my views . i am not hear to change any one or myself i am here to create a awareness on gender bias to the best of my knowledge and capacity .

GENDER BIAS DOES EXIST and it exists in multiple forms and its there in every nook and corner of our society because its in our mind set .

social networking sites are there in plenty and blogging is different then them . woman who have the capability to make a difference should write what comes to mind .

March 11, 2010

कल एक पोस्ट पढी आप आज पढिये

दस वर्षीया बच्ची से दुष्कर्म के एक मामले में राजधानी की एक निचली अदालत ने अनोखा फैसला सुनाते हुए दुष्कर्मी को आदेश दिए कि वह पीड़िता के विवाह योग्य होने तक उसे प्रतिमाह पांच सौ रुपए गुजारा भत्ता दे। अदालत ने दुष्कर्मी चंद्रपाल को दस साल कैद तथा 11 हजार रुपए के जुर्माने की सजा भी सुनाई है। यह जुर्माना राशि भी पीड़िता को मुआवजा स्वरूप दी जाएगी।

कड़कड़डूमा के एडिशनल सेशन जज गुरदीप सिंह की अदालत ने इस अहम फैसले को सुनाते हुए कहा कि भारत में देवियों के रूप में पूजी जाने वाली औरतों के साथ ही दुष्कर्म जैसे अपराध घटित हो रहे हैं। इस कृत्य से न केवल महिला शारीरिक रूप से आहत होती है, बल्कि उसे आत्मिक तौर पर भी गहरी ठेस पहुंचती है। हादसे का असर पूरी उम्र उसकी जिंदगी को प्रभावित करता है। इस तरह के अपराध को करने वाले मुजरिम को कठोर सजा मिलनी ही चाहिए।

इस मामले में अभियोजन पक्ष ने अदातल को बताया था कि करावल नगर क्षेत्र में रहने वाले सतीश (बदला हुआ नाम) ने थाने में मामला दर्ज कराया था कि उसकी दस वर्षीय बेटी 16 मई 2009 की दोपहर को छत पर स्थित शौचालय में गई थी।

इस दौरान चंद्रपाल ने उसके साथ दुष्कर्म किया। लड़की की चीख पुकार सुनकर एक पड़ोसन छत पर पहुंची थी और उसने अभियुक्त को यह कृत्य करते हुए देखा। इसके बाद चंद्रपाल वहां से भाग निकला था, जिसे बाद में पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। अदालत में चंद्रपाल के खिलाफ पेश किए गए गवाहों और साक्ष्यों के आधार पर अदालत ने उसे यह सजा सुनाई।

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