नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

March 31, 2011

वेदों में कन्यादान शब्द नहीं है तो कहा से आये ये शब्द

 एक आम आदमी धर्म का जानकर नहीं होता है उसे तो जो पंडित जी लोग बता दे की वेदों पुराणों में यही लिखा है तो वो उसे ही मान लेता है | किन्तु समय समय पर कुछ  लोग पंडितो और स्वघोषित वेदों पुराणों के जानकारों की बातो को नकारते रहते है | अब देखिये कमला भारद्वाज जी और बल मुकुंद जी क्या कह रहे है उनके अनुसार तो वेदों में कन्यादान शब्द नहीं है ये तो बाद में लिखे गए कुछ अन्य ग्रंथो में है | लीजिये लेख पढ़िए और अपनी जानकारी कुछ और बढाइये |




कमला भारद्वाज/ बाल मुकुंद।।
अनुजा विवाह के मंडप में बैठी है। पुरोहित एक मंत्र का पाठ करते हैं जिसका अर्थ है : 'अमुक गोत्र में उत्पन्न..... अनुजा नाम वाली, यथाशक्ति वस्त्रों तथा आभूषणों से सुसज्जित कन्या को, पुराणों में बताए गए कन्यादान की फल की कामना से मैं पिता तुम्हें पत्नी के रूप में अपनाने के लिए वर के लिए संप्रदान करता हूं।' (अमुकगोत्राम ......पुराणोक्त ....संप्रददे ....) पिता अनुजा का हाथ लेकर वर के हाथों में देते हैं और रो पड़ते हैं। नाजों में पली अपनी लाड़ली का आज उन्होंने कन्यादान कर दिया।

यह मंत्र पारस्करगृह्यसूत्रम के हरिहर भाष्य से लिया गया है। इस सूत्र में कन्यादान के लिए पिता द्वारा मंत्र पाठ के साथ संकल्प लेने की व्यवस्था दी गई है। अनुजा का विवाह इसी सूत्र में बताई गई विधि से संपन्न हो रहा है। उत्तर और दक्षिण भारत के ज्यादातर क्षेत्रों में आज यही विधि सबसे ज्यादा प्रचलित है।

लेकिन वेदों में 'कन्यादान' जैसा कोई शब्द नहीं है। उनमें कन्या, पाणिग्रहण, प्रतिग्रहण और दान जैसे शब्दों का अलग-अलग संदर्भों में प्रयोग हुआ है। दान के महत्व का वर्णन करते हुए ऋग्वेद में कहा गया है कि गौ, अश्व तथा वस्त्रों का दान करने वाले सौभाग्यशाली होते हैं और उनके घरों में अनेक प्रकार के धन सदा उपलब्ध रहते हैं। (ऋग्वेद 5-42-8)। अथर्ववेद में दान दी जाने योग्य वस्तुओं के नाम गिनाए गए हैं। इनमें जनने वाली गौ, बोझा ढोने वाले बैल, वस्त्र, सुवर्ण आदि वस्तुओं को दान करने से दाता को उत्तम गति प्राप्त होने का उल्लेख मिलता है। (अथर्ववेद : 9-5-29)।

पर वहां किसी भी उद्धरण में दान के लिए बताई गई वस्तुओं में कन्या के दान का विचार प्राप्त नहीं होता। वैदिक विवाह परंपरा में कन्या को प्रदेय द्रव्यों से परे रखा गया है। वह दान देने वाली वस्तुओं के समकक्ष नहीं है। दान का अर्थ है किसी वस्तु पर से अपने स्वत्व (अपना मानने) का अधिकार त्याग देना। कन्या न ही वस्तु है, और न ही उसके विवाह के पश्चात माता-पिता एवं संबंधियों से उसका संबंध समाप्त होता है। ऐसा नहीं होता तो सती अपने पिता दक्ष प्रजापति के यज्ञ में नहीं गई होतीं। इसके अलावा दान देने के लिए शर्तें नहीं थोपी जातीं, लेकिन कन्या के लिए वर को पाणिग्रहण के समय सात वचन देने होते हैं और प्रतिग्रहण का संकल्प लेना होता है।

वैदिक काल में भी भारतीय समाज पितृमूलक था। माता-पिता की इच्छा कन्या के लिए माननीय थी। लेकिन कन्या की भावना का भी सम्मान किया जाता था। माता-पिता को यह सुनिश्चित करना पड़ता था कि कन्या को अभिरूप पति के साथ सुखमय जीवन बिताने का अवसर प्राप्त हो। इसकी पुष्टि राजा रथवीति के आख्यान से होती है। श्यावाश्व ऋषि ने राजा से उनकी कन्या से विवाह का प्रस्ताव किया। राजा ने पहले अपनी रानी शशीयसी से सलाह की। रानी ने पुत्री से पूछने के बाद कहा कि श्यावाश्व को पहले ऋषित्व प्राप्त करना चाहिए। जब श्यावाश्व ने यह पद और प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली, तभी रथवीती ने उन्हें अपनी बेटी का पाणिग्रण करने की इजाजत दी। (बृहद्देवता 5-50-80)

वेदों के बाद ब्राह्माण ग्रंथों की रचना हुई, जिनमें वेदों की व्याख्या की गई थी। चूंकि वेदों में कन्यादान की बात नहीं कही गई थी, इसलिए ब्राह्माणों में भी ऐसे किसी उल्लेख का प्रश्न नहीं उठता। शतपथ ब्राह्माण में सुकन्या कहती है कि मेरे माता-पिता ने मुझे जिस पति के साथ प्रणय सूत्र में बांधा है, उसके साथ मैं आजीवन रहूंगी। (सा होवाच यस्मै मां पितादान्नैवाहं तं जीवंतं हास्यामीति 4-1) इस मंत्र में अदात् शब्द का प्रयोग दान अर्थ में नहीं है, यह माता-पिता द्वारा विधि-विधान से विवाह कराने का ही संकेत है।

ब्राह्माणों के बाद उपनिषद आए जिनमें वेदों से अलग आध्यात्मिक तत्वों पर विचार किया गया। इनका कर्मकांड या भौतिक जीवन से कोई संबंध नहीं था। इसलिए इनमें भी कन्यादान का उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन उपनिषदों के बाद पुराणों में कहीं-कहीं ऐसी चर्चा मिलती है। अग्निपुराण में कन्यादान को सबसे उत्तम दान माना गया है। बाद के काल में स्मृतियों में कन्यादान की व्यवस्था को सूत्रबद्ध करने की कोशिश दीखती है।

मूल रूप से वैदिक अनुष्ठान में विवाह के पांच चरण माने गए हैं :

वाग्दानञ्च वरणं पाणिपीडनम्।
सप्तपदीति पंचांगो विवाह: प्रकीतिर्त:।।
वाग्दान से सगाई, प्रदान- से कन्यादेय- या कन्या को दिए जाने वाले उपहार, वरण-यानी वर द्वारा स्वीकृत करना, पाणिपीडन- पाणिग्रहण करना तथा सप्तपदी- से सात वचनों के पालन की प्रतिबद्धता का भाव लिया जाता है। इन पांच चरणों में भी कन्या के दान का संकेत स्पष्ट नहीं होता। केवल कन्या को दिए जाने वाले उपहार और उसके लिए उपयोगी वस्तुओं के दान का संकेत मिलता है।

यह देखना दिलचस्प है कि जब वेदों में कन्या को दान करने की बात नहीं की गई थी, तो स्मृतियों और सूत्रों में यह परंपरा इतने ठोस रूप में कैसे अवतरित हुई? इसे शायद मनुस्मृति के एक श्लोक से समझा जा सके, जिसका अर्थ है कि विवाह के लिए इच्छुक पिता अपनी कन्या अति उत्कृष्ट, शुभ गुण, कर्म और स्वभाव वाले, कन्या के सदृश, रूप और लावण्य आदि गुणों से युक्त वर को ही दे। (मनुस्मृति : 9-88)। श्लोक में कन्या देने का अर्थ है वर को पाणिग्रहण करने की इजाजत देना। लेकिन यह इजाजत पिता ही क्यों देता है? क्योंकि विवाह के पहले कन्या को अपना कहने का अधिकार (स्वत्व का) पिता के ही पास होता है। यह बात मनुस्मृति के एक अन्य श्लोक से स्पष्ट होती है, जहां लिखा है :

पिता रक्षति कौमारे, भर्ता रक्षति यौवने।
रक्षंति स्थविरे पुत्रा:, न स्त्रीस्वातंत्र्यमर्हति।।
( मनुस्मृति : 9-3)
अर्थात कन्या जब कुमारी रहती है तो पिता उसका लालन-पालन और उसकी रक्षा करता है, युवा अवस्था में पति और बुढ़ापे में पुत्र। स्त्री अरक्षित नहीं रह सकती। यहां स्वतंत्रता का अर्थ फ्रीडम या लिबर्टी नहीं है, बल्कि अरक्षित होना है।

ऐसा लगता है कि वेदों में कन्या के लिए योग्य वर सुनिश्चित करने की जो बात कही गई थी, उसी ने समय के साथ अभिव्यक्ति बदल कर पुराणों में 'पुण्य' का रूप धारण कर लिया। और वर को कन्या का हाथ थामने की स्वीकृति देना 'कन्या के दान' में बदल गया। पिता पुण्य की कामना से कन्या का दान करने लगे। इस तरह 'कन्यादान' पुराणों और स्मृति काल की लोक संस्कृति से निकला हुआ शब्द है, जो कन्या के विवाह के समय माता-पिता के कर्तव्य, संकल्प और भावुकता को रेखांकित करता है। इसीलिए यूरोपीय इतिहासकार विंटरनिट्ज भी इन सूत्रों को 'फोक लोर जर्नल' कहते थे।

गृह्यसूत्रों की रचना ईसा की छठी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के बीच गृहस्थ जीवन को सुव्यवस्थित करने के लिए की गई थी। इनमें से बहुत सारे सूत्र मौखिक परंपरा से आगे बढ़े। सूत्र ग्रंथों में विवाह की जो वैदिक पद्धति बताई गई है, आज भी हम उसी का अनुपालन करते हैं -पाणिग्रहण और प्रतिग्रहण इन्हीं सूत्रों के अनुसार कराया जाता है। वैदिक परंपरा का उज्वल पक्ष यह है कि कन्या को प्रदेय वस्तुओं से परे रखा गया है। तब आज के बदलते परिवेश में कन्यादान की परंपरा जारी रखने का क्या औचित्य रहता है?

टीम इंडिया जीत गयी , अब कुछ मीठा हो जाए .












  • टीम इंडिया जीत गयी , अब कुछ मीठा हो जाए । सचिन का शतक बन जाता तो और भी मजा आता । लेकिन जीत कि ख़ुशी कम नहीं हैं
    या कहे इतनी हैं कि मिठाई भी मीठी नहीं लग रही ।

    सब को मिल गयी ना किसी को कम तो नहीं हुई मिठाई । संकोच ना करे जी भर कर खाए

    March 29, 2011

    भारत के पहले सी-प्लेन को उड़ाएगी महिला पायलट

    अभी ज्यादा दिन नहीं बीते, जब एक पुरुष ने विमान में इसलिए हंगामा कर दिया था कि उसकी पायलट महिला थी. अपनी पुरुषवादी सोच के तहत उसकी धारणा थी कि महिला पायलट विमान को अच्छी तरह नहीं उड़ा सकती. पर अब तो भारत का पहला सी-प्लेन, जो पिछले दिनों अंडमान में लांच हुआ है, उसकी पायलट भी एक महिला है. जब सी-प्लेन की उडान आरंभ हुई थी तो भारत के पास कोई प्रशिक्षित पायलट न होने के कारण एक अमेरिकन पायलट बुलाया गया. पर कुछ दिनों बाद ही वह छोड़कर चला गया. अंतत: अमेरिका से एक महिला पायलट को सी-प्लेन उड़ाने के लिए नियुक्त किया गया है. गौरतलब है कि सी-प्लेन समुद्र के बीच में उतरता है और वहीँ से उडान भी भरता है. सामान्य विमानों की अपेक्षा इसे उड़ना जोखिम भरा कार्य है, पर अब एक तेज-तर्रार महिला पायलट इस कार्य को बखूबी अंजाम दे रही है !!


    http://www.shabdshikhar.blogspot.com/

    March 27, 2011

    नारी शक्ति का स्वरुप:कमजोरी केवल भावुकता/सहनशीलता

    कल २६ मार्च के अमर उजाला के प्रष्ट ५ पर एक समाचार ने स्त्री शक्ति का फिर से एक उदाहरण प्रस्तुत किया.समाचार का शीर्षक था-"बाज झपटा बच्चे पर दादी बाज पर" समाचार सुखद था क्योंकि दादी ने अपने आठ माह के पोते को बाज़ के पंजो से छुड़ा लिया.समाचार भले ही ग्राम सिसोली मुज़फ्फरनगर का हो महिला भले ही किसी एक जगह की हो किन्तु ये सर्वमान्य तथ्य है कि महिला शक्ति का स्वरुप है और वह अपनों के लिए जान की बाज़ी लगा भी देती है और दुश्मन की जान ले भी लेती है.नारी को अबला कहा जाता है .कोई कोई तो इसे बला भी कहता है किन्तु यदि सकारात्मक रूप से विचार करें तो नारी इस स्रष्टि की वह रचना है जो शक्ति का साक्षात् अवतार है.धेर्य ,सहनशीलता की प्रतिमा है.जिसने माँ दुर्गा के रूप में अवतार ले देवताओं को त्रास देने वाले राक्षसों का संहार किया तो माता सीता के रूप में अवतार ले भगवान राम के इस लोक में आगमन के उद्देश्य को साकार किया और पग-पग पर बाधाओं से निबटने में छाया रूप उनकी सहायता की.भगवान विष्णु को अमृत देवताओं को ही देने के लिए और भगवान् भोलेनाथ को भस्मासुर से बचाने के लिए नारी के ही रूप में आना पड़ा और मोहिनी स्वरुप धारण कर उन्हें विपदा से छुड़ाना पड़ा.
    हमारे संस्कृत ग्रंथों में कहा गया है -
    "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते,रमन्ते तत्र देवता."
    प्राचीन काल का इतिहास नारी की गौरवमयी कीर्ति से भरा पड़ा है.महिलाओं ने समय समय पर अपने साहस पूर्ण कार्यों से दुश्मनों के दांत खट्टे किये हैं.प्राचीन काल में स्त्रियों का पद परिवार में अत्यंत महत्वपूर्ण था.गृहस्थी का कोई भी कार्य उनकी सम्मति के बिना नहीं किया जा सकता था.न केवल धर्म व् समाज बल्कि रण क्षेत्र में भी नारी अपने पति का सहयोग करती थी.देवासुर संग्राम में कैकयी ने अपने अद्वित्य रण कौशल से महाराज दशरथ को चकित किया था.
    गंधार के राजा रवेल की पुत्री विश्पला ने सेनापति का दायित्व स्वयं पर लेकर युद्ध किया .वह वीरता से लड़ी पर तंग कट गयी ,जब ऐसे अवस्था में घर पहुंची तो पिता को दुखी देख बोली -"यह रोने का समय नहीं,आप मेरा इलाज कराइये मेरा पैर ठीक कराइये जिससे मैं फिर से ठीक कड़ी हो सकूं तो फिर मैं वापस शत्रुओसे सामना करूंगी ."अश्विनी कुमारों ने उसका पैर ठीक किया और लोहे का पैर जोड़ कर उसको वापस खड़ा किया -
    " आयसी जंघा विश्पलाये अदध्यनतम ".[रिग्वेद्य १/ ११६]
    इसके बाद विश्पला ने पुनः युद्ध किया और शत्रु को पराजित किया.
    महाराजा रितध्वज की पत्नी मदालसा ने अपने पुत्रों को समाज में जागरण के लिए सन्यासी बनाने का निश्चय किया .महाराजा रितध्वज के आग्रह पर अपने आठवे पुत्र अलर्क को योग्य शासक बनाया.व् उचित समय पर पति सहित वन को प्रस्थान कर गयी.जाते समय एक यंत्र अलर्क को दिया व् संकट के समय खोलने का निर्देश दिया.कुछ दिनों बाद जब अलर्क के बड़े भाई ने उसे राजपाट सौंपने का निर्देश दिया तब अलर्क ने वह यंत्र खोला जिसमे सन्देश लिखा था-"संसार के सभी ईश्वर अस्थिर हैं तू शरीर मात्र नहीं है ,इससे ऊपर उठ."और उसने बड़े भाई को राज्य सौंप देने का निश्चय किया.सुबाहु इससे अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्हें ही राज्य करते रहने का आदेश दिया.राजा अलर्क को राज ऋषि की पदवी मिली .यह मदालसा की ही तेजस्विता थी जिसने ८ ऋषि तुल्य पुत्र समाज को दिए.
    तमलुक [बंगाल] की रहने वाली मातंगिनी हाजरा ने ९ अगस्त १९४२ इसवी में भारत छोडो आन्दोलन में भाग लिया और आन्दोलन में प्रदर्शन के दौरान वे ७३ वर्ष की उम्र में अंग्रेजों की गोलियों का शिकार हुई और मौत के मुह में समाई .
    असम के दारांग जिले में गौह्पुर गाँव की १४ वर्षीया बालिका कनक लता बरुआ ने १९४२ इसवी के भारत छोडो आन्दोलन में भाग लिया .अपने गाँव में निकले जुलूस का नेतृत्व इस बालिका ने किया तथा थाने पर तिरंगा झंडा फहराने के लिए आगे बढ़ी पर वहां के गद्दार थानेदार ने उस पर गोली चला दी जिससे वहीँ उसका प्राणांत हो गया.
    इस तरह की नारी वीरता भरी कहानियों से इतिहास भरा पड़ा है.और किसी भी वीरता,धैर्य ज्ञान की तुलना नहीं की जा सकती.किन्तु इस सबके बावजूद नारी को अबला बेचारी कहा जाता है.अब यदि हम कुछ और उदाहरण देखें तो हम यही पाएंगे कि नारी यदि कहीं झुकी है तो अपनों के लिए झुकी है न कि अपने लिए .उसने यदि दुःख सहकर भी अपने चेहरे पर शिकन तक नहीं आने दी है तो वह अपने प्रियजन के दुःख दूर करने के लिए.
    कस्तूरबा गाँधी,जिन्होंने दक्षिण अफ्रीका में घूमकर महिलाओं में सत्याग्रह का शंख फूंका .चंपारण ,भारत छोडो आन्दोलन में जिनका योगदान अविस्मर्णीय रहा ,ने भी पतिव्रत धर्म के पालन के लिए कपडे धोये,बर्तन मांजे और ऐसे ऐसे कार्य किये जिन्हें कोई सामान्य भारतीय नारी सोचना भी पसंद नहीं करेगी.
    महाराजा जनक की पुत्री ,रघुवंश की कुलवधू,राम प्रिय जानकी सीता ने पतिव्रत धर्म के पालन के लिए वनवास में रहना स्वीकार किया.
    हमारे अपने ही क्षेत्र की एक कन्या मात्र इस कारण से जैन साध्वी के रूप में दीक्षित हो गयी कि उसकी बड़ी बहन के साथ उसके ससुराल वालों ने अच्छा व्यव्हार नहीं किया और एक कन्या इसलिए जैन साध्वी बन गयी कि उसकी प्रिय सहेली साध्वी बन गयी थी.
    स्त्रियों का प्रेम, बलिदान ,सर्वस्व समर्पण ही उनके लिए विष बना है.गोस्वामी तुलसीदास जी नारी को कहते हैं-
    "ढोल गंवार शुद्रपशु नारी,
    ये सब ताड़न के अधिकारी. "
    वे एक समय पत्नी प्रेम में इतने पागल थे कि सांप को रस्सी समझ उस पर चढ़कर पत्नी के मायके के कमरे में पहुँच गए थे.ऐसे में उनको उनकी पत्नी का ही उपदेश था जिसने उन्हें विश्व वन्दनीय बना दिया था-
    "अस्थि चर्ममय देह मम तामे ऐसी प्रीती,
    ऐसी जो श्रीराम में होत न तो भाव भीती."
    इस तरह नारी को अपशब्दों के प्रयोग द्वारा जो उसकी महिमा को नकारना चाहते हैं वे झूठे गुरुर में जी रहे हैं और अपनी आँखों के समक्ष उपस्थित सच को झुठलाना चाहते हैं .आज नारी निरंतर प्रगति पथ पर आगे बढ़ रही है .भावुकता सहनशीलता जैसे गुणों को स्वयं से अलग न करते हुए वह पुरुषों के झूठे दर्प के आईने को चकनाचूर कर रही है .अंत में नईम अख्तर के शब्दों में आज की नारी पुरुषों से यही कहेगी-
    "तू किसी और से न हारेगा,
    तुझको तेरा गुरुर मारेगा .
    तुझको दस्तार जिसने बख्शी है,
    तेरा सर भी वही उतारेगा ."

    शालिनी कौशिक http://shalinikaushik2.blogspot.com/

    मार्च के महीने मे अखबार मे प्रकाशित नारी ब्लॉग की पोस्ट

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    जनसत्ता में नारी

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    आज समाज में नारी


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    आर्थिक जुर्माना क्यूँ नहीं?: राष्ट्रीय सहारा में ‘नारी’

    संघर्ष की लड़ाई: जनसत्ता में ‘नारी’

    एक सवाल सभी लोगों से: आज समाज में ‘नारी’

    कितनी बड़ी विडंबना है: राष्ट्रीय सहारा में ‘नारी’


    जानकारी blogsinmedia.com से साभार

    March 26, 2011

    केवल सूचना के लिये

    सभी सदस्यों और पाठको से आग्रह हैं की अपने ब्लॉग के कंटेंट को सुरक्षित कर ले । आज कल गूगल ब्लागस्पाट के ब्लॉग स्वतः डिलीट हो रहे हैं या खो रहे हैं । अभी तो शिकायत करने पर गूगल खोज देता हैं पर कभी ना मिला तो मुश्किल भी हो सकती हैं

    दो तरीके से कंटेंट सेव हो सकता है
    अगर कमेन्ट समेत सेव करना हैं तो सैटिंग्स मै जा कर ब्लॉग को एक्सपोर्ट करने का टैब दबा कर आप इसकी फाइल अपने कंप्यूटर पर रख सकते हैं और कभी दूसरा ब्लॉग बनाना हो तो इस फाइल को इम्पोर्ट कर सकते हैं
    या
    आप पूरा ब्लॉग सेलेक्ट करके कॉपी टेक्स्ट करके ऍम अस वर्ड मे फाइल बना कर पेस्ट कर सेव कर सकते है

    March 25, 2011

    महिलाओ के खिलाफ अपराध करने वाले बड़े अपराधियों को सजा की खबरे क्या हमारे यहाँ भी आएँगी

    इस्राइल के पूर्व राष्ट्रपति मोशे कात्साव को बलात्कार और यौन उत्पीड़न के अन्य मामलों में दोषी पाए जाने पर मंगलवार को सात साल जेल की सजा सुनाई गई। वह अब तक के सर्वोच्च इस्राइली पदाधिकारी हैं जिसे जेल भेजा गया है। जिला अदालत ने कात्साव को दो साल के प्रोबेशन के लिए भी भेज दिया और आदेश दिया कि वह 125000 इस्राइली शेकेल्स (करीब 35 हजार डॉलर) का हर्जाना दो पीडि़त महिलाओं को दें। इन महिलाओं की पहचान केवल 'एलेफ' और 'एल' के रूप में की गई है। एलेफ को 28 हजार और एल को 7 हजार अमेरिकी डॉलर दिए जाएंगे। यह सजा तीन में से दो न्यायाधीशों के पैनेल ने दी। कात्साव को दिसंबर, 2010 में बलात्कार, यौन उत्पीड़न, अशोभनीय व्यवहार का दोषी पाया गया था। यह मुकदमा 18 महीने चला। इसमें बताया गया कि कात्साव एक यौन शिकारी हैं जो अपनी महिला स्टाफ का नियमित रूप से यौन शोषण करते थे। कात्साव जब पर्यटन मंत्री थे, तो उन्होंने एलेफ से दो बार बलात्कार किया और जब वह प्रेजिडेंट थे तो उन्होंने दो और महिलाओं का यौन शोषण किया था।
                                                             क्या ऐसा कुछ हम कभी भारत के बारे में सोच सकते है कि किसी उच्च पद पर बैठे व्यक्ति को बलात्कार जैसे अपराध कि सजा हो , शायद सपने में भी नहीं | अभी हल में ही उत्तर प्रदेश में सत्तासीन पार्टी के कई माननीय लोग जो बस विधायक भर थे , इस मामले में आरोपित हुए और बड़ी मुश्किल से काफी हो हल्ला के बाद उन को गिरफ्तार किया जा सका | जब मात्र गिरफ़्तारी में इतनी परेशानी हुई तो आरोप को साबित कर पाना तो आप समझ ही सकते है की नामुमकिन है | फिर इनकी क्या बात करना ये तो कानून बनाने वाले माननीय लोग है, प्रियदर्शनी मट्टू केस में तो आरोपी के पिता बड़े आफिसर थे और रुचिका केस में खुद आरोपी एक बड़े ओहदे पर बैठा व्यक्ति था दोनों ही लगभग आरोपों से साफ बच कर निकल चुके थे वो भी सालो साल चले मुकदमे के बाद | भला हो मिडिया का जिन्होंने अपने प्रयास से इन्हें कुछ सजा दिलाई किन्तु उसके बाद भी प्रसाशन का पूरा लावा लश्कर आरोपियों को ही बचाने में जुटा था और अंत में दोनों को कड़ी सजा से बचा भी लिया | इन्हें भी छोडिये मामूली से लोग भी पैसे के दम पर डरा कर धमाका कर अपनी पहुँच दिखा कर ज्यादातर इन मामलों में बच कर निकल जाते है | 
                                                     तो ऐसे में सरकार के किसी सर्वोच्च पद पर बैठे व्यक्ति को इस मामले में सजा होने वो भी जेल की, हम कल्पना  में  भी  नहीं सोच सकते , वो भी मात्र १८ महीनो के अन्दर | ज्यादातर लोग इसके लिए दोषी अदालतों को देंगे की जहा मुक़दमा सालो साल चलता है या पुलिस को देंगे जो ठीक से जाँच नहीं करती है और पैसे रसूख के बल पर आरोपियों का साथ देती है | पर क्या वास्तव में समस्या सिर्फ यही है , क्या वास्तव में आरोपियों को सजा न मिल पाने का कारण सिर्फ तकनीकी समस्या है या कानून व्यवस्था की समस्या है | मुझे ऐसा नहीं लगता है, असल समस्या है हमारे समाज की सोच का है यहाँ पर ऐसे अपराध के पीड़ित को ही बड़ा अपराधी मान लिया जाता है और पहले उसे ही सक की नजर से देखा जाने लगता है | पुलिस स्टेशन में घुसते ही पीड़ित पर और उसकी मंसा पर इतने सवाल दाग दिए जाते है की मानसिक रूप से टूटी पीड़ित खुद आपराध बोध से ग्रस्त हो जाती है | 
                                                    समाज की सोच क्या है " तुम्हारे साथ ही ऐसा कैसे हो गया ,दुनिया में और भी तो लड़किया है उनके साथ क्यों नहीं हो गया, जरुर तुमने समाज के बनाये नियमो को तोडा होगा ( याद है आधी रात को अपने काम से लौट रही एक पत्रकार की हत्या और लुट पर दिल्ली की मुख्यमंत्री ने उनके देर  रात घर से बाहर निकालने पर ही सवाल उठा दिया था ) यदि अपराधी पैसे वाला है , किसी उच्च पद पर है, राजनीतिज्ञ है ,या कोई सेलिब्रिटी है तो सीधे इसे साजिस, राजनीति , सामने वाले को फ़साने की नियत या पैसे और महत्वाकांक्षा के लिए खुद उसके पास जाने तक की शंका जाहिर कर दी जाती है जैसा शाहनी आहूजा केस में कुछ टीवी चैनलों ने ये दिखाना शुरू कर दिया की जिस नौकरानी के साथ बलात्कार हुआ वो शाहनी को पसंद करती थी क्योकि वो प्रसिद्ध फ़िल्मी सितारा था और अपनी इच्छा से बनाये गए शारीरिक सम्बन्ध को रेप का नाम दिया जा रहा है , रुचिका केस में इसे तब राजपूतो राठौर जाति के खिलाफ साजिस मान रुचिका और उसके परिवार के खिलाफ ही विरोध प्रदर्शन हुआ और राजनीति से जुड़े लोग तो इसे सीधे विपक्ष की साजिस करार दे मानाने से इंकार कर देते है | पुलिस स्टेशन में ही पीड़ित के कपडे लत्ते से ले कर उसके रहन सहने और काम धंधे पर ऐसे सवाल कर जीते जी उसके चरित्र का पोस्मार्टम कर दिया जाता है जैसे वो ही अपराधी हो |  
                                   यहाँ होता ये है की जैसे ही पीड़ित ने किसी बड़े व्यक्ति या उससे आस पास से ले कर दूर का भी सम्बन्ध रखने वाले का नाम अपराधी के रूप में लेती है पुलिस तुरंत ही अपने हाथ खड़े कर लेती है और लगती है पीड़ित को ही कटघरे में खड़ा करना या मामले की लिपा पोती करने या उसे छुपाने | हालत ये है की जाँच एजेंसिया खुद ही पहले ही मान लेती है की इस मामले में कुछ नहीं हो सकता, आज हम जाँच करेंगे कल को ऊपर से दबाव आ जायेगा और सब बेकार जायेगा इससे अच्छा है कि मामला यही ख़त्म करने का प्रयास करो |  जैसे शाहिनी आहूजा केस में जाँच से जुड़े एक पुलिस वाले ने पहले ही कह दिया था की हमारे पास सब पुख्ता साबुत है बस पीड़ित अपनी बात पर अड़ा रहे , मतलब उसे अच्छे से पता था की पीड़ित समाज के निचले तबके से आती है और अपराधी समाज का जाना माना नाम है जो पीड़ित पर कल को हर तरह का दबाव डालेगा आरोप वापस लेने के लिए और अंत में हुआ भी वही ( जैसी की हर जगह खबर आ रही है की पीड़ित ने आरोप वापस ले लिया है ) किन्तु क्या जाँच एजेंसियों ने अपनी तरफ से ऐसा कोई भी प्रयास किया कि ये ना हो सके और रेप की शिकार लड़की बिना किसी दबाव के अपनी बात कहा सके जवाब नहीं में होगा तभी तो जो सक पुलिस वाले ने अपराध होने के हफ्ते भर बाद ही जाहिर कर दिया था वो कुछ समय बात सच हो गया | पुलिस को भी पता है कि ऐसे केस में क्या होता है किन्तु वो उसे रोकने और अपराधी को सजा दिलाने का प्रयास करने की जगह सब कुछ दोनों पक्षों पर ही छोड़ देता है जिससे इस तरह का अपराध करने वाले बड़े नाम बड़ी आसानी से बच कर निकला जाते है | 
                                                सिर्फ पुलिस क्या समाज के लोग भी बड़ा नाम आते ही इस तरह की घटनाओ को सक की नजर से देखने लगते है उन्हें भी ये सच कम साजिस ज्यादा लगती है | जब समाज की ( ज्यादातर लोगो की ) सोच ही यही होगी तो पुलिस जाँच एजेंसियों और खुद आपराधि इस बात से कैसे बच सकता है आखिर वो भी तो इस समाज का ही हिस्सा है अपराधी भी इस तरह के अपराध करने वक्त ये मान कर चलता है की उसका कोई कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता पहले तो अपनी इज्जत के डर से लड़की पुलिस में जाएगी ही नहीं क्योकि वो एक जाना माना नाम है और यदि वो गई भी तो अपने पैसे और पहुँच के बल पर इस सब से बड़ी आसानी से निकल जायेगा | 
                          इस लिए जरुरी है की पहले समाज की सोच बदले तभी अपराधियों में अपराध करने से पहले सजा का समाज के तिरष्कार का अपमान का डर होगा और वो ऐसा करने से पहले हजार बार सोचेगा साथ ही पुलिस पर भी राजनीतिक और उपरी दबाव कम हो और लोगो का न्याय दिलाने का दबाव ज्यादा हो ताकि वो निष्पक्ष रह कर जाँच कर सके और अपराधी को सजा दिलाने में अपना सहयोग कर सके | एक बार जब बलात्कार यौन शोषण जैसे मामलों में बड़े लोगो को सजा होने लगेगी तो इस तरह का अपराध करने वाले सभी के मन में कानून का डर होगा और अपराध में कमी आएगी | 

                

    March 22, 2011

    ‘कार्यस्थल में यौन उत्पीड़न के खिलाफ महिलाओं का संरक्षण विधेयक 2010’

    उपासना बेहार


    रुकमणी बाई जिस ठेकेदार के पास मजदूरी का काम करती थी,वह अपने यहॉ काम करने वाले सभी मजदूरों से कम पैसे देकर ज्यादा राशी की रसीद पर हस्ताक्षर करवाता था। जब रुकमणी बाई ने ऐसा करने से मना कर दिया तो ठेकेदार ने उसको अश्लील गालीयॅ दी और छेड़छाड़ करने की कोशिश की। रुकमणी बाई ने ठेकेदार के इस आपत्तिजनक व्यवहार के कारण काम पर जाना भी छोड़ दिया और उसे अपने किये गये काम की मजदूरी भी नही मिली।

    यह कोई इकलौता उदाहरण नही है, इस तरह के हजारों उदाहरण हमारे आसपास मिल जायेगें जिसमें महिलाऐं कार्यस्थल पर अपने साथ होने वाले यौनिक हिंसा के चलते काम छोड़ने को मजबूर हुई है या मानसिक तनाव से गुजरने को मजबूर हैं।

    वर्तमान समय में ज्यादा से ज्यादा महिलाऐं काम के लिए घर से बाहर निकल रही हैं। परन्तु उन्हें कभी ना कभी किसी ना किसी रुप में कार्यस्थल पर यौनिक हिंसा का शारीरिक या मानसिक रुप भोगना पड़ता है। इसका असर महिलाओं के पूरे व्यक्तित्व पर पड़ता है। जिन स्त्रीयों ने इसे भोगा है वही इसकी पीड़ा को समझ सकती हैं। महिला का आत्म विश्वाश डगमगाने लगता है। उस स्थिति में वह अपने को असहाय समझने लगती है। उसके आत्मसम्मान को तार तार कर दिया जाता हैं। ज्यादातर महिलाऐं चाह कर भी यौनिक हिंसा करने वाले के खिलाफ कोई कार्यवाही नही कर पाती है और घुट घुट कर मानसिक तनाव में जीने को मजबूर रहती हैं।

    यही असुरक्षा की भावना स्त्रियों को कई बार ना चाहते हुए भी चार दीवारी में कैद कर देती है। जिससे उसका स्वंय का विकास तो रुकता ही है साथ ही देश के लिए भी एक बड़ा वर्ग कोई प्रोडक्टीव कार्य नही करता और देश के विकास में अपना बहुमूल्य योगदान नही दे पाता।

    यह स्थिति कमोवेश संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों में काम करने वाली महिलाओं की है पर असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं के साथ यह बात ज्यादा लागू होती है, ऐसे परिस्थितियों में वे समझ नही पाती की न्याय के लिए कहॉ जायें, किससे शिकायत करें, किसे अपनी पीड़ा बताऐं?

    ये सरकार की जिम्मेदारी है कि वह महिलाओं को कार्यक्षेत्र में सुरक्षित और सम्मानिय माहौल प्रदान करे। इसी को ध्यान में रखते हुए केद्र सरकार कार्यस्थल में यौन उत्पीड़न के खिलाफ महिलाओं का संरक्षण विधेयक 2010’ नामक नया कानून लाने जा रही है

    इस विधेयक को केद्रीय मंत्रिमंड़ल की रजामंदी मिल चुकी है। अब सरकार इसे संसद में पेश करने वाली है।

    इस प्रस्तावित कानून का मुख्य उद्देश्य है कि किसी भी क्षेत्र ( संगठित और असंगठित ) में काम करने वाली या काम करवाने वाली महिला को भय रहित माहौल मिल सके तथा महिला स्वतंत्र और सुरक्षीत महसूस करते हुए अपने काम को अजांम दे सके।

    यह नया विधेयक भी विशाखा दिशा निर्देश का विस्तार ही है। जिसमें कार्य क्षेत्र के दायरे को ज्यादा विस्तृत किया गया हैं। उच्चतम न्यायलय ने विशाखा गाइड लाइन में यौन उत्पीड़न को परिभाषित किया था उसे ही इस विधेयक का मुख्य आधार बनाया गया है। जिसमें महिलाओं के साथ किसी भी प्रकार से शारीरिक सम्पर्क करना या उसका प्रयास करना, अश्लील टिप्पणी करना, अश्लील चुटकुले सुनाना, यौन संबंध बनाने की मांग करना, दबाव डालना,अश्लील फब्तियां कसना, अश्लीलफोटो ,पत्र-पत्रिका, फिल्म, सी.डी. दिखाना, ई मेल के जरिए किसी महिला को यौन संबंधों के लिए उकसाना, यौन इच्छा के मंशा से किसी महिला को परेशान करना, देर तक रोकना इत्यादी को यौन उत्पीड़न के दायरे में रखा है।

    इस विधेयक की कई खास बातें है जैसे इसमें कार्यस्थल के तौर पर सरकारी और प्रायवेट (संगठित/असंगठित) दोनो क्षेत्रों को शामिल किया गया है। विधेयक में दिये गये प्रावधानों को लागू करना इन दोनों क्षेत्रों के लिए समान रुप से अनिवार्य होगा।

    इसके अनुसार जिला स्तर पर एक स्थानीय शिकायत कमेटी होगी। इस कमेटी में असंगठीत क्षेत्रों में कार्यर्त महिलाओं पर होने वाले यौनिक हिंसा की शिकायत की जा सकेगी। स्थानीय शिकायत कमेटी जिम्मेदारी जिला अधिकारी की होगी।

    सबसे बड़ी बात यह भी है कि शिकायतों के निपटारे के लिए समयसीमा बांध दी गई है। संगठीत/असंगठित क्षेत्रों की शिकायत कमेटी को उनके पास आयी शिकायत का निपटारा 90 दिनों के अंदर करना होगा और दिये गये निर्णय को सबंधित कम्पनी या जिला अधिकारी को 60 दिनों के अदंर लागू करना होगा। अगर कमेटी के निर्णय को नही माना जाता तो दोषी पक्ष का लायसेन्स रदद या जुर्माना ( 50,000) लगाया जा सकता हैं।

    साथ ही इस विधेयक में यह भी है कि जब तक जांच चलेगी तब तक पीड़ित महिला चाहे तो स्वंय का स्थानांन्तरण करा सकती है, या जिसके खिलाफ उसने शिकायत की है उसका स्थानांन्तरण करवा सकती हैं। अगर पीड़ित पक्ष कमेटी के निर्णय से संतुष्ट नही है तो वह जिला मजिस्ट्रट या कोर्ट भी जा सकते हैं।

    इस कानून के अनेक खसियतों में एक यह भी है कि सार्वजनिक कार्यस्थलों में आने वाली महिला जैसे उपभोक्ता,कॉलेज/विश्वविद्यालयो की विधार्थी, दैनिक या अस्थायी महिला कर्मचारी, अस्पताल में इलाज के लिए आने वाली महिलाऐं भी वहॉ अपने साथ होने वाली यौनिक हिंसा की शिकायत कमेटी में कर सकती हैं।

    केद्र और राज्य सरकार यह सुनिश्चत करेगी कि इस कानून को सही तरिके से लागू किया जा रहा है या नही, उसकी निगरानी भी समय समय पर लगातार की जायेगी।

    लेकिन इस प्रस्तावित विधेयक की सबसे बड़ी खामी यह है कि घरों में काम करने वाली महिलाओं को इस विधेयक के दायरे से बाहर रखा गया है। जबकि देखने में आता है कि इसी वर्ग का सबसे ज्यादा शोषण होता है। इस वर्ग की महिलाऐं हमेशा से ही हाषिए पर रही है और इस विधेयक में उन्हें शामिल ना करना एक बहुत बड़ी भूल है। इसके अलावा विधेयक में यह भी प्रावधान रखा गया है कि अगर शिकायत करने वाली महिला अपने उत्पीड़न को साबित नही कर पाती तो उसके खिलाफ मुकदमा चलाया जा सकता है। यह प्रावधान इस विधेयक को भोथरा बना देता है क्योकि यौन उत्पीड़न के कई मामले ऐसे होते है जिन्हें साफ साफ साबित नही किया जा सकता। इसी के चलते बहुत सारी महिलाऐं इस बनने वाले नये कानून का उपयोग नही कर पायेगी। वे शिकायत करने से डर जायेगी।

    प्रस्तावित विधेयक की इन कुछ खामियों को दूर कर इसे असरदार बनाने की आवष्यकता है। केद्र और राज्य सरकार को यह ध्यान में रखना होगा कि इस बार प्रस्तावित इस कानून केवल कागजी बन कर ना रह जाये सरकार को कड़ाई से इसे जमीनी स्तर पर लागू करना होगा। नही तो इसका भी हश्र पूर्ववर्ती कानूनों की तरह हो सकता है।

    अगर हम चाहते है कि महिलाओं को घर और बाहर सुरक्षीत माहौल मिले,उसके साथ होने वाली यौनिक हिंसा खत्म हो तो समाज में गहराई से व्याप्त पितृसत्तात्मक सोच को भी बदलना होगा। उन सभी रीति रिवाज,परम्परा, मान्यताओं, रुढ़ीयों को खत्म करना होगा जो महिलाओं के पैरों को जंजीरों से बांध देते हैं। पुरुषों को ये समझना होगा कि घर के बाहर की दुनिया में उनका ही एकाधिकार नही होगा वहॉ आधी दुनिया भी आहिस्ता आहिस्ता दस्तक दे रही हैं और अपनी उपस्थिति का एहसास मजबूत और मुक्कमल तरिके से करवा रही है।

    {लेखिका सामाजिक कार्यकर्ता हैं और भोपाल में रहती हैं }

    Upasana2006@gmail.com

    'राजस्थान पत्रिका' अखबार के 6 मार्च 2011 के अंक में चर्चा


    नमस्कार!

    महिला दिवस पर 'राजस्थान पत्रिका' अखबार के 6 मार्च 2011 के अंक में आपकी चर्चा मैंने की थी। पीडीएफ भेज रहा हूँ।

    धन्यवाद।

    निवदक-
    शैलेश भारतवासी

    March 21, 2011

    Women and Violence

    Women and Violence

    Violence affects the lives of millions of women worldwide, in all socio-economic and educational classes. It cuts across cultural and religious barriers, impeding the right of women to participate fully in society.

    Violence against women takes a dismaying variety of forms, from domestic abuse and rape to child marriages and female circumcision. All are violations of the most fundamental human rights.

    In a statement to the Fourth World Conference on Women in Beijing in September 1995, the United Nations Secretary-General, Boutros Boutros-Ghali, said that violence against women is a universal problem that must be universally condemned. But he said that the problem continues to grow.

    The Secretary-General noted that domestic violence alone is on the increase. Studies in 10 countries, he said, have found that between 17 per cent and 38 per cent of women have suffered physical assaults by a partner.

    In the Platform for Action, the core document of the Beijing Conference, Governments declared that "violence against women constitutes a violation of basic human rights and is an obstacle to the achievement of the objectives of equality, development and peace".

    The Work of the Special Rapporteur

    The issue of the advancement of women's rights has concerned the United Nations since the Organization's founding. Yet the alarming global dimensions of female-targeted violence were not explicitly acknowledged by the international community until December 1993, when the United Nations General Assembly adopted the Declaration on the Elimination of Violence against Women.

    Until that point, most Governments tended to regard violence against women largely as a private matter between individuals, and not as a pervasive human rights problem requiring State intervention.

    In view of the alarming growth in the number of cases of violence against women throughout the world, the Commission on Human Rights adopted resolution 1994/45 of 4 March 1994, in which it decided to appoint the Special Rapporteur on violence against women, including its causes and consequences.

    As a result of these steps, the problem of violence against women has been drawing increasing political attention.

    The Special Rapporteur has a mandate to collect and analyse comprehensive data and to recommend measures aimed at eliminating violence at the international, national and regional levels. The mandate is threefold:

    • To collect information on violence against women and its causes and consequences from sources such as Governments, treaty bodies, specialized agencies and intergovernmental and non-governmental organizations, and to respond effectively to such information;
    • To recommend measures and ways and means, at the national, regional and international levels, to eliminate violence against women and its causes, and to remedy its consequences;
    • To work closely with other special rapporteurs, special representatives, working groups and independent experts of the Commission on Human Rights.

    Incest, Rape and Domestic Violence

    Some females fall prey to violence before they are born, when expectant parents abort their unborn daughters, hoping for sons instead. In other societies, girls are subjected to such traditional practices as circumcision, which leave them maimed and traumatized. In others, they are compelled to marry at an early age, before they are physically, mentally or emotionally mature.

    Women are victims of incest, rape and domestic violence that often lead to trauma, physical handicap or death.

    And rape is still being used as a weapon of war, a strategy used to subjugate and terrify entire communities. Soldiers deliberately impregnate women of different ethnic groups and abandon them when it is too late to get an abortion.

    The Platform for Action adopted at the Fourth World Conference on Women declared that rape in armed conflict is a war crime -- and could, under certain circumstances, be considered genocide.

    Secretary-General Boutros-Ghali told the Beijing Conference that more women today were suffering directly from the effects of war and conflict than ever before in history.

    "There is a deplorable trend towards the organized humiliation of women, including the crime of mass rape", the Secretary-General said. "We will press for international legal action against those who perpetrate organized violence against women in time of conflict."

    A preliminary report in 1994 by the Special Rapporteur, Ms. Radhika Coomaraswamy, focused on three areas of concern where women are particularly vulnerable: in the family (including domestic violence, traditional practices, infanticide); in the community (including rape, sexual assault, commercialized violence such as trafficking in women, labour exploitation, female migrant workers etc.); and by the State (including violence against women in detention as well as violence against women in situations of armed conflict and against refugee women).

    In the Platform for Action adopted at the Beijing Conference, violence against women and the human rights of women are 2 of the 12 critical areas of concern identified as the main obstacles to the advancement of women.

    Commitments by Governments

    Governments agreed to adopt and implement national legislation to end violence against women and to work actively to ratify all international agreements that relate to violence against women. They agreed that there should be shelters, legal aid and other services for girls and women at risk, and counselling and rehabilitation for perpetrators.

    Governments also pledged to adopt appropriate measures in the field of education to modify the social and cultural patterns of conduct of men and women. And the Platform called on media professionals to develop self-regulatory guidelines to address violent, degrading and pornographic materials while encouraging non-stereotyped, balanced and diverse images of women.

    Defining Gender-based Abuse

    The Declaration on the Elimination of Violence against Women is the first international human rights instrument to exclusively and explicitly address the issue of violence against women. It affirms that the phenomenon violates, impairs or nullifies women's human rights and their exercise of fundamental freedoms.

    The Declaration provides a definition of gender-based abuse, calling it "any act of gender-based violence that results in, or is likely to result in, physical, sexual or psychological harm or suffering to women, including threats of such acts, coercion or arbitrary deprivation of liberty, whether occurring in public or in private life".

    The definition is amplified in article 2 of the Declaration, which identifies three areas in which violence commonly takes place:

    • Physical, sexual and psychological violence that occurs in the family, including battering; sexual abuse of female children in the household; dowry-related violence; marital rape; female genital mutilation and other traditional practices harmful to women; non-spousal violence; and violence related to exploitation;
    • Physical, sexual and psychological violence that occurs within the general community, including rape; sexual abuse; sexual harassment and intimidation at work, in educational institutions and elsewhere; trafficking in women; and forced prostitution;
    • Physical, sexual and psychological violence perpetrated or condoned by the State, wherever it occurs.

    Groundwork Is Laid in Vienna

    The importance of the question of violence against women was emphasized over the last decade through the holding of several expert group meetings sponsored by the United Nations to draw attention to the extent and severity of the problem.

    In September 1992, the United Nations Commission on the Status of Women established a special Working Group and gave it a mandate to draw up a draft declaration on violence against women.

    The following year, the United Nations Commission for Human Rights, in resolution 1993/46 of 3 March, condemned all forms of violence and violations of human rights directed specifically against women.

    The World Conference on Human Rights, held in Vienna in June 1993, laid extensive groundwork for eliminating violence against women. In the Vienna Declaration and Programme of Action, Governments declared that the United Nations system and Member States should work towards the elimination of violence against women in public and private life; of all forms of sexual harassment, exploitation and trafficking in women; of gender bias in the administration of justice; and of any conflicts arising between the rights of women and the harmful effects of certain traditional or customary practices, cultural prejudices and religious extremism.

    The document also declared that "violations of the human rights of women in situations of armed conflicts are violations of the fundamental principles of international human rights and humanitarian law", and that all violations of this kind -- including murder, systematic rape, sexual slavery and forced pregnancy -- "require a particularly effective response".

    Kinds of Violence Against Women

    Domestic violence

    Violence against women in the family occurs in developed and developing countries alike. It has long been considered a private matter by bystanders -- including neighbours, the community and government. But such private matters have a tendency to become public tragedies.

    In the United States, a woman is beaten every 18 minutes. Indeed, domestic violence is the leading cause of injury among women of reproductive age in the United States. Between 22 and 35 per cent of women who visit emergency rooms are there for that reason.

    The highly publicized trial of O. J. Simpson, the retired United States football player acquitted of the murder of his former wife and a male friend of hers, helped focus international media attention on the issue of domestic violence and spousal abuse.

    In Peru, 70 per cent of all crimes reported to the police involve women beaten by their husbands.

    In Pakistan, Prime Minister Benazir Bhutto strongly defended a 35-year-old mother of two who was severely burned by her husband in a domestic dispute.

    "There is no excuse for such a behaviour", the Prime Minister declared after visiting the hospitalized victim. "My presence here is to send a message to all those who violate Islamic teachings and defy laws of the land with their inhuman treatment of women. This will not be tolerated."

    According to the Human Rights Commission of Pakistan, in the 400 cases of domestic violence reported in 1993 in the province of Punjab, nearly half ended with the death of the wife.

    According to the Special Rapporteur's report, many Governments now recognize the importance of protecting victims of domestic abuse and taking action to punish perpetrators. The establishment of structures allowing officials to deal with cases of domestic violence and its consequences is a significant step towards the elimination of violence against women in the family.

    The Special Rapporteur's report highlights the importance of adopting legislation that provides for prosecution of the offender. It also stresses the importance of specialized training for law enforcement authorities as well as medical and legal professionals, and of the establishment of community support services for victims, including access to information and shelters.

    Traditional practices

    In many countries, women fall victim to traditional practices that violate their human rights. The persistence of the problem has much to do with the fact that most of these physically and psychologically harmful customs are deeply rooted in the tradition and culture of society.

    Female genital mutilation

    According to the World Health Organization, 85 million to 115 million girls and women in the population have undergone some form of female genital mutilation and suffer from its adverse health effects.

    Every year an estimated 2 million young girls undergo this procedure. Most live in Africa and Asia -- but an increasing number can be found among immigrant and refugee families in Western Europe and North America. Indeed, the practice has been outlawed in some European countries.

    In France, a Malian was convicted in a criminal court after his baby girl died of a female circumcision-related infection. The procedure had been performed on the infant at home.

    In Canada, fear of being forced to undergo circumcision can be grounds for asylum. A Nigerian woman was granted refugee status since she felt that she might be persecuted in her home country because of her refusal to inflict genital mutilation on her baby daughter.

    There is a growing consensus that the best way to eliminate these practices is through educational campaigns that emphasize their dangerous health consequences. Several Governments have been actively promoting such campaigns in their countries.

    Son preference

    Son preference affects women in many countries, particularly in Asia. Its consequences can be anything from foetal or female infanticide to neglect of the girl child over her brother in terms of such essential needs as nutrition, basic health care and education.

    In China and India, some women choose to terminate their pregnancies when expecting daughters but carry their pregnancies to term when expecting sons.

    According to reports from India, genetic testing for sex selection has become a booming business, especially in the country's northern regions. Indian gender-detection clinics drew protests from women's groups after the appearance of advertisements suggesting that it was better to spend $38 now to terminate a female foetus than $3,800 later on her dowry.

    A study of amniocentesis procedures conducted in a large Bombay hospital found that 95.5 per cent of foetuses identified as female were aborted, compared with a far smaller percentage of male foetuses.

    The problem of son preference is present in many other countries as well. Asked how many children he had fathered, the former United States boxing champion Muhammad Ali told an interviewer: "One boy and seven mistakes."

    Dowry-related violence and early marriage

    In some countries, weddings are preceded by the payment of an agreed-upon dowry by the bride's family. Failure to pay the dowry can lead to violence.

    In Bangladesh, a bride whose dowry was deemed too small was disfigured after her husband threw acid on her face. In India, an average of five women a day are burned in dowry-related disputes -- and many more cases are never reported.

    Early marriage, especially without the consent of the girl, is another form of human rights violation. Early marriage followed by multiple pregnancies can affect the health of women for life.

    The report of the Special Rapporteur has documented the destructive effects of marriage of female children under 18 and has urged Governments to adopt relevant legislation.

    Violence in the community

    Rape

    Rape can occur anywhere, even in the family, where it can take the form of marital rape or incest. It occurs in the community, where a woman can fall prey to any abuser. It also occurs in situations of armed conflict and in refugee camps.

    In the United States, national statistics indicate that a women is raped every six minutes. In 1995, the case of a Brazilian jogger raped and murdered in New York City's Central Park drew international attention once again to the problem. The incident occurred only a few years after an earlier sensational jogger-assault case in which the victim -- an American assaulted in the same general area of the park -- barely survived after her assailants left her for dead.

    Relations between residents of the Japanese island of Okinawa and American GIs were thrown into turmoil in 1995 after two marines and a sailor allegedly kidnapped and raped a 12-year-old girl.

    The Special Rapporteur's report underlines the importance of education to sensitize the public about the special horrors of rape, and of sensitivity training for the police and hospital staff who work with victims.

    Sexual assault within marriage

    In many countries sexual assault by a husband on his wife is not considered to be a crime: a wife is expected to submit. It is thus very difficult in practice for a woman to prove that sexual assault has occurred unless she can demonstrate serious injury.

    The report of the Special Rapporteur noted that light sentences in sexual assault cases send the wrong message to perpetrators and to the public at large: that female sexual victimization is unimportant.

    Sexual harassment

    Sexual harassment in the workplace is a growing concern for women. Employers abuse their authority to seek sexual favours from their female co-workers or subordinates, sometimes promising promotions or other forms of career advancement or simply creating an untenable and hostile work environment. Women who refuse to give in to such unwanted sexual advances often run the risk of anything from demotion to dismissal.

    But in recent years more women have been coming forward to report such practices -- some taking their cases to court.

    In her report, the Special Rapporteur stressed that sexual harassment constitutes a form of sex discrimination. "It not only degrades the woman", the report noted, "but reinforces and reflects the idea of non-professionalism on the part of women workers, who are consequently regarded as less able to perform their duties than their male colleagues."

    Prostitution and trafficking

    Many women are forced into prostitution either by their parents, husbands or boyfriends -- or as a result of the difficult economic and social conditions in which they find themselves. They are also lured into prostitution, sometimes by "mail-order bride" agencies that promise to find them a husband or a job in a foreign country. As a result, they very often find themselves illegally confined in brothels in slavery-like conditions where they are physically abused and their passports withheld.

    Most women initially victimized by sexual traffickers have little inkling of what awaits them. They generally get a very small percentage of what the customer pays to the pimp or the brothel owner. Once they are caught up in the system there is practically no way out, and they find themselves in a very vulnerable situation.

    Since prostitution is illegal in many countries, it is difficult for prostitutes to come forward and ask for protection if they become victims of rape or want to escape from brothels. Customers, on the other hand, are rarely the object of penal laws.

    In Thailand, prostitutes who complain to the police are often arrested and sent back to the brothels upon payment of a fine.

    The extent of trafficking in women and girl children has reached alarming proportions, especially in Asian countries.

    Many women and girl children are trafficked across borders, often with the complicity of border guards. In one incident, five young prostitutes burned to death in a brothel fire because they had been chained to their beds. At the same time, sex tours of developing countries are a well-organized industry in several European and other industrialized countries.

    The Special Rapporteur has called on Governments to take action to protect young girls from being recruited as prostitutes and to closely monitor recruiting agencies.

    Violence against women migrant workers

    Female migrant workers typically leave their countries for better living conditions and better pay -- but the real benefits accrue to both the host countries and the countries of origin.

    For home countries, money sent home by migrant workers is an important source of hard currency, while receiving countries are able to find workers for low-paying jobs that might otherwise go unfilled.

    But migrant workers themselves fare badly, and sometimes tragically. Many become virtual slaves, subject to abuse and rape by their employers.

    In the Middle East and Persian Gulf region, there are an estimated 1.2 million women, mainly Asians, who are employed as domestic servants. According to the independent human rights group Middle East Watch, female migrant workers in Kuwait often suffer beatings and sexual assaults at the hands of their employers.

    The police are often of little help. In many cases, women who report being raped by their employers are sent back to the employer -- or are even assaulted at the police station.

    Working conditions are often appalling, and employers prevent women from escaping by seizing their passports or identity papers.

    The report of the Special Rapporteur draws attention to the fact that there are many international instruments that can be used to prevent abuse against migrant women and suggests some measures to protect the human rights of migrant women.

    Pornography

    Another concern highlighted in the Special Rapporteur's report is pornography, which represents a form of violence against women that "glamorizes the degradation and maltreatment of women and asserts their subordinate function as mere receptacles for male lust".

    Violence perpetrated or condoned by States

    Custodial violence against women

    Violence against women by the very people who are supposed to protect them -- members of the law enforcement and criminal justice systems -- is widespread.

    Women are physically or verbally abused; they also suffer sexual and physical torture. According to Amnesty International, thousands of women held in custody are routinely raped in police detention centres worldwide. The report of the Special Rapporteur underlines the necessity for States to prosecute those accused of abusing women while in detention and to hold them accountable for their actions.

    Violence against women in situations of armed conflict

    Rape has been widely used as a weapon of war whenever armed conflicts arise between different parties. It has been used all over the world: in Chiapas, Mexico, in Rwanda, in Kuwait, in Haiti, in Colombia.

    Women and girl children are frequently victims of gang rape committed by soldiers from all sides of a conflict. Such acts are done mainly to trample the dignity of the victims. Rape has been used to reinforce the policy of ethnic cleansing in the war that has been tearing apart the former Yugoslavia.

    The so-called "comfort women" -- young girls of colonized or occupied countries who became sexual slaves to Japanese soldiers during the Second World War -- have dramatized the problem in a historical context. Many of these women are now coming forward and demanding compensation for their suffering from Japanese authorities. "Such rape is the symbolic rape of the community, the destruction of the fundamental elements of a society and culture -- the ultimate humiliation of the male enemy", the report by the Special Rapporteur noted. It stressed the need to hold the perpetrators of such crimes fully accountable.

    Violence against refugee and displaced women

    Women and children form the great majority of refugee populations all over the world and are especially vulnerable to violence and exploitation. In refugee camps, they are raped and abused by military and immigration personnel, bandit groups, male refugees and rival ethnic groups. They are also forced into prostitution.

    In her report, the Special Rapporteur proposes the following measures to be taken for the protection of women and girls in refugee camps: improvement of security, deployment of trained female officers at all points of the refugees' journey, participation of women in organizational structures of the camps and prosecution of government and military personnel responsible for abuse against refugee women.

    Legal steps to criminalize violence against women

    In recent years some countries have taken significant steps towards improving laws relating to violence against women. For example:

    • In July 1991, Mexico revised its rape law in several important ways. A provision was eliminated that allowed a man who rapes a minor to avoid prosecution if he agrees to marry her. Now judges are required to hand down a decision regarding access to an abortion within five working days.
    • On 9 June 1994, the Organization of American States adopted the Inter-American Convention to Prevent, Punish and Eradicate Violence against Women (also called Convention of Belém do Parà), a new international instrument that recognizes all gender-based violence as an abuse of human rights. This Convention provides an individual right of petition and a right for non-governmental organizations to lodge complaints with the Inter-American Commission of Human Rights.
    • In Australia, a National Committee on Violence against Women was established to coordinate the development of policy, legislation and law enforcement at the national level as well as community education on violence against women.
    • In 1991, the Government of Canada announced a new four-year Family Violence Initiative intended to mobilize community action, strengthen Canada's legal framework, establish services on Indian reserves and in Inuit communities, develop resources to help victims and stop offenders, and provide housing for abused women and children.
    • In Turkey, a Ministry of State for Women was established whose main goals are, among others, to promote women's rights and strengthen their role in economic, social, political and cultural life. Legal measures are being adopted towards the elimination of violence against women. The establishment of special courts to deal with violence is envisaged. Psychological treatment for abused women is also planned, along with the establishment of women's shelters around the country. Specially trained female police officers could provide assistance to victims of violence.
    • In Burkina Faso, a strong advertising campaign by the Government as well as television and radio programmes on the unhealthy practice of genital mutilation were launched to educate and raise public awareness about the dangerous consequences of such an "operation". A National Anti-Excision Committee was established in 1990 by the present head of State. Today, the practice of genital mutilation has been eliminated in some villages of Burkina Faso. In others, there has been an incredible drop in the number of girls excised: only 10 per cent of the girls are excised compared to 100 per cent 10 years ago.
    • Some countries have introduced police units specially trained for dealing with spousal assault. In Brazil, specific police stations have been designated to deal with women's issues, including domestic violence. These police stations are staffed entirely by women.

    Ensuring That Laws Are Obeyed

    These examples illustrate some steps taken at the national level towards the eradication of violence against women. Combating and eradicating this scourge require enhanced and concerted efforts to protect women at the local, national and international levels.

    States have tended to adopt a passive attitude when confronted by cases of violations of women's rights by private actors. Most laws fail to protect victims or to punish perpetrators. Passing laws to criminalize violence against women is an important way to redefine the limits of acceptable behaviour.

    States should ensure that national legislation, once adopted, does not go unenforced. State responsibility is clearly underlined in article 4 of the Declaration on the Elimination of Violence against Women, which stipulates that "States should exercise due diligence to prevent, investigate and, in accordance with national legislation, punish acts of violence against women, whether those acts are perpetrated by the State or by private persons".

    Any approach designed to combat violence must be twofold, addressing the root causes of the problem and treating its manifestations. Society at large, including judges and police officers, must be educated to change the social attitudes and beliefs that encourage male violence.

    Challenging Traditional Attitudes

    The meaning of gender and sexuality and the balance of power between women and men at all levels of society must be reviewed. Combating violence against women requires challenging the way that gender roles and power relations are articulated in society. In many countries women have a low status. They are considered as inferior and there is a strong belief that men are superior to them and even own them.

    Changing people's attitude and mentality towards women will take a long time -- at least a generation, many believe, and perhaps longer. Nevertheless, raising awareness of the issue of violence against women, and educating boys and men to view women as valuable partners in life, in the development of a society and in the attainment of peace are just as important as taking legal steps to protect women's human rights.

    It is also important in order to prevent violence that non-violent means be used to resolve conflict between all members of society. Breaking the cycle of abuse will require concerted collaboration and action between governmental and non-governmental actors, including educators, health-care authorities, legislators, the judiciary and the mass media.

    Published by the United Nations Department of Public Information DPI/1772/HR--February 1996

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