नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

February 28, 2010

रंग-बिरंगे त्यौहार होली के शुभ अवसर पर सभी नारी ब्लॉग के सभी माननीय पाठकों को ,

ईर्ष्या-द्वेष के वृक्ष जलाएं होली पर, और प्यार की पौध लगाएँ होली पर,
उमंगों की बहार बहाएँ होली पर, और सर्व-मंगल की कामनाएँ करें होली पर.

जीवन में सदा छाएँ रहें खुशियाँ और मस्ती आपके द्वार,
शुभ-कामना करें स्वीकार मुबारक होली का ये त्यौहार.

सादर , अलका मधुसूदन पटेल

यूँ आरंभ हुई होलिकादहन

होली व होलिका-दहन को लेकर तमाम मान्यताएं हैं. उनमें सबसे प्रचलित दैत्यराज हिरण्यकश्यप, उसके विष्णुभक्त बेटे प्रहलाद और उसकी बहन होलिका से जुडी हुई है.पर इससे परे भी एक मान्यता है. भविष्य पुराण में वर्णन आता है कि राजा रघु के राज्य में धुंधि नामक राक्षसी को भगवान शिव द्वारा वरदान प्राप्त था कि उसकी मृत्यु न ही देवताओं, न ही मनुष्यों, न ही हथियारों, न ही सदी-गर्मी-बरसात से होगी। इस वरदान के बाद उसकी दुष्टतायें बढ़ती गयीं और अंतत: भगवान शिव ने ही उसे यह शाप दे दिया कि उसकी मृत्यु बालकों के उत्पात से होगी। धुंधि की दुष्टताओं से परेशान राजा रघु को उनके पुरोहित ने सुझाव दिया कि फाल्गुन मास की 15वीं तिथि को जब सर्दियों पश्चात गर्मियाँ आरम्भ होती हैं, बच्चे घरों से लकड़ियाँ व घास-फूस इत्यादि एकत्र कर ढेर बनायें और इसमें आग लगाकर खूब हल्ला-गुल्ला करें। बच्चों के ऐसा ही करने से भगवान शिव के शाप स्वरूप राक्षसी धुंधि ने तड़प-तड़प कर दम तोड़ दिया। ऐसा माना जाता है कि होली का पंजाबी स्वरूप ‘धुलैंडी’ धुंधि की मृत्यु से ही जुड़ा हुआ है। आज भी इसी याद में होलिकादहन किया जाता है और लोग अपने हर बुरे कर्म इसमें भस्म कर देते हैं। *** होली पर्व की रंगारंग शुभकामनायें ***

आकांक्षा यादव

होली शुभ हो

सभी को रंगों के त्यौहार होली की शुभकामनाये । ईश्वर से कामना हैं की मेरे देश मे हर घर मे होली का त्यौहार रंग भरी खुशियाँ लाये और देश मे शांति हो । सफ़ेद रंग शांति का प्रतीक होता हैं इसीलिये शायद जो होली खेलते हैं वो सफ़ेद रंग के ही वस्त्र पहनते हैं और फिर रंगों से सरोबर हो जा ते हैं सफ़ेद रंग पर ही हर रंग खिल कर निखरता हैं ।

आप सब को सपरिवार होली शुभ हो । सफ़ेद रंग पहन क़र विविध रंगों से आप होली खेले इसी शुभकामना के साथ

रचना
नारी ब्लॉग

February 26, 2010

होली की शुभकामनाएं!

 

      सतरंगी होली के रंगों से सजे थाल में   समस्त  नारी  ब्लॉग  के  सदस्यों  को  नारी  ब्लॉग की  ओर से हार्दिक शुभकामनाएं आपके नजर हैं. 


        हमेशा आपके सहयोग , आलोचना और मार्गदर्शन के हम आकांक्षी और आभारी हैं.
 

तुम क्यूं नही संभली ?????



वह इक नारी है.... नही उस जैसी बहुत सी होती है या हम में से वह भी एक है।

     खरा रंग पर नाक नक्श तीखे। रंग को मात देती थी उसकी सुंदरता ।थोड़ा हेाश संभालते ही मां बाप ने एक आदमी से फेरे नाम की क्रिया संपन्न कराकर कर्त्तव्य पूरा कर हल्के हुये। उसे केवल आदमी ही संबोधित करना ठीक होगा। क्योंकि उसका कोई वजूद तो था नही जो मिस्टर या श्रीमान कहा जाता।

कम उम्र में मातृत्व का भार देकर कमाने का कहकर एक दिन दिसावर चला गया। वापिस कोई खबर नही। वह रेाई खूब रोई । ईश्वर से मन्नतें मागी कि उसका पति आ जाये। उसके बिना उसका क्या होगा? वह तो जी ही नही पायेगी। पुरुष के बिना स्त्री का जीना मुहाल है। पर उससे क्या होता ? बच्चा बड़ा होने के लिये बाप का इंतजार नही कर रहा था । उसे रोटी चाहिये थी। वह आंखों में आंसू ले मजदूरी मे जुट पड़ी।  कई छिछोरे आये

लालच दिया कि उसे भूल जा !वह भी तो भूल चुका है लेकिन उसे अपने भारतीय नारी होने पर गर्व था। जिंदगी मायूसी के साथ आशा में कट रही थी । तभी परमेश्वर प्रकट हुआ। वह फूली न समायी । बलैया ली ,कसम दी ,सौगंध  ली और फिर एक बार मातृत्व दिया।  उसे लगा यह संतान उसे बांध कर रख लेगी। पर........

जेा कमाकर लाया था दो चार महीने में खप गया। उसकी कमाई पर कुछ दिन खटिया तोड़ी । वह मनाती कि तुम आराम से रहो ।मैं कमाउंगी । पर मुझे छोड़कर मत जाना।  लेकिन वह बिना कुछ कहे ही भाग छूटा ।  बंबई जाकर खबर दी कि काम ठीक है । कभी वापिस लौटूंगा। उसने अपनी किस्मत को कोसा। रो धोकर दिन बरस और जिंदगी गुजारने लगी।

रोटी कपड़ा मकान, और   जैसे तैसे खुद केा बचाती हुई समय के साथ खुद भी बीत रही थी। सोचा कभी तो पति को सुध आयेगी अपनी संतानों की । जबकि वह जानती थी कि अब नही लौटेगा। लेकिन स्त्रियां अपने आपको भुलावा कितना देती है !गुरुत्वाकर्षण की बजाय स्त्रियों का खुद को आशा की सान्त्वना देना ही धरती को थामे हुये है।

उसे अपने सतीत्व पर पूरा भरोसा था। एक दिन उसका पति उसको जरुर समझेगा। उसकी तपस्या सफल होगी। और खुशियां आयेगी। बूढे बुजुर्गों ने समय की आहट ले ली थी इसीलिये उसे कहा कि दूसरा घर कर ले सुख पायेगी  लेकिन वह ऐसे कैसे कर सकती है। पति चाहे कैसा भी हो उसका तो कुछ फर्ज है ना।

सचमुच वह कुछ वर्षों बाद लैाटा। पता चला वहीं शादी कर ली थी। बच्चे हुये पर वह औरत ही उसे छोड़ कर चली गई।

पति ने माफी मांगी ।वह चीखी चिल्लाई और आखिर उसके दिखाये सपनों में डूबन उतराने लगी ।अब यही रह कर कमाने लगा। पहले वाला दम नही रहा। स्वास्थ्य लगातार गिरने लगा। उसने अपनी तकदीर को कोसा कि अब ही तो उसके जीवन में सुख आया है  वह भी ईश्वर से सहन नही हेा रहा । लेकिन वह तस्वीर का दूसरा रुख नही जानती थी। पति का यही रहना उसने अपने पतिव्रत धर्म का तेज माना था। उसकी तपस्या का फल जान मस्त थी।

पति एड्स की सौगात ले आया था।  

बहुत दिनों बाद कल देखा उसे। बहुत बुरी हालत में थी। आंखों पर विश्वास न हुआ । तीस साल की थी पर पचास से ज्यादा की लग रही थी।  बोलती सी आंखें गहरे काले केाटर में धंस कर अपने संघर्षाें का सिला मांग रही थी। चाम हड्डियों से चिपका अवशेष रह गया था। गंजियाया सिर और फटे कपड़े । हांफती सी स्ट्रेचर पर पड़ी थी।

पति की करतूतों का बोझ तुम पतिव्रता होकर भुगत  रही हो। मैने कहा।

अचंभा यह कि समाज उसके चलन पर ही उंगली उठा रहा है। उस पति को किसी ने नही कोसा कि निर्दाेष को ये सजा क्यूं दी?

पहले क्यूं नही संभली तुम !!! 

..........किरण राजपुरोहित नितिला



 

February 25, 2010

नारी की पोस्ट अखबार मे

courtsey

इक नारी की बहादुरी

नारी अब अपनी जिंदगी के मायने बदल रही है. ऐसी तमाम घटनाएँ सुनने को मिलती हैं जहाँ नारी ने अबला की बजाय सबला बनकर गुंडे-बदमाश-चोरों के छक्के छुड़ा दिए. ऐसा ही वाकया हुआ भोपाल में. भोपाल की एक बहू नीतू अग्रवाल ने दिनदहाड़े घर में लूटपाट करके भागे लुटेरों का स्कूटर से पीछा कर उनको धर दबोचा। भोपाल के रचना नगर में डॉ. केसी अग्रवाल के घर में दिनदहाड़े करीब ढाई बजे तीन लुटेरे घुसे और उन्होंने जेठानी सपना और देवरानी नीतू अग्रवाल के जेवर उतरवाए और भाग निकले। लुटेरे हाथ में खंडर और चाकू लेकर घुसे थे। जब लुटेरे लूटपाट करके चले गए तो नीतू ने उनका स्कूटर से पीछा किया और रेलवे पटरी के पार झाड़ियों में छिपे लुटेरे को देखकर शोर मचाया और वहाँ इकठ्ठी हुई भीड़ की मदद से लुटेरे को पकड़ लिया। वाकई नीतू की इस बहादुरी ने एक उदारहण पेश किया है कि इच्छा-शक्ति हो तो बहुत कुछ किया जा सकता है.

आकांक्षा यादव

February 24, 2010

लिंक

आज इस जगह नज़र गयी आप लोग भी देखे

फिर से महिला-आरक्षण का झुनझुना

एक बार फिर से महिला आरक्षण विधेयक को उसके मूल स्वरूप में केंद्रीय मंत्रिमंडल को भेज दिया गया है। गाहे-बगाहे हर साल देश की आधी आबादी के साथ यह नौटंकी चलती है और नतीजा सिफ़र. इस देश में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष व मुख्यमंत्री पदों पर महिला आसीन हो चुकी हैं, पर एक अदद आरक्षण के लिए अभी भी महिलाओं के पक्ष में सकारात्मक माहौल नहीं बन पाया है. यद्यपि राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने संसद में अपने अभिभाषण में कहा है कि सरकार महिला आरक्षण बिल को जल्दी से जल्दी संसद से पारित कराने के लिए प्रतिबद्ध है। पर दुर्भाग्यवश इस प्रतिबद्धता के पीछे कोई राजनैतिक इच्छा-शक्ति नहीं दिखती है. महिला आरक्षण बिल वाकई एक मजाक बन चुका है, जिस पर हर साल हंगामा होता है. कोई तर्क देगा कि महिलाएं इतनी शक्तिवान हो चुकी हैं कि अब उन्हें आरक्षण की जरुरत नहीं, कोई पर- कटियों से डरता है, कोई आरक्षण में भी आरक्षण चाहता है, कोई इसे वैसाखी बताकर ख़ारिज करना चाहता है तो किसी की नज़र में यह नेताओं की घरवालियों व बहू-बेटियों को बढ़ाने की चाल है. बस इन्हीं सब के चलते राजनीतिक दलों में इस मसले पर आम राय नहीं बन पाने के कारण पिछले एक दशक से भी ज्यादा समय से यह बिल संसद की मंजूरी का इंतजार कर रहा है। पर कोई यह बता पाने की जुर्रत नहीं कर पाता है कि वास्तव में यह बिल मंजूर क्यों नहीं हो रहा है. महिला-आरक्षण को एक ऐसा झुनझुना बना दिया गया है जिससे हर राजनैतिक दल व सत्ताधारी पार्टी खेलती जरुर है, पर उसे कोई सम्मानित स्थान नहीं देना चाहती. फ़िलहाल इंतजार इस बिल के पास होने का....!!!

आकांक्षा यादव

उसने अपना जीवन क्यों गवांया ??

जयपुर --एक लड़की जो पासपोर्ट बनाने के लिए कोशिश कर रही थी .उसे अपने मंगेतर के साथ स्पेन जाना था.इसीलिए तत्काल पासपोर्ट के लिए कोशिश में थी . उसके सत्यापन के लिए थानेदार से मिलना पड़ता था लेकिन उसने उस लड़की को इतना प्रताड़ित क्या की उसने मौत को गले लगा लिया. अखबार में ये खबर थी .
पढ़ कर हर कोई सहम जायेगा .जिनके बेटिया है वो किस कदर खौफजदा होंगे ? एक लड़की के साथ कही भी इंसानों की तरह व्यव्हार नहीं किया जाता.उसे केवल लड़की की तरह ही देखा जाता है.

थानेदार की मानसिकता का खामियाजा इक लड़की को भुगतना पड़ा .उसकी सोचो का शिकार इक लड़की ही क्यों हुई ?? आखिर कब तक ये होगा ?
विधानसभा तक ये चीख पहुची है . पर उससे क्या होगा?
हमें केवल आवाज़ ही नहीं उठानी है उसपर कायम रहकर एक लम्बी लड़ाई लड़नी है.
किरण राजपुरोहित नितिला

February 23, 2010

अपनी विशिष्टता का अहसास करके आत्मबल बढ़ाना होगा

अपनी विशिष्टता का अहसास करके आत्मबल बढ़ाना होगा---आत्म-निर्भरता की ओर कदम बढ़ाने होंगे-
जब हमारा आत्मबल जाग्रत होता है तो दुनिया की समस्त शक्तियां छोटी पड़ जाती हैं .
नारी-शक्ति को स्वयं इसका अहसास कराना होगा.
सदियों से महिलाऐं वैश्विक स्तर में भी समाज में हाशिये पर रही हैं. उनका सिर्फ शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक -भावनात्मक तरीके से मजबूरी व मासूमयित का फायदा उठाये जाता रहा है. उनको आधी दुनिया तो बोला जाता है पर उनको उनके मानव-अधिकारों तक से वंचित रखा जाता रहा है.
पर आज सामाजिक,सांस्कृतिक ,पारिवारिक मूल्यों में निरंतर चेतना बढ़ रही है, परिवेश बदल रहे हैं. वास्तव में समाज में भी कर्तव्यबोध की भावना बढ़ रही है धीरे-धीरे ही सही. पुरुष वर्ग के साथ मुख्यतः अब महिलाओं को भी अपना नजरिया बदलना होगा क्योंकि एक परिवार में वे ही मुख्य धूरी मानी जाती हैं . उनकी खुद की जिंदगी में वे जिस कमी ,भेदभाव,शोषण या ना-इंसाफी का शिकार हुईं हैं ,होती रही हैं . अपनी बेटी - बहू या समाज की हर बच्ची के साथ किसी भी भेद-भाव-भुलावे से मुक्त रखें. विशेष अपने घर में बेटी-बेटे में कोई भेदभाव नहीं करके समान अवसर दें. सही संस्कार व सामाजिक मूल्यों के साथ बचपन से ही बेटी को पूर्ण जागरूक व सशक्त बनाया जाये ना कि प्राकृतिक शारीरिक कमजोरी का अहसास कराके उसका मनोबल कम किया जाये. हर क्षेत्र में जागरूकता की बहुत जरुरत होती है.
अपने परिवार से ही शुरुआत करके व्यापक बदलाव करने होंगे. समाज के हर वर्ग के लिए इस समस्या के निदान ढूंढने होंगे.
वैसे भी सर्व-विदित है कि एक बेटी अपने परिवार से दूसरे परिवार में अपने को आत्मसात करने के बाद भी ( अपनी शादी के बाद) जुडी रहती है पूरा ध्यान रखती है. हाँ हमें अपनी बच्चियों को संपूर्ण सशक्त -सफल -अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता की पहल उसके जन्म से ही शुरू करनी होगी. जब तक हम स्वयं अपने घर में से ही हमारी बच्चियों का आत्मबल बढ़ाने का ध्यान नहीं रखेगे तो किसी जादुई चमत्कार की आशा दूसरे से नहीं कर सकते. अभी हमें बहुत कुछ करना बाकी है घरेलू हिंसा के साथ समाज में दिनों-दिन बढ़ते हिंसात्मक व्यवहार से अपनी व अपने परिवार की सुरक्षा किस तरह की जाये इसकी जानकारी हेतु वृहद उपाय किये जाने होंगे. घरेलू+कामकाजी महिलाओं को अपनी भूमिका सक्षम बनानी होगी ,अपनी बच्चियों को अधिक मूलभूत सुविधा दिलवाने के साथ सतत निगरानी के दायित्व भी निभाने होंगे व उन पर विश्वास करके उनके कर्तव्यों से परिचित कराना होगा ताकि वे किसी गलत लालच या मतिभ्रमित होने से बचें. और वे समाज-परिवार व अपनी जिंदगी में सामान्य संतुलन बनाकर निडर होकर अपना जीवन सार्थक सकें. अपनी बात कहने में हिचक महसूस ना करें.
बालिकाओं की प्रगति व उत्थान के लिए आन्दोलन का प्रारंभ नए तरीके से करना है तो बारम्बार अनेकों अत्याचार व दुर्घटनाओं से हम मात्र विचलित होकर नहीं रहेंगे.
श्रंखलाएं हों पगों में,गीत गति में है सृजन का ,
है कहाँ फुर्सत पलक को ,नीर बरसाते नयन का,
उठो आगे बढ़ो ,ये समय है कुछ कर दिखाने का.
जयहिंद-जय महिला-शक्ति.
अलका मधुसूदन पटेल ,लेखिका+साहित्यकार.

साहस और चतुराई को बनाया हथियार................


आज आये दिन लगभग सभी दैनिक समाचार पत्रों में शहरी क्षेत्रों में होने वाली लूट-खसोट और चोरी की घटनाओं का उल्लेख मिलता है, जिसमें सबसे अधिक घटनाएँ महिलाओं के साथ होती हैं. इससे स्पष्ट होता है की आज कोई भी अपने और अपने परिवार को सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रहा है. कब क्या अप्रिय घटना घट जाय कोई कुछ नहीं बता सकता! यह समस्या घर और बाहर दोनों जगह बराबर बनी है.  मेरा मानना है इस दिशा में चाहे घरेलु महिला हो या कामकाजी दोनों को आत्मनिर्भर बनने की सख्त जरूरत है, जिसे वह कम से कम अपनी और अपने परिवार पर आने वाली किसी भी मुशीबत का सामना अपने साहस और सूझ-बूझ से दे सके. बिना बिलम्ब किये अपनी सूझ-बूझ से ही उसे इन असामाजिक तत्वों का मुकाबला करने का साहस दिखाने की आवश्यकता है.
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल से दैनिक समाचार "पत्रिका" में प्रकाशित एक ऐसे ही साहसिक घटना की कतरन प्रस्तुत कर रही हूँ, जिससे निश्चित ही इस दिशा में सार्थक सन्देश मिल सकेगा.......  जय हिंद
-कविता रावत


February 22, 2010

मैं खुले आकाश में उड़ना चाहती हूँ


चौदह साल की रिंकू अपने खिलंदड़े स्वभाव के लिए घऱ-स्कूल में जानी जाती थी। किसी की कोई भी समस्या हो रिंकू के पास उसका समाधान रहता था। घर में मम्मी-पापा के अलावा एक बड़ा भाई था। घर में कभी उसको इस बात का अहसास नहीं कराया गया कि लड़की होने के कराण वह लड़कों से किसी भी बात में कमतर है। उसकी उपस्थिति किसी सुखद वायु के झोके के समान थी।

एक दिन नियत समय पर वह स्कूल जाने के लिए घर से निकली, अभी गली के नुक्कड़ तक ही पहुँची थी कि वहां खड़े कुछ शोहदों ने उस पर फब्तियां कसी। यह सब इतना अप्रत्याशित था कि की पहले तो उसे कुछ समझ नहीं आया। फिर उसने पलट कर देखा तो पाया ज्यादातर चेहरे जाने-पहचाने थे। सब उसी मुहल्ले के लड़के थे। जिन्हें वह बचपन से देखती आ रही थी। वह कुछ कहना चाहती थी कि तभी पीछे से आ रही सहेली ने उसका हाथ पकड़ा और खींचती हुई आगे ले गई। काफी दूर तक उन शोहदों की हँसी उनका पीछा करती रही।

इसके बाद तो ये रोज की ही बात हो गई, रिंकू कभी अकेले तो कभी सहेली के साथ वहां से गुजरती और वे उस पर फब्तियां कसते। रिंकू ने उनकी शिकायत माँ से की। पर माँ ने कहा, बेटा उस रास्ते से स्कूल मत जाया करो, किसी और रास्ते से जाया करो। उन बदमाशों के मुंह लगने की जरूरत नहीं है। लेकिन दुर्भाग्यवश स्कूल जाने का एक मात्र वहीं रास्ता था। पिताजी को जब रिंकू की परेशानी के बारे में पता चला, तो उन्होंने कहा, परेशान होने की बात नहीं है। कोई गुण्डाराज नहीं है। हम पुलिस में कमप्लेंट करेंगे। जब पुलिस के चार डंडे पड़ेगे, साले लड़कियों को छेड़ना भूल जाएगे।

रिंकू के पिताजी ने स्थानीय थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दी। उन्हें लगा कि अब उनकी बेटी सुरक्षित है। लेकिन पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की। उल्टे शिकायत करने वे शोहदे और चिढ़ गए और छीटाकशी, शारीरिक छेड़छाड़ में बदल गयी। पुलिय द्वारा कोई कार्यवाही न करने और शोहदों के बढ़े हुए तेवर देखकर, रिंकू के घरवालों ने उसका स्कूल जाना बंद करवा दिया। वे नहीं चाहते थे कि उनकी लाडली बेटी के साथ किसी तरह दुर्घटना हो। रिंकू के लिए ये पूरी परिस्थितियां अत्यन्त कष्टदायक थी। हरदम हवा में उड़ने वाली लड़की घर की चाहरदिवारी के बीच कैद थी। स्कूल की सहेलियों से फोन पर बातें होती, लेकिन दरवाजे पर खड़े शोहदे और तमाशबीन बना मुहल्ला उसे घर से निकलने की इजाजत नहीं देता।

रिंकू को अपने लड़की होने का अहसास रह-रह कर कचोटता। वह खुली में हवा में साँस लेना चाहती थी। वह अपने कमरे में पड़-पड़े रोती रहती। दूसरों की समस्याओं को समाधान करने वाली रिंकू ने अपनी समस्या का भी एक समाधान निकाला। एक दिन जब माँ किचेन में व्यस्त थीं, भाई स्कूल गया था और पिताजी ऑफिस। रिंकू ने अपने कमरे में लटकते फैन में फाँसी लगा ली। साथ की टेबल पर एक कापी खुली रखी थी - जिसपर लिखा था, आप मुझे इस तरह कैद में नहीं रह सकते। मैं खुले आकाश तले उड़ना चाहती हूँ। इसलिए मैंने खुद को हर बंधन से आज़ाद कर लिया है। -रिंकू.

-प्रतिभा वाजपेयी

एक तकनिकी सूचना जन हित मे जारी

एक तकनिकी सूचना उनके लिए जो लोग अपनी वेबसाइट बनवा रहे हैं , या अपना ब्लॉग , निज कि साईट पर शिफ्ट कर रहे हैं और किसी साईट बनाने और होस्ट करने वाली कंपनी से सहायता या सर्विस ले रहे हैं
वो ध्यान दे कि आप उस कम्पनी से अपनी वेबसाइट का पासवर्ड अवश्य ले ले और साईट शुरू होने के बाद उस साईट पर उपलब्ध सब विडजेट , काउंटर इत्यादि के पासवर्ड बदल दे ताकि जिस कंपनी ने आप का वेबसाइट बनाया हैं वो आप कि कोई भी जानकारी साईट बनाने के बाद उस मे से ना निकाल सके ।
पासवर्ड लेना इस लिये भी जरुरी होता हैं कि अगर आप भविष्य मे किसी और कंपनी से साईट ठीक करवाना चाहे तो आप करवा सके । बहुत बार अज्ञानता वश लोग पासवर्ड नहीं लेते हैं और फिर वो अपनी आत्म निर्भरता खो देते हैं ।

February 20, 2010

नारी की पोस्ट अखबार मे

साभार

बच्चों की पोशाक और जेंडर-भेद

आज अपने इस लेख के माध्यम से मैं एक नयी बहस करने जा रही हूँ. पिछले कुछ दिनों मैं अपनी दीदी के यहाँ रहकर आयी हूँ. दीदी की नौ साल की बेटी है. किशोरावस्था की ओर कदम बढ़ाती इस बच्ची की कुछ बातों को सुनकर आश्चर्य होता है कि कैसे बचपन से ही हम बच्चों के मन में जेंडर-भेद के बीज बो देते हैं. हाँलाकि हमारे परिवार में इस बात का ध्यान दिया जाता है, पर बच्चों को आस-पड़ोस की बातों से तो नहीं बचाया जा सकता.
हुआ यह कि हमें कहीं जाना था तो उसे दीदी ने एक ड्रेस पहनानी चाही इस पर बच्ची ने उसे इसलिये पहनने से मना कर दिया क्योंकि उसकी किसी दोस्त ने उससे कह दिया था कि यह ब्वायज़ की ड्रेस है. जब मैंने उसे समझाया कि यह एक कार्गो पैंट है जिसे लड़का-लड़की दोनों पहनते हैं तो वह मान गयी. इस छोटी सी बात ने मुझे सोचने के लिये मज़बूर कर दिया कि इस तरह की बातें बच्चों को सिखाना उचित है या नहीं? वैसे तो बच्चों को अपने पसंद की पोशाक चुनने का अधिकार होना चाहिये, परन्तु प्रश्न यह है कि इस चयन का आधार क्या हो? मेरे विचार से बच्चों को मौसम और आराम के अनुसार कपड़े पहनना सिखाना चाहिये न कि केवल फ़ैशन के आधार पर. मैंने यह भी देखा है कि आजकल छोटी लड़कियाँ "स्लीवलेस" पोशाक ही पहनना चाहती हैं. उन्हें यह बताना चाहिये कि शाम को बाहर खेलते समय छोटे कपड़े पहनने से उन्हें कीड़े और मच्छर काट सकते हैं, जिससे उनकी तबीयत ख़राब हो सकती है. इसके अतिरिक्त कम कपड़े पहनने से गिरने पर चोट भी लग सकती है. मैं यह मानती हूँ कि बच्चों को यह अहसास दिलाया जाना चाहिये कि वे लड़का हैं या लड़की, पर इसके आधार पर उनके साथ भिन्न-भिन्न ढँग से व्यवहार करना उचित नहीं है.
हम पता नहीं लिंग-भेद के प्रति इतने आग्रही क्यों होते हैं. पहले लड़कियों को सिखाया जाता था कि अपने शरीर को ढँककर रखो, पूरी बाँह के कपड़े पहनो. मुझे याद है कि जब मैंने सलवार-कुर्ता पहनना शुरू किया था तो बहुत दिनों तक पूरी बाँह के कुर्ते ही पहनती थी. आजकल लोग अपनी बेटियों को पूरी छूट देते हैं उनके मनपसंद कपड़े पहनने की. पर मानसिकता अब भी वही है. अब भी हम स्वास्थ्य और आराम की अपेक्षा चलन पर अधिक ध्यान देते हैं. यह सच है कि छोटी बच्चियाँ "क्यूट" पोशाकों में प्यारी लगती हैं, पर कहीं ऐसा न हो कि इसके चलते उनमें कोई कुंठा बैठ जाये.
ये मेरे विचार हैं, आपको क्या लगता है... ...??

February 19, 2010

नारी संबोधनकारी गलियों को बर्दाश्त करना..........


हमारे देश में नारी के लिए "यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता" यानि जहाँ नारी की पूजा की जाती है, वहां देवता रमते हैं. लेकिन वास्तव में कुछ ऐसा दिखता नज़र नहीं आता है. जहाँ एक ओर नारी के सम्मान की बात की जाती है, वही दूसरी ओर इसकी वास्तविकता की तस्वीर समाचार पत्रों और टीवी आदि के जरिये सबके सामने आये दिन देखने-सुनने को मिलती रहती है, जो एक बुरे सपने की तरह आकर गुजर जाती है, यह देख वास्तविकता नज़र आती है कि आज भी पुरुष दृष्टिकोण में नारी के प्रति कोई बहुत बड़ा मूलभूत परिवर्तन नहीं आ पाया है, जिसे देखकर बहुत दुःख होता है कि यह परिवर्तन कब होगा? इसी दिशा में नारी मंच के माध्यम से मैं आज एक सामाजिक बुराई की ओर सबका ध्यान आकृष्ट करना चाहती हूँ कि क्यों जहाँ एक ओर समाज औरत को सम्मान देने की बात करता है, वहीँ दूसरी और उसके लिए गालियों को बौछार सरेआम होते देख मूक बनी रहती है और गाली भी ऐसी कि न माँ दिखती है और न बहन! कितनी बिडम्बना है यह! क्या आज जगह-जगह इस बेशर्म की तरह उग रही अमरबेल को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए नारी-पुरुष मानसिकता से उठकर एकजुट होने के जरुरत नहीं है? क्या इस तरह की नारी संबोधनकारी गलियों को बर्दाश्त करना उचित होगा? यदि नहीं तो, आओ अपने-अपने स्तर से इस बुराई को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए आगे आयें और ऐसे लोगों को बता दें (जो अपनी माँ-बहन का सम्मान भूल चुकें है) कि हम नारी का अपमान हरगिज़ बर्दाश्त नहीं करेंगें.

-Kavita Rawat

मेरा पक्ष

एक ब्लॉगर सम्मेलन कि रिपोर्ट यहाँ दी गयी हैं

मैने उस पोस्ट पर एक कमेन्ट दिया था ताकि स्थिति स्पष्ट हो कमेन्ट moderation ब्लॉग मालिक का अधिकार हैं इस लिये वो कमेन्ट हटा दिया गाया । वो पूरा यहाँ सिलसिलेवार दे रही हूँ ताकि मेरे ऊपर जो वार्तालाप हुआ हैं उसका सही सच सामने आये
रचना said...

एक चर्चित ब्लोग्गर ( जो ब्लॉग पर नारीवाद की अति और पुरुष विरोधी मानसिकता के लिए जानी जाती है ) का जिक्र आया तो आपने कहा की उनसे नारी मुद्दों पर खूब चर्चा होती थी और वो उनके विचार भी मांगती थी लेकिन एक दिन उस ब्लोग्गर की किसी पोस्ट से उन्होंने पूरी असहमति दर्ज की तो उन्होंने कहा अब मै कभी आपसे बात नहीं करूंगी तो उन्होंने भी खुशी से हमेशा के लिए विदा दे दी.

this is about me and i want to clarify that i stoped talking to mr dinesh after he called me a fool during a email exchange in relation to a post by mr satish saxena about rakshand khan

people try to show they are good by spreading stories about others and that also false stories

i am surprised a reputed person like mr dinesh also does this

रचना said...

Re: Chat with Rachna Singh
Reply
|Rachna Singh to दिनेशराय
show details 10/21/08


आप का कमेंट वहाँ सब से भद्दी बकवास है।

sir
This does not look like your "lanugage " but if its then do let me know what was wrong in my giving my "open " point of view " and what exactly irked u to use such a downlevel of conversation . All the more if something was so bad there in my comment then you need to elaborate on the same and write it there itself and give me an chance to explain or refute
But this type of language coming from you is very surprising
regds
rachna
----- Original Message -----
From: दिनेशराय द्विवेदी
To: Rachna Singh
Sent: Monday, October 20, 2008 11:38 PM
Subject: Re: Chat with Rachna Singh


बकवास बहस है और आप का कमेंट वहाँ सब से भद्दी बकवास है। एक अच्छा भला काम छोड़ कर आप भी कुछ दिनों के प्रशंसक जुटाने के लिए बकवास करने लगी हैं।


2008/10/20 Rachna Singh



These messages were sent while you were offline.


11:15 PM Rachna: http://satish-saxena.blogspot.com/2008/10/blog-post_8961.html
is par aaye kaments samy miltey hee daekhey



--
दिनेशराय द्विवेदी, कोटा, राजस्थान, भारत
Dineshrai Dwivedi, Kota, Rajasthan, http://anvarat.blogspot.com/
http://teesarakhamba.blogspot.com/
http://judisndia.blogspot.com/


sabki suvidha kae liyae email kaa kuchh hissa yahaan dae rahee hun taaki blogggers meet mae maere baarey jo "healthy dissucssion " ho rahey haen unki asliyat bhi pataa chaele

रचना said...

पुरुष विरोधी हूँ ये विचार उनका हैं जो स्त्री के opiniated होने को पुरुष विरोधी मानते हैं । स्पष्ट वादी हूँ और सच बोलती हूँ और साक्ष्य आप को दे दिया हैं अब अगर हिम्मत हैं और जमीर हैं तो क्षमा मांग ले कि आप लोगो एक भ्रान्ति पूर्ण बात कि हैं और अगर हिम्मत और ज़मीर दोनों ही नहीं हैं तो बेकार ब्लोगिंग मे आये हैं आप लोग


स्वरक्षा के लिए तैयार हों!


छेड़ा तो शेरनी बनकर टूटी शोहदे पर

कानपुर। १९ फरवरी (दैनिक जागरण )

शोहदे ने सोचा था कि टिप्पणी करके भाग निकलेगा मगर स्कूटी सवार युवती ने लोडर को ओवरटेक कर रोक लिया। लोडर से नीचे उतारा और तबीयत से पीटा। फिर पुलिस को सौंप दिया। इतना ही नहीं उसने तमाशबीनों को भी 'क्या तुम्हारी मां-बहन नही है' कहकर बड़ा सबक सिखा दिया।
किदवईनगर सब्जी मंडी निवासी शाहिद गुरुवार को लोडर में सब्जी लादकर आ रहा था। वह लोडर में बैठा था, सचान गेस्ट हाउस के पास उसने स्कूटी सवार एक युवती से अश्लीलता शुरू कर दी। अभद्र टिप्पणियां कीं, चालक ने भी लोडर दौड़ा दिया। युवती ने साहस दिखाकर स्कूटी पीछे दौड़ायी और लोडर को ओवरटेक कर रोक लिया। फिर शोहदे शाहिद को नीचे उतारा और जमकर पिटाई की। बीच सड़क पर यह अजीब दृश्य देख वहां मजमा लग गया। युवती ने तमाशबीनों को भी खूब खरी-खरी सुनाई और संदेश दिया कि जनता ही ऐसी न हो तो शोहदों हिम्मत ही न करें। इसी दौरान सूचना पर बर्रा पुलिस पहुंच गयी। युवती ने शोहदे को पीटते हुए बर्रा पुलिस को सौंप दिया।


                              छेड़छाड़  के विरोध में  कुछ भी कहने के पहले ये आज की घटना देख लेना काफी है. लेकिन ऐसी हिम्मत वाली लड़कियाँ  कितनी होती हैं? आज क्यों लड़कियाँ जूडो कराटे  में प्रशिक्षण लेना चाहती हैं क्योंकि अपनी सुरक्षा स्वयं करनी होगी.  ये शोहदे सिर्फ फिकरे बाजी कर सकते हैं और उनमें इतनी हिम्मत नहीं होती कि हिम्मतवालों  का सामना कर लें. 
                            इसमें हमारा समाज कम दोषी नहीं है, कई बार ऐसी घटनाएँ घटित होती रहती हैं और भीड़ इसी तरह से तमाशा देखती रहती है. बेकार आवारा लड़कों के पास कुछ भी काम नहीं होता है सिवा इसके कि लड़कियों के कोचिंग के सामने , पान कि दुकानों पर जमा होकर फिकरे कसें. एक ढांचा तैयार करना होगा, जिसमें लड़कियों को अपनी सुरक्षा के लिए बचपन से ही स्वरक्षा के लिए कुछ ठोस तरीके जैसे कि बड़े होकर वे जुडो और कराटे में रूचि लेती हैं, स्वरक्षा के तौर पर विद्यालय स्तर पर ही इन विषयों को समावेशित कर दिया जाना चाहिए. बहुत महारत हासिल नहीं भी करेंगी तब भी वे स्वरक्षा के लिए सक्षम होंगी. बल्कि ये तो सभी बच्चों के लिए आवश्यक है. समाज में बढती अव्यवस्था में अपनी सुरक्षा अपने हाथ में होनी चाहिए. इस से सिर्फ छेड़छाड़ कि घटनायों में कमी आएगी बल्कि बलात्कार जैसी घटनाएँ भी कम हो जायेंगी. कम से कम लड़की इतनी सक्षम होगी कि वह उनका बहादुरी से सामना कर सकें. ऐसी घटनायों का शिकार होकर उन्हें आत्महत्या जैसे कदम तो नहीं उठाने पड़ेंगे.
                          आज किशोरावस्था कि ओर बढ़ रही लड़कियों के लिए ये प्रशिक्षण बहुत हितकारी साबित होगा. आने वाली पीढ़ी को तो शिक्षा के साथ ही इसका ज्ञान देना आवश्यक हो गया है. 

अपनी परम्पराओं की ओर लौटना होगा


दहेज एक सामाजिक बुराई है। सिर्फ कानून के माध्यम से इसे नहीं रोका जा सकता है। कुछ राज्यों में इसका बड़ा भयावना चेहरा देखने को मिल रहा है। यहां लड़के का पालन-पोषण, उसकी शिक्षा-दिक्षा को एक इनवेस्टमेंट के रूप में देखा जाता है। विवाह के अवसर पर इसे सूद समेट उगाहना, लड़के के माता-पिता अपना अधिकार समझते है। इसके कारण कितने परिवार टूटते है? कितने परिवारों में जीवन भर के लिए मनो-मालिन्य पैदा हो जाता है कहना मुश्किल है।

शर्माजी ने अपनी जिंदगी की शुरूआत बहुत निचले स्तर से की थी, लेकिन बेटे के जन्म के बाद उनके सपनों को पंख लग गए। जो खुद नहीं हासिल कर पाए, अब बेटे के माध्यम से पाने की ठान ली। जिस दिन अपने बेटे का एडमीशन इंजीनियरिंग कालेज में कराया, उसी दिन से बेटे के ऊपर खर्च का हिसाब रखना भी शुरू कर दिया। पढ़ाई समाप्त करने के बाद बेटे को अच्छी कम्पनी में नौकरी मिल गई। लेकिन शर्माजी अपने खर्च किए गए पैसे का पूरा उपभोग करना चाहते थे इसलिए उन्होंने बेटे की नौकरी के लिए उसी कंपनी मे जुगाड़ किया जहां वे स्वयं नौकरी करते थे। ताकि रिटायरमेंट के बाद भी बेटे के साथ रहते हुए नौकर गाड़ी की सुविधाएं भोग सके। ये उनके इंवेस्टमेंट का पहली किस्त थी। दूसरी किस्त थी बेटे की शादी में मिलने वाला दहेज।

दहेज में नगद, ज्वैलरी, गाड़ी, सामान सभी की लिस्ट पहले से तैयार कर ली गई। उन्होंने एक अनुमान लगा लिया था कि उन्हें शादी बीस से पच्चीस लाख के बीच में करनी है। कई रिश्ते आए। लड़कियां भी पसंद आई, पर बात-चीत पैसे पर आकर टूट जाती। शर्माजी चाहते थे कि आने वाली लड़की पढ़ाई में भी उसके टक्कर की हो। यानी दोनों हाथ में लड्डू। आखिरकार उन्हें एक रिश्ता मिल भी गया। लड़की पढ़ी-लिखी थी, नौकरी करती थी। घर से भी ये लोग मजबूत थे। शर्माजी ने अपनी सभी बातें उनके सामने स्पष्ट कर दीं। लड़की वालों ने भी हामी भर दी।

लड़की वाले खानदानी रईस थे और शर्माजी ने बेटे को सीढ़ी बनाकर लखपती बनने के सपने संजोये थे। दोनों की सोच में अंतर था। बड़ी-बड़ी धूमधाम से बारात आई। लड़की वालों ने शर्माजी को उनकी कल्पना से भी बढ़कर दान-दहेज दिया।
शादी के बाद शर्माजी का घर दहेज के सामान से भर गया। जो देखता उनके भाग्य को सराहता। वे भी गर्व से कहते कि उन्होंने अपने बेटे की शादी जिला ऊपर की है। बता दे कोई, जिसके घर में इतना दहेज आया हो। यह कहते हुए, दरवाजे के बाहर खड़ी चमचमाती कार देखकर उनका सीना गर्व से फूल जाता।

इस तरह शादी तो जिला ऊपर हो गई, पर ब्याह कर जो लड़की आई, वह अपने इस नए परिवार के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त थी। उसे अपनी सास का रुढ़िग्रस्त बर्ताव पसंद नहीं था। उसकी अपनी पसंद नापसंद थी, जो सास के साथ मेल नहीं खाती थी। छोटी-छोटी बातों को लेकर घर में कलह होने लगी। पूरा परिवार बहू के मैके के वैभव तले इस कदर दबा हुआ था कि उसकी किसी भी बात का विरोध करने का साहस नहीं जुटा पाता। माँ की बहू पर शासन करने की बलवती इच्छा मन ही मन कसमसा कर रह जाती। उन्हें कई बार अपनी बहू के हाथों अपमानित होना पड़ता। पर कह कुछ नहीं पाती, जो वैभव वो भोग रही थी, उसे छोड़ कर जाने की कल्पना ही उन्हें असहनीय लगती।

शर्मा दम्पत्ति के पास संसारिक दिखावे की हर वस्तु थी, पर मन की शांति नहीं थी। जिस घर में रहने के इतने सपने देखे थे, वह अब बेगाना लगने लगा था। जिला ऊपर शादी करने का दर्प भी टूटने लगा था। कई बार सोचते, अगर बेटे की शादी अपनी हैसियत के लोगों के साथ की होती तो अच्छा होता। पर अब कुछ नहीं हो सकता था। वे अपना बेटा ऊँची कीमत पर बेंच चुके थे और बिकी हुई चीज पर वह अपना हक किस मुँह से जताते। हालात इस कदर बिगड़े की बेटे ने माँ-बाप को घर की शांति के लिए घर छोड़ देने को कह दिया।

शर्मा दम्पत्ति के पास घर छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। वे चुपचाप गांव जाकर अपने पुश्तैनी मकान में रहने लगे। जहां किसी तरह की सुविधा नहीं थीं। यहां तक बिजली भी नहीं आती थी। पर क्या कर सकते थे, जो बोया था वही काट रहे थे।

तो कुल मिलाकर मामला ये है कि पहले हमारे समाज में शादी सिर्फ दो आत्माओं का मिलन नहीं था, इसके माध्यम से दो परिवार भी जुड़ते थे। पर आज शादी के समय में लड़की वाले सिर्फ लड़के को देखते हैं और लड़के वाले पैसे को। बाकी की चीजे नगण्य है। इसलिए सामाजिक समस्याएं भी खड़ी हो रही। अगर हम एक स्वस्थ और अच्छी जिंदगी जीना चाहते हैं, तो हमें अपनी परम्पराओं की ओर लौटना पड़ेगा।

-प्रतिभा वाजपेयी

छेड़छाड़ की समस्या

बहुत दिनों से मैं इस लेख पर अच्छी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा कर रही थी. आज सोचा कि कुछ लिख ही लिया जाये. मेरे एक मित्र ने छेड़छाड़ की समस्या को एक मानसिक समस्या बताया है. मैं उनकी इस बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं हूँ. यह समस्या केवल मनोवैज्ञानिक नहीं बल्कि सामाजिक समस्या है. अगर इस समस्या को केवल मनोवैज्ञानिक मान लें तो दुनिया के साठ से सत्तर प्रतिशत पुरुष मनोरोगी सिद्ध हो जायेंगे. यह इतनी सीधी-सादी सी बात नहीं है. जिस तरह भारत में दलितों की समस्या की जड़ें इसके इतिहास और सामाजिक ढाँचे में निहित हैं, उसी प्रकार पूरे विश्व में नारी की समाज में दोयम स्थिति की जड़ें भी इतिहास और समाज में हैं. ये बात अलग है कि यह समस्या अलग-अलग देशों और समाजों में भिन्न-भिन्न रूप और स्तर लिये हुये है. एक बात और है कि कुछ देशों और समाजों ने इस समस्या पर काफी पहले ध्यान दिया और इसे दूर करने के प्रयास भी किये. हमारे सामने स्कैंडेनेवियाई देशों का उदाहरण है, जहाँ लिंग-भेद दूर तो नहीं हुआ, पर अन्य स्थानों से कम ज़रूर है.
महिलाओं के साथ छेड़छाड़ की समस्या हमारे समाज में गहरे पैठी लिंग-भेद से ही उपजती है, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती. हम देखते हैं कि बचपन से ही लड़के और लड़की के पालन-पोषण में दो अलग-अलग मानदंडों का प्रयोग किया जाता है. जहाँ लड़कों को बहिर्मुखी गुणों की शिक्षा दी जाती है, लड़कियों को कोमल गुणों की. लड़के के रोने पर रोक लगायी जाती है और लड़कियों के ज़ोर से हँसने पर. यदि आप लोगों के व्यवहार पर सूक्ष्म दृष्टि डालें तो आप देखेंगे कि विशेषतः गावों में लोग छोटे लड़कों के जननांगों को तरह-तरह से पुकारते और लाड़ करते हैं. यह सामाजीकरण की एक विशेष प्रक्रिया है, जिससे लड़कों में बचपन से ही एक उच्च्तर भावना आ जाती है जिसे अंग्रेजी में सुपीरियरिटी काम्प्लेक्स कहते हैं और लड़कियों में हीन-भावना आ जाती है. क्योंकि वे सोचती हैं कि कोई ऐसी चीज़ लड़कों के पास है जो उनके पास नहीं है. यदि आप सीमोन द बुआ की सेकेन्ड सेक्स पढ़ें तो ये सब बातें आपको और अधिक स्पष्ट हो जायेंगी. धीरे-धीरे यही ग्रन्थि आगे चलकर लड़कों में अपने शरीर के प्रति एक ख़ास तरह का अहंकार पैदा करती है और वे बात-बात में अपनी शारीरिक शक्ति का प्रदर्शन करने लगते हैं. लड़कों द्वारा लड़कियों से छेड़छाड़ के पीछे उनकी यही मानसिकता है. इसके द्वारा वे खुद को लड़कियों से श्रेष्ठ दिखाना चाहते हैं.
इस प्रकार भले ही यह समस्या मनोवैज्ञानिक हो पर इसके मूल में सामाजीकरण की प्रक्रिया है. इस प्रकार दोष किसी एक पुरुष या समाज के किसी एक हिस्से का नहीं बल्कि पूरे सामाजिक ढाँचे का है. मज़े की बात यह है कि माँ-बाप कब अपने बच्चे में ये ग्रन्थि पैदा कर देते हैं उन्हें खुद ही नहीं मालूम होता क्योंकि ये तो हमेशा से होता आया है और हमारे समाज की संरचना में रचा-बसा है. मैं मानती हूँ कि और भी बातें हो सकती हैं जो इस समस्या को गंभीर बना देती हैं. और बहुत बार एक व्यक्ति के व्यक्तित्व पर भी कुछ निर्भर करता है. पर सामान्यतः छेड़छाड़ की समस्या सामाजिक है और यदि हम अपने बच्चों के पालन-पोषण में कुछ बातों का ध्यान रखें तो इसे दूर भी कर सकते हैं.

February 18, 2010

मुक्ति के लिए जवाब !

                         इसका जवाब देना एक कमेन्ट में संभव न था , इसलिए इस पोस्ट की जरूरत पड़ गयी. इस समस्या का जिम्मेदार कोई भी नहीं है. यह तो काल और देश की परिस्थितियां ऐसी होती हैं की साधारण सी घटना एक प्रश्न चिह्न बन कर कड़ी हो जाती है.
                       आज से ३० साथ पहले के समाज और परिवार में लड़कियों और लड़कों में विभेद था और यह विभेद एक निश्चित आयु के बाद करना उनकी मजबूरी थी. इस भय को हमने झेला है. ये किशोर होने पर विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण प्राकृतिक घटना है किन्तु समय के अनुसार सब बदल जाता है. तब लड़कियों की शिक्षा के लिए अलग व्यवस्था होती थी. गर्ल्स स्कूल में ही लड़कियों को पढ़ाया जाता था. तब लड़कों के लिए लड़कियाँ सड़क पर मिल जाना बड़ी बात होती थी और फिर तो फब्तियां कसने के सिवा कुछ कर नहीं सकते थे. लड़कों से बात करना तो बहुत बड़ी बात हो जाती थी. समाज हमसे ही बना है और परिवार उसके घटक हैं. वे अपनी मर्यादा के अनुसार ही लड़कियों से अपेक्षा कर सकते थे.
                                आज के परिवेश में लडके और लड़कियों के लिए अलग अलग शिक्षा होना जरूरी नहीं रह गया है और बच्चों की सोच भी उसी के अनुरूप बदल गयी है. सब साथ पढ़ते हैं और बराबर के मित्र होते हैं. पहले लड़के तो मित्र हो ही नहीं सकते थे और आज हम खुद अपने बच्चों के लिए ऐसा नहीं सोचते हैं. जो छेड़छाड़ की घटनाएँ आज भी मिलती हैं, वे लड़कों के परिवेश और परिवार के अनुरूप होती है. जिस वातावरण में वे पलते हैं उसी के अनुरूप आचरण करते हैं. आज लड़के और लड़कियों की परिवरिश भी एक ही तरीके से हो रही है और लड़कियाँ पढने में अधिक आगे चल रही हैं. उनमें आज लड़कियाँ होने का भय कम हो गया है. हर क्षेत्र में काम कर रही हैं.
                                इस छेड़छाड़ के लिए शैक्षिक और मानसिक स्तर भी बहुत बड़ी भूमिका निभाते है. वे ही इसमें लिप्त आज भी होते हैं, जो किसी कारण से पढ़ नहीं रहे हैं या फिर बहुत बड़े घर के बेटे हैं जिनके लिए उचित मार्गदर्शन और शिक्षण को महत्वपूर्ण नहीं समझा गया है. वैसे अपवाद इसके भी बहुत सारे मिलेंगे क्योंकि मानसिक प्रवृत्तियां सबमें विद्यमान होती हैं और वे स्वस्थ और कुत्सित सभी प्रकार की होती हैं. जो व्यक्ति पर प्रभावी हो जाएँ.

मेरे कुछ सवाल...जवाब कौन देगा?

मेरा पालन-पोषण बचपन से ही लड़कों की तरह हुआ था. मैं अपने भाई से सिर्फ़ एक साल बड़ी हूँ. मेरे घर में हम दोनों के लिये एक जैसी चीज़ें आती थीं. मुझे कभी नहीं लगा कि मैं उससे किसी भी मामले में अलग हूँ. पढ़ने-लिखने में उससे ज़्यादा तेज थी, इसलिये मेरे पिताजी मेहमानों के सामने मेरी बडा़ई करते थे. मैं उनकी दुलारी बिटिया थी. पर धीरे-धीरे मेरे बड़े होने के साथ ही चीज़ें बदलने लगीं. माँ मुझे लड़कों के साथ खेलने के लिये मना करने लगी. मेरा भाई शाम को देर से खेलकर घर आता था, पर मेरा बाहर आना-जाना बन्द हो गया. हम पढ़ने गाड़ी(ट्रेन) से आते-जाते थे. गाड़ी में अनचाहे स्पर्शों का सामना करना पड़ता था. मेरा भाई भीड़ में भी घुसकर बैठ जाता था और मैं किनारे बच-बचाकर खड़ी रहती थी .जिन लड़कियों को बस या ट्रेन से दैनिक यात्रा करनी पड़ती है ,उन्हें पता है कि कैसे गन्दे अनुभवों से गुज़रना पड़ता है. उफ़... धीरे-धीरे पता चला कि मैं अपने भाई जैसी नहीं हूँ, मैं उससे अलग कोई और ही "जीव" हूँ, जिसे जब चाहे छेड़ा जा सकता है, जैसे चिड़ियाघर में बन्द जानवरों को कुछ कुत्सित मानसिकता वाले लोग छेड़ते हैं. जब भी मेरे साथ ऐसी कोई घटना होती मुझे लगता कि मेरे अन्दर ही कोई कमी है ,मेरे शरीर में कुछ ऐसा है जो लोगों को आकर्षित करता है .ऐसी बातें सोचकर मैं अपने शरीर को लेकर हीनभावना का शिकार हो गयी. मैं अपनी लम्बाई के कारण उम्र से बड़ी दिखने लगी थी, इसलिये मैं झुककर चलने लगी. मैं अपने उन अंगों को छिपाने लगी जो मुझे मेरे लड़की होने का एहसास कराते थे. इस तरह एक लड़की जो बचपन में तेज-तर्रार और हँसमुख थी ,एक गंभीर, चुप ,डरी-डरी सी लड़की बन गयी. स्नातक की पढाई करने के लिये जब इलाहाबाद विश्वविद्यालय आई और हास्टल में रहने लगी तब अन्य लड़कियों से बात करके पता चला कि छेड़छाड़ की समस्या सिर्फ़ मेरी ही नहीं थी. हर लड़की कभी न कभी इस कड़वे अनुभव से गुज़र चुकी है. ...अब सवाल यह है कि इस अप्रिय परिस्थिति का ज़िम्मेदार कौन है- मेरे परिवार वाले, हर लड़की के परिवार वाले या समाज........और... इसका जवाब कौन देगा या किसे देना चाहिये... क्या आप जवाब देंगे... ???

February 17, 2010

क्या अब हम अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता के नाम पर ब्लॉग जगत को एक बाज़ार बना देगे ??

आज बहुत ही अफ़सोस के साथ मे ये लिंक नारी ब्लॉग पर दे रही हूँ । हिंदी ब्लॉग जगत मे अब ब्लॉग का उपयोग किस लिये हो रहा हैं आप सब देखे । क्या कारण हैं किस भी लड़की का चित्र इस प्रकार से डालने का ? कितना गिरना अभी और शेष हैं ? जानती हूँ मेरे लिये फिर गालियों कि बौछार होगी लेकिन क्या कोई मेरे साथ विरोध मे भी खड़ा होगा और अपना विरोध खुले शब्दों मे व्यक्त करेगा । क्या अब हम अभिव्यक्ति कि स्वतंत्रता के नाम पर ब्लॉग जगत को एक बाज़ार बना देगे ??
इस के अलावा एक और ब्लॉग भी सविता भाभी टाइप जहां बहुत से ब्लॉगर के कमेन्ट में पढे हैं उसका लिंक नहीं दे रही हूँ पर आप सब से विनती करती हूँ कहीं कमेन्ट देने से पहले एक बार प्रोफाइल पर दिया हुआ ईमेल जरुर पढ़ ले

February 16, 2010

विवाह के बारे में फोकटी सलाह

मैं पढ़-लिखकर डिग्री-विग्री लेकर शादी के लिए तैयार थी। जैसे ही पढ़ाई पूरी होती है, बस एक ही काम बचता है वह है शादी। पिताजी ने कहा कि तुम अब नौकरी भी करने लगी हो तो तुम्‍हें किसी कम पढ़े और बेरोजगार लड़के से विवाह कर लेना चाहिए। मैं एकदम से चौंक गयी। पिताजी कैसी सलाह दे रहे हैं? लेकिन उनकी सलाह आज ठीक ही लग रही है, काश ऐसा ही किया होता? मेरी एक मित्र ने लम्‍बा-चौड़ा पहलवान जैसा पति ढूंढ लिया, कारण बताया कि सुरक्षा करेगा। लेकिन कुछ दिन बाद खबर आयी कि वह पत्‍नी से ही दो-दो हाथ कर रहा है।
एक मेरी अन्‍य मित्र एम बी बी एस डाक्‍टर, मैंने उसे एक डॉक्‍टर पति ही बताया लेकिन वो बोली कि नहीं मुझसे ज्‍यादा पढ़ा होना चाहिए। ढूंढ शुरू हुई, और एक पी.जी. डाक्‍टर मिल ही गया। अब पत्‍नी ग्रेजयूट और पति पोस्‍ट-ग्रेजुएट। बात-बात में पत्‍नी को कहे कि तुम्‍हारी बुद्धि तो चोटी के पीछे रहती है। तब मुझे पिताजी की बात का मर्म समझ आया। ना रहे बांस और ना बजे बांसूरी। अरे किसने कहा कि पहलवान टाइप लड़के से शादी करो या फिर किसी बड़ी डिग्रीधारी से। ये बड़ी डिग्रीधारी मुझे अक्‍सर बड़े फन-धारी लगते हैं, हमेशा फुंफकारते ही रहते हैं। और फिर कोढ़ में खाज जैसा ही एक और फार्मूला है विवाह करने का, कि लड़का उम्र में भी बड़ा होना चाहिए। जिससे आपको हमेशा छोटा होने का अहसास दिलाया जा सके। आज नारियों ने कितनी ही उन्‍नति कर ली लेकिन अभी भी वे अपने सर को ओखली में डालने से बाज नहीं आती।
मैंने एक दिन हरियाणा की एक लड़की से कहा, जो पांच फीट आठ इंच थी, कि तू किसी पूर्वांचल के लड़के से शादी कर ले। अब वो बोली कि दीदी आप क्‍यूं मजाक कर रही हैं? क्‍या मुझे उसे गोद में उठाकर चलना है? अरे मारपीट का किस्‍सा एकदम से ही खत्‍म हो जाएगा बल्कि तू ही कभी एकाध हाथ जड़ सकती है, मैंने उसे समझाने का निरर्थक प्रयास किया। तू क्‍यों सुरक्षा ढूंढ रही है, तू स्‍वयं ही समर्थ बन ना। उसने कहा कि नहीं दीदी कुछ मजा नहीं आएगा। तब मैंने कहा चल पूर्वांचल का तो तुझे ज्‍यादा ही छोटा लग रहा है, तू ऐसा कर कि मध्‍यप्रदेश आदि का चुन ले कोई पांच फीट पांच इंच वाला। यहाँ भी मारपीट का खतरा नहीं रहेगा।
अब एक आई पी एस लड़की मिली, चौबीस घण्‍टे की नौकरी। कभी इस गाँव तो कभी उस गाँव। मैंने उससे कहा कि तू बेरोजगार किसी बिना पढ़े-लिखे से शादी कर ले। लेकिन उसने भी मेरी नहीं सुनी। उसने सीनियर आई पी एस से शादी कर ली। अब साहब की अटेची भी पेक करनी और खाना भी बनाकर देना। हो गयी न आई पी एस की ऐसी की तैसी? मैंने क्‍या बुरा कहा था? अरे पति चाहिए या आस-पड़ोस में रौब दिखाने के लिए बड़ी डिग्री? पड़ोस में तो दिखा लिया रौब लेकिन घर में?
अब देखिए उम्र के मामले में मुझे ऐश्‍वर्या की बात समझ आयी, हमेशा आँख दिखाकर कह सकेगी कि बड़ों से तमीज से बात करो। अभी तो बात-बात में छोटा होने का अहसास जताया जाता है।
अब इस देश की बालिकाओं और युवतियों तुम्‍हारे सोचने का समय शुरू होता है अभी। कि तुम अपने लिए बॉडी-गार्ड ढूंढती हो या फिर अपनी बॉडी का गार्ड स्‍वयं बनती हो। मैंने अनेक हल दिए हैं परम्‍परा से चली आ रही इस ...गर्दी के खिलाफ, फैसला आपको करना है। हमारी तो जैसे-तैसे कट गयी लेकिन तुम्‍हारी बढ़िया कटे इसके लिए मैंने फोकट में ही सलाह दी है। मैं जानती हूँ कि मेरी फोकटी सलाह को आप कोई भी नहीं मानेगा लेकिन जब मैं पैसे लेकर सलाह देने लगूंगी तब आप सब अवश्‍य मानेंगी। सीता-सीता।
डॉ श्रीमती अजित गुप्‍ता

दहेज़ नहीं लिया दिया बस पिता ने अपनी हैसियत से बेटी ब्याह दी

दहेज़ नहीं लिया दिया बस पिता ने अपनी हैसियत से बेटी ब्याह दी क्या यही कहना हें रिचा का अगर हाँ तो क्यूँ शादी कि हर रस्म मे देना केवल बेटी के पिता को ही होता हैं ? रिचा का कमेन्ट पढे और अपना कमेन्ट भी दे और सोचे जरुर कि इस मानसिकता को बढ़ने या घटाने के लिये आप नए क्या किया । क्या आप मानते हैं कि ऐसे समझोते करते रहने से समाज मे कभी कोई बदलाव आयेगा या जो रास्ता रिचा बता रही हैं वही एक सकारात्मक सुधार ला सकता हैं । अपने समय मे किसी कुरीति को "समझोता " कह कर आगे बढाने मे अपने योगदान का कितना आकलन आप करते हैं और ये महज स्त्री या पुरुष कि बात नहीं हैं समाज कि हैं ।
Richa said...

माफ कीजिये में ब्लॉग पर देर से आई और इसलिए देर से कमेन्ट कर रही हूँ -

मैंने और मेरे पिताजी ने भी प्राण लिया था की उस घर में मेरी शादी नहीं होगी जो लोग दहेज़ मांगेंगे। मेरे ससुराल वालों ने कोई मांग नहीं रखी लेकिन यहाँ बात खत्म नहीं होती। शादी की हर रस्म में लड़की के ही घर से कुछ न कुछ जाता रहा जो मेरे पिताजी ने अपनी ख़ुशी और सक्षमता से किया। मैं नौकरी करती थी इसलिए मैंने अपना खर्चा जहाँ तक हो सका खुद उठाया, कोशिश की पिताजी पर थोड़ा कम भर आये। पर शादी की रस्म से सभी ही वाकिफ हैं।
मुझे लगता है की अगर हमें देहेज को जड़ से हटाना है तो शादी की परंपरा को ही फिर से परिभाषित करना पड़ेगा क्यूंकि कोई कितना भी कोशिश कर ले किसी न किसी रूप में दहेज़ की प्रथा चलती रहेगी। या दूसरा रास्ता है Court Marriage.

February 15, 2010

तुलना कर तौलें नहीं!


                                     "तुलना" करने के लिए  सभी भाषाओं में अलंकारों का प्रयोग किया जाता है . उसका प्रयोग साहित्य कि दृष्टि से अच्छा भी लगता है, किन्तु जब यह सामान्य जीवन में उतर कर आता है तब इसकी भूमिका बड़ी ही विध्वंसक भी हो सकती है. अच्छे परिणाम तो कम ही समझ आते हैं , जब भी देखा है एक नहीं तो दूसरे के ऊपर इसका प्रभाव विपरीत ही पड़ता नजर आता है.

                       यह तो निश्चित है कि दो पीढ़ियों के बीच में वैचारिक मतभेद  मूल्यों  और  मान्यताओं के प्रति आस्था में फर्क होने से होता है. जब परिवेश , शिक्षा और जीवनचर्या बदल रही है तो पीढ़ी कि सोच भी बदलेगी ही. उसकी सोच और आचरण भी अपने समय के अनुरूप ही होंगे. मैं अपने युवाकाल कि बात करती हूँ - जब मैं उस उम्र में थी तो हमारे बुजुर्गों को हमारे जीवनचर्या में कमियां नजर आती थीं , और वे हर बात में टोका करते थे. आज वही काम हम करने लगे हैं. 

                         ये दो पीढ़ियों के अंतर ही आलोचना और तुलना के लिए जिम्मेदार बन जाता है और कभी कभी ये हमारे स्वभाव का एक अंश बन जाता है.  तुलना किसी भी दृष्टि से सार्थक नहीं होती है. जब हम दो इंसानों, चीजों और या फिर परिस्थितियों को तौल नहीं सकते  - जैसे  एक आकृति कि पुनर्रचना हूबहू नहीं कि जा सकती है ( बशर्ते कि मशीन निर्मित न हो) वैसे ही किसी भी हालत में हम दो की तुलना करें तो कम या अधिक अंतर अवश्य ही पायेंगे. तुलना हम चाहें अपनी वस्तु को बेहतर साबित करने के लिए करें या फिर दूसरे कि वस्तु को हीन समझ कर करें - उसका प्रभाव  हमें अच्छा देखने को कम ही मिलता है. उसके स्वरूप और परिणाम सदैव ही कष्टकारक होते हैं ( अपवाद इसके भी होते हैं.).

                           सुचिता जी कि छोटी बहू बड़े घर कि आई , हाथों हाथ ली गयी, उसकी हर चीज को तारीफ बाधा- चढ़ा कर की जा रही है. बड़ी बहू साधारण परिवार की लड़की थी परन्तु सयंमित और संतुलित थी. छोटी बहू के आते ही  सुचिता जी ने लेन - देन  , उपहार और उनकी स्थिति की रिश्तेदारों में तुलना शुरू कर दी. सिर्फ अपने बेटों कि तुलना नहीं की. कि जहाँ उनका बड़ा बेटा जनरल स्टोर का मालिक है और छोटा इंजीनियर . 
                            बड़ी बहू चुचाप सुनती रहती लेकिन क्या उसका संयम और संतुलन ऐसी स्थिति में कायम रह सकता है. जब आप दूसरे के सामने उसको नीचा दिखने के लिए माहौल बना रही हों. यही तुलना कल यदि बड़ी बहू के संयम को तोड़ दे और वह उत्तर और प्रत्युत्तर करने लगे तो ?
                           ये तुलना भी एक मानसिक प्रवृति है, जिसके लिए हर कोई विषय बन जाता है. हर क्षेत्र में देखिए माँ - बाप अपने दो बच्चों के बीच तुलना करते हैं? शिक्षक भी अपने छात्रों के बीच तुलना करते हैं. नौकर अपने मालिकों की तुलना करते हैं. पति और पत्नी भी आपस में तुलना करते हैं. स्वयं बच्चे अपने को दूसरे से तुलना करते हैं. 

--बड़ा बेटा तो इस उम्र में कमाने लगा था, ये अभी तक निठल्ला बैठा है.   (बेटे से बेटे की  तुलना)
-- तुमसे तो मेरी बेटी अच्छी है, हर काम में माहिर है, पता नहीं क्या सीख कर आई हो? ( बहू से बेटी की तुलना)
-- मैं तुम्हारी उम्र में दस लोगों कि गृहस्थी संभाल   रही थी. (अपनी दूसरों से)

-- ये पैसा बेटे में लगाओ तो बुढ़ापे में तुम्हारे काम आएगा.  (बेटी बेटे में )
-- अपने उस मित्र को देखो, हर समय पढता रहता है . (मित्र से)
-- इस बार इतने नंबर आने चाहिए कि मेरा सर नीचा न हो.
--  मेरे अमुक मित्र कि पत्नी को देखो कितनी होशियार है.
-- मेरे जीजाजी तो ............. 


                       ऐसे कितने ही उदहारण हैं , जिनसे हम सभी दो चार हुआ करते हैं और फिर इसके परिणामों से भी. ये तुलना किसी भी स्तर पर हो सकती है. इसी कोई सीमा नहीं है. बच्चे हों या बड़े हों अपनी अपनी सोच के अनुसार इसको लेते हैं. बहुत कम ऐसे होते हैं , जो इन बातों को नजरंदाज कर दें. 
                     मैं तो इस तुलना कि प्रवृति को एक मानसिक विकार कि दृष्टि से ही देखती हूँ क्योंकि  जिस सोच  या अभिव्यक्ति से सार्थक परिणाम न हों वह अच्छी कैसे हो सकती है?  घर में दो बहुयों कि तुलना, बहू और बेटी की तुलना या  दो भाइयों की तुलना. जिसको भी आप हीन बता रहे हैं , वह उसको सहज नहीं ले सकता है. वह हीन है या उससे कम है ये अहसास कोई दूसरा दिलाये तो बहुत बुरा लगता है. हो सकता है कि वह स्वयं इस बातको सोचता हो किन्तु तुलना करने से हम किसी कि बराबरी नहीं कर सकते हैं. इससे आपस में वैमनस्यता उत्पन्न होती है. आप की भी भूमिका इसमें सार्थक नहीं साबित होती है. तुलना करने वाला अपना सम्मान खो बैठता है. साथ ही दूसरे के मन में आपके प्रति मलिनता भी आ सकती है. हो सकता है जिससे आप जिसकी तुलना कर रहे हैं वह इस बारे में न सोचता हो, वह अपने स्तर पर खुश हो, लेकिन आपकी तुलना उनको दो को एक सीढ़ी ऊपर और नीचे खड़ा कर सकती है और बराबरी पर खड़े दो भाई या कोई भी इस अंतर को सहज स्वीकार नहीं कर पाते हैं.
                     यही तुलना बाल मन पर और भी घातक प्रभाव डाल देती है, उनका बाल मन बहुत ही कोमल होता है कभी कभी ये तुलना उनको अंतर्मुखी बना देता है, इसके विपरीत वह उत्श्रंखल भी हो सकता है. दोनों ही स्थितियां उसके लिए घातक हैं. वह दूसरे को चोट पहुँचाने के बारे में सोच सकता है, या स्वयं अपने को हानि पहुँचाने के बारे में कदम उठा सकता है. ऐसी घटनाएँ भी देखने को मिलती हैं की छते भाई - बहन को क्षति पहुंचाई या बच्चे ने आत्महत्या कर ली.

                     आपसी संबंधों में ये तुलना के तनाव की जननी बन सकती है. यह आवश्यक नहीं है कि आपके साथी को अपनी तुलना किसी के साथ अच्छी ही लगे. कितना ही सुलझा हुआ इंसान या औरत हो. अपने निजी रिश्तों के बीच किसी तीसरे को किसी भी रूप में जगह नहीं देते हैं फिर चाहे तारीफ हो या फिर कुछ और. इसके दुष्परिणाम भी आये दिन देखने को मिलते ही रहते हैं.
                    अक्सर समाचार होता है कि छात्र या छात्र ने फेल होने के दर से आत्महत्या कर ली..........


                                  हम एक समाचार कि तरह से पढ़ कर अख़बार रख देते हैं किन्तु कभी इस ओर सोचा ही नहीं कि इसमें व्यक्तिगत तुलना की भावना बसी होती है. . बड़े भाई और बहनों कि उपलब्धियों या सहपाठी और मित्रों कि उपलब्धियों से कभी कभी स्वयं कि तुलना में कमतर पाने पर हादसे हो जाया करते हैं.


                     इनको बचने के लिए ये आवश्यक है कि कभी तुलना में किसी को तौलें नहीं -- सबके लिए सब कुछ हासिल करना मुनासिब नहीं होता.
 

February 14, 2010

खामोश परिवर्तन

आज वैलेंटैइन डे है। देश में प्रेमोत्सव का माहौल दिखाया जा रहा है। कुछ लोग विरोध करके अपनी दुकान चमका रहे हैं कुछ समर्थन करके। पर भारत में वैलेंटाइन डे की हकीकत क्या है इसका पता लगाना मुश्किल है। दरअसल हम बहती धारा में बहने वाले लोग है इसलिए जो चल रहा है उसपर ठप्पा लगा देते हैं इस डर से लोग हमें कहीं पिछड़ा हुआ न मान लें। ये मध्यम वर्ग की पीड़ा है जो दोहरी मानसिकताओं में जीता है। समाज के लिए उसका चेहरा दूसरा होता है अपने लिए दूसरा। दूसरे की बेटी अपने दोस्त के साथ वैलेंटाइन डे मनाएं तो कोई बात नहीं, पर अगर अपनी बेटी ऐसा करे, तो घर में बवाल हो जाएगा। सच मानिए, तीसरा महायुद्ध छिड़ जाएगा। बेटी तो बेटी माँ भी घर के बुजुर्गों के कटघरे में खुद को खड़ा पाएगी, इस आरोप के साथ कि यही शिक्षा दे रही हो बेटी को कि आवारा छोकरों के साथ घूमें। अब वह लड़का आवारा है या नहीं मैं इस मुद्दे पर नहीं पड़ना चाहती। क्योंकि संबंधों के बारें में निर्णय सुनाने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। क्योंकि पता नहीं कब कौन सा रिश्ता आगे चलकर कौन सा स्वरूप धारण करें और फिर हमें शर्मिंदगी उठानी पड़े।

वैसे भारतीय मध्य वर्ग में परिवर्तन की खामोश लहर चल रही है। समाज में प्रेम विवाहों की संख्या में वृद्धि हुई है, खासकर कानपुर के कट्टर ब्राह्मण परिवारों में। अब ऐसे परिवारों को ढूढ़ना मुश्किल होता जा रहा है जिसके घर में किसी एक सदस्य ने अंतर्जातीय विवाह न किया हो। और खुशी की बात है कि इन्हें मान्यता भी मिल रहीं है। इस परिवर्तन का प्रमुख कारण है लड़कियों की शिक्षा के प्रति माँ-बाप में बढ़ती जागरुकता। पहले विज्ञान की शिक्षा के लिए बेटों का विशेषाधिकार था। लड़कियां आर्टस् में जाती थी। उनके दिमाग में ये कूट-कूट कर भर दिया जाता था कि बेटा कितनी ही पढ़ाई कर लो, लेकिन रोटी-चौका, बर्तन से तुम्हें मुक्ति नहीं है। इसलिए घरेलू काम-काज सिखाने पर ज्यादा जोर दिया जाता था। तुम्हें कौन सी नौकरी करनी है वाला ज़ुमला भी खासा लोकप्रिय था। लेकिन अब परिस्थितियों में परिवर्तन आया है। पति की आय पूरे घर के लिए पर्याप्त नहीं होती, इसलिए काम की तलाश में महिलाओं को भी घर से निकलना पड़ रहा है। इसलिए पढ़ाई के क्षेत्र में भी परिवर्तन आया है। इंजीनियरिंग और एमबीए में महिलाओं ने अपनी उपस्थिति बड़ी मात्रा में दर्ज कराई है। जाहिर सी बात है जब लड़के-लड़की साथ पढ़ते हैं तो उनमें एक दूसरे के प्रति आकर्षण भी हो जाता है। ऐसे में वे अगर शादी का निर्णय लेते है, तो माँ-बाप को भी स्वीकृति की मोहर लगाने में ज्यादा तकलीफ नहीं होती। क्योंकि उन्हें पता है कि शादी के बाजार में इंजीनियर, डॉक्टर लड़कों के रेट बहुत हाई है बेटी की पढ़ाई पर इतना खर्चा करने के बाद इतने महँगे दूल्हें खरीद पाना, उनके लिए भी मुश्किल होता है। इसलिए कुंडली देखने की रस्म अदायगी के साथ ज्यादातर रिश्तों को मंजूरी दे दी जाती है। बीस बिस्वा के ब्राह्मण के साथ एक त्रासद जिंदगी की सौगात अपनी बेटी को देने की बजाय उन्होंने मान लिया है कि बीस बिस्वा से ज्यादा अहम बेटी की खुशियाँ हैं। जो उन्हें उस साथी से मिलेंगी, जो उन्होंने अपने लिया चुना है।

कानपुर के ब्राह्मण परिवारों में बहने वाली इस खुशगवार बयार ने बेटियों के माँ-बापों के माथे पर चिंता की पड़ी रहने गहरी सलवटों को काफी हद तक कम कर दिया है। और समाज की खुशहाली के लिए इससे ज्यादा अच्छी बात क्या हो सकती है कि बेटी को बोझ न मानकर उनकी डोलियां खुशी-खुशी अपने बाबुल के दरवाजे से उठें।

-प्रतिभा वाजपेयी




दहेज सिस्टम का हिस्सा हैं ???

mukti said...

रचना जी, दहेज और भ्रष्टाचार ऐसी समस्याएँ हैं, जिन्हें लोगों ने समस्या न मानकर सिस्टम का हिस्सा मान लिया है. मुझे भी बहुत कोफ़्त होती है यह सब देखकर.

कल कि पोस्ट पर मुक्ति का कमेन्ट आया हैं । क्या यही हमारे समाज का सच हैं ??

वसंती हवाओं में वेलेण्टाइन-डे का खुमार

वसंत का मौसम आ गया है। मौसम में रूमानियत छाने लगी है। हर कोई चाहता है कि अपने प्यार के इजहार के लिए उसे अगले वसंत का इंतजार न करना पड़े। सारी तैयारियां आरम्भ हो गई हैं। प्यार में खलल डालने वाले भी डंडा लेकर तैयार बैठे हैं। भारतीय संस्कृति में ऋतुराज वसंत की अपनी महिमा है। वेदों में भी प्रेम की महिमा गाई गई है। यह अलग बात है कि हम जब तक किसी चीज पर पश्चिमी सभ्यता का ओढ़ावा नहीं ओढ़ा लेते, उसे मानने को तैयार ही नहीं होते। ‘योग‘ की महिमा हमने तभी जानी जब वह ‘योगा‘ होकर आयातित हुआ। ऋतुराज वसंत और इनकी मादकता की महिमा हमने तभी जानी जब वह ‘वेलेण्टाइन‘ के पंखों पर सवार होकर अपनी खुमारी फैलाने लगे।

प्रेम एक बेहद मासूम अभिव्यक्ति है। मशहूर दार्शनिक ख़लील जिब्रान एक जगह लिखते हैं-‘‘जब पहली बार प्रेम ने अपनी जादुई किरणों से मेरी आंखें खोली थीं और अपनी जोशीली अंगुलियों से मेरी रूह को छुआ था, तब दिन सपनों की तरह और रातें विवाह के उत्सव की तरह बीतीं।‘‘ अथर्ववेद में समाहित प्रेम गीत भला किसको न बांध पायेंगे। जो लोग प्रेम को पश्चिमी चश्मे से देखने का प्रयास करते हैं, वे इन प्रेम गीतों को महसूस करें और फिर सोचें कि भारतीय प्रेम और पाश्चात्य प्रेम का फर्क क्या है?

फिलहाल वेलेण्टाइन-डे का खुमार युवाओं पर चढ़कर बोल रहा है। कोई इसी दिन पण्डित से कहकर अपना विवाह-मुहूर्त निकलवा रहा है तो कोई इसे अपने जीवन का यादगार लम्हा बनाने का दूसरा बहाना ढूंढ रहा है। एक तरफ नैतिकता की झंडाबरदार सेनायें वेलेण्टाइन-डे का विरोध करने और इसी बहाने चर्चा में आने का बेसब्री से इंतजार कर रही हैं-‘करोगे डेटिंग तो करायेंगे वेडिंग।‘ तो अब वेलेण्टाइन डे के बहाने पण्डित जी की भी बल्ले-बल्ले है। जब सबकी बल्ले-बल्ले हो तो भला बहुराष्ट्रीय कम्पनियां कैसे पीछे रह सकती हैं। ‘प्रेम‘ रूपी बाजार को भुनाने के लिए उन्होंने ‘वेलेण्टाइन-उत्सव‘ को बकायदा 11 दिन तक मनाने की घोषणा कर दी है। हर दिन को अलग-अलग नाम दिया है और उसी अनुरूप लोगों की जेब के अनुरूप गिट भी तय कर लिये हैं। यह उत्सव 5 फरवरी को ‘फ्रैगरेंस डे‘ से आरम्भ हुआ जो कि 15 फरवरी को ‘फारगिव थैंक्स फारेवर योर्स डे‘ के रूप में खत्म होगा। यह भी अजूबा ही लगता है कि शाश्वत प्रेम को हमने दिनों की चहरदीवारी में कैद कर दिया है। वेलेण्टाइन-डे के बहाने वसंत की मदमदाती फिजा में अभी से ‘फगुआ‘ खेलने की तैयारियां आरम्भ हो चुकी हैं।

5 फरवरी - फ्रैगरेंस डे
6 फरवरी - टैडीबियर डे
7 फरवरी - प्रपोज एण्ड स्माइल डे
8 फरवरी - रोज स्माइल प्रपोज डे
9 फरवरी - वेदर चॉकलेट डे
10 फरवरी - चॉकलेट मेक ए फ्रेंड टैडी डे
11 फरवरी - स्लैप कार्ड प्रामिस डे
12 फरवरी - हग चॉकलेट किस डे
13 फरवरी - किस स्वीट हर्ट हग डे
14 फरवरी - वैलेण्टाइन डे
15 फरवरी - फारगिव थैंक्स फारेवर योर्स डे

आकांक्षा यादव

February 13, 2010

क्यूँ ????

आज जब कानून लड़कियों को पिता-माता कि संपत्ति मे बराबर का हिस्सा मिलने का प्रावधान हो गया हैं तब फिर क्यूँ दहेज का प्रचलन अभी भी जारी हैं ?
क्यूँ आज भी जब शादी कि बात होती हैं तो लड़की और लडके कि समान शिक्षा , नौकरी , आय इत्यादि होते हुए भी वधु के माता पिता का ही "कर्त्तव्य " माना जाता हैं कि वो अपनी लड़की का घर व्यवस्थित करने के लिये "दहेज़ " कि "व्यवस्था" करे ?
क्यूँ आज भी बारात जब दरवाजे पर आती हैं तो "मिलाई " कि रस्म मे लड़की के अभिभावक ही पैसा / गिफ्ट इत्यादि देते हैं ?
क्यूँ वर पक्ष के लिये "मिलने " और वधु पक्ष के लिये " देने " कि परम्परा आज भी कायम हैं ?

क्या वाकयी बेटियों को समाज मे समान अधिकार प्राप्त होगये हैं ??????
और सबसे अहम् बात आज कि बेटियाँ खुद इसके लिये क्या कर रही हैं ???

कुछ नये धारावाहिकों में आधुनिक-नारी के रूप

अगर आप टी.वी. धारावाहिकों में औरतों का रोना-धोना, उनकी पारिवारिक समस्याओं, उनके शोषण आदि को देख-देखकर ऊब चुके हों तो कुछ नये धारावाहिक शुरू हुए हैं, जो नारी को एक नए रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं. ये धारावाहिक हैं यशराज बैनर के, जो कि करण जौहर का फ़िल्म-निर्माण का बैनर है और गुडी-गुडी फ़िल्में बनाने के लिये जाना जाता है. जब इनका प्रचार सोनी चैनल पर आना शुरू हुआ था, तो मैंने सोचा था कि उन्होंने अपनी फ़िल्मों की तरह ही धारावाहिक भी बनाये होंगे. फिर कुछ दिन धारावाहिक देखकर प्रतीक्षा की कि ऐसा न हो कि एक-आध एपिसोड के बाद कहानी वहीं आ जाये. वही रोना-धोना, पतियों को पाने, सहेजने या छीनने के लिये लड़ती औरतें. ऐसा लगता है कि औरतों के जीवन में एक ही काम है- पति को प्राप्त करना और फिर उसे किसी दूसरी औरत की ओर आकर्षित होने से बचाए रखना. शुक्र है, कि यशराज के तीन धारावाहिकों में मुझे ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला.
इन धारावाहिकों में एक है "माही वे", जो सोनी पर शनिवार आठ बजे आता है. इसकी मुख्य पात्र माही, एक पच्चीस साल की, आम लड़कियों से थोड़े अधिक वजन की लड़की है. एक फ़ैशन मैगज़ीन में माही वे नाम का कॉलम लिखती है. उच्च-मध्यमवर्गीय परिवार की है. उसके सपने भी आम लड़कियों जैसे ही हैं. चाहती है कि उसका भी एक ब्वॉयफ़्रैंड हो. लेकिन वो कैसा होगा, इसका निर्णय वह खुद करेगी. ये आम लड़की माही, धता बताती है-औरतों के लिये बनाये उन सौन्दर्य-मानकों को, जो बड़ी-बड़ी सौन्दर्य-प्रसाधन बनाने वाली कम्पनियों द्वारा बनाये जाते हैं और फिर लड़कियों में उन मानकों में फ़िट होने की ललक जगायी जाती है.
दूसरा धारावाहिक है "रिश्ता डॉट कॉम". इसकी मुख्य पात्र ईशा एक आधुनिक, आत्मनिर्भर लड़की है, जो अपनी आधुनिक सोच के साथ-साथ मानवीय मूल्यों में विश्वास करने वाली है. वह किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्त्व को आन्तरिक गुणों से तौलती है, न कि शारीरिक आकर्षण से. वह अपने पार्टनर रोहन के साथ ये कम्पनी चलाती है और बहुत अच्छे से सबको डील करती है. इन दोनों ही धारावाहिकों में बड़ी ही नेचुरल कॉमेडी है.
तीसरा और मेरा मनपसंद कैरेक्टर है वृंदा साहनी का, जो "पावडर" नाम के धारावाहिक की मुख्य पात्र है. वृंदा एन.सी.बी.(नेशनल क्राइम ब्यूरो) में काम करती है, जो पुलिस का एक विशेष दस्ता है. एन.सी.बी. अन्सारी नाम के ड्रग डीलर के पीछे है. वृंदा का रोल मुझे इसलिये अच्छा लगा क्योंकि वह एक ऐसे फ़ील्ड में अपनी जगह बनाने के लिये संघर्ष कर रही है, जो मर्दों की कही जाती है. उसका एक सहकर्मी उससे कहता है "क्राइम और पुलिस मर्दों की फ़ील्ड है, औरतें आयेंगी, तो पिटेंगी." ये सब सहकर भी वो डटी है. उसने नशे के सौदागरों को खत्म करना अपने जीवन का उद्देश्य बना लिया है.
ये धारावाहिक थोड़े नाटकीय ज़रूर लगते हैं, पर इतना न हो तो फिर इसे मनोरंजन नहीं, ज्ञान कहेंगे. लेकिन फिर भी इनका निर्देशन अन्य सीरियल्स से अच्छा है. जब औरतें बाहर निकलकर काम कर रही हैं और उन्हें वर्कप्लेस पर भी बहुत कुछ झेलना पड़ता है, तो प्राइम टाइम पर आने वाले लगभग सभी धारावाहिकों में औरतों को सिर्फ़ घर की समस्याएँ झेलते ही क्यों दिखाया जाता है? ये धारावाहिक औरतों की घर से बाहर की ज़िन्दगी और वहाँ की चुनौतियों को दिखाते हैं, इसलिये ये धारावाहिक कुछ हटकर लगते हैं.

February 11, 2010

ये पोस्ट केवल सार्वजनिक सूचना के लिये हैं ।

जी मेल मे एक नयी सुविधा आयी हैं जीमेल ब़ज के नाम से जिसमे आप के सन्देश इत्यादि दुसरो को भी दिखाई दे रहे हैं । जो लोग इस सुविधा को नहीं चाहते हैं { यानी जो लोग सोशल नेटवर्किंग से दूर रहते हैं और मेल का उपयोग सार्वजनिक नहीं पर्सनल रखते हैं } वो अपने जीमेल पेज मे नीचे जाकर Gmail view: standard | turn off chat | turn on buzz | older version | basic HTML Learn more लाल अक्षर से अंकित शब्दों को ऑफ करदे । ये पोस्ट केवल सार्वजनिक सूचना के लिये हैं ।

February 09, 2010

"सार्वजनिक मोलेस्टेशन " विचार आमंत्रित हैं ।

कल अखबार मे पढ़ा कि फिल्म अभिनेत्री बिपाशा बासु को एक होटल मे लगभग नज़र बंद कर दिया गया । बिपाशा बासु वहाँ अपने किसी प्रायोजित कार्य क्रम के तेहत आयी थी और उस प्रायोजक के लिये उनको एक पार्टी मे उसी होटल मे शामिल होना था । ये उनके कांट्रेक्ट का हिस्सा था । पार्टी से पहले बिपाशा को पता लगा कि वो पार्टी होटल के मालिक इस जन्मदिन कि पार्टी हैं तो उन्होने उसमे शिरकत करने से मना करदिया और ३० लाख रूपए मांगे वहाँ आने के लिये । इस पर होटल मालिक ने क्रोध मे आ कर उनके कमरे के सामने हंगामा किया । होटल मालिक का मानना था कि क्युकी बिपाशा को उस प्रायोजक ने होटल मे मुफ्त मे रखा था इस लिये बिपाशा को जन्मदिन कि पार्टी मे आना चाहिये था और होटल ने १० लाख का बिल उस कम्पनी को थमा दिया ।

इस पोस्ट को लिखने का मकसद केवल इतना हैं कि क्या फिल्म और टी वी के कलाकार अगर महिला हैं और अगर उनको पैसा दिया जाता कहीं "परफोर्म " करने के लिये तो क्या जो उनको पैसा देता हैं वो उनको खरीद लेता हैं । क्या कलाकार को अपनी कला को प्रदर्शित करने के लिये जो मेहनताना मिलता हैं वो प्रदर्शन के लिये नहीं उनके महिला होने के लिये मिलता हैं ।

एक विचार धारा मानती हैं कि बिपाशा , मल्लिका , राखी , सम्भावना इत्यादि केवल "नचनिया " हैं और इनको पैसा देकर कोई भी कहीं भी नचा सकता हैं , ये बात सही हैं लेकिन क्या "नचनिया" अपना नाच "हुनर " बेच रही हैं या अपने को बेच रही हैं ??

अगर राखी , सम्भावना , बिपाशा , मल्लिका इत्यादि गलत हैं तो क्या वो सब सही हैं जो इनको १० लाख से लेकर १ करोड़ तक देते हैं मात्र एक घंटे कि परफोर्मेंस के लिये ।

इन अभिनेत्रियों केलिये उनका शरीर और उनकी अदाये मात्र पैसा कमाने का जरिया हैं लेकिन जो इनको पैसा देते हैं वो सब बहुत से जरियों से पैसा कमाते हैं ।

कलाकार को क्या हमेशा भूखा ही रहना चाहिये ??? ख़ास कर अगर वो महिला हो तो अन्यथा उसको "सार्वजनिक मोलेस्टेशन " के लिये हमेशा तैयार रहना चाहिये ।

विचार आमंत्रित हैं ।

February 04, 2010

क्या आप भूत-प्रेतों पर विश्वास करते हैं!



कहने को तो हम इक्कसवीं सदी में विचर रहे हैं। सूचना क्रांति के बाद किसी भी विषय पर पलक झपकते ढेरों सूचनाएं मिल जाती हैं, इसके बावज़ूद हमारे अंधविश्वासों में कोई कमी नहीं आयी है। अभी भी डायन के नाम पर महिलाओं की हत्या की जाती है, मानसिक रोगियों को उचित चिकित्सीय सहायता देने के स्थान पर उन पर भूत-प्रेत का साया बता कर ओझा–गुनियों के चक्कर लगाएं जाते हैं।

इस बार कानपुर यात्रा के दौरान मेरी मुलाकात एक ऐसे ही शख्स से हुई। ये पढ़े-लिखे सज्जन एक अच्छी कंपनी पर ऊँचे पद पर कार्यरत हैं, लेकिन अपने भाई की मानसिक स्थिति को लेकर परेशान थे। उनका मानना था कि किसी ने उनके भाई को कुछ करा दिया है, वे पहले ऐसे नहीं थे। वे शांत स्वभाव के और घर के सबसे अनुशासित सदस्य थे। पर पिछले कुछ समय से उनका व्यवहार बदल गया है। वे अपना अधिकांश समय घर पर बिताते है और घर के पिछवाड़े खाली पड़ी जमीन पर उन्होंने नीबू, बेर, करौंदे जैसे कँटीले वृक्षों का जंगल बना दिया है। जब कि हमारे यहां माना जाता है कि घर पर कँटीले वृक्ष उगाना शुभ नहीं होता। यही नहीं उन्होंने बरगद और पीपल जैसे वृक्ष न सिर्फ उगा रखे हैं बल्कि उनको बोंसाई स्वरूप भी दिया है। इस बात को लेकर उनका पिताजी से बहुत झगड़ा हुआ, नौबत मार-पीट तक पहुँच गई। उन्होंने घर के मेन गेट पर ताला लगा दिया ताकि घर को कोई भी सदस्य घर के बाहर न जा पाए। पता नहीं उनके शरीर में इतनी ताकत कहां से आ गई थी कि हम सब मिल कर उन अकेले को संभालने में असमर्थ थे। आप विश्वास नहीं करेंगी कि इतनी भयानक ठंड और कोहरे के दौरान वे करौंदे का शरबत पीकर रात में छत पर टहलते हैं। क्या आप इसे सामान्य इंसान की हरकत कहेंगी? यही नहीं उन्होंने घर के अंदर ड्रेस कोड लागू किया हुआ है जिसके तहत घर के सदस्य केवल लाल, नारंगी और नीले रंग के ही वस्त्र पहन सकते हैं। इसके अलावा कोई रंग पहनने पर उनका गुस्सा फट पड़ता है।

हमने उन्हें कई लोगों को दिखाया। किसी ने कहा कि साईं बाबा की भभूति खिलाओं फायदा होगा, हमने उन्हें भभूति खिलाई फायदा भी हुआ। पहले वे एक बार में तीन-चार लोगों का भोजन करते थे। भभूति खाने के बाद भोजन की मात्रा में कमी आई। लेकिन थोड़े दिन बाद उन्होंने भभूति खाने से यह कह कर इंकार कर दिया कि मां उन पर जादू-टोना कर रही है। ओझाओं का कहना कि उन पर एक से अधिक प्रेतों का साया है और ये खाना वे स्वयं नहीं खाते, वे प्रेत खा जाते हैं। बहुत परेशान हैं समझ नहीं आता क्या करें?

आप उन्हें किसी अच्छे डॉक्टर को क्यों नहीं दिखाते?, मैंने पूछा।

दिखाया था। डॉक्टर को भी दिखाया था और उसकी दवा से भाई साहब की उग्रता में भी कमी आई थी, लेकिन थोड़े समय बाद उन्होंने डॉक्टर के पास जाने से इंकार कर दिया। हमने उन्हें ले जाने की बहुत कोशिश की लेकिन वे नहीं गए तो नहीं गए। अब सिर पर सवार भूत उन्हें जाने दें तभी न वो जाएं, उन्होंने हताश स्वर में कहा।

हम लोगों के पास उनके लिए अपने भाई को डॉक्टर को दिखाने और उन्हें अस्पताल में भरती करवा देने के अतिरिक्त और कोई सुझाव नहीं था और उनके हाव-भाव स्पष्ट कह रहे थे कि यदि हमारे पास किसी तांत्रिक या ओझा का पता हो तो वो हम उन्हें दें। जो हमारे पास नहीं था अतः हम दोनों ही चुप हो गए।

दोस्तो, ये कोई मनगढंत कहानी नहीं है। यह एक कटु सत्य है जो दर्शाता है कि हमारे यहां मानसिक स्वास्थ्य को लेकर कितनी जागरुकता है? हम अपने निकट संबंधी को भूत-प्रेत ग्रस्त होना तो सहजता से स्वीकार लेते है, पर उसे किसी मनोचिकित्सक के पास न ले जाने के हजारों बहाने ढूढ़ लेते हैं।

-प्रतिभा वाजपेयी

February 02, 2010

क्या सच मे लोग यही सब देखना चाहते हैं ।

राहुल दुल्हनिया ले जायेगा का एक एपीसोड कल देखा । सारी लडकिया भारतीये परिधान मे दिखी लेकिन क्या यही हैं वास्तविक भारतीये परिधान जिसको ना पहनने से हमारी संस्कृति और सभ्यता धरातल मे चली जाती हैं । तकरीबन सब लडकिया मॉडल हैं और शादी के लिये आई हैं क्या वाकयी ?? मुझे तो ये मात्र एक स्पोंसर्ड नाटक लगता हैं । राहुल महाजन को भी पैसा कमाने का नया ज़रिया मिल गया हैं और मॉडल को भी । कितना समय और पैसा व्यर्थ किया जा रहा हैं । क्या सच मे लोग यही सब देखना चाहते हैं ।

February 01, 2010

महिला उत्थान के लिये बनाये कानून महज कागजी कार्यवाही हैं

One of the great challenges for those concerned with strengthening women's rights in India is the alarming gap between legal prescriptions on women's issues and actual practices prevalent in society. Many people expect that as women become aware of their rights, they will inevitably move in the direction of following "modern laws" enacted for their benefit. However, there is growing evidence that even among the avante-garde elite groups of our country, social behaviour runs contrary to social legislation.

For example, ever since dowry was outlawed in 1961 through the Dowry Prohibition Act of 1961, the practice has flourished in an unprecedented manner. Wedding expenditures have become more and more lavish. Several new amendments were made to the Act and the Indian Penal Code during the 1980's making dowry giving and taking a cognizable offence. And yet, the practice has spread to regions, castes and communities which did not have any such tradition. The biggest dowry transactions take place among the families of educated elites, especially those in high power positions in the government. High status families consider it an insult to send their daughters off to their husband's home "empty handed."

It is the same story with the law banning the use of sex determination tests (SDTs). In Delhi, SDTs invites jail terms for up to 5 years and a fine up to Rs. 100,000. And yet, the use of sex selective abortions has grown even as the law has been made increasingly stringent. This is obvious from the continuing sharp decline in sex ratio and drop in the birth rate of female babies, especially among the well-off. Doctors in the know tell you that the most persistent and desperate demand for these tests comes from senior government officers.

It is legitimate to ask: Why are these laws not followed by the parliamentarians who make them or by the police officers and judges who are supposed to implement them? I am certain that not one among the militant feminists who have campaigned to get such laws enacted can claim with honesty that in their own family circles they have successfully "abolished" the practice of dowry and in their own community families are not taking recourse to sex selective abortions.

A common response is to attribute the growing gap between social legislation and social practices to hypocrisy and double standards. When a law fails, the tendency is to blame its failure on the laxity of implementation machinery.

That is how all the failed laws are bolstered with more and more draconian provisions, while the original problem remains unsolved. Today, we are witnessing a severe backlash against feminist legislation because most of the draconian laws we have enacted lend themselves to easy misuse while genuine victims rarely manage to get justice through them. This is not to say, I support the present system of dowry, sex selective abortions or other injustices faced by women but simply to underscore the need for a more self critical and socially sensitive approach to legal reform and the need to create appropriate instruments of the state machinery that can implement social legislation with dignity and honesty.

The writer is a professor at the Centre for the Study of Developing Societies

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