नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

July 18, 2011

Women as Trauma Healers

Greetings to all the readers! :-)


For some reason the transliteration button on my computer is not working and therefore I am writing this post in English. Apologies for any inconvenience. 


These days, I am writing a paper for Georgetown University (US) that highlights the role of women and religion in trauma healing in Indian context. We all know violence, poverty and disasters cause trauma for the survivors.


During my career with the Red Cross, I had the opportunity to travel all over India to serve those who were suffering due to natural disasters and armed conflicts. I had the honor of meeting strong men, women, elderly and children who not only survived the crisis but volunteered to assist others.  


My observation has been that women emerge as the strongest (psychologically) because for most of them struggle is part of their lives before or after the disaster. They do their best to keep going and taking care of their families and communities. Most of  them derived strength from the almighty, no matter what religion they came from. Unfortunately, their work is not always recognized or documented.


The women at their level try to facilitate healing for themselves and for their dear ones. In addition to nurturing the family, they take refuge in the religious activities. A colleague from Kashmir shared that women are participating in prayers and doing what Quran commands such as ‘help each other’ and support each other. Many women groups have emerged in the conflict affected areas in the country. Naga Mothers Association in Nagaland and Association of Parents of Disappeared Persons (APDP) by Parveena Ahangar in Kashmri are two examples of women led organizations.  Brahmakumaris is another spiritual group that strives to bring peace around the world through their work.


When the resilience of a woman is combined with the power of God, great things happen. If anybody knows of any woman or women's group that is working towards trauma healing and/or peace building in India, please share with me because I would like to recognize as many groups as I can. If we promote their good work we can rally more support for them as well. 


Warm regards!

July 12, 2011

आम औरत की छवि बिगाड़ते टीवी धारावाहिक...!


टेलीविजन पर प्रसारित होने वाले अधिकतर धारावाहिकों में मुख्य किरदार महिलाओं के ही होते हैं।  छोटे पर्दे दिखाये जाने वाले ज्यादातर धारावाहिकों में महिलाएं नई-नई कूटनीतिक चालें चलकर बड़े-बड़े घरानों को बर्बाद या आबाद कर सकती हैं। उच्च वर्ग का रहन सहन इन सीरियल्स पर इतना हावी है कि आम महिलाओं के जीवन से जुडी समस्याओं के लिए इनमें कोई जगह नजर नहीं आती। इतना ही नहीं इन धारावाहिकों में कुछ बातें तो हकीकत से बिल्कुल उलट ही नजर आती है। 

 इन सीरियल्स के ज्यादातर महिला किरदार कामकाजी न होकर गृहणी के रूपे में गढे जाते हैं । इन धारावाहिकों  में घरों में होने वाली उठा-पटक काफी तड़क-भड़क  के साथ परोसी जाती है। जिनमें महिला किरदार अहम भूमिका निभाते नजर आते है। 

इन धरावाहिकों में परंपरा के नाम पर कुछ भी परोसा जा रहा है | आधारहीन कल्पनाशीलता के नाम पर इनमें कई गैर जिम्मेदाराना बातें दिखाई जाती है। हद से ज्यादा खुलापन और और सामाजिक रिश्तों की मर्यादा से खिलवाड़ को तकरीबन हर सीरियल की कहानी का हिस्सा बनाया जाता है। हैरानी की बात तो यह है कि यह सब कुछ भारतीय सभ्यता और संस्कृति के नाम पर पेश किया जा रहा है। जिसका विचारों और संस्कारों पर गहरा असर पड रहा है। बहुत से धारावाहिकों में विवाहेत्तर संबंधों को प्रमुखता से दिखाया जाता है। 

अधिकतर भारतीय भाषा और साज सज्जा में दिखाये जाने वाले महिला पात्रों को व्यवहारिक स्तर पर ऐसे कुटिल, कपटी और षडयंत्रकारी रूप में टेलीविजन के पर्दे पर उतारा जा रहा है जो हकीकत के सांचे में फिट नहीं बैठते। विवाह संस्कार हमारी संस्कृति की सबसे बड़ी  विशेषता रही है, जबकि इन धारावाहिकों में शादी जैसे गंभीर विषय को भी मनमाने ढंग से दिखाया जाता है। 

 भारतीय सभ्यता ,संस्कृति और पारिवारिक मूल्यों के नाम पर दिखाई जा रही ये कहानियां  परंपरागत मान्यताओं अवमूल्यन और सामाजिक सांस्कृतिक विकृति को जन्म दे रही हैं.है। दिनभर में कई बार प्रसारित होने वाले इन धारावाहिकों के दर्शक लगभग हर उम्र के लोग है। आमतौर पर सपरिवार देखे जाने वाले इन टीवी सीरियलों से परिवार का हर सदस्य चाहे छोटा हो बडा, जैसा चाहे वैसा संदेश ले रहा है। 

आलीशान रहन सहन और हर वक्त सजी धजी रहने वाली महिला किरदारों की जीवन शैली एक आम औरत को हीनभावना और उग्रता जैसी  सौगातें दे रही है।  टीवी चैनलों पर हर वक्त छाये रहने वाले इन धारावाहिकों में संस्कारों की बातें तो बहुत की जाती है पर पात्रों की जीवन शैली और दिखाई जाने वाली घटनाओं का देखकर महसूस होता है कि इनके जरिए कुछ नई धारणाएं , नए मूल्य गढ़े जा रहे हैं। 

ऐसे कार्यक्रमों के बीच में दिखाये जाने वाले विज्ञापन भी खासतौर महिलाओं को संबोधित होते हैं। कई टीवी सीरियलों के तो कथानक ही विज्ञापित प्रॉडक्ट का सर्मथन करने वाले होते हैं। बात चाहे पार्वती और तुलसी जैसे किरदारों द्धारा पहनी मंहगी साड़ियों की हो या रमोला सिकंद स्टाइल बिंदी की । इन सास बहू मार्का सीरियलों में दिखाये जाने वाले उत्पाद आसानी से बाजार में अपनी जगह बना लेते हैं।  इन सीरियलों में महिला किरदारों का प्रेजेंटेशन और साज सज्जा  का इतना व्यापक असर होता है कि बाजार में इन चीजों की मांग लगातार बनी रहती है। 

ये महिला किरदार या तो पूरी तरह आदर्श होते हैं या नैतिकता से कोसों दूर। जिसका सीधा सा अर्थ यह है कि टीवी सीरियल्स में दिखाये जा रहे महिला चरित्र वास्तविकता से परे हैं। क्या एक आम महिला दिन भर सज-धज कर सिर्फ कुटिलता करने की योजना बनाती  रहती है ..? ज़्यादातर गृहणियां ऐसा करते दिखाई जाती हैं ...जबकि हकीकत यह है घर पर रहने वाली महिलाओं को इतना काम होता है की स्वयं के लिए भी समय नहीं मिलता | कामकाजी महिलाओं की व्यस्तता तो और भी ज्यादा है ... |  सच में मुझे तो ये किरदार घर-परिवार और समाज में मौजूद आम महिलाओं की छवि बिगाड़ने वाले ही लगते हैं...!

July 07, 2011

आगे बढिए : बढाइये कदम महिला भ्रूण हत्या के खिलाफ


 (मैं जानती हु इस लेख को पढने वाले अधिकतर लोग मानसिक रूप से सुद्रढ़ है पर और सभी मुझसे ज्यादा अनुभवी है सबने मुझसे ज्यादा दुनिया देखी है हो सकता है ये लेख आप सबको बचकाना लगे पर अगर १ भी व्यक्ति पर मेरे लेख का सकारात्मक प्रभाव पड़ा तो मैं मानूगी की की मेरा लिखना सफल हुआ....अगर कोई त्रुटी हो तो क्षमा करें और अपने सुझाव अवश्य दें )


तू कितनी अच्छी है,तू कितनी प्यारी है न्यारी न्यारी है ओ माँ मेरी माँ !

अच्छा लगता है न ये गाना मुझे लगता है सबको अच्छा लगता होगा.

पर उन अजन्मी बच्चियों के बारे मैं सोचिये जो सिर्फ माँ के गर्भ मैं कभी एक आध बाद इस गाने की धुन भी महसूस नहीं कर पाई होंगी और इस दुनिया मैं आने से पहले ही दूसरी दुनियां मैं चली गई .आज न जाने क्यों एक तीस सी उठ रही है मन मैं की काश वो भी मेरी तरह ये दुनिया देख पाती.वो भी अपने माँ के कोमल अहसास को महसूस कर पाती.

पर न जाने क्यों उसकी अच्छी प्यारी और न्यारी माँ उसे इस दुनिया मैं लाने की हिम्मत नहीं कर पाई ,जाने किसके दबाव मैं उसने अपनी बच्ची को अपने से दूर कर दिया.या खुद को आधुनिका कहने वाली उसकी माँ खुद ही अपनी दकियानूसी सोच नहीं बदल पाई.

अजीब है ये देश जहा इतनी उन्नति के बाद भी लोग लिंगभेद करते है भारत की हाल ही मैं हुई गिनती के अनुसार भारत मैं महिलाओं एवं पुरुषों का अनुपात ९३३ प्रति १००० हो गया है और सबसे ज्यादा चौकाने वाली बात ये है की शहरी क्षेत्रो मैं ये अनुपात ९०० महिलाएं प्रति १००० पुरुष है जबकि गावों मैं ये अनुपात ९४६ प्रति १००० पुरुष है.स्वतंत्रता के बाद ये पहली बार है जब महिला पुरुष अनुपात मैं इतना अंतर आया है.
शर्म आती है मुझे ये सोचते हुए भी की पढ़े लिखे लोग तकनिकी का किस तरह फायदा उठा रहे है .
जब भारत स्वतंत्र हुआ था तब लोगो ने शायद ये सोचा होगा की जेसे जेसे शिक्षा का प्रसार होगा लोगों मैं जागरूकता आएगी और महिला भ्रूण हत्या कम होगी पर सेंसेक्स की रिपोर्ट देखकर लगता है शेहरी लोगो ने तकनिकी का महिला भ्रूण हत्या मैं भी जमकर फायदा उठाया है .बढती महंगाई ने शहर के लोगो इस बात के लिए तो मानसिक रूप से तैयार कर दिया की उन्हें १ या २ ही बच्चे चाहिए पर गिरती हुई मानसिकता कहिये या जड़ मैं बेठी हुई सोच की अब वो १ ही बच्चा उन्हें लड़का चाहिए .मतलब साफ़ है जनसँख्या चाहे उस तेजी से न बढे पर लड़कियों की संख्या तेजी से कम हो रही है.

हम क्यूँ अपने आप को पढ़ा लिखा कह रहे हैं?क्या लोग पढाई सिर्फ इसलिए करते है की वो पैसा कमा सके ?क्या शिक्षा अपने साथ सोच मैं बदलाव नहीं कर रही ? क्या शिक्षा गुणात्मक फायदा नहीं दे रही ?

एक बार सोचकर देखिये नए ढंग के कपडे पहनना ,बड़े होटलों मैं खाना,वीकेंड पर बाहर जाना ,कंप्यूटर,लैपटॉप,आई -फ़ोन ,इन्टरनेट,वेबकैम और न जाने कितनी तकनिकी सुविधाओं का उपयोग करना ,माल्स मैं शौपिंग करना,गावों के लोगो को दकियानूसी कहना ,नौकरी करना ,पैसे कमाना ,और हमें सिर्फ १ बच्चा चाहिए या हमें सिर्फ दो बच्चे चाहिए जेसी बातें करके फॅमिली प्लानिंग की डींगे हांकना क्या यही सब शहरीपन है? क्या फायदा असी पढाई लिखाई का जो हमें सही रस्ते पे चलना भी नहीं सिखा रही.....

पढ़ी लिखी लड़कयाँ और महिलाएं क्या सिर्फ इसलिए पढ़ रही है की वो अपने आप को साबित कर सके,पुरुषों के कंधे से कन्धा मिला मिला सके ,या आज की शहरी भाषा मैं कहे तो घर की अर्निंग मेम्बर बन सके ,क्या वो अभी भी इतनी समझदार और परिपक्व नहीं हुई की अपनी बच्ची को दुनिया मैं लाने के लिए आवाज उठा सके? और खुद को प्रबुद्ध कहने वाला पुरुष वर्ग क्या अब भी नहीं समझ पा रहा महिलाओं की ये घटती संख्या देश मैं १ दिन कुवरो पुरुषों की भीड़ बढ़ा देगा.

इस देश मैं सब समझदार है सारे लोग क्रिकेट पर टिपण्णी करना जानते है,सब ओसामा की मौत पर बातें करते है,अमेरिका के बारे मैं बोलते है,मुफ्त के रायचंद काफी है यहाँ. पर महिला भ्रूण हत्या के विरोध में  मैआवाज उठाने  वालो  की संख्या कम है क्योंकि  सब जानते है ये गलत  है पर सब डरते  है बोलने  से .में मानती हु कुछ लोगो में जाग्रति आई है पर प्रतिशत काफी कम है .

मेरी बस लोगो से यही उम्मीद  है की वो पढ़े लिखे है तो अपनी शिक्षा का सही उपयोग करें  और अपनी तरफ  से पूरी  कोशिश  करें  की वो कभी महिला भ्रूण हत्या में  शामिल  न हो साथ ही अपने आस  पास  के लोगो को भी असा  करने  से रोकें .युवा  हो तो युवा  होने  के उत्तरदायित्व  को समझो  ,भीड़ में  शामिल  हो जाओ  पर भीड़ का हिस्सा  बनकर  गन्दगी  को साफ़ करो ........


                                                                                                    कनुप्रिया गुप्ता


July 06, 2011

मेरा परिचय - कनुप्रिया गुप्ता

मैं कनु किसी की बेटी,बहिन ,पत्नी,बहू,सहेली,दोस्त ,हर उस रिश्ते से बंधी हुई जो एक आम भारतीय लड़की की जिंदगी में आता है .एक कंपनी में जनसंपर्क  अधिकारी हू.लिखने का शौक है मुझे और इसीलिए ब्लॉग लिखती हू कविताएँ,लेख सब....अपने परिचय में और क्या बताऊ आपको बस इतना समझ लीजिए की आम भारतीय लड़की पर थोड़ी सी अलग हू क्यूंकि में भीड़ का हिस्सा होते हुए भी  भीड़ का हिस्सा नहीं हु.अपने अरमानों को पंख देना चाहती हू.........
नारी ब्लॉग देखा तो लगा यहाँ मुझे उन सभी नारियों से मिलने का उनके विचार जानने का मौका मिलेगा जो अपने शब्दों से चित्रकारी करती है मेरे शब्द अभी चित्रकारी जेसे सुन्दर नहीं पर फिर   भी कुछ लकीरें खीचने का प्रयास करती हू.अभी तक समसामयिक विषयों पर लिखती आई हू या भावनात्मक कविताएँ लिखती हू पर चाहती हू नारी के लिए कुछ लिखू .
कुछ ऐसा जो मेरे दिल से निकल कर आप लोगो के दिल तक पहुँच सके.....
अपनी ओर से पूरा प्रयास करुँगी....

July 04, 2011

आप इसे क्या कहेंगे उच्च कोटि का बलिदान, नादानी या बेवकूफी

आज ये खबर पढ़ी आप भी पढिये और बताइये की आप इसे क्या कहेंगे उच्च कोटि का बलिदान, नादानी या  बेवकूफी जो एक १२ साल की छोटी लड़की ने की है असल में ये लड़की नहीं बेटी है |
 
आशीष पोद्दार
नादिया (पश्चिम बंगाल) ।। 12 साल की मंफी से किसी ने कुछ नहीं कहा, लेकिन परिवार में सभी चिंतित थे। उसे पता था कि उसके पिता की आंखों की रोशनी जा रही है और भाई की जिंदगी भी खतरे में है। पिता के लिए आंख और भाई के लिए किडनी का बंदोबस्त करना परिवार के बूते की बात नहीं थी। आखिर उसने एक योजना बनाई जो उसके मुताबिक सभी समस्याओं का हल थी।

वह अपनी जिंदगी खत्म कर देगी। उसकी मौत से दहेज का पैसा तो बचेगा ही, उसके अंग भी पिता और भाई के काम आ जाएंगे। मंफी ने अपनी योजना पर अमल भी कर दिया, लेकिन मौत से पहले मां के नाम लिखा गया उसका खत परिवार वालों को तब मिला जब उसका अंतिम संस्कार हो चुका था।

यह घटना 27 जून को झोरपाड़ा के धंताला में हुई। छठी क्लास की छात्रा मंफी सरकार परिवार की समस्याओं को लेकर काफी परेशान थी। उसके नौवीं में पढ़ने वाले भाई मोनोजीत की एक किडनी खराब हो गई थी और दूसरी भी कमजोर हो रही थी। दिहाडी मजदूर पिता मृदुल सरकार की आंखों की रोशनी कम होती चली जा रही थी।

धंताला पंचायत के प्रधान तापस तरफदार बताते हैं,'परिवार ने लोकल एमएलए से संपर्क किया था। हमने फैसला किया कि उन्हें कुछ पैसा डोनेट करेंगे, लेकिन अचानक यह हादसा हो गया।'

मंफी ने 17 जून की सुबह ही अपनी योजना के बारे में आठवीं में पढ़ने वाली बड़ी बहन मोनिका से बात की थी। लेकिन, मोनिका ने उसकी बात को हंसी में उड़ा दिया और स्कूल चली गई। पिता काम पर थे और मां रीता सरकार चावल लाने गई थी। खुद को अकेला पाकर मंफी ने कीटनाशक पी लिया। उसके बाद वह पिता से मिलने दौड़ी।
जहर की बात पता चलते ही पिता उसे पास के दवाखाने ले गए। वहां से उसे लोकल अस्पताल भेज दिया गया। वहां भी हालत बिगड़ने पर मंफी को अनुलिया हॉस्पिटल ले जाया गया, लेकिन उसने रास्ते में ही दम तोड़ दिया।

मंफी का अंतिम संस्कार किए जाने के अगले दिन पिता मृदुल सरकार को मंफी के बिस्तर पर वह खत मिला जो मंफी ने मां के नाम लिखा था। खत में मंफी ने लिखा था कि उसकी आंखों और किडनी का इस्तेमाल करते हुए पिता और भाई का इलाज करवा लिया जाए। इस खत ने दुखी परिजनों का और बुरा हाल कर दिया। मां सदमे में हैं। पिता मृदुल सरकार रोते हुए कहते हैं,'हम उस छोटी सी बच्ची की भावनाओं को समय रहते समझ नहीं पाए।' 
 
 
  आप  इसे चाहे बलिदान कहे या नादानी या बेफकुफी आप की नजर में ये चाहे जो भी हो पर ऐसा कोई भी काम परिवार के लिए, उसके दुखो के अंत के लिए बस एक बेटी ही कर सकती है बेटा नहीं आप चाहे तो ऐसा कहने के लिए मुझे भी नारीवादी कह ले पर सच यही है | धन्य है वो महान लोग जो अपनी बेटियों को कोख में ही मार देते है, धन्य है वो लोग जो अपनी बेटी का लिंग बदलवा कर उसे बेटा बनवा रहे है,  धन्य है वो लोग जो राजेस्थान सरकार द्वारा बेटी के जन्म के एवज में मिलने वाले पैसे के लालचा में अब कन्या भ्रूण हत्या नहीं करते है बल्कि अब बेटी को जन्म देते है पैसे लेते है और उसके बाद उसे मार देते है |  ये सब हमारे २१ वी सदी के भारत में हो रहा है धन्य है हमारा भारत देश और यहाँ के लोग |

July 03, 2011

CNN की International Hero of the Year 2010 : अनुराधा कोइराला

नवम्बर 2010 में अमरीकी चैनल CNN ने 'अनुराधा कोइराला ' को अपना International Hero of the Year चुना. जैसा कि सरनेम से ज्ञात होता है....अनुराधा जी , नेपाल से हैं और पिछले 20 वर्षों से एक ऐसे सामाजिक कार्य में लगी हुई हैं...जिनके विषय में लोग बात करना भी नहीं चाहते और उसके अस्तित्व को भी अनदेखा करने की कोशिश करते हैं...और वो है...देह व्यापार से लड़कियों को बचाना.

1990 में अनुराधा जी ने मंदिर के बाहर भीख मांगती कुछ औरतों से उनके भीख मांगने का कारण पूछा...और उनलोगों ने बताया कि वे सब दैहिक हिंसा की शिकार हुई है...और उन्हें अब कौन नौकरी देगा. अनुराधा एक स्कूल में अंग्रेजी की शिक्षिका थीं..उन्होंने अपने वेतन के पैसे में से उनलोगों को सड़क के किनारे छोटी-मोटी चीज़ें जैसे सिगरेट...माचिस...टॉफी...आदि बेचने के लिए चीज़ें खरीदने को पैसे दिए.

उन्होंने दो कमरे का एक घर किराए पर लेकर इन औरतों और बच्चे के रहने की व्यवस्था की. धीरे-धीरे इस तरह की सताई हुई औरतें उनके पास सहायता के लिए आने लगी. उनके परिवार और समाज के लोग उन्हें पागल समझते थे जो देह व्यापार में संलग्न औरतों को इस से छुटकारा दिलाना चाहती थीं. (काश....ऐसा पागलपन हज़ार में से किसी एक को भी हो..पर यहाँ करोड़ों में कोई एक ऐसा पागल होता है)


जल्दी ही इनकी देख-रेख के लिए उन्हें अपनी नौकरी भी छोडनी पड़ी...अब, ना उनके पास कोई पैसा था और ना ही किसी तरह का सहारा. फिर भी इन सताई हुई औरतों के लिए कुछ करने का लगन और जुनून था. 1993 में उन्होंने 'मैती नेपाल ' की स्थापना की. मैती का अर्थ है, "माँ का घर" UNICEF से मदद मिली....और कुछ और लोगो ने आर्थिक सहायता की. 1993 में शुरू किए गए उस दो कमरे से बढ़कर विगत 17 वर्षों में नेपाल के 29 जिलो में 'मैती नेपाल' की शाखाएं हैं. और देश-विदेश में फैले हज़ारों स्वयंसेवक हैं. मैती नेपाल के दो अस्पताल और एक क्लिनिक भी हैं. अब तक 12000 लड़कियों को उन्होंने देह-व्यापार से बचाया है. जिसमे 12 लडकियाँ सउदी और कुवैत से भी हैं. वे किसी भी उत्पीडित महिला या बच्चे को ना नहीं कह पातीं...और मैती नेपाल उन सब बेसहारों का घर है.

अनुराधा कोइराला का कहना है कि "करीब दो लाख के करीब लडकियाँ आज भी....भारत के विभिन्न वेश्यालयों में हैं" इन लड़कियों को सीमा पार करते वक्त ही पकड़ने के लिए अक्सर देह-व्यापार से बचाई गयी लड़कियों को ही नियुक्त किया जाता है. भारत-नेपाल सीमा पर करीब 10 पॉइंट पर 50 लडकियाँ नज़र रख रही हैं. हैं. ये लडकियाँ खुद उस स्थिति से गुजर चुकी हैं...इसलिए ये तुरंत पहचान लेती हैं कि 'कौन सी लड़की देह-व्यापार के लिए ले जाई जा रही है.' सिक्युरिटी फ़ोर्स के जवानो से ज्यादा इनकी नज़र तेज होती है. औसतन रोज चार लड़कियों को बचाया जा रहा है.

Human trafficking असामाजिक तत्व ही करते हैं..और वे बहुत खतरनाक होते हैं. दो बार 'मैती नेपाल' के भवन को नष्ट किया जा चुका है. उसके स्वयंसेवकों पर हमले हो चुके हैं फिर भी इसके स्वयंसेवक पीछे नहीं हटते . ये लडकियाँ जानती हैं कि आगे कैसी कांटो भरी जिंदगी होती है..इसलिए ये अपने बहनों को बचाने के लिए तत्पर रहती हैं.

नेपाल में ' मैती नेपाल ' के इस संघर्ष से नेपाली लड़कियों को देह-व्यापार के लिए विभिन्न देशों में ले जाने के विरोध में काफी जागरूकता फैली. राजनीतिक पार्टियां इसे चुनावी एजेंडा बनाने लगीं. सरकार ने ५ सितम्बर कोAnti Trafficking Day घोषित कर दिया. human trafficking में संलग्न लोगों को अदालत से सजा दी जाने लगी.' मैती नेपाल' , अब तक 496 लोगों को सजा दिलवाने में सहायक हुई है.

देह-व्यापार से बचाए लड़कियों के पुनः जीवन की शुरुआत के लिए के लिए उन्हें तरहतरह के प्रशिक्षण दिए जाते हैं..जिस से वे अपनी आजीविका कमा सकें. समाज शास्त्रियों का कहना है कि अशिक्षा और गरीबी के करण ही लडकियाँ human trafficking का शिकार होती हैं...इसलिए गाँव-गाँव में लड़कियों की शिक्षा और आत्मनिर्भरता पर भी जोर दिया जा रहा है. हालांकि नेपाल में राजनीतिक आस्थिरता की वजह से इस मुहिम को अपेक्षित सफलता नहीं मिल रही है. फिर भी 'मैती नेपाल' के स्वयंसेवक गाँव-गाँव जाकर लोगो में human trafficking की असलियत बताते हैं. उन्हें किसी लोभ का शिकार ना बनने की सलाह देते हैं क्यूंकि अक्सर शहर में नौकरी के बहाने से एजेंट लड़कियों को गाँव से ले आते हैं .


हाल में ही CNN ने एक 50 मिनट की documentary बनाई है...जिसकी एंकरिंग डेमी मूर ने की है..इसमें अनुराधा कोइराला से बात करते हुए उनके संगठन 'मैती नेपाल' को जानने के साथ-साथ. देह-व्यापार से बचाई कुछ लड़कियों के इंटरव्यू भी हैं...जिन्हें सुन कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं..."राधिका ने प्रेम-विवाह किया था. उसके प्रेमी ने पहले तो पैसों की खातिर उसे किडनी बेचने पर मजबूर किया...जब पैसे ख़त्म हो गए तो उसे बेच दिया. तीन साल पहले ही उसे कलकत्ता के एक वेश्यालय से मुक्त कराया गया पर उसके परिवार वाले ने उसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया. उस वेश्यालय की मालकिन ने उसके बेटे की जीभ जला दी क्यूंकि वो बहुत रोता था.
उसे 'मैती नेपाल' में ही आश्रय मिला.

नौ साल की गीता की कहानी तो और भी हृदयविदारक है जिसे मेकअप करके एक दिन में साठ आदमियों का सामना करना पड़ता था. मैती नेपाल की एक-एक लड़की की कहानी ऐसी ही लोमहर्षक है.
बासठ वर्षीया अनुराधा कोइराला का कहना है...'अभी बहुत काम बाकी है...जबतक नेपाल की सारी लड़कियों को उनके 'माँ के घर' वापस नहीं लाया जाता और बौर्डर के पार लड़कियों को भेजना नहीं रुक जाता..मेरा सपना पूरा नहीं होगा"

फिर भी उन्हें इस बात का संतोष है कि 'बचाई गयी एक भी लड़की वापस उस दोज़ख में नहीं लौटी है.'
जबकि अक्सर कहानी- उपन्यास- फिल्मो में दिखाया जाता है कि ऐसे हादसों से गुजरी लड़की समाज में कभी जगह नहीं बना पाती...और उसे फिर वहीँ लौटना पड़ता है.

अभी दो दिन पहले ही अखबार में एक खबर छपी थी कि एक बंगलादेशी लड़की को एक एजेंट ने नौकरी का झांसा देकर भारत लाकर एक वेश्यालय में बेच दिया. दो महीने में वो लड़की दो बार बेची गयी. वो सिर्फ बंगला जानती थी...ना हिंदी ना अंग्रेजी. किसी से कुछ कह भी नहीं सकती थी. धीरे-धीरे उसने टूटी-फूटी हिंदी सीखी और एक कस्टमर ने दया कर अपने मोबाइल से उसके घरवालों से उसकी बात करवाई. उस लड़की का एक रिश्तेदार ढाका में पी.एम.ओ. ऑफिस में काम करता था. उस लड़की के घरवालों ने उस से संपर्क किया...और पी.एम.ओ ऑफिस तुरंत हरकत में आ गया. इंटरपोल पुलिस को सूचना दी गयी. और भारतीय पुलिस की सहायता से पंद्रह दिनों के अंदर वो लड़की बरामद कर ली गयी. अच्छी बात ये हुई कि उस एजेंट ने उसके साथ पांच और लड़कियों को बेचा था.उन्हें भी अपने घर सुरक्षित वापस भेज दिया गया. उस एजेंट को गिरफ्तार कर लिया गया.

कोशिश की जाए तो इन बेबस लड़कियों की जिंदगी में रोशनी लौटाई जा सकती है.

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