नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

August 31, 2008

अब भारतीय महिला "देवी " नहीं मनुष्य बनना सीख गयी हैं ।

शक्ति और पावर , मिलिये दुनिया की १०० पावरफुल यानी शक्ति सम्पन महिलाओ से । इन महिला को फोर्ब्स पत्रिका ने साल २००८ के लिये चुना हैं । फोर्ब्स के जानी मानी पत्रिका हैं और उनके चयन मे स्थान पाना एक बहुत बड़ी उपलब्धि होती हैं ।
इन १०० महिला मे ४ महिला भारतीये हैं , जिन मे से एक इस समय अमेरिका की मानी गयी हैं पर हैं भारतीये मूल की , जो किसी भी भारतीये महिला के लिये एक फक्र की बात है । वो क्रम मे किसी भी पायदान पर हो इस से इतना फरक नहीं पड़ता लेकिन भारतीये नारियां अब पावरफुल महिला की शेणी मे आने लगी हैं ये बात काबिले तारीफ हैं और इस जगह वो सब केवल इस लिये पहुच सकी क्योकि उन्होने "मानसिक परतंत्रता " को नहीं अपनाया । अपने को उस कंडिशनिंग मे नहीं डाला जहाँ भारतीये स्त्री का मतलब होता हैं गाली खाओ और देवी कहलाओ । समानता की बात ही मत करो क्युकी अगर समानता की बात करोगी तो तुम चरित्र हीन हो । चुप रहो , मीठा बोलो , ज्यादा मन मे आए तो दो चार किताबे लिख लो , छद्म नाम से छपवाओ ताकि घरवाले दुखी ना हो तुम्हारे विस्फोटक लेखन से नाम से लिखोगी तो भी चरित्रहीन ही कहलाओगी । सबमिसिव रहो , विनम्र रहो क्योकि यही परिभाषा हैं भारतीये महिला की ।
इस लिस्ट मे आयी हर भारतीये महिला ने उस सांचे को तोडा हैं जो समाज ने उसको दिया था क्युकी वो आगे जाना चाहती थी । इस लिस्ट मे अविवाहित भी हैं , विवाहित भी , विधवा भी और तलाकशुदा भी पर इन सब ने अपने को हर सामाजिक शेणी से ऊपर रखा हैं इसीलिये वो आज इस लिस्ट मे हैं । आप इनके चरित्र को जानने के लिये इनके नाम को क्लिक करे और देखे
" नारी - जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की " । अगले साल की लिस्ट मे उम्मीद हैं और भारतीये नाम मिलेगे क्युकी अब भारतीय महिला "देवी " नहीं मनुष्य बनना सीख गयी हैं ।
इसके अलावा अति अति प्रसन्नता की बात हैं की टाटा नेन हॉटेस्ट स्टार्टअप मे सबसे ज्यादा रेटिंग्स मे मे आज भी Saloni Malhotra : DesiCrew Solutions का नाम टॉप पर हैं
फोर्ब्स की लिस्ट नीचे देखे
RankNameOccupationCountry
1 Angela MerkelChancellor Germany
2 Sheila C. BairChairman, Federal Deposit Insurance Corp. U.S.
3 Indra K. NooyiChairman, chief executive, PepsiCo U.S.
4 Angela BralyChief executive, president, WellPoint U.S.
5 Cynthia CarrollChief executive, Anglo American U.K.
6 Irene B. RosenfeldChairman, chief executive, Kraft Foods U.S.
7 Condoleezza RiceSecretary of state U.S.
8 Ho ChingChief executive, Temasek Holdings Singapore
9 Anne LauvergeonChief executive, Areva France
10 Anne MulcahyChairman, chief executive, Xerox Corp. U.S.
11 Gail KellyChief executive and managing director, Westpac Bank Australia
12 Patricia A. WoertzChairman, chief executive, president, Archer Daniels Midland U.S.
13 Cristina FernandezPresident Argentina
14 Christine LagardeMinister of economy, finance and employment France
15 Safra A. CatzPresident and chief financial officer, Oracle U.S.
16 Carol B. TomeExecutive vice president and chief financial officer, Home Depot U.S.
17 Yulia TymoshenkoPrime minister Ukraine
18 Mary SammonsChairman, chief executive, president, Rite Aid U.S.
19 Andrea JungChairman, chief executive, Avon U.S.
20 Marjorie ScardinoChief executive, Pearson PLC U.K.
21 Sonia GandhiPresident, Indian National Congress Party India
22 Risa Lavizzo-MoureyChief Executive and President, The Robert Wood Johnson Foundation U.S.
23 Sri Mulyani IndrawatiCoordinating minister for economic affairs and finance minister Indonesia
24 Dr. Julie GerberdingDirector, Centers for Disease Control and Prevention U.S.
25 Michelle BacheletPresident
Chile
26 Ellen AlemanyChief executive, Royal Bank of Scotland Americas U.S.
27 Carol MeyrowitzChief executive, president, The TJX Cos. U.S.
28 Hillary Rodham ClintonU.S. senator, New York U.S.
29 Hynd BouhiaDirector General, Casablanca Stock Exchange Morocco
30 Anne SweeneyPresident, Disney-ABC Television Group U.S.
31 Valentina MatviyenkoGovernor, St. Petersburg region Russia
32 Nancy TellemPresident, CBS Paramount Television Entertainment Group U.S.
33 Ann LivermoreExecutive vice president, Hewlett-Packard U.S.
34 Marina BerlusconiChairman, Finivest Group and Mondadori Group Italy
35 Nancy PelosiSpeaker, House of Representatives U.S.
36 Oprah WinfreyChairman, Harpo U.S.
37 Gulzhan MoldazhanovaChief Executive, Basic Element Russia
38 Aung San Suu KyiDeposed prime minister; Nobel peace laureate Myanmar
39 Lynn Laverty ElsenhansChief executive and president, Sunoco U.S.
40 Melinda GatesCo-founder, co-chairman, Bill & Melinda Gates Foundation U.S.
41 Gloria ArroyoPresident Philippines
42 Jane MendilloPresident and chief executive, Harvard Management Co. U.S.
43 Linda Z. CookExecutive director, gas and power, Royal Dutch Shell Netherlands
44 Laura BushFirst lady U.S.
45 Brenda BarnesChief executive, Sara Lee U.S.
46 Christine PoonVice chairman, Johnson & Johnson U.S.
47 Neelie KroesCompetition commissioner, European Union Netherlands
48 Amy Woods BrinkleyGlobal risk executive, Bank of America U.S.
49 Susan E. ArnoldPresident, global business units, Procter & Gamble U.S.
50 Susan DeckerPresident, Yahoo! U.S.
51 Ana Patricia BotinChairman, Banesto Spain
52 Tzipora LivniVice prime minister and minister of foreign affairs Israel
53 Dominique SenequierChief executive officer, AXA Private Equity France
54 Amy PascalCo-chairman, Sony Pictures Entertainment U.S.
55 Ursula BurnsPresident, Xerox U.S.
56 Helen ClarkPrime minister New Zealand
57 Laura DesmondChief executive officer, Starcom MediaVest Group Worldwide U.S.
58 Queen Elizabeth IIQueen U.K.
59 Mayawati KumariChief minister, Uttar Pradesh India
60 Judy McGrathChairman and chief executive officer, MTV Networks U.S.
61 Meredith VieiraCo-anchor, Today show, NBC News U.S.
62 Katie CouricAnchor, CBS Evening News, CBS News U.S.
63 Barbara WaltersCorrespondent, ABC News U.S.
64 Sallie KrawcheckChairman and chief executive, Global Wealth Management, Citigroup U.S.
65 Diane SawyerAnchor, Good Morning America, ABC News U.S.
66 Ellen Johnson-SirleafPresident Liberia
67 Janice FieldsChief operating officer and executive vice president, McDonald's U.S.
68 Zhang XinChief executive officer, co-founder, Soho China
69 Zaha HadidFounder, Zaha Hadid Architects U.K.
70 Yang Mian MianPresident, Haier China
71 Tarja HalonenPresident Finland
72 Ruth Bader GinsburgJustice, Supreme Court U.S.
73 Hyun Jeong-EunChairman, Hyundai Group South Korea
74 Mary McAleesePresident Ireland
75 Guler SabanciChairman, Sabanci Holding Turkey
76 Drew Gilpin FaustPresident, Harvard University U.S.
77 Lisa M. WeberPresident, Individual Business, MetLife U.S.
78 Dora BakoyannisForeign minister Greece
79 Beth BrookeGlobal vice chairman, Ernst & Young U.S.
80 Lee Myung-HeeChairman, Shinsegae Group South Korea
81 Susan M. IveyChief executive, Reynolds American U.S.
82 Nancy McKinstryCEO, Wolters Kluwer Netherlands
83 Janet L. RobinsonPresident and chief executive, The New York Times Co. U.S.
84 Margaret ChanDirector-general, World Health Organization Switzerland
85 Clara FurseChief executive, London Stock Exchange U.K.
86 Ellen J. KullmanExecutive vice president, DuPont U.S.
87 Susan Desmond-HellmannPresident, product development, Genentech U.S.
88 Eva ChengChief executive, Greater China and Southeast Asia, Amway China
89 Maha Al-GhunaimChairman, managing director, Global Investment House Kuwait
90 Christina GoldChief executive, Western Union U.S.
91 Christiane AmanpourChief international correspondent, CNN U.S.
92 Pamela NicholsonPresident, Enterprise Rent-a-Car U.S.
93 Ann MooreChairman, chief executive, Time Inc. U.S.
94 Sharon AllenChair, Deloitte U.S.
95 Jing UlrichChairman and managing director, JPMorgan Chase China Equities China
96 Queen Rania Al-AbdullahQueen Jordan
97 Virginia RomettySenior vice president, IBM Global Business Services U.S.
98 Georgina RinehartOwner, chairman, Hancock Prospecting Australia
99 Kiran Mazumdar-ShawChairman and managing director, Biocon India
100 Paula Rosput ReynoldsChief Executive, Safeco U.S.

August 30, 2008

पोस्ट पर क्या और क्यूँ लिखा गया हैं

नारी पर १५ अगस्त के बाद से लिखे हुए आलेखों की सूची देखे , लिंक क्लिक करे और अपनी राय दे । जिस पोस्ट मे आप को लिंक मिलते हैं तो कमेन्ट करने से पहले एक बार उन लिंक्स को जरुर पढे ताकि आप को पता लग सके की पोस्ट पर
क्या और क्यूँ लिखा गया हैं । केवल शीर्षक को देख कर पोस्ट कंटेंट का पता नहीं लगता हैं ।
क्या संसार और प्रकृति के कानून भारतीये महिला के लिये अलग हैं की एक भारतीये विधवा को विवाह नहीं करना चाहिये ।
सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत
स्त्री को अभी भी परिवार के सुरक्षित दायरे में ही बांधे रखना बेहतर समझा जाता है।
। क्यों महिला के साथ विचार विमर्श महिला के शरीर और महिला की सुन्दरता पर ही आकर ख़तम होता हैं ।
मेरी कलम की नजर में ´नारी`
एक बनियान तक तो बिना नारी के बेच नहीं सकते
आखिर क्यों???
जिन्दगी से खिलवाड़ क्यूँ
जींस में 'क्या' बात है

August 29, 2008

क्या संसार और प्रकृति के कानून भारतीये महिला के लिये अलग हैं की एक भारतीये विधवा को विवाह नहीं करना चाहिये ।

"वैसे भारतीय नारी को पति की मृत्यु के पश्चात दूसरा विवाह नही करना चाहिए . बाल बच्चेदार महिला का दायित्व है कि वह अपने अभिभावक होने के दायित्व का निर्वहन करे।"
कल एक पोस्ट पर ये कमेन्ट आया हैं । इस कमेन्ट को पढ़ कर लगा की क्या संसार और प्रकृति के कानून भारतीये महिला के लिये अलग हैं की एक भारतीये विधवा को विवाह नहीं करना चाहिये । अगर एक विधुर के लिये विवाह जायज हैं तो एक विधवा के लिए क्यों नहीं ?? अभिभावक होने के दायित्व को निभाने के लिये अगर एक विधुर को एक सहचरी की दुबारा जरुरत होती हैं तो विधवा को दुबारा क्यूँ अपने लिये जीवन साथी नहीं चाहिये । ये दोहरी मानसिकता क्यूँ ??
एक पत्नी के मरने पर हमारा समाज कैसे रीअक्ट करता हैं मैने अपनी पोस्ट इसे क्या हादसा कहेगे ?? मे बताया था । और एक पति के मरने पर पत्नी के लिये जिन्दगी ख़तम समझ ली जाए , क्या इस मानसिकता से हम इस सदी मे भी बाहर नहीं आयेगे ।
अफ़सोस होता हैं जब ब्लॉग पर ये सब कमेन्ट मे पढ़ने को मिलता हैं क्युकी ब्लॉग लेखन एक पढा लिखा समाज करता हैं । जब ये सोच एक पढे लिखे समाज की हैं तो ये समझना बहुत आसन हैं की बाकी तबको मे नारी की स्थिति कैसी हैं ।
नारी की कई पोस्ट पर राष्ट्रप्रेमी जी और सुरेश जी निरंतर लिखते हैं की
"ब्लोगिन्ग से उन करोंडो-अरबों महिलाओं का क्या हित हो सकता है जो अपनी रोटी के लिये जूझ रही हैं? जो अपने लिये नहीं परिवार या समाज के लिये जूझ रही हैं क्या वे महिलाएं नहीं या उनके विचारों या आवश्यकताओं का कोई महत्व नहीं? क्या ऐसी महिलाऒ के लिये भी अभियान चलाकर कुछ किया जा सकता है। ब्लोगिंग से जमीन से जुडे लोगों को क्या फ़ायदा हो सकता है? यह विचार का विषय नहीं होता तो ब्लोगिंग केवल मनोरंजन की चीज है या व्यर्थ के वाद-विवाद का मंच।"

एक सूत्रधार की हैसियत से मेरा जवाब हैं
"आज कल इंटरनेट प्रसार और प्रचार का सबसे आसन साधन हैं . गावं मे भी साइबर कैफे खुल गयी हैं पर मुझे लगता हैं रुढिवादिता की शिकार पढ़ी लिखी महिला ज्यादा हैं इस ब्लॉग के जरिये अगर हम किसी भी ऐसी महिला " जो मानसिक रूप से परतंत्र " के अंदर अपने प्रति जागरूकता ला सके तो ये ब्लॉग लेखन बहुत दूर तक जायेगा । नारी ब्लॉग महिला विचारों का मंच हैं और आप जिस चीज़ की बात कर रहे वो संस्था बना कर होती हैं . इस ब्लॉग की बहुत सी सदस्या इन संस्थाओं से जुडी हैं इसीलिये निरंतेर "सच " को अभिव्यक्त कर रही हैं . ब्लॉग लेखन और ngo मे फाक हैं ."

August 28, 2008

सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत

पिछले दिनों एक पाठक ने मुझको लिखा था कि 'आप स्त्री होकर भी इतना साहस के साथ इसलिए लिख पाती हैं, क्योंकि आपमें हिम्मत है।' यह टिप्पणी निश्चित ही मेरे खुश होने के लिए थी और मैं खुश हुई भी, लेकिन असली खुशी मुझे तब होगी, जब हमारे समाज की हर स्त्री मुझसे भी ज्यादा दोगुने साहस के साथ अपनी बात, अपने दर्द, अपने शोषण को कह-लिख सकेगी। वो अपने ऊपर न किसी बंदिश को महसूस करेगी, न ही कोई उसे अपनी बंदिशों में रखने की कोशिश कर सकेगा। बिल्कुल खुलकर अपनी बात को कहने का जज्बा उसमें आएगा।
मैंने महसूस किया है स्त्री-विमर्श पर बात करते वक्त हम केवल देह की बात करते हैं, सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ खड़े होने की नहीं। स्त्री को देह मानने से हम कब इंकार करते हैं, परंतु उसकी देह तब ही सलामत है जब वो अपनी देह की रक्षा पूरी हिम्मत के साथ कर पाए। स्त्री को दोहरी लड़ाई लड़नी पड़ती है देह के बचाव में भी और देह के खिलाफ भी। उसमें लड़ने का हौसला तब ही आ सकेगा, जब ऐसा करने की वो अंदर से हिम्मत जुटा पाएगी।
यह हमारे पिछड़े समाज का नंगा सच है कि यहां स्त्री की आवाज को कदम-कदम पर दबाया जाता है। अपने ऊपर हुए किसी आत्याचार के खिलाफ अगर वो कुछ कहने-बोलने की कोशिश करती भी है, तो उसे समाज, परंपरा, संस्कृति-सभ्यता की दुहाई देकर चुप बैठने को कहा जाता है। दुख तब ज्यादा होता है, जब परिवार का ही कोई सदस्य उसके साथ हुए शारीरिक या मानसिक शोषण पर उससे कुछ नहीं बोलने को कहता है। अपने ही परिवार की स्त्री को अपने ही परिवार का एक शक्स निरंतर लुटता-खसोटता रहे, और वो न कुछ कहे, न बोले। क्योंकि यह उक्त परिवार की इज्जत का मामला है। बिडंवना देखिए, यहां उस स्त्री की इज्जत से कोई सरोकार नहीं रखा जाता, जिसे सरेआम तार-तार किया जाता है। उसके प्रति न परिवार की कोई सहानुभूति होती है न समाज की। क्या आपको ताज्जुब नहीं होता २१वीं सदी में भी हमारे परिवार और समाज बंद सोच और विकृत दिमाग के साथ ही जीना-रहना चाहते हैं?
कुछ तो अनुभव आपके भी रहे होगें, जहां आपने देखा-सुना होगा कि स्त्री को उसका अपना ही परिवार शारीरिक व मानसिक रूप से शोषित कर रहा है। तब क्या वह सब देख-सुनकर आपके खून में उबाल नहीं आया होगा? निश्चित ही आया होगा। मैं जानती हूं उस उबलते खून को तब आपने शांत भी कर लिया होगा। क्योंकि मामला परिवार का है। बस यही हमारे सोच और दिमाग का खोट है कि हम भावुकता में हथियार डाल देते हैं। अपने अंदर हिम्मत पैदा नहीं कर पाते उसके खिलाफ खड़े होने की। आखिर हम परिवारों को इतनी छूट देते ही क्यों हैं कि वो हम पर हावी हो सकें! बस, परिवार की इज्जत बची-बनी रहनी चाहिए चाहे स्त्री की चली जाए, मगर क्यों? यह सरासर उस पर अन्याय है। और यह अन्याय विभत्स है।
मैं तो कहती हूं हमें पूरी ताकत के साथ तोड़ना होगा उन सभी स्थापित मान्यताओं, परंपराओं, एकलिंगी वर्चस्व और अनकही चुप्पियों को। दासता की जंजीरों का टूटना अब बेहद जरूरी है। जो कहो, जहां कहो, जिस पर कहो बस खुलकर कहो। ताकि सामने वाला तुम्हें-हमें कमजोर समझने का ख्याल तक मन में लाने से डरे। देखो अब थप्पड़ का जबाव थप्पड़ से देने से काम नहीं चलने वाला, हमें इससे आगे भी सोचना और करना होगा।
हालांकि, जानती हूं, व्यवस्था के खिलाफ जाकर लड़ना है बहुत कठिन, पर हमें ऐसा करना ही पड़ेगा, क्योंकि यही वक्त का ताकाजा भी है। और हम ऐसा कर सकती हैं क्योंकि हम कमजोर नहीं। जो औरत पूरे नौ माह एक भूण को अपनी कोख में, तमाम कष्ट सहते हुए भी, रख सकती है, वो भला सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत कैसे नहीं जुटा सकती, निश्चित ही जुटा सकती है। बस, ध्यान रखो हौसला पस्त न होने पाए।

August 27, 2008

स्त्री को अभी भी परिवार के सुरक्षित दायरे में ही बांधे रखना बेहतर समझा जाता है।


आज की स्त्री के पास कामयाबी के उच्चतम स्तर को छूने की क्षमता है। उसके पास अनगिनत अवसर हैं लेकिन आज के प्रतियोगिता और चुनौतिपूर्ण कार्यक्षेत्रा में समाहित कर देने के बजाय स्त्री को अभी भी परिवार के सुरक्षित दायरे में ही बांधे रखना बेहतर समझा जाता है। उसे खुल कर खिल कर उड़ने का मौका नहीं दिया जाता है। ऐसा करने से उसकी प्रतिभा कहीं न कहीं प्रतिभावित हो रही है लेकिन कोई इस ओर ध्यान नहीं देता है। कहीं सास को यह डर है कि उसकी बहू बेटे से आगे न निकल जाये तो कहीं पति को भी अपने वजूद का भय सताने लगता है। आये दिन अखबारों की सुिर्खयों में ऐसे किस्से पढ़ने को मिल जाते है। स्त्री को उसकी क्षमता के अनुसार फलने फूलने का मौका कुछ लोगों की सोच के कारण नहीं मिल पा रहा है। आखिर कब तक इस तरह पारिवारिक मनाहियों के बीच स्त्री समझौते करती रहेगी???

August 24, 2008

। क्यों महिला के साथ विचार विमर्श महिला के शरीर और महिला की सुन्दरता पर ही आकर ख़तम होता हैं ।

इस पोस्ट को अवश्य पढे

महिलाएँ कतई देवियाँ नहीं, वे तो अभी बराबर का हक मांग रही हैं

और फिर इस पोस्ट

अब ऐसी मानसिकता को क्या कहेंगे????

पर आए कमेन्ट भी पढे । पढे की किस भाषा का प्रयोग कर रहे हैं हिन्दी के ब्लॉगर सह ब्लॉगर के लिये क्युकी वोह महिला हैं । क्यों महिला के साथ विचार विमर्श महिला के शरीर और महिला की सुन्दरता पर ही आकर ख़तम होता हैं । अगर किसी के पास जवाब हो तो बताये ।

August 22, 2008

मेरी कलम की नजर में ´नारी`


कुछ दिन पूर्व ब्लाग पर एक आइटम लिखा था, ´क्या चल रहा है ब्लाग पर `उस समय उस पर काफी बवाल हुआ, किसी ने कहा, ´तस्वीर बुरी है`, किसी ने कहा ´ये बुरी औरतें है।` यकीन मानिये , ये औरतें चुपचाप से औरतों की मजबूती और उन्हें मुख्य धारा से जोड़ने के प्रयास में जुटी हुई हैं। मुझे तो ऐसा ही लगा है आप भी जानें मेरी कलम से कि ये कैसी औरतें हैं, इनका मकसद क्या है, औरत के बारे में इनकी सोच कैसी है। आशा हैं ये चर्चा आप को पसंद आयेगी , रोज ना सही हफ्ते मै एक बार ही सही , मेरी कलम से सफर अच्छी औरतो की बुराई का............

August 21, 2008

एक बनियान तक तो बिना नारी के बेच नहीं सकते

एक बनियान तक तो बिना नारी के बेच नहीं सकते , बात करते हैं बराबरी की . अब साबुन हो या मोटर साइकिल , या कार , अगर बेचनी हैं तो महिला बिना नहीं बेच पायेगे . बात करते हैं मार्केट के दुष्प्रभाव की , बात करते हैं महिला के अनावरण की , महिला को समझाते हैं की वह शरीर बेच रही हैं . क्यों समझाते हैं ,?? खुद क्यों नहीं एक अभियान चलाते की नहीं खरीदेगे कोई भी सामान जिस को बेचने मे किसी महिला का सहयोग हो . महिला मॉडल सामान से ज्यादा पॉवर रखती हैं इस लिये कंपनी अपने समान को बेचने के लिये मॉडल लाती हैं . वह शरीर नहीं अपनी काबलियत बेचती हैं . पर जिस को जो देखना होता हैं वह वही देखता हैं . आप देखते हो , कंपनी आप की कमजोरी को भुनाती हैं और एक मॉडल लाखो कमा कर अपनी जिन्दगी मे बहुत आगे निकल जाती हैं . और आप !!!! रोज टीवी का रिमोट दबाते रहते हो , अखबार , मगज़ीन मे पन्ने पलटते हो , बार बार देख कर नयन सुख भोगते हो और फिर महिला मॉडल की वज़ह से आयी हुई सामाजिक अनैतिकता पर एक लंबा आख्यान दे डालते हो , छु नहीं सकते केवल देख सकते हो तो मन की भडास निकालते हो .

August 20, 2008

आखिर क्यों???

मेरी काम वाली बायी कल दोपहर में मेरे पास आयी, उसके साथ एक औरत भी थी, उसकी गोद में बच्चा था। उसने अपना नाम नीलम बताया , साथ ही बताया कि उसका पति गुजर गया है, अब घर वालों ने घर से निकाल दिया है। उस पर दया आने के साथ ही मन में आया कि पूछों तो ऐसे हालात कैसे बन गये?सो मैंने कुरेदना चाहा, मेरे पूछने पर उसने बताया कि उसका पति एचआईवी से ग्रस्त था, तीन महीने पहले उसकी मौत हो गई। इधर पति की मौत हुई, उधर ससुराल वालों ने तंग करना आरम्भ कर दिया। इसी बीच एक महीने बाद उसे एक बेटी हुई। उसके बाद तो घर में कोहाराम सा ही मच गया। सास ने घर से निकाल दिया। कहा, पहले बेटे को खा गई है अपनी बीमारी से, अब बेटी जन दी। उस दिन से वह दर दर की ठाकरे खा रही है और अपनी और अपनी बेटी की मौत का इंतजार कर रही है। उसकी कहानी सुन कर मेरी बाई को भी हैरानी हुई क्योंकि उसे तो कुछ पता ही नहीं था। मैं सोच रही थी कि इसमें इस औरत का क्या कसूर है? और जो बच्ची गोद में है, इसका क्या होगा? कुछ पुछने की जरूरत नहीं थी कि दोनों को ही एचआईवी होगा क्योंकि उसकी हालत काफी गिरी हुई लग रही थी। नीलम ने भी बताया कि उसे एक समाज पता चला था कि उसे भी एड्स है। मुझे समझ नहीं आया कि क्या करूं? नीलम को काम की नहीं, इलाज की दरकार है, यही सोच का मैंने उसे जिला अस्पताल फोन कर उसे वहां भेज दिया। उसका इलाज हो रहा है लेकिन उसकी किसमत में क्या है? किसी को पता नहींदिमाग रात भर दुखता रहा, सुबह उठी तो एक खबर पर नजर गई, रॉ की महिला अफसर ने पीएमओ के सामने आत्म हत्या करने का प्रयास किया और अस्पताल में भर्ती है। यह अफसर है निषा भाटिया। निषा भाटिया का कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न किया गया हैं। जब उसे इंसाफ नहीं मिला तो उसने आत्महत्या की सोची। चोबीस घंटों में दो महिलाओं से मेरा सामाना हुआ और बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर दिया। पहली नीलम, आखिर उसका क्या कसूर था जो उसे घर से निकाल दिया। कायदे से उसका इलाज कराया जाना चाहिए था। दरसअल लैंगिग असमानता के प्रभाव महिलाअों को एचआईवी के संपर्क में आने पर और अधिक जोखिम में डाल देते हैं। आर्थिक दिक्कतों के चलते औरतें अपने संबंधों में मर्दो पर ही निर्भर करती हैं। और फिर औरतों को मर्दों की तुलना में एचआईवी का और भी गंभीर प्रभाव झेलना पड़ता है। दूसरी निषा भाटिया, रॉ की अफसर, उसे कहा जा रहा है कि उसकी दिमागी हालत सही नहीं है, इस लिये अपने साथी अफसरों से बेंहूदा आरोप लगा रही है। साथ में जोड़ा जा रहा है कि वह डायवोर्सी भी है। कोई बतायेगा कि नीलम का एचआईवी होने में उसका क्या कसूर है? दुधमुही बच्ची के साथ वो क्यों समाज की ठोकरें खा रही है? रॉ की अफसर समाज की ज्यादतियों की वजह से आत्महत्या करने को मजबूर हुई है, आखिर क्यों???



Manvinder Bhimber

August 19, 2008

जिन्दगी से खिलवाड़ क्यूँ

She died at 4:30 yesterday. She leaves behind a husband, a 2yr old Brandon and a 4yr old Justin... The CAUSE of DEATH - they found was a birth control she was taking that allows you to only have your period 3 times a year... They said it interrupts life's menstrual cycle, and although it is FDA approved... shouldn't be - So to the women in my address book - I ask you to boycott this product & deal with your period once a month - so you can live the rest of the months that your life has in store for यू।
ये जिन्दगी से खिलवाड़ क्यूँ ....यह सुचना आप सबके साथ बाँटना चाहती हूँ ..बर्थ कंट्रोल पिल्स जिन्दगी के लिए खतरनाक हो सकती है ...अतः बचें .....

August 16, 2008

जींस में 'क्या' बात है

चिड़ियों को उड़ने दो। दाना चुगने दो। घोंसला बनाने दो। दुनिया सजाने दो। चिड़ियों को भी पूरी आज़ादी है अपने हिस्से के आसमान में उड़ान भरने की। चीटियां भी अपनी बनाई कतार में चलती हैं। अपने लिए खुद गुड़-आटे का जुगाड़ करती हैं। प्रकृति की इन नन्हीं जीवों के पास भी अपने हिस्से की पूरी आज़ादी है। बरेली के कॉलेजों में लड़कियों के जींस पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। इससे पहले ये मेरठ, आगरा में भी हो चुका है। बीते सालों में भी ऐसा होता आया है। बीती सदियां इसकी जड़ में हैं। ये ठीक इस तरह है कि कंस को डर था, कृष्ण के पैदा होने का, वो उसका संहार करेगा तो उसने कृष्ण के जन्म को ही रोकने की कोशिश की। हो सकता है घटना की तुलना में उदाहरण ज्यादा भारी लग रहा हो। पर बात यही है। जींस पहनी लड़कियों से कॉलेज का माहौल कैसे बिगड़ सकता है? इससे अनुशासन कैसे टूटता है? फिर वो माहौल ही कैसा जो लड़कियों के जींस पहनने से खराब हो जाता हो, फिर तो उसका बिगड़ना ही बेहतर। दुनिया चांद पर जा रही है हम जींस के झमेले में ही झमेला खड़ा कर रहे हैं। दरअसल ऐसे तानाशाही भरे फैसलों का असर उस कॉलेज में पढ़नेवाली कितनी ही लड़कियों पर अलग-अलग तरह से होता होगा। बजाय किताबों के रहस्यों को सुलझाने के जींस के तानेबाने को सुलझाया जा रहा है। दरअसल संस्कृति बचाने के नाम पर लिए जा रहे ऐसे फैसले डर से उपजे हैं, परिवर्तन के डर से। अपनी बात " कवि मनमोहन" की कविता की दो पंक्तियों से खत्म करना चाहूंगी....
फूल के खिलने का डर है सो पहले फूल का खिलना बर्खास्त,
फिर फूल बर्खास्त, हवा के चलने का डर है
सो पहले हवा का चलना बर्खास्त, फिर हवा बर्खास्त.....

August 15, 2008

आज़ादी के इस पर्व की सबको बधाई ।



स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार हैं , आज़ादी के इस पर्व की सबको बधाई ।

August 14, 2008

बेग़म हज़रत महल - "इफ़्तिखार उन निसा"

सन 1857 की क्रांति में नाना साहेब, रानी लक्ष्मी बाई, तांत्या टोपे, बख़्त ख़ान और मौलवी अहमदुल्ला याद आते हैं तो बेग़म हज़रत महल की याद आना स्वाभाविक है। एक साधारण गरीब परिवार में जन्मी मोहम्मदी खानूम को हज़रत महल का खिताब ताज़ेदार ए अवध वाजिद अली शाह ने निकाह के बाद दिया, यही नहीं उन्हे इफ्तिख़ार उन निसा (औरतों की शान) भी कहा।

लॉर्ड डलहौज़ी के लालच ने एक ही रात में खुशहाल अवध का अमन चैन लूट लिया। बेग़म हज़रत चाहती थी कि वाजिद अली शाह अंग्रेज़ों को मुँह तोड़ जवाब दे लेकिन वाजिद अली शाह ऐसा न कर सके. हज़रत बेग़म ने अवध की बागडोर अपने हाथ में ले ली लेकिन ब्रिटिश राज के आगे

घुटने न टेके। 14 साल के बेटे बिर्जिस क़ादेर को अवध का राजा बना कर अंग्रेज़ो का मुकाबला करने लगी। इतिहास की गहराई मे जाने वाले चाहे कुछ भी कहें लेकिन ब्रिटिश राज को दिन में भी तारे दिखाने में हज़रत बेग़म सफल रही थी. अपनी इसी हिम्मत के कारण समय समय पर अवध को अंग्रेज़ो से लड़ने की ताकत देती रहीं.

हमारे देश की विडम्बना रही है कि देश प्रेमियों के बीच अनगिनत गद्दार भी रहे, जिनके

बारे में जानकर यकीन नहीं होता कि अपने देश पर मर मिटने वालों के बीच ऐसे नीच लोग भी थे। मूसाबाग में 9000 सैनिकों के साथ अंग्रेज़ों से लोहा लेती हज़रत महल के 5000 सैनिक गद्दारी पर उतर आए तो अकेले ही सामना करने आगे बढी लेकिन लखनऊ की हार लिखी थी. हार कर भी हिम्मत न हारती वीराँगना अंग्रेज़ों के हाथ न आईं.

कुछ विश्वसनीय सैनिको के साथ बूँदी का किला छोड़कर भटकती भटकती नेपाल जा पहुँची। अंग्रेज़ों से बिना डरे नेपालराज ने हज़रत महल को पनाह दी. कहा जाता है कि एक बार अंग्रेज़ गर्वनर जनरल ने एक गोरे चित्रकार के माध्यम से, जो बिर्जिस कादेर का चित्र बनाने गया था, 15 लाख की पेंशन बिर्जिस कादेर के लिए और 5 लाख की पेंशन हज़रत बेग़म को देने की पेशकश करके भारत लौटने की सिफारिश की थी. सोने और चाँदी की जंजीरों में गुलामी की ज़िन्दगी जीना कबूल कैसे कर सकती थी. नेपाल में ही रह कर जितनी धन सम्पत्ति उनके पास थी उसे नेपाल में भारतीय शरणार्थियों की मदद में लगा दी.

काठमांडू (नेपाल) में 150 साल से सोई हज़रत महल की साधारण सी कब्र आज भी देखी जा सकती हैं. नेपाल के राजा जंग बहादुर ने ईमामबाड़ा में हज़रत बेग़म और उनके सात अन्य साथियों की कब्र बनाने का आदेश दिया. नेपाल में अशांति के दिनों में कई लोगों ने उस ज़मीन को हथियाने की कोशिश की लेकिन करीमुद्दीन मियाँ जैसे लोग भुलाए नहीं जा सकते जो उस कब्र की हिफ़ाज़त में लगे हैं.

अपने भारत , अपने अवध से दूर नेपाल में सोई हज़रत बेग़म महल के लिए वाजिद अली शाह की लिखी भैरवी ठुमरी याद आ गई जिसमे अवध से दूर जाने का गम दिखाई देता है.

"बाबुल मोरा नैहर छूटा जाए ,

चार कहार मिल मोरी डोलिया सजावें

मोरा अपना बेगाना छूटो जाए,

आँगना तो पर्बत भयो और देहरी भयो बिदेश

जाए बाबुल घर आपनो मैं चली पिया के देश


(इतिहास में कमज़ोर होने पर भी जो दिल में उतर गया उसे ब्लॉग पर आप सबके लिए उतार दिया।

शहीदों की याद में इतना लिखना बस ऐसा ही है जैसे एक टिमटिमाता दिया...हल्की मद्धम रोशनी लिए बस... )


August 13, 2008

उत्तर प्रदेश की पहली राज्यपाल - सरोजिनी नायडू



बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि सरोजिनी नायडू एक नामी विद्वान और कवयित्री माँ की बेटी थी। इन्होंने 12 वर्ष की छोटी सी आयु में ही बारहवीं की परीक्षा अच्छे अंकों में पास कर ली थी। 13 वर्ष की आयु में 'लेडी ऑफ द लेक' कविता रच डाली थी। उच्च शिक्षा पाने के लिए इंग्लैंड गईं जहाँ पढ़ाई के साथ साथ कविताएँ भी लिखती थी। 'बर्ड ऑफ टाइम' और 'ब्रोकन विंग' ने उन्हें एक सुप्रसिद्ध कवयित्री बना दिया।

डॉ गोविन्दराजुलू नायडू की जीवन संगिनी सरोजिनी से गुलामी की बेड़ियों में जकड़ी भारत माता की वेदना देखी न जाती. माँ भारती को आज़ाद कराने के लिए बेचैन हो उठी. गाँधी जी से सरोजिनी की पहली भेंट इंग्लैंड में हुई थी. उनके विचारों से प्रभावित होकर उनकी परम शिष्या बन गईं. गाँधी जी का आशीर्वाद मिलते ही पूरी तरह से अपने आप को देश के लिए समर्पित कर दिया.



कई राष्ट्रीय आन्दोलनों का नेतृत्व भी किया जिसके लिए सरोजिनी को जेल भी जाना पड़ा. संकटों से न घबराते हुए एक वीरांगना की तरह गाँव गाँव घूमकर देश प्रेम की अलख जगाती रहीं. भारत माँ की यह अमर बेटी क्षेत्रानुसार अपना भाषण अंग्रेज़ी, हिन्दी, बँगला या गुजराती में देती और सबको मंत्रमुग्ध कर देतीं. इनके व्क्तव्य लोगो के दिलों को झझकोर देते थे और देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए प्रेरित कर देते थे।



अपनी लोकप्रियता और प्रतिभा के कारण कानपुर में हुए काँग्रेस अधिवेशन की ये अध्यक्षा बनीं और भारत की प्रतिनिधि बनकर दक्षिण अफ्रीका भी गईं। आज़ादी के बाद उत्तर प्रदेश की पहली राज्यपाल बनीं. श्री मती एनी बेसेंट की प्रिय सखी और गाँधीजी की प्रिय शिष्या ने अपना सारा जीवन देश के लिए अर्पण कर दिया था।

अपडेट
इस पोस्ट पर आए दो कमेंट्स के बाद इस ब्लॉग की मोड़रेटर नए ये लिंक्स जोड़े हैं जो और जानकारी दे रहे हैं । ऊपर दिया गया चित्र १९३८ कांग्रेस कन्वेंशन का हैं । पाठक अच्छे लिंक्स कमेंट्स मे उपलब्ध करा दे , आभार होगा ।
लिंक १
लिंक २
पोएम्स

August 12, 2008

भारत की जॉन ऑफ़ आर्क -- भीखाजी कामा





विदेश में रहकर अपने देश की आज़ादी के लिए लड़ने वालों में भीखाजी कामा का नाम कभी नहीं भुलाया जा सकता. भीखाजी कामा ऐसे पारसी सम्पन्न परिवार में जन्मी जहाँ स्त्री शिक्षा और राष्ट्र की स्वाधीनता के प्रति सम्मान का भाव था. जागरूक परिवार और सामाजिक परिवेश में पलीं बढ़ी भीखाजी कामा ने अपना सारा जीवन देश के नाम कर दिया . उनके पिता का नाम सोराबजी फ्रामजी पटेल और माँ का नान जीजीबाई था. उनके जन्म से केवल चार वर्ष पहले सन 1857 में स्वत्नत्रता संग्राम की आग जल चुकी थी. देश ही नहीं विदेशों में भी अंग्रेज़ों के विरुद्ध गुप्त संगठन बना कर क्रांतिकारी अपनी गतिविधियों में लगे हुए थे.

24 वर्ष की आयु मे उनका विवाह रुस्तमजी कामा के साथ हुआ. भीखाजी कामा के पति रुस्तमजी कामा जाने माने बैरिस्टर थे और ब्रिटिश सरकार के प्रबल समर्थक थे. उनके परिवार की गिनती भी धनी परिवारों मे होती थी. उन्हे और उनके परिवार को भीखाजी का देश प्रेम और समाजसेवा करना स्वीकार नहीं था. इसी वैचारिक मतभेद के कारण कुछ साल बाद दोनो अलग हो गए.

1896 मे मुम्बई मे महामारी फैली तो भीखाजी प्लेग के रोगियों की सेवा करते करते स्वयं प्लेग की शिकार हो गईं. निस्वार्थ सेवा भाव को देखकर उनकी तुलना फ्लोरेंस नाइटिंगेल से की जाने लगी. एक बार गम्भीर रूप से बीमार होने पर इलाज के लिए

उन्हे इंग्लैंड जाना पड़ा. अपने लन्दन प्रवास के दौरान दादाभाई नौरोजी से मिलना हुआ और धीरे धीरे राजनीतिक जीवन शुरु हुआ. उसके बाद कई देशभक्त लोगो से मिलना हुआ. देशभक्त श्यामकृष्ण वर्मा की 'इंडियन होम रूल सोसायटी की प्रवक्ता बनी, उनके पत्र 'द इंडियन सोशियोलॉजिस्ट' से जुड़ गई. इतना ही नहीं भारतीय क्रांतिकारियों की मदद के लिए खिलौनों में छिपाकर पिस्तौलें भेजा करतीं. हिन्दू मुस्लिम एकता पर बल देती थी.

अंग्रेज़ी सरकार देश पर जितना अत्याचार करती उतना ही विदेश में रहने वाले क्रांतिकारी देशभक्त अपना आन्दोलन तेज़ कर देते. अलग अलग देशों में भीखाजी कामा की अपील इतनी प्रभावशाली होती कि ब्रिटिश सरकार हिल जाती. इंग्लैंड से फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका, स्विटज़रलैंड आदि देशो के नेताओं से मिलकर भीखाजी कामा ने इंग्लैंड के खिलाफ जनमत तैयार किया. अपने क्रांतिकारी भाषणों के कारण उन्हे लंदन छोड़ कर पेरिस जाना पड़ा जो क्रांतिकारियों का गढ़ था. वहाँ लोग उन्हें 'भारतीय क्रांति की जननी' कहते थे. लाला हरदयाल, वीर सावरकर और वीरेन्द्र चट्टोपाध्याय जैसे क्रांतिकारी उनके साथी थे.

जर्मनी मे समाजवादी सम्मेलन में उन्हें भारत के प्रतिनिधि के रूप मे आमंत्रित किया गया. 18 अगस्त 1907 के इस सम्मेलन में पहली बार वीर सावरकर के साथ मिलकर बनाए गए भारतीय झण्डे को यहाँ फहराया गया. बाद में इसी ध्वज में परिवर्तन करके भारत का राष्ट्रीय झण्डा बनाया गया. भारतीय झण्डा फहराने के बाद प्रभावशाली भाषण देकर पूरे विश्व में अपने देश को आज़ाद कराने का सहयोग माँगा.

वन्दे मातरम नाम के समाचार पत्र में ब्रिटिश सरकार की नीतियों पर जम कर प्रहार करतीं. पहले विश्वयुद्ध के शुरु होने पर भारतीय सैनिकों से युद्ध मे शामिल न होने की अपील की. यह देखते ही फ्रांस सरकार ने उन्हें नज़रबन्द कर दिया. विश्वयुद्ध खत्म होने पर ही उन्हें मुक्त किया गया. लड़ते लड़ते थक गई वीराँगना के गम्भीर रूप से बीमार होने पर भी उन्हें अपने देश लौटने की अनुमति नही दी गई. तिहत्तर वर्ष की होने पर भारत लौटीं और दस महीने की लम्बी बीमारी के बाद मुम्बई मे ही उनके प्राण पंछी

एक नई यात्रा के लिए निकल गए. अपनी अदभुत शक्ति के बल पर ब्रिटिश सरकार

की नींव हिला देने वाली क्रांतिकारी वीरांगना चिरनिद्रा मे सो गई. उनका देश प्रेम, सेवाभाव , त्याग और बलिदान सदा प्रेरणा का स्त्रोत बना रहेगा।



August 11, 2008

ये अच्छी औरते नहीं हैं

ये जो भेड़ की खाल मे छुपे ........ हैं उनसे ही अपनी बेटियों को बचाने का सफर है " नारी " । अफ़सोस है ........ आगे पढे

August 10, 2008

ये अच्छी औरते नहीं हैं

एक ब्लॉग पोस्ट लेखिका जो न्यूज़ पेपर मे लिखती हैं उसका मोबाइल नम्बर खोज कर हिन्दी के एक वरिष्ठ ब्लॉगर ने उसको फ़ोन किया और कहा ...... और ...... इनसे आप दूर ही रहो । ये अच्छी औरते नहीं हैं । कल इस लेखिका ने अपने ब्लॉग पर एक पोस्ट लिखी थी "ब्लाग पर क्या चल रहा है? " । लेखिका तुंरत सचेत हो गयी की उसे किस - किस से दूर रहना हैं । पहला फोन रखा तो एक दूसरा भी आया , फिर एक तीसरा भी आया । तीन फ़ोन दो औरतो के बारे मे "ये अच्छी औरते नहीं हैं " काफी थे लेखिका को बताने के लिये की कौन क्या हैं ? उस ने सोचा मेल बॉक्स भी देख ही लूँ सो एक मेल भी थी उन्ही ब्लॉगर की जिनका फ़ोन आया था सबसे पहले ।
अब लेखिका सोच रही हैं की आगे क्या लिखे ??? !!!!!! या कुछ ना लिखे !!!!

August 09, 2008

कैंसर से लड़ाई के सबक

मैंने एक बार जीवन के अंत को करीब से देखा था, ठीक 10 साल पहले। कैंसर के साथ अपनी पहली लड़ाई के दौरान एक बार मुझे लगा था कि शायद जिंदगी कमजोर पड़ रही है। उन हालात में, जिंदगी की डोर बस किसी तरह हाथ में कस कर पकड़े रहने की जद्दोजहद और जिद ने मुझे जीना सिखा दिया।

मेरे मामले में शुरुआत ही गलत हुई, जैसा कि हिंदुस्तान में कैंसर के मामलों में आम तौर पर होता है। जब बीमारी को लेकर पहली बार अस्पताल पहुंची तो ट्यूमर काफी विकसित अवस्था में था, स्टेजिंग के हिसाब से टी-4बी। लेकिन अच्छी बात यह थी कि बीमारी किसी महत्वपूर्ण अंग तक नहीं पहुंची थी।

इलाज तय हुआ- तीन सीइकिल कीमोथेरेपी ट्यूमर को छोटा करने और उसके आस-पास छितरी कैंसर कोशाओं को समेटने के लिए, उसके बाद सर्जरी और फिर तीन साइकिल कीमोथेरेपी शरीर में कहीं और छुपी बैठी कैंसर कोशिकाओं के पूरी तरह खात्मे के लिए। उसके बाद रेटियोथेरेपी भी- ट्यूमर की जगह पर किसी कैंसर कोशिका की संभावना को भी जला कर खत्म कर देने के लिए। यानी रत्ती भर भी कसर छोड़े बिना धुंआधार हमले हुए ट्यूमर पर। और आखिर उसे हार माननी पड़ी। लेकिन उस इलाज, खास तौर पर कीमोथेरेपी के मारक हमलों ने कमजोर बीमार कोशिकाओं के साथ-साथ नाजुक रक्त कणों को भी उसी तेजी से खत्म करना शुरू कर दिया।

यह समय था जब मुझे खांसी के साधारण संक्रमण से लड़ने के लिए भी सफेद रक्त कणों की पूरी फौज की जरूरत थी और उधर दवाइयों के असर से शरीर में सफेद रक्त कणों की संख्या 6,000 या 8000 के सामान्य स्तर से घटते-घटते चार सौ और उससे भी कम रह गई थी। और मुझे पता था कि कीमोथेरेपी के दौरान ऐसी स्थिति में साधारण खांसी का कीटाणु भी इंसान को आराम से पछाड़ सकता है।

उस समय खुद को किसी नए कीटाणु के हमले से बचाने के लिए खाना-पानी उबाल-पका कर लेने, खाने के पहले साबुन से हाथ धोने और बाद में ब्रश करने, बार-बार गरारे करने जैसे सरल उपायों से लेकर कड़ी एंटीबायोटिक दवाओं और सभी से दूर अकेले कमरे (आइसोलेशन) में 10 दिनों तक रहने और हवा में मौजूद कीटाणुओं को शरीर में जाने से रोकने के लिए नाक पर मास्क बांधे रहने जैसी हर कोशिश की। फिर भी रक्त कणों की संख्या गिरती ही गई। एक समय ऐसा आया जब लगा, मुट्ठी में रेत की तरह जिंदगी तेजी से फिसलती जा रही है और किसी भी समय खत्म हो जाएगी।

तब मुझे याद आए वो अच्छे दिन जो मैंने जिए थे, बिना उनकी अच्छाई का एहसास किए। वो सब लोग जिन्होंने मेरे लिए कुछ अच्छा किया था। यहां तक कि मैंने उन सबकी एक फेहरिस्त बना डाली और तय किया कि अगर जिंदगी बाकी रही तो उनका ऋण मैं किसी तरह उतारने की कोशिश जरूर करूंगी। हालांकि उस कठिन समय से उबरने में कुछ ही दिन लगे, लेकिन वह समय एक युग की तरह बीता। उन तीन-चीर दिनों में लगा कि सिर्फ जिंदा रहना भी एक नेमत है, जिंदगी चाहे जैसी भी हो। सिर्फ जीते रहना भी उतना सहज नहीं, जितना हम सोचते हैं।

उस दौरान मैं देख रही थी अपने स्वस्थ लगते शरीर को मौत के करीब पहुंचते, और नहीं जानती थी कि आगे क्या है। उस दौरान मैंने समझा कि जिंदा रहने का अर्थ सिर्फ जिए जाना नहीं है। हर दिन कीमती है और लौट के आने वाला नहीं है। और यह भी कि कोई दिन, कोई भी पल आखिरी हो सकता है और कल हमेशा नहीं आता।

अब बीते कल को पीछे छोड़ चुकी हूं, लेकिन उसके सबक आज भी मेरे सामने हैं। ठीक होने के बाद कोई औपचारिक संगठन बनाए बिना ही, कैंसर से लड़ कर जीत चुकी कुछ और महिलाओं के साथ या अकेले ही कैंसर जांच और जागरूकता शिविरों में शामिल होती हूं, अस्पतालों के कैंसर ओपीडी में अपने अनुभव और जानकारी वहां इलाज करा रहे मरीजों के साथ बांटती हूं, उनकी जिज्ञासाओं, आशंकाओं, उलझनों को दूर करने की कोशिश करती हूं तो लगता है जीवन सार्थक है। और अपने इन्हीं अनुभवों को ज्यादा-से ज्यादा लोगों से बांटने के मकसद से उन्हें पुस्तक रूप भी दे डाला- ऱाधाकृष्ण प्रकाशन (राजकमल) नई दिल्ली से छपी- ' इंद्रधनुष के पीछे-पीछे : एक कैंसर विजेता की डायरी '।

इलाज के उस 11 महीने लंबे दौर ने मुझे सिखाया कि खुद को पूरी तरह जानना, समझना और अपनी जिम्मेदारी खुद लेना जीने का पहला कदम है। अगर मैं अपने शरीर से परिचित होती, उसमें आ रहे बदलावों को पहले से देख-समझ पाती तो शायद बेहद शुरुआती दौर में ही बीमारी की पहचान हो सकती थी। और तब इलाज इतना लंबा, तकलीफदेह और खर्चीला नहीं होता।

अपने इस सबक को औरों तक पहुंचाने की कोशिश करती हूं। स्तनों को अपने हाथों से और आइने में देख कर खुद जांचने का सरल, मुफ्त लेकिन बेशकीमती तरीका महिलाओं को बताती हूं ताकि उन्हें भी वह सब न झेलना पड़े जो मुझे झेलना पड़ा। अफसोस की बात है कि हिंदुस्तान के अस्पतालों तक पहुंचने वाले कैंसर के चार में से तीन मामलों में बीमारी काफी विकसित अवस्था में होती है जिसका इलाज कठिन और कई बार असफल होता है। किसी बढ़ी हुई अवस्था के कैंसर की जानकारी पाकर हर बार सदमा लगता है कि क्यों नहीं इसकी तरफ पहले ध्यान दिया गया।

अफसोस इसलिए और बढ़ जाता है कि खास तौर पर महिलाएं अपनी तकलीफों को तब तक छुपाए रखती हैं, सहती रहती हैं, जब तक यह उनकी सहनशक्ति की सीमा के बाहर न हो जाए। (और सबसे खतरनाक बात यह है कि आम तौर पर कैंसर में दर्द सबसे आखिरी स्टेज पर ही होता है। यह बिल्ली की तरह दबे पांव आने वाली बीमारी है, और शरीर के किसी वाइटल अंग में पहुंचने के बाद उसके कामकाज में रुकावट डालती है, तब ही इसके होने का एहसास हो पाता है।) शायद यह सोच कर कि अपनी तकलीफों से दूसरों को क्यों परेशान किया जाए। जबकि बात इसके एकदम उलट है। परिवार की धुरी कहलाने वाली महिला अगर बीमार हो तो पूरा परिवार अस्त-व्यस्त हो सतका है। इसलिए ज़ंग लगने के पहले से ही धुरी की सार-संभाल होती रहे तो जीवन आसान हो जाता है।

सभी, खास तौर पर महिलाएं जागरूक होना सीखें, अपने शरीर और सेहत के बारे में और बीमारयों के बारे में, ताकि जहां तक हो सके उन्हें दूर रखा जा सके या शुरुआत में ही पता लगाकर खत्म किया जा सके। जीने के और भी कुछ गुर हैं- शरीर और जिंदगी को थोड़ा और सक्रिय बनाने की कोशिश, कसरत और खान-पान की अच्छी आदतों के अलावा नफा-नुकसान का हिसाब किए बिना कभी-कभी किसी के लिए कुछ अच्छा करने की कोशिश। तभी हम भरपूर जी पाएंगे, सही मायनों में जिंदगी।

कन्फ्यूजन

कुछ दिन पहले नारी ब्लॉग की सदस्य अनीता जी ने एक पोस्ट लिखी थी नारी ब्लॉग के लिये

जिसकी लाठी उसकी भैस

जिसमे उन्होने कुछ प्रश्न पूछे थे । उनमे से पहले तीन प्रश्न नीचे दिये हैं

1) हममें से कितनी नारियां शादी करने के वक्त इस बात को सहर्ष स्वीकार कर लेतीं कि हमारा भावी पति हाउस हस्बैंड बन के रहना चाह्ता है।वो घर अच्छे से संभाल सकता है और आप पढ़ी लिखी कामकाजी महिला हैं, क्या हम ऐसी व्यवस्था से खुश होतीं। अगर स्त्री पुरुष समानता है, अगर दोनों को ह्क्क है कि वो बाहर जा कर कमाएं तो क्या दोनों को ये हक्क नहीं कि दोनों में से जो चाहे घरेलू ग्रहस्थ बन कर जीवन जी ले और दूसरा उसको स्पोर्ट कर ले।

2) हममें से कितनी नारियां अपनी किसी सहेली को और उसके पति को पूर्ण आदर दे सकती अगर वो ऊपर लिखे सिस्टम का हिस्सा होती।

3) आज हर नारी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के लिए नौकरी करना चाह्ती है, उसके लिए जी तोड़ मेहनत भी करती है।आर्थिक आत्मनिर्भरता होनी भी चाहिए। लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं हो रहा कि कुछ पाने के चक्कर में हम कुछ खो भी रहे हैं।क्या आज नारी कल से ज्यादा आजाद है? शादी के बाजार में आज ऐसी लड़की की क्या कीमत है जो पैसा नहीं कमाती, अगर वो पढ़ लिख कर भी काम न करना चाहे तो क्या वो ऐसा करने के लिए स्वतंत्र है?

अनीता जी ने सोचा होगा की कुछ सकारातमक जवाब महिला देगी , हो सकता हैं तीखे हो पर लेकिन किसी भी महिला ने प्रश्नों का सीधा उत्तर नहीं दिया , हाँ ये कहा आप ठीक हैं , आपके प्रश्न ठीक हैं , समय बदल रहा हैं इत्यादि पर बुनयादी बात पर सब छुप थे के महिला अपने से कम पढे लिखे , या कम आय वाले से विवाह क्यों नहीं करती या अपने से नीचे पोस्ट पर काम करने वाले से क्यों विवाह नहीं कर पाती ।

अनीता जी की पोस्ट पढ़ कर महसूस हुआ जैसे अनीता जी मानती हैं ये सब होना चाहिये और ये सब औरतो को स्वीकार करना चाहिये { उस पोस्ट मे और भी बहुत से पक्ष हैं पर इस समय केवल यही पक्ष ले रही हूँ } ।

कल मीनाक्षी की पोस्ट आयी

समाज में हलचल स्वाभाविक

मीनाक्षी ने अपनी पोस्ट लिखी थी उस न्यूज़ के ऊपर जिसमे ऐयरफोर्स की एक महिला ऑफीसर ने अपने से जूनियर रैंक के ऑफीसर से शादी करनी चाही तो एयरफोर्स के हैड क्वार्टर में हलचल मच गई..... के बारे मे बताया गया था ।

एयरफोर्स मे प्रोटोकॉल के हिसाब से कोई भी महिला अधिकारी अगर अपनी जूनियर से शादी करती हैं और उसको ले कर मेस मे आती हैं तो बाकी जो पुरूष हैं वो uncomfortable महसूस करेगे "In an organisation where social interaction between an officer and a subordinate rank, as equals, is taboo, it is indeed an uncomfortable situation for the male-dominated services . "

इस पोस्ट पर अनीता जी नए इस बात को बिल्कुल सही माना और उन्होने दो कमेन्ट दिए

anitakumar said...
मुझे तो ये मुद्दा नर या नारी का नहीं लगता। सवाल प्रोटोकोल का ही है। अगर उस नारी को अपने से जूनियर नर से शादी करने में कोई आपत्ती नहीं तो ये उसका अपना मामला है वो कर सकती है लेकिन ये भी सही है कि आर्मी के रूलस के अनुसार वो व्यक्ति ओफ़िसर्स मैस में नही आ पायेगा। आखिरकार दूसरे ओफ़िसर्स ऐसी परिस्थती क्युं बर्दाश करेगें और अगर वो नारी कहती है कि मै अपने पति के साथ उस मैस में चली जाती हूँ जहां उसे जाने का अधिकार है तो उसके साथी क्या अपनी सीनियर के साथ वहां सहज हो पायेगे क्या। आर्मी से बाहर का परिवेश होता तो बात अलग थी।इसे मैं इसी तरह से देख रही हूँ अगर एक प्रध्यापिका अपने कॉलेज के पियुन से शादी कर ले तो वो दोनों कॉलेज में कहां बैठ कर खाना खायेगें, क्या वो बाकी सब टीचर्स के साथ बैठ सकते हैं, ये दूसरे टीचर्स नहीं चाहेगे और क्या वो टीचर पियुन्स के साथ बैठ कर खा सकती है, ये पियुन्स नहीं पसंद करेगें। किसी भी नर या नारी को अपनी पसंद दूसरों पर थोपने का अधिकार नहीं हो सकता न्।

और दूसरा कमेन्ट था

anitakumar said...
हमारे समाज में आज भी स्टेट्स डिस्टेंस है इससे तो इंकार नही किया जा सकता, कितने लोग अपने नौकर को अपने साथ एक ही टेबल पर बैठा कर खाना खाने की इजाजत दे सकते हैं। तो मामला नर या नारी का नहीं है।
August 8, 2008 6:28 PM



अपनी पोस्ट मे पूछे गए प्रश्नों का उत्तर अनीता जी ने ख़ुद ही दे दिया । बस यही कारण हैं की कोई महिला अपने से नीचे स्तर पर काम कर रहे पुरूष से विवाह नहीं करती क्योकि समाज मे उसको स्वीकृती नहीं मिलती और जो करना भी चाहती हैं जैसे ऐयरफोर्स की एक महिला ऑफीसर उनको बहुत समस्या आती हैं ।



हमारे समाज ने ये जो "प्रोटोकोल" बना रखे हैं इस नारी ब्लॉग पर हम उन्ही "प्रोटोकोल" को तोड़ने की ही बात करते हैं । जिस बात को प्रश्न कर के अनीता जी जानना चाहती हैं उस बात को वो ख़ुद ही ग़लत मानती हैं वरना "अगर एक प्रध्यापिका अपने कॉलेज के पियुन से शादी कर " का उदहारण ना देती । वो ख़ुद प्रध्यापिका हैं सो अपनी परिवेश मे उनकी सोच ने उनके अवचेतन मन से वो लिखवाया जो उनको सही लगता हैं ।

प्रश्न करने वाली अनीता "प्रोटोकोल" तोड़ने की बात करती हैं तो उत्तर देने वाली अनीता "प्रोटोकोल" को मानने की बात करती हैं ।

24 घंटे = 48 घंटे

आंखों से चिपकी नींद को दुलारकर, गुहारकर, पुचकारकर, मनुहारकर और फिर हारकर, गुस्साकर वो उठती है। बच्चे को स्कूल भेजना था, नींद को क्यों न कर फटकारती। फिर चकरघिन्नी के चक्कर शुरू हो जाते हैं। सुबह कब चाय की दो प्यालियों और दिन की तैयारी में गुजर जाती है, पता नहीं चलता। दोपहर में सोचने की फुर्सत नहीं होती, ऑफिस के अंधेरे को तोड़ती पॉवरफुल लाइट्स में दोपहर ढूंढ़े नहीं मिलती। शाम सुहानी लगती है, वो लपककर भागती है, पर्स उठाती है, बच्चा इंतज़ार कर रहा होगा। इस वक़्त मेट्रो ट्रेन की स्पीड भी उससे प्रतियोगिता नहीं कर सकती। रात का ख्याल लुभाता है। मन को ललचाता है। धीमी आंचपर कड़ाही में सब्जी को खूब भुनती-पकाती वो टीवी की आवाज़ सुनकर हंसती, टीवी पर आ रहे किरदारों को कल्पना में बुनती, दूसरे चूल्हे पर रोटियां सेंकती, दिन भर की भागमभाग में वो अपने लिए दो पल जुटाने की कल्पना नहीं करती, बस इस फिराक में रहती कि घड़ी की सुईयां झूठ बोल दें, अरे अभी तो ग्यारह नहीं दस ही बजे हैं, वाह मजा आ गया, एक घंटा अभी बाकी है, पर अक्सर घड़ी की सुईयां इस ख़ुशफहमी से एक घंटा आगे होती। वो सबको सुलाती, सो जाती है। कल जल्दी जागना है। वो मां है, पत्नी है, बहू है, सबसे आखिर में वो खुद भी तो है, उसे ये पसंद भी है।

August 08, 2008

ब्लॉग पर क्या हो रहा है



ब्लाग पर क्या चल रहा है, मर्द औरत के बारे में किस प्रकार से मौका मिलते ही कुछ भी लिख डालते हैं, औरतें उस पर कैसे रियेक्ट करती हैं,यह मानती हूं कि किसी का किसी को अपमानित करने का कोई इरादा नहीं होता है लेकिन एक बहस सी छिड़ जाती है जिस में कुछ अच्छी और कुछ तीखी बातें हो जाती हैं। मैंने सोचा इसे इस अपने पाठकों को भी बतायूं कि यह सब कैसा होता है। सो मैने रिमिक्स पर लिख दिया, आप भी पढ़े! रिमिक्स हिंदुस्तान का फीचर पेज है।

अपने ब्लॉग पर इसको पोस्ट किया अब यहाँ कर रही हूँ उन कमेंट्स के साथ जो उस ब्लॉग पर आए है

रचना said...
aap nae apni kalam ki dhaar ko news paper mae bhi diya badhiya laaga . par chitr ??
August 7, 2008 9:27 PM
शैलेश भारतवासी said...
बहुत बढ़िया
August 8, 2008 1:29 AM
ilesh said...
मनविंदर.....ब्लॉग यह हे की यहाँ लोग अपने विचारो को प्रस्तुत करे ,अपने अन्दर उमड़ रहे भावो को दुनिया के सामने रखे,जो हलचल दिल में हे,मन में हे उसे बहार आने का रास्ता ब्लॉग ने दिया..चूँकि ज्यादातर औरत ने आजतक सहा हे,उसको ये प्लेटफोर्म मिल से अपने विचारो को प्रस्तुत करने का माध्यम मिल गया,उसके अन्दर का आक्रोश बहार आने लगा जो अबतक सुशुप्त पड़ा था,हम जानते हे की पुरूष प्रधान संस्कृति की वजह से कभी कभी पुरूष को स्त्री के विचार से धक्का लगता हे,और बहस सुरु हो जाती हे,आज स्त्री इतनी आजाद हे की वो अपने किसी भी विचार को बे जिजक दुनिया के सामने रख सकती हे,कभी कभी लगता हे की वैचारिक आज़ादी बहस के रूप में हमें दो छोर में तो नही बाँट रही हे? और ये भी हे की हम हमारे विचारो को प्रस्तुत किए बिना भी तो नही रह सकते......मगर हा एक दुसरे के विचारो को positive थिंकिंग से सोचा जाएगा तो सायद ऐसी बहस से अच्छा नतीजा हम पा सकेगे.जितने भी मसले सामने आते हे उनमे एक ही बात कॉमन हे हमें सामने वाले इंसान के विचारो को समजना नही हे.......और फ़िर एक और बहस........God bless us.......
August 8, 2008 1:33 AM
मीनाक्षी said...
रचनाजी, चित्र को देखकर प्रश्नचिन्ह लगाना स्वाभाविक है...लेकिन तस्वीर मनविन्दरजी की सोच नही हो सकती इतना यकीन है बाकि आप खुद समझ ले कि हमारे आसपास का सिस्टम कैसा है.
August 8, 2008 2:50 AM
Manvinder said...
minakshee ji..aapne sahi kaha hai...chittr aaj ke systam ka ek hissa hai....sahi baat ko sunder dang se batane ke liye ssaadhuwaadmene es post mai blog per ek soch ko batane ka peryaas kiya hai
August 8, 2008 3:06 AM

नारी सशक्तिकरण

अभी संगीता मनराल का लेख पढ़ा नारी सशक्तिकरण का अर्थ पहले समझना होगा ----आर्थिक आजादी पहली सीढ़ी है --नारी का शिक्षित होना और भी जरुरी है तब ही सही मायने में सशक्त बना जा सकता है अन्य अनपढ़ स्त्रियों की मदद भी की जा सकती है---रूढियां तोड़नी होगीं सडी गली परम्पराएँ भी छोड़नी होगीं ---रास्ता भी नजर आएगा और मंजिल भी

प्रश्न : -- नारी सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट {woman empowerment } का क्या मतलब हैं ??

"नारी सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट " क्या "फेमिनिस्म" हैं या उससे फरक हैं ?

नारी सशक्तिकरण --- थोड़ा अल्पविराम !!

समाज में हलचल स्वाभाविक

समाज में जब भी किसी ने लीक से हट कर चलना चाहा तो ऐसे में हलचल होना स्वाभाविक है... समाज को लगता है जैसे कोई पानी के बहाव के विपरीत बहने की कोशिश कर रहा हो जो किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता.
ऐयरफोर्स की एक महिला ऑफीसर ने अपने से जूनियर रैंक के ऑफीसर से शादी करनी चाही तो एयरफोर्स के हैड क्वार्टर में हलचल मच गई.....
हमने यह खबर 'गल्फ न्यूज़' में पढ़ी थी लेकिन 'ज़ी न्यूज़' पर भी यह खबर पढ़ने को मिली जो इस प्रकार है ---

The controversy sparked in the Indian Air Force (IAF) after a woman officer expressed a desire to marry a junior non-commissioned officer took another twist with the Air Headquarters making it clear Tuesday that protocols would remain in place as far as social interaction among the ranks is concerned.

"There will always be a protocol issue when two ranks are involved. We have completed a survey among women officers in this regard, and we need to look into the issue," Air Officer-in-charge Personnel Air Marshal Sumit Mukerji said Tuesday.

The IAF was in a bit of turbulence after a woman Flight Lieutenant expressed a desire to marry a Sergeant, a non-commissioned officer. The strict hierarchy in the IAF made it a difficult conundrum to resolve, with protocols in place regarding the social interaction, such as in the officers' mess and other social events.

In an organisation where social interaction between an officer and a subordinate rank, as equals, is taboo, it is indeed an uncomfortable situation for the male-dominated services.

"We understand that a Sergeant cannot come to the Officers Mess as per protocol. If he resigns or is retired, the person can come as the spouse of the officer," Mukerji added.

Following the controversy, the Air Headquarters conducted a survey among its women officers in each air force station across the country to find out whether such a marriage should be allowed. And, if yes, what could its "consequences" be.

"The survey has been completed but I cannot comment on the responses," Mukerji said.

The IAF currently has 784 women officers who work in all branches, barring the fighter stream.

August 07, 2008

दो बेटियाँ प्लस तीन अबोर्शन .......

मै अपनी डाक्टर दोस्त के पास बैठी थी, तभी एक औरत अपनी बहू रोहणी के साथ आई, बोली, ये पेट से हैं, हम दूसरा बच्चा नहीं चाहते हैं, इसका बच्चा गिराना है। डाक्टर ने मरीजा की सास को बाहर बैठने कहा और रोहणी को बैठने को कहा और खुद पहले से लेटी मरीज को चैक अप करने लगी। मेरे से रहा न गया, मैंने रोहणी से पूछा, कितने बच्चे हैं पहले, उसने बताया दो बेटियां हैं। मैंने कहा, तो क्यों ये सब कर रही हो? परिवार को नियोजित करो, क्यों सेहत खराब कर रही हो। तब तक डाक्टर मरीज को देख कर आ बैठी। उसने रोहणी का चैकअप किया और इसी दौरान उससे पूछा, कितनी बार गर्भपात करा चुकी हो, उसने बताया तीन बार। डाक्टर से ज्यादा मैं हैरान हुई। दो बेटियां प्लस तीन गर्भपात, इस औरत में बचा ही क्या होगा। तीन गर्भपात भी बेटे की चाह में , वो भी परिवार की मर्जी के लिये । मुझे लगा कि यह तो बहुत गलत है।सच तो यह हम आज भी बेटी भू्रण हत्या के लिये बात कर रहे हैं। हम इस पर चिंता नहीं कर रहे हैं कि उसकी सेहत इस बीच कितनी खराब हो रही है। बार बार गर्भ गिरने या गिरा देने से औरत में बहुत कुछ बदल जाता है। उसमें तीन बच्चों की डिलवरी के बराबर कमजोरी आ जाती है। उसमें हारमोंस संतुलन गढ़गढ़ हो जाता है जो उसकी भावनाअों में हलचल पैदा करता है। कई बार तो दूसरों के कहने पर कराया गया गर्भपात मन को ग्लानि से भर देता हैं। वह अवसाद में पहुंच जाती है। समाज में औरत के स्वास्थ्य के साथ इतना बड़ा खिलवाड़ हो रहा है और कोई उस पर मुंह खोलने को तैयार नहीं है, आखिर क्यों?क्यों हम केवल इस बात पर जोर दे रहे हैं कि कन्य भू्रण हत्या बंद हो, क्यों हम यह नहीं कह रहे हैं कि गर्भपात पर भी चैक लगे। ठीक है, गर्भपात अब कानून के घेरे से निकल चुका है लेकिन समाज की आधी आबादी के स्वास्थ्य के लिये चिंता क्यों नहीं पैदा हो रही है? बेवजह गर्भपात क्यों?उसमें औरतें भी कम कसूरवार नहीं हैं, वे भी अपनी सेहत से समझौता करने को उतावली रहती हैं। भरे पूरे परिवार में रसोई में सब कुछ बनेगा, लेकिन वो कहेगी, सब कुछ बच्चे खाएं, पति खाएं, उसका क्या है, वह तो कुछ भी खा लेगी। अभी भी कई घरों में महिलाएं दूध नहीं पीती हैं, अपने हिस्से का दूध या तो पति को दे देंगी या बेटे को, बेटी को नहीं , अखिर क्योंक्यों उसे घर में हैल्दी भोजन खाने के लिये जोर नहीं दिया जाता है?

August 06, 2008

सुषमा के पति ने उसका दाह संस्कार नहीं किया क्योंकि उसके पति को दोबारा शादी करनी थी ।

दाह संस्कार के लिये सब जमा हो गए थे लेकिन घर के लोगो मे किसी गहन मुद्दे पर मशविरा चल रहा था । कुछ देर बाद हम लोगो ने देखा की सुषमा के माता पिता बाहर निकले गाड़ी मे बैठ कर चले गए । किसी को कुछ भी समझ नहीं आया ।

आगे यहाँ पढे

August 05, 2008

नारी अविवाहित ३० के ऊपर और सुखी ?? हो ही नहीं सकता

आईये आप को मिलवाए कुछ अविवाहित महिलाओ से जो तीस के ऊपर हैं { अब सुखी - दुखी , खुश , ना खुश की परिभाषा तो सब के लिये अलग अलग होती हैं } और अपने आप मे पूर्ण हैं ।
मदर टेरेसा
लता मंगेशकर
पीनाज़ मसानी
बरखा दत्त
सोनल मान सिंह

ये कुछ नाम हैं खोजेगे तो बहुत लम्बी लिस्ट बन सकती हैं लेकिन एक बात बता दूँ की कही भी आप अगर खोजते हैं " achievers list " तो शादी critereia नहीं होता हैं . किसी भी बायोडाटा को आप शादी के आधार या अविवाहित के आधार पर नहीं खोज सकते । सब permutations combinations डाल लिये गूगल सर्च मे , पर शादी / अविवाहित महिला से कुछ भी पता नहीं चला !!!!!!!
शादी किसी भी तरीके से कोई माप दंड नहीं हैं समाज मे अपना स्थान बनाने के लिये । शादी करना या ना करना अपना व्यकिगत निर्णय होना चाहिये । इसे सामाजिक व्यवस्था का निर्णय मान कर जो लोग अविवाहित महिला को " असामाजिक तत्व " , "अल्फा वूमन ", "प्रगतिशील नारी !!!" , "फेमिनिस्ट " , "दूसरी औरत " , "होम ब्रेकर " , "वो " , इत्यादि नामो से नवाजते हैं उनको जरुर एक बार इन सब के चरित्र को पढ़ना चाहीये ।
हां ये सही हैं की पारंपरिक रूप से भारत मे नारी को केवल माँ - बहिन - बाटी और पत्नी के रूप मे देखा जाता हैं और सम्मान दिया जाता हैं समाज मे लेकिन क्या इसका मतलब ये हैं की जो महिला गैर पारंपरिक रूप मे नहीं हैं वो ग़लत हैं ?? बहुत सी विवाहित महिला हैं जो "वूमन अचीवर " मानी जाती हैं और जो निरंतर अपने को आगे लाने के लिये संघर्ष करती हैं घर मे भी बाहर भी लेकिन "सुपर वूमन " बनकर क्योकि वो आर्थिक रूप से सशक्त रहने के महत्व को जानती हैं । लेकिन ना जाने कितनी महिला ऐसी भी हैं जिनको अपना करियर दाव पर लग्न पड़ता हैं क्योकि समाज को "उनके विवाह " की फ़िक्र हैं । माता पिता का कर्तव्य हैं की बच्चो को शिक्षित करे , आत्म निर्भर बनाए , और उसके बाद अपने जीवन के निर्णय ख़ुद लेने दे ।
ये कहना की "मैं सब कर सकती हूँ, मुझमें पूरी काबिलियत है" का अहं कई बार उसे अपने ही सुख से वंचित रखता है।" नितांत गलत हैं क्योकि सबके सुख अलग अलग होते हैं , सुख को अगर परिभाषित करे तो " कोई भी इंसान जब अपनी मन की करता हैं / कर पाता हैं शायद तभी वह सबसे सुखद स्थिती मे अपने को देख पाता हैं । "
कही भी अगर शादी की बात पर बहस होती हैं तो शादी की जरुरत के कई कारण बताये जाते हैं कई आवाजे हैं जैसे नयी सृष्टि की रचना , भावनात्मक सुरक्षा , सामाजिक व्यवस्था , औरत माँ बन कर ही पूरी होती हैं , नारी पुरूष एक दूसरे के पूरक हैं , समाज मे अराजकता रोकने मे सहायक । ये सब आवाजे शादी को महज एक जरुरत का दर्जा देती हैं क्यों कभी भी कहीं भी कोई आवाज ये कहती नहीं सुनाई देती की " हमने शादी अपनी खुशी के लिये की हैं " ।
इसलिये ये प्रश्न ही बड़ा बेमानी हैं यदि कोई किसी ऐसी महिला को जानता हो जो ४० पार कर चुकी हो लेकिन फिर भी शादी न की हो तो कृपया उनसे पूछकर बताये कि क्या वे वाकई में खुश हैं?
ख़ुद अविवाहित हूँ और साथ की अपनी हम उम्र विवाहित ब्लॉगर महिलो से जब बात करती हूँ तो पता चलता हैं की वो सब अपने बच्चो की शादी करने वाली हैं , उनके लेखो पर जो कैमेंट आते हैं उन मे कही भी उनके वस्त्रो पर , उन के रहन सहन पर व्यक्तिगत टिका टिपण्णी नहीं होती पर मेरे बारे मे जिस प्रकार से टिपण्णी की जाती हैं उस से बिल्कुल पता चलता हैं की मुझे एक "असामाजिक तत्व " समझा जाता हैं । लेकिन ये महज टिपण्णी करने वाले की मानसकिता को दिखाता हैं उनके अंदर बसे पूर्वाग्रह को दिखाता हैं ।

आप शादी करके सुखी हैं या दुखी हैं ?? नहीं जानना जरुरी हैं लेकिन अगर शादी इतनी जरुरी हैं तो आपने शादी क्यों की ?? इस को जानने की इच्छा जरुर हैं अपने हम उम्र ब्लॉगर दोस्तों से । क्या लिख सकते हैं चन्द शब्दों मे की आप के क्या क्या कारण थे शादी करने के या केवल समाजिक व्यवस्था के चलते ही सब शादी करते ।

August 04, 2008

इसे क्या हादसा कहेगे ??

वर्ष १९९४
मेरी अन्तरंग मित्र रीटा की जेठानी सुषमा अस्पताल मे भरती थी दूसरे प्रसव के लिये । पहले उसके एक लड़का था , दूसरे प्रसव मे सब ठीक नहीं रहा और दुर्भाग्य से सुषमा एक लड़के को जनम देकर मृत्यु को प्राप्त हो गयी । केवल ३४ वर्ष की थी सुषमा और एक कामकाजी महिला भी थी । प्रेम विवाह हुआ था उसका , ख़ुद वह दक्षिणी प्रान्त से थी , शादी पंजाबी मे हुई थी ।

दाह संस्कार के लिये सब जमा हो गए थे लेकिन घर के लोगो मे किसी गहन मुद्दे पर मशविरा चल रहा था । कुछ देर बाद हम लोगो ने देखा की सुषमा के माता पिता बाहर निकले गाड़ी मे बैठ कर चले गए । किसी को कुछ भी समझ नहीं आया । फिर रीटा का पति यानी सुषमा का देवर , सुषमा के बडे ३ साल के बेटे को लेकर बाहर आया और सुषमा के ससुर ने कहा की संस्कार रीटा का पति करेगा , बेटे से हाथ लगवा दिया जायेगा ।

सबको बहुत आश्चर्य हुआ की सुषमा के पति को क्या हुआ हैं , वह बाहर क्यों नहीं आ रहा हैं और क्यूँ संस्कार अपनी पत्नी का वो नहीं कर रहा हैं ? पूछने पर पता चला की अभी सुषमा के पति की आयु केवल ३७ वर्ष की हैं और दो बच्चे है छोटे छोटे सो पंजाबी रीति रिवाज के अनुसार अगर वो अपनी मृत पत्नी के शरीर को हाथ लगाएगा या उसका संस्कार करेगा तो ९ { नों } महीने तक वो दुबारा शादी नहीं कर सकता इस लिये संस्कार देवर से करा देते हैं , अब अपना लड़का तो हाथ लगा ही रहा हैं पति करे या ना करे संस्कार क्या फरक पड़ता हैं ।

और सच मे किसी को कोई फरक नहीं पडा , पति ने ३ महीने के अन्दर दूसरा विवाह कर लिया , बच्चो का माँ चाहिये थी । बस एक फरक पडा सुषमा के माता पिता ना तो संस्कार मे आए और ना उन्होने कोई सम्बन्ध रखा लेकिन इस के अलावा कोई फरक नहीं पडा किसी को भी ।

क्या एक विधवा को भी ये आज़ादी दी जा सकती हैं की उसको अपनी मांग का सिंदूर ना पोछना पडे , उसकी चूडियों को ना उतारा जाए , उसको एक दिन को भी सफ़ेद लिबास न पहना पडे क्योकि उसको दुबारा विवाह करना हैं ।

और कहां जाता हैं वो प्रेम जिसकी इतनी दुहाई दी जाती हैं शादी मे , और कहां जाता हैं वो एक दूसरे का पूरक होना । कहां हैं वोह भावनात्मक लगाव जिस की दुहाई शादी का गुन गान करने वाले देते हैं । दैहिक जरुरतो की पूर्ति मात्र लगती हैं कभी कभी ये शादी पर इस सच को कितने स्वीकारते हैं ??

अपने लिये भी न जिये तो क्या जिये?

अपने लिये जिये तो क्या जिये? और यदि अपने लिये भी न जिये तो क्या जिये? अपने लिये जीना बहुत मुश्किल भी होता है। नंदिता अच्छी-खासी, पढ़ी-लिखी, अप-टू-डेट है, वो नौकरी करती थी, वो बेहतरीन ड्राइवर थी, किसी के साथ कुछ गलत हुआ तो वो उसके लिए लड़ सकती थी, लेकिन अचानक तेज़ तर्रार नंदिता बदल गई। ज़िंदगी की दूसरी पारी यानी शादी के साथ ही वो तेज़-तर्रार लड़की से घर के झंझटों से जुड़ी औरत में तब्दील हो गई। नौकरी छूटी, आत्मविश्वास टूटा, पति ही ज़िंदगी बन गया, पति का इंतज़ार ही उसकी 24x7 ड्यूटी हो गई। फिर बहू-सास-ससुर-ननद-देवर गाथा शुरू हो गई। कुछ ऐसा हुआ जैसे कि सरपट भागती मेट्रो ट्रेन अचानक मुड़ी और मालगाड़ी में तब्दील हो गई। और ये सिर्फ नंदिता के साथ नहीं होता। अब उसके पास अपने खातिर जीने के लिए कुछ भी नहीं। मतलब ये नहीं कि शादी के बाद ज़िंदगी में परिवर्तन ऐसे ही होता है। इसका मतलब ये भी नहीं कि नंदिता पर चारों तरफ से दबाव पड़ा और वो बेचारी बन गई। दरअसल दिक्कत नंदिता के साथ ही थी। उसने अपने लिए जीना छोड़ दिया, दूसरों के लिए जीना शुरू कर दिया। सुबह उठने से रात सोने तक का वक़्त कोई और तय करने लगा, उसने ऐसा करने दिया। धीरे-धीरे उसने अपनी पहचान खत्म होने दी। इसका मतलब ये भी नहीं कि नंदिता नौकरी कर रही होती तो बेहतर स्थिति में थी। दरअसल सारा मतलब सोच से है। सोच बदल गई। ज़िंदगी का नज़रिया बदल गया। हमारी माओं-दादियों-बुआओं-दीदीयों के किस्सों से चली आ रही ग़ुलाम मानसिकता कहीं न कहीं दिमाग़ की किसी कोशिका में छिप जाती है। नंदिता मान बैठी कि ऐसा ही होता है। अपनी ख़्वाहिशों के लिए जिद करना उसने छोड़ दिया। अपना नज़रिया उसने छोड़ दिया। आशंकाएं और डर बाकी दूसरी चीजों पर हावी होने लगे। उसके फैसले कमज़ोर होने लगे। उसकी सोच कमज़ोर होने लगी। नंदिता जो बेहतरीन ड्राइवर मानी जाती थी अब ड्राइव करने से भी कतराती है। उसे डर लगने लगा है। वो अपने लिए जीना छोड़ चुकी है।
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