हमारे देश में चाहे आज राष्ट्रपति के गरिमामयी पद एक महिला विराजमान हैं। भले ही ऐसा कोई क्षेत्र नहीं बचा जिसमे औरतों ने अपने आप को साबित न किया हो। आये दिन ऐसे इकोनोमिक सर्वे हमारे सामने होते हैं जो इस बात का सबूत हैं की आधी आबादी की भागीदारी घर-परिवार की सार-संभाल में तो है ही देश की जीडीपी की दर में भी इजाफा कर रही है।
ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का किसी देश की सरकार को इस बात के लिए फटकार लगाना अफसोसजनक नहीं तो और क्या है की जनगणना में देश की गृहणियों को वेश्याओं, भिखारियों और कैदियों की कैटेगिरी में रखा गया। इतना ही नहीं उन्हें पूरी तरह से नॉन-प्रोडक्टिव वर्कर भी बताया गया। घरेलू महिलाओं की तुलना ऐसे वर्ग से करने पर जब कोर्ट को ऐतराज है तो सोचने की बात यह की देश की आधी आबादी यानि की उन महिलाओं के मन को कितनी ठेस पहुचेगी जो घर और बाहर की दोहरी जिम्मेदारी उठाकर भी अपने कदम आगे बढ़ा रही है।
यह सचमुच हैरान कर देने वाली है कि गाँव हो या शहर सबसे पहले बिस्तर छोड़ने और सबके बाद अपने आराम की सोचने वाली गृहणियों को जब सरकारी आंकड़े ही नॉन-प्रोडक्टिव करार देंगें तो फिर आम इन्सान कि सोच को अंदाजा तो हम सभी लगा सकते है। इस देश में सिर्फ गृहणियां ही हैं जो ३६५ दिन काम करती हैं। उनके लिए कोई सन्डे कोई होलीडे नहीं होता। हकीक़त तो यह है कि गृहणियां हमारा वो सपोर्ट सिस्टम हैं जिनके बिना परिवार के किसी भी सदस्य की जिंदगी पटरी पर नहीं रह सकती। रही बात उनके आर्थिक भागीदारी की तो साल भर चौबीसों घंटे खुद को परिवार के प्रति समर्पित रखने वाले इन्सान का काम मेरे हिसाब से तो अनमोल ही कहा जायेगा ।
२००७ में अमेरिका में हुए एक सर्वे में वहां की गृहणियों के काम की सालाना कीमत ५७ लाख रुपये आंकी गयी थी। ऐसे में आप खुद ही सोचें की हमारे देश में जहां घरेलू काम ज्यादा और सुविधाएं विकसित देशों की तुलना में कम कम हैं गृहणियों के काम का मोल कितना होगा। अगर बात सिर्फ मॉनिटरी वैल्यू की जाए तो २००१ में एक मुकदमे का फैसला सुनते हुए दिल्ली हाईकोर्ट के जज आर एस सोंधी कह चुके हैं की समाज में किसी भी महिला का योगदान ३००० रुपये मासिक से काम नहीं आँका जा सकता। उन्होंने यह भी कहा था की गृहणियों के योगदान को किसी भी तरह से कम नहीं आँका जाना चाहिए। हाँ , हम सबके लिए यह जानना भी जरूरी है की हमारे देश में घरेलू महिलाओं की सेविंग समूची बचत का २४ फीसदी है जो की दुनिया भर में सबसे ज्यादा है। हाल ही में आयी मंदी की आंधी में भारतीय अर्थव्यवस्था पश्चिमी देशों की तरह नहीं लङखङाई उसकी एक वजह यह बचत भी थी। हकीक़त तो यह है की गृहणियां उस पृष्ठभूमि की तरह हैं जो खुद भले ही पीछे चुप जाती हैं पर उनके बिना पूरे समाज की तस्वीर उभर कर सामने नहीं आ सकती.
एकदम सटीक और तीखा प्रहार किया आपने…
ReplyDeleteबहुत सार्थक लेख....आपकी आवाज़ के साथ सब स्त्रियों की आवाज़ शामिल होनी चाहिए.....आज पढ़े लिखे लोगों का मानसिक स्तर इतना गिर चुका है....यह सब पढ़ कर , जान कर शर्मिंदगी का एहसास होता है....
ReplyDeleteमोनिका जी समस्या ये है की चाहे सरकार हो या कोई अन्य क्षेत्र सभी जगह हमारे इसी समज के लोग ही विराजमान है जिनके लिए नारी का दर्जा दोयम है और जिसे बौद्धिक रूप से कमजोर जीव माना जाता है | वो पूरी पारिवारिक और सामाजिक व्यवस्था की रीढ़ है पर उसको परिवार और समाज में कोई महत्व नहीं दिया जाता | जब ऐसे लोग सरकार में या निति निर्माण के लिए बैठेंगे तो भला वो नारी को क्या महत्व देंगे | जनगणना में गृहणियो की श्रेणी देख कर यह साबित भी ही जाता है | पोस्ट अच्छी लगी जानकारी देने के लिए धन्यवाद |
ReplyDeleteExactly my thoughts. But more than that where were we the social scientists and activists when census categories were being drawn. This is what happens when bureaucracy takes over, a clueless IAS presides over the committees and commisions and his team is composed of equally clueless and sexist babus.
ReplyDeleteYour feature missed out on emotional labor and status production work women do. A man could not go to work well dressed if his wife did not make sure his clothes were laundered and ironed and he was well fed. More so he would'nt function efficiently if she didn't act as shock absorber for his professional frustrations. Home makers also act as ego sustainers and boosters. At the same time many children would just flunk school if their mothers did not help them with home work and saved the cost of tuitions.
Yet, another situation comes to my mind is all those women who chose to quit their well paying jobs to raise their children and be there for the next generation of the nation. These productive citizens became non-productive just by default.
PS: Life of prostitues is a hard one it takes lots of hard work to beget a client and then risk one's health. So is the case of beggers. It is not something they do out of choice it is the failure of society to give them options. Convicts/prisoners are definitely a syphon to tax payer.
Peace,
Desi Girl
मेरे हिसाब से तो मैं जो भी कुछ कमा कर लाता हूँ उस का आधा हिस्सा मेरी पत्नी का है यानि कि अगर मैं १०००० रुपये कमाता हूँ तो ५००० मेरी पत्नी कि कमाई है. मैं ऐसा इसलिए समझता हूँ क्योंकि अगर वो घर ना सम्हाले तो मैं बाहर कैसे जा पाउँगा. अतः मेरी समझ से तो जिन परिवारों में पत्नी घर सम्हालती है वहां जो कुछ भी पारिवारिक आय है उसका आधा हिस्सा पत्नी कि कमाई माना जाना चाहिए. और एक गृहणी को किस आधार पर एक नॉन प्रोडक्टिव वर्कर माना गया है मुझे समझ नहीं आया. हो सकता है ज्यादा पढ़े लिखे लोगों कि समझ से यह सही हो.
ReplyDeleteघरेलू महिलाओं की इस तरह की तस्वीर का सामने आना वाकई निंदनीय है. घर की महिला घर ही नहीं बाहर को भी संवारती है.
ReplyDeleteआपने मुद्दा बहुत सही उठाया है इसमें महिलाओं को भी पहल करनी होगी.
हमने भी एक सर्वे के दौरान महसूस किया था कि घरेलू महिला भी घर में किये जा रहे अपने काम को काम नहीं मानती है. उससे पूछा तो जवाब मिलता था कि कुछ काम नहीं करते हैं.
बहरहाल.............महिलाओं के मुद्दे पर सरकार से अपेक्षा नहीं करनी चाहिए. वो तो नारा देने और अनुदान देने में माहिर है.
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
बहुत सही मुद्दा उठाया है आपने. ये खबर मैंने भी सूनी तो मुझे बहुत गुस्सा आया. गृहिणी की काम को काम ना मानना उसके काम के साथ-साथ उसकी निष्ठा का भी अपमान है. आज ना जाने कितनी औरतें अपने परिवार की सही ढंग से देखभाल करने के लिए नौकरी तक छोड़ देती हैं... यदि औरतें घर ना संभालें तब पुरुषों को पता चलता है कि उनके काम की कीमत क्या है. औरतें दोनों ओर से पिसती हैं- यदि नौकरी करें तो कहा जाएगा कि घर की ओर ध्यान नहीं देती और यदि सिर्फ घर चलायें तो उनके काम की कोई कीमत ही नहीं.
ReplyDeleteIs mamle me to mahilaon ki barabari karne ke liye purusho ko dusra janam hi lena padega.
ReplyDeleteIs mamle me to mahilaon ki barabari karne ke liye purusho ko dusra janam hi lena padega.
ReplyDeletebahut sahi mudda uthaya hai aapne.
ReplyDeletePadhe likhe kahe jaane wale aise praniyon ko kya kahen? Aise vykti educate nahe sifr litrate kahe jaa sakte hai...
sarphir logon ko sabak sikhane ke liye aapki aawaj ke saath hamari aawaj bhi hai...
saarthak chintan ke liye aabhar
मोनिकाजी ,
ReplyDeleteआपकी गंभीर-वैचारिक व अच्छी पोस्ट से *जानकारी* के लिए धन्यवाद.
विचारों में कितना विरोधाभास लगता है ,कभी तो महिलाओं को अनेकों अवसर देकर उत्क्रष्ट्ता की ओर ले जाने की बात की जाती है और कभी उसी महिला-शक्ति को आश्चर्यजनक रूप से *वेदना* प्रदान की जाती है ,घरेलू महिलाओं को नॉन-प्रोडक्टिव वर्कर कहकर हीन बनाया जा रहा है या कम आँका जा रहा है पर वास्तविकता तो ये है कि परिवार की धूरी व शक्ति ही घरेलू महिला-गृहिणी होतीं हैं जो अपना जीवन ,अपना कैरियर तक समर्पित करके अपने पति-परिवार-घर पर दांव लगा के उनको आगे बढने का सुअवसर देती है ताकि वे निश्चिन्त-बेफिक्र होकर अपना प्रोडक्शन आय-स्त्रोत बढ़ा सकें.बच्चों,अन्य परिजनों की देखभाल व परिवार की अन्य सभी जिम्मेदारियों को सम्हाल कर असल में मोस्ट प्रोडक्टिव तो घरेलू गृहिणी ही होती हैं.सभी को पता है कि यदि घरेलू महिला का पूरा सहयोग एक परिवार में न मिले तो क्या परिवार के मुखिया बाहर स्वतंत्रता से कोई भी कार्य कर सकेंगे.ज्ञात है,जब घर की कोई भी चिंता किये बगैर घर के अन्य लोग बाहर जाकर अपने काम करते हैं तो उनकी कमाई-प्रोडक्शन स्वाभाविक अच्छा-ज्यादा होता है फिर चाहे वे जो काम करते हों.चाहे जिस वर्ग के हों.
यही नहीं यदि किसी भी वर्ग-क्षेत्र की महिला बाहर भी कार्य करती है तो भी घर-परिवार की जिम्मेदारी उसके ही उपर आधारित होती है.
एक महिला को विशेषकर एक *गृहिणी* को इस श्रेणी का दर्जा क्यों ?
आश्चर्य व अफ़सोस के साथ अब सोचना ये है *किसे*बुद्धिजीवी कहा-माना जाये ?
ऐसा सोचा ही किसने व कैसे?
हाँ हम सभी के लिए ये एक *सामूहिक बहस* का गूढ़ विषय जरूर है.
अलका मधुसूदन पटेल , लेखिका-साहित्यकार
bahut achchi post aur kyaa kehaey is soch ko haa agar sab ek jut ho kare yae thaan lae ki ab kewla grahini hi nahin ban kar rehna haen apni betiyon ko shikshit karkae naukri karvani haen to ek sakaartmak badlaav aayaegaa
ReplyDeletelekin is kament sae yae naa samjha jaayae ki maere man mae grahini kae liyae samaan nahin haen
इस अर्थप्रधान युग में,अब हर मू्ल्यांकन का आधार पैसा हो गया है,इसलिए आपको भी बताना पड़ रहा है कि अमरीकी सर्वे में गृहिणियों के काम की "क़ीमत" क्या आँकी गई। स्त्री जब तक "क़ीमत" बनी रहेगी,त बतक उसका दर्ज़ा दोयम ही रहेगा। जिस चीज की कीमत होती है,उसका कोई मूल्य नहीं होता औऱ जिसका मूल्य होता है,उसकी कोई क़ीमत नहीं होती। ध्यान,प्रेम,स्वतंत्रता आदि का मूल्य है,इनकी कोई क़ीमत नहीं लगाई जा सकती। इन्हीं अर्थों में,स्त्री भी "मूल्यवान" है।
ReplyDeleteआपकी यह प्रस्तुति कल २८-७-२०१० बुधवार को चर्चा मंच पर है....आपके सुझावों का इंतज़ार रहेगा ..
ReplyDeletehttp://charchamanch.blogspot.com/
आजादी के छह दशक बीत जाने के बाद भी देश में सरकार का महिलाओ के प्रति ऐसा नजरिया अफसोसजनक और शर्मनाक है, वो भी जब देश की आधी से ज्यादा महिलाये गृहणियां है. खास अफ़सोस इस बात का भी है कि ऐसा तब है जब देश में डेढ़ दशक से भी ज्यादा समय तक एक महिला प्रधानमंत्री रही है और इस समय राष्ट्रपति भी एक महिला है. लगता है शायद इन महिलाओ कि संवेदनाये केवल वोट और राजनीति के प्रति है, अन्य महिलायों के प्रति नहीं.
ReplyDeletebahut sahi mudda uthaya hai aapne.
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