" जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की " "The Indian Woman Has Arrived " एक कोशिश नारी को "जगाने की " , एक आवाहन कि नारी और नर को समान अधिकार हैं और लिंगभेद / जेंडर के आधार पर किया हुआ अधिकारों का बंटवारा गलत हैं और अब गैर कानूनी और असंवैधानिक भी . बंटवारा केवल क्षमता आधारित सही होता है
हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।
15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं
15th august 2012
१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं
"नारी" ब्लॉग
" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "
May 27, 2010
The Indian Woman Has Arrived And Its Time To Celebrate !!!!! बधाई
राधा के बारे मे ज्यादा जानकारी आप को यहाँ मिलेगी
सिंथेटिक सेल के बारे मे आप को जानकारी यहाँ मिलेगी
तो ये पोस्ट क्या बताने के लिये पुब्लिश कि गयी हैं
सिर्फ इतना
The Indian Woman Has Arrived And Its Time To Celebrate !!!!!
इस सिंथेटिक सेल के genetic watermarks पर राधा कृष्णकुमार का भी नाम दर्ज हुआ हैं
May 23, 2010
कमेन्ट की इस मानसिकता को क्या कहेगे ??
"जिस नारी ने कभी विवाह नहीं किया वो वैवाहिक समस्याओं को कैसे समझेगी और जो कभी माँ नहीं बनी वो मातृत्व की पीड़ा और समस्या कैसे समझेगी" इस पंक्ति से मैं सहमत तो नहीं हूँ...... क्यूंकि नारियां ज़्यादातर संवेदनशील होती हैं...... हाँ यह है कि इस (जिस नारी ने कभी विवाह नहीं किया) प्रकार कि नारियां चिडचिडी होती हैं.... गुस्सैल होतीं हैं.... क्योंकि ये अप्राकृतिक जीवन जीती हैं.... लिंक
अगर मेरी बेटी होगी .... और वो मुझे आ कर बताएगी कि उसे प्यार है.... तो मैं उसकी शादी कर दूंगा..... लेकिन अगर वो गर्भवती हो कर आएगी .... तो उसको मैं कुत्ते से भी खराब मौत दूंगा.... एक ऐसी मौत जिससे मौत भी घबरा जाये..... लेकिन .... अगर मेरी बेटी ऐसा करेगी .... तो इसका मतलब यही होगा कि मैंने ही उसको अच्छे संस्कार नहीं दिए हैं.... इसमें पूरी गलती मेरी ही होगी.... कोई भी मर्द यह कभी नहीं बर्दाश्त करेगा कि उसकी बहन / बेटी.... गर्भवती हो कर आये.... लिंक
May 22, 2010
ब्लॉग जगत की सम्मानित महिला ब्लॉगर
सम्मानित शब्द को कैसे परिभाषित करते हैं ???
क्या हैं सम्मान का मतलब ???
क्या कोई उपाधि मिलना यानी कोई पुरूस्कार जो किसी को सम्मानित ब्लॉगर बनाता हैं
क्या आप को कितने कमेन्ट आप के फेवोर मे मिले आप को सम्मानित बनाते हैं
क्या हैं सम्मान की परिभाषा इस ब्लॉग जगत मे
क्या क्या करना चाहिये किसी महिला को सम्मानित महिला ब्लॉगर बनने के लिये।
May 20, 2010
बस यही इनकी जिंदगी है........
अगर हम सचमुच महिलाओं की समस्याओं को लेकर गंभीर हैं तो गरीब राज्यों की महिलाओं की खरीद फरोख्त की बात क्यों नहीं करते। ये एक बड़ी समस्या है जिसका सामना इन राज्यों की गरीब महिलाओं को करना पड़ रहा है। दलाल और कुटनियां तो इस काम में लगे ही हैं साथ ही इन बच्चियों और महिलाओं के तथाकथित पति, प्रेमी और भाई भी इसमें अपनी भूमिका बखूबी निभा रहे हैं। इसके अलावा प्लेसमेंट एजेंसियों की भूमिका भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। इन्हें दिल्ली या अन्य बड़े शहरों में भेजा जाता है प्लेसमेंट एजेंसी के माध्यम से इन्हें सो काल्ड बड़े घरों में घरेलू नौकर का काम दिया जाता है। इन घरों का अभिजात्यपूर्ण वातावरण ही इन गरीब परिवार की महिलाओं का जीना हराम कर देता है। छोटी-छोटी बातों पर इन्हें सजा देना आम बात है। सजा भी ऐसी कि सुनने वाले की रूह कांप उठे। अपने घर में सजा देने वाली या वाले वह लोग होते हैं जो सामाजिक मंचों पर गरीब, दबी-कुचली महिलाओं की दशा पर घड़ियाली आँसू बहाते है और अखबार के रिपोर्टर को विशेष रूप से ताकीद किया जाता है कि उनकी न्यूज पहले पन्ने पर नहीं, तो सिटी न्यूज पर अवश्य लगाई जाए लेकिन घऱ में गरीबों के इन अम्बरदारों का व्यवहार कुछ और ही होता है। चाय ठंडी हो जाने पर उसे नौकरानी के चेहरे पर फेंक देना ये अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते है। क्योंकि ऐसी घटिया हरकत करते समय वो उनके लिए एक ज़र ख़रीद गुलाम के अतिरिक्त और कुछ नहीं होती।
कन्या भ्रूणहत्या की वजह से लड़के-लड़कियों के अनुपात में आई कमी की वजह से पंजाब, हरियाणा, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में विवाह योग्य लड़कों के लिए लड़कियां का अभाव सा हो गया। इस अभाव की पूर्ति भी ये लड़कियां ही करती हैं, जिन्हें अपनी वंश बेल बढ़ाने के लिए कुछ पैसों में खरीद लिया जाता है। एक-दूसरे की भाषा न जानने के कारण पति-पत्नी के बीच संवाद की स्थिति नहीं होती। ये लड़कियां दिनभर घर का काम करती हैं और रात में अपने मालिकों को यौन सुख देती हैं। बस यही इनकी जिंदगी है........
-प्रतिभा वाजपेयी
May 19, 2010
साउदी लड़की का गुस्सा....
May 18, 2010
आईं ऍम द बेस्ट
नारियां ये मानने से इतना घबराती क्यूँ हैं ?? विनम्र होना एक बात हैं लेकिन उस विनम्रता का क्या फायदा जो आप को अपने को दुसरो से श्रेष्ठ ना समझने दे । श्रेष्ठ होने मे और और घमंडी होने मे बहुत अंतर हैं । आप कि शेष्ठ्ता आप को हमेशा ऊपर जाने को प्ररित करती हैं और आप के अन्दर एक "ताकत " बनती हैं । आप कि यही ताकत आप को औरो से अलग करती हैं और उनसे बेहतर बनाती हैं । अपने को बेहतर मानने मे इतना संकोच क्यूँ । जब तक आप अपने को श्रेष्ठ नहीं मानेगे तब तक क्या दूसरे आप को श्रेष्ठ मानेगे । अगर कोई आप को कहता हैं " आप दुसरो से बेहतर हैं " तो उसको धन्यवाद कह कर आप और बेहतर बनने कि कोशिश कर सकते हैं { अहम् को आड़े ना आने दे } ।
आज के समय मे श्रेष्ठ और बेहतर होना सफलता कि कुंजी हैं । Nothing succeeds like success
को जो लोग समझ लेते हैं वो हर जलजले , तूफ़ान , सुनामी से ऊपर उठ जाते हैं और अपनी श्रेष्ठ्ता को बार बार अपने आप को ही सिद्ध करते हैं ।
पढ़ा था
क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो
उसको क्या जो दन्त हीन विष रहित विनीत सरल हो
मेरी श्रेष्ठ्ता मेरी अपनी हैं और इसको बरकरार रखना मेरा धर्म हैं । मुझे ना पसंद करने वाले भी अगर मुझ श्रेष्ठ माने तो मै श्रेष्ठ हूँ क्युकी पसंद का दायरा श्रेष्ठ्ता के आगे बेमानी होता हैं ।
आज के लिये इतना ही
अब आप बताये
आईं ऍम द बेस्ट
नारियां ये मानने से इतना घबराती क्यूँ हैं ??
May 16, 2010
तो क्या ख़र्च देवबंद उठाएगा...?
May 14, 2010
इन समस्याओं का कोई हल है ही नहीं
हो सकता हैं लोगो ने सोचा हो ये कहानी हैं जो मैने ब्लॉग पर पोस्ट की हैं लेकिन ये आप दोनों का सच था पर एक चुप्पी व्याप्त हैं ।
May 13, 2010
सुषमा और अनामिका को अपनी राय दे
उम्र ५० साल
शिक्षा बी कॉम
विवाहित ३ बच्चे १ लड़का उम्र २२ साल , २ लड़का उम्र १८ साल , ३ लड़की उम्र १६ साल पढ़ रहे हैं
पति का अपना व्यवसाय
पति के साथ अब और नहीं रह सकती , पति के साथ बहुत सी समस्या जो शादी के समय से अब तक बढ़ ही रही हैं । मायके मे कोई साथ देने वाला नहीं , पति किसी के साथ भी बात नहीं करते । पत्नी का एक अन्य स्त्री से शारीरिक सम्बन्ध भी रह चुका हैं । पति रोज सहवास कि कामना रखते हैं । पति चाहते हैं कि सुषमा केवल और केवल वही करे जो पति कहते हैं । सुषमा का कहना हैं को मैने २५ विवाहित जीवन वही किया जो पति ने कहा अब और नहीं सहा जाता , मेरी सेहन शक्ति चुक गयी गयी हैं । मै शारीरिक सम्बन्ध नहीं अब रखना चाहती । मै घर मे रहना चाहती हूँ पर पति से अलग ॥
सुषमा के पास क्या क़ानूनी अधिकार हैं अगर कोई इन पर जानकारी दे सके तो ये जानकारी सुषमा को पंहुचा डी जायेगी । इसके अलावा सुषमा को "करना " क्या चाहिये अगर इस विषय मे भी कोई अपनी राय देना चाहे तो ये ध्यान दे कि १० साल पहले जब सुषमा इसी प्रकार कि स्थिति मे थी तो सब ने ये कहा था कि पति के साथ निभाओ , उसका ज्यादा ध्यान रखो , जब वो रुपया पैसा सब देता हैं तो अब तुमको अपने बच्चो के बारे सोचना चैये अपने बारे मे नहीं और सुषमा ने वही किया लेकिन अब वो इस बात को नहीं सुनना चाहती हैं ।
नाम अनामिका
उम्र 45 साल
शिक्षा बी ऐ
अविवाहित दो पुत्रिया दोनों नौकरी कर रही हैं
पति कोई काम नहीं करते
अनामिका के पति बहुत सालो से कोई काम नहीं करते । वो क्या चाहते हैं अनामिका को समझ ही नहीं आता हैं । इस समय कि परिस्थिति मे घर मे जो भी पैसा था उसको खर्च कर चुके हैं और अब उनकी डिमांड हैं कि जो एफ डी अनामिका कि बेटियों के नाम हैं वो भी तुडवा कर उनको दे दी जाए । सुबह से पति घर से चले जाते हैं , दोपहर को आते हैं जम कर खाना खाते हैं और अगर मन पसंद खाना ना बने तो बाय बवेला मचाते हैं । घर मे ससुर हैं तो तलक शुदा बेटी के साथ रहते हैं पर घर एक होते हुए भी सबकी गृहस्थी अलग हैं ।
इस बार अनामिका के एफ डी ना देने पर उन्होंने आत्म हत्या कि धमकी दी हैं और ये भी कहा हैं कि वो दोनों लड़कियों और अनामिका का नाम सुसाइड नोट मे लिख जायेगे ।
अनामिका और उसकी बेटिया अब अलग रहना चाहती हैं क्या सही हैं उनके लिये , क्या कोई क़ानूनी राय इस ब्लॉग के माध्यम से दे सकता हैं । अनामिका को और भी राय चाहिये कि वो क्या करे क्युकी वो किसी से भी खुल कर इस विषय मे बात नहीं करना चाहती हैं
अपनी राय दे
ये ध्यान रखते हुए कि ये दोनों सत्य घटनाये और जीवित पात्र हैं
May 12, 2010
वो २१ से ३१ की हो गयी हैं
जो कमेन्ट आये वो हैं
...वही अधिकार जो हिन्दुस्तानी क़ानून ने उसे दे रखे हैं... और वही ज़िम्मेदारियां जिसे निभाना एक नागरिक का नैतिक और सामाजिक दायित्व है...
बहरहाल, कई अधिकारों को हासिल करने की महिलाओं की जंग जारी है...
फ़ेहरिस्त बहुत लंबी है, इसलिए फ़िलहाल मसरूफ़ियात की वजह से सभी का यहां ज़िक्र करना मुमकिन नहीं...
mai fir dous khan ji baato se sahamat hun.avivahit ho ya vivahit samaj ke kanoon aur jimmedariyan to sabhi ko nibhani padti hai .yahi ek sachche nagarik ka kartavya bhi hai.
poonam
ऐसी लड़की के अधिकार और कर्तव्यों के बारे में विधि सम्मत राय देना ही उचित है. वह इतनी परिपक्व भी नहीं कही जा सकती है कि वह नियंब्त्रणहीन स्वत्रन्त्र जीवन जीने की अधिकारिणी बन जाए. उसके लिए भी परिवार का संरक्षण और माँ बाप के साथ चिन्तन आवश्यक होगा.
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रेखा श्रीवास्तव
http://kriwija.blogspot.com/
http://hindigen.blogspot.com
http://rekha-srivastava.blogspot.com
wo hi sare adhikar jinke liye ek mahila ko sangharash karna padta hai aur wo purushon ko janamjaat hi mile hote hai oj
क़ानून ने चाहे उसे जो भी अधिकार प्रदान किये हों, रूढ़िवादी और दकियानूसी समाज के नीति नियमों का पालन करना ही उसकी नियति है फिर उसका आर्थिक रूप से सक्षम होना या वयस्क होना भी कोई मायने नहीं रखता ! अगर ऐसा न होता तो निरुपमा तथा उसीकी तरह अन्य शिक्षित एवं बालिग़ लडकियों की ऑनर किलिंग के मामले घटित ना होते, हरियाणा की खप पंचायतों के अमानवीय फैसले अस्तित्व में नहीं आते ! सवाल अधिकारों को लिख कर क़ानून की किताबों में संकलित करने का नहीं है उन्हें वास्तविक रूप में खुले दृष्टिकोण के साथ लडकियों को प्रयोग करने देने के लिए सार्थक पहल करने का है !
साधना वैद
http://sudhinama.blogspot.com
http://sadhanavaid.blogspot.com
अधिकार तो उसे कानून और संविधान से मिले हुये हैं. रही बात ज़िम्मेदारियों की तो हम जिस समाज में रहते हैं, उसके प्रति और अपने परिवार के प्रति उसकी वहीं ज़िम्मेदारियाँ हैं, जो एक सामाजिक व्यक्ति की होती हैं.
ये इस पर भी निर्भर करता है कि लड़की का परिवार कैसा है? अगर परिवार अपेक्षाकृत उदार विचारों वाला है, तो उसे बहुत सी छूटें मिल जाती हैं, पर अगर परिवार परम्परावादी है, तो उसके ऊपर बहुत से बन्धन लग जाते हैं. और इस पर भी निर्भर करता है कि वह लड़की मानसिक रूप से कितनी मजबूत है. कुछ लोग इक्कीस साल की उम्र में ही काफ़ी मैच्योर हो जाते हैं, जबकि कुछ में बचपना रहता है. मुझे लगता है कि हमें अपने बच्चों को मानसिक रूप से इतना मजबूत बनाना चाहिये कि वे अपने निर्णय खुद ले सकें, फिर चाहे वो लड़का हो या लड़की.
mukti ji ki baat se purn sahmat....
mukti jee ki tippani ka samrthan karta hoon....
मान लेते हैं उस लड़की की जिन्दगी दस साल आगे चली गयी हैं और वो २१ से ३१ वर्ष कि होगई हैं तो तो हमारी पोस्ट बनेगी
"एक 31 वर्षीया अविवाहित आर्थिक रूप से अपना जीवन यापन करने मे पूर्णता सक्षम लड़की / महिला के अधिकार और जिम्मेदारियां क्या क्या हैं ??"
अब आपके कमेंट्स का इंतज़ार हैं
May 11, 2010
लड़की के अधिकार
May 09, 2010
वक्त की नज़ाकत समझिए
अभी थोड़ी पहले एक आलेख पढ़ रहे थे कि ऑनर किलिंग में लड़कियों को ही क्यों मारा जाता है लड़कों को क्यों नहीं। मूलतः यह प्रश्न ही गलत है अगर आप खाप पंचायतों के बारें जानते हैं तो आपको पता होगा कि वे ऑनर किलिंग के नाम पर लड़की और लड़के में बिना कोई भेद किए दोनों को समान रूप से दंडित करते हैं। कई बार तो परिवार भी इन पंचायतों का साथ देती हैं और कई बार साथ न देने के कारण उनके क्रोध का निशाना भी बन जाती हैं, उन्हें गांव बाहर करने, हुक्का-पानी बंद कर देने की घटनाएं भी होती है।
वास्तव में इस प्रकार की घटनाओं के पीछे परिवार की पृष्ठभूमि तो महत्वपूर्ण होती ही है साथ वह परिवेश, जिसमें वे रहते हैं भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अगर हम निरुपमा की ही बात करें, तो यह तो स्पष्ट है कि निरुपमा के माँ-बाप ने अपनी बेटी को पढ़ने के लिए घर से बाहर दिल्ली जैसे शहर भेजा था, और यहां झारखंड में लगभग सभी बच्चे 12वीं के बाद पढ़ने के लिए बाहर जाते है, निरुपमा भी गई। कोई नई बात नहीं थी। बिहार और झारखंड में अन्तर्जातीय विवाह कोई अजूबे नहीं रहे। आम बात हो गई है, लोग इसे स्वीकार भी कर रहे है। अंतर्जातीय विवाह के कारण किसी ने किसी को मार दिया ऐसी घटनाएं सुनने को कम मिलती हैं। हाँ कम दहेज अभी भी मौत का कारण बन जाती हैं, तो इस तरह की घटनाएं तो पूरे उत्तर भारत में हो रही हैं।
अब बात आती है निरुपमा के गर्भवती होने की, तो वह ऐसी पहली लड़की तो थी नहीं, जो बिन ब्याहे मां बनने जा रही हो, न ही इतनी मूर्ख की अपने शरीर में होने वाले परिवर्तनों के प्रति अनभिज्ञ हो। अगर उसे मां बनने से इंकार था तो वह गर्भपात करा सकती थी। दिल्ली जैसे शहर में कितनी ही लड़कियां अनचाहे गर्भ नष्ट करती हैं। निरुपमा ने यदि यह कदम नहीं उठाया तो जाहिर सी बात है वह मां बनना चाहती थी, यह एक व्यस्क व्यक्ति द्वारा लिया गया निर्णय था. घटनाचक्र से यह बिलकुल नहीं लगता कि उसके प्रेमी ने उसे धोखा दिया हो, संभव है दोनों ही अपने मां-बाप को इस रिश्ते के लिए मनाने की कोशिश कर रहे हो, इसलिए निरुपमा ने गर्भपात नहीं कराया हो. फिर ऐसे क्या कारण थे कि निरुपमा को आत्महत्या करनी पड़ी जैसा कि उसके पिताजी कहते है या उसकी हत्या कर दी गई-जैसा पुलिस कहती है।
समय तेजी से बदल रहा है यदि हमें उसके साथ चलना है हमें उसी की गति के अनुसार बदलना होगा। यदि ऐसा नहीं हुआ तो समय हमें अकेला पीछे छोड़ कर आगे निकल जाएगा और हम अपने ही अंतर्द्वंद्वों में उलझे, जमाने को कोसते, अकेले पड़ जाएंगे या गुस्से और झुंझलाहट में निरुपमा जैसे कांड कर बैठेंगे और गुस्सा शांत होने पर आत्मग्लानि से पीड़ित शेष जीवन गुजारने को मजबूर हो जाएंगे।
मैं बिन ब्याही मां बनने की पक्षधर नहीं हूं। वैसे हमारे धर्म ग्रंथों में बिन ब्याही मां बनने के अनेक उदाहरण मिल जाएंगे। मैं भी कहती हूं ये गलत है, लेकिन हमारे बच्चो ने यदि किसी भी कारण से ऐसा कोई निर्णय ले लिया है तो बच्चो की हत्या कर देना समस्या का समाधान नहीं है। होना ये चाहिए कि दोनों बच्चो को साथ बैठाते और उनसे खुलकर बात करते कि उन्होंने इस तरह का निर्णय क्यों लिया है? हो सकता है कोई सम्मानपूर्ण समाधान निकल आता और माँ को बेटी की हत्या के जुर्म में जेल न जाना पड़ता, पिता को बेटी की मौत की सफाई न देनी पड़ती। पर हमारा अहंकार इस तरह की पहल करने में आड़े आता है। उनको ये मंजूर नहीं होता कि वे अपने बच्चो से इन विषयों पर खुल कर बात करें। बदलते समाज में हमें अपनी इस झिझक से मुक्त होना ही पड़ेगा, वरना रिश्तों पर इसी तरह गाज गिरती रहेगी और हम बेकार की बहसों में उलझे रहेंगे। समय तेजी से बदल रहा है यदि हम समय के साथ कदम-ताल मिलाकर नहीं चले, तो समय हमें पीछे छोड़ कर आगे निकल जाएगा और हम वहीं के वहीं खड़े रह जाएंगे अपने कंधों पर संबंधों का जनाजा लिए।
-प्रतिभा वाजपेयी.
May 07, 2010
कुछ प्रश्न या मोनोलोग
किसी भी लड़की को शादी के सपने दिखा कर शारीरिक सम्बन्ध बनाना यौन शोषण मे आता हैं लेकिन कितनी लडकिया ये जानती हैं ???
किसी भी लड़की से शारीरिक सम्बन्ध बलात्कार भी बन सकता हैं कितने लडके इस बात को जानते हैं ??
क्यूँ सेक्स कि सही शिक्षा के खिलाफ ये सामज उठ खड़ा होता हैं ???
क्या एक अभिभावक के लिये अब ये जरुरी नहीं होगया हैं कि वो अपने बच्चो को सेक्स सम्बंधित व्यावहारिक ज्ञान भी उसी प्रकार से दे जैसे वो उसको अन्य ज्ञान देता हैं ।
“ बताओ ना मम्मा “
“ मम्मा लड़कियों को क्यों बुलाते हैं पूजा के लिए ? “
मैंने बड़े प्यार से उसे समझाना चाहा , “ बेटा इसलिए क्योंकि लड़कियों को देवी का रूप माना जाता है और इसीलिये छोटी बच्चियों को बुला कर उनकी पूजा करते हैं, उन्हें भोजन कराते हैं और फल-फूल, वस्त्र उपहार आदि देकर विदा करते हैं ! “
बस यहीं गड़बड़ हो गयी ! शलाका की बैटरी चार्ज हो गयी थी !
“ मम्मा लड़कियों को देवी क्यों मानते हैं ?”
“ अगर लड़कियाँ देवी होती हैं तो वर्मा आंटी के यहाँ जब दिव्या की छोटी बहिन आयी थी तो उसकी दादी गुस्सा क्यों हो रही थीं और आंटी क्यों रो रही थीं ? “
“ मम्मा कल के अखबार में न्यूज़ थी ना कि कचरे के ढेर पर पडी हुई ज़िंदा लड़की मिली ! मम्मा क्या ‘देवी’ को कचरे में फेंक देते हैं ? “
“ मम्मा वो आंटी भी तो अष्टमी के दिन लड़कियों को अपने घर बुलाती होंगी ना पूजा के लिए जिन्होंने अपनी बेटी को कचरे में फेंका होगा ! फिर उन्होंने अपने घर की ‘देवी’ को क्यों फेंक दिया ? “
“ मम्मा अगर उस लड़की को कोई कुत्ता या बन्दर काट लेता तो ? “
“ मम्मा ऐसे बच्चों को कौन ले जाता है ? “
“ मम्मा क्या लड़कों को भी देवता मानते हैं ? “
“ मम्मा क्या लड़कों को भी ऐसे ही घूरे पर फेंक देते हैं ? “
“ मम्मा सब लड़कियों के हक की बात क्यों करते हैं ? क्या लड़कों का कोई हक नहीं होता ? “
“ मम्मा लड़कियां कमजोर कैसे होती हैं ? मेरे क्लास में तो लड़कियां ही फर्स्ट आती हैं !”
“ मम्मा टी वी पर लड़कियों को ही पढ़ाने के लिए क्यों कहते हैं ? क्या लड़कों को पढ़ने की ज़रूरत नहीं होती ? “
“ मम्मा वंश बढ़ाने का क्या मतलब होता है ? “
“ मम्मा क्या सिर्फ लड़कों से ही वंश बढता है ? “
“ मम्मा लड़कियाँ भी तो अपने मम्मी पापा की संतान होती हैं तो फिर उनसे वंश क्यों नहीं बढ़ता ? “
“ बस शलाका बस ! बाहर जाकर खेलो और मुझे काम करने दो ! “
मैं झुंझला कर बोली ! शलाका मेरा चेहरा देख कुछ सहम गयी और अपने अगले सवाल को मुंह में ही दबाये बाहर चली गयी ! मेरा धैर्य चुक गया था इसलिए नहीं कि शलाका एक के बाद एक सवाल दागे जा रही थी बल्कि इसलिए कि इन सवालों के जवाब मैं स्वयं ढूँढ रही हूँ वर्षों से ! मैंने उसकी जिज्ञासा पर अस्थाई ब्रेक ज़रूर लगा दिया था ! लेकिन मेरे मन मस्तिष्क में उसका हर प्रश्न हथौड़े की तरह चोट कर रहा था ! मेरे पास उसके किसी सवाल का यथोचित जवाब नहीं था जो उसके मन की शंकाओं का तर्कपूर्ण ढंग से निवारण कर पाता ! इसीलिये आज आप सबकी शरण में आयी हूँ सहायता एवं मार्गदर्शन की प्रत्याशा से कि शायद आप उसे समाज में व्याप्त इन निर्मम विसंगतियों के लिए कोई माकूल जवाब दे सकें ! अंत में इस क्षणिका के साथ मैं यह आलेख यहीं समाप्त करती हूँ ताकि आप इसके सूत्र को अपने हाथ में ले सकें !
बना देवी मुझे पूजा दिखाने को ज़माने को,
यह सब छल था तेरा बस एक झूठा यश कमाने को.
कहाँ थी तब तेरी भक्ति दिया था घूरे पे जब फेंक,
मैं तब भी थी वही ‘देवी’ उसे तू क्यों न पाई देख !
साधना वैद
May 05, 2010
निरुपमा के चरित्र के बहाने ना जाने कितनी बेटियों को घर कि चार दिवारी मे बंद होना होगा क्युकी गर्भवती होने का डर जो हैं ।
ब्लॉग जगत को क्या हम वैकल्पिक मीडिया मानते हैं कि किसी कि मौत पर हम तुरंत अपना न्याय सुनाने लगते हैं ? एक तरफ हम मीडियाको इसी बात के लिये धिक् कारते हैं और दूसरी तरफ हम खुद भी वही करते हैं । एक व्यक्ति नहीं रहा कम से कम उसकी मौत को अपमानित तो ना करे उसका चरित्र हनन करके ।
सवाल ये हैं कि निरुपमा का दोष क्या था , क्या उसका गर्भवती होना बिना विवाह के उसका दोष हैं तो एक बात हमेशा सबको पता हैं कि गर्भवती केवल नारी ही होती हैं लेकिन गर्भ मे अंश पुरुष का भी होता हैं तो दोष केवल और केवल नारी का ही क्यूँ होता हैं । पुरुष कि जवाब देही हमारा कानून तो तय कर चूका हैं और डी अन ऐ टेस्ट किसी भी पुरुष के अंश को किसी भी गर्भ मे साबित करने का एक वैज्ञानिक तरीका हैं जो कानून को मान्य हैं लेकिन
हमारा समाज कब पुरुष कि जवाब देहि तय करेगा नारी के गर्भवती होने मे ??? क्या सजा देता हैं हमारा समाज ऐसे पुरुषो को जिनकी वजह से कोई नारी गर्भवती हो जाती हैं ???
कहीं बलात्कार होता हैं और गर्भ रह जाता हैं दोषी कौन नारी ,
कहीं प्रेम मोहब्बत का वास्ता होता हैं गर्भवती फिर नारी दोषी भी वही सामाजिक दबाव भी उसी पर
यहाँ तक कि कभी कभी तो विवाहित नारी को भी गर्भवती होने पर दोषी माना जाता हैं क्युकी अभी पति को संतान नहीं चाहिये ।
कब तक हम प्रकृति कि दी हुई गर्भवती होने कि शक्ति को नारी का दोष मानेगे । समाज ने अगर विवाह का नियम बनाया हैं तो उसका पालन ना करने पर दोष केवल नारी का ?? ये कहना कि वो स्वछन्द होगयी हैं कितना सही हैं ???
मुधुमिता हत्या कांड हो , शिवानी हत्या कांड हो या अब निरुपमा हत्या कांड हो सब मे समाज ने अपना पल्ला झाड लिया ये कह कर जो भी स्त्री शादी के अलावा सम्बन्ध बनाती हैं वो है ही "गलत " क्युकी गर्भ उसी ने धारण किया हैं । यानी गर्भ धारण करना ही मात्र स्त्री का दोष हुआ ।
और ये तो सदियों से हो रहा केवल आज कि बात नहीं हैं शील भंग स्त्री का होता हैं और दोष भी उसी का होता हैं ।
क्या किसी के पास "शील " कोई परिभाषा हैं और अगर हैं तो क्या उस परिभाषा को स्त्री और पुरुष पर हम समान रूप से लागू कर सकते हैं ।
कब हम समाज कि बनाई परिभाषा से ऊपर उठ कर कानून और संविधान कि मे दी हुई परिभाषा को मानेगे ।
लड़की के लिये क्या सही और क्या गलत से हट कर कब हम लडके और लड़की के लिये क्या सही और क्या गलत कि बात करेगे ।
कब किसी भी हादसे के बाद हम ये कहना बंद करेगे "लड़की थी उसको अपना ध्यान रखना चाहिये था अब समाज मे क्या मुंह दिखायेगे "
हमारी यही सोच लड़की के माँ पिता को अपनी लड़की के प्रति निर्मम बनाती हैं
जब जेस्सिका लाल पर गोली चली थी तब भी यही कहा गया था कि "ओह बार मे काम कर रही थी यही होगा " यानी दोषी फिर जसिका ना कि मनु ।
जो पत्र निरुपमा के पिता का आज मीडिया मे सब को दिख रहा क्या वो एक आम पत्र नहीं हैं जो कोई भी पिता अपनी पुत्री को लिख सकता हैं जो उससे दूर हैं । लेकिन नहीं हम शब्दों वो खोजते हैं जो हम खोजना चाहते हैं हम खुद न्यायधीश बन कर फैसला लेना चाहते हैं लेकिन कानून कि नज़र से नहीं सामाजिक , संस्कृति और धर्म कि नज़र से ।
बच्चो को एक उम्र तक ही बच्चा मनाना चाहिये । एक उम्र के बाद उनको अधिकार हो कि वो अपने फैसले कर सके लेकिन नहीं हमारे समाज मे हम बच्चो को अपनी जागीर मानते हैं और उनके हर फैसले पर हमारी मोहर जरुरी हैं
कितने सही हैं हैं हम ???
निरुपमा के साथ क्या हुआ और किसने किया इसको साबित होने बहुत साल हैं तब तक उसके चरित्र के बहाने ना जाने कितनी बेटियों को घर कि चार दिवारी मे बंद होना होगा क्युकी गर्भवती होने का डर जो हैं ।
आईये ये ना होने दे अपने घरो मे , बेटियों को उस चीज़ कि सजा ना दे जो गलती उनकी नहीं हैं । ब्लॉग के माध्यम से सोच बदले इस समाज की
May 04, 2010
जाति और धर्म के नाम पर बेटियों की बलि
एक मां ने अपनी बेटी की हत्या कर दी। सुनकर मन एक बारगी तो सुन्न पड़ गया। ऐसा कैसे हो सकता है एक उम्र के बाद मां बेटी का रिश्ता दो सहेलियों का सा हो जाता है, जो अपने सुख-दुख एक दूसरे के साथ शेयर करती है। माँ सिर्फ मां न रहकर बेटी की पथ-प्रदर्शक बन जाती है। बेटी की पेशानी में पड़ा एक हल्का सा बल भी मां को विचलित कर देता है और वह जानने को व्याकुल हो उठती है कि बेटी क्यों परेशान है? बेटी की हत्या का विचार मां के मन में कैसे आ सकता है? नौ माह गर्भ में रखने के बाद, तीव्र प्रसव पीड़ा सहने के बाद मां बच्चे को जन्म देती है। उसकी तोतली बोली, उसके बाल हठ, नन्हें पैरों से पूरे घर में दौड़ते-भागते अपने होने का अहसास कराना। बच्चे का यही नटखटपन उसको मां के करीब लाता है। बच्चे को सीने से लगा कर माँ की सारी परेशानिया, थकावट पल भर में छूँ-मंतर हो जाती हैं।
निरुपमा को मारते समय क्या माँ का हाथ एक बार भी नहीं काँपा होगा। बेटी को मारते समय मां सुधा पाठक के मन में किस प्रकार के विचार आ रहे होंगे? क्षणिक आवेश में भर कर उसने यह निर्णय लिया होगा या एक सोची समझी रणनीति के तहत निरुपमा को मारने का निर्णय लिया गया होगा? पढ़ा-लिखा परिवार है निरुपमा का। परिवार ने ही बेटी को आगे पढ़ने और अपना भविष्य बनाने के लिए दिल्ली भेजा था, ताकि उनकी बेटी अपना भविष्य संवार सके। पत्रकार निरुपमा की गलती सिर्फ यही थी कि अपने घर वालों की इच्छा के विरुद्ध जाकर उसने अपने लिए एक ऐसा जीवन साथी चुना जो उसकी जाति-बिरादरी से बाहर था। परिवार को यह बात पसंद नहीं थी, उनके लिए अपनी बेटी की खुशियों से ज्यादा अहम जाति-बिरादरी हो गई। इसलिए बीमारी का झूठा तार भेजकर निरुपमा को घर बुलाया गया। घर में षडयंत्र रचा जा चुका था कि या तो उनके पसंद के लड़के से विवाह करने की हामी भरो या जीवन की अंतिम साँसे लेने को तैयार हो जाओ। पर विजातीय लड़के से बेटी का विवाह किसी हालत में भी कुबूल नहीं था। ये कैसी सामाजिक परम्पराएं हैं जो बेटियों को पढ़ने लिखने और अपना व्यवसाय चुनने की तो छूट देती हैं, पर मनपसंद जीवन साथी चुनने का अधिकार नहीं देती। और जहां धर्म, परम्परा और सामाजिक रीति-रिवाजों के सामने व्यक्ति के संवैधानिक अधिकार गौण हो जाते हैं।
इस तरह के मामलों को यदि व्यवहारिक दृष्टिकोण से देखा जाए, बच्चो को बाहर पढ़ने भेजने के पीछे मुख्यतः दो कारण होते हैं-पहला अच्छे स्थानीय स्कूलों का अभाव, दूसरा पढ़ी-लिखी लड़कियों के लिए वर ढूढ़ना आसान हो जाता है। तो जब बच्चे आगे पढ़ने या नौकरी के लिए अपना घर छोड़ कर बाहर जाते हैं, तो उनकी निगाहें सर्वप्रथम उन लोगों को खोजती हैं जो उन्हीं के परिवेश से शहर में आए हों। ऐसे लोगों के साथ वो खुद को ज्यादा सहज महसूस करते हैं। यह सहजता कब मित्रता में बदल जाती है इसका उन्हें अहसास तक नहीं होता। अहसास तब होता है जब मां-बाप अपने कुल-गोत्र में उनके लिए रिश्ते तलाशने लगते है। जो उनकी वर्तमान आधुनिक जीवन पद्धति से मेल नहीं खाते। और इसी मुकाम पर उनके ऊपर पारिवारिक और सामाजिक दबाव पड़ना शुरू हो जाता है। इस मानसिक दबाव से उबरने के लिए या तो वो समाज और परिवार के विरुद्ध जाकर अपनी पसंद के जीवन साथी से विवाह कर लेते हैं या तो परिवार की इज्जत के नाम पर निरुपमा जैसी घटनाएं घट जाती है।
हमारा समाज एक संक्रमण काल से गुजर रहा है। हम खुद को आधुनिक तो दिखाना चाहते हैं, पर जाति बंधन से खुद को मुक्त नहीं कर पाते। इस मामले में राजनीतिक दल भी कम दोषी नहीं हैं जिन्होंने अपने वोट बैंक को सुदृढ़ करने के लिए समाज को जातियों में बाँट कर रख दिया है। इस तरह घटनाओं के लिए परिवार जितना दोषी है, उससे कहीं ज्यादा दोषी समाज है जो अपने कुल-गोत्र के बाहर अपने बच्चों को शादी की सहमति देने वालों को चैन से नहीं बैठने देता। और यह दबाव परिवार की इज्जत के लिए बेटी की हत्या के रूप में हमारे सामने आता है।
-प्रतिभा वाजपेयी.
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