नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

October 31, 2009

एक नजर इधर भी

टेली विजन के धारावाहिकों में हम देखते है पति अपनी पत्नी को छोड़ दूसरी औरत के पीछे भागता है तब पत्नी उसके पीछे जासूस लगा देती है उसकी हरकतों का पता लगाने के लिए और उसे रंगों हाथो पकड़ने केलिए |साथ ही उस धारावाहिक का पार्शव संगीत दर्शको की धडकन बढा देता है , कभी कभी तो ऐसा लगता है कही हम इस संगीत के इतने आदि न हो जाए की रोज्मरा की जिन्दगी में हमे भी पार्श्व संगीत बजाना पडे खैर यहा बात हो रही थी दूसरी औरत की मेरे घर काम करने वाली बाई देर से ई तो मैंने उससे पूछा ...कोमल - हा यही नाम है सका आज फ़िर देर से आई
उसने कहा -आज 'वो 'आए है तो चाय नाश्ते में देर हो गई
मैंने देखा इतना कहते ही वो शर्मा गई मै गुस्से में थी फ़िर भी उसकी शरमाहट देखकर मेरे होठो पर मुस्कराहट आ गई पर उपरी गुस्सा दिखाते हुए मैंने कहा -जब तुम्हे छोड़कर वो जा चुका है तो उसकी इतनी आवभगत क्यो करती हो ?
कोमल ने इतना ही कहा -मेरे लडके का बाप है वो |
मै अवाक् रह गई
कोमल के पति ने दूसरी औरत रख ली थी नासिक में वो रेल विभाग में काम करता है कोमल यहा अपने बेटे बहु और दो पोतियों के साथ रहती है वो थोडी सीधी सधी तरह की औरत है देखने में अति साधारण कामh से काम रखने वाली मेहनती औरत |उसका बेटा भी सीधा इमानदार एक दुकान में सेल्समेन का काम करता है | बडे अचरज की बात है की उसके आदमी ने दूसरी aort रखी है उसके भी तीन शादी शुदा बेटे बेटी है कभी कभी वो भी कोमल के 'मेहमान 'बनकर आते है |कोमल ko उसका पति कभी कभी कुछ रूपये दे देता है हा उसके समाज में उसका कोई विरोध न करे इसके लिए उसने कोमल को एक अवैध कालोनी में छोटा सा मकान नोटरी पर लाकर दे दिया है |और तो और कोमल को भी उस पर गर्व है |
अचानक कोमल के पति को केंसर हो गया कोमल और उसकी सौत ने मुम्बई के रेलवे अस्पताल में दोनों ने मिलकर उसकी सेवा की पर वो बच नही पाया . तक उसको रेलवे घर मिला था अब कोमल अपनी सौत को भी अपने साथ ही रखने लगी कोमल अपनी पेंशन और अन्य मिलने वाले पैसो के लिया हर महीने १५ दिन में नासिक के चक्कर लगा रही है उसको आशा है की उसके लडके को उसके पति की जगह पर नोकरी मिलजाए किंतु उसमे एक अड़चन और है कोमल के पति की एक बीबी और थी जिसके मरने के बाद ही कोमल की शादी हुई थी उससे भी एक लड़का है वो भी कोशिश में है की उसे नोकरी मिल जाए \
मैंने कोमल से कहा -अब तो तुम्हारा आदमी भी मर गया फ़िर तुमने अपनी सौत को अपने साथ क्यो रखा हुआ है ? उसका जवाब सुनकर मै दंग रह गई | उसने कहा -वो मेरे आदमी के साथ इतने साल रही जो पैसा मिलेगा उसमे उसका भी तो कुछ हक़ बनता है थोड़ा उसे दे दूंगी । मै ये जानती हुँ इस एक घटना से सारी महिलाओ की स्थिति का आकलन नही किया जा सकता किंतु इस वर्ग विशेष की महिलाओ जीवनी लगभग एक सी ही रहती है | अब आप ही बताये ? कोमल का पति भाग्यशाली था या उसकी तीनो पत्निया अभागी थी?
ये कथा नही अक्षरश सत्य है |

October 30, 2009

काफी दिनों से एक बात बराबर मन मे हैं सो आज आप लोग के सामने एक प्रश्न के रूप मे दे रही हूँ ।

काफी दिनों से एक बात बराबर मन मे हैं सो आज आप लोग के सामने एक प्रश्न के रूप मे दे रही हूँअगर कोई जवाब सुझाए तो जरुर बाते

जब भी किसी का जन्म होता हैं तो जिस देश मे वो व्यक्ति पैदा होता वहाँ का " नैचुरल सिटिजन " कहलाता हैंउस व्यक्ति को वो देश वहाँ की "नागरिकता" प्रदान करता हैं
{ बहुदा ऐसा होता हैं और ये बहुदा दिस्क्लैमेर हैं क्युकी कोई कोई ब्लॉगर बड़ी जहीनता से उस देश का नाम जरुरदेगा जहाँ ऐसा नहीं होता और पोस्ट की बात वहीं से अलग दिशा मे जायेगी !!!} ।
जब हमारा जन्म होता हैं किसी घर मे और हम वहाँ रहते हैं तो ये क्यूँ कहा जाता हैं " अपने माँ - पिता के घर मे रह रहे हो " अगर हमारी बात पसंद नहीं हैं तो निकल जाओक्या किसी घर मे जन्म ले लेने मात्र से ही हम उस घर के " नैचुरल सिटिज़न " नहीं हो जाते हैं ? फिर वो माता - पिता का घर क्यूँ कहलाता हैंये बात पुत्र और पुत्री दोनों के सम्बन्ध मे लागू होती हैं और निरंतर सुनाई देती हैं
जहाँ भी शादी के बाद अगर बेटा माँ -पिता सब साथ रह रहे होते हैं तो सब यही कहते हैं " अरे आप बडे भाग्यवान हैं आप का बेटा आप के साथ रह रहा हैं " और अगर किसी वजह से लड़का और बहु की रसोई अलग हैं तो सुनाई देता हैं " रह आप के घर मे रहे हैं और खाना अलग पकाते हैं ""

अगर लड़कियों की बात करे तो अविवाहित लड़की किसी भी उम्र को क्यूँ ना हो कहा यही जाता हैं अपने माँ - पिता के यहाँ ही हैं । " क्या करे बेचारी शादी नहीं हुई ना , अब सारी जिंदगी माँ - बाप साथ रहेगी " या " इसकी तो जिंदगी ही ख़राब होगई , शादी नहीं हुई , अब वृद्ध माँ - पिता के साथ रह रही हैं तो उनका ख्याल तो रखना ही होगा ""


ऐसी बातो का क्या कारण हैं , क्यूँ जहाँ हम पैदा होते हैं वो घर हमेशा हमारे माँ - पिता का ही कहलाता हैं { पुरूष और स्त्री दोनों }
और
अगर केवल स्त्री की बात करे तो बिन ब्याही , कुमारी , माँ - पिता के घर मे " नैचुरल सिटिज़न " नहीं होती और विवाहित ससुराल मे कभी "नैचुरालाईज़ड सिटिज़न " { Naturalized CItizen } का दर्जा नहीं पाती

मै यहाँ इस पोस्ट किसी भी कानूनी अधिकार की बात नहीं कर रही , जबकि होना चाहिये ऐसा अधिकारमुझे पता नहीं क्यूँ लगता हैं की हमारा समाज नयी पीढी के लिये बहुत "संकुचित हैं " अपनी सोच मे

हम अपने बच्चो को सहजता से कुछ भी नहीं दे सकते हैंजब जिस घर मे जो बच्चा पैदा होता हैं जब वो घर भी उसका नहीं हैं हमारी सोच और हमारे सामाजिक नियमो मे तो फिर हम क्यूँ उम्मीद करते हैं की नयी पीढी हमारे लिये सहिष्णु होगी


कानून भी हमारी सोच का ही नतीजा होता हैंहम पैतृक सम्पति मे बच्चो को कानूनी अधिकार तो सहर्ष देते हैं और ये भी ध्यान रखते हैं की हमारे बच्चे को हर सुख सुविधा मिले और हम अपना सब कुछ मरने के बाद अपने बच्चो को ही दे जायेगे ये बात भी बार बार कहते हैं पर जिस घर मे जो बच्चा पैदा हुआ हैं उस घर से जब मन हो उसको निकलने का अधिकार भी रखते हैं

क्यूँ होता रहा हैं ऐसा ???


ब्लॉग टेम्पलेट बदल दी हैं अगर पढ़ने मे असुविधा हो तो निसंकोच कह दे ताकि ठीक कर सकूँ

सुमन की पोस्ट अखबार मे


हिंदी दैनिक डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट के नियमित स्तंभ 'ब्लॉग राग' में नारी ब्लॉग पर सुमन की पोस्ट का उल्लेख 6 अक्टूबर २००९ को किया गया हैं । ये अखबार लखनऊ से निकलता हैं ।

चित्र आभार

October 29, 2009

दरकती 'विवाह संस्था' के महत्वपूर्ण कारक!


'विवाह संस्था' अब नई पीढ़ी के मायनों में दरकने लगी है। इसके लिए वही सिर्फ दोषी हैं ऐसा मैं नहीं मानती। आज सबसे बड़ा पैकेज दिखाई देता है। इस पैकेज के लिए सबसे बड़ा चाहने वाला वर्ग 'मध्यम वर्ग'. मध्यम वर्ग के लोगों को भी सपने देखने का हक़ है और वे किसी भी तरह से बच्चों को उच्च शिक्षा दिला कर आत्म निर्भर बनने के लिए संघर्ष करते हैं। फिर संघर्ष करके जो लड़की पढ़ी - वह नौकरी करके अपने सपनों को भी साकार करना चाहती है। यही हाल लड़कों का भी है। अपने सपनों को सजाये ये लोग 'विवाह संस्था ' से जुड़ते हैं और तब सरोकार होता है परिवार संस्था से। मध्यम वर्गीय अभिभावक अपनी मानसिकता नहीं बदल पाते हैं। बहू पढ़ी-लिखी और कमाऊ मिले तो ये उनके लिए बड़े सम्मान की बात है लेकिन बहू तो बहू है न। उनके मानकों पर खरी उतरनी चाहिए। अगर नहीं उतरी तो लड़के और बहू दोनों के लिए सारी संस्थाएं बेमानी हो जाती हैं।

मेरे साथ एक M.Tech लड़की काम करने आई। यही पर काम करते करते उसकी शादी हुई। परिवार निम्न मध्यम वर्गीय परिवार का था और लड़की उच्च मध्यम वर्गीय। लड़के की नौकरी अच्छी थी इसलिए उन लोगों ने शादी कर दी। ससुराल से शादी के बाद जब ऑफिस आती तो सभी ने पूछा की कैसी ससुराल है?
१। ससुर के सामने घूंघट करना है।
२। टीवी उनके सामने बैठ कर नहीं देखना है।
३। रात में सोने से पहले सास के पैर दबाने होंगे।
४। जब सास ससुर सोने चले जाएँ , तब आपको जाना है।
५। सुबह ऑफिस जाने से पहले खाना बना कर रख कर जाना है।
हास्टल में पढ़ने वाली लड़की से एकदम इतने साड़ी अपेक्षाएं हम कैसे कर सकते हैं? कई महीनों तक उसने संघर्ष किया और नौकरी भी संभाली लेकिन हार गई और फिर माँ-बाप के पास आ गई। पति से मुलाकात ऑफिस में होती , उसे ससुराल जाने की इजाजत नहीं थी। १ साल तक पिता के घर में रही और फिर समझदारी का परिचय देते हुए उसने नौकरी छोड़ दी। पति ने भी अपने ट्रान्सफर बाहर करवा कर परिवार संस्था को टूटने से बचा लिया ।

इसमें हम किसको दोष दें? हम प्रगतिशील होने का मुखौटा पहनाकर अन्दर से वही रुढिवादी होते हैं। समय और जरूरत के अनुसार अगर सामंजस्य नहीं करेंगे तो सारी संस्थाएं बिखर जायेगी। हमारी आने वाली पीढी हमें कभी माफ नहीं करेगी।

विवाह संस्था को तोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं - मानव मनोग्रंथियाँ। चाहे वे Superiority Complex ' हो या फिर 'inferiority Complex' । इतनी समझदारी विकसित करनी पड़ेगी कि क्या फर्क पड़ता है की कौन कम कम रहा है और कौन ज्यादा। घर दोनों का है, परिवार दोनों का है , फिर इसमें इनकी गुंजाइश ही कहाँ रह जाती है? यहाँ बात एक की नहीं दोनों की है। वैसे तो लड़कियाँ जन्मजात सामंजस्य करने वाली होती हैं लेकिन अगर नहीं हैं तो दोनों को इसको बचने के लिए सामंजस्य स्थापित करना होगा।
इसको बचाना ही पहला प्रयास होना चाहिए।

अब ये कहना की शादी को सेक्स से जोड़ कर ना देखा जाए अपने आप मे एक बड़ी बहस का मुद्दा है

यहां एक एक और खटकी...महावीर और जानकी के रिश्ते को सिर्फ सेक्स के नज़रिए से ही क्यों देखा गया...हाई क्लास सोसायटी में लिव इन रिलेशन को मान्यता मिल सकती है...पेज थ्री पार्टियों की चकाचौंध के पीछे वर्जनाओं के टूटने के अंधेरे का नज़रअंदाज किया जा सकता है...लेकिन समाज में निचली पायदान पर खड़ा कोई महावीर या कोई जानकी इस तरह का कदम उठता है तो हम सबको ये नितांत गलत नज़र आने लगता है...


ये एक कमेन्ट का हिस्सा हैं और पूरा कमेन्ट और बहस आप लिंक क्लिक्क कर के देख सकते हैं
समाज मे शादी की संस्था को क्यूँ मान्यता हैं ?
ताकि सेक्स लेजिटिमेट तरीके से हो

ताकि प्रजनन की प्रक्रिया के लिये एक सही और सुविधा जनक तरीका हो

ताकि बच्चो को माँ पिता का नाम दिया जा सके और एक परिवार की संरचना हो जिस से एक समाज बने जो "एक दायरे मे रहे "
अब ये कहना की शादी को सेक्स से जोड़ कर ना देखा जाए अपने आप मे एक बड़ी बहस का मुद्दा है
आज भी भारत मे पुरूष वर्ग के ज्यादा लोग शादी इसीलिये करते हैं ताकि वो अपनी biological needs को पूरा कर सके अगर शादी से सेक्स को हटा दिया जाए तो कितने पुरूष इस व्यावस्था को स्वीकारेगे । पुरूष की जरुरत को पूरा करने के लिये ही शादी जैसी संस्था को निरंतर मान्यता दी जाती हैं और इसकी पैरवी भी सबसे ज्यादा पुरूष ही करते नज़र आते हैं ।

भारत मे पुरूष समुदाय का एक बहुत बड़ा हिस्सा हैं जिनकी पत्नी को सेक्स मे रूचि नहीं होती शादी और बच्चो के बाद , क्युकी औरत की बेसिक जरुरत घर पति और बच्चे पूरी हो जाती हैं ।

इसके अलावा एक बहुत बड़ा समुदाय बन रहा हैं पुरूष समाज मे जिन के विचार आज भी १९६० मे अटके हैं पर उनकी उम्र केवल ४० वर्ष के आस पास हैं । इस समुदाय के पुरुषों की समस्या हैं उनकी पत्नी का बाहर जा कर काम करना और उनसे बराबरी करना जिसका अंत अब बहुत बार तलाक मे होता हैं । जब इन सब की शादी हुई थी तो ये सब प्रोग्रेसिव थे और इन्होने एक वर्किंग पत्नी चाही थी पर पकेज डील मे " उसके स्त्री होना और उसका इनसे स्वतंत्र होकर सोचना " और उससे भी ज्यादा "उसका हर समय सेक्स के लिये तैयार ना रहना " इनको नहीं मंजूर हुआ क्युकी इनकी पत्नी आर्थिक रूप से स्वतंत्र थी इस लिये वो तलाक ले सकती थी ।
और जहाँ तलक नहीं हुआ वहाँ रिश्ते इतने कड़वे हैं की आपसी प्रेम कभी था ही नहीं जैसे । एक शादी हैं टूटी फूटी सी जिसे कोई बच्चो के लिए तो कोई और कोई विकल्प ना होने के लिये निभा रहा हैं ।
सेक्स को शादी से काट दे तो क्या शादी शादी रह सकती हैं ।
और एक पुरूष वर्ग और तैयार हो रहा हैं जहाँ पति पत्नी दोनों बड़ी बड़ी कम्पनियों मे उचे पदों पर काम कर रहे हैं और पत्नी की सेक्स के प्रति कोई रुची है ही नहीं इस वर्ग के पुरूष अपनी जरूरते घर से बाहर पूरी करते हैं और तमाम लिव इन रिलेशनशिप ऑफिस और ऑफिस के बाहर बन रही हैं

लिव इन रिलेशनशिप को जितनी मान्यता बे पढे लिखे तबके मे हैं उतनी पढे लिखे तबके मे नहीं हैं आज भी अगर आप अपने घर मे काम करने वाली बाई से बात करके देखे तो आप को पता चलेगा की उनमे से ना जाने कितनी बिना शादी के किसी भी पुरूष के साथ रह रही हैं ।

महावीर और जानकी के सम्बन्ध मे जितने लोगो ने भी इस शादी को सेक्स से जोड़ा हैं वो सब सही हैं शादी की बेसिक बुनियाद पति पत्नी के दैहिक सम्बन्ध ही हैं

वो पढ़ा तो इसे भी पढ़ लीजिए... पढने के बाद ....

वो पढ़ा तो इसे भी पढ़ लीजिए...खुशदीप ........पढने के बाद ....
इस विमर्श से जुड़े कुछ मुद्दे मेरी नजर में इस प्रकार हैं ...

1
. स्त्री और पुरुष एक दुसरे के पूरक हैं ...मैं इस विचार से पूरी तरह सहमत हूँ ...और इस तरह की किसी भी शिक्षा की समर्थक नहीं रही हूँ जो स्त्रियों को सिर्फ पुरुषों की विरोधी बनाती हो ...मगर अपनी इस बात पर पूरी तरह दृढ हूँ की एक 22 साल का युवक और 60 साल की वृद्धा पति पत्नी के रूप में एक दुसरे के पूरक नहीं हो सकते ...शारीरिक सम्बन्ध की तो मैं कभी बात की ही नहीं ...सभी समझते है ...इस तरह की शादियों में यह सब गौण होता है ...यहाँ बात मानसिक स्तर की ही है ...

. मेरा विरोध इस वाकये को महामंडित किये जाने को लेकर है ...यह स्वस्थ परंपरा तो हरगिज नहीं कही जा सकती है ...विवाह कर एक प्रताडित वृद्धा के सम्मान को बचाए जाने को लेकर जो प्रचार किया जा रहा है ...वह गलत है ...कल रचना जी ने सहायता के बहुत सारे विकल्पों पर ध्यान दिलाया था ...

3. नैतिक मापदंडों को लेकर भी मेरा कोई विशेष आग्रह नहीं है ...क्योंकि नैतिकता की परिभाषा समाज देश काल परिस्थिति के अनुसार बदलती रहती है ...उम्र के इस फासले को लाँघ कर शादी करना और उसे एक त्याग के रूप में परिभाषित करना ...इसके दुष्प्रभाव ..नारी होने के कारण..जिस तरह हम सोच पा रहे है ...शायद आपकी नजर उधर नहीं है ...आर्थिक दिक्कतों और बहुत सी मजबूरियों के चलते कम उम्र की लड़कियों को उम्रदराज पुरुषों को ब्याह दिए जाने की परंपरा को भी इसी तरह महिमामंडित किया जा सकता है ...

4. माननीय अरविन्दजी ने अपनी टिपण्णी में लिखा की गांवों में स्थितियां अलग प्रकार की होती है ...अगर युवक शादी किये बिना उसकी मदद करता तो उसे बहुत ताने दिए जाते ...मरवा दिया जाता ...
क्या अब ये संकट दूर हो गए हैं ..??
अब उन्हें ताने देकर या भय दिखाकर प्रताडित नहीं किया जाएगा ..??

5. एक बात और बार बार कही जा रही है ...टिपण्णी को बदलने की ...मुझे समझ नहीं आया इसमें क्या आपत्ति है ...कई बार किसी घटना को लेकर त्वरित टिपण्णी में और बाद में गहराई से सोचने पर की गयी टिपण्णी में अंतर हो सकता है ...और ये हम स्त्रियों की महानता ही है की ..जब हम कही अपने आप को गलत समझते है तो उसे अपने अभिमान का प्रश्न नहीं बना कर अपनी गलती सुधार लेते हैं ...ये जो आप लोग कॉलर ऊँची कर के अपनी सुखी गृहस्थी का ऐलान करते हैं ना ...उसके पीछे नारियों की इसी भावना का हाथ होता है ...मानते हैं ना आप ..

विमर्श की इस स्वस्थ परंपरा के लिए आपका बहुत आभार ...!!

October 28, 2009

औरत को किसी भी उम्र में समाज की स्वीकृति से चलना चाहिए - ऐसा पुरूष के लिए नहीं है। जिम्मेदार कौन?

महावीर और जानकी की घटना को लाकर सब अपने अपने ढंग से परिभाषित और आलोचित कर रहे हैं।

ये समाज जिसके हम सदस्य हैं, एकल नारी के रूप को पचा नहीं पाता है और अगर उसको सहारा देने वाला कोई मिल जाए तब भी नहीं। कभी कभी तो उसको भी कटाक्षों का शिकार बना देता है - जहाँ इसकी कोई गुंजाइश ही नहीं होती है। मैं भुक्तभोगी हूँ - और इस घटना को चार वर्ष मैं पहली बार किसी के भी सामने प्रकट कर रही हूँ। उस दिन तिलमिलाकर रह गई थी और आज भी तो बोलने के लिए साहस जुटा लिया।

मैं एक ऐसे स्थान पर रहती हूँ, जहाँ आने-जाने के साधन बहुत आसानी से उपलब्ध नहीं होते हैं। रात में तो बिल्कुल भी नहीं। मेरे पति शहर से बाहर थे - अचानक सूचना मिली की हमारे किसी पारिवारिक मित्र का एक्सीडेंट हो गया है और मुझे किसी भी हालत में वहां पहुंचना था। मैं अपने पड़ोस के पारिवारिक मित्र के बेटे के साथ वहां गई और रात में ९ बजे वापस आई। मैं उसके घर से अपने घर की ओर पैदल आ रही थी - तो रास्ते में पड़ने वाली एक दुकान की बेंच पर बैठे कुछ भद्र पुरुषों ने इन कटाक्षों से मुझे नवाजा --

" अरे! ये लड़का तो शादीशुदा है।"
"क्या फर्क पड़ता है? किसी को घुमाने में, कमाऊ है, खर्चा उठती होगी।"

सुनकर लगा की मेरे कानों में किसी ने सीसा उडेल दिया हो। मैं किस मनःस्थिति से उस समय गुजर रही थी, इसको बयान नहीं कर सकती।

ये सोच किस वर्ग की है? जहाँ मां-बेटे के रिश्ते को भी नहीं छोड़ते हैं। जब कि उन भद्र पुरुषों को यह मालूम है कि हमारे पारिवारिक सम्बन्ध कितने आत्मिक और घरेलू हैं. पर जबान में कोई हड्डी नहीं होती कि उसको अपनी इच्छानुसार मोड़ने में कोई तकलीफ हो.
शायद इन लोगों की नजर में किसी भी रिश्ते की परिभाषा एक ही होती है, बिना किसी स्वार्थ के विपरीत लिंग वाले साथ हो ही नहीं सकते हैं। निस्वार्थ और आत्मिक जैसा शब्द इनके पास होता ही नहीं है। औरत त्रसित रहे तो कोई झांकने नहीं आता । बहू बेटे या घर वालों द्वारा उत्पीड़ित हो तो च च च करके सहानुभूति बिखेर देंगे। लड़के बहू और घर वालों को दो चार गालियाँ सुना देंगे। पर उसको सांत्वना या सहायता देने की सोच भी नहीं सकते हैं।

महावीर ने शादी कर ली तो बौखला गए । किसी और रिश्ते को कौन स्वीकार करता है? सिर्फ लांछन लगाये जा सकते हैं। हमारी सोच इससे अधिक कुछ सोच ही नहीं सकती है।

बात चली है तो एक दो और जगह निगाह डाल लें कि हम कितने अच्छे हैं?

मेरी एक शिक्षिका - जिनकी किडनी ख़राब थी तो उन्होंने शादी न करने का फैसला लिया। अचानक उनकी बड़ी बहन की मौत हो गई, उनके बच्चे छोटे-छोटे थे। वे अपनी बहन के घर बच्चों की देखभाल के लिए आकर रहने लगी।

'अरे वह बहनोई के ही शादी कर लेगी।'
'बहनोई से शादी करके इन बच्चों को उतना ही प्यार करेगी जितना अपने बच्चों को?
'नहीं करेगी तो क्या? कमा तो रही ही है, - ऐसे ही बनी रहेगी।'

कितने कटाक्ष सुने होने उन्होंने , जब मैंने उनके लिए सुने। क्या किसी रिश्ते को नाम दिए बिना एक छत के नीचे नहीं रहने देगा यह समाज। या फिर मेरी शिक्षिका जैसा अदम्य साहस हो। बच्चों की शादी होने तक उन्होंने घर संभाला और फिर एक दिन किडनी फेल होने से चल बसी।

औरत को किसी भी उम्र में समाज की स्वीकृति से चलना चाहिए - ऐसा पुरूष के लिए नहीं है।

परसों ही कानपुर में शादीशुदा महिला अपने कारखाने से साधन न मिलाने पर अपने किसी सहकर्मी के साथ बाइक पर बैठ कर घर आ गई और पति ने देख लिया - फिर उसी रात उसको मार दिया गया , लाश बोरे में भरी, न आने पर सिर को आरी से काटकर अलग कर दिया और लाश बहुत दूर पिता और पुत्र ने जाकर नहर में फ़ेंक दी। पर सिर तो बरामद हो गया। सास ससुर और ननद ने अपराध कबूल कर लिया और पति फरार है।

ये हैवानियत नहीं तो क्या है? किस लिए औरत को इतना बाँध कर रखा जाता है, वह कमाने जाती है और घर भी संभालती है। तब तक सब खुश हैं लेकिन अगर वह किसी से लिफ्ट लेकर आ जाती तो गवारा नहीं है। क्यों आखिर क्यों। इसका जवाब हमें इस समाज से लेना हैं , जिसके लिए जिम्मेदार हैं हमारी खोखली मान्यताएं और संकीर्ण विचारों वाले परिवार । आप भी सोच कर बतलाइए की क्या ये सब सच नहीं है? अगर सच है तो इसके लिए क्या होना चाहिए? एक सभ्य समाज के आचरण में यह सब भी आता है क्या?

आप सोच कर बतलाइए , पढने वाले सभी प्रबुद्धजन कुछ तो सोचते होंगे इन सब के बारे में.

क्या इसी तरह होगा प्रताडित महिलाओं का उद्धार ..!!

उत्तर प्रदेश के सीतापुर ज़िले के सकारन गांव में रहने वाले 22 वर्षीय महावीर ने 60 साल की विधवा जानकी देवी की मांग में सिंदूर भरा है...बाकायदा अपनी पत्नी मान लिया है...दादी की उम्र वाली पत्नी...महावीर ने ये दौलत-जायदाद के लालच में नहीं किया है...न ही जानकी देवी पर लट्टू हो कर मुहब्ब्त वाला कोई किस्सा है...फिर उम्र के इतने फर्क के बावजूद शादी का फैसला क्यों...महावीर ने जानकी देवी की मांग में सिंदूर भर कर पत्नी तब बनाया जब जानकी देवी को उनके बेटों ने घर के बाहर निकाल दिया...देखें यहाँ


सचमुच यह भावुकता में लिया गया फैसला ही है ...इसका अंजाम सुखद होना नामुमकिन तो नहीं ...बहुत मुश्किल है ..
हमारी सामजिक व्यवस्था का यह पहलू मेरी समझ से बाहर है ...क्या दुखी. प्रताडित, अनाथ, उम्रदराज स्त्रियों की मदद उनसे विवाह कर के ही की जा सकती है ... ??
उनका उद्धार करने वाले युवक को शादी करना अनिवार्य होगा ..??
सहायता करने के बहुत सारे विकल्प और भी होते हैं विवाह के अतिरिक्त भी ..
आपका क्या कहना है ..??


कल जब सुमन जी ने नारी ब्लॉग पर लिखने के लिए आमंत्रित किया तब से ही सोच विचार में लगी थी ...कि जैसे तीखे तेवर इस ब्लॉग पर नजर आते हैं ...उनका कुछ प्रतिशत भी हमारे पास नही है ...हम तो हँसते हंसाते वार करने में रूचि रखते हैं ...मगर ये रब्ब ...बड़ा मेहरबान है ...दुविधा से उबार दिया ...बैठे बिठाये मिल गया मुद्दा भी ...सुमनजी को धन्यवाद देते हुए इस प्रविष्टि पर आप सबकी प्रतिक्रिया का बेसब्री से इन्तजार है ...

October 27, 2009

नीलिमा की पुरानी पोस्ट के बहाने

आईये आप को ले चले हिन्दी ब्लॉग जगत की उस पोस्ट पर जिस पर एक समय मे बड़ा हल्ला हुआ था । आप कहेगे आज क्यूँ ? कुछ इसलिये की जो नये आगंतुक हैं हिन्दी ब्लॉग जगत के वो जाने की क्या हैं इस हिन्दी ब्लॉग जगत का
इतिहास ।
आज सब भूल कर फिर नयी दिशा दी जा रही हैं पर क्या ये एक भूलने वाला आलेख हैं । और जिन जिन इन इस पोस्ट पर अपने बहुमूल्य विचार दिये हैं वो सब आज इस पोस्ट को भूल गए हैं ।

October 26, 2009

महिलाओं की उपस्थिति और बंदिशे अनुशासन की

इलाहाबाद की गोष्‍ठी के बाद महिलाओं की उपस्थिति के बारे में चर्चा हुई। वैसे यह आयोजकों का विषय है कि किसे बुलाए और किसे नहीं। लेकिन महिलाओं के प्रति एक विचित्र दृष्टिकोण रहता है, जो मुझे अनुभव से प्राप्‍त हुआ है। मैं विगत तीन वर्षों तक राजस्‍थान साहित्‍य अकादमी की अध्‍यक्ष रही हूँ। यह पद किसी भी प्रकार के आर्थिक लाभ का नहीं है। अर्थात पूर्णतया अवैतनिक है। एक साहित्‍यकार होने के नाते आपको जो पुरस्‍कार और सम्‍मान मिलने के अवसर होते हैं, वे भी आप खो देते हैं क्‍योंकि अब आप देने वाले बन जाते हैं। खैर, विषय है महिलाओं का। राजस्‍थान में दो लोगों का ही विरोध सर्वाधिक हुआ, एक तो मुख्‍यमंत्री वसुन्‍धरा राजे का और दूसरा मेरा। एक प्रमुख समाचार पत्र ने तो आखिरी के एक वर्ष में मेरे नाम अपना पूरा एक पेज ही कर दिया, विरोध के लिए। वे ऐसे लोगों को ढूंढते थे जो मेरे लिए अनर्गल लिख सकते थे। जैसे ही मेरा कार्यकाल समाप्‍त हुआ वह विशिष्‍ट पेज भी समाप्‍त हो गया। मुझे प्रतिदिन कहा गया कि आप महिला है इसलिए इतना विरोध और चारित्र-हनन है, लेकिन मैंने इसे कभी भी स्‍वीकार नहीं किया। मेरा कहना था कि चाहे पुरुष हो या महिला, अध्‍यक्ष होने पर जिन लोगों के स्‍वार्थ नहीं सधते हैं, विरोध होता ही है। लेकिन मैंने जब विश्‍लेषण किया तब एक बात निकल कर आयी कि ऐसे पद पर एक महिला होने के कारण पुरुष वर्ग में स्‍वाभाविक रूप से अनुशासन के प्रति पाबंदी होने लगती है। क्‍या कार्यालय में और क्‍या किसी भी कार्यक्रम में आप किसी भी अपशब्‍द का प्रयोग नहीं कर सकते, सभी प्रकारों के व्‍यसनों से दूर पुरुषों को रहना पड़ता है। शायद साहित्‍यकारों के लिए यह बहुत कठिन कार्य है। जब भी चार लोग एकत्र होते हैं, अनर्गल हँसी-ठटटा वो भी महिलाओं के लिए होता है। इसलिए किसी भी महिला का विरोध होता है और किसी भी कार्यक्रम में उन्‍हें नहीं बुलाने का बहुत बड़ा कारण भी उपस्थित रहता है। वह पुरुष ही क्‍या जो अपने आनन्‍द को नहीं खोजे? आप सब जानते हैं कि पुरुष का आनन्‍द केवल मात्र महिला ही है। वह स्‍वयं में पूर्ण नहीं है, उसे अपने आनन्‍द के लिए महिला का ही सहारा लेना पड़ता है।
एक अन्‍य उदाहरण देती हूँ, मैं विश्‍व हिन्‍दी सम्‍मेलन में भाग लेने न्‍यूयार्क गयी थी। भारत सरकार के द्वारा सम्‍मानित होने वाले साहित्‍यकारों में एक नाम मेरा भी था। इस‍ कारण हम भारत सरकार के द्वारा उपलब्‍ध वायुयान में गए थे। तो स्‍वाभाविक ही है कि उस वायुयान में सभी दिग्‍गज लोग थे। मुझे आज पहली बार यह लिखते हुए शर्म आ रही है कि जैसा प्रदर्शन हमारे वरिष्‍ठ लोगों ने वायुयान में किया वह शर्मनाक तो था ही लेकिन सम्‍पूर्ण साहित्‍य बिरादरी के लिए निन्‍दनीय भी था। मेरी जहाँ सीट थी, वह ऐयर हो्स्‍टेज के कमरे के पास थी। वह वहीं से सबको भोजन आदि दे रही थी। जब शराब परोसने का अवसर आया तब मैंने देखा कि कैसा वाहियात प्रदर्शन हमारे वरिष्‍ठों ने किया, मैं उनके नाम भी नहीं लिख सकती। ऐयर होस्‍टेज मेरे पास आयी और बोली कि क्‍या ये सब भी आपके साथ ही हैं? ये सारे ही क्‍या साहित्‍यकार हैं? क्‍योंकि न तो मैंने और न ही मेरे पति ने किसी भी प्रकार का पेय लेने से मना कर दिया था, इसलिए शायद वह मेरे पास आयी होगी? अब मैं क्‍या कहती? वे भी साहित्‍यकार थे और मैं भी। चाहे उनसे मेरा सरोकार था या नहीं, लेकिन बिरादरी तो एक ही हो गयी थी। आखिर विमान का केप्‍टन आया, विदेश विभाग के अधिकारी आए और आँखे झुकाए उनका तमाशा देखते रहे। फिर केप्‍टन ने सारे पर्दे लगाकर, डाँटकर, सोने का हुक्‍म सुना दिया।
मेरे यह सब लिखने का अर्थ केवल इतना ही है कि महिलाओं की उपस्थिति के कारण शराफत की जो बंदिशे आ जाती है, वे असहनीय होती है, पुरुषों के लिए। चाहे व्‍यसन नहीं करेंगे लेकिन छिछोरी टिप्‍पणियां करने में कोई भी नहीं चूकेगा। इसलिए महिलाओं के अधिकारों के लिए लड़ने से पहले समाज को और खासतौर से पुरुष वर्ग के चरित्र को सुधारने की आवश्‍यकता है। पुरातन काल में सारी तपस्‍या पुरुष ही करते थे, वो भी इन्द्रिय निग्रह के लिए। किसी भी महिला ने तपस्‍या नहीं की। उस काल में उन्‍हें बार-बार संस्‍कारित किया जाता था, लेकिन अब तो महिलाओं को भी असंस्‍कारित करने की मुहिम छिड़ी हुई है। ऐसे में कार्यक्रमों के आयोजक भी डरते हैं कि कोई नया विवाद न खडा हो जाए, इसलिए महिलाओं को बुलाओ ही नहीं। विषय बहुत लम्‍बा हो गया है इसलिए यही विराम देती हूँ।

October 25, 2009

उन दोनों के साथ इलाहाबाद मीट मे एक ही मंच पर बैठ कर वार्तालाप करने से ----- इत्यादि को कोई आपत्ति नही हुई क्यों ?

"पूरी आधी दुनिया ब्लॉग संगोष्ठी से गायब रही . आखिर क्यों ? उन्हें समुचित रूप से बुलाया नहीं गया या फिर अन्यान्य कारणों से वे नहीं आ पायीं ! नारी जो ठहरीं ? कौन जवाब देगा ? महज सुश्री मीनू खरे ,मनीषा पांडे और आभा दिखीं ! क्या 'त्रिदेवियों' की यह नुमायिन्दगी पर्याप्त है ? आप सोचें ! मेरा काम बस रपट कर देना है ! सो कर रहा हूँ ! स्थानीय नारी प्रतिभागिता भी नगण्य रही !" Arvind Mishra

ब्लॉग पर कोई पोस्ट पर सामूहिक बुलावा दिया गया हो तो कह नहीं सकती हाँ सूचना जरुर पढ़ी थी पर जिस तरह से विद टिकट बहुत से चुनिन्दा ब्लॉगर जो इलाहाबाद से बाहर के निवासी हैं उनको बुलाया गया शायद नारी ब्लॉग के किसी भी सदस्य को वो बुलावा नहीं दिया गया । आशा हैं आप के इस प्रश्न का उत्तर मिल गया होगा

"बेड टी के चक्कर में रवि जी ने मार्निंग वाक् करा दिया पूरे दर्जन भर लोगों को रवि जी ने ही चाय पिलवा दी -अपने बटुए से " Arvind Mishra
उम्मीद नहीं थी की आप को भी बेड टी की तलब होती होगी { क्लीयर कर दूँ मै नहीं पीती } या बाकी ब्लॉगर बेड टी लेते होगे क्युकी भारतीये संस्कृति और सभ्यता और पाश्चात्य सभ्यता की जब भी बात होती हैं आप को और बहुत से अन्य ब्लॉगर को मेरी सोच और मेरी बाते और मै पाश्चात्य सभ्यता के अनुयायी लगते हैं । मेरा इंग्लिश लिखना और पढ़ना पाश्चात्य सभ्यता का प्रतीक हैं तो बेड टी की तलब क्या हैं ? अगर सम्भव हो आप मे से किसी के लिये तो आज ज़रा बताये आप मे कितने हैं जो पाश्चात्य सभ्यता के अनुयायी नहीं हैंकौन नहीं हैं आप मे जो अग्रेजो की छोड़ी हुई सभ्यता को नहीं निभा रहा


देश के कुछ चुनिंदा ब्लागर जिन्हें बुलाया गया या फिर जो अपने से कोशिश करके इस सम्मेलन में आये हैं sanjay tiwari

"चुनिंदा ब्लागर , वरिष्ठ ब्लॉगर , हिन्दी साहित्य से जुडे ब्लॉगर" ये सब फैसले लेने का अधिकार किस का हैंआज तक हिन्दी ब्लॉगर असोसिएशन की भी कोई स्थापना नहीं हुई हैं और आप लोग ब्लॉगर को अपने हिसाब से बाँट रहे हैंकिस अधिकार से अगर किसी के पास जवाब हो तो दे

"मेरा सारा विरोध इस आयोजन में ऐसे शख्स को मुख्य वक्ता बनाने से है जिसका ब्लौग विधा से कोई लेना-देना नहीं है" मुनीश ( munish )

मुनीश ने सबसे पहले पोस्ट मे विरोध दर्ज कराया इस लिये सबसे सक्रिए ब्लॉगर तो वहीं हैं !!! या क्युकी वो भी ज्यादा इंग्लिश भाषा मे कमेन्ट करते हैं वो हिन्दी ब्लॉगर नहीं माने जायेगे ? फिर एक अनुतरित प्रश्न हैं

अब बात करते हैं उनकी जिनको आने का न्योता मिला और जो मंच पर बोले ।
वक्ताओ मे दो ऐसे वक्ता भी हैं जिन पर ना जाने कितनी पोस्ट लिखी गयी हैं क्युकी उन पर एक बार नहीं कई बार यौन शोषण का आरोप लग चुका हैं । नाम देने से क्या फरक पडेगा ? क्या हिन्दी ब्लॉग जगत की मेमोरी { यादाश्त } इतनी कमजोर हैं । उन दोनों के साथ इलाहाबाद मीट मे एक ही मंच पर बैठ कर वार्तालाप करने से अनूप शुक्ल , मसिजीवी , रविरतलामी , डॉ अरविन्द , मनीषा पाण्डेय , आभा और मीनू इत्यादि को कोई आपत्ति नही हुई क्यों ।
और संचालन समिति के लोग जब किसी को चुनिंदा ब्लागर कह कर महिमा मंडित करते हैं तो क्या उसके अतीत को पूरी तरह भूल जाते हैं ।
जिस समय इन लोगो के ख़िलाफ़ केस दर्ज था पुरा ब्लॉग जगत पोस्ट पर पोस्ट लिख रहा था , कमेन्ट पर कमेन्ट दे रहा था और आज उन्ही लोगो के साथ बैठ कर आप चाय पी रहे हैं , विचारों का आदान प्रदान कर कर रहे हैं और
बाकी सब को बता रहे हैं

"हिन्दी ब्लोगिंग का भविष्य कितना उज्जवल है "

कल से रपट दर रपट पढ़ कर लगा की अच्छा हुआ नहीं बुलाया , ऐसे लोगो के साथ अगर सम्बन्ध रख कर ही "हिन्दी ब्लॉगर " कह लाया जा सकता हैं तो हम हिन्दी ब्लॉगर ना ही कहलाये तो सही हैं । जिन लोगो का सामाजिक् बहिष्कार होना चाहिये उनका हम महिमा मंडन करते हैं और जो इस के ख़िलाफ़ लिखता हैं उसके कपड़ो को लेकर उसकी मानसिकता को लेकर पोस्ट दर पोस्ट लिखते हैं और उसके बदलने का इंतज़ार करते हैं

आज जरुर सोचे की कौन भारतीये सभ्यता का कितना बड़ा उपासक हैं और कौन हिन्दी ब्लॉगर हैं और किस को मंच स्पेस दे कर आप ने एक मंच का अपमान ही किया हैं ।

कहीं भी कोई भी सभा हो और हिन्दी आगे जाए किसे अच्छा नहीं लगेगा लेकिन हिन्दी को आगे ले जाने के होड़ मे ब्लॉगर अपना धर्म ही भूल जाए ।

ब्लॉगर का धर्म होना चाहिये कि " जो सही ना लगे उसके ख़िलाफ़ इस सार्वजनिक मंच पर आवाज उठाओ " और मै नारी ब्लॉग के माध्यम से इलाहाबाद मे हुई मीट के प्रति अपना असंतोष दर्ज कराती हूँजो हुआ ग़लत हुआ ।

October 22, 2009

आप को क्या लगता हैं "तपस्या" की बिदाई के बाद कहानी को क्या मोड़ दिया जायेगा ।

धारावाहिक "उतरन " कहानी का अगला मोड़ क्या होगा ? क्या आज आप अपनी कल्पना शक्ति से उस मोड़ को यहाँ मुझ से बाँटेगे ।

आप को क्या लगता हैं "तपस्या" की बिदाई के बाद कहानी को क्या मोड़ दिया जायेगा ।

और क्या असली जिन्दगी मे भी ये सब सम्भव हैं ?

October 19, 2009

१०० फोलोअर

नारी ब्लॉग के अब १०० फोलोअर हैं । आज देखा तो लगा चलो सौ लोग तो हमे पढ़ने के लायक समझते हैं । ब्लॉग जगत मे हमारी उपस्थिति से कम से सो लोग तो वाकिफ हैं !!!!!!



सुमन
मोडरेटर नारी ब्लॉग

October 15, 2009

दीपावली पर एक मुहीम चलाये - भेट स्वदेशी दे

दिवाली रही हैं और एक दूसरे के घर भेट भी ले जाई जाती हैं मिठाई का प्रचलन कम हो रहा हैं और जिस प्रकार से मिठाई मे मिलावट रही हैं तो घर की बनी मिठाई ही एक मात्र आसरा हैं !!!!

आप से आग्रह हैं की हो सके इस दिवाली उन जगहों से समान ले जहाँ हमारे अपने लोगो की बनायी वस्तुए मिलती हैं मै आज खादी ग्राम शिल्प से बहुत सा समान लाई नैचुरल चीजों के फैशन को देखते हुए वहाँ तरह तरह के शैंपू , साबुन और सौन्दर्य प्रसाधन जो बहुत कम पैसे के हैं एक नैचुरल साबुन की टिक्की महज ४० रुपए की हैं जो माल मे २०० रुपए की मिलती हैं क्युकी वो ईजिप्ट या ग्रीस से इंपोर्ट की होती हैं गिफ्ट पेक भी मिल रहे हैं

महिला के लिये साडिया और सूट हैं जिनके दाम बहुत कम हैं और अब डिजाईन बहुत खुबसूरत हैं पुरुषों के लिये कोटन की शर्ट केवल ३२५ मात्र मे हैं और उस पर भी २० % का डिस्काउंट दे रहे हैं

अगर आप अपनी कोटेज इंडस्ट्री को बढावा दे तो यहाँ लोगो को कुछ काम ज्यादा मिलेगा खरीदेगे तो आप हैं ही सो क्यूँ ना ऐसी जगह से खरीदे जहाँ अपने देश की वस्तु मिल रही हैं इस रिसेशन के दौर मे अपने घर के लोगो को काम मिले यही ख्याल हैं मन मे इस पोस्ट को लिखते समय

आप जब भी प्रगति मैदान जाये और वहाँ सरस का पवेलियन देखे तो अन्दर जरुर जाये और कुछ जरुर ले इस इंडस्ट्री को आप के प्रमोशन की जरुरत हैं अगर ४० रुपए मे काम हो सकता हैं तो ४०० क्यूँ खर्च किये जाये

सरस और खादी दोनों जगह स्कर्ट और टॉप भी बहुत ही बढिया मिल रहे हैं और आज की जनरेशन के लिये बहुत सुंदर हैं कोई भी पहनावा बुरा नहीं होता पहनावा बस आप पर जंचना चाहिये और आप को उसको पहन कर सुकून मिलना चाहिये भाषा और पहनावा कोई भी हो पर मन मे अपने देश , अपने संस्कारो के प्रति आस्था होनी चाहिये और जहाँ तक सम्भव हो हर स्वदेशी वस्तु को ही खरीदना चाहिये ताकि अपने लोगो को काम मिले

देश मे अमन चैन रहे और हम अपने देश के लिये मरने के लिये तैयार रहे क्युकी देश से बड़ा कुछ नहीं होता

आप सब को दिवाली की शुभ कामनाये हर दिवाली एक दीपक ऐसा जलाए जिस मे अपने अंदर की हर बुराई की बाती बनाये और उसको जलाए उस दिये मे तैल को अपनी कमजोरियां माने ताकि आप की बुराइयां और कमजोरियां दोनों स्वत ही ख़तम हो जाए

शुभ दीपावली
वंदे मातरम
जय हिंद

October 13, 2009

दीपावली पर एक मुहीम चलाये - भेट स्वदेशी दे

दिवाली आ रही हैं और एक दूसरे के घर भेट भी ले जाई जाती हैं । मिठाई का प्रचलन कम हो रहा हैं और जिस प्रकार से मिठाई मे मिलावट आ रही हैं तो घर की बनी मिठाई ही एक मात्र आसरा हैं !!!!

आप से आग्रह हैं की हो सके इस दिवाली उन जगहों से समान ले जहाँ हमारे अपने लोगो की बनायी वस्तुए मिलती हैं । मै आज खादी ग्राम शिल्प से बहुत सा समान लाई । नैचुरल चीजों के फैशन को देखते हुए वहाँ तरह तरह के शैंपू , साबुन और सौन्दर्य प्रसाधन जो बहुत कम पैसे के हैं । एक नैचुरल साबुन की टिक्की महज ४० रुपए की हैं जो माल मे २०० रुपए की मिलती हैं क्युकी वो ईजिप्ट या ग्रीस से इंपोर्ट की होती हैं । गिफ्ट पेक भी मिल रहे हैं ।

महिला के लिये साडिया और सूट हैं जिनके दाम बहुत कम हैं और अब डिजाईन बहुत खुबसूरत हैं । पुरुषों के लिये कोटन की शर्ट केवल ३२५ र मात्र मे हैं और उस पर भी २० % का डिस्काउंट दे रहे हैं ।

अगर आप अपनी कोटेज इंडस्ट्री को बढावा दे तो यहाँ लोगो को कुछ काम ज्यादा मिलेगा । खरीदेगे तो आप हैं ही सो क्यूँ ना ऐसी जगह से खरीदे जहाँ अपने देश की वस्तु मिल रही हैं । इस रिसेशन के दौर मे अपने घर के लोगो को काम मिले यही ख्याल हैं मन मे इस पोस्ट को लिखते समय ।

आप जब भी प्रगति मैदान जाये और वहाँ सरस का पवेलियन देखे तो अन्दर जरुर जाये और कुछ जरुर ले । इस इंडस्ट्री को आप के प्रमोशन की जरुरत हैं । अगर ४० रुपए मे काम हो सकता हैं तो ४०० क्यूँ खर्च किये जाये

सरस और खादी दोनों जगह स्कर्ट और टॉप भी बहुत ही बढिया मिल रहे हैं और आज की जनरेशन के लिये बहुत सुंदर हैं । कोई भी पहनावा बुरा नहीं होता । पहनावा बस आप पर जंचना चाहिये और आप को उसको पहन कर सुकून मिलना चाहिये । भाषा और पहनावा कोई भी हो पर मन मे अपने देश , अपने संस्कारो के प्रति आस्था होनी चाहिये और जहाँ तक सम्भव हो हर स्वदेशी वस्तु को ही खरीदना चाहिये ताकि अपने लोगो को काम मिले ।

देश मे अमन चैन रहे और हम अपने देश के लिये मरने के लिये तैयार रहे क्युकी देश से बड़ा कुछ नहीं होता ।

आप सब को दिवाली की शुभ कामनाये । हर दिवाली एक दीपक ऐसा जलाए जिस मे अपने अंदर की हर बुराई की बाती बनाये और उसको जलाए । उस दिये मे तैल को अपनी कमजोरियां माने ताकि आप की बुराइयां और कमजोरियां दोनों स्वत ही ख़तम हो जाए

शुभ दीपावली
वंदे मातरम
जय हिंद

October 12, 2009

आप पुरूष हैं और कुछ भी कह लेगे इस अहम् से उठ कर एक बार अपनी माँ को दोनों लेख पढ़वाए

मैने अपना प्रोफाइल शायद जुलाई के आखरी हफ्ते से ही बंद कर दिया था और मेरे ब्लॉगर मित्र इस बात को जानते हैं । उस दिन जब पोस्ट डाली तो चंद मिनट के लिये प्रोफाइल को खोला था और फिर बंद कर दिया । प्रोफाइल बंद नहीं किया हैं , बस उसको गूगल की दी हुई सुविधा के तहत शेयर नहीं किया हैं ।

ये एक परम्परा हैं हिन्दी ब्लोगिंग की , कि अगर किसी भी मुद्दे पर महिला लिखे तो सबसे पहले बात उसके चरित्र कि करो , उसके शील कि करो , उसके कपड़ो कि करो और उसको डराओ ।

अब ब्लोगिंग मे ये परम्परा कहा से आयी हैं , हमारे समाज से जहाँ औरत / नारी एक दोयम हैं । इस नारी ब्लॉग को
शुरू करने कि वज़ह भी यही सोच थी कि एक बार आईना दिखाए हम समाज को

नारी किसी भी धर्म कि अनुयायी हो उसको "एक दायरे " मे रहना होगा । ये बताने के लिये जिन जिन को अपनी पोस्ट मेरे ऊपर लिखनी पडी या ब्लॉग से ब्लॉग जा कर अपनी बात कहनी पडी कमेन्ट मे वो सब बेकार अपनी उर्जा व्यर्थ कर रहे हैं ये बात तो मै पहले से ही जानती हूँ ।


अब एक बात पूछती हूँ वो सब जिनको मेरी पिछली पोस्ट से ये लगा कि भारतीये संस्कृति डूब रही हैं उनको प्रोफाइल बंद होने से खुश होना चाहिये था क्युकी वही तो चाहते हैं कि मै घूँघट मे रहू !!!!!!!!!!!


रही बात आप के पुरूष होने कि ताकत से डरने कि , तो ये ना भूले कि किसी भी नारी के लिये पुरूष वही होता हैं जिसको वो पुरूष समझती हैं बाकी सब उसके लिये बच्चो के समान होते है या उनका अस्तित्व ही उस नारी के लिये नहीं होता हैं ।

कल सोच रही थी क्या आप मेरी और अपनी दोनों कि पोस्ट अपनी माँ को पढा सकते हैं , अगर पढा सकते हैं तो पढाये और फिर मुझे बताये वो क्या कहती हैं । मेरे लिखे और अपने लिखे का आकलन अपनी माँ से कराये जरुर और अपनी राय अपने ब्लॉग पर लिखे ।

आप पुरूष हैं और कुछ भी कह लेगे इस अहम् से उठ कर एक बार अपनी माँ को दोनों लेख पढ़वाए

और इस पोस्ट पर कमेन्ट करने से पहले देख ले सन्दर्भ क्या हैं वो कमेंट्स जो सन्दर्भ से जुडे हुए नहीं हैं डिलीट कर दिये जाए तो ही विषय परिवर्तन नहीं होगा

October 11, 2009

"एकल नारी शक्ति संस्थान "

भारत मे "सिंगल वूमन" की संख्या आज ३६ मिलियन हैं । ये वो नारियां हैं कानून तलक शुद्दा या विधवा हैं या छोड़ी हुई हैं । इन सभी को अपनी जिंदगी मे वो अधिकार नहीं हैं जो मूलभूत अधिकार माने जाते है । इनका राशन कार्ड , बी पी अल कार्ड या जॉब कार्ड नहीं बनता हैं अगर वो किसी भी रिश्तेदार के यहाँ रहती है । इसके आलवा उनको कोई भी स्वास्थ्य संभी सुविधाए भी अधिकार से नहीं उपलब्ध होती हैं । सम्पत्ति मे अधिकार भी बहुत कठिन हैं उनके लिये ।

वूमन एक्टिविस्ट ये मानते हैं की ३६ मिलियन संख्या केवल एक संख्या हैं क्युकी इसमे अविवाहित और गैर कानूनी रूप से पति या पिता के घर से अलग की गयी नारियों की गिनती नहीं की गयी हैं । ३६ मिलियन की आबादी कनाडा जैसे देश की आबादी हैं और आज भी हमारे देश मे इन महिला के लिये कानून और सारकार मे कोई बदलाव और जाग्रति नहीं हैं । सारकार की कोई भी पॉलिसी इनके लिये अलग से नहीं बनी हैं जिसमे इनके मूल भुत अधिकारों का ध्यान रखा गया हो ।


"एकल नारी शक्ति संस्थान " की स्थापना राजस्थान मे हो चुकी हैं और इस संतान ने भीर , गुजरात , हिमाचल प्रदेश और झारखंड मे सिंगल वूमन के लिये अलग राशन कार्ड की सुविधा को शुरू करवाया हैं ।

इस संस्थान की एक रैली नयी दिल्ली मे भी हुई हैं और २४००० हस्ताक्षर के साथ अपनी मांगो का एक मेमोरेंदम
प्रधान मंत्री को दिया गया हैं । इसमे प्रोपटी मे अधिकार , राशन कार्ड , जॉब कार्ड के अलावा और भी बहुत से अधिकारों के बारे मे बात की गयी हैं ।

सिंगल महिला होना कोई अजूबा नहीं हैं , कभी ये मज़बूरी थी और कभी ये अपनी चोइस भी हैं और समाज को अब इनकी तरफ़ ध्यान भी देना होगा ।

कुछ सम्बंधित लिंक




October 07, 2009

सलीम खान मै मुस्लिम धर्म अपनाना चाहती हूँ बशर्ते

सलीम खान मै मुस्लिम धर्म अपनाना चाहती हूँ बशर्ते की आप किताबी बान्ते छोड़ कर व्यवहारिक बातो मै मुझे ये कन्फर्म कर दे । मै ज्यादा पढ़ी लिखी नहीं हूँ सो कुरान और रामायण के बीच की दूरी पर बात नहीं कर सकती लेकिन मुस्लिम धर्म कबूल करना हैं तो आप से बेहतर कौन होगा , यही सोच कर ये पोस्ट लिख रही हूँ । ईमानदारी से जवाब की अपेक्षा रखती हूँ ।

मै बुरका नहीं पह्नुगी
मै स्कर्ट , शर्ट , जींस पह्नुगी { हिंदू धर्म के ठेके दार अगर मुझे ये नहीं करने देते तो मै उनके मुह पर अपना सविधान मारती हूँ और अपनी पसंद के वस्त्र पहनती हूँ } क्या मुस्लिम धर्म कबूल करने के बाद भी मै अपने पसंद के वस्त्र पहने के मुलभुत अधिकार का प्रयोग कर पाउंगी ???

मै जब भी शादी करुँगी , मेरे जो भी बच्चे होगे उनके नाम के साथ मेरा भी नाम लिखवाया जाएगा { हिंदू धर्म के ठेकेदार नहीं करने देते तो फिर मै संविधान की बात करती हूँ } और मुझे मेरा अधिकार मिल जाता हैं । क्या मुस्लिम धर्म भी ये अधिकार मुझे देगा ??

मेरे पति को अगर ४ शादियाँ करना के अधिकार होगा तो क्या मुस्लिम धर्म मुझे भी चार शादिया करने देगा ? देगा ना सलीम भाई सच बोलना और ये ना कहना की औरतो के लिये ये ठीक नहीं हैं क्युकी मेरा संविधान कहता हैं की पुरुषों के लिये भी ये ग़लत हैं

मै एक वक्त भी नमाज नहीं पढूंगी और ना ही कुरान पढूंगी , हिंदू धर्म मै कहीं भी रामायण पढ़ने को जरुरी नहीं बताया हैं , क्या मुस्लिम धर्म भी मुझे मेरी अस्मिता के साथ रहने देगा ? बोलो सलीम भाई देगा ना ?

मै देर रात तक ऑफिस मै काम करती हूँ सो दस बजे दे पहले घर नहीं आ सकती , अब औरतो के काम करने मै तो किसी भी धर्म को कोई आपत्ति नहीं रहगयी हैं सो मुस्लिम धर्म को भी नहीं ही होगी मै ये मान कर चल रही हूँ पर भाई सलीम इसको कन्फर्म करदो , अब मुस्लिम धर्म कबूल करना हैं तो कांफिर्मेशन तो चाहिये ही ?

हाँ सलीम भाई एक बात तो भूल ही गयी , जब मेरी शादी होगी तो मेरे पति को मेरी चुन्नी पर पैर रखने का अधिकार नहीं होगा , मुस्लिम धर्म कबूल करने के बाद ये रियायत तो आप दिलवा ही सकोगे ना ??

मेरे अगर लड़की हो या लड़का , तो मुझे मुस्लिम धर्म ये अधिकार देगा ना की मै उनको मदरसे मे ना पढा कर किसी सरकारी स्कूल मे पढा सकूँ , ये अधिकार मिलेगा ना मुस्लिम धर्मं मे की मे अपने बच्चो का भविष्य सुरक्षित कर सकूँ ?

ये तो मेरी बुनयादी जरूरते हैं सलीम भाई , और क्युकी आप निरंतर बड़ी बड़ी किताबे पढ़ कर अपने ब्लॉग पर मुस्लिम धर्मं का प्रचार कर रहे हैं और उसमे औरत हिंदू धर्मं से ज्यादा महफूज रहेगी ये बता रहे हैं तो मेने सोचा आज आप से पूछ ही लूँ


और एक बाद ध्यान रखना सलीम भाई , आप के धर्म मे भी अगर एक औरत किसी को भाई कह दे तो उसको गाली नहीं देते हैं और ना ही उस से बदजुबानी कर ते हैं सो अगर एक भी अपशब्द आप का या आप की किसी भी मुस्लिम भाई का इस पोस्ट पर आया तो मै यहीं मानूगी की आप सच्चे मुसलमान नहीं हो

आप की बहिन
रचना
आप के जवाब के इंतज़ार मे



और
अगर ये सब बाते करना किसी नारी के लिये ठीक नहीं हैं और उसको इन प्रश्नों को कर का अधिकार ही नहीं तो भैया सलीम नारी को लेकर चिंतित ना हो क्युकी उसकी स्थिति हर धर्म मे कोई ज्यादा अच्छी नहीं और अपनी स्थिति को सुधारने के लिये नारी ख़ुद सक्षम हैं सके लिये नारी के सुधार की बात करने के बहाने मुस्लिम धर्म के प्रचार को ना आगे बढाये नारी को अपनी धर्म की बातो से दूर ही रखे


हेडिंग मे जो बशर्ते हैं वो कहता हैं " नारी अब अपनी जिन्दगी अपनी शर्तो पर जीना चाहती हैं "

October 05, 2009

अपराध बोध की भावना से देखा गया हैं की नारी / औरत ही ज्यादा ग्रसित रहती हैं ।

अपराध बोध की भावना से देखा गया हैं की नारी / औरत ही ज्यादा ग्रसित रहती हैं । पुरूष अपने किसी भी कृत्य को आपराध बोध से नहीं देखता हैं । औरत /नारी अगर धूम्र पान करती हैं तो कहीं ना कहीं , जब भी एक आत्मस्वीकृति करती हैं कि जो उसने किया वो "गलत " था इस लिये छोड़ दिया ।

लेकिन वही पुरूष जो धुम्रपान करते हैं उनमे अपराध बोध नहीं देखा जाता । उनकी आत्मस्वीकृति मे केवल कहा जाता हैं मज़े के किये था फिर मन नहीं किया तो छोड़ दिया या डॉ ने कहा छोड़ दो तो छोड़ दियाइस मे धुम्रपान करना और छोड़ना मात्र एक क्रिया हैं कोई अपराध बोध नहीं

उसी तरह नारी अगर विवाह पूर्व प्रेम करती हैं और उसका विवाह किस और से होता हैं तो निरंतर एक अपराध बोध से वो त्रस्त दिखती हैं की किसी को पता ना लगे ,

और पुरूष का प्रेम करना उसके लिये एक उपलब्धि हैं जिसको वो विवाह के बाद भी अपनी पत्नी को { अगर उस स्त्री से विवाह नहीं हुआ हैं जिस से प्रेम था } सुना सकता हैं

आदतन तो औरत को ही व्रत उपवास रखते देखा गया हैं , रुढिवादिता का ठेका नारियों ने ख़ुद ही ले रखा हैं और फिर ख़ुद ही वो रुढिवादिता से मुक्ति भी चाहती हैं । पहले व्रत करेगी फिर गलती से कहीं एक भी रस्म गलत होगई तो अपराध बोध से घिर जायेगी और अमंगल की आशंका से भर जायेगी । वही पुरूष व्रत उपवास से दूर रहता हैं और अगर करता भी हैं तो किसी पर कोई एहसान नहीं करता और किसी वज़ह टूट भी जाए व्रत तो अमंगल की आशंका उसको नहीं सताती हैं ।


October 02, 2009

नैतिकता पर महात्मा गाँधी ने कहा था .......

नैतिकता पर महात्मा गाँधी ने कहा था

Gandhi's Words

MORAL FORCE/MORALITY

Moral results can only be produced by moral restraints।

Moral authority is never retained by any attempt to hold on to it। It comes without seeking and is retained without effort.

True morality consists not in following the beaten track, but in finding out the true path for ourselves and in fearlessly following it.

To observe morality is to attain mastery over our mind and our passions.

Performance of duty and observance of morality are convertible.

हमें नैतिकता का पालन करना चाहिये

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