" जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की " "The Indian Woman Has Arrived " एक कोशिश नारी को "जगाने की " , एक आवाहन कि नारी और नर को समान अधिकार हैं और लिंगभेद / जेंडर के आधार पर किया हुआ अधिकारों का बंटवारा गलत हैं और अब गैर कानूनी और असंवैधानिक भी . बंटवारा केवल क्षमता आधारित सही होता है
हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।
15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं
15th august 2012
१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं
"नारी" ब्लॉग
" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "
October 31, 2008
सऊदी अरब में खुलेगा पहला महिला विश्वविद्यालय
विश्वविद्यालय का नाम शहजादी नूरा बिन्त अब्दुल रहमान के नाम पर रखा गया है। विश्वविद्यालय में फार्मेसी, प्रबन्धन, कंप्यूटर साइंस और विभिन्न भाषाओं के पाठयक्रम होंगे। ये ऎसे विषय हैं जिनके अध्ययन के लिए मौजूदा विश्वविद्यालयों में सहशिक्षा की व्यवस्था है।
वित्तमंत्री इब्राहिम अल असफ ने आधारशिला रखे जाने के मौके पर कहा कि शक्तिशाली इस्लामी व्यवस्था महिलाओं में शिक्षा प्रसार के रास्ते में अभी बडी रूकावट रही है। लेकिन शाह अब्दुला के खुले विचारों के कारण देश में सुधारों की ऎसी प्रक्रिया शुरू हुई है,जिसमें महिलाओं को पुरूषों के समान शिक्षा और रोजगार के अवसर दिलाने के प्रयास हो रहे हैं। और नया विश्वविद्यालय इस दिशा में एक बडा कदम है।
समाचार इस लिंक से
हिन्दुस्तान अखबार में .. "कुछ मेरी कलम से" .चर्चा ब्लॉग चर्चा में की गई है
हिन्दुस्तान अखबार में .. "कुछ मेरी कलम से" .चर्चा ब्लॉग चर्चा में की गई ...यह चर्चा मनविंदर की कलम से की गई हैधीरे धीरे ही सही प्रिंट मीडिया मे उन ब्लोग्स का जिक्र होने लगा हैं जिन मे महिलाए निरंतर
अपने विचार रख रही हैं ।रंजना की कविताए जितनी सुंदर और भावः पूर्ण हैं उनका लेखन भी उतना ही सारगर्भित होता हैं ।
रंजना को बधाई और मनविंदर जी का आभार की हिन्दी ब्लॉग जगत मे नारी के योगदान को निरंतर प्रिंट मीडिया मे छाप रही हैं ।
October 30, 2008
विश्वनाथन आनन्द को वर्ल्ड चेस चैंपियनशिप जीतने पर हार्दिक बधाई ।

कल रात को विस्वनाथान आनंद ने दुबारा भारतीये तिरंगा ऊंचा किया और शतरंज का विश्व चैम्पियन खिताब एक बार फिर अपने नाम किया । क्रिकेट के अलावा भी भारतीये खिलाडी निरंतर भारत की शान बढ़ा रहे हैं । ये मुकबला बोन्न मे हो रहा था । व्लादिमीर क्रामनिक जो रशिया के माने हुए खिलाडी हैं उन्होने २४ मूवस के बाद निर्णायक बाज़ी को बराबर मानकर अपनी हार स्वीकार की ।
जय हिंद जय भारत
October 28, 2008
गौना करने के लिये बेटी की नौकरी का नियुक्ति पत्र बेच दिया पिता ने और मै स्वाभाविक रूप से इस मे नारी -पुरूष भेद भाव देख रही हूँ ।
सोल कर्री { Soul Curry } नाम से एक कालम टाईम्स ऑफ़ इंडिया मे नियमित आता हैं और मै नियमित रूप से उसको पढ़ती भी हूँ । उस कालम मे लोग अपने अनुभव लिखते हैं , वो अनुभव जो कही न कहीं उनकी आत्मा को छूते हैं । इस कालम को लिखने वाले साहित्यकार नहीं होते हैं पर जो लोग मन की बातो को अभिव्यक्ति देना चाहते हैं अखबार उनके अनुभव साभार छापता हैं ।
इस बार जो अनुभव छापा वोह एक डिस्ट्रिक एजूकेशन ऑफिसर का था । उन्होने लिखा की एक बार वो बहुत दुविधा मे पड़ गए जब लड़की ने उनको बताया की उसने "शिक्षा मित्र " की पोस्ट के लिये अपने ग्राम पंचायत के प्राईमरी स्कूल के लिये अर्जी दी थी और उसके प्रथम और मेरिट सूची मे आने के बाद भी उस ब्लाक का SDI उसका नाम डिस्ट्रिक्ट ऑफिस मे नहीं भेज रहा । लड़की ने ये भी बताया की वो शादी शुदा हैं और अगर उसका गौना हो जाता हैं तो वो दूसरी ग्राम पंचयात मे चली जायेगी और फिर ये नौकरी उसको नहीं मिल सकती । लड़की ने कहा की देरी जान बुझ कर की जारही हैं क्युकी दुसरे नम्बर पर एक लड़का हैं और संभवता SDI ने उससे रिश्वत ली है ।
डिस्ट्रिक एजूकेशन ऑफिसर ने लड़की से कहा की वो छान बीन करेगे और जल्दी से जल्दी इस नियुक्ति को करने की कोशिश करेगे ।
आगे डिस्ट्रिक एजूकेशन ऑफिसर लिखते हैं की शाम को लड़की का पिता उनसे मिलने आया और उसने डिस्ट्रिक एजूकेशन ऑफिसर से कहा की वो कोई छान बीन ना करे । पिता ने कहा की जो लड़का दूसरे नम्बर पर हैं उसने उनको इतना रुपया दे दिया हैं की वो आसानी से गौने का खर्चा उठा सकते हैं ।
डिस्ट्रिक एजूकेशन ऑफिसर ने कथा को यही समाप्त कर दिया ये कह कर की उसी दिन उनका ट्रान्सफर हो गया पर आज भी वो सोचते हैं कि उस लड़की का क्या हुआ होगा ??
जब मैने ये कालम पढा तो सोचा ब्लॉग पर इसको जरुर बाटूंगी पर उस से पहले ही सत्यार्थमित्र पर सिदार्थ ने इस को अपने मित्र स्कन्द शुक्ला की दुविधा के नाम से छापा । जितनी भी टिपण्णी आयी सब मे ये कहा गया की ये ग़लत हैं लड़की को उसकी नौकरी मिलनी चाहिये ।
रौशन जी ने स्पष्ट रूप से "लड़कियों के प्रति भेद करने वाली मानसिकता को रोकना चाहिए" कहा
रौशन said...
द्विवेदी जी के जवाब से काफ़ी बातें स्पष्ट हो गई हैं. जब हमने स्कंध जी का आलेख आज सुबह पढ़ा तो हमारा मस्तिस्क बिल्कुल स्पष्ट था. स्कंध जी पढ़े लिखे और जिम्मेदार पड़ पर स्थापित शख्स है तो उन्हें समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करना चाहिए था और लड़कियों के प्रति भेद करने वाली मानसिकता को रोकना चाहिए था। शायद ये ऐसा मामला था जिसमे उन्हें तुरत कार्यवाही करना चाहिए था.लड़की पिता के पीछे चाहे जो सामाजिक मजबूरियां रही हों पर ये कुल मिला कर भ्रष्टाचार, जोड़ तोड़ और असमानता को बढ़ावा देने वाला मामला था. स्कन्द जी ने सोचने में देरी कर के एक सुनहरा मौका गवां दिया.
इस पर स्कन्द शुक्ला जी जिनका आलेख पेपर मे छपा था वो लिखते हैं
skand shukla said...
It's very easy to say to have selected the lady for those who cannot imagine the plight of her poor father। The father has to live in his society not in that of Roshanji. Would the socity have left him unscathed had he postponed her 'gauna'? We should remember that the father is not against his daughter working,(it was he who got her educated) but he is bogged in his circumstances. It must not be forgotten that the incident has emotional aspects apart from economic.
और फिर मेरे इंग्लिश मे ये कमेन्ट करने पर
कि मुझे खुशी हुई की इस डिस्ट्रिक ऑफिसर का ट्रान्सफर कोई निर्णय लेने से पहले ही हो गया क्युकी अगर एक सरकारी अधिकारी को सामजिक कुरीति पशोपेश मे डाल सकती हैं तो उसको अधिकार ही नहीं हैं उस जगह रहने का .
स्कन्द शुक्ला जी ने कहा कि उनका लेख केवल एक साहितिक कृति थी और उन्होने ये भी कहा
"With all respects to the feminist( of the bra-burning variety)i would like to stress that i have not written a sociological/economic treatise। "
इसके बाद अनूप शुक्ल ने अपने अंदाज मे इस को चिट्ठा चर्चा का विषय बनाते हुए लिखा
"ज्ञानदत्तजी, द्विवेदीजी के साथ मेरा मत भी है कि ऐसी स्थिति में अधिकारी को अपना काम नियम के अनुसार करना चाहिये। इस तरह के निर्णयों के दूरगामी परिणाम होते हैं। अगर नियमानुसार लड़की की नियुक्ति , भले ही वह कुछ ही दिन वहां रहकर काम करे , होनी चाहिये तो इसको दुविधा का सवाल नहीं बनाना चाहिये।हमारे एक अधिकारी अक्सर कहा करते हैं- अगर आपको सामाजिकता, उदारता निभानी है तो अपने व्यक्तिगत पैसे/खर्चे से दिखाइये। सरकारी अधिकारों का दुरुपयोग करके नहीं।"
और इसके आगे अनूप शुक्ल ने लिखा
"रचना सिंह जी ने इसे स्वाभाविक तौर पर इसे नर बनाम नारी का मुद्दा बनाया। जबकि यह बात नर-नारी की उतनी नहीं है जितनी कि उस जिस व्यक्ति को जो अधिकार मिलना चाहिये उसको मिलने न मिलने की है। "
अब मैने ही नहीं रौशन ने भी इसे नारी के प्रति भेद वाली मानसिकता कहा लेकिन अनूप शुक्ल को केवल मेरा लिखना स्वाभाविक तौर पर ग़लत लगा !! अगर ये नारी के प्रति ग़लत मानसिकता नहीं हैं तो क्या कभी कही भी किसी लड़के का नौकरी का नियुक्ति पत्र बेच कर उसकी शादी कि जाती हैं । अनूप शुक्ल ने कही पढा हो तो बताये ।
पाठको से कुछ प्रश्न हैं
अगर दुसरे नम्बर पर लड़का ना हो कर लड़की होती तब क्या होता ??
अगर लड़की कि ससुराल वालो को काम काजी बहु चाहिये होती तब क्या होता ?
क्या किसी भी सरकारी अफसर को ये अधिकार हैं कि वो सामजिक व्यवस्था का निर्णायक बने ?
पता नहीं कब तक लड़कियों कि "चाहतो " कि बलि ये कह कर दे जाती रहेगी कि " उनके लिये ये सही हैं और ये ग़लत "
एक लड़की जो नौकरी करना चाहती हैं उसके साथ ये खिलवाड़ किसी को अधिकार दिलाने के जितना छोटा मुद्दा जिनको लगता हैं वो सब स्वाभाविक रूप से आज भी अपनी बेटी को केवल और केवल एक बोझ समझते है ।
अफ़सोस होता कि जहाँ भी नारी का शोषण होता हैं वहाँ कुछ लोग स्वाभाविक रूप से केवल और केवल अधिकार कि बात करते हैं पर जब "नारी" या "चोखेर बाली" ब्लॉग पर "समान अधिकार " कि बात होती हैं तो हम को "पुरूष विरोधी " कहा जाता हैं ।
शायद "अधिकार " शब्द कि परिभाषा " स्वाभाविक रूप " से स्त्री और पुरूष के लिये अलग अलग है 
लिंक्स
चिट्ठा चर्चा: जो दीप उम्र भर जलते हैं वो दीवाली के मोहताज नहीं होते
October 27, 2008
आप सब को सपरिवार दिवाली शुभ हो
दिवाली के दीप मे
तैल नहीं प्यार हैं
और बाति नहीं
दुश्मनी जल रही हैं
आप सब को सपरिवार दिवाली शुभ हो
और
मेरे देश मे दिवाली पर आतंकवादी धर्म का बहिष्कार हो .
October 25, 2008
कुछ बन तो जाऊं लेकिन........
October 24, 2008
'मैं भी कुछ बन सकती थी'

जरूरी नहीं था कि वो आसमान की ऊंचाइयां छूने की प्रतिभा रखती हो लेकिन उसमें इतनी प्रतिभा तो थी कि वो ज़मीन पर तनकर चल सके। अपनी समझ के दायरे से अपने लिए अच्छा-बुरा सोच सके। इतना यक़ीन उसे खुद पर था। उसके मां-बाप को भी उस पर इतना यक़ीन था। लेकिन फिर भी वो उसका हाथ एक योग्य व्यक्ति के हाथ में देकर मुक्त हो जाना चाहते थे। वो अच्छे थे। वो उसके भविष्य को लेकर चिंतित थे। इसीलिए उसने एक अच्छा कमानेवाले लड़के को देखकर बेटी का ब्याह उसके साथ रचाया। अब मुक्ति, नो टेंशन।
शादी के कुछ साल बाद भी वो झुंझला जाती, मेरी शादी क्यों हुई। हालांकि वो ख़ुश थी अपने पति के साथ अपनी गृहस्थी बसाकर। गृह स्वामिनी बनकर। पर उसकी झुंझलाहट भी कुछ कहती थी।
कभी किसी क्षण में अनायास ही उसकी ज़ुबान से निकल जाता मैं भी कुछ कर सकती थी, कुछ बन सकती थी। उसके मुंह से निकले ये अप्रत्याशित शब्द क्या चाहते थे ये खुद उसे भी नहीं पता। करियर बनाया था उसने। पर शादी के बाद करियर के बक्से पर ताला लग गया। पति नौकरी के लिए मना नहीं करता, पर चाहता भी नहीं था। वो उसे नाराज़ कर अपनी ख़ुशी नहीं पाना चाहती, पति उसे नाराज़ कर अपने मन की पूरी कर लेता है।
उसने अपनी ख्वाहिशों को रसोई में जलते चूल्हे की आंच पर जला दिया। राख अब भी उड़कर आंखों में आ जाती, यदा-कदा। वो सीरियल देख रही थी, उसकी ज़ुबां से अपरिचित शब्द फूटे, मैं भी तो ये कर सकती थी, पता नहीं क्यों पापा ने शादी कर दी, तभी रिमोट का लाल बटन दबा टीवी बंद कर दिया, रसोई में कुकर सीटी मार रहा था, वो भागी।
चित्र गूगल से साभार
ज़मीर को जगाने के लिए कौन सी धारा को संशोधित किया जा सकेगा....
ये कहना है इमरोज़ का। लिव इन पर चल रही चर्चा के तहत उनसे लंबी बातचीत हुई अखबार के लिए। थोड़ी सी फेर बदल के साथ यहां पेश है। लेख लंबा है, थोड़े धैर्य की ज़रूरत तो होगी ही-
हमारे दोस्त बताते हैं कि कुछ मुल्कों में ऐसा कानून है कि दो लोग दो साल या इससे ज़्यादा वक़्त तक एक साथ रह रहे हैं तो उनके बीच मियां-बीवी का रिश्ता मान लिया जाता है। अब मुंबई में इसके लिए क़ानून की धारा में संशोधन की बात चल रही है तो मैं एक ही बात सोच रहा हूं कि क्या रिश्तों को जोड़ने और तोड़ने के लिए किसी क़ानून की ज़रूरत होनी चाहिए....क्या इंसान के अंदर की ईमानदारी और कमिटमेंट निबाह लेने के लिए काफ़ी नहीं हैं...? लिव-इन हो या पक्के मंत्र पढ़कर बनाया गया साथ रहने का इंतज़ाम, दोनों में ही ’ज़्यादा ज़रूरी तो ईमानदारी ही है। अगर ईमानदारी और जिम्मेदारी व्यक्ति में है ही नहीं तो उसे पैदा करने के लिए किस धारा में संशोधन किया जा सकेगा...? ज़मीर को जगाने के लिए कौन का क़ानून बनाया जाएगा...।
मुझे लिव इन में एक अच्छी बात तो यही दिखती है कि कोई एक दूसरे का मालिक नहीं होता। एक साथ रहने का फै़सला इसलिए नहीं लिया गया होता कि वे किसी बंधन में हैं। इसके उलट विधिवत शादी में पहले दिन से पुरुष, स्त्री का स्वामी बन गया होता है। हैरान कर देने वाली बात यह भी है कि आज तक इस बात पर किसी ने एतराज़ भी नहीं जताया। किसी औरत ने पलटकर यह नहीं कहा कि यह शब्द हटाओ। मैं किसी की मिल्कियत नहीं हूं। मेरा कोई स्वामी नहीं है, हां साथी हो सकता है।
यह शादी है क्या....? तो दिखता है कि यह पूरी तरह एक क़ानून और व्यवस्था है, जिसके तहत दो अजनबियों को एकसाथ रहने की इजाज़त मिल जाती है। उनसे उम्मीद की जाती है शादी की पहली ही रात एक ऐसा संबंध बना लेने की जो एक और अजनबी को पैदा करके उनकी जिंदगी में अजनबियत का जंगल खड़ा कर दे। ऐसा ही होता भी है। तो इनके बीच में रिश्ता नहीं कानून रहता है। व्यवस्था रहती है और उस व्यवस्था को अक्सर निभाया ही जाता है, जिया नहीं जाता। इस बात से इत्तेफ़ाक़ न रखने वाले लोग काफ़ी हो सकते हैं लेकिन ध्यान से देखें तो सच यही दिखेगा। एक औरत और मर्द के बीच पहले रिश्ता हो और बाद में साथ रहने की व्यवस्था....क्या ऐसा होता है हमारे समाज में। रिश्ता जोड़ने के नाम पर ज़्यादा से ज़्यादा हम एक दूसरे को देखने जाते हैं शादी से पहले। परिवारों के बीच परिचय होता है, एक दूसरे की संपत्ति की पहचान करते हैं और इस बात तो मापते हैं कि इस तरह जुड़ने में कितने फ़ायदे और नुकसान हैं । शादी हो जाती है। बहुत हुआ तो इस बीच लड़के-लड़की को मिलने की इजाज़त मिल जाती है, जहां वे पूरी तरह से नकली होकर एक दूसरे को इम्प्रेस करने की कोशिश करते रहते हैं। इसका नतीजा क्या होता है....एक झूठ को आप सच समझने की भूल करते हैं और बाद में जब सच सामने आता है तो सब सपने टूटते लगते हैं। जब ऐसा ज़्यादातर मामलों में हो ही रहा है तो क्या अर्थ है उस व्यवस्था का जिसे शादी कहते हैं।
जिस का़नून की हम बात कर रहे हैं अगर वह बनता भी है तो उससे इतनी मदद होगी कि पुरुष, स्त्री को छोड़कर भागने से पहले एक बार सोचेगा ज़रूर, और अगर चला भी गया तो कम से कम पीछे छूट गई औरत उस सामाजिक प्रताड़ना से बच जाएगी जिससे वह अब गुज़रती है। लेकिन इसके बावजूद सवाल वहीं है कि जो आदमी किसी को छोड़कर भागता है क्या वह रिश्तों में ईमानदार था....अगर नहीं तो ऐसे आदमी की पत्नी कहलाने में किसे गौरव महसूस करना है। हां इसके आर्थिक पहलू ज़रूर मायने रखते हैं।
इस संदर्भ में एक बात और कही जा सकती है कि गै़र जि़म्मेदार और बेईमान आदमी चाहे लिव इन रिलेशनशिप में हो या शादी की व्यवस्था में...उसका कुछ नहीं किया जा सकता। सामर्थ्य पुरुष को अराजक बनाती है और वे चाहे छुपकर इस तरह के संबंध बनाएं या खुलकर उन्हें बहुत ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता। मुंबई की ही बात लें तो दिखता नहीं है क्या कि किस तरह सक्षम लोग एक से ज़्यादा संबंध जीवन भर आराम से चलाते रहते हैं। उन्हें कभी न तो प्रताडि़त किया जाता है और न ही उन्हें किसी क़ानून की ज़रूरत होती है। क्योंकि ये सामर्थ्यवान हैं तो अपनी जिंदगी में आई औरत के लिए आर्थिक व्यवस्था कर देना इनके लिए मुश्किल नहीं होता।
यानी इस क़ानून की ज़रूरत मध्यम वर्ग के लिए ही हुई न। यही मध्यम वर्ग तो शादी को सात जनम का बंधन मानकर चलता है और अब लिव इन के नए खा़के में फि़ट होकर जिंदगी के अर्थ ढूंढना चाहता है। लेकिन अहम सवाल अब भी बाक़ी है अगर का़नून लिव इन को पति-पत्नी के दर्जे की स्वीकृति दे भी दे तो क्या इससे लोगों के अंदर ईमानदारी और जि़म्मेदारी पैदा हो जाएगी...? याद रख लेने की बात है कि एक ऐसी व्यवस्था का़नून ज़रूर दे सकता है जो साथ रहने को वैध कर दे लेकिन ऐसे जज़्बात तो अपने अंदर ही पैदा करने होंगे जो इस साथ को रिश्ते का नाम दे सकें। मैं तो यह भी कहता हूं कि ईमानदार सिर्फ़ साथ रहने में नहीं एक दूसरे का साथ छोड़ने में भी होनी चाहिए। अगर आप रिश्तों को निबाह पाने में असमर्थ हैं तो बेईमानी करने से बेहतर है कि साफ़ कह दिया जाए। लेकिन देखने में यही आता है कि लोग बरसों बरस उन रिश्तों को ओढ़ते-बिछाते रहते हैं जो दरअसल रिश्ते रह ही नहीं गए होते।
October 23, 2008
पता रखिये आप को कौन फोलो करे रहा हैं ...
आईए फोलो करे
गूगल ब्लागस्पाट की सुविधा फोलोअर {follower} एक अच्छी सुविधा हैं । कई बार समय अभाव के कारण आप सारी पोस्ट नियमित नहीं पढ़ पाते हैं तो जिन ब्लोग्स को पढ़ना आप को अच्छा लगता केaएन हैं आप उन ब्लोग्स के फोलोअर {follower} बन सकते हैं । आप को बस इतना करना होगा की
ब्लागस्पाट पर लोग इन करे
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और जिस ब्लॉग को आप फोलो करना चाहते हैं उसका url {जैसेhttp://indianwomanhasarrived.blogspot.com/ }
डाले और फिर दश बोर्ड मे रीडिंग लिस्ट मे उस ब्लॉग की सब पोस्ट दिखने लगेगी और आप का नाम उस ब्लॉग की साइड बार दिखेगा । अगर आप अपना नाम वहा नहीं चाहते तो एड करते समय अनाम की सुविधा भी हैं ।
गूगल ब्लागस्पाट की सुविधा फोलोअर {follower} एक सुविधा का फायदा हैं फोलो करे और फोलो किये जाने वाले दोनों का फायदा हैं । आप जिन ब्लॉग पर होते हैं वहाँ से आप को भी पाठक मिलते हैं ।
अपने ब्लॉग पर इस सुविधा को शुरू करनी के लिये आप को लेआउट मे जाकर Add a Gadget क्लिक करके
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को एड करना होगा । उसके बाद ही आप को कौन फोलो करे रहा हैं आप को पता चलेगा ।
दयामणि बरला कहती हैं “हम अपनी ज़िंदगी क़ुरबान कर देंगे लेकिन अपने पुरखों की ज़मीन का एक इंच भी नहीं देंगे। "
बीबीसी में मौशुमी बसु की रपोर्ट है कि दयामणि बरला ने अपने संघर्षों के दौरान मेहनत मज़दूरी करते हुए कई बार रेलवे स्टेशनों पर सो कर रातें काटी हैं। मेहनत की कमाई से पैसे बचा बचाकर उन्होंने अपनी पढ़ाई लिखाई पूरी की। इन्हीं हालात में उन्होंने एमए की परीक्षा पास की और फिर पत्रकारिता शुरू की। दयामणि झारखंड की पहली महिला पत्रकार हैं और उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में कई पुरस्कार भी मिल चुके हैं। लेकिन आज भी वो राँची शहर में एक चाय की दुकान चलाती हैं और ये दुकान ही उनकी आय का प्रमुख साधन है। दयामणि कहती हैं कि “जनता की आवाज़ सुनने के लिए इससे बेहतर कोई जगह नहीं है.”
स्वीडन में हुए सम्मेलन में उन्होंने उन चालीस गाँव के लोगों की दास्तान सुनाई जिनकी ज़मीन इस्पात कारख़ाना लगाने के लिए आर्सेलर मित्तल कंपनी को दी जा रही है। लक्ष्मी मित्तल इस इलाक़े में क़रीब नौ अरब डॉलर की लागत से दुनिया का सबसे बड़ा इस्पात कारख़ाना लगाना चाहते हैं। इसका नाम ग्रीनफ़ील्ड इस्पात परियोजना है और इसके लिए बारह हज़ार एकड़ ज़मीन चाहिए। ये ज़मीन आदिवासियों से ली जानी है।
लेकिन दयामणि बरला के संगठन आदिवासी, मूलवासी अस्तित्त्व रक्षा मंच का कहना है कि इस परियोजना से भारी संख्या में लोग बेघर हो जाएँगे। आंदोलन चला रहे लोगों का ये भी कहना है कि इस परियोजना से पानी और दूसरे प्राकृ़तिक संसाधन बरबाद हो जाएँगे जिसका सीधा असर आदिवासियों पर पड़ेगा जो परंपरागत रूप से प्रकृति पर आश्रित रहते हैं। दयामणि बरला का कहना है कि “आदिवासी अपनी ज़मीन का एक इंच भी नहीं देंगे।”
उन्होंने कहा, “हम अपनी ज़िंदगी क़ुरबान कर देंगे लेकिन अपने पुरखों की ज़मीन का एक इंच भी नहीं देंगे। मित्तल को हम अपनी धरती पर क़ब्ज़ा नहीं करने देंगे।”
धरतीमित्र नाम के संगठन से जुड़े विले वेइको हिरवेला ने कहा कि आदिवासियों के लिए ज़मीन ख़रीदने बेचने वाला माल नहीं होता। वो ख़ुद को ज़मीन का मालिक नहीं बल्कि संरक्षक मानते हैं. ये ज़मीन आने वाली पीढ़ी के लिए हिफ़ाज़त से रखी जाती है। दयामणि बरला का कहना है, “औद्योगिक घराने आदिवासी समाज के आर्थिक व्यवहार से अनजान हैं. वो नहीं जानते ही आदिवासी खेती और जंगल की उपज पर निर्भर रहते हैं।” उन्होंने कहा अगर आदिवासियों को उनके प्राकृतिक स्रोतों से अलग कर दिया जाएगा तो वो जीवित नहीं बच पाएँगे।
दयामणि बरला के बारे में कुछ जानकारी 4MB की pdf में यहाँ पायी जा सकती है।
October 21, 2008
नारी संघर्ष के ये दो सशक्त चेहरे हैं।

नारी संघर्ष के ये दो सशक्त चेहरे हैं। म्यांमार की क्रांतिकारी नेता आंग सांग सू की और दूसरी मणिपुर की आंदोलनकारी इरोम शर्मिला। म्यांमार की सू की ने सैन्य सरकार के खिलाफ़ लोकतंत्र बहाली का बिगुल फूंक रखा है। ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा नज़रबंदी में बीता, वो अब भी अपने घर में ही नज़रबंद हैं।
दूसरा चित्र इरोम शर्मिला का है जो मणिपुर की आंदोलनकारी है। पूर्वोत्तर में सेना की बर्बरता और सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून जिसका सैनिक बेजा फायदा उठाते रहे, को रद्द करने की मांग को लेकर साल 2000 से आमरण अनशन पर हैं। एक क्रांतिकारी महिला के सैनिकों द्वारा बलात्कार के बाद इंफाल में असम राइफल्स के मुख्यालय के सामने उन्होंने नग्न होकर प्रदर्शन किया, बैनर पर लिखा था, भारतीय सेना आओ हमसे बलात्कार करो।
दृढ़ इच्छाशक्ति और संघर्ष के ये दो चेहरे। कई बार मैं इनके बारे में सोचती हूं तो दहल जाती हूं। इनके बारे में मैं ज्यादा नहीं लिख सकती। इनकी नाम सुन भर लेना या इनकी तस्वीरों को देख लेना ही एक पूरा आंदोलन देखने जैसा है।
मेरठ की किरण फैलाएगी रोशनी
October 20, 2008
मातृत्व अवकाश!
आज से बहुत पहले 1986 में ICMR ने एक सर्वेक्षण करवाया था जिसमें 1500 स्तनपान कराने वाली माँओं का मैंने अध्ययन किया था, जिनमें प्रथम श्रेणी से लेकर फैक्टरी , स्कूल , खेतों में काम करनेवाली , घरों में काम कराने वाली मांएं थी।
उस समय मैं भी उसी श्रेणी की माँ थी, मैंने स्वयं अपनी प्रश्नावली भरी थी। उनका उद्देश्य था कि ऐसी कामकाजी महिलायों को क्या सुविधाएँ दी जाएँ जिससे कि उनके बच्चे माँ के सानिंध्य से वंचित न रहें और उन्हें स्तनपान से वंचित न होना पड़े।
उस समय कहीं भी इतनी छुट्टियों का प्राविधान नहीं था। दो और तीन महीने के बच्चों कि मांएं पूछने पर रो देती थीं कि जब उनका बच्चा भूखा होता है तो उनका दूध बहने लगता है। वे उस समय सिर्फ माएं थी, प्रथम श्रेणी कि आफिसर या मजदूर नहीं होती थी। आज भी यही है, समर्थ माएं बच्चों को 'डे केयर सेंटर' में रख सकती हैं और वे जो गारा धो रही हैं, वे अपने बच्चे को साथ लेकर आती हैं और एक जगह ज़मीन पर कपडा बिछा कर लिटा देती हैं। ठेकेदार उनको भूख लगने पर स्तनपान कि अनुमति भी नहीं देता है। खाने कि छुट्टी में वे ख़ुद न खाकर बच्चे का पता भरती हैं। वे मीलों पैदल चल कर खेतों पर काम करने जाती हैं। फैक्टरी में काम करने वाली महिलायें ८-१० घंटे घर से बाहर रहती हैं क्या उनके लिए भी कोई प्राविधान है?
यह सब सरकारी नौकरी वालों कि सुविधाएँ हो सकती हैं, जो ८०% माँएं और काम कर रही हैं उनके लिए भी सरकार ने कभी सोचा है। वह अध्ययन करवाए हुए २२ साल हो चुके हैं। क्या किया है सरकार ने । सिर्फ सरकारी माँयों के ही बच्चे समुचित लालन पालन के अधिकारी होते हैं या फिर बाकि माँएं इस देश कि नागरिक नहीं है या फिर वे माँएं नहीं हैं जिनको अपने बच्चों कि देख्भाल करनी पड़ती है। क्या हुआ उस सर्वेषण का? क्या हुआ उसकी तैयार कि गई रिपोर्ट का ? मैंने तो नहीं देखा कि कहीं भी कोई भी सुविधा उपलब्ध करायी गई हो?
महिलाओं कि भागीदरी का दम भरने वाले राजनैतिक दल क्या इसका जवाब दे सकते हैं। किसी भी भागीदारी से पहले वे माँ है और वे बच्चे जिनको उन्होंने jaनम दिया है इस देश का भविष्य है। क्यों बन जाते है गरीब तबकों के बच्चे अपराधी? कभी सोचा है, नहीं इसकी सोचने कि फुरसत किसके पास है। सरकार नोटों और वोटों के लिए क़ानून लाती है. आम महिलायें आज भी वहीं है और कल भी वहीं रहेंगी.
जो सुविधाएँ दी जायें सभी को दी जाएँ। क्या कहीं हम महिलायें ऐसे प्रयास कर सकते हैं कि श्रमजीवी महिलाओं के मातृत्व को सफल बनने के लिए कुछ कर सकें। विचार कीजिये और आगे आइये शायद कुछ माँयों और बच्चों के चेहरे पर मुस्कान हम ला सकें.
October 19, 2008
१० ९२९ विसिटर ४५९ नेटवर्क्स से नारी ब्लॉग तक आए हैं । जानकारी पढे .
| 1. | 2,751 | 25.08% | |
| 2. | 2,210 | 20.15% | |
| 3. | 992 | 9.04% | |
| 4. | 527 | 4.80% | |
| 5. | 364 | 3.32% | |
| 6. | 355 | 3.24% | |
| 7. | 294 | 2.68% | |
| 8. | 217 | 1.98% | |
| 9. | 202 | 1.84% | |
| 10. | 187 | 1.70% | |
| 11. | 162 | 1.48% | |
| 12. | 140 | 1.28% | |
| 13. | 80 | 0.73% | |
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| 15. | 78 | 0.71% | |
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| 25. | 45 | 0.41% | |
| 26. | 36 | 0.33% | |
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| 28. | 35 | 0.32% | |
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| 81. | 9 | 0.08% | |
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वैदिक काल से अब तक नारी की यात्रा .. जब कुछ समय पहले मैंने वेदों को पढ़ना शुरू किया तो ऋग्वेद में यह पढ़ा की वैदिक काल में नारियां बहुत विदु...
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प्रश्न : -- नारी सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट {woman empowerment } का क्या मतलब हैं ?? "नारी सशक्तिकरण या वूमन एम्पोवेर्मेंट " ...
 

