आज भी जब पढ़े लिखे लोग , स्त्री और पुरुष दोनों , समानता की , बराबरी की बात को आज़ादी की बात कहते हैं तो अजीब लगता हैं। जन्म से हर कोई "आज़ाद " ही पैदा होता हैं लेकिन उसको बराबरी का दर्जा नहीं मिलता हैं। लोग स्त्री की बराबरी / इक्वलिटी की बात को गुलामी से आज़ादी की बात कहते हैं। स्त्री कंडिशन्ड हो सकती हैं और उसको इस कंडीशनिंग को तोड़ना पड़ता हैं ताकि वो बराबरी की बात करे।
जिन लोगो ने करवा चौथ नहीं रखा वो भी उतनी ही आज़ाद हैं जितनी जिन्होने रखा।
अगर रखने वालो का मखोल उड़ाया गया हैं और उनको गुलाम और रूढ़िवादी कहा गया हैं तो
ना रखने वालो का भी मखोल उड़ाया गया हैं और उन्हे आधुनिक और मॉडर्न इत्यादि कहा गया हैं।
दोनों बाते कहने वाली ज्यादा नारी ही हैं।
और दोनों ही कंडिशन्ड हैं क्योंकि दोनों अपनी पसंद दूसरे पर थोपना चाहती हैं और दूसरे का मखोल उड़ा कर और लोगो को ख़ास कर पुरुष वर्ग को ये मौका देना चाहती हैं की वो दोनों का का मज़ाक बनाये। दोनों महज और महज अपने आस पास के पुरुष वर्ग को शायद खुश करना चाहती हैं एक रीति रिवाजो को मान क्र और एक उनकी आलोचना कर के।
एक दूसरे के साथ खड़ी हो कर देखिये , आप स्वयं को बराबर महसूस करेगी , एक दूसरे का मखोल उड़ा कर आज भी आप वही हैं जहां थी