नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।

यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का

15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं

15th august 2012

१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं

"नारी" ब्लॉग

"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।

" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "

हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था

September 23, 2015

नारी के लिये निर्धारित आधे हिस्से पर भी पुरुष का ही अधिकार माना जाता हैं और इसमे कुछ भी गलत नहीं माना जाता।


ऊपर टैग किये नामो को मैने ५ मिनट के समय में फ्रेंड लिस्ट में से खोजा हैं।
इनकी रचनाओ के पाठक गण में
सतीश सक्सेना अनूप शुक्ल Udan Tashtari सलिल वर्मा Girish Pankaj Ismat Zaidi Shifa
शामिल हैं और मित्र सूची मे भी शायद हैं 


फिर भी इनमे से किसी ने भी इन महिला के लेखन को इस योग्य नहीं समझा की उनका नाम Ananda Hi Anandahttps://www.facebook.com/Vivekjii/photos/a.10150339646279303.363227.170976869302/10153556284649303/?type=1&fref=nf
राष्ट्रीय भाष्य गौरव पुरस्कार के लिये नॉमिनेट करे।


इस वर्ष ७ पुरूस्कार दिये गए लेकिन एक भी नाम महिला का नहीं हैं। पिछले साल एक महिला को दिया गया था उसकी और इस विषय पर और विस्तृत चर्चा करुँगी अभी रिसर्च कर रही हूँ और सेलेक्टर्स से इस सिलेक्शन के रूल्स और चयन की प्रक्रिया के विषय में बात कर रही हूँ। ३ से कर चुकी हूँ। बाकी सब का इंतज़ार हैं क्युकी मेरे बार में कहा जाता हैं की मैं नकारात्मक सोच रखती हूँ और सकारात्मक नहीं इसलिये बता दूँ की मेरी सोच न्यूट्रल होती हैं और उसमे केवल और केवल महिला और पुरुष की समानता की ही बात होती हैं। 


जहां भी महिला को केवल मातृ शक्ति मान कर पवित्रता की बात की जाती हैं मुझे वहाँ केवल और केवल महिला की उपलब्धियों को दबाने की बात ही नज़र आती हैं।https://www.facebook.com/satish1954/posts/10205853510190222…


न्यूट्रल हो कर सोचना मेरे लिये बड़ा आसान हैं
अगली कड़ी शीघ्र ही जो नाराज होना चाहे हो सकते हैं क्युकी हम जो आवाज उठाते हैं उसका फायदा हमारी आने वाली पीढ़ी की लड़कियों को अवशय होगा वो उस कंडीशनिंग को तोड़ सकेगी जिस मे चुप रह कर अन्याय सहने को "त्यागमय " की उपाधि दी जाती हैं
हाँ मैं ईमेल देकर लिंक देकर चैट पर अपनी साथी महिला को सूचित करती हूँ की कहाँ क्या हो रहा हैं ताकि वो जान सके की उनको कहाँ कहाँ आवाज उठानी हैं ताकि हमारी अगली पीढी की लडकियां बराबरी की इस लड़ाई को ना लड़े

सोशल मीडिया के आने से अब कुछ भी छुपाना मुश्किल हैं
ये शायद एक व्यक्ति की व्यक्तिगत पसंद ना पसंद के पुरूस्कार हैं। उनको अधिकार हैं अपनी पसंद को पुरुस्कृत करने का पर सोशल मीडिया पर चयनकर्ता के नाम देना और इसको एक पारदर्शी प्रक्रिया का भरम देना गलत हैं।
https://www.facebook.com/Vivekjii/photos/a.10150339646279303.363227.170976869302/10153556284649303/?type=3
जिन चयन करता के नाम ऊपर हैं उन मे से दो ने ये कन्फर्म किया हैं की उनको नाम दे कर पूछा गया था की क्या इसको दे दे और उन्होंने ने हाँ कह दिया था और ये उन्होंने पुरानी मित्रता के तहत किया हैं । नाम ना तो उन्होने चुने ना नॉमिनेट किये। जिन महिला को पिछली बार मिला था उनका नाम जिन महिला मेंबर ने बताया था उन्हें मेंबर भी केवल नाम देने के लिये ही बनाया था और उन्होंने कहा की वो एक्टिव मेंबर नहीं हैं और उन्होंने महिला को ही चुना था।
चयन करता की सहमति सब नाम पर नहीं ली गयी हैं हर चयन करता को दो नाम या एक नाम दे कर औपचारिकता पूरी की गयी थी। नाम पहले से चयनित ही थे और चयनकर्ता के नाम महज और महज खानापूर्ति थे { मेरी समझ } .
किसी भी महिला का ना होना ७ पुरुस्कृत व्यक्तियों में केवल और केवल इस बात का सूचक हैं की इस साल कोई भी महिला आयोजक / प्रेसीडेन्ट को योग्य लगी नहीं। उनका ये कहना की चयनकर्ता ने कोई नाम दिया नहीं केवल और केवल एक वक्तव्य हैं और उसके ऊपर कुछ नहीं।
https://www.facebook.com/satish1954/posts/10205853510190222…
जो महिला पिछली बार मेंबर थी उन्होंने एक महिला का ही चयन किया था और सुझाव भी दिया था की महिला और पुरुष के लिये दो अलग क्षेणी हो और आधे आधे पुरूस्कार दिये जाए पर ऐसा नहीं हुआ और क्युकी अब वो एक्टिव मेंबर नहीं हैं इस लिये उनको इस वर्ष का कोई पता नहीं हैं की क्या प्रक्रिया रही।https://www.facebook.com/naari.naari.3/posts/1643542085914367


कभी कभी सोचती हूँ बेटियों के हिस्से में इतना कम क्यों आता हैं।  क्या इन ७ जिनको पुरूस्कार मिला उनको खुद ये महसूस नहीं होता हैं की उन्होने महिला के आधे हिस्से पर कब्जा किया हैं।  

बहुत घरो में बचपन में बहिन के हिस्से का दूध भाई को दिया जाता था और भाई की देखभाल उसकी बहिन करती थी उसको दूध मिले ना मिले भाई के लिये गरम दूध का गिलास एक छोटी सी बच्ची ले जाती थी।  यही होता था एक पत्नी के साथ पति का जूठा खाना , पति के बाद खाना , खाना ना होने पर भूखे सोना और माँ के लिये तो बच्चे का मतलब ही बेटा होता था 

आज भी वो सब जारी हैं बस आयाम बदल गए हैं नारी के लिये निर्धारित आधे हिस्से पर भी पुरुष का ही अधिकार माना जाता हैं और इसमे कुछ भी  गलत नहीं माना जाता।

महिला के हक़ की बात यानी महिला आधारित मुद्दो को उठाने पर हमेशा उसे " पुरुष विरोध " कह कर भटकाया जाता हैं। पुरुष वर्ग को हमेशा लगता हैं उसको कटघरे मे खड़ा किया जाता हैं क्युकी पुरुष वर्ग को अपने को इम्पोर्टेन्ट समझने की आदत हैं और वो हमेशा ये दिखाते हैं की "वो टारगेट हैं " .



August 14, 2015

फिर सयुंक्त परिवार का विघटन हुआ ही क्यों ??

कल देश ६९ इंडिपेंडेंस डे मना रहा हैं
६९ साल पहले पूरा परिवार एक साथ रहता था कई पीढ़िया
१९६० के दशक में परिवार से सयुंक्त परिवार खत्म हुआ और एकल परिवार आया यानी माता पिता बच्चे  और फिर बेटे का परिवार।
धीरे धीरे परिवार का अर्थ बदला
आज का परिवार कुछ अलग हैं
यहां पुरुष और स्त्री डाइवोर्स के बाद अलग अलग विवाह कर चुके हैं और उनके अपने परिवार हैं लेकिन होली दिवाली सब साथ खाते पीते हैं
पति उसकी दूसरी पत्नी और उसका परिवार
पत्नी उसका दूसरा पति और उसका परिवार
पति के पहली पत्नी के बच्चे , दूसरी पत्नी के बच्चे
पत्नी के पहले पति के बच्चे और दूसरे पति के बच्चे
और अगर बच्चे विवाहित हुए तो उनके परिवार

कहीं  कोई मन मुटाव नहीं

फिर सयुंक्त परिवार का विघटन हुआ ही क्यों ??

May 16, 2015

कल्चरल शॉक

आज एक ख्याति प्राप्त नेशनल अवार्ड विनर अभिनेत्री ने एक  इंटरव्यू में कहा हैं की वो जब मुंबई आयी थी उनके पास १५०० रूपए थे। 
जब भी लोग ये कहते हैं तो कहीं ना कहीं ये समझ आता हैं की कितने कम पैसे में मुंबई मे आकर "जमा" जा सकता हैं और एक "बुलंदी को भी छुआ जा सकता हैं। 
इस प्रकार के बयान दूसरी लड़कियों के लिये प्रेरणा स्रोत्र बन जाते हैं और वो भी "सुनहरे " सपने आँखों में लिये मुंबई के लिये प्रस्थान कर देती और सोचती हैं "टॉप की स्टार " बन जाएगी। 
अधूरा सच हमेशा ये अभिनेत्रियां बताती हैं।  इस अभिनेत्री ने भी ये नहीं बताया की आते ही वो एक मैरिड अभिनेता के साथ जो उम्र में इनके पिता की उम्र का था लिव इन रिलेशनशिप में रही।  सालो उसके फ्लैट और घर पर ये आराम से " अपने १५०० रूपए" के सहारे रहती रही। 
उसके बात जब इस रिलेशनशिप में " अब्यूज " का सामना करना पड़ा तो ये एक दूसरे अभिनेता के साथ रहने लगी जिसने उस समय एक भी फिल्म नहीं की थी  शायद एक दो कामयाब फिल्म दे चुकी थी और वो अभिनेता इन से उम्र में छोटा था।  शायद अब भी इनके " १५०० रूपए का इन्वेस्टमेंट " इनके काम आ रहा था।
फिर दो तीन साल बाद उससे भी ये अलग हो गयी और आज ये एक अच्छी सफल अभिनेत्री हैं। 
वो अपनों निजी ज़िंदगी में जो करती हैं उनकी अपनी ज़िंदगी हैं लेकिन उनका ये सच सब लडकियां नहीं जानती हैं जो सोचती हैं मात्र १५०० रूपए जेब में होने से मुंबई जैसे महानगर में बिना अपने शरीर का सौदा किये वो आराम से रह पाएगी। 
वो जब मुंबई पहुचती हैं तो ये कल्चरल शॉक उनके लिये बहुत बड़ा होता हैं।  और फिर घर लौट आये तो बेहतर अन्यथा दो ही रास्ते रह जाते हैं
एक वो भी किसी दिन नामी अभिनेत्री बन कर अपने १५००  रूपए का बखान करेगी
दूसरा मुंबई में वो कहाँ खो जाएगी पता नहीं होगा
पाठको से आग्रह हैं अगर आप इस अभिनेत्री का नाम जानते हैं तो भी यहाँ ना दे क्युकी मेरा मकसद किसी पर व्यक्तिगत आक्षेप नहीं हैं

April 21, 2015

प्रकृति ने दोनों को एक सा बनाया हैं पर समाज ने दोनों को बड़े होने के एक से अवसर प्रदान नहीं किये हैं।

एक महिला डॉक्टर ने आत्महत्या कर ली अपने सुसाइड नोट में उसने कारण दिया की उसका पति "गे" हैं और इस वजह से उसका वैवाहिक जीवन कभी सही नहीं रहा।  ५ साल के वैवाहिक जीवन के बाद भी वो सहवास सुख से वंचित हैं।  उसका ये भी कहना हैं की जब उसने अपने पति से पूछा तो उसको प्रताड़ित किया गया और उस से और उसके परिवार से दहेज़ माँगा जाने लगा।  उस ने अपना पूरा पत्र फेसबुक पर भी पोस्ट किया।
कल का पूरा दिन सारा सोशल मीडिया इसी बात से गर्म गर्म बहस में उलझा रहा।  बहस ये होती रही की " गे " पति की वजह से एक स्त्री का जीवन नष्ट हो गया।या बहस ये होती रही की " गे " होने को अपराध क्यों मानते हैं लोग और क्यों नहीं "गे " लोग अपनी बात अपने परिवार से कह देते हैं और क्यों किसी स्त्री का जीवन नष्ट करते हैं।  और बहस का तीसरा मुद्दा ये भी रहा की समाज इतना असहिष्णु क्यों हैं और क्यों नहीं लोगो को अपनी पसंद से जीवन जीने देता हैं।
 सवाल जिस पर बहस नहीं हुई
क्या किसी पति ने कभी आत्महत्या की हैं अपनी  पत्नी के "लिस्बन " होने के कारण ?
क्या स्त्रियां "लिस्बन " होती ही नहीं हैं ?
एक नौकरी करती प्रोफेशनल क्वालिफाइड डॉक्टर महिला सुसाइड कर सकती हैं अपने पति के " गे " होने के कारण पर ये जानने के बाद भी की उसका पति "गे " हैं वो उससे अलग नहीं होना चाहती हैं क्युकी उसको प्यार करती हैं।  क्या ये  प्यार हैं ? अगर प्यार हैं तो समझ कर और "गे " होने को बीमारी ना मान कर उसका इलाज ना करके अपने पति से अलग क्यों नहीं हुई ?
अगर महिला आर्थिक रूप से सक्षम थी तो इतना भय किस बात का डाइवोर्स की मांग करने से।

स्त्री पुरुष के प्रति समाज का रव्या हमेशा से दोहरा रहा हैं और इस बात पर चर्चा ही नहीं होती हैं।
आज से नहीं सदियों से अगर स्त्री प्रजनन में अक्षम है तो पति तुरंत दूसरा विवाह कर लेता हैं लेकिन अगर पुरुष प्रजनन में अक्षम हैं तो स्त्री को निभाना होता हैं
इसी प्रकार से अगर पुरुष सहवास के सुख से वंचित हैं विवाह में तो कई बार पत्नी की बिना मर्जी के भी उस से सम्बन्ध बनाता हैं { आज कल ये बलात्कार की क्षेणी में आता हैं } लेकिन स्त्री के लिये ऐसा कुछ भी नहीं हैं।

इसी विभेद के चलते स्त्रियां कभी मानसिक रूप से सशक्त नहीं हो पाती हैं उनके लिये शादी आज भी एक "सामाजिक सुरक्षा कवच " हैं जिसको वो पहन कर खुश होती हैं।

कभी उन कारण पर भी बात होनी चाहिये जहां एक लड़का "गे " हो सकता हैं पर एक लड़की " लिस्बन " नहीं होती हैं।
प्रकृति ने दोनों को एक सा बनाया हैं पर समाज ने दोनों को बड़े होने के एक से अवसर प्रदान नहीं किये हैं।

April 11, 2015

जब तक महिला आर्थिक रूप से सक्षम नहीं होती हैं तब तक उसको " माय चॉइस " मिल ही नहीं पाती हैं।

कुछ दिन पहले दीपिका पादुकोण ने एक वीडियो में " माय चॉइस " की बात कहीं।  उनकी कहीं बातो के बहुत से मतलब निकाले गए , पक्ष विपक्ष मे बहुत कुछ लिखा गया।
लोगो ने वुमन एम्पावरमेंट के विरोध में बहुत लिखा पर लिखने वाले ये भूल गए की वुमन एम्पावरमेंट का सीधा सरल मतलब हैं आर्थिक रूप से सक्षमता।
दीपिका आर्थिक रूप से सक्षम हैं इस लिये "माय चॉइस " की बात कर सकती हैं दीपिका तो फिर भी एक सेलेब्रिटी हैं घरो में काम करके अपने को आर्थिक रूप से सक्षम करने वाली महिलाए भी आज कल " माय चॉइस " की सीधी वकालत करती हैं।
"माय चॉइस " यानी अपनी बात , अपनी पसंद , अपनी ना पसंद कहने / करने का सीधा अधिकार।
किसी भी महिला की "माय चॉइस " तभी मान्य हो पाती हैं जब वो अपने दम पर जिंदगी को जीने का माद्दा रखती हो।
दीपिका पादुकोण ने अपने को आज जिस मुकाम पर स्थापित किया हैं वो उनकी अपनी मेहनत हैं।  आज आर्थिक रूप से वो सक्षम हैं।  इस दौरान उन्होने ना जाने क्या क्या नहीं सुना कभी अपने रिलेशनशिप को लेकर तो कभी अखबारों में अपने वक्ष की तस्वीरो को लेकर।  क्या इस सब का जवाब देना जरुरी नहीं हैं ? सो उन्होने जवाब दिया " माय चॉइस " .
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८ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता हैं।  आज कल जगह जगह दुकानो पर सेल इत्यादि लगा दी जाती हैं और महिला को प्रोत्साहित किया जाता हैं की वो आ कर सामान ख़रीदे खुद।  अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस वास्तविक वर्किंग वुमन डे था।  इस दिन आर्थिक रूप से सक्षम महिला अपनी आर्थिक आज़ादी का जश्न मानती हैं।  और लोगो ने फिर इसको सुन्दर महिला , खूबसूरत महिला इत्यादि को बधाई देने का दिन बना दिया।  लोग भूल गए की इस दिन उन महिला को बधाई देनी चाहिये जो आर्थिक रूप से सक्षम हैं।

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आज कल परिवारो में कलह का कारण हैं नारी सशक्तिकरण या वुमन एम्पवेर्मेंट क्युकी इसको स्त्री पुरुष की समानता का परिचायक मान कर आपसी लड़ाई का मुद्दा बनाया जाता हैं।  एक पत्नी का घर में रह कर घर संभालना और एक महिला का बाहर जा कर नौकरी करना दोनों में बहुत अंतर हैं।  बात घर के काम के छोटे बड़े या नौकरी करना बड़ी बात की हैं ही नहीं बात हैं की अगर आप समानता की बात करते हैं तो सबसे पहले आर्थिक रूप से सक्षम हो  कर ही समानता की बात जरुरी हैं। 
जब तक महिला आर्थिक रूप से सक्षम नहीं होती हैं तब तक उसको " माय चॉइस " मिल ही नहीं पाती हैं। 
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर अगर आप अपने पति से पैसा लेकर खरीदारी कर रही हैं तो आप अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का अर्थ ही नहीं जानती हैं।  ये तो आप करवा चौथ पर भी करती हैं और बाकी दिन भी करती हैं फिर अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस और बाकी दिनों में क्या अंतर हुआ ज़रा सोचिये।
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नर और नारी दोनों आज़ाद हैं , बराबर हैं इस लिये उस मुद्दे पर बार बार बहस करना गलत हैं।  दोनों को तरक्की के समान अधिकार मिले , पढ़ाई के समान अधिकार हो , रोजगार के समान अधिकार हो , समान काम के एवज  में समान तनखा हो बात इन सब मुद्दो पर होनी चाहिये।

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नारी शारीरिक रूप से कमजोर होती हैं ऐसा लोग मानते हैं क्यों नहीं होगी क्युकी उसको परवरिश ही ऐसी मिलती हैं की वो कमजोर रहे।  घर में पनपने वाला पौधा और खुली हवा  में पनपने वाले पौधे मे अंतर होता ही हैं।  जिस दिन एक लड़की को वही परवरिश मिलेगी जो एक लड़के को मिलती हैं तो ताकत भी खुद बा खुद आ जाएगी। 

March 07, 2015

एक फिल्म से पुरुष समाज में इतनी हल चल क्यों ?

हर मुद्दे को भटकना कितना आसान हैं
रेप पर बनी फिल्म का विरोध सरकार इस लिये कर रही कर रही थी की कहीं फिल्म देख कर फिर से वो स्थिति ना पैदा हो जाए जहां पर जनता सड़को पर उतर आये जैसे तब हुआ जब रेप हुआ।  खुद पुलिस विभाग ने इसके प्रदर्शन पर रोक की मांग की। 
लेकिन फिर भी एक जेल में बंद रेप के आरोपी को १०००० लोगो की भीड़ ने बाहर निकाल कर पीट कर मौत के घाट उतार दिया। 
फेसबुक पर लोग पूछ रहे हैं क्या पुरुष केवल रेप करने वाले दरिँदै हैं या पिता , भाई , पति इत्यादि  भी हैं
लो बोलो पूछने वाले अखबार लगता पढ़ते ही नहीं हैं जो रेप करता हैं वो भी किसी का भाई बेटा और पति होता हैं और इसीलिये वो सजा से बचता आया हैं क्युकी यही सब उसके कवच बन जाते हैं कानून भी नरम रुख लेता हैं इस बुढ़ापे की लाठी , एक ही कमाने वाले के लिये। 
एक फिल्म से पुरुष समाज में इतनी हल चल क्यों ? बात समाज की हो रही थी , बात सिस्टम  की हो रही थी आप की नहीं।  आप को ऐसा क्यों हमेशा लगता हैं की  स्त्री के साथ कहीं भी कुछ गलत हुआ हैं लोग आप को जिम्मेदार मानेगे। 
अपने अंदर नहीं आपने आस पास झाँकिये और देखिये कैसे अपनी बेटी की दोस्त के साथ एक "पिता" शारीरिक सम्बन्ध बनाने की बात करता हैं या कैसे एक नेता वोट के लिये "लड़के /गलती " की बात करता हैं।  ये सब भी आप के ही सभ्य समाज का हिस्सा हैं। 
हमको जगाने के लिये किसी फिल्म की जरुरत नहीं है क्युकी सोई हुई आत्मा फिल्म से क्या जागेगी। 

आइये मिल कर उन सब लोगो को बैन दे जो रेप जैसे घिनोने शब्द के बारे मे बात करते हैं। रेप करने वाले क्या सोचते है इसको दिखा कर क्या हासिल होगा। हम तो रोज आईना देखते हैं फिर कोई विदेशी महिला जो खुद रेप का शिकार हुई हैं उसको क्या हक़ हैं हम को आईना दिखाने का।

लोग कहते हैं हम अपनी अगली पीढ़ी को बहुत से संस्कार दे कर जा रहे हैं और खबरों पढ़िये तो पता चलता हैं की नोबल पुरूस्कार विजेता , भारतीये रतन विजेता इत्यादि बड़ी बड़ी ना इंसाफियां करते हुए अपने मकाम तक पहुचे हैं।
किसी पर यौन शोषण का आरोप हैं , किसी पर धांधली का तो किसी पर धर्म परिवर्तन करवाने का।
वो जो जितने ऊंचाई के पायदान पर खड़े दिखते वो उतने ही रसातल में दबे हैं।
लोग ये भी कहते हैं मीडिया का क्या हैं किसी के खिलाफ कुछ भी लिख देता हैं
एक ७४ साल के आदमी पर एक २४ साल की लड़की यौन शोषण का आरोप लगाती हैं और हम आज भी रिश्तो की दुहाई ही देते नज़र आते हैं। ७४ और २४ साल में कितनी पीढ़ियों का अंतर हैं पता नहीं पर ७४ वर्ष में ये पहला आरोप होगा क्या ये संभव

February 09, 2015

प्रि-नेटल सेक्स डिटरमिनेशन: थैक्यू सुप्रीम कोर्ट

 प्रि-नेटल सेक्स डिटरमिनेशन: थैक्यू सुप्रीम कोर्ट

अगर आप वेब मीडिया से जुड़े हैं तो अब आपको प्रि-नेटल सेक्स डिटरमिनेशन से जुड़े विज्ञापन या इससे संबंधि‍त सामग्री  देखने को नहीं मिलेगी। 

कल सुप्रीम कोर्ट ने कन्या भ्रूण हत्या से संबंधि‍त वेब सर्चिंग पर अपना अहम निर्णय देते हुए भारत में प्रचलित  गूगल, याहू , माइक्रोसॉफ्ट, बिंग जैसे वेब सर्च इंजिन्स पर भ्रूण से संबंधि‍त किसी भी तरह की जानकारी देने वाले विज्ञापनों को पाबंद करने का आदेश दिया है ताकि भ्रूण से संबंधि‍त जानकारी की आड़ में प्रि-नेटल सेक्स डिटरमिनेशन संबंधी विज्ञापनों के जरएि इस कुप्रथा को बढ़ावा देने पर रोक लगाई जा सके।
 

अभी तक किसी शब्द को खोजते ही ये सर्च इंजिन उस शब्द से संबंधित वेब सामग्री तो दिखाते ही थे साथ ही इससे संबंधित सामग्री के ठीक ऊपर दो या तीन मुख्य विज्ञापन और सर्च पेज के साइड में फिर उन्हीं विज्ञापनों की लंबी फेहरिस्त हुआ करती है। यदि एक ही तरह के या इससे मिलते जुलते शब्द सर्च किये जाते हैं तो उससे संबंधि‍त डाटा सर्च इंजिन्स में दर्ज़ हो जाता है। ऐसे में जब भी आप सर्च करेंगे तो उससे संबंधित विज्ञापनों पर नजर पड़ना स्वाभाविक है।
 

ज़ाहिर है क‍ि इन विज्ञापनों के कारण प्रि-नेटल सेक्स डिटरमिनेशन यानि जन्म से पहले भ्रूण की स्थ‍िति का पता लगाने संबंधी वेबसाइटों के लिंक्स आसानी से उपलब्ध होते हैं और यही लिंक्स भ्रूण के लिंग का पता लगाने वाली वेबसाइट्स का भी पता देती हैं। यानि सब- कुछ कानून के दायरे में आए बिना आसानी से मिलता रहा है। आईटी एक्ट में भी ऐसा कोई प्राविधान अभी तक नहीं है कि जन्म से पहले भ्रूण की स्थ‍िति जानना वर्जित माना जाता हो और इसी का फायदा सर्च इंजिन्स ने उठाया है।
 

इसके अलावा भ्रूण परीक्षण कानून (पीसी पीएनडीटी एक्ट) की धारा 22 में भी वेब सर्च इंजिन्स या इंटरनेट से जुड़ी किसी भी माध्यम की भागीदारी से संबंधित कोई दिशा- निर्देश नहीं दिये गये हैं। ये शायद इसलिए संभव था क्योंकि यह कानून 1994 में बना था और तब इंटरनेट के आम या इतने वृहद उपयोग के बारे में सोचा भी नहीं गया किंतु आज सर्च इंजिन्स पर सारी सूचनाएं लगभग मुफ्त में ही मिल जाती हैं। 
 

गौरतलब है कि पीसी एंड पीएनडीटी अधिनियम के अंर्तगत एफ-फॉर्म भरा जाता है। इसमें गर्भवती महिला का पूरा नाम, पता, सोनोग्राफी का प्रकार, तारीख, गर्भस्थ शिशु की स्थिति , बीमारी, सोनोग्राफी करने वाली संस्था और डॉक्टर सहित विस्तृत जानकारी कुल 19 कॉलम में भरकर देनी होती है। उस समय बनाए गए इस कानून के अंतर्गत चोरी छिपे भ्रूण लिंग परीक्षण करने वाले डॉक्टरों के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) के तहत कार्यवाही करने का प्रावि‍धान है।
 

नई चुनौती के रूप में अब इंटरनेट इसमें नया कारक बन के उभरा है।
 

हालांकि सुप्रीम कोर्ट में कल दिए गये  सरकारी हलफनामे के तहत ऐसी साइट्स को बिना यूआरएल व आईपी एड्रेस के ब्लॉक करने में असमर्थता जताई गई क्योंकि जब तक आईपी एड्रेस और संबंधि‍त साइट्स के यूआरएल सरकार को मुहैया नहीं कराए जाते तब तक वह इन्हें प्रतिबंधि‍त नहीं कर सकती। इसका हालिया समाधान जस्टिस दीपक मिश्रा व पी सी पंत ने यही दिया कि जब तक आई टी एक्ट में नये प्राविधान क्लैरीफाई नहीं होते तब तक सर्च इंजिन पर आने वाले विज्ञापनों को हटा लिया जाए या फिर कंपनियां उन पर स्वयं ही अंकुश लगायें।
इस पर समाज के लिए अपनी जिम्मेदारी से बचते हुए गूगल, याहू व अन्य  कंपनियों की ओर से बेहद लापरवाह दलील दी गई कि भ्रूण परीक्षण की पूरी जानकारी देने वाली इन वेबसाइट्स के बारे में देखना होगा कि कानून में ऐसा कोई प्रावि‍धान है कि नहीं। कंपनियों की ओर से एक बात और बेहद म‍हत्वपूर्ण कही गई कि '' विज्ञापन देना अलग बात है और कोई चर्चा या लेख दूसरी बात है ''। इसका सीधा- सीधा मतलब तो यही निकलता है कि वे भारत में अपना बाजार पाने के लिए सामाजिक जिम्मेदारी की परवाह नहीं करेंगी।
 

गौरतलब है कि जन्म से पहले भ्रूण के लिंग का पता लगाने की कुप्रवृत्त‍ि के कारण  इस समय तक न जाने कितनी बच्च्यिों को जन्म से पहले ही मारा जा चुका है। देश के अधि‍कांश प्रदेशों में इस कुप्रवृत्त‍ि ने अपनी जड़ें जमा रखी हैं। अभी तक तो यही समझा जाता था कि कम पढ़े-लिखे या अनपढ़ व ग्रामीण लोगों में लड़कियों की पैदाइश को बुरा मानते हैं मगर शहरी क्षेत्रों से आने वाले आंकड़ों ने सरकार और गैरसरकारी संगठनों के कान खड़े कर दिए हैं कि यह प्रवृत्त‍ि कमोवेश पूरे देश में व्याप्त हो चुकी है और इसके खात्मे के लिए हर स्तर पर जागरूकता प्रोग्राम चलाए जाने चाहिए,  साथ ही कड़े दंड का प्रावि‍धान भी होना चाहिए ।
 

आमिर खान के शो '' सत्यमेव जयते''  में भी तो शहरी क्षेत्रों से आए लोगों ने इस सच को और शिक्षितों में भी बढ़ रही इसकी क्रूरता को बखूबी बयान किया था,  अब साबू मैथ्यू जॉर्ज की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय इंटरनेट के बढ़ते दायरे, इसके सदुपयोग और दुरुपयोग पर फिर से बहस की जरूरत को रेखांकित करता है कि आखिर संचार का जो जाल विशाल से विशालतर होता जा रहा है वह जिस जनता के दम पर अपना बाजार स्थापित कर रहा है उसके हित में वह कितना योगदान दे रहा है।
कन्या भ्रूण हत्या को लेकर वेब मीडिया और सर्च इंजिन्स को भी कठघरे में लाकर साबू मैथ्यू जॉर्ज की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने जो नेक काम किया है, वह निश्चित ही इस कुप्रथा को कम से कम एक नये एंगल से सोचने पर विवश अवश्य करेगा ।
 

दूरदराज के इलाकों वाले अश‍िक्षित समाज में कन्या भ्रूण हत्या को अंजाम देने वालों से ज्यादा शहरी और शिक्षित परिवारों में बेटा और बेटी के बीच फ़र्क किये जाने के मामले पर सुप्रीम कोर्ट का ये नया तमाचा है जो उनके श‍िक्षित होने पर भी सवाल खड़े करता है क्योंकि अब भी इंटरनेट  का सर्वाधिक उपयोग श‍िक्षित समाज ही करता है और सर्च इंजिन्स का यही सबसे बड़ा उपभोक्ता है।
 

बहरहाल, सर्च इंजिन कंपनियों द्वारा इस मुद्दे पर चर्चा की बात छेड़े जाने के बाद यह तो कहा ही जा सकता है कि क्या कोई चर्चा ऐसी भी कराई जानी चाहिए जिसमें कहा जाए कि हमें लड़कियां चाहिए ही नहीं...  या लोगों से कहा जाए कि वो स्वतंत्र हैं आबादी से लड़कियों को पूरी तरह हटाने को... । ज़ाहिर है कि कानून पर चर्चा तो होती रहनी चाहिए और समय व जरूरतों के मुताबिक इन्हें तब्दील भी किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने यही करने का व कहने का प्रयास किया है। हमें समय की इन नई चुनौतियों के लिए तैयार रहना होगा, साथ ही यह भी कि बाजार द्वारा समाज को प्रभावित करने के मामले में, ये चलेगा मगर ये नहीं चलेगा जैसी भ्रामक मानसिकता त्यागनी होगी। ए‍क स्पष्ट सोच के साथ ही इस सामाजिक बुराई का अंत संभव है क्योंकि कोर्ट हमें रास्ता तो दिखा सकते हैं पर घर-घर जाकर सोच पर ताला नहीं जड़ सकते।
 

- अलकनंदा सिंह

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rachna ji, NAARI ke liye ye meri post. thnx

Blog: अब छोड़ो भी
Post: प्रि-नेटल सेक्स डिटरमिनेशन: थैक्यू सुप्रीम कोर्ट
Link: http://abchhodobhi.blogspot.com/2015/01/blog-post_29.html 

February 07, 2015

मुझे हमेशा लगता हैं हम उनको गरीब कह कर और अपने को अमीर कह कर खुद एक खाई बनाते हैं।

ब्लॉग , फेसबुक और अन्य जगहों पर बातचीत के दौरान जब भी "गरीब" काम करने वालो की बात होती हैं मुझे लगता हैं हम "बड़े" दिखने के लिये उन्हे छोटा होने का एहसास कराते हैं।
मुझे हमेशा लगता हैं हम उनको गरीब कह कर और अपने को अमीर कह कर खुद एक खाई बनाते हैं।
मुझे लगता हैं अब प्रधान मंत्री जन धन योजना के तहत खाते बहुत खुल गए हैं। इसलिये अब जिन घरो में सर्विस प्रोवाइडर यानी आम भाषा में मैड , ड्राइवर , सर्वेंट इत्यादि काम करते हैं और उनकी सैलेरी ५००० रूपए महिने से ऊपर हैं उन सब को हमें चेक से पेमेंट करना चाहिये और महिने की ४ तारीख तक ये हो जाना चाहिये।
इस से दो सुविधा होंगी
१ एडवांस की आदत से छुट्टी दोनों की। एडवांस की वजह से दो नुक्सान होते हैं एक काम करने वाला एक तरह बंधक हो जाता हैं { सोचिये } और दूसरा देने वाला उसको हटा नहीं सकता हैं
२ पैसा बैंक में नियमित जाने से खाताधारी को बैंक की सुविधा भी ज्यादा मिलेगी
इसके अलावा आप इन सब लोगो को एक प्रोफेशनल की तरह मान कर काम लेंगे , गरीब नहीं।
आप सब से आग्रह हैं १४ वर्ष से काम के बच्चो से काम ना करवाये ये कानूनन अपराध हैं। आप काम देना बंद करेगे तभी उनके जीवन में बदलाव संभव हैं। सरकारी योजना का लाभ उनको तब ही मिलेगा जब आप और हम कुछ करेगे
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