कल कन्या भूण ह्त्या पर मेरे प्रश्नों के जवाब मे एक पत्र ईमेल से प्राप्त हुआ हैं । बिना एडिटिंग { केवल २ पंक्तियाँ जो मेरे लिये व्यक्तिगत पत्र था } के आप के समक्ष रख रही हूँ ।
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रचना जी नमस्कार,
सर्वप्रथम आपके प्रति साधुवाद कि आपने कन्या भ्रूण हत्या को लेकर कुछ सवाल उठाये हैं। यद्यपि हम जानते हैं कि आपके पास इस विषय पर पर्याप्त सामग्री होगी किन्तु आपकी इस पहल से उन लोगों में भी कुछ न कुछ गति आयेगी जो इस विषय को लेकर थोड़ा बहुत चिन्तन करते रहते हैं।
आपके द्वारा उठाये गये कुछ सवालों के आधार पर हम बहुत ही संक्षिप्त में कुछ कहना चाहते हैं। आपके सामने अपने बारे में एक छोटी सी बात ये रखना चाहते हैं कि विगत 12-13 वर्षों से हम इसी विषय को लेकर कार्य कर रहे हैं। बहुत तो नहीं पर आंशिक सफलता इस तरफ पाई भी है। इस दिशा में कार्य करने से जो भी सीखा, जो भी पाया उसी आधार पर अपनी बात आपके प्रश्नों के क्रम में रखने का प्रयास भर है। तथ्यात्मक कुछ गलतियाँ हों तो उनको सुधार लीजिएगा।
प्र0 1- कब से शुरू हुआ?
यह प्रश्न ऐसा है जो किसी से भी इसका सही उत्तर नहीं दिलवायेगा। कन्या हत्या की कोई प्रामाणिकता नहीं मिलती। तकनीक के आने के पूर्व कन्याओं की हत्या होती थी या फिर गाँव वगैरह में दाईयां या बूढ़ी औरतें गर्भवती महिला के चाल-चलन, काम-काज को देखकर उसके गर्भ में लड़का-लड़की का अनुमान कर लेतीं थीं (यद्यपि इसके सही होने के कोई भी ठोस सबूत नहीं हैं) इस आधार पर भी गर्भ में हत्या होती थी। इतिहास की बात करें तो जनसंख्या की अतिशय वृद्धि के चलते जब संतति निरोध की बात की गई तो उसकी मार यकीनन लड़कियों पर ही पड़ी होगी।
इसके अलावा घर की आन समझे जाने के कारण भी मुगल काल में महिलाओं को अन्य आक्रांताओं के चंगुल में फंसने से रोकने के लिए भी महिलाओं की हत्या की जाने लगी। महिलाओं द्वारा स्वयं जौहर करने की प्रथा भी सम्भवतः इसी का एक रूप रही होगी।
रियासतों के चलने के समय अपने सिर को न झुकने देने की परम्परा के चलते भी कन्याओं को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा होगा। हमारे जाने हुए म0प्र0 में एक परिवार है जहाँ कि उनके एक व्यक्ति ने (उस व्यक्ति से हम खुद मिले हैं) एक शादी में अपना अपमान होने से क्षुब्ध होकर अपने गाँव समेत आसपास के सात गाँवों में (कुल मिलाकर आठ जो इनकी रियासत में आते थे) लगभग 35 वर्षों तक किसी लड़की को जीवित नहीं रहने दिया (अपने परिवार में भी किसी लड़की को जिन्दा नहीं रहने दिया।) हालांकि हमारे मिलने पर स्वयं अपनी ही नातिन को खिलाते हुए मिले थे और अपने अहंकारी स्वभाव को याद कर रो उठे थे। वर्तमान में वे जीवित नहीं हैं।
कन्या भ्रूण हत्या की शुरूआत तो तकनीक के आने के बाद हुई, इसे सम्भवतः 70-80 के दशक में समझा जा सकता है। वैसे 1901 में ही स्त्री अनुपात 972 था।
प्र0 2 -किन कारणों से शुरू हुआ?
कारण समय परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग हैं। पहले तो एकमात्र कारण अपने अहम को झुकने न देना रहा था। दहेज जैसी समस्या आधुनिक समाज की देन है। यह भी सभी जगहों पर नहीं है।
हरियाणा, पंजाब, दिल्ली जैसी रईसी से भरी जगहों पर कन्या भ्रूण हत्या के पीछे अपनी सम्पत्ति के बँटवारे की धारणा है। उत्तरी क्षेत्रों में यह समस्या दहेज और वंशवृद्धि में बदल जाती है।
वर्तमान मे देखा जाये तो एक बच्चे को लेकर सीमित करते परिवारों के कारण भी कन्याओं की हत्या होने लगी है।
गरीब परिवारों में अभी भी कन्या भ्रूण हत्याएँ अथवा कन्या हत्याएँ न्यूनतम रूप में देखने को मिल रहीं हैं। ये बीमारी अमीर घरों की है।
प्र0 3 -क्यों भारतीय समाज बेटियों के प्रति निर्मम रहा?
आपका ये सवाल वाकई उपयुक्त है। क्या कारण रहे कि हमें बेटियों के प्रति निर्मम होना पड़ा। इस सवाल के जवाब में लोगों को थोड़ा पूर्वाग्रह से निकलना होगा। बिना यह विचार किये कि किस समय क्या काल-खण्ड, परिस्थितियाँ रहीं, हम समूचे समाज का पोस्टमार्टम करने लगते हैं।
यह तो सत्य है कि प्राचीन काल में जब आजीविका के साधन सीमित थे तो पेट भरने का काम आदमी के पास और घर को चलाने का कार्य महिलाओं के पास था। इसके पीछे कारण किसी न किसी रूप में शारीरिक संरचना का अंतर समझा जा सकता है। (हालांकि आज इसे कोई नहीं मानता पर सोचिए उस कालखण्ड को जबकि यातायात के साधन नहीं हैं, सुरक्षा के लिए कोई साधन नहीं हैं, आजीविका के साधनो के लिए पेड़ों आदि पर निर्भर रहना पड़ता था, नदियों, जंगलों की यात्रायें...क्या ये सब उस समय महिलाओं के लिए आसान था?)
इसके अलावा बाद में जब साधन सुविधानुसार बनने लगे, महिलाओं को भी अवसर मिलने लगे तब तक एक परिपाटी के रूप में यह हमारे समाज में व्याप्त हो गया कि महिलायें घर का काम करेंगीं और पुरुष बाहर का काम संभालेंगे। इसी तरह से यह माने जाने के कारण कि कन्याओं को तो दूसरे के घर जाना है लोगों ने अपने बेटों की परवरिश अच्छे से की और बेटियों के प्रति नकारत्मक दृष्टिकोण बनाये रखा।
घर का वातावरण भी बेटियों के प्रति व्यवहार का निर्धारण करता है। आपने स्वयं देखा होगा कि हम गोष्ठियों, सभाओं में तो चिल्लाते हैं कि पुरुषों को घर की महिलाओं के साथ रसोई में भी हाथ बँटाना चाहिए पर यह भी देखा होगा कि यदि संयुक्त परिवारों में ऐसा करते देखा जाता है तो घर की महिलायें ही पुरुषों को ताना मारतीं हैं कि दिनभर महिलाओं के बीच घुसा रहता है।
स्वयं हमारी सोच में भी फर्क के कारण बेटे-बेटियों में अन्तर किया जाता है। हमारी बेटी की शादी होगी तो हम चाहेंगे कि उसके ससुराल वाले उसको पूरी आजादी दें। यदि देते हैं तो हम बहुत तारीफ करते हैं और नहीं देते हैं तो हम ससुराल की बुराई करते हैं। इसी प्रकार से जब हमारे घर में बहू आती है तो हम सोचते है कि वह पूरी तरह भारतीय परम्परा का पालन करे। घूँघट डाले, घर से बाहर कम निकले, बड़ों के सामने कम बोले...आदि-आदि। इस तरह के अन्तर से भी समाज में विषमता पैदा होती है।
प्र0 3 एवं प्र0 4 को एक साथ ही देख जा सकता है। उसके लिए अलग से किसी बात का स्पष्ट करने की जरूरत नहीं है।
शेष तो इस विषय पर बहुत कुछ है कहने को पर सुनने वाला कोई नहीं क्योंकि हम कहेंगे तो अपनी बात, महिलायें कहेंगीं तो अपनी बात। कोई स्पष्ट रूप से सुनने को तैयार नहीं, कुछ भी मानने को तैयार नहीं।
फिर मुलाकात होगी। आपके प्रयास को साधुवाद।
डा0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
लाल अक्षर मे जो कहा गया हैं वह सत्य हैं की बहस के लिये सब तैयार हैं पर जड़ मे क्या समस्या हैं कोई नहीं देखना चाहता । कितनी कम टिप्पणी आयी कल की पोस्ट पर लगा की शायद इस विषय पर लोग शुब्ध तो हैं पर नहीं जानते की क्या लिखे ।
थैंक्स
डा0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर जी आशा हैं नारी ब्लॉग पर अपना स्नेह बनाए रखेगे
बहुत ही अच्छा सवाल उठाया है आपने "पुरुष का शील", शी्ल पुरुष का भी होता है पर समाज और कानून यह सोचता है कि चूँकि पुरुष शक्तिशाली होता है और नारी अबला इसलिये पुरुष के शील का कोई सम्मान नहीं है।
क्या आपने कभी सुना है कि किसी महिला ने फ़लाने पुरुष का शीलहरण कर लिया नहीं ना, वो इसलिये क्योंकि यह जनधारणा है कि पुरुष का कोई शील नहीं होता है वो तो कहीं भी अपना मुँह काला कर सकता है और उसकी आत्मा भी कलंकित नहीं होती, क्योंकि आत्मा भी पुरुष की ही शक्तिशाली होती है, परंतु अगर नारी का शीलहरण होता है तो नारी की आत्मा कलंकित हो जाती है और वो जी नहीं पाती है और हमारा समाज उसे जीने लायक नहीं छोड़्ता। वहीं जो शक्तिशाली पुरुष नारी का शीलहरण करता है वह कुख्यात हो जाता है हालांकि समाज उसे भी सम्मान नहीं देता है।
अस्मत पुरु्ष की कोई नारी लूट ले तो वह अवैध संबंध या मजा ले रहे हैं कहकर हमारे तथाकथित समाज के ठेकेदार उस पुरुष और नारी को भी जीने नहीं देंगे। स्वतंत्रता के ६० सालों के इतिहास में झांककर देख लें तो शायद ही किसी कोर्ट या पुलिस स्टेशन में इस तरह का मामला मिले।
शादी के बाद अगर पुरुष नारी के साथ जबरदस्ती करे तो नारी उस पर शीलहरण का दावा कर सकती है, हमारी सामाजिक और कानूनी व्यवस्था ही ऐसी है कि अगर यही सब पुरुष के साथ होता है तो समाज तब भी नारी का ही साथ देगा और नारी तब भी दा्वा ठोक सकती है कि इसमें पौरुष नही है। और सबका फ़ैसला नारी के समर्थन में ही होगा।
शील पुरुष का भी होता है और भंग भी होता है परंतु जरुरत है समाज और का्नून के नजरिये के बदलने की ।
अपनी एक अंग्रेजी किताब में ’शील’ शब्द को समझाने के लिए लोहिया ने कहा था 'continuity of character' - चरित्र का सातत्य !
शील दोनों का हरण होता है बस इतना समझ ले।
प्रश्न मौजू है कि अँगुली इक तरफ क्यों उठ रही है?
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
होती है ना पुरुष की अस्मत -उसकी माँ ,बहिन ,पत्नी, बेटी
शील और अस्मत पुरुष के लिए भी महत्त्वपूर्ण है लेकिन सिर्फ उन पुरुषो के लिए जो नारी के शील और अस्मत को मान देते हैं.
पुरुषों का शीलहरण भी होते सुना है। तब्बू की एक फिल्म थी, जिसमें १३-१४ साल के एक लड़के का शीलहरण दर्शाया गया था।
नारी द्वारा पुरुष के "शीलहरण" के भी मौके होते हैं, लेकिन वे दूसरे तरह के होते हैं, जैसे कि थप्पड़ या सैंडलों का प्रयोग।
बहुत ही जायज सवाल उठाया है आपने, इसके लिए आप बधाई की पात्र हैं। हमें याद है आज से कोई 23 साल पहले 1986 में जब हम लॉ कालॅजे में पढ़ते थे तो हमने एक बार अपने प्रोफेसर से एक सवाल किया था कि अगर कोई महिला या फिर महिलाओं का समूह किसी पुरुष के साथ बलात्कार कर दे तो उसको क्या सजा मिलेगी। हमारे इस सवाल पर प्रोफेसर ने जवाब दिया था कि भारतीय संविधान में ऐसी कोई धारा नहीं है। तब हमने उनके सामने उस समय जलगांव और भिलाई में हुए दो ऐसे मामले रखे थे जिसमें कुछ लड़कियों ने मिलकर एक-एक लड़के का बलात्कार किया था। ऐसे और कई मामले होते हैं जब लड़कियों की तरह की कुछ लड़कों के साथ गंैगरेप होते हैं, पर ऐसे मामले सामने नहीं आ पाते हैं। जलगांव और भिलाई के मामले इसलिए सामने आए थे क्योंकि उनमें लड़कों की मौत हो गई थी। इन मामलों में आरोपी लड़कियों पर बलात्कार की कोई धारा नहीं लगी थी सिर्फ हत्या का धारा 302 लगी थी। हमने इन उदाहरणों के साथ प्रोफेसर से एक सवाल यह भी किया था कि आखिर भारतीय संविधान में ऐसे मामलों के लिए सजा क्यों नहीं है, तब उन्होंने जवाब दिया था कि भारत में पुरुष को बलशाली माना गया है इसलिए ऐसा कोई प्रावधान संविधान में नहीं है। यह बात वास्तव में गले नहीं उतरती है कि पुरुष तो बलशाली हैं इसलिए उनकी शील का हरण नहीं हो सकता है। अगर पुरुष को जलगांव और भिलाई कांड की तरह ही एक साथ कई महिलाएं घेर लें तो वह अकेले बेचारा पुरुष क्या अबला नारी की तरह अबला पुरुष नहीं हो जाएगा। पुरुष की शील का मुद्दा एक ऐसा मुद्दा है जिस पर काफी लंबी-चौड़ी बहस हो सकती है। इस बहस को छेडऩे के लिए एक बार फिर से आपका आभार रचना जी।
abla hotihai nari hind ke samvidhan me ,
warna bina sheel ke nahi paida hota purush is jahaan me .
par gar than le nari pratishodh apne apmaan me ,
to ho jyega parivartan sheel haran ka hind ke samvidhaan me .
mukesh pandey "chandan "
आप के इस प्रश्न का सीधा संबंध शास्त्री जी के आलेख से है। मैं ने वहाँ एक टिप्पणी छोड़ी है संदर्भ के लिए उस के कुछ तथ्य यहाँ भी रख रहा हूँ....
सारा विवाद अस्मत शब्द में छिपा है। केवल स्त्री के लिए अस्मत शब्द का प्रयोग होता है। वस्तुतः समाज विकास के दौर में जब संग्रहणीय संपत्ति अस्तित्व मे आई और उस के उत्तराधिकार का प्रश्न खड़ा हुआ तो स्त्री की संपत्ति का अधिकार तो उस की संतानो को दिया जा सकता था। फिर यह प्रश्न उठा कि पुरुष की संतान कौन? इस प्रश्न के निर्धारण ने बहुत झगड़े खड़े किए। जब तक गर्भ धारण से संतान की उत्पत्ति तक स्त्री किसी एक पुरूष के अधीन न रहे तब तक संतान के पितृत्व का निर्धारण संभव नहीं था। इसी ने विवाह संस्था के उत्पन्न होने की भूमिका अदा की और स्त्री की अस्मत को जन्म दिया।
अब स्त्री भी वैसे ही व्यवहार की अपेक्षता पुरुषों से करती है। तो पुरुषों और पितृसत्तात्मक समाज के लिए संकट पैदा हो जाता है। वे खुद को कठगरे में खड़ा महसूस करते हैं। यह वर्तमान सामाजिक व्यवस्था का बड़ा अंतर्विरोध है। इसे हल होने में बहुत समय और परिवर्तन चाहिए।
बहुत सार्थक बहस की शुरुआत की है आपने...
नीरज
रचना जी इस बार भी आप कुछ नया करतीं दिखीं, बधाई। इस तरह के सवाल पर एक बात स्पष्ट करनी होगी कि शील का अर्थ क्या लगाया जाता है-स्त्री-पुरुष- दोनों के संदर्भ में?
शील जैसी शब्दावली यदि चरित्र के हरण से है तो वह तो क्षण-प्रतिक्षण हर व्यक्ति का हो रहा है।
शील हरण का तात्पर्य यदि शारीरिक शोशण से है तो वह भी स्त्री और पुरुष दोनों का हो रहा है।
शील भंग का अर्थ यदि शारीरिक समागम के संदर्भ में है तो यकीनन वह स्त्रियों का अधिक और पुरुषों का कम होता है, पर होता अवश्य है।
रही बात महिला के शील भंग होने की तो हमारी मीडिया और समाज का ऐसी घटनाओं के प्रति रवैया ही कुछ अलग है। समाचार यह नहीं बनता कि एक पुरुष ने महिला के साथ बलात्कार किया। खबर बनती है कि एक दलित महिला की इज्जत लुटी, नाबालिग लड़की की इज्जत लूटी, दबंगों ने महिला की अस्मत लूटी...वगैरह, वगैरह। क्या वाकई इज्जत लुटना-लूटना जैसी शब्दावली जायज है? स्त्री के शारीरिक शोषण को दर्शाना ही माकूल नहीं? और तो और इन खबरों को बड़ी ही चटपट बना कर पेश भी किया जाता है।
रही बात पुरुष शील हरण की तो यदि इसका तात्पर्य शारीरिक समागम से है, यौनिक सुख से है तो इसकी अवधारणा को व्र महिलायें, स्त्रियाँ, लड़कियाँ भली-भांति प्रस्तुत कर सकतीं हैं जो हास्टल में रहतीं रहीं हैं, रह रहीं हैं।
आये दिन तांगे वाले, रिक्शे वाले गरीब आदमी इनका शिकार होते हैं पर कहा जाता है न कि दोष भी कमजोर को और सुनवाई भी कमजोर की....