" जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की " "The Indian Woman Has Arrived " एक कोशिश नारी को "जगाने की " , एक आवाहन कि नारी और नर को समान अधिकार हैं और लिंगभेद / जेंडर के आधार पर किया हुआ अधिकारों का बंटवारा गलत हैं और अब गैर कानूनी और असंवैधानिक भी . बंटवारा केवल क्षमता आधारित सही होता है
हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।
15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं
15th august 2012
१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं
"नारी" ब्लॉग
" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "
April 30, 2008
पति पत्नी और वो यानि गलती बलिदान व्यभिचार
क्यो ऐसा कहा जाता हैं ?
और क्यो ऐसी बात को एक पत्नी कहती हैं ?
क्या पति पत्नी का रिश्ता इतना कमजोर हैं कि वह एक दूसरी महिला के कारण टूट जाता हैं ?
एक एक अविवाहित , सिंगल , तलाकशुदा स्त्री अगर रिश्ता खोज रही हैं तो कहीं ना कहीं उसे अपनी जिंदगी मे कोई कमी लगती हैं जिसे वह पूरा करना चाहती हैं अतः निष्कर्ष मे वह किसी का पति नहीं खोज रही हैं अपितु अपने लिये एक साथी खोज रही हैं ।
इस अविवाहित , सिंगल , तलाकशुदा स्त्री से अगर , कोई पुरूष जो किसी का पति हैं , सम्बन्ध बनाता हैं तो गलती पति कि हैं या इस स्त्री की ?? अगर दोनों कि तो समाज मे दोषी केवल इस स्त्री को क्यो समझा जाता हैं । मै यहाँ समाज की मानसिकता की बात कह रही हूँ । क्यो उस पुरूष को हमेशा ये कह कर निर्दोष मान लिया जाता हैं कि "ये तो एक पुरूष कि आदत हैं" और "घूम घाम कर वह अपने घर वापस आ ही जायेगा " । क्या ऐसा पुरूष जब घर वापस आता हैं तो निर्दोष होता हैं ? क्यो हमारे समाज और कानून व्यवस्था मे ऐसे पुरुषो के लिये कोई सजा का प्रावधान नहीं हैं? जो एक महिला के साथ विवाह करता हैं और दूसरी महिला के साथ भी कुछ समय सम्बन्ध रखता हैं और फिर सामजिक दबाव के चलते वापस पत्नी के पास जाता हैं . क्यो नैतिकता कि कोई जिमेदारी इस पुरूष कि नहीं होती हैं ? क्या नैतिकता एक व्यक्तिगत प्रश्न हैं ?? जो समाज मे सुविधा के हिसाब से लागू किया जाता है ।
इसके अलावा भारतीये पत्निया जो हमेशा अविवाहित , सिंगल , तलाकशुदा स्त्री को "हेय" नज़र से देखती हैं और गाहे बगाहे टिका टिप्पणी करती हैं उनका कितना अपना दोष हैं इस प्रकार के संबंधो बनने मे ? क्यो उनका पति किसी और स्त्री की और आकर्षित होता हैं ? मै ऐसी बहुत सी विवाहित स्त्रियो को जानती हूँ जहाँ बच्चे होने के बाद पति पत्नी मे दैहिक सम्बन्ध ना के बराबर हो जाते है । कामकाजी पत्नी या घर गृहस्थी मे उलझी पत्नी अपने पति कि ज़रूरतों को भूल जाती हैं और फिर पति बाहर जाता हैं , तो क्या ऐसी पत्नी पर समाज मे अनैतिकता को बढ़ावा देने का दोष नहीं लगना चाहिए ??
और इस सब से जुडा सबसे अहम् प्रश्न हैं कि अगर पति ने दूसरी स्त्री से सम्बन्ध स्थापित किया है और पत्नी को पता हैं तो वह ऐसे पति के साथ आगे कि जिंदगी क्यो रहना चाहती हैं ? क्या बच्चो के लिये ? तो ऐसे घर मे जहाँ पति पत्नी केवल सामजिक व्यवस्था के चलते समझोता करते हैं वहाँ के बच्चो को संस्कार मे क्या मिलता हैं ? क्या पत्नी अपने आप को अलग करके दुबारा जिंदगी को स्वाभिमान के साथ नहीं जी सकती हैं ? कहाँ चला जाता हैं पत्नी का स्वाभिमान जब वह उसी आदमी के साथ फिर दैहिक समबन्ध बनाती हैं ? क्यो उसको उस पुरूष के साथ सम्बन्ध बनना अनैतिक नही लगता जो किसी और के साथ सम्बन्ध बना चुका हैं ?
और अगर उसको ये अनैतिक नही लगता हैं तो फिर उसे एक अविवाहित , सिंगल , तलाकशुदा स्त्री का किसी पुरूष से दैहिक सम्बन्ध क्यो अनैतिक लगता हैं ? क्या " अनैतिक " शब्द कि परिभाषा व्यक्ति से व्यक्ति और समय से समय बदल जाती हैं ?
अगर पति पत्नी के लिये को नैतिकता अनैतिकता का प्रश्न नहीं हैं तो समाज मे नैतिकता का सारा जिम्मा केवल एक अविवाहित , सिंगल , तलाकशुदा स्त्री का ही क्यो हैं ।
पति पत्नी और वो मे नैतिकता सिर्फ़ वो के लिये ही क्यो होती हैं ??
पति का कृत्य गलती / मिस्टेक , पत्नी का कृत्य बलिदान / सक्रीफईस और एक अविवाहित , सिंगल , तलाकशुदा स्त्री का कृत्य व्यभिचार / प्रोमिस्कुइटी ????
April 29, 2008
आखिर माज़रा क्या है...?
एक नन्ही सी परी जिसे अभी दुनियां के रीति-रिवाजों से कुछ लेना देना नही, ब्याह दी जाती है...चेहरे के भाव बता रहे हैं कि वह अभी कुछ नही जानती मात्र दस साल और ब्याह दी गई एक एसे पुरूष के साथ जो उससे तिगुनी उम्र का है,...विवाह के बाद वह खुशी-खुशी पति के साथ ससुराल भी आ जाती है...उसे पति से कोई मतलब नही, उसे फ़िक्र है तो शादी में बने लड्डुओं की या फ़िर सुन्दर-सुन्दर कपड़ों की जो विवाह मे मिले थे...ससुराल आकर जब पहले ही दिन सास उसे बताती है कि उसे पति का ख्याल रखना है, पति कभी नाराज न हो, किसी भी बात पर उससे झगड़ा मत करना...बालमन सास की बात सहज ही स्वीकार कर लेता है...किन्तु रात को पति जब उसके साथ जोर-जबर्दस्ती करता है और उसे बताता है कि वह उसका मालिक है उसे उसकी हर बात माननी है...दर्द और पीड़ा से वो बच्ची चींख पड़ती है...जाने कहाँ घर के किस कौने में उसकी दबी-दबी घुटन भरी चींख रह जाती है...और पति रौष और झुंझलाहट के साथ अपना सर पकड़ता हुआ कमरे से बाहर आता है... घर के सभी लोग स्तब्ध हो लड़के को देख रहे होते है माथा खून से लथ-पथ जब तक कोई कुछ समझ पाता सास उस नन्ही सी बच्ची को बाल पकड़ बीच चौक मे खींच लाती है...क्षत-विक्षत आधे अधूरे कपड़ो में ही उसे मार-पीट कर घर से बाहर निकाल दिया जाता है...कल ब्याही गाजे-बाजे के साथ आज लहू-लुहान वो रोती कलपती चली जा रही है अपने बाबुल के घर...लेकिन किधर जिसने बिना सोचे समझे तिगुनी उम्र के साथ उसे ब्याह दिया... और नतीजा भी कुछ न निकला...
अगले दिन जबरदस्ती उसका पिता उसे फ़िर वहीं छोड़ आता है...लो अब तो कहानी और भी बढ़ गई...रोज-रोज की मार-पीट...और औरत बनने की नसीहत एक दिन तो हद ही हो गई जब ससुर ने भी उसे पीटा और जोर-जबर्दस्ती की...अब तक तो पति ही था आज ससुर भी...उसके चीखने चिल्लाने का असर यह हुआ की एक कमरे में वो कैद कर दी गई...हर रोज उसका मार-पीट के साथ भक्षण होता चील कौवों की तरह सब उस पर टूट पड़ते... एक दिन तो हद ही हो गई जब उसे पागल कह घर से निकाल दिया गया...गली के बच्चे भी उसे पत्थर मारने लगे और आज वो सचमुच पागल हो गई...आखिर उसका दोष क्या था?
ये मात्र कहानी नही असलियत है हमारे राजस्थान की एक जीती जागती औरत जो कब बच्ची से औरत बनी उसे पता भी न चला... जो आज सचमुच पागल हो चुकी है...जहाँ आज भी कुछ घर पिछड़ी जाती के है जिन्हे बेटी पैदा होने पर अफ़सोस होता है...जो औरत को सिर्फ़ और सिर्फ़ एक भोग-विलास की वस्तु समझते है...हर कुकर्म करके भी सब पुलिस से बच जाते है...पुलिस तक बात ही नही पहुँच पाती...
ऎसे मामलों में पास-पडौस या पुलिस लाचार होकर तमाशा देखती रहती है...क्या इलाज़ है ऎसे लोगो का....कैसे बचाया जाये इन रूढिवादी लोगो से मासूम नन्ही जान को जिनका कोई कसूर नही कसूर है तो बस इतना कि वो एक औरत है और एक ऎसे घर में जन्मी जहाँ जन्मी के न जन्मी कोई मायने नही...
सुनीता शानू
April 27, 2008
बेटियाँ ही बेटे है.
शादी के २ साल बाद जब इस दंपत्ति की पहली बेटी पैदा हुई तो सास कुछ ज्यादा खुश तो नही हुई पर निराशा भी नही हुई क्यूंकि एक तो ये पहला बच्चा था और दूसरे सास के दिल मे कहीं ये उम्मीद थी कि हो सकता है की अगली बार बेटा हो जाए।अभी बेटी ढाई साल की हुई ही थी कि उन्होंने एक और बेटी को जन्म दिया। अब दूसरी बेटी के पैदा होने पर सास-ससुर बहुत दुखी हुए । ससुर जी ने तो कुछ नही कहा पर सास एक और बेटी के पैदा होने से बिल्कुल भी खुश नही थी। उन्हें ये लग रहा था की दो लड़कियां हो गई है अब उनके बेटे का नाम कैसे आगे चलेगा क्यूंकि वंश का नाम तो बेटे से ही होता है। बेटे से तो माँ कुछ नही कहती थी पर वो यदा कदा अपनी बहु को कुछ कुछ सुनाती रहती पर बहुत ज्यादा वो कुछ नही कह पाती थी क्यूंकि उनका बेटा इस तरह की बातों को ज्यादा तवज्जोह नही देता था।और बेटे के सामने ना तो वो ज्यादा बोलती थी और ना ही उनकी बेटे के सामने ज्यादा चलती थी।
दो साल और बीते और उनकी सास हर समय पोता देख लूँ तो धन्य होऊं वाली बात दोहराती रहती। और इसी बीच एक बार फ़िर से वो माँ बनने वाली थी। इस बार सास को यकीन था की उनकी बहु के बेटा ही होगा। पर इस बार भी उन्हें बेटी हुई तो सास बहुत ही ज्यादा निराश हो गई क्यूंकि उनकी पोते को देखने की उम्मीदों पर पानी फ़िर गया था।हालांकि अगर सास का बस चलता तो बेटे की चाहत मे शायद १-२ बच्चे और इस दंपत्ति के हो गए होते।
पर इस बार पति -पत्नी ने तय कर लिया था की बेटा हो या बेटी अब वो और बच्चे पैदा नही करेंगे। अपनी बेटियों को ही वो पढा -लिखा कर इस लायक बनायेंगे कि उन्हें बेटे की कमी कभी महसूस ही ना हो।और उस दंपत्ति ने किया भी वही।उन्होंने अपनी तीनो बेटियों को अच्छे स्कूल और कॉलेज मे पढाया और आज तीनो बेटियाँ पढ़-लिख कर अच्छी नौकरी कर रही है ।इस दंपत्ति ने हमेशा अपनी बेटियों को अपना बेटा माना । और अब तो इन बेटियों की दादी भी अपनी पोतियों की तारीफ करते नही थकती है।
April 26, 2008
" एक लड़की जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "
मिसाल बिक "ऊषा" जिसने एक ऐसे परिवार मे जनम लिया जिसे समाज का एक तबका चमार और दूसरा तबका सफाई कर्मचारी कहता हैं । ७ साल की उमर से घर घर जा कर सिर पर human waste ढोने वाली ये लड़की जुलाई के पहले हफ्ते मे U N जा रही हैं , जहाँ उसकी और उसके जैसी १५० महिलाओ की प्रेरणा भरी जिन्दगी के बारे मे लिखी किताब का विमोचन हैं । ऊषा ने आज से ५ साल पहले अपनी जिन्दगी को बदला और उस संस्था की सदस्य बनी जिसका नाम " नयी दिशा " हैं । उस संस्था ने उनको अचार और नूडल्स बनाने का काम दिया और आज ये products मार्केट मे बिक रहे हैं । ऊषा की स्वतंत्र सोच ने उसके लिये जिन्दगी के नए दरवाजे खोल दिये हैं ।
ज्यादा जानकारी इस लिंक पर उपलब्ध हैं
इसकी को कहते हैं " the indian woman has arrived "
April 25, 2008
सुख की खोज...
शीला दीवारों पर आँख गडाए रोती रहती...उसके नसीब में लौह सलाखें हैं वह पिंजरे में बंद है सिर्फ दाना चुगने और पानी पीने के लिए.पिंजरे से वह भाग जायेगी..दीवारों और छत की कडियों ए बातें करते हुए वह प्लान बनती रही. घुल्घुल कर जीने के बजाय मर जाना अधिक अच्छा है...एक डरपोक औरत और कर भी क्या सकती है - घर की चार दीवारी का डर , समाज का डर , दुनिया का डर - चारों और डर ही डर.नहीं चाहिए उसे खुला आकाश.बस एक ही चीज़ की कामना है ,वह है मौत. तभी उसके अबोध बच्चा माँ-माँ कह उठे और वो उन्हें घूरने लगी- क्या तुम लोगों ने जान लिया.इतना प्यार से मत देखो...अभी मुझे जीना है, तुम्हारे लिए जीना है.सारा ज़हर पीकर सब झेलते हुए तुम्हे बड़ा करूंगी- दूर खडा भविष्य मुझसे कहता है - मैं एक दिन खुशकिस्मतों में गिनी जाउंगी...
April 24, 2008
क्या पुरूष नारी की स्वंत्रता से डरता है ,,?
चलते चलते .... ।कल एक अजब वाकया हुआ जिस से यह पता चलता है कि कि आज चाहे पुरूष कहे कि नारी की सोच आज़ाद है नारी अब आज़ाद है ॥सब शायद बदला हुआ नही है ..पुरूष आज भी यह सोचता है कि स्त्री है न यह किसी बात की गंभीरता को क्या समझेगी... आज कल हम अपनी बिटिया के लिए उपुक्त वर की खोज में लगे हैं ..एक जगह गुण मिलने पर मैंने फ़ोन किया कि आपके बेटे की जन्मपत्री मैंने अपनी बिटिया की जन्मपत्री से मिलवायी है .आप भी देख ले फ़िर आगे बात करते हैं ..फ़ोन पर उस वक्त उस सज्जन ने आराम से बात की और कहा कि वह अपने पंडित जी से बात करके वापस फ़ोन करेंगे ..कल उनका फ़ोन आया कि वह हमसे ..मेरे पतिदेव से मिलना चाहते हैं ..और बात भी उन्ही से ही करना चाहेंगे .मैंने कहा कि यह सेल नम्बर तो मेरा है ..वह इस समय मीटिंग में होंगे ..उनका जवाब आया कि मैंने कल भी आप से बात की ..पर मुझे अच्छा नही लगा .फ़िर लगा कि चलिए आप बात कर रही है तो बात कर लेता हूँ ...इस मामले में पुरूष को ही बात करनी चाहिए क्यूंकि औरतों की बातें औरतों की होती है ..उनको इन बातो की समझ नही होती है ..मैंने कहा अजीब बात कर रहे हैं आप ..मैं लड़की की माँ हूँ और पूरा हक है मेरा उतना ही बात करने का जितना उसके पापा का है .पर उनका जवाब था कि नही एक औरत ऐसे मामले की गंभीरता को नही समझ सकती ..सुन के गुस्सा तो बहुत आया ...पहले सोचा ऐसी मानसिकता रखने वाले से क्या रिश्ता जोड़ना .यहाँ क्या बात करना ....फ़िर दिल ने कहा कि नही इन महाशय से मिलना बहुत जरुरी है ..मिलने पर इन महाशय ने सिर्फ़ मेरे पतिदेव से बात की .और मेरी किसी भी बात का कोई उचित जवाब नही दिया .सिर्फ़ इसके सिवा जब .मैंने पूछा कि क्या आपकी बड़ी बहू नौकरी करती हैं .जवाब आया कि नही जी मैं औरतों की नौकरी के पक्ष में नही हूँ ..मेरी पत्नी भी जाब करती थी मैंने उनको भी मना किया और अपनी बहू की भी ..औरतों की शिक्षा सिर्फ़ इस लिए हो कि वह किसी इमर्जेंसी में काम आए नही तो वह घर ही संभाले तो अच्छा है ..हमने हाथ जोड़े और इन महाशय की सोच को नमन करते हुए वापस आ गए .यह सोचते हुए कि .क्या सच में हमारा समाज बदल रहा है ..या यह दिखावा है .???
रंजू भाटिया
मेरी सोच स्वतंत्र है ।
April 23, 2008
तुसी ग्रेट हो
जिस तरह से तुसी अपने सपने को साकार करने मे लगी हुई है उससे लगता है की अगर मन मे ठान ले तो कोई भी काम मुश्किल नही है।
April 22, 2008
दहेज ...एक पुरानी दीमक
हम नारी होने का दावा करती हैं और नारी समस्या का अवलोकन भी साथ-साथ चलता है पर हम मैं से कितनी है जो हमेशा नारी अत्याचार के पक्ष मैं आवाज उठाती है ।
मैं दूर नही जाती, अपने घर अपनी ही छोटी बहिन की ही बात आज आपके साथ बाँटती हूँ । १६ अप्रैल '०८ को उसके विवाह को आठ साल पूर्ण हुए है मात्र कहने के लिए । अपने पति के घर इन आठ सालो में बस कुछ महीने ही बीताये है, कारन वही पुराना घीसा पीटा "दहेज"।
अक्सर जब वो अपने सात साल के बेटे के साथ बैठी बाते करती है तों पति हूँ क्या पाया उसने इस विवाह के बदले।
वूमेन सेल के चक्कर , कोर्ट और वकीलों की बहस या रिश्तेदरो की बाते ....
आसान नही ऐसी ज़िंदगी जंहा एक लड़की, हाथो में मेहँदी सजा, इक नए परिवेश में जाती है और नए सिरे से अपनी ज़िंदगी को उस माहोल में ढालती है कभी बहु तों कभी पत्नी बन कर , लेकिन क्या ससुराल वालो का फ़र्ज़ नही की उसके लाये समान को तोलने के जगह उसकी मदद करे ।
अरे, कम से कम औरत होने के नाते ही उसकी सास और ननद इक अच्छा वय्व्हार करे । यह कौन सी रीत है की उसे भूखा , हाथ पैर तोड़ उसके, बंद काल कोठरी में मरने के लिय छोड दे।
इन्साफ के लिए , औरतो के बचाव के लिए ४९८ नामक धारा तों कानून में है ..पर इन्साफ के लिए कितनी कोर्ट के चक्कर लगाने है यह कंही नही लिखा है ..कितना वकील और कब तक पैसा लेगा यह भी तए नही है ।
दिल्ली की पटियाला कोर्ट की बात करूँ तों हजारो ऐसे फैसले अभी भी कई सालो से सड़ रहे है और न जाने कब वो वंही दम तोड़ देंगे ।
केवल नुकसान हो रहा है तों उन सताई औरतो का व उनके बच्चो के भाविषेयो का जो शायद इसी आस में हर बार कानून के आगे इक अस लिए खडे रहते है की शायद अब आज उन्हे फ़ैसला मिल जाएगा........
फिलहाल इतना ही ओर लिख नही पाऊँगी ...उन बेबस औरतो के चेहरे मुझे रुला रहे है...
कीर्ती वैद्य ....
April 20, 2008
"एक महिला जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "
ज्यादा जानकारी इस लिंक पर उपलब्ध हैं ।
इसी को कहते हैं " the indian woman has arrived "
बढ़ते कदम
तो आइए मिलें
यास्मीन मुश्किल से पंदरह सौलह साल की, छरहरे बदन वाली, थोड़ी सांवली सी एक बांग्लादेशी लड़की थी जो मेरे यहां रात का खाना बनाने आती थी। चार बहनों में वो सबसे बड़ी थी, उसकी मां मेरे यहां बर्तन मांजने का काम करती थी। मुश्किल से 10 साल की रही होगी जब उसकी मां उसे कभी कभी अपने बदले में हमारा काम करने भेज देती थी ,पहले तो यकीन नहीं हुआ कि ये हमारा पीठ तोड़ू सफ़ाई का काम कर सकेगी, पर वो काम ऐसे करती थी मानों खुदा की इबादत में लगी हो। धीरे धीरे हमें उसका काम इतना पसंद आने लगा कि हम उसकी मां के बदले उस से ही काम करवाना चाह्ते थे। उसकी अपनी मां ये सुन कर जलन के मारे कोयला हो ली और उसका हमारे घर आना बंद कर दिया।
खैर आते जाते हमारी मुलाकात अक्सर उससे हो जाती थी। पता चला कि उसने हमारे एक पड़ोसी के बच्चे संभालने का काम पकड़ लिया है। अब वो सारा दिन उनके घर रहने लगी। बच्चे क्या उस दस साल की बच्ची ने पूरा घर ही संभाल लिया। अल्मारियों की सफ़ाई से लेकर माइक्रोवेव चलाना, चायनीज बनाना, बेकिंग करना वगैरह उसने बहुत जल्द सीख लिया। वो इस बात से भी खूब अच्छी तरह से वाकिफ़ हो गयी थी कि हमारी दुनिया में सफ़ाई पसंद की क्या अहमियत है। जल्द ही अपनी मीठी जबान और कार्य मुस्तेदी से मेरी पड़ोसन का मन जीत लिया।
स्कूल कभी न जा सकने की कसक उसके मन में काफ़ी तीव्र थी, आखिर घर पर छोटी बहनों को ठ्सक से सुबह स्कूल यूनिफ़ोर्म पहन स्कूल जाते देखती थी। थकी हारी जब शाम को घर लौटती तब भी मां की यही अपेक्षा होती कि वो मां के साथ घर के काम में हाथ बटां दे, बहने नहीं, उन्हें पढ़ने के लिए छोड़ दिया जाये।
लेकिन यास्मीन की डिक्शनरी में निराशा का शब्द नही। काम खत्म कर वह मालकिन के बच्चों की किताबें ले कर बैठ जाती, और पढ़ने की कौशिश करती, दूसरी पड़ोसन के यहां काम के बदले पढ़ाई का फ़ोर्मूला अपनाते हुए उसने , पहली कक्षा से लेकर 5वीं तक सब विषय पढ़ने शुरू कर दिए, बकायदा ट्युशन लगा कर गणित पर विजय हासिल की। उसके अलावा, ड्राइंग उसका प्रिय विषय था। घर पर भी जल्दी जल्दी मां के साथ हाथ बंटा कर वो बहनों की किताबें ले कर बैठ जाती।
उसकी मां को भी अंदर ही अंदर कहीं न कहीं इस बात का मलाल तो था कि गरीबी के चलते उसने छोटी बेटियों के भविष्य की खातिर सबसे बड़ी बेटी का भविष्य स्वाहा कर दिया था। मां हर्गिज नहीं चाह्ती थी कि उसकी बेटियाँ जिन्दगी भर झाड़ू बर्तन करती रहें। उसने अपनी बेटी को कपड़े सीने का हूनर हासिल करने के लिए उकसाया पर उसमें बेटी को इतना मजा न आया। इस लिए सीख कर भी उसने उसे अपनी कमाई का जरिया बनाने से इंकार कर दिया। करते करते बिटिया पंद्रह साल की हो गयी। इस बीच बेटी को ब्युटी पार्लर का काम पसंद आने लगा और उसने लग कर मां की शह पर बकायादा दो साल ब्युटी पार्लर का काम सीखा। जिस काम में हाथ डालती है उसे इबादत की तरह करना उसके व्यक्तित्व का हिस्सा है। लाजमी है कि ये काम भी वो बखूबी कर रही है।
आज आलम ये है कि कभी मेरी ही बिल्डिंग के कम्पाउंड की दिवार के साथ झोपड़े में रहने वाली यास्मीन अपने परिवार के साथ एक पक्के साफ़ सुथरे किराए के मकान में रहती है घर में टी वी, गैस का जुगाड़ हो चुका है। दूसरे नंबर की बहन नौवीं क्लास की परीक्षा दे चुकी है और दसवीं के लिए ट्युशन की जुगाड़ में है। यास्मीन भी अब प्राइवेट रूप से दसवीं की परीक्षा देने की तैयारी कर रही है। सब बहनों ने अंग्रेजी में गिटपिटाना अच्छे से सीख लिया है। यास्मीन अब 18 साल की हो चली है।
उस के समुदाय की सस्कृंति के हिसाब से लड़कियों की शादी 12 /13 साल की उम्र में कर दी जाती है, पर 18 को पार करने के बाद भी यास्मीन का अभी शादी का कोई इरादा नहीं। शुरु शुरु में उसके पिता इस बात से काफ़ी अस्वस्थ महसूस करते रहे और बिटिया के लिए वर ढूढने का भरसक प्रयत्न किया पर हार कर उसे मां बेटी की मर्जी के आगे झुकना पड़ा। यास्मीन का अभी शादी करने का कोई इरादा नहीं, कालांतर में भी उसे अतंरजातीय विवाह से एतराज नहीं हालांकि उसकी मां खुद को इस बात के लिए राजी नहीं कर पाई।
यास्मीन की कहानी में उसकी मां की भूमिका भी कुछ कम अहम नहीं। बांग्लादेश से आने के बाद उसकी मां को इस बात का एहसास हो गया था कि अब बांग्लादेश लौटना कभी न हो सकेगा। दूसरा झटका जिंदगी का उसे तब लगा जब एक के बाद एक चार लड़कियां पैदा हो गईं और पति निठल्ला न काम का न काज का दुश्मन अनाज का, पर न वो निराश हुई न उसने अपने सपने छोड़े, न पति की धमकियों से डरी कि वो दूसरी शादी कर लेगा, बस एक ही लगन के मेरी बेटियों का भविष्य उज्जवल हो, फ़िर चाहे पति उसमें कोई भूमिका निभाए या न निभाए। उसने न सिर्फ़ सपने देखे उन्हें पूरा भी किया। कभी मेहनत से तो कभी अपने दिमाग की ताकत से। हर हाल में आशावादी और झुझारू रहना यास्मीन ने शायद अपनी मां से सीखा है।
यहां ये बताना भी शायद ममता जी की कड़ी से जुड़ना होगा कि यास्मीन की छोटी बहनें मुस्लिम समाज का हिस्सा होने और झोपड़े में रहने के बावजूद अक्सर जींस टॉप में दिखती हैं। उसका एक कारण तो उनकी मां का काफ़ी दमदार व्यक्तितव होना है और कुछ हमारी बम्बई की सस्कृंति।
April 18, 2008
आख़िर क्यों ?
पर जैसा की सोच है धीरे-धीरे जब लोगों को पता चला की वो उनका बेटा नही बेटी है तो लोगों ने बातें बनानी शरू कर दी कि देखो लड़की होकर लड़कों के साथ खेलती और घूमती है।हर समय पैंट-शैर्ट मे क्यों रहती है। इसकी कॉलोनी की दूसरी लड़कियों से दोस्ती क्यों नही है।आख़िर क्यों ये हर समय लड़कों के साथ ही रहती है।
हालांकि वो एक छोटी बच्ची ही थी पर लोगों को चैन कहाँ मिलता है। कॉलोनी की महिलाओं ने उसकी माँ जो की तब तक अपनी बेटी के इस तरह से कपड़े पहनने को लेकर बिल्कुल परेशान नही होती थी उन्हें लोगों ने कह-कह कर अहसास दिला कर कि तुम्हारी बेटी है इसे अगर अभी से कंट्रोल नही करोगी तो ये हाथ से निकल जायेगी।लड़की है कहीं कुछ ऊँच-नीच हो गई तो क्या करोगी।भला कोई बेटियों को इतनी छूट देता है।
और फ़िर वही हुआ उस लड़की का भाइयों के साथ और दूसरे लड़कों के साथ खेलना बंद करवा दिया गया।और उसे लड़कियों जैसे कपड़े पहनने पर जोर डाला गया।और पैंट और शर्ट की जगह सलवार -कमीज ने ले ली। और उसके बाद तो बस जब वो स्कूल की ओर से क्रिकेट खेलने जाती तभी पैंट और शर्ट मे दिखती थी ।अगले २-३ साल तक यही सिलसिला चलता रहा ।ये जरुर है की उसे इन २-३ साल तक अपनी मर्जी से कपड़े पहनने की छूट नही थी और वो इस बात से हमेशा परेशान रहती की आख़िर क्यों उसे अपनी पसंद के कपड़े पहनने की आजादी नही है। पर जब वो १० क्लास मे पहुँची तो उसने फ़िर से सलवार सूट के साथ-साथ पैंट-शर्ट भी पहनना शुरू कर दिया हाँ कॉलोनी मे तो नही पर उसने स्कूल और बाद मे कॉलेज मे भी क्रिकेट खेलना जारी रक्खा।
April 17, 2008
मेरी अपनी बात
अपनी दस साल की नौकरीपेशा ज़िंदगी में मेरे अनुभव कुछ बड़े अजीब और खट्टे रहे लकिन जो भी रहे उनमे अधिकतर मीठे भी रहे पर हमेशा कटु अनुभव कम ही भुलाए जाते है ....
अब से पाँच साल पहले में जिस कम्पनी में काम करती थी ...वंहा के विवाहित मेनेजर ने बेहद निर्भीकता के संग मेरे सामने हमबिस्तर होने का प्रस्ताव रखा , चोंक्ने की बात यह नही की उन्होने ऐसा कहा बल्कि यह थी की मैं उनकी धर्मपत्नी को अगर बता देती तों उनका क्या हर्ष होता यह भी नही सोचा उन्होने ....खेर मैंने भी उनके ही अंदाज़ मैं उन्हे ना का पट्टा दिखा दिया ।
लेकिन जनाब अभी भी कभी न कभी अपना रंग दिखा ही देते थे और मैं उतनी ही निडरता के साथ उनकी बातो का जवाब दे देती थे ..जानती थी की नौकरी तों जानी है पर पहले नई नौकरी तों ढूंढ ले तबतक इन्हे झेल लेते है ।
एक दिन हम पर कुछ चिल्लाते हुए बोले " यह तुम्हारा ऑफिस है घर नही ढंग से काम करो " मैंने भी उसी अंदाज़ मैं जवाब दिया और वो भी सारे स्टाफ के सामने " सर, मुझे भी पता है ऑफिस है , आपका बेडरूम नही , पर हर बार आप भूल जाते है "। उसे दिन जनाब ऑफिस छोड जल्दी घर भाग गए ।
खेर मैंने इसके बाद भी वहाँ पूरे चार महीने और काम किया और उनकी नाक में दम किया ...आखिरकार नई नौकरी मिल गई और अब जाना था पूरा बदला ले कर ..सो अब मैंने उनसे जानबूझ कर तु-तडाक भाषा का प्रोग करना आरंभ कर दिया ..आखिरकार गुससाये मेनेजर ने मुझे नौकरी से निकाल दिया वो भी मेरी धमकी के अनुरूप मुझे एक महीने की अतिरिक्त आय देकर ।
आप सोच रहे होंगे के मैंने ऐसा क्यों किया , इस बात पर चुप क्यों बेठी रही ..हल्ला क्यों नही मचाया।
जवाब बिल्कुल सीधा है ......आज भी बड़े बडे महानगरों में यह सब आम हो रह है और लड़किया अपने घर की जिमेदारियो में दबाब में ऐसे लोगो के बहकावे में आ रही है और मजबूरन ऐसे घटिया कर्मो में धन्स्ती जा रही है ।
बात पुलिस तक जा सकती है पर क्या हमारा कानून हमे जल्द इन्साफ दे पायेगा ? नही ...कभी नही....
बात उनकी धर्मपत्नी तक जाए तों क्या वो हमारा साथ देंगी या उल्टा हमे ही ग़लत कहा जाएगा...
मैंने अपने हिसाब से उसे, उसके ही स्टाफ के सामने नंगा ही नही किया बल्कि उसे माली नुकसान भी पहुंचाया और अपने लिए नई नौकरी का इंतजाम भी किया ।
मजे की बात यह रही की मेरे घरवालो को मेरी नौकरी बदलने के बाद इस घटना का पता चला....ै
आप के विचार क्या है , इंतज़ार में ....कीर्ती वैद्य
April 16, 2008
कहां कहां नहीं हैं यौन शोषण पर क्यो हैं
sexual harassment यानी लिंग भेद के आधार पर सताया जाना । क्यों इतने लेख जो ब्लॉग पर आ रहे हैं यौन उत्पीड़न को केवल स्त्री पर हो रहे यौन शोषण से ही relate करते हैं । पोस्ट खोलने से पहले ही कैसे सब ये समझ लेते है की पोस्ट स्त्री के यौन शोषण के ऊपर ही होगी । हमारी ये सोच ही इस बात का सबूत हैं कि हमारे समाज मे स्त्री का यौन शोषण बहुत फेला हुआ हैं । कानूनी लड़ाई के लिये सबूत चाहीये , धैर्य चाहिये , पैसा चाहीये , ये सब तो हम "जोड़ " सकते हैं पर इस सब के अलावा चाहीये अपनों का मजबूत साथ जो बहुत ही कम मिलता है । क्या होगा कानून जान कर जब घर और समाज आप के साथ नहीं होगा । कहां कहां नहीं हैं यौन शोषण पर क्यो हैं ? इसका जवाब आज कोई नहीं देता । होता है पर बहस हैं क्यो हैं पर कभी नहीं ??
घर मे
हमारे जान पहचान मे एक दम्पति को अपनी पुत्री जो १५ साल कि थी उसके ननिहाल मे रखना पडा क्योकी पिता बहुत बीमार थे और लम्बे समय के लिये उन्हे अस्पताल मे रहना था । माता पिता को लगा कि अकेली बच्ची घर मे कैसे रहेगी सो ननिहाल मे रखना उचित होगा । और ननिहाल मे क्या हुआ , छोटी मौसी और मौसा एक दिन आये , रात मे रहे । अगले दिन बच्ची ने नानी से कहा की मौसा जी ने रात को आक़र उसको छुआ । नानी बात टाल गयी और बच्ची को कहा नहीं नहीं ऐसा कुछ नहीं हैं । फिर मौसा जी का आना बढा और उनकी हरकते भी , बच्ची ने कई बार नानी से कहा पर कुछ नहीं हुआ , उसी समय बच्ची के पिता ने किसी कार्यवश बच्ची को बुलवाया तो बच्ची ने उनसे भी शिकायत की । पिता ने बच्ची को तुरंत वापस बुलवाया और जब बच्ची की माँ ने बच्ची की नानी से प्रश्न किया कि आपने क्यों कुछ नहीं किया तो जवाब मिला ये सब तो चलता रहता हैं और "मै अपने दामाद को कुछ कह कर अपने सम्बन्ध नहीं बिगाड़ सकती और ना अपनी बेटी और दामाद मे कटुता ला सकती " । जानना चाहती हूँ मै कौन से कानून का सहारा के सकती हैं ये बच्ची ?? किस किस के ख़िलाफ़ यौन उत्पीरण का मुकदमा दायर कर सकती है ? मौसा के खिलाफ ? नानी के खिलाफ यौन उत्पीरण मे साहयता देने का ?
काम पर
एक टाइपिस्ट , एक सेक्रेटरी , एक पी ऐ , जो एक निम्न मध्य वर्ग से टाइपिंग शोर्ट हैण्ड सीख कर , कंप्यूटर पर टाईप सीख कर किसी छोटी दूकान पर प्राइवेट काम करने जाती हैं या किसी प्राइवेट कम्पनी मे पार्ट टाइम काम करती हैं , या किसी सरकारी नौकरी मे temporary काम करती हैं । उसे आते जाते कोई न कोई धक्का दे देता हैं , उसकी पीठ सहला जाता हैं , बालो पर हाथ फेरता है । किस कानून का सहारा ले ये लड़की क्योकि उसकी नौकरी तो परमानेंट भी नहीं हैं । फिर घर पर उसके ही लाये पेसो से रोटी सब्जी आती हैं कैसे छोड़ दे नौकरी । किसे कटघरे मे खडा करे ?? उस बाप को जिसने पैदा कर दिया और माँ को छोड़ कर दूसरी शादी कर ली , या उस समाज को जो उसे आत्म सम्मान कि दो रोटी भी नहीं कमाने देता । विदेशो मे तो कानून हैं की अगर आप प्रेम करते हैं और उस प्रेम मे आप वादा करते हैं और उस वादे से मुकरते है तो भी आप को सेक्सुअल हरास्मेंट का दोषी माना जाता हैं । शारीरिक सम्बन्ध की परिभाषा वहाँ defined हैं ।जिस समाज मे स्त्री के कपड़ो को उसके रैप के लिये जिमेदार माना जाता हो उस समाज मे सेक्सुअल हरास्मेंट कि बात करना हास्यास्पद है । आज भी न जाने कितने ही घरो मे काम करने वाली बाई सुबह इस को भोगती है और शिकायत करने पर नौकरी से जाती हैं । कितनी पत्निया या माँ अपने पति या पुत्र को अदालत मे खडा करती है ?? न्याय , कानून सब अपनी जगह हैं , पुलिस व्यवस्था भी हैं पर दोषी जब अपने घर मे हो तो आप क्या करते हैं पहले उसकी चर्चा हो बाद मे कुछ और ।
नेट पर
मै १९९७ से इंटरनेट पर काम करती हूँ और चेट पर भी काम के लिये हमेशा उस विंडो को खुला रखती हूँ पर इसका मतलब ये नहीं हैं की मै हर तरह की बात करना पसंद करती हूँ । पर फिर भी लोग व्यक्तिगत प्रशन पूछते हैं क्यो ?? क्यो जानना चाहते है की मेरी निजी बातो के बारे मे ? एक संवाद चल रहा हैं ठीक हैं स्वागत हैं पर उस संवाद के बीच मे कोई भी व्यक्तिगत प्रश्न क्यो ? मै देर रात तक चैट पर क्या कर रही हूँ इस से आप को क्यो मतलब होना चाहीये ? चैट से आगे चले तो ब्लॉग लिखा , महिला हो कर ब्लॉग लिखा , चलो तारीफ़ कर दी जाए , कविता किस्सा कहानी ठीक है , अब औरत जात के लिये यही सब ठीक हैं । अब बहुत जयादा तारीफ हो रही हैं , इंग्लिश मे बहुत लिख रही हैं , चलो ठीक करते हैं , इंग्लिश नोट allowed का नारा बुलंद , नहीं मानी !!! औरत होकर इतनी हिम्मत चलो अनाम कमेन्ट से शील का हरण करते हैं अब तो सुधरेगी , नहीं सुधरी ख़ुद अनाम हो कर गाली देने लगी चलो नाम बात कर जलील करते हैं , अच्छा तकनिकी जानकार भी हैं चलो आई पी एड्रेस से डराते हैं । हाँ ये ही एक महिला ब्लॉगर यानी मेरा सफर इग्लिश मै कहे तो SUFFER । क्या मै अकेली हूँ नहीं सब के साथ ऐसा ही हैं । और तमगा पाती हैं बड़ी सती सावित्री बनती हैं !!
लेकिन क्यो होता हैं ये ,क्यो मानसिक यातना से निकलना होता हैं । क्यो पुरुषो को अपनी सीमाये ज्ञात नहीं हैं ?? क्यो सीमाये केवल नारी के लिये हैं ? क्यो गरिमा का ठेका नारी का होता हैं ? क्यो शोषण पुरूष करता हैं और परिणाम नारी को भोगना होता हैं ? क्यो लड़किया देर रात तक भर नहीं रह सकती ? क्यो लड़किया स्किर्ट टॉप जेंस नहीं पहन सकती ?? क्या लड़की होना गुनाह हैं ? नहीं इस ब्लॉग पर कोई पुरूष विरोधी सभा नहीं हैं और नारी की बात , नारी का रोष पुरूष से नहीं system से हैं जहाँ पुरूष के लिये flexible कयादे कानून हैं और महिला के लिये rigid ।
ये लिन्क भी देखे और कमेन्ट उन को भी शायद आप को मह्सूस हो जो हमे वक्त बेवक्त होता हें या करवाया जाता हे . हम कभी नहिन भूलते की हम नारी हे पर आप भूल जाते हें कि हम इन्सान हें
क्या यह मानसिक यंत्रणा नहीं है ?
April 15, 2008
सच ये है.....
माँ के लिए संतान मे अन्तर क्यों?यह भेद-भाव क्यों?
हम सब लोग देवी पूजा तो करते है , कभी लख्मी, कभी सरस्वती, कभी दुर्गा के रूप मे लेकिन अपने घर मे या दिल मे एक लड़की को शायद ही वो जगह देते है जिसकी वो हकदार है
जब तक हम ख़ुद नारी हो कर अपनी सोच और मानसिकता को नही बदलेंगे तब तक हम यह उम्मीद दूसरो से कर भी नही सकते है बेटा या बेटी होने से पहले एक स्वस्थ संतान का होना जरुरी है
April 13, 2008
बदलते समय का आह्वान एक माँ की पाती बेटी के नाम
आज वह वक्त आ गया है जब मैं तुम्हे ज़िंदगी की उन सच्चाइयों से रूबरू करवाऊं जिनका सामना मैंने किया औरसहते सहते हर जुल्म को अपने से यह वादा करती गई कि यह पीड़ा तुम नही सहोगी ..यहाँ यह बताना मेरा उदेश्यनही हैं की मैंने क्या क्या सहा क्यूंकि अब लगता है की अपनी इस पीड़ा कि जिम्मेदार मैं भी हूँ .पर कई बार हमसच में परिस्थियों के आगे विवश हो जाते हैं या हमारी ही कुछ कमजोरियां हमे उस हालात से विद्रोह नही करनेदेती ...बहुत छोटी थी जब मेरी शादी कर दी गई यह कह के नए कपड़े नए गहने मिलेंगे ..सगी माँ थी नही जोज़िंदगी का असली मर्म दर्द समझाती ..मायके का माहोल भी इतना सुखद नही था कि वहाँ जायदा देर रहा जासकता ..उस पर वह उम्र थी ख़्वाबों की सपनों की जो यह तो देख रही थी कि शादी के होने पर गहने तो मिलेंगे पर इस के साथ जो मिलेगा वह इस पगले दिल ने सोचा ही नही था मात्र १९ साल में शादी हो के पति के घर आ गईशादी के बाद पहला तोहफा १० दिन में ही मिल गया जब ममिया सास के कुछ कपड़े चोरी हो गए और तलाशी मेरी अलमारी की ली गई ..हेरान परेशान हो कर पति की तरफ देखा तो वहाँ गहरा सन्नाटा था और सास- नन्नद तोतलाशी ले ही रही थी ...माँ सगी नही थी पर ऐसा अपमान वहाँ अपना नही देखा था ..दिल किया धरती फट जाए औरसमां जाऊ क्युकी शादी पर आए मेहमान अभी रुखसत नही हुए थे सब तमाशा देख रहे थे यह ...फ़िर दो महीने बीतेही थे कि तुम मेरी कोख में आ गई ..और मैं एक नए रंग में ख़ुद को देख कर खुश हो गई ..उस वक्त तक के मिलेसारे दुःख भूल गई और तुम्हारे आने की राह देखने लगी ...इसी बीच ननद की शादी भी तय हो गई लगा कि अब यहमेरी दुनिया है जहाँ अब कोई दर्द नही होगा ..पर वक्त को शायद इतना खुश होना मंजूर नही था इधर से तुम आईमैं जी भर के तुम्हे अभी देख भी न पायी थी की उधर से ननद तलाक ले कर और एक छोटी बच्ची को कोख में लेकर वापस आ गई .....खैर वक्त धीरे धीरे बीतने लगा ..मेरे साथ साथ अब तुम पर भी गुसा उतरा जाता.... ननदनौकरी करती थी और घर में तुम्हे और उसकी बेटी को संभलने वाली मैं ही थी तुम्हारी दादी को बेटी के वापस आनेके दुःख के साथ ही यह दुःख भी था की उनके इकलौते बेटे का बेटा नही हुआ बेटी हुई है .मुझे मनहूस चोर औरभाग्यहीन नाम से अक्सर पुकारा जाता था क्युकी लड़की का होना ननद का वापस आना और उसकी बेटी होनायह सब मेरे मनहूस होने के कारण था इसी बीच यह पता लगा की तुम्हरे पापा जहाँ नौकरी करते हैं अब वह नहीरही इसका कारण भी मुझे ही माना गया ..मैंने नौकरी की इच्छा जाहिर की यही सोच के कुछ सहारा तो मिलेगा परतुम्हारी दादी को मेरा बाहर नौकरी करना मंजूर नही हुआ .. इसी तरह ३ साल बीत गए ..तभी तुम्हारी छोटी बहनके आने की खबर मिली और इस बार बेटा ही होगा इस आशा को ले कर कई तरह की दवा मुझे खिलाई गई पर मेराईश्वर जानता है की मैंने हर दवा लेते वक्त यही दुआ मांगी की मुझे दूसरी भी बेटी देना ..जाने क्यों यह बात दिल मैं आई की दूसरे की बेटी पर जुलम करने वाले के घर अब कोई बेटा न हो .ईश्वर ने मेरी सुन ली औरतुम्हारी एक प्यारी छोटी सी बहना आ गई ..अभी इन उलझनों से सुलझ ही रहे थे कि एक एक्सीडेंट मैं तुम्हारीदादी चल बसी ..अब तक तुम्हारे पापा का नौकरी का कोई जुगाड़ सही ढंग से नही बन पाया था और उनका वहगुस्सा गाहे बगाहे मेरे ऊपर उतरता रहता था ...वैचारिक समानता हम दोनों के बीच मैं कभी बन ही नही पायी औरजो पति पत्नी के बीच का एक समझदार रिश्ता बन पाता वह तुम्हारी बुआ ने कभी बनने नही दिया ..तुम्हारेदादा जी आज तक मेरे हाथ का पानी नही पीते क्यूंकि उनकी नज़रों मैं मैं आज भी मनहूस हूँ जिसने आते ही उनकेघर को मुसीबतों से .. लाद दिया ..तुम्हारे नाना ,नानी ने तो मेरी शादी के बाद से ही अपना दरवाज़ा यह कह कर बंदकर लिया की हमने तो शादी कर दी अब आगे जीयो या मरो वही तुम्हारा घर है ......आज उम्र के ४५ साल बीतगए हैं ..तुम आज २४ साल की हो चुकी हो ..अपनी ज़िंदगी के बीते लम्हे मैं वापस नही ला सकती ..पर तुम्हे औरतुम्हारी बहन को यही सिखाया की खूब पढो ताकि वक्त आने पर अपने पैरों पर आत्म सम्मान के साथ खड़ी रहसको और ख़ुद मैं इतनी ताक़त पैदा करो कि कोई तुम्हे मनहूस या चोर कह के गाली दे तो तुम वह लड़ाई ख़ुद लड़सको याद रखो की अन्याय वही ज्यादा होता है जब हम उसको चुपचाप सह लेते हैं ..मैं आज मानती हूँ की मैं उसवक्त इन सब बातों का विद्रोह नही कर सकी कुछ मेरे पास हिम्मत की कमी थी और कुछ दिए हुए संस्कार किवही घर है अब जीना मरना तो इसी में है इन सबसे ज्यादा जो कमी मुझ ख़ुद मैं लगी कि मैं शिक्षित होते हुए भीअपने पैरों पर खड़े होने कि हिम्मत नही जुटा पायी ..पर हाँ इतनी हिम्मत जरुर जुटा ली की अपनी बात अपनीकलम से एक लेखिका के रूप में लिख पायी तुम्हारे पापा एक पिता बहुत अच्छे हैं ..और तुम दोनों इनको बहुतप्यारी हो .तुम दोनों ने जो ज़िंदगी में पढ़ना चाह अब तक इन्होने कभी रोक नही लगाई तुम्हारी हर छोटी बड़ीइच्छा को पूरा किया .. यदि आज तुम्हे उच्च शिक्षा दिलाना मेरा एक सपना था तो इस में पूरा सहयोग मिलाऔर साथ की मेरी कलम को आजादी भी ....खैर जो बीत गई बात गई ..आज मुझे खुशी सिर्फ़ इसी बात कि है किमैं अपनी बात लिख सकती हूँ कम से कम इतनी डरपोक तो नही हूँ .:) .आज मेरी अपनी एक पहचान है लोग मुझेएक अच्छी लेखिका के रूप में जानते हैं ..और यह पहचान मैंने ख़ुद बनायी है.... हाँ घर के कई मोर्चों पर अब भी चुप्पी लगा लेती हूँ इसलिए कि जो बात मैं इतने सालों में नही समझा पायी अब उसको समझाना मुश्किल है औरअभी मुझे माँ होने का एक और फ़र्ज़ पूरा करना है ..तुम्हे तुम्हारे घर में खुशहाल देखना है.....आज तुम्हारे पासइतनी अच्छी शिक्षा है इसका भरपूर प्रयोग करो और अपनी ज़िंदगी अपनी शर्तों पर जीयो ..बडो का सम्मानकरो पर जहाँ अपमानित होने लगो वहाँ मेरी तरह गर्दन झुका के हर इल्जाम कबूल मत करो ..अपनी पसंद सेअपना जीवन साथी चुनो और उस में सबसे पहले यह बात देखो कि क्या वह तुम्हारे विचारों को समझता है औरक्या तुम्हारी भावनाओं का भी उतना मान करता है जितनी उसकी ख़ुद की हैं ..अब तुमने कुछ समय में अपना नया जीवन शुरू करना है ..आने वाला कल तुम्हारी राह देख रहा है ..तुम्हे हर खुशी मिले और अन्याय से लड़ने कीताक़त मिले
इसी दुआ के साथ
तुम्हारी माँ
लेखिका एक गृहणी , माँ हैं . रचना केवल एक सूत्रधार हैं इस पोस्ट की । लेखिका जानना चाहती हैं क्या अपने सीमित दायरे मे वह "और भी बहुत कुछ कर सकती थी ??" और क्या कारण होता है कि एक पुरूष जो बहुत अच्छा पति नहीं साबित होता हैं पिता बहुत असाधारण होता हैं , क्यो होता हैं ऐसा ? इस के अलावा पाठको की राय के लिये वह बहुत उत्सुक हैं कि क्या वह भी मिसाल हैं या नहीं ??
April 12, 2008
यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह ।
"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।
नवरात्रि पर इस ब्लॉग को शुरू किया हैं क्योकि याद दिलानी थी नारी को नारी की शक्ति । ब्लॉग मित्रो , नारी और पुरूष दोनों ने काफी शुभकामना संदेश दिये हैं । धन्यवाद ।
सोमवार को जो पोस्ट आयगी उस पोस्ट से इस ब्लॉग पर "संवाद" की शुरुवात होगी । संवाद होगा इसलिये किसी भी प्रश्न का जवाब कोई भी कमेन्ट मे दे सकता हैं । जरुरी नहीं हैं कि जिसने पोस्ट लिखी हो वह ही जवाब देगा । समाज मे सब रहते हैं तो जवाब देही किसी एक ही कि क्यों हो ? पुरूष मित्रो से निवेदन हैं कि इस संवाद मे आप जरुर हिस्सा ले । सोच बांटने का माध्यम बने "नारी" अभी तो सिर्फ़ इस तरफ प्रयास हैं ।
सोमवार की पोस्ट बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योकि वह पोस्ट एक गृहणी , माँ की हैं जिसने अपनी जिन्दगी को रास्ता बना दिया अपनी बेटियों के लिये । उसका प्रश्न था " क्यों वह मिसाल नहीं हैं , क्या उसने कुछ नहीं किया हैं " ? वह अनाम हो कर लिखना चाहती हैं । नारी हैं वो भी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद के लिये ना सही अपनी बेटियों के लिये अर्जित की । जीया हैं उसने भी उन सपनो को जो उसकी आँख मे थे अपनी बेटियों की आँखों मे देखा है उसने सच होते हुए और आज उसकी बेटी की आंखो में सपना है अपनी माँ की किताब आने का ..आगे बढ़ने का ..जो समय बीत गया वह वापस नही आएगा पर जो संस्कार और ज़िंदगी से लड़ने का जज्बा उनकी माँ ने उन्हें दिया है वह अब सिर्फ़ उनकी ज़िंदगी को नई राह नही दिखायेगा बलिक माँ को भी जो ज़िंदगी अभी बाकी है उस में उसके अनुसार जीने का मौका देगा ..यही आशा की चमक माँ - बेटी की आंखो में एक नई रोशनी भर जाती है .
आशा है "नारी " निरंतर शक्ति का संचार करती रहेगी , कभी स्तन से उफनते दूध से तो कभी कलम की निकली स्याही से । कभी दुर्गा बनकर , तो कभी सरस्वती बनकर । कभी अम्बे तो कभी गौरी , कभी लक्ष्मीबाई तो कभी किरण बेदी , कभी मीरा तो कभी तसलीमा , कभी इंदिरा तो कभी बेनजीर । अनेको रूप धरे निरंतर प्रगति के रास्ते पर अग्रसर ।
April 11, 2008
यौन शोषण के खिलाफ लड़ी और जीती
इस चरित्र कोई यहाँ रखने का मकसद हैं की नारी को यौन शोषण के ख़िलाफ़ हमेशा सजग रहना होगा और समय रहते ही इसके ख़िलाफ़ लड़ना भी होगा । ज्यादा जानकारी इस लिंक पर हैं ।
April 10, 2008
मशालवाहक महादेवी वर्मा
April 09, 2008
अमृता जिसने वक्त से आगे चल कर एक मुकाम बनाया
उनका मानना था की आज की नारी को अपने पैरों पर खड़ा होने के लिए शिक्षा का होना बहुत जरुरी है ...आजकल बेशक अनुभव और मूल्य दोनों बदल रहे हैं और वह सुविधाये भी मिल रही है जो उनके समय में सहज लड़कियों को उपलब्ध नही थी पर उन्होंने उस वक्त भी हालत का डट कर मुकाबला किया .उनका कहना था कि सिर्फ़ शिक्षा ही एक ऐसा जरिया है जिसको हासिल करके यह अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ सकती हैं अगर उन्हें आज़ाद होना है तो यह कोशिश उन्हें ख़ुद करनी होगी सिर्फ़ चाहने से काम नही बनेगा ..वह समाज में मर्दों की हकूमत .औरतों की गुलामी और उनके ऊपर किए जा रहे जुल्मो सितम के बहुत ख़िलाफ़ थी यह दर्द उनकी लेखनी से भी छलक कर कई जगह आया है ....अपने जीवन की मिसाल देते हुए वह कहती थी कि मैंने अपनी रोज़ी जीवन में ख़ुद कमाई है ..पैसे के मामले में औरतों का मर्दों पर निर्भर होना कतई ठीक नही हैं ऐसा करके वह ख़ुद को एक खिलौना बना लेती हैं और फ़िर एक नौकर से ज्यादा उनकी हैसियत नही रहती !!
अमृता जी ने अपनी उस ज़िंदगी से नाता तोड़ लिया था जिसे वह पसंद नही करती थी अगर वह चाहती तो अपने पति के साथ एक नाखुश्गवार ज़िंदगी जीती रहती मगर उन्होंने एक बड़ा कदम उठाया जिसके लिए एक सुलझे हुए दिमाग की जरुरत होती है और उस से ज्यादा जरुरतहोती है साहस की .....वह जानती थी कि एक लेखिका के रूप में उनका जीवन सार्वजनिक है और उन्हें सामजिक नाराजगी और आक्रोश का समाना करना पड़ेगा पर उन्होंने अपनी शर्तो पर ज़िंदगी को जीया ..अमृता जी ने कभी अपने पति के बारे में कहीं कोई शिकायत या मनमुटाव जाहिर नही किया .... बहुत बाद में यह जाना कि अमृता जी के पति ने पहले तलाक देने से मना कर दिया था और तलाक़ तभी दिया जब वह कहीं और शादी करना चाहते थे ....यहाँ तक कि जब वह अन्तिम समय में बहुत बीमार थे तो अमृता जी के बेटे ने उनसे पूछा कि क्या वह अपने पिता को यहाँ ला कर उनकी देखभाल कर सकते हैं तब अमृता जी न केवल हाँ कहा बलिक उनकी भरपूर सेवा भी की ..ऐसी थी अमृता ..अपने समय में उन्होंने वह कर दिखाया जो आज कल भी नारी शायद न कर पाये ..अपनी शर्तों पर अपनी ज़िंदगी जीना शायद इसी को कहते हैं
April 08, 2008
एक औरत जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की
अनामिका का चित्र मेरे पास है पर मै उसको ब्लॉग पर डाल कर सार्वजनिक नहीं करना चाहती हूँ ।
पूरी जानकारी इस लिंक पर उपलब्ध है
और इसे ही कहते है "the indian woman has arrived "
April 07, 2008
एक औरत जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की
और इसे ही कहते है
"the indian woman has arrived "
April 06, 2008
एक औरत जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की
और इसे ही कहते हैं
"the indian woman has arrived "
April 05, 2008
एक लड़की जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की
और इसे ही कहते हैं
"the indian woman has arrived "
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