aj हमें इस बात पर गर्व है कि भारत में अमेरिका से भी ज्यादा महिलाएं डॉक्टर, सर्जन्स, वैज्ञानिक और प्रोफेसर्स हैं, लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस लंबी डगर का पहला मुसाफिर कौन था?
डॉक्टर आनंदी जोशी का जन्म मुंबई के निकट कल्याण जिले में 1865 में एक अमीर ब्राह्मण परिवार में हुआ था। मां-बाप ने प्यार से इनका नाम यमुना रखा। इनका विवाह नौ वर्ष की अवस्था में इनसे 20 साल बड़े गोपाल राव के साथ हुआ। विवाहोपरांत उस समय की परम्परा के अनुसार इनका नाम बदलकर आनंदी रख दिया गया। 14 वर्ष की उम्र में ये एक बच्चे की मां बनी, पर दुर्भाग्यवश बच्चा सिर्फ दस दिन तक ही जीवित रहा। दुख की इस घड़ी में आनंदी ने सोचा कि यदि कोई महिला डॉक्टर उनके साथ होती तो बच्चा बच सकता था। यही वो क्षण जब उनके मन में डॉक्टर बनने की दृढ़ इच्छा ने जन्म लिया।
ये जानते हुए भी कि हिंदू समाज औरतों की शिक्षा को उचित नहीं मानता, पति गोपाल राव ने जो स्त्री शिक्षा के पक्षधर थे, अपनी पत्नी के सपनों को पूरा करने का बीड़ा उठाया और उसे आगे पढ़ाने का निश्चय किया। उस समय तक आनंदी को मात्र मराठी भाषा का ज्ञान था। पहले पति ने उन्हें मिशनरी स्कूल में दाखिला दिलाने की कोशिश की, पर बात नहीं बनी। इसलिए पति-पत्नी पहले अलीबाग फिर कोल्हापुर और वहां से कोलकाता चले गये। यहां पर इन्होंने विधिवत अपनी पढ़ाई शुरू की और संस्कृत तथा अंग्रेजी भाषा का ज्ञान हासिल किया। 1880 में गोपालराव ने भारत की एक जानी-मानी मिशनरी रॉयल वाइल्डर और प्रिंसटन मिशनरी ऑफ रिव्यू के प्रकाशक को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने अपनी पत्नी की अमेरिका के किसी मेडिकल कालेज की पढ़ाई करने की इच्छा और अपने लिए एक उपयुक्त नौकरी के बारें में जानकारी मांगी। इसके जबाब में वाइल्डर ने जो कुछ छापा वह अत्यन्त अपमानजनक था।
समय अपनी मंथर गति से बीत रहा था, जब एक दिन न्यू जर्सी में अपने दंत चिकित्सक के पास बैठी मिसेज़ कारपेंटर अपनी बारी आने का इंतजार कर रही थीं, तभी उनकी नजर अखबार की उस खबर पर पड़ी, जिसमें गोपाल की अपनी और अपनी पत्नी की इच्छा के बारे में छपा था। उन्होंने तुरंत ही गोपाल को लिखा कि यदि वह चाहें तो उनकी पत्नी उनके साथ रह कर अमेरिका में अपनी पढ़ाई कर सकती हैं। इसके साथ ही इनके और आनंदी के बीच पत्रों का आदान-प्रदान शुरू हो गया, जिसमें भारतीय धर्म और संस्कृति की चर्चा होती। मिसेज कारपेंटर आनंदी के अंग्रेजी ज्ञान और उसकी कुशाग्र बुद्धि से बहुत प्रभावित थी। वे उनको उत्साहवधर्क पत्र लिखती रहती। गोपाल जानते थे कि उनके लिए भारत की अपनी जिम्मेदारियों को छोड़कर जाना संभव नहीं होगा, और एक विवाहित हिंदू स्त्री का अकेले यात्रा करना भी उचित नहीं था, लेकिन आनंदी अपने निश्चय पर दृढ़ थी और गोपाल ने भी अपनी पत्नी की इच्छा का सम्मान किया।
बंगाली समाज को जब उनके निश्चय के बारे में पता चला तो वे उनके विरोधी हो गए। आनंदी जब कालेज जाने के लिए किताबें ले कर घर से निकलती तो लोग इन पर थूकते और पत्थर फेंकते। क्रिश्चियन को यूं तो इनकी भविष्य की योजनाओं को लेकर कोई आपत्ति नहीं थीं, पर वे चाहते थे कि वे ईसाई धर्म अपना लें। इन रोज-रोज के झगड़ों से तंग आकर आनंदी ने अपने इन विरोधियों से दो टूक लहजे में बात करने का निश्चय किया। यह पहला अवसर था कि जब कोई महिला कोलकाता के कॉलेज सभागृह से लोगों को संबोधित कर रही थी। उन्होंने कहा भारत में हिंदू महिला डॉक्टरों की बहुत जरूरत है और उनका इरादा भविष्य में भारत में एक महिला मेडिकल कॉलेज खोलने का है, उन्होंने अपने और अपने पति की ओर से शपथ पूर्वक कहा कि वे एक हिंदू की भांति शिक्षा लेने विदेश जाएंगी और एक हिंदू की ही भांति वापस लौट आएंगी।
इस वक्तव्य के प्रकाशित होने के बाद उन्हें पूरे भारत से उन्हें सहायता प्राप्त हुई, यहां तक की वाइसराय ने भी उन्हें 200 रुपये की सहायता राशि भेजी। उन्होंने अपने सोने के सभी जेवरात बेच दिए और कुछ यूरोपियन महिलाओं के साथ कोलकाता से न्यूयार्क के लिए रवाना हो गईं। जहां जून 1883 में उनकी मुलाकात मसेज कारपेंटर से हुई। इसके बाद उन्होंने वीमेन्स कॉलेज ऑफ फिलाडेल्फिया के मेडिकल कॉलेज में प्रवेश के लिए आवेदन किया और शीघ्र ही कॉलेज का डीन का पत्र उन्हें मिला जिसमें उनसे कालेज में प्रवेश लेने के लिए कहा गया था।
अमेरिका आनंदी के लिए एक अजनबी शहर था। वहां की बहुत सारी बातें उन्हें समझ नहीं आती। उनके और अमरीकियों के रहन-सहन और खान-पान में बहुत अंतर था। लेकिन उनके और मिसेज कारपेंटर के बीच एक आत्मीय रिश्ता कायम हो गया था। कॉलेज के सुपरिंटेंडेट और सेक्रेट्री इस बात से बहुत प्रभावित थे कि एक लड़की सामाजिक विरोधों को झेलते हुए यहां इतनी दूर पढ़ने आयी है। उन्होंने तीन साल की उनकी पढ़ाई के लिए 600 डॉलर की स्कॉलरशिप मंजूर कर दी।
लेकिन समस्याएं अभी खत्म नहीं हुई थी। उनके वस्त्र वहां की सर्दी के अनुकूल नहीं थे। नौ गजी महाराष्ट्रियन साड़ी पहनने पर उनकी कमर और हाथ खुले रहते थे। जबकि पश्चिमी पोशाकें सर्दी से बचाव के लिए ज्यादा उपयुक्त थीं। वैसे उनके पति ने उन्हें आश्वस्त किया था कि यदि वे मांसाहार करती है और पश्चिमी ढंग की पोशाक पहनती हैं तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी, लेकिन वे इसके लिए खुद को तैयार नहीं कर पा रही थी। उन्होंने गीता का स्मरण किया जिसमें कहा गया है कि शरीर तो मात्र आत्मा का आवरण है जो अपवित्र नहीं हो सकता। उन्होंने सोचा कि अगर यह सत्य हैं तो मेरे पश्चिमी सभ्यता के वस्त्र पहनने से मेरी आत्मा कैसे अपवित्र हो सकती है? काफी सोचने-विचारने के बाद उन्होंने गुजराती ढंग से साड़ी पहनने का निश्चय किया और अपने पति को इस बात की सूचना भी दे दी।
कॉलेज की तरफ से उनको रहने के लिए जो कमरा दिया गया था, उसका फायर प्लेस ठीक से काम नहीं करता था। लकड़ियां जलाते वक्त उससे लगातार धुँआ उठता रहता। उनके पास दो ही विकल्प थे या तो ठंड में रहो या धुँएं में। उन्होंने दूसरा कमरा तलाश करने की कोशिश की, लेकिन कोई भी भारतीय हिंदू लड़की को जो डॉक्टर बनने की कोशिश कर रही थी, कमरा देने को तैयार नहीं था। लगातार डेढ़-दो साल तक उस कमरे में रहने के कारण उन्हें बुखार और खाँसी की शिकायत हो गई।
परदेश की सांस्कृतिक और मौसम की मार से तो वे किसी तरह निपट ही रही थी, लेकिन पति के पत्रों ने उन्हें और चिंतित कर दिया। पहले के शुरुआती पत्रों से प्यार और सहयोग की सोंधी महक आती थी, पर बाद में कभी-कभी ऐसा लगने लगा मानो वे उन पर आक्षेप कर रहे हों। पति के प्यार भरे पत्रों में भी एक दो लाइनें ऐसी जरूर होती जिससे उन्हें तकलीफ पहुँचती। वे उन्हें विदेशी भूमि पर आजाद पक्षी की संज्ञा देते हुए कहते कि अब तो वे अपने गंवार, गरीब, असमर्थ पति को भूल ही गई होगी क्योंकि वो उनकी तरह महान नहीं है। आनंदी लाख सर पटकती लेकिन अपने पति के गुस्से का कारण समझ नहीं पाती। आखिर वे वही कर रही थीं जो उनके पति चाहते थे। फिर गुस्सा किस बात का था ?
अमेरिकी प्रवास के दौरान उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता गया। बहुत मुश्किल हालातों में उन्होंने अपनी फाइनल परीक्षा दी। 11 मार्च 1886 को उन्हें एमडी की उपाधि से सम्मानित किया गया। कन्वोकेशन के समय उनके पति और पंडित रमाबाई वहां उपस्थित थी। जब मंच से उनका नाम पुकार कर कहा गया कि मिसेज आनंदी गोपाल राव को भारत की प्रथम महिला चिकित्सक होने का गौरव हासिल है। तो यह उनके जीवन का सबसे गौरवमयी क्षण था। इस अवसर पर महारानी विक्टोरिया ने भी उन्हें बधाई संदेश भेजा। साथ ही कोल्हापुर के अल्बर्ट एडवर्ड अस्पताल ने उन्हें फीजिशियन-इन-चार्ज का कार्य भी प्रस्तावित किया।
लेकिन उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता जा रहा था। उनकी ऐसी हालत देखकर पति गोपाल राव ने उन्हें फिलाडेल्फिया के महिला अस्पताल में भरती करवाया। जहां जांच करने पर पता चला कि डॉ. आनंदी तपेदिक से ग्रस्त हैं परंतु रोग का प्रभाव अभी तक फेफड़ों तक नहीं पहुँचा था। डॉक्टरों ने उन्हें भारत वापस जाने की सलाह दी।
वापसी की यात्रा भी सुखदायी नहीं थी। जहाज के डॉक्टरों ने भारतीय महिला का इलाज करने से साफ इंकार कर दिया। भारत लौटकर वे इलाज के लिए पुणे में अपने भाई के यहां रुकी, पर यहां भी डॉक्टर ने यह कह कर इलाज करने से मना कर दिया कि उन्होंने विदेश जाकर सामाजिक मर्यादाओं का उल्लघंन किया है।
डॉक्टर आनंदी इस बात से बहुत खिन्न थी कि उनकी इतनी सारी उपलब्धियां व्यर्थ जा रही है। वे उनका उपयोग मानव सेवा में करने में असमर्थ हैं। समुचित इलाज न हो पाने के कारण बाइस वर्ष की अल्पायु में तपेदिक से उनकी मृत्यु हो गई।
डॉक्टर आनंदी का जीवनकाल यद्यपि बहुत छोटा था, लेकिन भारतीय महिलाओं के लिए वे एक प्रेरणा श्रोत की तरह हैं। उनकी जीवन यात्रा हमें यह बताती है कि स्थितियां-परिस्थियां कितनी ही विपरीत क्यों न हों, अगर मन में इच्छा शक्ति और लगन है तो दुनिया की हर उपलब्धि को आप अपनी मुट्ठी में कर सकते हैं। आज भी महाराष्ट्र सरकार महिला स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को उनके नाम पर फेलोशिप देती है।
-प्रतिभा वाजपेयी
डॉक्टर आनंदी जोशी का जन्म मुंबई के निकट कल्याण जिले में 1865 में एक अमीर ब्राह्मण परिवार में हुआ था। मां-बाप ने प्यार से इनका नाम यमुना रखा। इनका विवाह नौ वर्ष की अवस्था में इनसे 20 साल बड़े गोपाल राव के साथ हुआ। विवाहोपरांत उस समय की परम्परा के अनुसार इनका नाम बदलकर आनंदी रख दिया गया। 14 वर्ष की उम्र में ये एक बच्चे की मां बनी, पर दुर्भाग्यवश बच्चा सिर्फ दस दिन तक ही जीवित रहा। दुख की इस घड़ी में आनंदी ने सोचा कि यदि कोई महिला डॉक्टर उनके साथ होती तो बच्चा बच सकता था। यही वो क्षण जब उनके मन में डॉक्टर बनने की दृढ़ इच्छा ने जन्म लिया।
ये जानते हुए भी कि हिंदू समाज औरतों की शिक्षा को उचित नहीं मानता, पति गोपाल राव ने जो स्त्री शिक्षा के पक्षधर थे, अपनी पत्नी के सपनों को पूरा करने का बीड़ा उठाया और उसे आगे पढ़ाने का निश्चय किया। उस समय तक आनंदी को मात्र मराठी भाषा का ज्ञान था। पहले पति ने उन्हें मिशनरी स्कूल में दाखिला दिलाने की कोशिश की, पर बात नहीं बनी। इसलिए पति-पत्नी पहले अलीबाग फिर कोल्हापुर और वहां से कोलकाता चले गये। यहां पर इन्होंने विधिवत अपनी पढ़ाई शुरू की और संस्कृत तथा अंग्रेजी भाषा का ज्ञान हासिल किया। 1880 में गोपालराव ने भारत की एक जानी-मानी मिशनरी रॉयल वाइल्डर और प्रिंसटन मिशनरी ऑफ रिव्यू के प्रकाशक को एक पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने अपनी पत्नी की अमेरिका के किसी मेडिकल कालेज की पढ़ाई करने की इच्छा और अपने लिए एक उपयुक्त नौकरी के बारें में जानकारी मांगी। इसके जबाब में वाइल्डर ने जो कुछ छापा वह अत्यन्त अपमानजनक था।
समय अपनी मंथर गति से बीत रहा था, जब एक दिन न्यू जर्सी में अपने दंत चिकित्सक के पास बैठी मिसेज़ कारपेंटर अपनी बारी आने का इंतजार कर रही थीं, तभी उनकी नजर अखबार की उस खबर पर पड़ी, जिसमें गोपाल की अपनी और अपनी पत्नी की इच्छा के बारे में छपा था। उन्होंने तुरंत ही गोपाल को लिखा कि यदि वह चाहें तो उनकी पत्नी उनके साथ रह कर अमेरिका में अपनी पढ़ाई कर सकती हैं। इसके साथ ही इनके और आनंदी के बीच पत्रों का आदान-प्रदान शुरू हो गया, जिसमें भारतीय धर्म और संस्कृति की चर्चा होती। मिसेज कारपेंटर आनंदी के अंग्रेजी ज्ञान और उसकी कुशाग्र बुद्धि से बहुत प्रभावित थी। वे उनको उत्साहवधर्क पत्र लिखती रहती। गोपाल जानते थे कि उनके लिए भारत की अपनी जिम्मेदारियों को छोड़कर जाना संभव नहीं होगा, और एक विवाहित हिंदू स्त्री का अकेले यात्रा करना भी उचित नहीं था, लेकिन आनंदी अपने निश्चय पर दृढ़ थी और गोपाल ने भी अपनी पत्नी की इच्छा का सम्मान किया।
बंगाली समाज को जब उनके निश्चय के बारे में पता चला तो वे उनके विरोधी हो गए। आनंदी जब कालेज जाने के लिए किताबें ले कर घर से निकलती तो लोग इन पर थूकते और पत्थर फेंकते। क्रिश्चियन को यूं तो इनकी भविष्य की योजनाओं को लेकर कोई आपत्ति नहीं थीं, पर वे चाहते थे कि वे ईसाई धर्म अपना लें। इन रोज-रोज के झगड़ों से तंग आकर आनंदी ने अपने इन विरोधियों से दो टूक लहजे में बात करने का निश्चय किया। यह पहला अवसर था कि जब कोई महिला कोलकाता के कॉलेज सभागृह से लोगों को संबोधित कर रही थी। उन्होंने कहा भारत में हिंदू महिला डॉक्टरों की बहुत जरूरत है और उनका इरादा भविष्य में भारत में एक महिला मेडिकल कॉलेज खोलने का है, उन्होंने अपने और अपने पति की ओर से शपथ पूर्वक कहा कि वे एक हिंदू की भांति शिक्षा लेने विदेश जाएंगी और एक हिंदू की ही भांति वापस लौट आएंगी।
इस वक्तव्य के प्रकाशित होने के बाद उन्हें पूरे भारत से उन्हें सहायता प्राप्त हुई, यहां तक की वाइसराय ने भी उन्हें 200 रुपये की सहायता राशि भेजी। उन्होंने अपने सोने के सभी जेवरात बेच दिए और कुछ यूरोपियन महिलाओं के साथ कोलकाता से न्यूयार्क के लिए रवाना हो गईं। जहां जून 1883 में उनकी मुलाकात मसेज कारपेंटर से हुई। इसके बाद उन्होंने वीमेन्स कॉलेज ऑफ फिलाडेल्फिया के मेडिकल कॉलेज में प्रवेश के लिए आवेदन किया और शीघ्र ही कॉलेज का डीन का पत्र उन्हें मिला जिसमें उनसे कालेज में प्रवेश लेने के लिए कहा गया था।
अमेरिका आनंदी के लिए एक अजनबी शहर था। वहां की बहुत सारी बातें उन्हें समझ नहीं आती। उनके और अमरीकियों के रहन-सहन और खान-पान में बहुत अंतर था। लेकिन उनके और मिसेज कारपेंटर के बीच एक आत्मीय रिश्ता कायम हो गया था। कॉलेज के सुपरिंटेंडेट और सेक्रेट्री इस बात से बहुत प्रभावित थे कि एक लड़की सामाजिक विरोधों को झेलते हुए यहां इतनी दूर पढ़ने आयी है। उन्होंने तीन साल की उनकी पढ़ाई के लिए 600 डॉलर की स्कॉलरशिप मंजूर कर दी।
लेकिन समस्याएं अभी खत्म नहीं हुई थी। उनके वस्त्र वहां की सर्दी के अनुकूल नहीं थे। नौ गजी महाराष्ट्रियन साड़ी पहनने पर उनकी कमर और हाथ खुले रहते थे। जबकि पश्चिमी पोशाकें सर्दी से बचाव के लिए ज्यादा उपयुक्त थीं। वैसे उनके पति ने उन्हें आश्वस्त किया था कि यदि वे मांसाहार करती है और पश्चिमी ढंग की पोशाक पहनती हैं तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी, लेकिन वे इसके लिए खुद को तैयार नहीं कर पा रही थी। उन्होंने गीता का स्मरण किया जिसमें कहा गया है कि शरीर तो मात्र आत्मा का आवरण है जो अपवित्र नहीं हो सकता। उन्होंने सोचा कि अगर यह सत्य हैं तो मेरे पश्चिमी सभ्यता के वस्त्र पहनने से मेरी आत्मा कैसे अपवित्र हो सकती है? काफी सोचने-विचारने के बाद उन्होंने गुजराती ढंग से साड़ी पहनने का निश्चय किया और अपने पति को इस बात की सूचना भी दे दी।
कॉलेज की तरफ से उनको रहने के लिए जो कमरा दिया गया था, उसका फायर प्लेस ठीक से काम नहीं करता था। लकड़ियां जलाते वक्त उससे लगातार धुँआ उठता रहता। उनके पास दो ही विकल्प थे या तो ठंड में रहो या धुँएं में। उन्होंने दूसरा कमरा तलाश करने की कोशिश की, लेकिन कोई भी भारतीय हिंदू लड़की को जो डॉक्टर बनने की कोशिश कर रही थी, कमरा देने को तैयार नहीं था। लगातार डेढ़-दो साल तक उस कमरे में रहने के कारण उन्हें बुखार और खाँसी की शिकायत हो गई।
परदेश की सांस्कृतिक और मौसम की मार से तो वे किसी तरह निपट ही रही थी, लेकिन पति के पत्रों ने उन्हें और चिंतित कर दिया। पहले के शुरुआती पत्रों से प्यार और सहयोग की सोंधी महक आती थी, पर बाद में कभी-कभी ऐसा लगने लगा मानो वे उन पर आक्षेप कर रहे हों। पति के प्यार भरे पत्रों में भी एक दो लाइनें ऐसी जरूर होती जिससे उन्हें तकलीफ पहुँचती। वे उन्हें विदेशी भूमि पर आजाद पक्षी की संज्ञा देते हुए कहते कि अब तो वे अपने गंवार, गरीब, असमर्थ पति को भूल ही गई होगी क्योंकि वो उनकी तरह महान नहीं है। आनंदी लाख सर पटकती लेकिन अपने पति के गुस्से का कारण समझ नहीं पाती। आखिर वे वही कर रही थीं जो उनके पति चाहते थे। फिर गुस्सा किस बात का था ?
अमेरिकी प्रवास के दौरान उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता गया। बहुत मुश्किल हालातों में उन्होंने अपनी फाइनल परीक्षा दी। 11 मार्च 1886 को उन्हें एमडी की उपाधि से सम्मानित किया गया। कन्वोकेशन के समय उनके पति और पंडित रमाबाई वहां उपस्थित थी। जब मंच से उनका नाम पुकार कर कहा गया कि मिसेज आनंदी गोपाल राव को भारत की प्रथम महिला चिकित्सक होने का गौरव हासिल है। तो यह उनके जीवन का सबसे गौरवमयी क्षण था। इस अवसर पर महारानी विक्टोरिया ने भी उन्हें बधाई संदेश भेजा। साथ ही कोल्हापुर के अल्बर्ट एडवर्ड अस्पताल ने उन्हें फीजिशियन-इन-चार्ज का कार्य भी प्रस्तावित किया।
लेकिन उनका स्वास्थ्य लगातार गिरता जा रहा था। उनकी ऐसी हालत देखकर पति गोपाल राव ने उन्हें फिलाडेल्फिया के महिला अस्पताल में भरती करवाया। जहां जांच करने पर पता चला कि डॉ. आनंदी तपेदिक से ग्रस्त हैं परंतु रोग का प्रभाव अभी तक फेफड़ों तक नहीं पहुँचा था। डॉक्टरों ने उन्हें भारत वापस जाने की सलाह दी।
वापसी की यात्रा भी सुखदायी नहीं थी। जहाज के डॉक्टरों ने भारतीय महिला का इलाज करने से साफ इंकार कर दिया। भारत लौटकर वे इलाज के लिए पुणे में अपने भाई के यहां रुकी, पर यहां भी डॉक्टर ने यह कह कर इलाज करने से मना कर दिया कि उन्होंने विदेश जाकर सामाजिक मर्यादाओं का उल्लघंन किया है।
डॉक्टर आनंदी इस बात से बहुत खिन्न थी कि उनकी इतनी सारी उपलब्धियां व्यर्थ जा रही है। वे उनका उपयोग मानव सेवा में करने में असमर्थ हैं। समुचित इलाज न हो पाने के कारण बाइस वर्ष की अल्पायु में तपेदिक से उनकी मृत्यु हो गई।
डॉक्टर आनंदी का जीवनकाल यद्यपि बहुत छोटा था, लेकिन भारतीय महिलाओं के लिए वे एक प्रेरणा श्रोत की तरह हैं। उनकी जीवन यात्रा हमें यह बताती है कि स्थितियां-परिस्थियां कितनी ही विपरीत क्यों न हों, अगर मन में इच्छा शक्ति और लगन है तो दुनिया की हर उपलब्धि को आप अपनी मुट्ठी में कर सकते हैं। आज भी महाराष्ट्र सरकार महिला स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को उनके नाम पर फेलोशिप देती है।
-प्रतिभा वाजपेयी
aise he logon ke jagarokata se ham aaj yaha tak pahuche hai aise logo ko pranam
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी जानकारी थी,मुंबई के अखबारों में इनके बारे में पढ़ रखा था,पर फिर एक बार इतनी विस्तृत जानकारी पाकर बहुत ही अच्छा लगा.इन नारियों से, जिनलोगों ने अनगिनत विरोधियों का सामना कर सिर्फ अपने जीवट और साहस के बल पर आने वाली पीढ़ी का मार्ग प्रशस्त किया, परिचित करवाते रहना चाहिए. आज की हर लड़की और हर महिला को उनके इतने बड़े त्याग की कहानी पता चलनी ही चाहिए.शत शत नमन हैं उन्हें.
ReplyDeleteउनके पति भी धन्यवाद के पात्र हैं,जिन्होंने उस जमाने में उन्हें चहारदीवारी के अंदर क़ैद ना कर बाहर निकल कर ज्ञान अर्जित करने में उनका सहयोग दिया.
प्रथम भारतीय महिला डाक्टर की इस कहानी से पता लगता है कि रुढियों को तोड़ने के लिए कितना संघर्ष किया गया है. इसके लिए उनका साथ देने वाले सभी व्यक्ति आदर्श की तरह हैं, जिन्होंने उनके साहस और संघर्ष को आगे बढ़ने का जज्बा दिया.
ReplyDeleteइस आलेख के लिए आभार क्योंकि मैं इस बात से परिचित नहीं थी.
inspiring
ReplyDeleteप्रथम भारतीय महिला डाक्टर की इस कहानी से पता लगता है कि रुढियों को तोड़ने के लिए कितना संघर्ष किया गया है
ReplyDeleteमुझे केवल इस बात का ज्ञान था कि आनंदी जोशी प्रथम भारतीय महिला चिकित्सक थीं. आपने उनके बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराकर बहुत अच्छा काम किया है. यह पोस्ट मेरे शोध-कार्य के लिये भी बहुत उपयोगी है. इसलिये इसे मैं सेव कर रही हूँ. धन्यवाद !!!
ReplyDeleteसचमुच गदगद कर दिया आपने तो काफी अच्छा और शोधपूर्ण आलेख। बहुत-बहुत आभार...
ReplyDeleteसच कहते है नारी का सफर कभी आसान था ही नहीं। हर पल मुश्किल सही है पर रुकी नहीं। बहुत अच्छी जानकारी।
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