वनिता के 2010 के अप्रैल अंक में 92 पेज पर एक कहानी छपी है। कहानी का शीर्षक है सारंगी। लेखिका है डॉ. सुषमा श्रीराव। यह कहानी स्त्री के चरित्र का अतिरंजनापूर्ण चित्रण करती है। लेखिका अपनी अपनी महिला पात्र से वह सब कुछ करवाती और कहलवाती है जो एक सामान्य व्यक्ति कर ही नहीं सकता। पात्र अत्यन्त दार्शनिक है...सुख-दुख से परे है...वह अपने परिवार का एक मात्र सहारा है, पर परिवार उसे हमेशा प्रताड़ित करता रहता है.....लड़के आवारगी करते हैं....बहुएं घर का कोई काम नहीं करती....पर सारंगी अपने दार्शनिक अंदाज में घर में सुख-शांति बनाए रखने के लिए सबकुछ झेलती रहती है... कहानी में बहुत सारे झोल हैं.... लेखिका के अनुसार सारंगी घर का संडास धोने वाली पीडब्ल्यूडी की अदना सी कर्मचारी है। वह धारावी में रहती है और चर्चगेट काम करने जाती है। वह 40 फ्लैटों के फ्लोर झाड़ना, कचरा फेंकना और बाथरूम रूम धोने का कार्य करती है। यह कहते है वह यह भूल जाती है कि धारावी से चर्चगेट कैसे पहुँचा जाता है....क्योंकि उसने अपने पात्र को लोकल ट्रेन से सफर करवाया है तो चलिए हम भी लोकल ही पकड़ते हैं। धारावी से लोकल का निकटस्थ स्टेशन सायन है। जहां तक पहुँचने में कम से कम 10 मिनट लगते हैं, वहां से दादर आने में 15 मिनट। वह दादर सेंट्रल में उतरेगी....वहां से दादर का पुल पार करके पश्चिम में जाएगी....सारंगी चूँकि सुबह आठ बजे की लोकल पकड़ती है....इस समय तक दादर में काफी भीड़ हो जाती है इसलिए यदि वह भागते-दौड़ते भी पुल पार करेगी, तब भी उसे कम से कम पाँच मिनट लगेंगे। और फिर वहां से चर्चगेट जाने में बीस से पच्चीस मिनट यानी कुल मिला कर लगभग एक घंटा में सारंगी चर्चगेट पहुँच जाएगी।
पहला प्रश्न तो यही उठता है कि एक सरकारी कर्मचारी लेखिका की गैर सरकारी नौकर कैसे बन गई....खैर जाने दीजिए कहानी है...लेखिका के मन की उड़ान वह अपने पात्र से कहीं भी काम करवा सकती है....इसलिए वह उससे 40 फ्लैटों के फ्लोरों को झड़वाती पुछवाती है....40 फ्लैटों का फ्लोर झाड़ना, कचरा फेंकना और बाथरूम धोना .....कितना भी फास्ट करे.....कम से कम तीस मिनट तो उसे एक घर को देने ही पड़ेगे..... यानी बीस घंटा प्रतिदिन वह अपने काम को देती है और एक-एक घंटा आने जाने का। कुल समय हुआ बाइस घंटा... बाकी के बचे दो घंटों में सारंगी खाती है, सोती है, दो नकारे बेटों के परिवारों के लिए खाना पकाती है, घर का सब काम करती है और लेखिका को अपना दुखड़ा भी सुना देती है.....एक सामान्य इंसान तो ऐसा नहीं कर सकता .....
सारंगी के अवकाश ग्रहण करने के बाद बेटों की नज़र उसके प्रॉविडेंट फंड पर है....सरकारी कर्मचारी भी उनका साथ देते हैं, लेकिन एक तारणहार की तरह लेखिका उसको भ्रष्ट सरकारी बाबुओं से बचा लेती है और सलाह देती है कि उसे अपने बेटों के खिलाफ पुलिस में शिकायत करनी चाहिए परंतु एक तथाकथित आदर्श भारतीय नारी का उदाहरण देते हुए सारंगी प्यार और शांति की बात करती है.....सारंगी की इस आदर्शवादी छवि के पलट नालायक बेटे उसके प्रॉविडेंट फंड को लेकर झगड़ा करते रहते है.... चिढ़कर सारंगी कहती है कि नहीं करूंगी घर तुम्हारे नाम...और न ही पैसे दूंगी.... क्या करोगे ज्यादा से ज्यादा मार डालोगे ना.... मार डालो...इस पर छोटा बेटा क्रूरता से हँसते हुए कहता है....मारूंगा नहीं तुम्हारा रेप कर दूंगा..!!!!!!!......लेखिका कहना क्या चाहती है कि जबतक औरत को बलात्कार धमकी न मिले .....उसकी बुद्धि के द्वार नहीं खुलते.....इसीलिए रेप की धमकी मिलते ही सारंगी वृद्धाश्रम जाने को बेचैन हो गई।
क्या भारतीय समाज इतना पतित हो गया है या सम्पत्ति का लालच इतना बढ़ गया है कि बेटों को मां को सम्पत्ति न देने पर बलात्कार की धमकी देनी पड़े.....लेखिका सारंगी को वृद्धाश्रम आश्रम भेजने का कोई तरीका भी ढूढ़ सकती थी.....वह अपने परिवार से परेशान थी... दुखी थी... परिवार उसकी सम्पत्ति हथियाना चाहता था.... बहुत सारे कारण हो सकते थे... उसके वृद्धाश्रम जाने के, अपनी सम्पत्ति आश्रम को दान करने के....इसके लिए रेप की बात करने कोई जरूरत नहीं थी....रेप दुनिया का औरत के प्रति किया जाने वाला सबसे घृणित अपराध है.....और बेटा मां के रेप की बात करे.....यह भारतीय समाज का तो चित्रण नहीं हो सकता....लेखिका किस समाज की बात कर रही है.....उसने इस तरह के समाज की कल्पना की तो कैसे की......मुझे उसकी घटिया सोच पर तरस आता है..... साथ तरस आता है संपादक महोदया की सोच पर ....जिन्होंने महिलाओं की लंबरदार बनने के लालच में ऐसी घटिया और अतिरंजनापूर्ण कहानी को अपनी पत्रिका में स्थान दे दिया....यह पत्रिका महिलाओं की हमदम, उनकी दोस्त बनने का दावा करती है.....लेकिन इस तरह की कहानियों के माध्यम से अपनी महिला पाठकों के लिए कौन सा आदर्श और संदेश परोस रही है!!!! इस तरह की कहानियों का प्रकाशित होना लेखक और संपादक दोनों के दिमागी खलल को प्रदर्शित करता है.....अगर वनिता अपने पाठकों को POSITIVE ENERGY नहीं दे सकती.....तो न दे....पर भगवान के लिए ऐसी अतिरंजनापूर्ण घटिया मानसिकता भी न परोसे .....इस तरह की कहानियों को वनिता का प्लेटफार्म मिलना दुखद है।
-प्रतिभा वाजपेयी
प्रतिभा जी ,आपने इस तरह की कहानी को पढ़ कर उस पर सवाल उठकर बहुत ही अच्छा किया वनिता जैसी पत्रिका में इस तरह की बेहूदा कहानी के छपने से यही लगता है की सम्पादकीय विभाग बिना पढ़े ही जन पहचान या सिफारिश के चलते ऐसी कहानियां छाप देता है .क्या ये लेखक पाठक को बुध्हिहीन समझते हैं? बेटे द्वारा माँ को बलात्कार की धमकी देना तो अतिरंजना और मानसिक दिवालियेपन की हद है .
ReplyDeleteवैसे भी सविता , वनिता , मेरी सहेली जैसी पत्रिकाएँ एकता कपूर के धारावाहिकों के ही स्तर की हैं...
ReplyDeleteइन पत्रिकाओं से यही उम्मीद की जा सकती हैं.
सरिता ही वो पत्रिका है जो इन सब फालतू के सास-बहू चोंचलों से आजाद रहती है.