मज़हब ही सिखाता है, आपस में बैर रखना...आज जिस तरह दुनियाभर में मज़हब के नाम पर क़त्ले-आम हो रहा है, उसे देखकर तो यही लगता है...ईसाई-मुस्लिम और हिन्दू-मुस्लिम जंग और दंगे... अपने मज़हब को सर्वश्रेष्ठ साबित करने की मानसिकता के नतीजे हैं...
मज़हब के नाम पर लड़ने की बजाय अगर भूख, ग़रीबी, महामारियां और भ्रष्टाचार के खिलाफ़ संघर्ष करने में इतनी क्षमता और वक़्त का इस्तेमाल किया जाए तो यक़ीनन लोग जन्नत की कल्पना करना तक छोड़ देंगे, क्योंकि यह दुनिया ही स्वर्ग से सुन्दर हो जाएगी...
इस बात से क्या फ़र्क़ पड़ता है कि किसका मज़हब क्या है...हर बच्चे को अपनी मां ही दुनिया की सबसे श्रेष्ठ मां लगती है, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं हो जाता कि औरों की मां बुरी हो गईं या वो अच्छी नहीं हो सकतीं...यह मानव स्वभाव है कि उसे अपनी हर चीज़ अच्छी लगती है...
इसी तरह हर इंसान के लिए उसका मज़हब अच्छा है...रूढियां और कुप्रथाएं हर मज़हब में हैं, हिन्दू धर्म की यह विशेषता है कि इसमें तर्क किया जा सकता है और इसलिए इसमें सुधार की गुंजाइश है...इसी का नतीजा है कि भारत में सती प्रथा ख़त्म की गई...बाल विवाह, विधवा विवाह और तलाक़ जैसे मसलों को भी समाज के अनुकूल बनाया गया है...
हिन्दू धर्म की सबसे बड़ी विशेषता...औरत को सम्मानजनक स्थान दिया गया है...यत्र नार्यस्तु पूजयन्ते रमन्ते तत्र देवता...यानी जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता वास करते हैं... अगर शिव की पूजा होती है तो साथ में पार्वती की भी होती है...इसी तरह राम के साथ सीता और कृष्ण के साथ राधा को भी पूजा जाता है...
काश! और मज़हब में भी सुधार की गुंजाइश होती...
किसी धर्म विशेष का होने से न तो कोई बुरा हो जाता है और न ही अच्छा...अच्छे-बुरे लोग सभी मज़हबों में होते हैं...अकसर (सभी के बारे में दावा नहीं ) लोग अपना उल्लू सीधा करने के लिए इस्लाम कुबूल करते हैं...यानि कानूनी झमेलों से बचने के लिए...जिसकी ताज़ा मिसाल हैं...हरियाणा के तत्कालीन उप मुख्यमंत्री चन्द्रमोहन बिश्नोई उर्फ़ चांद मुहम्मद और अनुराधा बाली उर्फ़ फ़िज़ा...जिन्होंने विवाह करने के लिए इस्लाम अपनाया...दिल्ली के प्रेस क्लब में दोनों ने दावा किया कि उन्होंने विवाह के लिए नहीं, बल्कि इस्लामी शिक्षाओं में आस्था रखते हुए इस्लाम कुबूल किया है...यह तो सभी जानते थे कि उनकी किस 'शिक्षा' में आस्था थी...ख़ैर, हुआ भी वही, बाद में चांद मुहम्मद बिश्नोईयों के पवित्र धाम मुक़ाम में जाकर वापस चन्द्रमोहन बिश्नोई बन गए और फ़िज़ा द्वारा चंडी मंदिर में विशेष पूजा करवाने का मामला भी सामने आया...अगर चन्द्रमोहन बिश्नोई ने इस्लामी शिक्षाओं से प्रभावित होकर इस्लाम क़ुबूल किया था तो इतनी जल्दी इस्लामी शिक्षाओं से क्यों उनका मोह भंग हो गया...?
सवाल कई हैं...आज हमें सोचना होगा... मज़हब बड़ा है या इंसानियत...? मज़हब इंसान के लिए है या इंसान मज़हब के लिए...? आखिर कब तब एक-दूसरे के मज़हबों का मज़ाक़ उड़ाया जाता रहेगा...? क्या दूसरे धर्मों की अच्छाइयों को अपनाया नहीं जा सकता...? क्या अपने समाज की बुराइयों को दूर नहीं किया जा सकता...?
आपसे तीन सवाल...
पहला सवाल...क्या हिन्दुस्तान में मुसलमानों में तलाक़ 'क़ुरआन' के हिसाब से होता है...? 'क़ुरआन' में हमने तो कहीं नहीं पढ़ा कि नशे की हालत में एक साथ तीन बार 'तलाक़' कह देने से तलाक़ हो जाता है...तलाक़ के मामले में हिन्दुस्तानी मुसलमान 'क़ुरआन' को क्यों ताक़ पर रख देते हैं...? क्या ऐसा करना 'क़ुरआन' की अवहेलना करना नहीं है...?
दूसरा सवाल...'क़ुरआन' में कहा गया है कि अपनी सभी पत्नियों के साथ समान बर्ताव करो...अगर ऐसा न कर सको तो बेहतर है कि एक ही निकाह करो...कोई मां भी अपने सभी बच्चों के साथ समान बर्ताव नहीं कर पाती...उसके बर्ताव में बाल बराबर भी फ़र्क़ भी आता है तो वो समान नहीं कहा जा सकता...(अगर उसूल की बात हो तो) फिर यह कैसे मुमकिन है कि कोई पुरुष अपनी सभी पत्नियों के साथ समान बर्ताव कर सकता है...? इसके बावजूद अनेक मुसलमान चार निकाह करते हैं...क्या यह 'क़ुरआन' की अवहेलना नहीं है...
तीसरा सवाल...इस्लाम के मुताबिक़ मां के पैरों के नीचे जन्नत है...फिर क्यों मांओं को यह कहकर ज़लील किया जा रहा है...कि औरतें सिर्फ़ बच्चे पैदा करने के लिए हैं...क्या यह बयान देने वाला व्यक्ति अपनी मां को शर्मिंदा नहीं कर रहा है...? क्या यह 'क़ुरआन' की अवहेलना करना नहीं है...?
'क़ुरआन' का पालन करो...पूरी तरह करो...
आपसे तीन सवाल...
पहला सवाल...क्या हिन्दुस्तान में मुसलमानों में तलाक़ 'क़ुरआन' के हिसाब से होता है...? 'क़ुरआन' में हमने तो कहीं नहीं पढ़ा कि नशे की हालत में एक साथ तीन बार 'तलाक़' कह देने से तलाक़ हो जाता है...तलाक़ के मामले में हिन्दुस्तानी मुसलमान 'क़ुरआन' को क्यों ताक़ पर रख देते हैं...? क्या ऐसा करना 'क़ुरआन' की अवहेलना करना नहीं है...?
दूसरा सवाल...'क़ुरआन' में कहा गया है कि अपनी सभी पत्नियों के साथ समान बर्ताव करो...अगर ऐसा न कर सको तो बेहतर है कि एक ही निकाह करो...कोई मां भी अपने सभी बच्चों के साथ समान बर्ताव नहीं कर पाती...उसके बर्ताव में बाल बराबर भी फ़र्क़ भी आता है तो वो समान नहीं कहा जा सकता...(अगर उसूल की बात हो तो) फिर यह कैसे मुमकिन है कि कोई पुरुष अपनी सभी पत्नियों के साथ समान बर्ताव कर सकता है...? इसके बावजूद अनेक मुसलमान चार निकाह करते हैं...क्या यह 'क़ुरआन' की अवहेलना नहीं है...
तीसरा सवाल...इस्लाम के मुताबिक़ मां के पैरों के नीचे जन्नत है...फिर क्यों मांओं को यह कहकर ज़लील किया जा रहा है...कि औरतें सिर्फ़ बच्चे पैदा करने के लिए हैं...क्या यह बयान देने वाला व्यक्ति अपनी मां को शर्मिंदा नहीं कर रहा है...? क्या यह 'क़ुरआन' की अवहेलना करना नहीं है...?
'क़ुरआन' का पालन करो...पूरी तरह करो...
@फिरदौस इन मतलब परस्त लोगो का क्या जिक्र किया जाए ,ये हर धर्म हर राज्य में मिल जायेंगे..अपनी सुविधा और अपना फायदा देखते है ..ये कुरआन और रामायण दोनों को अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग करते है
ReplyDeleteअच्छा लेख
wajib sawal uthaya hai apne main khud in sab ko lekar pareshan raha hun.
ReplyDeleteaao saathiyon comment karo apni bat rakho...
shahroz
kash musalman apne quraan ko apna ideal bana lete.to kisi nagrez ko yeh nahin kahna padta ki islam to bahut achcha hai lekin uske mannewale waise nahin..
ReplyDeleteधर्म और मजहब जैसे विषयों पर निष्पक्ष होकर लिखना सबके बस की बात नहीं है ....आपने ये किया ..आपका आभार और शुक्रिया ...
ReplyDeleteअजय कुमार झा
Aapne dharmo-mazahab par sawaal uthaaye, isi ki aaj sabse zyada zarurat hai aur yahi sabse kam ho raha hai.
ReplyDeleteShukriya.
जगत जननी नारी को अपमानित करना किसी भी धर्म में जायज नहीं ठहराया जा सकता !और फिर इन बेतुके बयान देने वालों का तो कोई धर्म ही नहीं होता.. !अच्छा लेख!!!
ReplyDeleteफ़िरदौस जी, निश्चित रूप से इन्सान मज़हब के लिये नहीं, वरन मज़हब इन्सान के लिये है. लेकिन जबतक अपनी चीज़ को श्रेष्ठ समझने की सोच ज़िन्दा रहेगी, तब तक इसी प्रकार से मज़हबी झगड़े होते रहेंगे. जिस दिन हम सभी धर्मों के प्रति समान नज़रिया रखना सीख जायेंगे, ये झगड़े भी बन्द हो जायेंगे.
ReplyDeleteकौन जवाब देगा आपके सही प्रश्नो का ?
ReplyDeleteप्रिय फिरदौसजी,
ReplyDelete*पथ में शूल न होते तो जीवन का आभास न होता ,मंजिल-मंजिल रह जाती मानव का इतिहास न होता.*
कोई मजहब हो ,कोई धर्म हो चिंता करने की अब जरुरत नहीं है.
*जब हम बदलेंगे तो जमाना बदलेगा* .
सही दिशा की जानकारी नहीं होने से अभी तक तो हम ही एक बंधी-बंधाई लीक ( arthodox ) पर बिना सोचे चलते रहे .
गलत बातों-लकीरों को भी अपना नसीब-भाग्य मानकर जीते रहे.
सिर्फ आवश्यकता है उचित व उच्च शिक्षा-जागरूकता की ताकि हर महिला शक्ति अपना आत्म-विश्वास जाग्रत कर अपने पर भरोसा कर सके.
याद है न ,
*तकदीर संवरती है उनकी जो खुद को संवारा करते हैं ,तूफां में हो जब किश्ती तो साहिल भी किनारा करते हैं.*
अलका मधुसूदन पटेल
लेखिका +साहित्यकार
फ़िरदौस जी, निश्चित रूप से इन्सान मज़हब के लिये नहीं, वरन मज़हब इन्सान के लिये है
ReplyDeleteमैं आपकी बात से सहमत हूँ. मेरा ये मानना है कि हर युग में, हर धर्म में और हर समाज में नारी को द्वितीयक स्थान दिया गया है. हिन्दू धर्म भी कोई अपवाद नहीं है. जिस मनुस्मृति में यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते वाला श्लोक है, उसी में औरतों के बारे में बहुत कुछ उल्टा-सीधा लिखा है. धर्म के ठेकेदारों ने उन्हीं बातों का फ़ायदा उठाकर औरतों को दबकर रखा है. किसी भी धर्म में औरतों को समान अधिकार नहीं दिये गये हैं और औरतें लड़ती रही हैं अपने अधिकारों के लिये, समाज में सम्मानजनक स्थिति पाने के लिये, अपने ऊपर होने वाले अत्याचारों से खुद को बचाने के लिये...हाँ, इतना ज़रूर है कि हिन्दू समाज सहिष्णु है, तो इसमें सुधार की गुंजाइश है, जो कि इस्लाम में नहीं है. मैं ये मानती हूँ कि सभी औरतों को पर्सनल ला जैसे कानूनों के खिलाफ़ खड़े होना चाहिये और समान अधिकारों की बात करनी चाहिये. तभी औरतों की स्थिति सुधर सकती है.
ReplyDeletefirdaus
ReplyDeleteaap kaa nispaksh likhan bahut achcha lagtaa haen aur samantaa ki baat mae hi naari kaa bhala ahaen har dharm mae
कुरआन और हदीस में तो चोरी की सजा हाँथ कट देना है और गुनाहों के लिए भी शरिया में कड़ी सजाएँ हैं. उनको लागू करने की बात मुस्लिमों के ठेकेदार क्यों नहीं करते. सब दकोसला और दोगलापन है औरत को गुलाम बनाये रखने के .कमसे कम भारत में इस्लाम औरतों के एकतरफा शोषण का औजार है और इसके खिलाफ मुस्लिम औरतों को ही आवाज़ मने रखेगी.
ReplyDeleteआपके लेख और हिम्मत को नमन !
जगत जननी नारी को अपमानित करना किसी भी धर्म में जायज नहीं ठहराया जा सकता !और फिर इन बेतुके बयान देने वालों का तो कोई धर्म ही नहीं होता.. !अच्छा लेख!!!
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