आज कल सुप्रीम कोर्ट / हाई कोर्ट के बहुत से जजमेंट आ रहे हैं
जैसे
समलैगिकता कानून अपराध नहीं हैं
लिव इन रिलेशनशिप कानून अपराध नहीं हैं
शादी से पहले दो व्यस्को के बीच सम्मति से बनाया गया यौन सम्बन्ध कानून अपराध नहीं हैं
नाबालिक कन्या का विवाह अपनी मर्जी से वैध करार
ससुराल ब्याहता क़ानूनी रूप से घर नहीं हैं
कुछ दिन पहले चिदंबरम जी ने कहा हैं कि अब रेप के कानून मे भी बदलाव किया जाएगा और यौन शोषण का अपराध दोनों स्त्री / पुरुष पर समान रूप से लागू होगा ।
इतने विविध निर्णय लेने के लिये क्या कारण हैं । वो सब जो "भारतीये संस्कृति " को मान्य नहीं हैं "गैर क़ानूनी " नहीं रहा हैं क्यूँ ?? बहस का मुद्दा आज ये नहीं हैं कि इन निर्णय का दूरगामी नतीजा क्या होगा बल्कि बहस का मुद्दा ये हैं कि ये निर्णय क्यूँ लिये जा रहे हैं ।
आप लोग अपने विचार दे कि क्यूँ ये सब हो रहा हैं ।
" जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की " "The Indian Woman Has Arrived " एक कोशिश नारी को "जगाने की " , एक आवाहन कि नारी और नर को समान अधिकार हैं और लिंगभेद / जेंडर के आधार पर किया हुआ अधिकारों का बंटवारा गलत हैं और अब गैर कानूनी और असंवैधानिक भी . बंटवारा केवल क्षमता आधारित सही होता है
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था
हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।
यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का ।
15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं
15th august 2012
१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं
15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं
15th august 2012
१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं
"नारी" ब्लॉग
"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।
" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "
हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था
March 25, 2010
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nice
ReplyDeleteअब तो मानना होगा कि परम सत्य 'परिवर्तन 'ही है.....
ReplyDeleteमैं नए नियम का समर्थन नहीं कर रहा हूँ....
मजबूरी बता रहा हूँ....
भारतीय संस्कृति? ये किस चिड़िया का नाम है? कहीं आप हिन्दूवादी तो नहीं हैं… "संस्कृति" का नाम लेते ही साम्प्रदायिक घोषित होने का खतरा है…
ReplyDelete(यह थी कड़वी सच्चाई…)
अब मूल विषय पर आते हैं - लिव-इन रिलेशनशिप पर निर्णय देते वक्त सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी थी, "राधा-कृष्ण भी तो साथ-साथ रहे थे…"। और आज ही मुस्लिमों को 4% आरक्षण का भी आदेश आ गया… अब आप खुद ही इसका मतलब निकाल लीजिये। क्योंकि यदि मैं "अपनी भाषा" में कहूंगा तो सुप्रीम कोर्ट के साथ-साथ इस ब्लॉग की भी अवमानना हो जायेगी…
(ऐसा क्यों हो रहा है, इसका उत्तर जल्दी ही कन्फ़र्म हो जायेगा, जब ईसाई बन चुके दलितों को आरक्षण भी दे दिया जायेगा)। हो सकता है कि आप इसे विषयान्तर मानें, लेकिन मेरा मत है कि आपके प्रश्न और मेरी आशंकाएं, आपस में मजबूती से गुंथी हुई हैं, और इस खतरनाक संकेत को वक्त रहते समझना होगा…
- एक तथाकथित साम्प्रदायिक ब्लॉगर : सुरेश चिपलूनकर :)
समय समय पर कानूनों में बदलाव , समाज के बदलते परिवेश और चरित्र पर भी बहुत हद तक निर्भर करता है , जहां तक अदालती फ़ैसलों का सवाल है तो बहुत मायनों में तो उसे वैसे नहीं देखा दिखाया जा रहा है जो वास्तव में उसके न्यायिक निहातार्थ हैं । वैसे भी ये प्रश्न आज सबसे पहले समाज से पूछे जाने चाहिए क्योंकि आखिरकार स्थिति तो समाज की ही बनाई हुई है न ? और अभी नहीं तो आने वाले समय में जरूर ही समाज को ये तय करना ही होगा कि उसे भारतीय संस्कृति चाहिए या ...फ़िर ये बदलाव लाता समाज , जिसमें लिव इन रिलेशनशिप, किराए की कोख, समलैंगिकता आदि के लिए भी स्थान होगा ...देखते हैं कि पाठक क्या कहते हैं
ReplyDeleteअजय कुमार झा
रचना ऐसा लगता है आज मानवाधिकार एक अहम् भूमिका निभा रहे है जो की समलैंगिक सम्बन्ध और सहजीवन पर लागू होते है ये नितांत निजी विषय है जो दो लोग आपस में फैसला करते है .
ReplyDeleteनाबालिक कन्या का विवाह मुझे नहीं समझ में आता क्योंकि यह सिर्फ मानसिक नहीं शारीरिक परिपक्वता का विषय भी है,चाहे अपनी मर्जी से हो या दवाब में कही माननीय जज महोदय "बालिका वधु " से प्रभावित तो नहीं
This comment has been removed by the author.
ReplyDeleteबहुत अच्छा विषय है............पर ????????????????/
ReplyDeleteइनके जवाब से पहले आपसे भी एक सवाल कि यदि ये सवाल किसी पुरुष ने उठाये होते तो??????????????
गनीमत है कि आपने उठाये हैं और हमें ख़ुशी इस बात की है कि अब आप भी भारतीय संस्कृति की बात कर रहीं हैं. हर सवाल का जवाब है कि स्त्री-पुरुष को मिल कर अपनी संस्कृति को बचाना होगा.
ये सारे निर्णय एक धर्म और जाती विशेष को ध्यान में रख कर दिए जाते हैं, संस्कृति का नाश होता हो तो बिलकुल होए.
सवाल और भी हैं और जवाब हमारी नज़रों में एक ही कि अब जागना होगा.
----------------------------------जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड
जहाँ तक आपने राय माँगी है, तो मैं इस बात पर सोनल और अजय झा की बातों से सहमत हूँ. लिव इन और विवाहपूर्व सम्बन्ध बिल्कुल व्यक्तिगत चीज़ें हैं. कानून मान्यता नहीं भी देता तो भी बदलते युग में ये बातें आम होती जा रही हैं. इसका ये मतलब कतई नहीं है कि मैं इस बात का समर्थन कर अरही हूँ कि जो भी बात आम हो जाये उसे जायज ठहरा दिया जाये. पर अगर इन्हें कानूनी रूप नहीं मिलता तो पुलिस बेवजह नौजवानों को परेशान करने लगती है. हाँ, नाबालिग बालिका से सहमति से यौन सम्बन्ध वाला कानून मेरी भी समझ से बाहर है.
ReplyDeleteख़ैर, इन बातों को भारतीय संस्कृति से जोड़कर नहीं देखना चाहिये.
भारतीय संस्कृति? ये किस चिड़िया का नाम है? कहीं आप हिन्दूवादी तो नहीं हैं… "संस्कृति" का नाम लेते ही साम्प्रदायिक घोषित होने का खतरा है…
ReplyDeleteबिलकुल अंधेर हो गई है इस लिए
ReplyDeleteहद पार हो गई है, अब ("कुछ"???) नियम तो होना चाहिए जिससे पता चल सके फैशन क्या है नग्नता क्या?
बिलकुल अंधेर है जी
गनीमत है कि आपने उठाये हैं और हमें ख़ुशी इस बात की है कि अब आप भी भारतीय संस्कृति की बात कर रहीं हैं. हर सवाल का जवाब है कि स्त्री-पुरुष को मिल कर अपनी संस्कृति को बचाना होगा.
ReplyDeleteडॉ० कुमारेन्द्र सिंह सेंगर said...
खेद हैं कि आप पोस्ट को समझे ही नहीं । क्युकी मेरा मानना हैं कि कानून कि प्रक्रिया से समाज को चलना चाहिये ना कि समाज कि प्रक्रिया / क्रिया से कानून को और एक नाबालिक कन्या कि सहमति से विवाह वाले निर्णय को छोड़ कर मे हर निर्णय को सही मानती हूँ क्युकी वो "कानून कि विभिन्न धाराओ " को ध्यान मे रख कर लिये जाते हैं ।
भारतीये संस्कृति मे वो सब जो गलत हैं अगर कानून सही हैं तो उसको सही ही मानना चाहिये । संस्कृति बचाने के फेर मे क्या आप गैर कानूनी बातो को बढ़ावा देना चाहते हैं ???
जहां तक अदालती फ़ैसलों का सवाल है तो बहुत मायनों में तो उसे वैसे नहीं देखा दिखाया जा रहा है जो वास्तव में उसके न्यायिक निहातार्थ हैं ।
ReplyDelete@अजय कुमार झा
बात केवल दिखाने कि नहीं हैं बात हैं कि भी अदालती फैसला लिया जाता हैं उसको मानने मे हम इतना बाय बवेला क्यूँ मचाते हैं । क्यागैर क़ानूनी होना सही होगा , ये सब फैसले एक दिन मे नहीं लिये जाते और जैसा कि आप कि पोस्ट पर पढ़ा किमीडिया इनको अलग तरह से दिखता हैं मै उससे सहमत नहीं हूँ क्युकी मीडिया ना हो तो ये सब बाते हम तक ना पहुचेमीडिया हमे हर बात का एक नया रूप भी दीखता हैं लेकिन हमारी जड़ता हमको नए को अपनाने से रोकती हैं ।
@वीनस केशरी
ReplyDeleteफैशन हर २० साल बाद वापस आ जाता हैं अब आप खुद फैसला कर ले कि आज कि पीढ़ी फैशन परस्त या नग्नता उनपर हावी हैं !!!!!! हां मुझे हमेशा से उत्सुकता रही हैं कि हम नयी पीढ़ी किसे कहते हैं कौन सा आयुं वर्ग इसमे आता हैं
इसे ही वैस्वीकरण कहते हैं
ReplyDeleteभावनाओं का बाजारीकरण
वैस्वीकरण
ReplyDeleteइसका सम्बन्ध पोस्ट से हैं ?
टिप्पणियों से हैं ?
या न्याय प्रणाली से हैं
रचना जी
ReplyDeleteसादर वन्दे!
आपके इन ज्वलंत प्रश्नों के जबाब के दो आयाम हैं,
* पहला तो यह कि इस तरह के विचार रखने वाले व फैसले देने वाले लोग कितने सामाजिक हैं इसपर विचार किया जाना आवश्यक है, और इस तरह के फैसलों के लिए लड़ने वालों का निजी निहातार्थ व सामाजिक निहितार्थ कितना है यह विचारनीय प्रश्न है.
* दूसरा यह कि, हम या यूँ कहे भारतीय विद्वत समाज जो दोनों पहलुओं (ग्रामीण व शहरी परिवेश) को ठीक से समझता है, उनके द्वारा क्या प्रयास होता है.
अगर इन दोनों बातों पर नजर डाली जाये तो हमें लगेगा कि गलती हमारी ज्यादा है कि हम विचारो कि अभिव्यक्ति तक ही सिमित रहते हैं उन्हें क्रियान्वित करने का हमारा प्रयास लगभग शुन्य होता है, ऐसे में समाज के नाम पर कुछ लोगों के हितों को ध्यान में रखकर निजी निहितार्थ तलासने वाले सफल हो रहें है तो, हम चर्चा के आलावा कर भी क्या सकते हैं .
रत्नेश त्रिपाठी
Jab insan malik ke hukm se hat kar chalega to thokren to uska muqaddar banengi hi .
ReplyDeleteप्रिय रचनाजी ,
ReplyDeleteआज भी भारतीय संस्कृति व संस्कारों का पूर्ण मान-सम्मान सारे विश्व में होता है.हमारे देश की सभ्यता का उदाहरण दिया जाता है.हमारे समाज या परिवार कितने भी आधुनिकता या पश्चिमी संस्कृति की ओर बढ़ें पर कुछ बातों को अब भी उचित नहीं समझा जाता.
इतिहास साक्षी है जिन सामाजिक नियमों-कानूनों को गहन चिंतन-मनन के बाद हमारे मनीषियों - विद्वजनों ने समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए निर्धारित किया है व सदियों से चलते आ रहे हैं.हम-हमारे परिवार भी इनमे बंधकर ही पूर्ण सुरक्षित व निश्चिंत हैं.
अब मुख्य सोच का विचारबिंदु यही सामने आता है कि भारतीय समाज में भी आखिर क्या कारण ऐसे बन गए हैं कि हमारे देश के सर्वोच्च सुप्रीम/हाई कोर्ट तक को ऐसे जजमेंट लेने पड़ें हैं.निःसंदेह विचारणीय है कि आज कि सामाजिक परिस्थितियों को देखकर ही हमारे माननीय जजों को ऐसे निर्णय देने पड़े हैं .अमान्य को मान्य नहीं किया जाता तो भी ये सब कुछ तो हो ही रहा है हाँ अब खुलकर सामने होगा.दूरगामी द्रष्टि से विचार करने के लिए बाध्य तो कोई नहीं है पर कुछ नजर तो आ ही रहा है.गंभीर चिंता है कि क्या कल भी यही सामाजिक सुरक्षा बनी रह पायेगी ? कानून से कितने लोग डरेंगे,क्या पालन करेंगे ?अपने असंतोष को कैसे व कहाँ व्यक्त करेंगे?
बहुत चिन्त्तनीय विषय है शायद क़ानूनी सहायता भी न मिल पाए.सामाजिक मूल्य तो कम होंगे ही.
अलका मधुसूदन पटेल
लेखिका -साहित्यकार
समय समय पर कानूनों में बदलाव , समाज के बदलते परिवेश और चरित्र पर भी बहुत हद तक निर्भर करता है , जहां तक अदालती फ़ैसलों का सवाल है तो बहुत मायनों में तो उसे वैसे नहीं देखा दिखाया जा रहा है
ReplyDelete@ सुमन जिंदल
ReplyDeleteफ़ैसले के बारे में
संस्कृति और कानूनी फैसले सब है किसके लिए? इस समाज के लिए और समाज हमसे ही बनता है. इन मुद्दों को क़ानून को परिभाषित करने की जरूरत क्यों पड़ी? क्योंकि ये उसकी नजर में आ रहे हैं. हमारी सोच बदल रही है. फिर भी सहजीवन, बाल विवाह या समलैंगिकता के परिणाम सुखद तो नहीं हो सकते हैं. सहजीवन एक प्रयोग की तरह हैं, जब तक जी चाहा रहे और जब नहीं समझ आये रास्ते अलग हो गए. फिर नया साथी क्योंकि साथी तो फिर चाहिए न. कोई दायित्व नहीं, कोई मजबूरी नहीं. एक चाट के नीचे सब चीज मुहैया है फिर क्यों विवाह और परिवार जैसी संस्था को पल्ले से बांधा जाय. शायद ये मानवीय संवेदनाओं से शून्य होकर जीने वाले लोग हैं.
ReplyDeleteबाल विवाह में बालिका की सहमति क्या अर्थ रखती है? जब उससे विवाह जैसी चीज के मायने भी नहीं मालूम होते हैं? हमारी न्यायपालिका किस सोच को प्रदर्शित कर रही है? इस पर बहस की जरूरत सही है.
इन फैसलों के बाद जो समाज का स्वरूप होगा , उसके लिए अभी इंतजार की जरूरत है वैसे सुधी जन उसकी तस्वीर जल्दी ही खींच कर सामने प्रस्तुत कर देंगे.
बहुत अच्छा विषय है.........
ReplyDelete