देखिए कई बार सवाल ऐसे होते हैं जिनका उत्तर क्या हो कहा नहीं जा सकता। विज्ञापन में नारी की शुरुआत या फिर विज्ञापन में नारी की नग्नता की शुरुआत या फिर विज्ञापन में पुरुष सामानों के लिए भी नारी की शुरुआत? देखा जाये तो यह सवाल विषय को भटकाने का काम कर सकते हैं। ऐसे बहुत से सवाल हैं जिनके आधार पर महिलायें अपने खिलाफ उठी आवाज को मोथरा करने का दम रखतीं हैं पर सत्यता को स्वीकार करना नहीं चाहतीं।
जहाँ तक विज्ञापनों में नारी की शुरुआत का सवाल है तो इसका कोई ठोस प्रमाण हमारे पास नहीं है (वैसे होगा अवश्य) फिर भी समाजशास्त्रीय अध्ययन के आधार पर इतना कहा जा सकता है कि नारी को सदा से ही कोमल, कांत, सौछनयैबोधक, सुवर्ण आदि समझा गया है। प्राचीन काल में जब इस प्रकार की अवधारणा काम करती होगी तो उसके पीछे नारी की छवि को दूषित करने का विचार नहीं रहा होगा।
इसी विचार के वशीभूत ही विज्ञापनों में नारियों की शुरुआत हुई होगी। जितना हमें ध्यान है जबकि सबसे पहले हमने टीवी पर विज्ञापन देखे थे (बहुत छोटे में) उस समय नारी की छवि को विज्ञापनों में नग्न रूप में कम से कम या फिर नहीं के बराबर दिखाया जाता था। एक इस बात से शायद नारियाँ भी इंकार नहीं कर सकें कि सजी हुई स्त्री को देखने की जितनी लालसा पुरुषों में होती है उससे कहीं कम महिलाओं में भी नहीं होती। वैसे भी यह सत्य है कि शारीरिक हाव-भाव से लेकर पहनावे और केश सज्जा तक में महिलाओं के पास पुरुषों से अधिक अवसर रहे हैं।
वस्त्रों की बात करें तो साड़ियों के विविध स्वरूप महिलाओं के पहनावे में दिखते हैं। सलवार-कुर्ता की बात करें तो वहाँ भी विविध प्रकार के स्टाइल काम करते दिखते हैं। विज्ञापनों में, फिल्मों में बिकनी की चर्चा भी होती है तो उसके भी कई सारे रूप सामने दिखते हैं। घर में ही महिलायें नाइटी के कितने अधिक स्वरूप को दिखातीं हैं यह बताने की आवश्यकता नहीं है। इसके अलावा स्कर्ट-टाप, मिडी आदि परम्परागत नामों के अलावा भी बहुत से आधुनिक नाम भी महिलाओं के पहनावे में जुड़ गये हैं।
ठीक इसी प्रकार से केश सज्जा में, चेहरे की सज्जा में, शारीरिक सज्जा में भी महिलाओं की विविधता किसी से छिपी नहीं है। इन सबने महिलाओं की सुंदरता को अप्रतिम बनाया है। सम्भव है कि इसी सुंदरता को भुनाने के लिए पूर्व में विज्ञापन निर्माता-निर्देशकों ने महिलाओं की, माडल्स की मजबूरी का फायदा उठाया हो किन्तु बाद में महिलाओं ने अपनी बढ़ती लोकप्रियता को देखते हुए, विज्ञापन निर्माता-निर्देशकों ने अपने लाभ को देखते हुए विज्ञापनों में नारियों को ही आधार बना लिया। यहाँ एक बात माननी होगी कि एक महिला यदि किसी सुंदर महिला की सुंदरता से जलन रखती है तो दूसरी ओर उसकी सुंदरता को भरपूर तरीके से निहारती भी है। इसी कारण से पुरुष वर्ग के साथ-साथ एक महिला माडल दूसरी महिलाओं के लिए भी सेक्स अपील का, दर्शक बोध का आभास कराती है।
अब यदि बात करें विज्ञापन में नारी की नग्नता की, कम से कमतर होते जा रहे कपड़ों की जो आम जीवन में भी आसानी से दिखाई दे रहे हैं तो किसी अन्य को वाकई कोई अधिकार नहीं कि किसने क्या पहना, किसे क्या पहनना चाहिए यह तय करे। पर क्या यही धारणा माँ-बाप भी लागू होती है? क्या एक माता-पिता भी यह तय करने के अधिकारी नहीं कि उसकी जवान होती बेटी के किस प्रकार के वस्त्र उसको नंगा कर रहे हैं और किस प्रकार के वस्त्र उसकी सुंदरता को बढ़ा रहे हैं? देखा जा रहा है कि अब समाज में जिस प्रकार से विचलन की स्थिति सम्बन्धों में आती जा रही है, माता-पिता के साये में बेटा हो या बेटी अब गुलाम दिखते हैं तो जाहिर है कि वस्त्र चयन का अधिकार माता-पिता खो चुके हैं।
विज्ञापनों में नारियों की भौंड़ी उपस्थिति को पुरुष वर्ग द्वारा नहीं रोका जा सकता है। देखा जाये तो यह भी सत्य है कि उसे अब महिलाओं द्वारा भी नहीं रोका जा सकता है। कुछ अति जागरूक महिलायें जो अपने पद और प्रतिष्ठा की आड़ में गैर कानूनी धंधों, काल-गर्ल रैकेट में लगीं हैं (आप माफ करेंगीं इस बात पर किन्तु सत्यता इतनी ही वीभत्स है, इसे हर कोई जानता है पर स्वीकारना कोई नहीं चाहता) वे भी नहीं चाहतीं कि महिलायें विज्ञापनों में या आम जीवन में अपनी नग्नता को छोड़ दें। यदि ऐसा होता है तो उनके ग्राहकों को कौन खुश करेगा? विज्ञापनों में नारियों की उपस्थित से ऐतराज न होकर उनके भौंड़े प्रदर्शन पर आपत्ति होनी चाहिए। सवाल यह कि आपत्ति कौन करे? या तो स्वयं महिला संसार, किसी भी महिला के माता-पिता या फिर समाज? आज हालात ऐसे हैं कि जो भी आपत्ति करे वहीं महिला विरोधी, नारी स्वतन्त्रता का विरोधी, स्त्री-सशक्तिकरण का विरोधी। वैसे आपको और अन्य नारीवादियों को, महिला सशक्तिकरण की पहरुआ महिलाओं को बुरा न लगे तो लगता है कि विज्ञापनों से, फिल्मों से, समाज से महिला नग्नता समाप्त या कम होने वाली नहीं है। इससे एक तो बैठे-बिठाये विज्ञापन मिल रहा है; धन-दौलत मिल रही है; शारीरिक सुख मिल रहा है; सुविधायें मिल रहीं हैं और तो और जिन्दगी भर गुलामी कराने वाला पुरुष वर्ग लार टपकाते चारों ओर घूमते दिख रहा है। इससे बड़ा स्त्री-सशक्तिकरण का उदाहरण कहाँ देखने को मिलेगा? जब किसी दिन अनैतिक सम्बन्धों, बिना विवाह के माँ बनती बेटियों, यौनजनित बीमारियों से मिलती असमय मौत, सामाजिक प्रताड़ना के कारण स्वयं महिलायें ही कहतीं दिखेंगीं ‘‘उफ! अब और नहीं’’ शायद तब ही इसे रोका जा सकेगा? इसमें भी अभी बहुत समय लगेगा, क्योंकि हमारे समाज में तो महिला नग्नता की अभी शुरुआत ही हुई है।
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डा0 कुमारेन्द्र सिंह सेंगर
विज्ञापन में नारी श्रृंगार काव्य का विस्तार ही है.
ReplyDeleteRachna why did you posted this here?
ReplyDelete@swapandarshi
ReplyDeletewhen i got this in email i could see the bais but i wanted others also to comment on the mental conditioning , specially woman
but it seems none feels there is any thing baised here in this post
thanks for asking which shows the very reason why it should have been posted
कितना सहज होकर पुरुष स्त्री पर आरोप लगा देता है बिना उसके चरित्र को जाने. बिना किसी शर्त के परिवार के लिए बिना शर्त के प्यार लुटाती रहे तो वह आदर्श नारी है अगर अपने बारे में एक पल भी सोच ले तो ऐसे ही उसपर आरोप लगते रहेंगे. आज वह अपने कर्तव्य निभाते जब अपने बारे में भी सोचने लगी है तो पुरुष समाज को अपनी सत्ता हिलती दिखाई देने लगी है.
ReplyDeleteआज चाहे स्त्री विकास के पथ पर पुरुष के साथ चल पड़ी है फिर भी समाज में इस समानता में असमानता ही है. विज्ञापन का क्षेत्र भी अभी पुरुष प्रधान ही है. अधिकतर दिखाया जाता है कि औरत मेकअप और घर की साज सफाई के लिए चीज़े खरीदती है और दूसरी और दिखाया जाता है कि पुरुष मंहगी कारें खरीदते या व्यापार करते दिखाया जाता है. कुछ भी हो विज्ञापन कम्पनी के मालिक अधिकतर पुरुष ही है जिनके निर्णय को अंतिम माना जाता है.
समाज में स्त्री को 'संतुष्ट गृहस्वामिनी' , 'अपनी औकात में रहना' (keep her in her place) और 'सेक्स ऑब्जेक्ट' दिखा कर पुरुष समय समय दिखाता आया है कि स्त्री हमेशा से पुरुष के अधीन है और हमेशा रहेगी. अभी स्थिति को बदलने में समय लगेगा हालाँकि 'सुपरवुमेन' के रूप में भी विज्ञापन में स्त्री को नया दिखाया जा रहा है...
विज्ञापन कम्पनी , जहाँ सिर्फ एक ही मूलमंत्र है बेचना... किसी भी तरीके से वस्तु को बेचने की कला उन्हें कुछ भी सोचने नहीं देती. वे अच्छी तरह से जानते है कि वे क्या कर रहे है और उन्हे क्या नही करना चाहिए..
आज चाहे स्त्री विकास के पथ पर पुरुष के साथ चल पड़ी है फिर भी समाज में इस समानता में असमानता ही है. विज्ञापन का क्षेत्र भी अभी पुरुष प्रधान ही है. अधिकतर दिखाया जाता है कि औरत मेकअप और घर की साज सफाई के लिए चीज़े खरीदती है और दूसरी और दिखाया जाता है
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