यह उन दिनों की बात है जब, मैं बारहवीं कक्षा के अंतिम वर्ष में थी. एक नेताजी ने कुछ स्त्री विरोधी बाते कह दी. चारो ओर से विरोध में स्वर उठने थे उठे. उन दिनों मेरा सामाजिक सरोकार जरा कम हुआ करता था. सीनियर लड़कियों ने उपरोक्त नेताजी को अपमानित करने के लिए साडी और चूड़ी भेजने का एलान किया. मैंने सोंचा इनकी सोंच का भठ्ठा ऐसे ही तो नही बैठ सकता, थोडी खोज-बिन करने पर जानकारी मिली की सामने के ब्वायज कॉलेज के लड़कों ने इनकी बुद्धि के ताबूत में आंखरी किल ठोंकी है. उन्ही के सहयोग और सह पर यह आयोजन हो रहा है. आनन -फानन में स्थानीय मिडिया को भी बुलाया गया. मुझे भी खबर मिली..मैं हमेसा की तरह १० मिनट लेट से (आयोजनों में देर से पहुँचने की बुरी आदत की शिकार हूँ ) पहुंची. मैंने जो दृश्य सामने देखा मेरा दिमाग उसे स्वीकार नही कर पाया. बैनर पोस्टर टंगे थे नेता का नाम लेकर "चुल्लू भर पानी में डूब मरो " टाइप...और सामने साडियां और चूडियाँ पड़ी थी.
छात्र नेताओं को तो मैंने कुछ नही कहा. मैंने महिला कॉलेज की छात्राओं से पूछा,
-"आप इस नेता को स्त्रीत्व की यह निशानियाँ भेज कर अपमानित करना चाहती हैं, क्या मैंने सही समझा ?"
जवाब आया -"हाँ, तुमने सही समझा"
-"यानि की स्त्री होना या यह स्त्रीत्व चिन्ह धारण करना शर्म से डूब मरने की बात है, आपने खुद को क्या समझ कर यह आयोजन यहाँ किया है?"
सब लोग चुप हो गए. मैंने उसी वक्त उठ कर घर चली आई. दोस्त ने बताया की जैसे - तैसे नजरें नीची करके आयोजन निपटा और लोग अपने घर चले गए.
मैं तब से अब तक सोंचती हूँ ..कभी किसी स्त्री को अपमानित या उसका सामाजिक बहिष्कार करने के लिए पुरुष के कपडे क्यों नही भेजे जाते?
क्यों एक तरफ लोग कहते हैं यह गहने -कपडे हमारी परम्परा है ..और दूसरी तरफ इसी परम्परा को अपमानित करने का साधन बनातें हैं? स्त्रीत्व को स्त्री के सामने गौरवशाली होने का पैमाना बताया जाता है, पर पुरुषों के बीच "क्या चूडियाँ पहन रखी है तुमने", "अरे क्या लड़कियों की तरह रोता है " जैसे मुहावरे बोले जाते हैं ..फिर किस तरह स्त्रीत्व को मैं गौरवशाली होने का पैमाना मानूं ?
मुझे मेरे समाज का यह दोगलापन समझ नही आता ॥क्या आपको आता है ?
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