वर्ष १९९४
मेरी अन्तरंग मित्र रीटा की जेठानी सुषमा अस्पताल मे भरती थी दूसरे प्रसव के लिये । पहले उसके एक लड़का था , दूसरे प्रसव मे सब ठीक नहीं रहा और दुर्भाग्य से सुषमा एक लड़के को जनम देकर मृत्यु को प्राप्त हो गयी । केवल ३४ वर्ष की थी सुषमा और एक कामकाजी महिला भी थी । प्रेम विवाह हुआ था उसका , ख़ुद वह दक्षिणी प्रान्त से थी , शादी पंजाबी मे हुई थी ।
दाह संस्कार के लिये सब जमा हो गए थे लेकिन घर के लोगो मे किसी गहन मुद्दे पर मशविरा चल रहा था । कुछ देर बाद हम लोगो ने देखा की सुषमा के माता पिता बाहर निकले गाड़ी मे बैठ कर चले गए । किसी को कुछ भी समझ नहीं आया । फिर रीटा का पति यानी सुषमा का देवर , सुषमा के बडे ३ साल के बेटे को लेकर बाहर आया और सुषमा के ससुर ने कहा की संस्कार रीटा का पति करेगा , बेटे से हाथ लगवा दिया जायेगा ।
सबको बहुत आश्चर्य हुआ की सुषमा के पति को क्या हुआ हैं , वह बाहर क्यों नहीं आ रहा हैं और क्यूँ संस्कार अपनी पत्नी का वो नहीं कर रहा हैं ? पूछने पर पता चला की अभी सुषमा के पति की आयु केवल ३७ वर्ष की हैं और दो बच्चे है छोटे छोटे सो पंजाबी रीति रिवाज के अनुसार अगर वो अपनी मृत पत्नी के शरीर को हाथ लगाएगा या उसका संस्कार करेगा तो ९ { नों } महीने तक वो दुबारा शादी नहीं कर सकता इस लिये संस्कार देवर से करा देते हैं , अब अपना लड़का तो हाथ लगा ही रहा हैं पति करे या ना करे संस्कार क्या फरक पड़ता हैं ।
और सच मे किसी को कोई फरक नहीं पडा , पति ने ३ महीने के अन्दर दूसरा विवाह कर लिया , बच्चो का माँ चाहिये थी । बस एक फरक पडा सुषमा के माता पिता ना तो संस्कार मे आए और ना उन्होने कोई सम्बन्ध रखा लेकिन इस के अलावा कोई फरक नहीं पडा किसी को भी ।
क्या एक विधवा को भी ये आज़ादी दी जा सकती हैं की उसको अपनी मांग का सिंदूर ना पोछना पडे , उसकी चूडियों को ना उतारा जाए , उसको एक दिन को भी सफ़ेद लिबास न पहना पडे क्योकि उसको दुबारा विवाह करना हैं ।
और कहां जाता हैं वो प्रेम जिसकी इतनी दुहाई दी जाती हैं शादी मे , और कहां जाता हैं वो एक दूसरे का पूरक होना । कहां हैं वोह भावनात्मक लगाव जिस की दुहाई शादी का गुन गान करने वाले देते हैं । दैहिक जरुरतो की पूर्ति मात्र लगती हैं कभी कभी ये शादी पर इस सच को कितने स्वीकारते हैं ??
यही सच है रचना ..विधवा विवाह अभी भी होना बहुत मुश्किल है ....
ReplyDeleteरचना जी, आप और मैं भी, नाहक हाहाकार मचाते हैं,पुरुष जब विवाह करता है, पहला या दूसरा या तीसरा, या जो भी वां, एक स्त्री का बेड़ा पार लगाता है। उसे पुण्य मिलना चाहिए न कि यूँ कटघरा। एक मित्र के अनुसार पुरुष तो काँसे का लोटा है, माँजा और चमक गया। वह हमारी तरह किसी के छूने मात्र से जूठा नहीं हो जाता। तो क्या हुआ कि उसने एक स्त्री के साथ प्रेम किया, दो पुत्रों को जन्म दिया? तीन महीने तो बहुत होते हैं वह तीन घंटे में भी विवाह रचाता तो कोई पहाड़ न टूट पड़ता। खैर, अच्छा हुआ जो मृतक के माता पिता को किसी भ्रम में नहीं रखा।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
सब आँखों के आँसू उजले, सबके सपनों में सत्य पला!
ReplyDeleteजिसने उसको ज्वाला सौंपी, उसने इसमें मकरंद भरा,
आलोक लुटाता वह घुल-घुल, देता झर यह सौरभ बिखरा!
दोनों संगी, पथ एक किंतु कब दीप खीला कब फूल जला?
Lekin ek vidhva ke aanchal mein samaz ne hamesha kaante hi bhara.
ऐसी घटनाएँ मन को हिला देती हैं....
ReplyDeleteसमाज की सोच को मुझे खुद बदलना है अपनी आत्मशक्ति से...समाज और परिवार को अपनी सकारात्मक सोच मे ढालना है.. ...बस ऐसा होते ही बदलाव की प्रक्रिया सही दिशा की ओर बढ़ॆगी.....
मेरे विचार में एक विधवा को पूरी आज़ादी होनी चाहिए कि अगर वह चाहे तो अपनी मांग का सिंदूर ना पोंछे, अपनी चूडियों को ना उतारे, एक दिन भी सफ़ेद लिबास न पहने. उसको दुबारा विवाह करना है या नहीं, यह भी उस का व्यक्तिगत निर्णय होना चाहिए. मुझे बिग बी की वह फ़िल्म बहुत पसंद आई थी जिसमें उसकी विधवा पुत्रवधू का विवाह होता है. जीवन बहुत सुंदर है. पति की म्रत्यु हो जाने से स्त्री से उसका जीवन ही छीन लेना पाप है.
ReplyDeleteमहिला ब्लाग पर टिप्पणी करने के लिए अनुमति न ले ने के लिए क्षमा...बीकानेर मैं रेडियोलॉजी के एक प्रोफेसर महोदय की धर्म पत्नी जो कि गायनी मैं प्रोफेसर थी तब भी उन्होने ऐसा ही किया थी.प्यार मोहब्बत की तो छोङें जो महिला उन्हें महिने के 2-3 लाख रूपये कमा कर देती थी उसके साथ ऐसा व्यबहार ...खैर दो महिने बाद उन्होंने अपनी एक छात्रा से विवाह कर लिया there after they are living a very very loving and happy life
ReplyDeleteब्लॉग पर पोस्ट महिला करती हैं पर टिपण्णी तो सब ही कर सकते हैं . आप को ऐसा लगा की टिपण्णी करने के लिये अनुमति की आवश्यकता हैं तो कहीं ना कहीं मे अच्छी मोडरेटर नहीं हूँ
ReplyDeleteमिहिर भोज जी इस कनफूजन के लिये क्षमा करदे और निरंतर टिपण्णी करे
रचना जी, आप कैसी बात करती हैं? नारी को यह अधिकार पुरुष प्रधान समाज कैसे दे सकता है। हाँ नारियाँ ही छीन लें तो बात अलग है।
ReplyDeleteपर सोचिए किसी पुरुष को भी यह अधिकार होना चाहिए क्या?
और रिवाज ने ही पुरुष के कपड़े उतार भी दिए हैं। इस से पता लगता है कि पहला विवाह तो फर्जी था। पति-पत्नी के बीच सिर्फ मशीनी रिश्ता था।
मुझे महान भौतिकवादी 'कार्ल मार्क्स'का स्मरण हो रहा है, जो पत्नी की मृत्यु पर उस की कब्र में पैर लटका कर बैठ गए थे कि उन्हें भी जेनी के शव के साथ ही दफन कर दिया जाए। उन के मित्र जबरन उन्हें वापस लाए। मार्क्स ने अपना जीवन विदुर के रुप में ही गुजारा।
दिनेश जी बात केवल स्त्री और पुरूष की नहीं हैं बात हैं समाज मे व्याप्त असमानता की और बात हैं पुरूष कमजोरी की भी हैं । स्त्री को अबला कहते कहते पुरूष कितना निरिही और समाज के हाथो की कठपुतली बनता गया हैं की अपने दिमाग से उसने सोचना ही बंद करदिया हैं । मैने निरंतर कहा हैं की समाज की रुदिवादी सोच को बदलो और ये ब्लॉग भी उसी बात को आगे बढाने का माध्यम हैं । आप निरंतर कमेन्ट दे कर उर्जा देते हैं आगे और लिखने की
ReplyDeletepurusho ke hak mai bani ek or waywastha ko aap ne ujager kiya....
ReplyDeletesach to je hai ki ess waywastha mai keechad hi keechad hai...
samaaj ko aaiena dikhane ke leye badhaae
Manvinder
Bahut tarah ke log hai hamare samaaj me..koi sach ke liye mar mitta hai to koi jhuth ke liye.mujhe lagta hai yah wyakti wyakti par nirbhar karta hai..lekin haan ab bhi bahut saare parivartano ki gunjaish hai khash karke mahilaaon ke liye.
ReplyDeleteसमाज स्त्री और पुरूष दोनों से बनता है. समाज की कुछ व्यवस्थाएं होती हैं. इस व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए स्त्री और पुरूष के बीच में अधिकार और जिम्मेदारियों का विभाजन किया जाता है. इन्हें असामानता के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. पर इस व्यवस्था में कोई भी बिसंगतता असामानता को जन्म देती है और इस से समाज में समस्यायें पैदा होती हैं. यह बिसंगतता स्त्री और पुरूष दोनों और से हो सकती है. इसे दूर किया जाना चाहिए.
ReplyDeleteसुषमा के पति का अपनी पत्नी का संस्कार न करना मेरे विचार में ग़लत था. पत्नी की मृत देह चिता पर रखी हो और पति दूसरी शादी के बारे में सोचे, यह तो एक अमानवीय कर्म है. दूसरी और सुषमा के पिता का संस्कार से ही चला जाना भी ग़लत था. अन्तिम यात्रा में बेचारी सुषमा को तो पिता और पति दोनों ने ही छोड़ दिया. ऐसे रीति-रिवाज किसी भी समाज के लिए कलंक हैं.
आज मुझे अपने एक सहकर्मी की याद आ रही है. देहरादून की बात है. उसका लगभग एक वर्ष पहले विवाह हुआ था. पत्नी किसी काम से अपने मायके गई हुई थी.वह नहाने के लिए विजली के हीटर से पानी गर्म कर रहा था. विजली का झटका लगने से उसकी मौत हो गई. उसके घर और ससुराल दोनों को ख़बर की गई. घर वाले आए पर ससुराल वाले नहीं. जब फ़ोन किया तो उन्होंने बहाना बना दिया और आने में असमर्थता जाहिर कर दी. सबको अजीब सा लगा. दुःख भी हुआ.
सुषमा के पति ने जो किया वो गलत था और किसी तरह से माफ़ नहीं किया जा सकता। उसने तीन महीने में जी दूसरी शादी कर ली? गलती उनकी भी है जिन्हों ने उसे लड़की दे दी।
ReplyDeleteवैसे यहां बम्बई में मैने देखा है कि आजकल पति के मरने पर नारियां सफ़ेद कपड़े नहीं पहनती और गले के मंगलसूत्र नहीं उतारतीं। इस बात की तरफ़ कोई ध्यान भी नहीं देता। विधवा विवाह भी अक्सर होते देखे हैं यहां
मैंने ऐसी कई स्त्रियों को देखा है जिनके पति का देहांत हो चुका है पर न तो वह सफ़ेद वस्त्र पहनती हैं और न ही उन्होंने गहने पहनना बंद किया है. पहनावे की तरफ़ से सब कुछ पहले जैसा है. इस बात से किसी दूसरे को कोई परशानी नहीं है. मुझे लगता है कि अब समाज में सोच बदल रहा है. लोग विधवा स्त्रियों की तरफ़ ज्यादा सामान्य हो रहे हैं.
ReplyDeleteसुरेश जी
ReplyDeleteप्रश्न सफ़ेद कपड़ो का और मंगल सूत्र का नहीं हैं प्रश्न हैं असमानता का समाज मे बनाये नियमो का . औरत को मानसिकता ऐसी दी जाती है की वो सोचती हैं की पति गया तो सब कुछ गया और पुरूष को मानसिकता दी जाती हैं औरत का क्या गयी तो दूसरी मिलेगी
मै सुरेश चन्द्र और अनीता कुमार की बात से सहमत हूं, निश्चय ही सुषमा के पति का व्यवहार निन्दनीय ही नहीं घोर निन्दनीय है, ऐसे पुरुष से किसी महिला को शादी करने के लिये तैयार नहीं होना चाहिये. हां महिलाऒं को भी विधवा होने के बाद विवाह करने की पूरी आजादी है और विधवा विवाह हो भी रहे हैं और समाज में स्वीकृति भी मिल रही है किन्तु समाज में परिवर्तन धीरे-धीरे व स्थाई होता है.
ReplyDelete@औरत को मानसिकता ऐसी दी जाती है की वो सोचती हैं की पति गया तो सब कुछ गया और पुरूष को मानसिकता दी जाती हैं औरत का क्या गयी तो दूसरी मिलेगी.
ReplyDeleteयह मानसिकता कौन देता है? क्या वह लोग समाज के बाहर से आते हैं? वह यहीं इस समाज में रहते हैं. और कितने लोग इस मानसिकता के शिकार हैं? धीरे-धीरे इन लोगों की संख्या कम हो रही है. विधवा विवाह हो रहे हैं. यह समस्या अब शिक्षित नारियों में कम होती जा रही है, पर अनपढ़ स्त्रियों में यह समस्या अभी भी विकराल रूप धारण किए हुए है.