चौदह साल की रिंकू अपने खिलंदड़े स्वभाव के लिए घऱ-स्कूल में जानी जाती थी। किसी की कोई भी समस्या हो रिंकू के पास उसका समाधान रहता था। घर में मम्मी-पापा के अलावा एक बड़ा भाई था। घर में कभी उसको इस बात का अहसास नहीं कराया गया कि लड़की होने के कराण वह लड़कों से किसी भी बात में कमतर है। उसकी उपस्थिति किसी सुखद वायु के झोके के समान थी।
एक दिन नियत समय पर वह स्कूल जाने के लिए घर से निकली, अभी गली के नुक्कड़ तक ही पहुँची थी कि वहां खड़े कुछ शोहदों ने उस पर फब्तियां कसी। यह सब इतना अप्रत्याशित था कि की पहले तो उसे कुछ समझ नहीं आया। फिर उसने पलट कर देखा तो पाया ज्यादातर चेहरे जाने-पहचाने थे। सब उसी मुहल्ले के लड़के थे। जिन्हें वह बचपन से देखती आ रही थी। वह कुछ कहना चाहती थी कि तभी पीछे से आ रही सहेली ने उसका हाथ पकड़ा और खींचती हुई आगे ले गई। काफी दूर तक उन शोहदों की हँसी उनका पीछा करती रही।
इसके बाद तो ये रोज की ही बात हो गई, रिंकू कभी अकेले तो कभी सहेली के साथ वहां से गुजरती और वे उस पर फब्तियां कसते। रिंकू ने उनकी शिकायत माँ से की। पर माँ ने कहा, बेटा उस रास्ते से स्कूल मत जाया करो, किसी और रास्ते से जाया करो। उन बदमाशों के मुंह लगने की जरूरत नहीं है। लेकिन दुर्भाग्यवश स्कूल जाने का एक मात्र वहीं रास्ता था। पिताजी को जब रिंकू की परेशानी के बारे में पता चला, तो उन्होंने कहा, परेशान होने की बात नहीं है। कोई गुण्डाराज नहीं है। हम पुलिस में कमप्लेंट करेंगे। जब पुलिस के चार डंडे पड़ेगे, साले लड़कियों को छेड़ना भूल जाएगे।
रिंकू के पिताजी ने स्थानीय थाने में रिपोर्ट दर्ज करा दी। उन्हें लगा कि अब उनकी बेटी सुरक्षित है। लेकिन पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की। उल्टे शिकायत करने वे शोहदे और चिढ़ गए और छीटाकशी, शारीरिक छेड़छाड़ में बदल गयी। पुलिय द्वारा कोई कार्यवाही न करने और शोहदों के बढ़े हुए तेवर देखकर, रिंकू के घरवालों ने उसका स्कूल जाना बंद करवा दिया। वे नहीं चाहते थे कि उनकी लाडली बेटी के साथ किसी तरह दुर्घटना हो। रिंकू के लिए ये पूरी परिस्थितियां अत्यन्त कष्टदायक थी। हरदम हवा में उड़ने वाली लड़की घर की चाहरदिवारी के बीच कैद थी। स्कूल की सहेलियों से फोन पर बातें होती, लेकिन दरवाजे पर खड़े शोहदे और तमाशबीन बना मुहल्ला उसे घर से निकलने की इजाजत नहीं देता।
रिंकू को अपने लड़की होने का अहसास रह-रह कर कचोटता। वह खुली में हवा में साँस लेना चाहती थी। वह अपने कमरे में पड़-पड़े रोती रहती। दूसरों की समस्याओं को समाधान करने वाली रिंकू ने अपनी समस्या का भी एक समाधान निकाला। एक दिन जब माँ किचेन में व्यस्त थीं, भाई स्कूल गया था और पिताजी ऑफिस। रिंकू ने अपने कमरे में लटकते फैन में फाँसी लगा ली। साथ की टेबल पर एक कापी खुली रखी थी - जिसपर लिखा था, आप मुझे इस तरह कैद में नहीं रह सकते। मैं खुले आकाश तले उड़ना चाहती हूँ। इसलिए मैंने खुद को हर बंधन से आज़ाद कर लिया है। -रिंकू.
-प्रतिभा वाजपेयी
बाप रे !! बड़ी मार्मिक कहानी है. लगभग हर लड़की के साथ ऐसा होता है...भले ही परिणाम इतना दुःखद न होता हो. फ़ब्तियाँ कसने वाले ये नहीं जानते कि उनकी इस ओछी हरकत से किसी बच्ची के बाल मन पर कितना दुष्प्रभाव पड़ सकता है?.... और अगर जानते भी हों तो उन्हें क्या फ़र्क पड़ता है?......उस पर से ऐसे शोहदों को यह कहकर उत्साहित करने वाले भी होते हैं कि इस तरह की छेड़खानी तो स्वाभाविक बात है.
ReplyDeleteshahi hai. dughat hai.nice
ReplyDeleteजब तक हम सब अपने विरोध मे "शोर" नहीं पैदा करेगे हमारी बेटियाँ यही करेगी । विरोध कि आवाज को और ऊँचा करिये ताकि वो लोग जो नारी को "सामान " समझते हैं , "जागीर " समझते हैं और "भोग विलास और प्रजनन कि मशीन "समझते हैं उनके कान टाक हमारे विरोध का शोर पहुचे । आप कि सभ्य भाषा अगर वो ना समझे क्युकी वो असभ्य हैं तो अपनी भाषा को उनकी समझ के हिसाब से सही कर ले और शोर को टंकार बना कर उन तक पहुचाये । इसके अलावा हर लड़की को समझाए कि वो अपने लिये "important " होना सीखे . जब वो सीखेगी कि कि वो खुद के लिये "कितनी जरुरी" हैं तभी वो अपनी "जिन्दगी " को काटेगी नहीं जीयेगी और उसको ख़तम करने का कभी नहीं सोचेगी
ReplyDeleteप्रतिभा अगर ये कहानी सच्ची घटना हैं तो लिंक भी उपलब्ध करा दे ताकि लोगो को समाज कि असलियत दिखे क्युकी यही नारी ब्लॉग कि कोशिश हैं । और अगर ये कहानी हैं तो नारी ब्लॉग पर उन स्त्रियों कि कहनियों को प्राथमिकता दे जिन्होने "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित की " सदियों से यही हो रहा हैं सब जानते लेकिन इन सब से उठ कर लडकियां बहुत कुछ कर रही हैं जिस से उनको घुटन ना हो क्यूँ ना उनको सलाम करे । आप निरंतर नारी ब्लॉग को सक्रियाए बनाये हैं इसके लिये शुक्रिया ।
बहुत मार्मिक . ऐसा हर लड़की के जीवन में होता है.एक ऐसा त्रासदमय समय आता है कि पता ही नहीं चलता है कि ये कयू होने लगा अचानक . अब तक तो सब ठीक थे फिर एकाएक सब कयू बदल गए ? सबकी नज़र बदल गई .नसीहतों के पिटारे खुल गए.कल तक जो अठखेलियो पर बलैयिया लेते थे वे अब चुप कराते है कि अब सीखो कुछ !
ReplyDeleteइनको झेलने वाली भी मुस्किल से गुज़र कर झेल पाती है और सामना करने वाली बस सावल उठती ही रह जाती है. पर कुछ नहीं बदलता !
इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति को धैर्य , हिम्मत और काबिलियत के सहारे बदले जाने की आवश्यकता है......
ReplyDeleteसद्प्रयास के लिए साधुवाद !!!
sahi hai samaaj me is tarah kee paresaanee hai soharpuravak vatavaran ko sudarane ke prayash karane chahiye
ReplyDeleteऐसे दुखद घटनाओं को पढ़कर बहुत दुःख होता है. काश इन असामाजिक तत्वों पर इसका असर होता? ऐसी घटनाओं को रोकने की लिए सबसे पहले घर परिवार और उसके बाद समाज को आगे आकर आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में कोई ठोस कदम उठाने की जरुरत है, पुलिस प्रशाशन के राह ताकने के बजाय हर नागरिक को अपने साहस और सूझ-बुझ से काम लेने पर बल देने की सख्त आवश्यकता है, क्योंकि हिम्मत और सूझ-बुझ से कोई भी काम से आशातीत सफलता मिलने को पूरी संभावना रहती है.
ReplyDeleteरचना ये कहानी नहीं सत्य घटना है और कानपुर के गोविंदनगर मोहल्ले की है। नारी ब्लॉग में मैंने आजतक जितने भी पोस्ट किए हैं, उनमें से कोई भी मनगढ़ंत कहानी नहीं है....सभी घटनाएं सत्य है।
ReplyDeleteये बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है और यदि ये समाज स्वीकार कर सके तो इसके लिये बहुत ही शर्मनाक भी…
ReplyDeleteलेकिन हम तस्वीर बदल सकते हैं और बदल कर ही दम लेंगे।
pratibha
ReplyDeletethen make it point to put this in bold letters on all your posts that this is real story so that people know that this is happening in this centuary because our critics say we post obselete stories here
regds
palayan koee rasta naheen kholta...sangharsh ki baat karen.
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