आज वैलेंटैइन डे है। देश में प्रेमोत्सव का माहौल दिखाया जा रहा है। कुछ लोग विरोध करके अपनी दुकान चमका रहे हैं कुछ समर्थन करके। पर भारत में वैलेंटाइन डे की हकीकत क्या है इसका पता लगाना मुश्किल है। दरअसल हम बहती धारा में बहने वाले लोग है इसलिए जो चल रहा है उसपर ठप्पा लगा देते हैं इस डर से लोग हमें कहीं पिछड़ा हुआ न मान लें। ये मध्यम वर्ग की पीड़ा है जो दोहरी मानसिकताओं में जीता है। समाज के लिए उसका चेहरा दूसरा होता है अपने लिए दूसरा। दूसरे की बेटी अपने दोस्त के साथ वैलेंटाइन डे मनाएं तो कोई बात नहीं, पर अगर अपनी बेटी ऐसा करे, तो घर में बवाल हो जाएगा। सच मानिए, तीसरा महायुद्ध छिड़ जाएगा। बेटी तो बेटी माँ भी घर के बुजुर्गों के कटघरे में खुद को खड़ा पाएगी, इस आरोप के साथ कि यही शिक्षा दे रही हो बेटी को कि आवारा छोकरों के साथ घूमें। अब वह लड़का आवारा है या नहीं मैं इस मुद्दे पर नहीं पड़ना चाहती। क्योंकि संबंधों के बारें में निर्णय सुनाने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। क्योंकि पता नहीं कब कौन सा रिश्ता आगे चलकर कौन सा स्वरूप धारण करें और फिर हमें शर्मिंदगी उठानी पड़े।
वैसे भारतीय मध्य वर्ग में परिवर्तन की खामोश लहर चल रही है। समाज में प्रेम विवाहों की संख्या में वृद्धि हुई है, खासकर कानपुर के कट्टर ब्राह्मण परिवारों में। अब ऐसे परिवारों को ढूढ़ना मुश्किल होता जा रहा है जिसके घर में किसी एक सदस्य ने अंतर्जातीय विवाह न किया हो। और खुशी की बात है कि इन्हें मान्यता भी मिल रहीं है। इस परिवर्तन का प्रमुख कारण है लड़कियों की शिक्षा के प्रति माँ-बाप में बढ़ती जागरुकता। पहले विज्ञान की शिक्षा के लिए बेटों का विशेषाधिकार था। लड़कियां आर्टस् में जाती थी। उनके दिमाग में ये कूट-कूट कर भर दिया जाता था कि बेटा कितनी ही पढ़ाई कर लो, लेकिन रोटी-चौका, बर्तन से तुम्हें मुक्ति नहीं है। इसलिए घरेलू काम-काज सिखाने पर ज्यादा जोर दिया जाता था। तुम्हें कौन सी नौकरी करनी है वाला ज़ुमला भी खासा लोकप्रिय था। लेकिन अब परिस्थितियों में परिवर्तन आया है। पति की आय पूरे घर के लिए पर्याप्त नहीं होती, इसलिए काम की तलाश में महिलाओं को भी घर से निकलना पड़ रहा है। इसलिए पढ़ाई के क्षेत्र में भी परिवर्तन आया है। इंजीनियरिंग और एमबीए में महिलाओं ने अपनी उपस्थिति बड़ी मात्रा में दर्ज कराई है। जाहिर सी बात है जब लड़के-लड़की साथ पढ़ते हैं तो उनमें एक दूसरे के प्रति आकर्षण भी हो जाता है। ऐसे में वे अगर शादी का निर्णय लेते है, तो माँ-बाप को भी स्वीकृति की मोहर लगाने में ज्यादा तकलीफ नहीं होती। क्योंकि उन्हें पता है कि शादी के बाजार में इंजीनियर, डॉक्टर लड़कों के रेट बहुत हाई है बेटी की पढ़ाई पर इतना खर्चा करने के बाद इतने महँगे दूल्हें खरीद पाना, उनके लिए भी मुश्किल होता है। इसलिए कुंडली देखने की रस्म अदायगी के साथ ज्यादातर रिश्तों को मंजूरी दे दी जाती है। बीस बिस्वा के ब्राह्मण के साथ एक त्रासद जिंदगी की सौगात अपनी बेटी को देने की बजाय उन्होंने मान लिया है कि बीस बिस्वा से ज्यादा अहम बेटी की खुशियाँ हैं। जो उन्हें उस साथी से मिलेंगी, जो उन्होंने अपने लिया चुना है।
कानपुर के ब्राह्मण परिवारों में बहने वाली इस खुशगवार बयार ने बेटियों के माँ-बापों के माथे पर चिंता की पड़ी रहने गहरी सलवटों को काफी हद तक कम कर दिया है। और समाज की खुशहाली के लिए इससे ज्यादा अच्छी बात क्या हो सकती है कि बेटी को बोझ न मानकर उनकी डोलियां खुशी-खुशी अपने बाबुल के दरवाजे से उठें।
-प्रतिभा वाजपेयी
वैसे भारतीय मध्य वर्ग में परिवर्तन की खामोश लहर चल रही है। समाज में प्रेम विवाहों की संख्या में वृद्धि हुई है, खासकर कानपुर के कट्टर ब्राह्मण परिवारों में। अब ऐसे परिवारों को ढूढ़ना मुश्किल होता जा रहा है जिसके घर में किसी एक सदस्य ने अंतर्जातीय विवाह न किया हो। और खुशी की बात है कि इन्हें मान्यता भी मिल रहीं है। इस परिवर्तन का प्रमुख कारण है लड़कियों की शिक्षा के प्रति माँ-बाप में बढ़ती जागरुकता। पहले विज्ञान की शिक्षा के लिए बेटों का विशेषाधिकार था। लड़कियां आर्टस् में जाती थी। उनके दिमाग में ये कूट-कूट कर भर दिया जाता था कि बेटा कितनी ही पढ़ाई कर लो, लेकिन रोटी-चौका, बर्तन से तुम्हें मुक्ति नहीं है। इसलिए घरेलू काम-काज सिखाने पर ज्यादा जोर दिया जाता था। तुम्हें कौन सी नौकरी करनी है वाला ज़ुमला भी खासा लोकप्रिय था। लेकिन अब परिस्थितियों में परिवर्तन आया है। पति की आय पूरे घर के लिए पर्याप्त नहीं होती, इसलिए काम की तलाश में महिलाओं को भी घर से निकलना पड़ रहा है। इसलिए पढ़ाई के क्षेत्र में भी परिवर्तन आया है। इंजीनियरिंग और एमबीए में महिलाओं ने अपनी उपस्थिति बड़ी मात्रा में दर्ज कराई है। जाहिर सी बात है जब लड़के-लड़की साथ पढ़ते हैं तो उनमें एक दूसरे के प्रति आकर्षण भी हो जाता है। ऐसे में वे अगर शादी का निर्णय लेते है, तो माँ-बाप को भी स्वीकृति की मोहर लगाने में ज्यादा तकलीफ नहीं होती। क्योंकि उन्हें पता है कि शादी के बाजार में इंजीनियर, डॉक्टर लड़कों के रेट बहुत हाई है बेटी की पढ़ाई पर इतना खर्चा करने के बाद इतने महँगे दूल्हें खरीद पाना, उनके लिए भी मुश्किल होता है। इसलिए कुंडली देखने की रस्म अदायगी के साथ ज्यादातर रिश्तों को मंजूरी दे दी जाती है। बीस बिस्वा के ब्राह्मण के साथ एक त्रासद जिंदगी की सौगात अपनी बेटी को देने की बजाय उन्होंने मान लिया है कि बीस बिस्वा से ज्यादा अहम बेटी की खुशियाँ हैं। जो उन्हें उस साथी से मिलेंगी, जो उन्होंने अपने लिया चुना है।
कानपुर के ब्राह्मण परिवारों में बहने वाली इस खुशगवार बयार ने बेटियों के माँ-बापों के माथे पर चिंता की पड़ी रहने गहरी सलवटों को काफी हद तक कम कर दिया है। और समाज की खुशहाली के लिए इससे ज्यादा अच्छी बात क्या हो सकती है कि बेटी को बोझ न मानकर उनकी डोलियां खुशी-खुशी अपने बाबुल के दरवाजे से उठें।
-प्रतिभा वाजपेयी
ye shahi hai ke is bhavatic joog me bacche apana nirnay kud le prantu mata pita ke najareye ke thodi aavakasakata hogi keyoki kachi vmra me sahi nirnay nahi liya ja sakata aap ke prstuti achhi hai sayog kee bhavana honi chhahiye
ReplyDeleteआपने बहुत सही लिखा है, ये त्रासदी है उन माँ बाप कि जो किसी तरह से अपने बेटियों को पढ़ा लिखा कर काबिल बनाते हैं , उसके बाद उनके अनुरूप काबिल लडकेवर खोजने के लिए लाखों का दहेज़ भी चाहिए क्योंकि उन्होंने अपने बेटे कि पढ़ाई में खर्च जो क्या है? पर हम लड़की वाले क्या करें? लड़कियों को उनके लड़कों से कम नहीं अधिक ही पढ़ाया होता है फिर भी लड़की वाले होने का बोध खत्म नहीं होता. अब जाति के बंधन टूटने लगे तो शायद ये बाजार कुछ मंदी हो जाए. लड़के और लड़कियों के मानसिक स्तर की बात होती है वह समान होना चाहिए न जाति , उन्हें जीवन जीना है और हमको उनको ख़ुशी से ही खुश होना चाहिए. इंसान का एक अच्छा इंसान होना ही सबसे ऊँची जाति होती है . ये सुखद परिवर्तन आ रहा है और आता ही रहेगा. हम सिर्फ इंसान बन जाएँ तो बहुतसारी समस्याओं का अंत हो जाएगा.
ReplyDeleteमुश्किल यही है पढ़ लिख कर भी लड़की शादी के बाजार में खड़ी है ! कहने को ये विकास हो सकता है लेकिन फिर भी कहीं न कहीं समझौता जुड़ा हुआ है ?
ReplyDeleteआपने बहुत सही लिखा है
ReplyDelete