ये पढे और बताये आप क्या समझते और सोचते हैं ?????
अंजलि सिन्हा
हाल ही में केन्द्र सरकार ने घोषणा की है कि सरकारी महिला कर्मचारी, जो मां हैं या बनने वाली हंै उन्हें मातृत्वकाल के लिये विशेष छूट मिलेगी। इसके तहत सरकार ने व्यवस्था दी है कि महिला कर्मचारियों को अब 135 दिन की जगह 180 दिन का मातृत्व अवकाश मिलेगा। इसके अलावा अपनी नौकरी के दौरान वे दो साल (730 दिन) की छुट्टी ले सकेंगी। यह छुट्टी बच्चे के 18 साल के होने तक वे कभी भी ले सकती हंै। यानी कि बच्चे की बीमारी या पढ़ाई आदि में, जैसी जरूरत हो। कहा गया है कि घरेलू जिम्मेदारियों के कारण महिलाएं नौकरियां छोड़ देती है, उन्हें नौकरी में बनाये रखने के लिये यह कदम उठाया जा रहा है। छठे वेतन आयोग की सिफारिशों में भी कहा गया था कि मातृत्व अवकाश 6 माह या अधिक दिया जाय।
मीडिया के एक हिस्से में इस घोषणा का स्वागत हुआ है और कहा गया है कि यह घोषणा महिलाओं के प्रति बहुत उदार तथा उनकी पक्षधर है। निश्चित ही इस सिफारिश में महिलाओं के लिये विशेष प्रावधान रखा गया है। लेकिन दूरगामी रूप से महिला समुदायों पर इस सिफारिश क्या प्रभाव पड़ेगा, यह समझना होगा तथा इस पक्षधरता के पीछे की सोच और मानसिकता की पड़ताल करनी पड़ेगी।
सर्वप्रथम यह सरकारी कर्मचारियों के लिये है और सरकारी नौकरियों में महिलाओं का प्रतिशत अभी भी हाशिये पर है। प्राइवेट सेक्टर में कार्यरत महिला कर्मचारियों को तो अधिकांश जगहों में प्रसूतिकाल के दौरान तीन महीने की छुट्टी भी नहीं मिलती है। ऐसी नौबत आने पर वे नौकरी से ही छुट्टी दे देते हंै। समूचे रोजगार का 92 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में है और इसी क्षेत्र में महिलाएं अधिक हंै। कहने के लिये इस क्षेत्र के लिये कानून हंै किन्तु कानून का उल्लंघन सब करते है और कोई सजा नहीं होती है।
इस बात पर बहस होनी चाहिये कि बच्चे से संबंधित कौन-कौन सी जरूरतें ऐसी हंै जिसे सिर्फ मां पूरा कर सकती है। बच्चे को जन्म देना तथा उसे स्तनपान कराना, यह काम निश्चित तौर पर सिर्फ मां करेंगी। लेकिन शेष जिम्मेदारी भी सिर्फ वही निभायेंगी ऐसा हमारी सरकार ने क्यों मान लिया? किसी भी बच्चे का पिता उसे खाना खिलाना, ऊपर का दूध पिलाना, साफ-सफाई करना या बीमारी में देखभाल, पढ़ाई या इम्तेहान की जिम्मेदारी क्या नहीं निभा सकता? यह सब पूरा करने के लिये पितृत्व अवकाश क्यों नहीं बढ़ाया जाना चाहिये जो अभी केवल 15 दिन का है?
दरअसल हमारे पुरूषप्रधान समाज की सामाजिक सोच का ही प्रतिबिम्ब इसमें दिखता है, जिसमें घर-गृहस्थी, बच्चा औरत के जिम्मे है और बाहर का काम पुरूष के जिम्मे। जो औरत 730 दिन तक अपने कार्यालय या कार्यक्षेत्र से बाहर रहेगी वह क्या ज्यादा सक्षम और सशक्त बन पायेगी या उसकी क्षमता, जानकारी, आत्मविश्वास पर भी कुछ असर होगा? कुल मिलाकर स्त्री के पक्ष में दिखनेवाली यह सिफारिश औरत को घर तक समेटने, उसे घर के आकर्षण में घेरे रखने तक नजर आती है।
यहां प्राकृतिक कारण, सामााजिक निर्णय का बहाना मात्र है। जब कोई मेडिकल सुविधा नहीं थी तब भी औरत जचगी के कुछ दिनों बाद काम पर लग जाती थी। यह जरूर है कि तब माहौल में फर्क था, इतना अलगाव नहीं था किन्तु अब सुविधाएं तो मौजूद हैं। यह घिसे-पिटे/स्टीरियोटाइप नजरिये का नतीजा है कि बच्चे के पालन–पोषण की जिम्मेदारी सिर्फ औरत पर डाली जाय तथा उसे अपनी नौकरी पर काम करने के अवसर वे वंचित किया जाय। कोई यह भी मान सकता है कि जो औरत छुट्टी न लेना चाहे तो वह नहीं लेगी लेकिन इससे आखिर बढ़ावा किस प्रवृत्ति को मिलने वाला है ? सरकार को अपनी तरफ से घरेलू काम की इन जिम्मेदारियों के लिये पुरूषों को भी प्रेरित करना चाहिये।
हमें समझना होगा कि हमारे देश में महिलाओं ने घर के बाहर सार्वजनिक दायरे में कदम रखने के लिए बहुत प्रतिरोध झेले हंै। घर के भीतर का उत्पीड़न, रोक–टोक, उपेक्षा के साथ बाहर का असहयोग, असुरक्षा की चुनौती उन्होंने स्वीकार की है। यदि बाहर प्रशासन के स्तर पर असहयोग न होता तो काम की कई जगहों पर महिला शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं के लिए भी औरतों को वंचित क्यों रखा जाता ? क्यों नहीं बराबर से उनका निर्माण हुआ ? पर्याप्त सुरक्षा व्यवस्था करने की जिम्मेदारी न लेकर असुरक्षा का भय दिखाया गया है कि घर ही उनके लिए सुरक्षित जगह है। पिछले साल तक फैक्टरी एक्ट का वही प्रावधान लागू रहा जिसमें औरत को रात की पाली में काम करवाना गैरकानूनी था। यह सही है कि बाहर असुरक्षित माहौल है किन्तु यह कैसा विधान है जिसमें पीड़ित को ही उपजीविका के लिए काम करने पर पाबन्दी हो? और इस तरह वह पीड़ित ही दण्डित हो ? माहौल को सुरक्षित होने की गारण्टी करना सम्बन्धित फैक्टरी मालिक, सरकार तथा प्रशासन की तथा पूरे समाज की जिम्मेदारी बनती है।
काम का अवसर मिलना हर व्यक्ति का महत्वपूर्ण अधिकार है क्योंकि वह व्यक्ति को अपने भरोसे गरिमामय जीवन जीने की परिस्थिति तैयार करता है। कहा जाता है कि हर हाथ को काम चाहिए यानी ऐसा काम जिसके बदले व्यक्ति को पारिश्रमिक मिले, जिसके द्वारा वह अपनी दूसरी जरूरतें पूरी कर सके। वह हाथ औरत के पास भी होता है और उसे भी अपने परिश्रम का पारिश्रमिक चाहिए। सहानुभूति और दान खाते के पारिश्रमिक का वह मूल्य नहीं होगा जो उसके अपने पसीने का मूल्य होगा। वह भी अपने कार्यस्थल की एक कर्मचारी हो और एक व्यक्ति की तरह अपनी क्षमता और दक्षता साबित करने का अवसर उसे मुहैया कराना चाहिए। तभी वह सही मायने में, क्षमता-सम्पन्न आत्मविश्वास से परिपूर्ण व्यक्ति की पहचान हासिल कर सकेगी।
निजी और सार्वजनिक दायरे का गैर–बराबरीपूर्ण बंटवारा बराबरीपूर्ण समाज का सृजन कैसे करेगा? निजी दायरा जहां व्यक्ति की एक जरूरत पूरा करता है वहीं सार्वजनिक दायरा व्यक्ति की दूसरी जरूरत पूरी करता है। घर के सुकून के साथ बाहर की दुनिया इंसानों के ज्ञानफलक को विस्तारित करती है। खुद को अलग प्रकार से साबित करने का अवसर देती है। इसीलिए सभी को दोनों अवसर मिलने चाहिये। नयी सिफारिशें ऐसा माहौल तैयार करेंगी जो दूरगामी तौर पर औरत के पक्ष में नहीं होंगी। वह सार्वजनिक दायरे में अधिक से अधिक औरत की उपस्थिति के बजाय निजी दायरे की उपस्थिति सुनिश्चित करेगा। वह औरत को अधिक अवसर देने के बजाय उसे बांधने के काम में सहयोग देगा।
कल को घर का पुरूष सदस्य यह कह सकेगा कि तुम्हें सरकार से इसीलिए छूट मिली है कि घर में रहकर अपनी जिम्मेदारी निभाआ॓। इसी समझ के कारण परिवार कल्याण मंत्रालय ने पिताओं के लिए कभी क्रैश/पालनाघर की सुविधा की बात नहीं सोची न ही पिताओं ने अपने लिए ऐसी सुविधा की मांग सरकार से की। दूसरी समस्या यह आयेगी कि प्राइवेट नियोक्ता यह सोचेगा या सोेचेगी कि यदि औरत को फलां समय तक बैठ बिठाये वेतन देना है तो उसे नियुक्त ही क्यों करे ?
( लेखिका अंजलि सिन्हा ‘स्त्री अधिकार संगठन’ से सम्बद्ध हैं)
" जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की " "The Indian Woman Has Arrived " एक कोशिश नारी को "जगाने की " , एक आवाहन कि नारी और नर को समान अधिकार हैं और लिंगभेद / जेंडर के आधार पर किया हुआ अधिकारों का बंटवारा गलत हैं और अब गैर कानूनी और असंवैधानिक भी . बंटवारा केवल क्षमता आधारित सही होता है
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था
हिन्दी ब्लोगिंग का पहला कम्युनिटी ब्लॉग जिस पर केवल महिला ब्लॉगर ब्लॉग पोस्ट करती हैं ।
यहाँ महिला की उपलब्धि भी हैं , महिला की कमजोरी भी और समाज के रुढ़िवादि संस्कारों का नारी पर असर कितना और क्यों ? हम वहीलिख रहे हैं जो हम को मिला हैं या बहुत ने भोगा हैं । कई बार प्रश्न किया जा रहा हैं कि अगर आप को अलग लाइन नहीं चाहिये तो अलग ब्लॉग क्यूँ ??इसका उत्तर हैं कि " नारी " ब्लॉग एक कम्युनिटी ब्लॉग हैं जिस की सदस्या नारी हैं जो ब्लॉग लिखती हैं । ये केवल एक सम्मिलित प्रयास हैं अपनी बात को समाज तक पहुचाने का ।
15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं
15th august 2012
१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं
15th august 2011
नारी ब्लॉग हिंदी ब्लॉग जगत का पहला ब्लॉग था जहां महिला ब्लोगर ही लिखती थी
२००८-२०११ के दौरान ये ब्लॉग एक साझा मंच था महिला ब्लोगर का जो नारी सशक्तिकरण की पक्षधर थी और जो ये मानती थी की नारी अपने आप में पूर्ण हैं . इस मंच पर बहुत से महिला को मैने यानी रचना ने जोड़ा और बहुत सी इसको पढ़ कर खुद जुड़ी . इस पर जितना लिखा गया वो सब आज भी उतना ही सही हैं जितना जब लिखा गया .
१५ अगस्त २०११ से ये ब्लॉग साझा मंच नहीं रहा . पुरानी पोस्ट और कमेन्ट नहीं मिटाये गए हैं और ब्लॉग आर्कईव में पढ़े जा सकते हैं .
नारी उपलब्धियों की कहानिया बदस्तूर जारी हैं और नारी सशक्तिकरण की रहा पर असंख्य महिला "घुटन से अपनी आज़ादी खुद अर्जित कर रही हैं " इस ब्लॉग पर आयी कुछ पोस्ट / उनके अंश कई जगह कॉपी कर के अदल बदल कर लिख दिये गये हैं . बिना लिंक या आभार दिये क़ोई बात नहीं यही हमारी सोच का सही होना सिद्ध करता हैं
15th august 2012
१५ अगस्त २०१२ से ये ब्लॉग साझा मंच फिर हो गया हैं क़ोई भी महिला इस से जुड़ कर अपने विचार बाँट सकती हैं
"नारी" ब्लॉग
"नारी" ब्लॉग को ब्लॉग जगत की नारियों ने इसलिये शुरू किया ताकि वह नारियाँ जो सक्षम हैं नेट पर लिखने मे वह अपने शब्दों के रास्ते उन बातो पर भी लिखे जो समय समय पर उन्हे तकलीफ देती रहीं हैं । यहाँ कोई रेवोलुशन या आन्दोलन नहीं हो रहा हैं ... यहाँ बात हो रही हैं उन नारियों की जिन्होंने अपने सपनो को पूरा किया हैं किसी ना किसी तरह । कभी लड़ कर , कभी लिख कर , कभी शादी कर के , कभी तलाक ले कर । किसी का भी रास्ता आसन नहीं रहा हैं । उस रास्ते पर मिले अनुभवो को बांटने की कोशिश हैं "नारी " और उस रास्ते पर हुई समस्याओ के नए समाधान खोजने की कोशिश हैं " नारी " । अपनी स्वतंत्रता को जीने की कोशिश , अपनी सम्पूर्णता मे डूबने की कोशिश और अपनी सार्थकता को समझने की कोशिश ।
" नारी जिसने घुटन से अपनी आज़ादी ख़ुद अर्जित की "
हाँ आज ये संख्या बहुत नहीं हैं पर कम भी नहीं हैं । कुछ को मै जानती हूँ कुछ को आप । और आप ख़ुद भी किसी कि प्रेरणा हो सकती । कुछ ऐसा तों जरुर किया हैं आपने भी उसे बाटें । हर वह काम जो आप ने सम्पूर्णता से किया हो और करके अपनी जिन्दगी को जिया हो । जरुरी है जीना जिन्दगी को , काटना नही । और सम्पूर्णता से जीना , वो सम्पूर्णता जो केवल आप अपने आप को दे सकती हैं । जरुरी नहीं हैं की आप कमाती हो , जरुरी नहीं है की आप नियमित लिखती हो । केवल इतना जरुरी हैं की आप जो भी करती हो पूरी सच्चाई से करती हो , खुश हो कर करती हो । हर वो काम जो आप करती हैं आप का काम हैं बस जरुरी इतना हैं की समय पर आप अपने लिये भी समय निकालती हो और जिन्दगी को जीती हो ।
नारी ब्लॉग को रचना ने ५ अप्रैल २००८ को बनाया था
September 30, 2008
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ReplyDeleteकाफी संजीदा सवाल उठाया है आपने...सोचने का विषय है...
आपको ईद और नवरात्रि की बहुत बहुत मुबारकबाद
ReplyDeleteसारे सवाल तब तक ही हैं जब तक स्त्री पुरुष एक दूसरे को अपने समान नहीं समझते।
ReplyDeleteमैं द्विवेदी जी की बात से सहमत हूँ. मैं भी यही मानता हूँ. जब तक सोच नहीं बदलेगा तब तक कोई भी कानून न तो सही बन पायेगा, न सही समझा जायेगा और न ही सही फायदा दे पायेगा.
ReplyDeleteसारे सवाल तब तक ही हैं जब तक स्त्री पुरुष एक दूसरे को अपने समान नहीं समझते।
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