अंजलि सिन्हा
पिछले दिनों एक ऐसी घटना हुई, जिसने तीस साल पुरानी याद ताजा कर दी। हुआ यह कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने बलात्कार के एक मामले में यह नतीजा निकाला कि पीड़ित महिला का चरित्र संदिग्ध है। इसी आधार पर इस केस के दोनों आरोपियों को बरी कर दिया गया। अपील में यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया। देश की सबसे बड़ी अदालत ने सख्त रुख अपनाते हुए कहा कि हाई कोर्ट ने संवेदनशीलता के साथ काम नहीं किया है। जस्टिस अरिजित पसायत और जस्टिस एम. शर्मा की बेंच ने कहा कि यह बात तीस साल पहले ही साफ कर दी गई है कि बलात्कार के मामले में चरित्र का हवाला नहीं दिया जा सकता। बेंच ने तमाम सबूतों को देखते हुए आरोपियों को कसूरवार करार दिया।
बेंच ने कहा कि अगर महिला अक्सर यौन संबंध बनाती रही हो, तो भी फैसले का आधार यह नहीं हो सकता। फैसला इस आधार पर होना चाहिए कि महिला जिस समय बलात्कार की शिकायत कर रही है उस समय बलात्कार हुआ या नहीं। महिला के व्यक्तिगत चरित्र के आधार पर किसी व्यक्ति को बलात्कार करने की छूट नहीं दी जा सकती।
वैसे यौन अत्याचार के मामले में स्त्री के चरित्र को मुद्दा बनाना हमारे समाज की प्राचीन परंपरा में शामिल है। कई अदालतों ने पीड़िता की कथित बदचलनी को आरोपियों के पक्ष में बड़ा तर्क माना है। यह समझा जाता है कि अगर औरत चरित्रहीन है, तो उसे बलात्कार की शिकायत करने का हक नहीं रह जाता। आज से तीस साल पहले 1978 में ऐसा ही कुछ हुआ था, जिसे मथुरा बलात्कार कांड के नाम से जाना गया। मुंबई के नजदीक ठाणे की आदिवासी युवती मथुरा के साथ थाने में हुए बलात्कार की घटना में सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आया, वह काफी उद्वेलित करने वाला था। इस फैसले में अदालत ने आरोपी पुलिसकर्मियों को सन्देह का लाभ देते हुए बरी किया था और इसकी वजह यह बताई थी कि मथुरा के पहले से ही शारीरिक संबंध रहे हैं और इस घटना में उसकी तरफ से प्रतिरोध के निशान नहीं मिलते।
लोगों को याद होगा कि इस फैसले के खिलाफ देश के अग्रणी वकीलों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने एक खुला पत्र जारी कर अपनी घोर असहमति प्रगट की थी। यह बात अब इतिहास हो चुकी है कि देश भर से उठी प्रतिक्रिया और लम्बे अभियानों के बाद 1983 में बलात्कार विरोधी अधिनियम में सुधार किया गया। तब से लगातार यह बात किसी न किसी रूप में चर्चा में रही है कि सुनवाई घटित घटना के आधार पर हो, न कि किसी के चरित्र के व्यक्तिगत लेखेजोखे के आधार पर। बावजूद इसके हमेशा यह बात किसी न किसी रूप में सामने आती है कि 'वह' इतनी रात बाहर क्यों गई? अकेले क्यों गई? क्या वह आरोपियों को पहले से जानती थी? इसी तरह छेड़खानी जैसे मामलों में कहा जाता है हैं कि वह भड़काऊ ड्रेस क्यों पहनती है या अपने हावभाव से लड़कों को उकसाती है।
ये तमाम प्रसंग इसी बात को रेखांकित करते हैं कि हमारे सोच पर मर्दवाद हावी है। वरना खराब चरित्र या खराब कपड़े तो क्या, स्त्री निर्वस्त्र हो, तो भी उसके साथ मनमानी करने का हक किसी का नहीं बनता। पड़ताल सिर्फ इसी बात की हो सकती है कि उस खास मौके पर वह घटना आपसी सहमति से हुई या जबर्दस्ती और दबाव से। अदालत का न्याय क्षेत्र इतना ही है।
हमारे देश में बलात्कार आज भी औरत को दबाने का सबसे बड़ा हथियार बना हुआ है। बलात्कार के जो आंकड़े हर साल सामने आते हैं उनकी संख्या 12 हजार से भी ज्यादा है, लेकिन घटनाएं इससे कई गुना ज्यादा घटती हैं, क्योंकि सभी मामले थाने और कोर्ट तक नहीं पहुंचते। कुछ दर्ज ही नहीं किए जाते, कुछ शुरुआत में खारिज कर दिए जाते हैं, तो कुछ में दबाव या लालच देकर बयान बदलवा दिया जाता है। अगर देश की राजधानी की ही बात करें तो हर साल यहां पांच से छह सौ तक बलात्कार के मामले दर्ज होते हैं। देश भर में यह आंकड़ा 12 हजार तक पहुंच जाता है। सन 2002 में एक सर्वेक्षण के आधार पर खुलासा किया गया था कि हर 35 मिनट में एक औरत बलात्कार की शिकार होती है।
हाल ही में एक जिला अदालत ने सामूहिक दुष्कर्म के तीन आरोपियों को बाइज्जत बरी किया। बात यह नहीं थी कि तीनों आरोपी निर्दोष साबित हो गए थे, बल्कि पीड़िता के बयान में फर्क बता कर उन्हें बरी किया गया था। बताया गया कि सेशन कोर्ट में दिए बयान और मैजिस्ट्रेट के सामने दिए बयान में फर्क था। गौरतलब है कि इस मामले में पुलिस द्वारा कराई गई मेडिकल जांच में बलात्कार की पुष्टि हो चुकी थी। पुलिस ने अदालत को यह भी बताया था कि बलात्कार के बाद इस किशोरी ने छत से कूद कर आत्महत्या की कोशिश की थी। अभी कुछ समय पहले हाई कोर्ट का फैसला आया था कि बलात्कार के मामले में पीड़िता की गवाही ही काफी है, किसी अन्य सबूत की जरूरत नहीं। एक तरफ हाई कोर्ट जहां बलात्कार के मामले में जुर्म तय करने के लिए ज्यादा उदार पैमाने की हिमायत करता दिखता है, वहीं बयान में फर्क जैसे आधार पर निचली अदालत का फैसला एक गहरी विडंबना पैदा करता है।
बलात्कार की घटनाओं का जो कुछ विश्लेषण किया गया है, उसमें साफ तौर पर यह बात सामने आई है कि हमारे समाज में यह सिर्फ मानसिक विकृति या मौज-मजे का मामला नहीं है। हमारे मर्दवादी समाज में औरत को सबक सिखाने के लिए या पारिवारिक, जातीय और धार्मिक मामलों में सत्ता व शक्ति प्रदर्शन के लिए भी बलात्कार किए जाते हैं। ऐसे हाल में यह और भी जरूरी है कि औरत की सुरक्षा तथा समाज के हिंसामुक्त रहने के हक को सुनिश्चित करने के लिए पीड़िता थाने और कोर्ट तक पहुंचने की हिम्मत जुटा सके। उसे इंसाफ की भी उम्मीद हो। केस ठीक से चलें और तकनीकी आधार पर मामले को उलझा कर या पीड़िता के चरित्र पर लांछन लगा कर केस खारिज होने की कोई भी घटना न हो। कम से कम हम यह तय करें कि मथुरा हमारा इतिहास है, भविष्य नहीं!
( लेखिका अंजलि सिन्हा स्त्री अधिकार संगठन से जुड़ी हैं)
पिछले दिनों एक ऐसी घटना हुई, जिसने तीस साल पुरानी याद ताजा कर दी। हुआ यह कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने बलात्कार के एक मामले में यह नतीजा निकाला कि पीड़ित महिला का चरित्र संदिग्ध है। इसी आधार पर इस केस के दोनों आरोपियों को बरी कर दिया गया। अपील में यह मामला सुप्रीम कोर्ट में गया। देश की सबसे बड़ी अदालत ने सख्त रुख अपनाते हुए कहा कि हाई कोर्ट ने संवेदनशीलता के साथ काम नहीं किया है। जस्टिस अरिजित पसायत और जस्टिस एम. शर्मा की बेंच ने कहा कि यह बात तीस साल पहले ही साफ कर दी गई है कि बलात्कार के मामले में चरित्र का हवाला नहीं दिया जा सकता। बेंच ने तमाम सबूतों को देखते हुए आरोपियों को कसूरवार करार दिया।
बेंच ने कहा कि अगर महिला अक्सर यौन संबंध बनाती रही हो, तो भी फैसले का आधार यह नहीं हो सकता। फैसला इस आधार पर होना चाहिए कि महिला जिस समय बलात्कार की शिकायत कर रही है उस समय बलात्कार हुआ या नहीं। महिला के व्यक्तिगत चरित्र के आधार पर किसी व्यक्ति को बलात्कार करने की छूट नहीं दी जा सकती।
वैसे यौन अत्याचार के मामले में स्त्री के चरित्र को मुद्दा बनाना हमारे समाज की प्राचीन परंपरा में शामिल है। कई अदालतों ने पीड़िता की कथित बदचलनी को आरोपियों के पक्ष में बड़ा तर्क माना है। यह समझा जाता है कि अगर औरत चरित्रहीन है, तो उसे बलात्कार की शिकायत करने का हक नहीं रह जाता। आज से तीस साल पहले 1978 में ऐसा ही कुछ हुआ था, जिसे मथुरा बलात्कार कांड के नाम से जाना गया। मुंबई के नजदीक ठाणे की आदिवासी युवती मथुरा के साथ थाने में हुए बलात्कार की घटना में सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आया, वह काफी उद्वेलित करने वाला था। इस फैसले में अदालत ने आरोपी पुलिसकर्मियों को सन्देह का लाभ देते हुए बरी किया था और इसकी वजह यह बताई थी कि मथुरा के पहले से ही शारीरिक संबंध रहे हैं और इस घटना में उसकी तरफ से प्रतिरोध के निशान नहीं मिलते।
लोगों को याद होगा कि इस फैसले के खिलाफ देश के अग्रणी वकीलों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने एक खुला पत्र जारी कर अपनी घोर असहमति प्रगट की थी। यह बात अब इतिहास हो चुकी है कि देश भर से उठी प्रतिक्रिया और लम्बे अभियानों के बाद 1983 में बलात्कार विरोधी अधिनियम में सुधार किया गया। तब से लगातार यह बात किसी न किसी रूप में चर्चा में रही है कि सुनवाई घटित घटना के आधार पर हो, न कि किसी के चरित्र के व्यक्तिगत लेखेजोखे के आधार पर। बावजूद इसके हमेशा यह बात किसी न किसी रूप में सामने आती है कि 'वह' इतनी रात बाहर क्यों गई? अकेले क्यों गई? क्या वह आरोपियों को पहले से जानती थी? इसी तरह छेड़खानी जैसे मामलों में कहा जाता है हैं कि वह भड़काऊ ड्रेस क्यों पहनती है या अपने हावभाव से लड़कों को उकसाती है।
ये तमाम प्रसंग इसी बात को रेखांकित करते हैं कि हमारे सोच पर मर्दवाद हावी है। वरना खराब चरित्र या खराब कपड़े तो क्या, स्त्री निर्वस्त्र हो, तो भी उसके साथ मनमानी करने का हक किसी का नहीं बनता। पड़ताल सिर्फ इसी बात की हो सकती है कि उस खास मौके पर वह घटना आपसी सहमति से हुई या जबर्दस्ती और दबाव से। अदालत का न्याय क्षेत्र इतना ही है।
हमारे देश में बलात्कार आज भी औरत को दबाने का सबसे बड़ा हथियार बना हुआ है। बलात्कार के जो आंकड़े हर साल सामने आते हैं उनकी संख्या 12 हजार से भी ज्यादा है, लेकिन घटनाएं इससे कई गुना ज्यादा घटती हैं, क्योंकि सभी मामले थाने और कोर्ट तक नहीं पहुंचते। कुछ दर्ज ही नहीं किए जाते, कुछ शुरुआत में खारिज कर दिए जाते हैं, तो कुछ में दबाव या लालच देकर बयान बदलवा दिया जाता है। अगर देश की राजधानी की ही बात करें तो हर साल यहां पांच से छह सौ तक बलात्कार के मामले दर्ज होते हैं। देश भर में यह आंकड़ा 12 हजार तक पहुंच जाता है। सन 2002 में एक सर्वेक्षण के आधार पर खुलासा किया गया था कि हर 35 मिनट में एक औरत बलात्कार की शिकार होती है।
हाल ही में एक जिला अदालत ने सामूहिक दुष्कर्म के तीन आरोपियों को बाइज्जत बरी किया। बात यह नहीं थी कि तीनों आरोपी निर्दोष साबित हो गए थे, बल्कि पीड़िता के बयान में फर्क बता कर उन्हें बरी किया गया था। बताया गया कि सेशन कोर्ट में दिए बयान और मैजिस्ट्रेट के सामने दिए बयान में फर्क था। गौरतलब है कि इस मामले में पुलिस द्वारा कराई गई मेडिकल जांच में बलात्कार की पुष्टि हो चुकी थी। पुलिस ने अदालत को यह भी बताया था कि बलात्कार के बाद इस किशोरी ने छत से कूद कर आत्महत्या की कोशिश की थी। अभी कुछ समय पहले हाई कोर्ट का फैसला आया था कि बलात्कार के मामले में पीड़िता की गवाही ही काफी है, किसी अन्य सबूत की जरूरत नहीं। एक तरफ हाई कोर्ट जहां बलात्कार के मामले में जुर्म तय करने के लिए ज्यादा उदार पैमाने की हिमायत करता दिखता है, वहीं बयान में फर्क जैसे आधार पर निचली अदालत का फैसला एक गहरी विडंबना पैदा करता है।
बलात्कार की घटनाओं का जो कुछ विश्लेषण किया गया है, उसमें साफ तौर पर यह बात सामने आई है कि हमारे समाज में यह सिर्फ मानसिक विकृति या मौज-मजे का मामला नहीं है। हमारे मर्दवादी समाज में औरत को सबक सिखाने के लिए या पारिवारिक, जातीय और धार्मिक मामलों में सत्ता व शक्ति प्रदर्शन के लिए भी बलात्कार किए जाते हैं। ऐसे हाल में यह और भी जरूरी है कि औरत की सुरक्षा तथा समाज के हिंसामुक्त रहने के हक को सुनिश्चित करने के लिए पीड़िता थाने और कोर्ट तक पहुंचने की हिम्मत जुटा सके। उसे इंसाफ की भी उम्मीद हो। केस ठीक से चलें और तकनीकी आधार पर मामले को उलझा कर या पीड़िता के चरित्र पर लांछन लगा कर केस खारिज होने की कोई भी घटना न हो। कम से कम हम यह तय करें कि मथुरा हमारा इतिहास है, भविष्य नहीं!
( लेखिका अंजलि सिन्हा स्त्री अधिकार संगठन से जुड़ी हैं)
Rachana ji,
ReplyDeleteAnjali ji ka jaankaari bhara lekh padwaane ke liye sadhuwaad.
ab baat karte hai mudhe ki.
baat court tak phuchaane ke liye bhi oorton ko kafi kawayad krani padati hai. police statoin per hi oorat ko is kaabil nahi choda jaata hai ki wah sahi prkaar se apni report darj kra sake. agar report sahi prkaar se darj ho jaaye...vivechna sahi dang se ho jaye to blaatkaari bach nahi sakta hai....
dussri baat..essi gatnaon ko ghro se bahar nahi jane diya jaata...kitni oorte to essi bhi hoti hai jo ghron mai badnaami ke kaaran bata nahi paati hai...
mere vichaar se estithiya badalne se cheejon mai sudhaar hoga.....
अंजली जी आपने एक महत्तवपूर्ण विषय को उठाया । आपका लेख उन तमाम समस्या को दर्शाता है जो कि स्त्री को झेलनी पड़ती है । बहुत दुखद बात ही है हमारे समाज के लिए कि पीड़ित को न्याय नहीं मिलता है और आरोपी बरी हो जाते है । हमारा कानून अंधा है वह सही और गलत नहीं देखता बस वही देखता है जो उसे दिखाया जाता है ।
ReplyDeleteभारतीय दंड संहिता की धारा 375,376,376-क और 377 जो यौन अपराधों से सम्बन्धित हैं संशोधित की गई हैं। अब इन धाराओं को व्यापक बना दिया गया है। संशोधित कानून के लागू होने के पहले के मामलों पर इन का उपयोग नहीं किया जा सकता है।
ReplyDeleteसंशोधन के उपरांत बलात्संग साबित हो जाने पर केवल स्वतंत्र सम्मति ही अभियुक्त के लिए एक मात्र बचाव का साधन शेष रह गया है।
आप की पोस्ट तारीफ़ के काबिल है. मैं कानून ज्यादा नहीं जानता. अदालत बलात्कार के दोषिओं को बरी कर देती हैं या लोग बलात्कार के बारे में क्या कहते हैं इस से भी मुझे कोई सरोकार नहीं है. मैं यह मानता हूँ कि बलात्कार से बुरा कोई अपराध इस दुनिया में नहीं है. इस अपराध की सजा केवल मौत ही होनी चाहिए. हमारी मर्जी के ख़िलाफ़ हम पर कोई बात थोपी जाती है तो हम कितने दुखी हो जाते हैं, हिंसक भी हो उठते हैं. किसी नारी की मर्जी के खिलाफ ख़ुद को उस पर थोपने वाला एक इंसान नहीं दरिंदा है और ऐसे दरिन्दे को जितनी जल्दी नष्ट कर दिया जाए उतना ही समाज के लिए लाभदायक है.
ReplyDeleteRachna, aap ne ye post NAVBHARAT TIMES se lee hai. achha lekh hai aur anjli bebaaki se likhti hee hain. purushon ki duniya dhurt hai
ReplyDeletelekh kaa link jo anjali kae naam clcik karte hee khultaa haen woh navbharat times kaa hee haen so yae baat swatah hii spasht haen ki laekh anjlai kaa haen aur navbharat times sae hae
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