वर्षा जी की पिछली पोस्ट में उन्होंने उन दबे हुआ अरमानो की बात की है जो हर महिला के दिल में होते हैं और होने भी चाहिए।
यही बात बार बार यह एहसास लेकिन है की एक महिला अपने परिवार की खातिर क्या कुछ नही करती लेकिन फिर भी वह परदे के पीछे ही रहती है और किसी क्रेडिट की डिमांड नही करती। मैं ख़ुद कभी कभी ख़ुद को अपनी माँ का करियर ख़राब करने के लिए दोष मानती हूँ क्यूंकि बहुत मेरी और मेरे भाई की देखभाल करने में इतनी खो गई की उनका ख़ुद का करियर तो कहीं खो सा गया । मैं उनसे कहती हूँ की शायद हमारी वजह से आपको यह सब करने पड़ा पर वे हमेशा ही कहती हैं की उन्हें इस बात का कोई अफ़सोस नही है और उन्हें लगता है की उनके अरमान हमारी कामयाब जिंदगी पूरे कर देगी । उनकी यह बात मेरे कंधों पर एक खामोश सी जिम्मेदारी डाल देती है ।
एक सवाल रह गया की क्या ऐसा मेरे साथ नही होगा और क्या मैं भी शायद वही करने के लिए मजबूर नही होंगी जो मेरी माँ ने किया । पता नही । क्या आपको पता है?? आप कह सकते ऐसी बहुत सी बहुत सफल करियर वूमन है जो की सब कुछ संभाल लेती हैं पर जो न कर पाए उसका क्या ??
यही होता आया है। बच्चों को ही माँ ने अपना कैरियर माना है। क्यों कि उस का खुद का तो होते हुए भी कोई कैरियर नहीं होता।
ReplyDeleteजब बच्चे ही प्रसन्न और सुखी नहीं तो अभिभावकों की सफलता का अर्थ ही नहीं रह जाता. एक माँ पर पहला हक उसके बच्चों का ही होता है, न की उसके करियर का.
ReplyDeleteआप दोनों की बात से पूरी तरह सहमत हूं बच्चों पर पहला हक़ मां का ही होता है। मां भी अपने बच्चे के लिए, नौकरी तो बहुत छोटी चीज है, ज़िंदगी तक कुर्बान कर देती है। जरूरी नहीं की नौकरी करनेवाली औरत ही सुपर वुमन हो, ये तमगा घर-गृहस्थी संभालनेवाली औरतों के भी नाम हो सकता है। बहस दरअसल औरत की नौकरी को लेकर हो रही है, जबकि बात है औरत की इच्छाओं की। आप उसके त्याग का महिमामंडन करना चाहते हैं, मैं चाहती हूं त्याग की देवी न बने एक साधारण इंसान बने। मैंने बहुत से लोगों से observe किया है जब वो कहते हैं कि मेरी मम्मी डॉक्टर-टीचर..कुछ भी है तो उनकी आंखों में एक चमक होती है और बच्चे तो मां-बाप दोनों की साझी ज़िम्मेदारी हैं। पिता का काम सिर्फ पैसे कमाना नहीं होता।
ReplyDeleteगीतिका
ReplyDeleteउस औरत की कहानी को दूसरा dramatic end देने की कोशिश करते हैं। कूकर सीटी मारता है,वो भागती है,चूल्हा बंद करती है, तभी फोन की घंटी बजती है-
हलो हमें आपका बायोडेटा मिला,आप हमारे साथ नौकरी कर सकती हैं, पैकेज अच्छा मिलेगा।
वो फैसला करती है नौकरी का। घर में बहुत टेंशन होती है,पति-पत्नी में बात तक नहीं होती। उसे डर लगता है लेकिन वो समझाने की कोशिश करती है, धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य होता जाता है। अब वो अपनी घर-गृहस्थी भी चला रही है,अपनी ख्वाहिशों को भी पूरा कर रही है, बच्चों की ज़िम्मेदारी भी उसने बखूबी संभाल ली। 25 साल बाद दोनों पति-पत्नी अपनी शादी की सिल्वर जुबली मना रहे हैं। बीती बातों को याद कर रहे हैं जिसमें कोई अधूरी ख़्वाहिश नहीं है।
दोनों टीवी देखते हैं,कुकर की सीटी बजती है, वो उठने ही वाली होती है तभी बेटी कहती है, मैं देख रही हूं मां।
तुम्हें कौन सा end पसंद है और उसकी जगह तुम होती तो क्या चुनती।
सब कुछ तो कोई भी नहीं सँभाल पाता। आपको अपनी प्राथमिकतायें तय करनी होती हैं। यह मान लेना भी उसी पुरानी सामंती मानसिकता का सबूत है कि कैरियर पर ध्यान देने वाली माँ के बच्चे उपेक्षित ही रहेंगे । पिता क्यों नहीं बच्चों के लालन-पालन में हिस्सा बंटाते?
ReplyDeleteआपको दीपावली की हार्दिक शुभकमानांयें
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति!!आभार
दिपावली की शूभकामनाऎं!!
ReplyDeleteशूभ दिपावली!!
- कुन्नू सिंह
amar jyoti ji ki baat sae purn sehmati praathmiktaa sahii karni hogee
ReplyDeleteऔरत कम से कम पशु की तरह
ReplyDeleteअपने बच्चे को प्यार करती है
उसकी रक्षा करती है
अगर आदमी छोड़ दे
बच्चा मां के पास रहता है
अगर मां छोड़ दे
बच्चा अकेला रहता है
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ReplyDeleteगीतिका, दूसरा ड्रैमेटिक एंड रियल भी हो सकता है,बल्कि है,लेकिन उसमें ड्रामा होना तय है। दूसरा मैं अपने करियर को ही प्राथमिकता दूंगी,मुझे लगता है ये i, me, myself से आगे की बात है। मेरे बारे में तो कुछ इस तरह कि अगर मेरी नौकरी चली जाए तो मानो ज़िंदगी चली जाए। मैं काम कर रही हूं तभी मैं ज़िंदा हूं।
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