गत दिनों स्त्री के वस्त्रों के अनुपात से उसके चरित्र की पैमाईश करने वाले कई प्रसंग उठते रहे हैं और स्त्री के वस्त्रों को उसके साथ होने वाले अनाचार का मूल घोषित किया जाता रहा है। जबकि वस्तुत: अनाचार का मूल व्यक्ति के अपने विचारो, अपने संस्कार, आत्मानुशासन की प्रवृत्ति, पारिवारिक वातावरण, जीवन व संबंधों के प्रति दृष्टिकोण, स्त्री के प्रति बचपन से दी गयी व पाई गयी दीक्षा, विविध घटनाक्रम, सांस्कृतिक व मानवीय मूल्यों के प्रति सन्नद्धता आदि में निहित रहता है। पुरूष व स्त्री की जैविक या हारमोन जनित संरचना में अन्तर को रेखांकित करते हुए पुरुष द्वारा उस के प्रति अपनी आक्रामकता या उत्तेजना को उचित व सम्मत सिद्ध करना कितना निराधार व खोखला है, इसका मूल्यांकन अपने आसपास के आधुनिक तथा साथ ही बहुत पुरातन समाज के उदाहरणों को देख कर बहुत सरलता व सहजता से किया जा सकता है।
वस्तुत: जब तक स्त्री - देह के प्रति व्यक्ति की चेतना में भोग में वृत्ति अथवा उपभोग की वस्तु मानने का संस्कार विद्यमान रहता है तब तक ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को सौ परदों में छिपी स्त्री को देख कर भी आक्रामकता व उत्तेजना के विकार ही उत्पन्न होते हैं देह को वस्तु समझने व उसके माध्यम से अपनी किसी लिप्सा को शांत करने की प्रवृत्ति का अंत जब तक हमारी नई नस्लों की नसों में रक्त की तरह नहीं समा जाता तब तक आने वाली पीढी से स्त्री देह के प्रति 'वैसी" अनासक्ति की अपेक्षा व आशा नहीं की जा सकती योरोप का आधुनिक समाज व उसी के समानान्तर आदिवासी जन जातियों का सामाजिक परिदृश्य हमारे समक्ष २ सशक्त उदाहरण हैं। असल गाँव की भरपूर युवा स्त्री खुलेपन से स्तनपान कराने में किसी प्रकार की बाधा नहीं समझती क्योंकि उस दृष्टि में स्तन यौनोत्तेजना के वाहक नहीं हैं उनका एक निर्धारित उद्देश्य है, परन्तु जिनकी समझ ऐसी नहीं है वे स्तनों को यौनोत्तेजना में उद्दीपक ही मानते पशुवत जीवन को सही सिद्ध किए जाते हैं । और अपनी उस दृष्टि के कारण जनित अपनी समस्याओं को स्त्री के सर मढ़ते चले जाते हैं ।
एक आलेख इस दिशा में महत्वपूर्ण दिशाबोध दे सकने में पूर्ण समर्थ है, जिसे मैंने गत दिनों BEYOND THE SEX : स्त्रीविमर्श स्त्रीविमर्श पर प्रस्तुत किया था। यहाँ निस्सन्देह एक दूसरी प्रकार का पाठकवर्ग तो है ही, साथ ही आलेख की प्रासंगिकता व महत्व को देखते हुए आज इसे आप सभी के निमित्त यहाँ प्रस्तुत कर रही हूँ।
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पिछले हफ्ते स्त्री-पुरुष समानता की दिशा में एक उल्लेखनीय सफलता हासिल की है। वहां अब स्त्रियों को सार्वजनिक स्विमिंग पूलों में टॉपलेस हो कर तैरने तथा पूल के इर्द-गिर्द टॉपलेस अवस्था में टहलने की स्वतंत्रता मिल गई है। इस स्वतंत्रता के लिए वहाँ के टॉपलेस फ्रंट द्वारा लगभग एक साल से अभियान चलाया जा रहा था। फ्रंट के नेतृत्व का कहना था कि जब पुरुष टॉपलेस हो कर सार्वजनिक स्विमिंग पूलों में तैर सकते हैं, तैरने के पहले उसी अवस्था में पूल के किनारे टहल सकते हैं, तो स्त्रियों के लिए यह पाबंदी क्यों कि उन्हें अपने को ढक कर रखना होगा।
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हम दुनिया के हर इन्सान की सोच तो नही बदल सकते पर अपनी रक्षा करना हमारा अपना दायित्व है ।
ReplyDeleteमैं ने राजकिशोर जी का आलेख पढ़ा है। मैं उन के विचारों से सहमत हूँ। जब से संपत्ति का संग्रह प्रारंभ हुआ है और मानव समाज में संपत्ति का अधिकार आया है तब से स्त्री-पुरुष के मध्य असमानता का युग प्रारंभ हुआ है। संपत्ति पर व्यक्तिगत अधिकार के साथ ही अंतिम रुप से इस युग का अंत होगा। तब तक स्त्री और पुरुष दोनों ही किसी न किसी रुप में संपत्ति के रुप में देखे जाते रहेंगे और उस की सुरक्षा के विचार भी बने रहेंगे।
ReplyDelete"गत दिनों स्त्री के वस्त्रों के अनुपात से उसके चरित्र की पैमाईश करने वाले कई प्रसंग उठते रहे हैं और स्त्री के वस्त्रों को उसके साथ होने वाले अनाचार का मूल घोषित किया जाता रहा है।"
ReplyDeleteकम आयु के लड़को को किस प्रकार से "कन्डीशन" किया जाता हैं . ये उसका एक्साम्प्ल हैं . अपरिपक्व दिमाग मे नारी को " भोग्या " बना कर बिठाने की कोशिश की जाती हैं .
नारी की अपनी जरूरते अपनी पसंद का कोई माने नहीं हैं
मै राज किशोर जी को निरंतर पढ़ती हूँ और बहुत सी बातो से उन से सहमत होती हूँ . व्यक्तिगत रूप से नहीं जानती हूँ उनको पर मै उन से कहना चाहती हूँ की अगर वो अपनी पोस्ट कम शब्दों मे लिखे तो पाठक संख्या बढेगी . प्रबुद्ध पाठक तो इन विचारों को ख़ुद ही जानते हैं पर ब्लॉग का मीडियम , प्रिंट मीडियम से फरक हैं और यहाँ हम अच्छी बातो को जितना आगे बढ़ा सके उतना फायेदा होगा . छोटी पोस्ट कम समय मे पढ़ी जाती हैं .
कविता इस विषय को आप निरंतर आगे बढ़ा रही हैं थैंक्स
बेहद रोचक और सार्थक आलेख ... बधाई स्वीकारें
ReplyDeleteसमय निकाल कर मेरे ब्लॉग पर भी पधारे और
पढ़ें उद्धव ठाकरे के बयां मुंबई मेरे बाप की पर एक रचना
बस ज़रूरत इतनी है कि वो ऐसे लिबास में हो जिस में डीसेंट लगे बस....
ReplyDeleteकौन से कपड़े पहनना चाहिये, यह पूरी तरह से व्यक्तिगत मामला है, लेकिन चूंकि यह एक मिला-जुला समाज है इसलिये उन कपड़ों का किस पर कैसा असर पड़ेगा इसका भी ध्यान रखना जरूरी है खुद उस नारी की सुरक्षा के लिये… और कोई स्त्री कपड़े कैसे भी पहने यह तो उसे ही तय करना है कि वह अवसर और माहौल के मुताबिक सही हैं या नहीं…
ReplyDeleteBy providing an exclusive platform for women you have done a good job.congrats.
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