सोल कर्री { Soul Curry } नाम से एक कालम टाईम्स ऑफ़ इंडिया मे नियमित आता हैं और मै नियमित रूप से उसको पढ़ती भी हूँ । उस कालम मे लोग अपने अनुभव लिखते हैं , वो अनुभव जो कही न कहीं उनकी आत्मा को छूते हैं । इस कालम को लिखने वाले साहित्यकार नहीं होते हैं पर जो लोग मन की बातो को अभिव्यक्ति देना चाहते हैं अखबार उनके अनुभव साभार छापता हैं ।
इस बार जो अनुभव छापा वोह एक डिस्ट्रिक एजूकेशन ऑफिसर का था । उन्होने लिखा की एक बार वो बहुत दुविधा मे पड़ गए जब लड़की ने उनको बताया की उसने "शिक्षा मित्र " की पोस्ट के लिये अपने ग्राम पंचायत के प्राईमरी स्कूल के लिये अर्जी दी थी और उसके प्रथम और मेरिट सूची मे आने के बाद भी उस ब्लाक का SDI उसका नाम डिस्ट्रिक्ट ऑफिस मे नहीं भेज रहा । लड़की ने ये भी बताया की वो शादी शुदा हैं और अगर उसका गौना हो जाता हैं तो वो दूसरी ग्राम पंचयात मे चली जायेगी और फिर ये नौकरी उसको नहीं मिल सकती । लड़की ने कहा की देरी जान बुझ कर की जारही हैं क्युकी दुसरे नम्बर पर एक लड़का हैं और संभवता SDI ने उससे रिश्वत ली है ।
डिस्ट्रिक एजूकेशन ऑफिसर ने लड़की से कहा की वो छान बीन करेगे और जल्दी से जल्दी इस नियुक्ति को करने की कोशिश करेगे ।
आगे डिस्ट्रिक एजूकेशन ऑफिसर लिखते हैं की शाम को लड़की का पिता उनसे मिलने आया और उसने डिस्ट्रिक एजूकेशन ऑफिसर से कहा की वो कोई छान बीन ना करे । पिता ने कहा की जो लड़का दूसरे नम्बर पर हैं उसने उनको इतना रुपया दे दिया हैं की वो आसानी से गौने का खर्चा उठा सकते हैं ।
डिस्ट्रिक एजूकेशन ऑफिसर ने कथा को यही समाप्त कर दिया ये कह कर की उसी दिन उनका ट्रान्सफर हो गया पर आज भी वो सोचते हैं कि उस लड़की का क्या हुआ होगा ??
जब मैने ये कालम पढा तो सोचा ब्लॉग पर इसको जरुर बाटूंगी पर उस से पहले ही सत्यार्थमित्र पर सिदार्थ ने इस को अपने मित्र स्कन्द शुक्ला की दुविधा के नाम से छापा । जितनी भी टिपण्णी आयी सब मे ये कहा गया की ये ग़लत हैं लड़की को उसकी नौकरी मिलनी चाहिये ।
रौशन जी ने स्पष्ट रूप से "लड़कियों के प्रति भेद करने वाली मानसिकता को रोकना चाहिए" कहा
रौशन said...
द्विवेदी जी के जवाब से काफ़ी बातें स्पष्ट हो गई हैं. जब हमने स्कंध जी का आलेख आज सुबह पढ़ा तो हमारा मस्तिस्क बिल्कुल स्पष्ट था. स्कंध जी पढ़े लिखे और जिम्मेदार पड़ पर स्थापित शख्स है तो उन्हें समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करना चाहिए था और लड़कियों के प्रति भेद करने वाली मानसिकता को रोकना चाहिए था। शायद ये ऐसा मामला था जिसमे उन्हें तुरत कार्यवाही करना चाहिए था.लड़की पिता के पीछे चाहे जो सामाजिक मजबूरियां रही हों पर ये कुल मिला कर भ्रष्टाचार, जोड़ तोड़ और असमानता को बढ़ावा देने वाला मामला था. स्कन्द जी ने सोचने में देरी कर के एक सुनहरा मौका गवां दिया.
इस पर स्कन्द शुक्ला जी जिनका आलेख पेपर मे छपा था वो लिखते हैं
skand shukla said...
It's very easy to say to have selected the lady for those who cannot imagine the plight of her poor father। The father has to live in his society not in that of Roshanji. Would the socity have left him unscathed had he postponed her 'gauna'? We should remember that the father is not against his daughter working,(it was he who got her educated) but he is bogged in his circumstances. It must not be forgotten that the incident has emotional aspects apart from economic.
और फिर मेरे इंग्लिश मे ये कमेन्ट करने पर
कि मुझे खुशी हुई की इस डिस्ट्रिक ऑफिसर का ट्रान्सफर कोई निर्णय लेने से पहले ही हो गया क्युकी अगर एक सरकारी अधिकारी को सामजिक कुरीति पशोपेश मे डाल सकती हैं तो उसको अधिकार ही नहीं हैं उस जगह रहने का .
स्कन्द शुक्ला जी ने कहा कि उनका लेख केवल एक साहितिक कृति थी और उन्होने ये भी कहा
"With all respects to the feminist( of the bra-burning variety)i would like to stress that i have not written a sociological/economic treatise। "
इसके बाद अनूप शुक्ल ने अपने अंदाज मे इस को चिट्ठा चर्चा का विषय बनाते हुए लिखा
"ज्ञानदत्तजी, द्विवेदीजी के साथ मेरा मत भी है कि ऐसी स्थिति में अधिकारी को अपना काम नियम के अनुसार करना चाहिये। इस तरह के निर्णयों के दूरगामी परिणाम होते हैं। अगर नियमानुसार लड़की की नियुक्ति , भले ही वह कुछ ही दिन वहां रहकर काम करे , होनी चाहिये तो इसको दुविधा का सवाल नहीं बनाना चाहिये।हमारे एक अधिकारी अक्सर कहा करते हैं- अगर आपको सामाजिकता, उदारता निभानी है तो अपने व्यक्तिगत पैसे/खर्चे से दिखाइये। सरकारी अधिकारों का दुरुपयोग करके नहीं।"
और इसके आगे अनूप शुक्ल ने लिखा
"रचना सिंह जी ने इसे स्वाभाविक तौर पर इसे नर बनाम नारी का मुद्दा बनाया। जबकि यह बात नर-नारी की उतनी नहीं है जितनी कि उस जिस व्यक्ति को जो अधिकार मिलना चाहिये उसको मिलने न मिलने की है। "
अब मैने ही नहीं रौशन ने भी इसे नारी के प्रति भेद वाली मानसिकता कहा लेकिन अनूप शुक्ल को केवल मेरा लिखना स्वाभाविक तौर पर ग़लत लगा !! अगर ये नारी के प्रति ग़लत मानसिकता नहीं हैं तो क्या कभी कही भी किसी लड़के का नौकरी का नियुक्ति पत्र बेच कर उसकी शादी कि जाती हैं । अनूप शुक्ल ने कही पढा हो तो बताये ।
पाठको से कुछ प्रश्न हैं
अगर दुसरे नम्बर पर लड़का ना हो कर लड़की होती तब क्या होता ??
अगर लड़की कि ससुराल वालो को काम काजी बहु चाहिये होती तब क्या होता ?
क्या किसी भी सरकारी अफसर को ये अधिकार हैं कि वो सामजिक व्यवस्था का निर्णायक बने ?
पता नहीं कब तक लड़कियों कि "चाहतो " कि बलि ये कह कर दे जाती रहेगी कि " उनके लिये ये सही हैं और ये ग़लत "
एक लड़की जो नौकरी करना चाहती हैं उसके साथ ये खिलवाड़ किसी को अधिकार दिलाने के जितना छोटा मुद्दा जिनको लगता हैं वो सब स्वाभाविक रूप से आज भी अपनी बेटी को केवल और केवल एक बोझ समझते है ।
अफ़सोस होता कि जहाँ भी नारी का शोषण होता हैं वहाँ कुछ लोग स्वाभाविक रूप से केवल और केवल अधिकार कि बात करते हैं पर जब "नारी" या "चोखेर बाली" ब्लॉग पर "समान अधिकार " कि बात होती हैं तो हम को "पुरूष विरोधी " कहा जाता हैं ।
शायद "अधिकार " शब्द कि परिभाषा " स्वाभाविक रूप " से स्त्री और पुरूष के लिये अलग अलग है
लिंक्स
चिट्ठा चर्चा: जो दीप उम्र भर जलते हैं वो दीवाली के मोहताज नहीं होते
अच्छी पोस्ट...।
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!॥!दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं!॥!
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रचना जी, जहाँ तक बात जिला शिक्षा अधिकारी की थी वहाँ तो नियम की ही बात थी। किसी सामाजिक समस्या को हल करने के लिए नियमों को तोड़ने की इजाजत नहीं थी।
ReplyDeleteयहाँ एक पिता को समाज में रह कर जीना है वह समाज के स्त्री-पुरुष के बीच भेद के जो उसूल हैं वे उसे बाध्य कर रहे हैं कि वह परंपरागत जीवन को नए प्रगतिशील मूल्यों पर तरजीह दे। क्यों कि कोई सामाजिक आंदोलन नहीं है जो कि पिछड़े हुए समाज के दबावों का मुकाबला कर सके और जिस के सहारे एक पिता या लड़की/महिला अपना जीवन जी सके।
स्त्री के प्रति भेदभाव कामों के लिंगानुसार विभाजन में निहित है। उस का अंत किसी महिला आंदोलन से संभव नहीं है। पूरे समाज का ढांचे के साथ ही वह बदलेगा। स्त्री मुक्ति भी समाज के ढांचे को बदलने का एक हिस्सा है।
sahi kahaa
ReplyDeleteऔर इसी लेख पर देर से पढ़कर देर से की गई यह मेरी टिप्पणी है ः
ReplyDelete(कृपया कोई इसे अलग से एक पोस्ट या किसी अलग पोस्ट का हिस्सा न बनाएँ । यदि लगे कि बनानी चाहिए तो मुझे ऐसा सुझाव दीजिए ।)
सारी चर्चा पढ़ी । दिनेश जी की बात सही है । रचना जी पर अभियोग लगाना एक आदत सी बनती जा रही है। और यह ब्रा बर्निंग कहाँ से आ गया ? वैसे भी हमारा वस्त्र है, हम चाहे जो करें, पहनें या जलाएँ।
मूल बात यह है कि यदि लड़की मेरिट में सबसे आगे नहीं होती, यदि शिक्षामित्र योजना ना आरम्भ की जाती, तो क्या पिता बेटी का गौना नहीं करता ? मैं नहीं कहती कि विवाह या गौने में पैसा खर्च करना सही है परन्तु यह पिता तो इसे सही या कहिए अपनी व बेटी की नियति मानकर चल ही रहा था । सो क्या विवाह उसने यह सोचकर किया था कि जब बेटी की शिक्षामित्र की नौकरी छोड़ने के लिए कोई उन्हें पैसा देगा तो उससे वह गौना करवाएगा ? नहीं ना ? फिर अब वह हाथ आता पैसा जाने नहीं देना चाहता। यह भी सोचने की बात है कि बेटी को जो आय होती वह पिता की योजना से अतिरिक्त होती ।
बहुत संभव है कि पिता बहुत गरीब व असहाय होगा । परन्तु क्या वैसी ही गरीब व असहाय उसकी पुत्री नहीं है ? यह एक ऐसा अवसर उसे जीवन में मिल रहा था जब वह स्वावलंबी होने का स्वाद चख सकती थी । शायद यह उसका जीवन बदल देता । शायद कल वह प्रताड़नाएं ( जो शायद नहीं मिलें परन्तु बहुत सम्भव है मिलें ) सहने से इनकार कर देती । क्यों पुरुष प्रताड़ना सहना अपनी नियति मानकर नहीं चलता ? कारण आदिकाल से उसका स्वतंत्र व स्वावलंबी होना है । स्त्रियों की नौकरी केवल धन अर्जन का ही जरिया नहीं होती वह आत्मविश्वास, स्वावलंबी होने की पहली सीढ़ी होती है । यदि हम यह सीढ़ी ही उसके पैर पड़ने से पहले सरका देंगे तो स्त्री का सशक्तिकरण एक नारा ही बनकर रह जाएगा ।
जहाँ तक घर चलाना नौकरी से अधिक सम्मानजनक व कठिन काम होने की बात है और स्त्री को तभी काम करना चाहिए जब उसके पास पैसे की कमी हो वाले तर्क की बात है तो यह भी सोचना होगा कि क्या अमीर घरानों , पैतृक सम्पत्ति वाले पुरुषों को नौकरी नहीं करनी चाहिए ? क्योंकि उन्हें पैसे की आवश्यकता नहीं है । दूसरी बात यह कि जब प्यास लगेगी तभी कुँआ खोदेंगे क्या ? और जब स्त्री को पैसे का अभाव होगा तब क्या नौकरियाँ उसकी राहों में पलकें बिछाएँ बैठी होंगी ? क्या चालीस या पचास या साठ वर्ष में विधवा, या तलाकशुदा होने वाली, या पति की नौकरी न रहने पर उस उम्र में नौकरी खोजने वाली स्त्री को कोई नौकरी सरलता से मिलेगी ? मैं जानती हूँ कि इस उम्र में यदि मैं नौकरी खोजने निकलूँगी तो शायद ही कोई सम्मानजनक नौकरी मिले ।
सामाजिक कुरीतियों को मजबूरी मानकर चलाने को आप सही कहना चाहें तो कह सकते हैं परन्तु कम से कम जो अधिकार कानून स्त्री को दे रहा है उन्हें समाज के नाम पर मत छीनिए । वैसे भी उसके पास अधिकारों की बहुत कमी है और कर्त्तव्यों व नसीहतों की बहुतायत !
घुघूती बासूती
यह घटना हमारे समाज और एक लालची पिता की मानसिकता उजागर कर रही है, जो पैसों के लिए कुछ भी कर सकता है, बदकिस्मती से यहाँ पर एक मासूम,कुशाग्रबुद्धि बच्ची इसका शिकार हुई है ! अशिक्षित समाज और रूढिवादिता आज भी इस देश में, हजारों बच्चियों को, आगे बढ़ने के रास्ते को अवरुद्ध किए हुए हैं! अनपढ़ अभिभावक महिलाएं भी अपनी बेटियों को आगे बढ़ाने का प्रयत्न बेकार मानती हैं ! और यह सब ग्रामीण तथा अविकसित भारत में अशिक्षा की वजह से हो रहा है ! यह मानसिकता हमारी बच्चियों के विकास में सबसे बड़ी बाधा है !
ReplyDeleteमैं अनूप शुक्ल की राय से सहमत हूँ - "रचना सिंह जी ने इसे स्वाभाविक तौर पर इसे नर बनाम नारी का मुद्दा बनाया। जबकि यह बात नर-नारी की उतनी नहीं है जितनी कि उस जिस व्यक्ति को जो अधिकार मिलना चाहिये उसको मिलने न मिलने की है। "
ReplyDeleteबात शुरू होती है दूसरे नंबर पर आए व्यक्ति से. वह इस नौकरी को हासिल करना चाहता है. उस के लिए जरूरी है कि किसी कारण से यह नौकरी पहले नंबर पर आए व्यक्ति को न मिले. इस ले लिए वह प्रयत्न करता है और यह सुनिश्चित करता है कि नौकरी उसे ही मिले. इस में उसे सफलता मिलती है. यह एक संयोग की बात है कि यहाँ एक नारी नंबर एक पर है. कोई पुरूष भी होता तो यह व्यक्ति यही करता जो इस ने अब किया. इस केस मैं उस ने गौने की कमजोरी का फायदा उठाया. किसी और केस में किसी और कमजोरी का फायदा उठाता.
इस केस को नारी-पुरूष के भेद-भाव के रूप में देखना ग़लत है. शिक्षा अधिकारी ने ग़लत किया इस नारी के पिता की बात मान कर. गलती उस की है. यहाँ भी नारी-पुरूष का कोई भेद-भाव नहीं है. यह अधिकारी अब अपनी गलती को महसूस कर रहा है. बस, इस केस में इतना ही देखना चाहिए. हर बात में नारी और पुरूष का भेद-भाव नहीं होता. इस बात में भी नहीं है.
कुछ नही होता क्या लड़के को नौकरी मिल जाती और लड़की का गौना पिता अपनी हैसियत के मुताबिक करता ।
ReplyDeleteऔर हर कोई ये सोच कर खुश रहता कि उसने अपना फर्ज बखूबी निभाया भले ही एक योग्य लड़की का भविष्य अंधकारमय ही क्यूँ न बना दिया गया हो ।
घुघूती जी का विश्लेषण बहुत सही है।
ReplyDeleteमेरे विचार से
ReplyDelete१. अधिकारी महोदय मनसा-वाचा-कर्मणा पूर्णतः दोषी हैं। वह चाहते तो पिता को समझाकर ( क्योंकि पिता उनके घर आया था व्यक्तिगत तौर पर) उसका ब्रेन वॉश कर सकते थे। और उसे सही ग़लत का भेद गहरे से समझा सकते थे। ताकि व्यक्ति साहस के साथ और खुशी से निडर होकर अपनी बेटी की नौकरी को प्राथमिकता देता।
२.पिता इतनी समझ नहीं रखता होगा अज्ञनता के कारण। अनेक जगह देखा जाता है कि ग़रीबी के चलते लोग कई ग़लत काम कर जाते हैं।
भूखा कौन सा पाप नहीं कर सकता।
३.सारी घटना कमज़ोर को दबाने का उदाहरण है। मुझे संदेह है कि यह मात्र लडकी के साथ हुआ है। इसकी जगह अगर कोई बहुत ग़रीब और दबे हुआ लड़का होता और दूसरे नंबर पर बहुत पहुँच और पैसे वाला लड़का होता तो भी निश्चित रुप से ऐसा ही होता।
४.यह बात गाँव में ही नहीं दिखायी देती। शहरों और क़स्बों में भी यही हाल है। खिलाड़ियों के चयन से लेकर पुरस्कार देने-लेने तक में ग़रीबी और फ़ैमिली बैकग्राउण्ड आड़े आते है और प्रतिभा धरी रह जाती है। उनको मौका भी मिलते-मिलते रह जाता है।
५.यदि अधिकारी भ्रष्ट या उदासीन न हो कौन ईमानदारी और सच्चायी को चुनौती से सकता है? जब काम को अन्जाम देने वाले संकीर्णता में जकड़े हो तो क्या उम्मीद करे अनपढ़ पिता से?
अधिकारी कैसा हो यह भी एक प्रश्न है?
यह पोस्ट और लिंक्स देर से देखे पर खुशी है कि काम की पर्याप्त बातें कह दी गयी हैं । घुघुती जी से सहमत हूँ ।
ReplyDeleteकुछ लेख बनावटी होते हैं , जो स्त्री विमर्श का भ्रम देते हैं । उन्हें इसी तरह पहचानना चाहिये ।
यह एक विचारणीय प्रश्न है कि एक रौशन की टिप्पणी अनुचित नही लगी और एक रचना की लग गई. हम इसे एक बृहद परिप्रेक्ष्य में देखते हैं. यही होता है जब कोई अपने समूह से जुड़े प्रश्नों पर सवाल उठाता है. उसे सिर्फ़ दो अलग छोरों पर ही देखा जाता है
ReplyDeleteशायद यह प्रतिबद्धता का सवाल भी था. आप नारी से जुड़े मुद्दों को लेकर अधिक प्रतिबद्ध हैं इसलिए सवाल आपकी टिप्पणी पर उठे हमारी नही.
वैसे हमने पाया कि शायद हमारी टिप्पणी से स्कन्द जी को ठेस पहुँची और ब्लॉगर पर तुंरत खाता बनाया और टिप्पणी करने पहुँच गए. हम उनसे चर्चा करने के पक्ष में थे पर आपसे चर्चा में उन्होंने जिस तरह बात आगे बढाई हमें लगा कि शायद उस लड़की के पिता की सोच
स्कन्द जी की निजी सोच भी थी और वो उसे सही साबित करने के लिए बहस पर बहस करते जायेंगे.
सही है कि इस प्रसंग में अगर कोई गरीब होता तो भी दुसरे स्थान पर रहने वाला लड़का तिकड़म करता पर क्या तब पहले स्थान पर रहने वाले लड़के का बाप पैसा लेकर उसकी नियुक्ति के विरोध करता?
दोस्तों जिन्हें सच नही दिख रहा है वो इसे भी देखें यह सिर्फ़ ग़लत नही था बल्कि लड़कियों के प्रति किया जाने वाला भेदभाव भी था.
और हाँ गुप्ता जी अधिकारी गलती नही महसूस कर रहा है वो उस सोच के पक्ष में तर्क रख रहा है. इससे साबित होता है कि भले ही उक्त अधिकारी ने इसे अपनी दुविधा लिखा हो पर वो भी दुविधा में नही था. हम पूछते हैं कि यही प्रसंग उसे साक्षात्कार में दिया गया होता तो वो क्या जवाब देता.
ReplyDeleteकुछ चीजों को स्त्री पुरुष के मुद्दे से अलग करके क्यों नहीं देखा जाता? स्त्री भी यदि मानव है तो उसके मानवीय अधिकारों की खोज-खबर कौन लेगा? यदि समाज नहीं, कानून नहीं, तन्त्र नहीं, तो किसी महिला के उसकी पक्षधरता पर इतना बवाल क्यों?
ReplyDeleteथोड़ी देर को मान लें कि हाँ हर समय स्त्री -पुरुष का चश्मा नहीं पहनना चाहिए; पर कब तक? जिस दिन स्त्री को स्त्री की अपेक्षा मानवी का अधिकार मिल जाएगा, उस दिन निश्चित समझें कि चश्में भी उतरेंगे ही।