हमारे एक मित्र से कल बात हुई और उन्होने कहा की उनके जीवन मे दो स्त्रियाँ हैं एक उनकी पत्नी और दूसरी उनकी पुत्री । उन्होने कहा की उनकी पत्नी के लिये उन्होने काफ़ी अचल सम्पति और फ डी जमा करा दी हैं जिसका क्या और कब करना हैं इसका अधिकार उनकी पत्नी को हैं
और
अपनी पुत्री के लिये उन्होने अपनी जायदाद का १/४ हिस्सा कर दिया हैं { उनके एक पुत्र भी हैं } जो वह अपनी पुत्री की शादी पर उसको देगे ।
और उन्होने मुझ से कहा " रचना जी आप इसी समानता की बात करती हैं ना " ।
हमारे ये मित्र एक ब्लॉगर भी हैं सो मैने कहा आप अपनी पत्नी को ब्लोगिंग के लिये क्यों नहीं प्ररित करते , आप उनसे कहे की अपना ब्लॉग बनाये और सम्भव हो तो अपने विचार नारी ब्लॉग पर भी रखे ।
इस पर उनका जवाब था की वो नारी ब्लॉग से जुडने के लिये अपनी पत्नी को " दिस्करेज " करेगे { कारण बहुत से बताये } पर बिना अपनी पत्नी से पूछे की वो क्या सोचती है ?
मुझे लगता हैं मैने कही भी इस स्वतंत्रता की बात नहीं की हैं । आप अगर अपनी पत्नी और बेटी को आर्थिक रूप से प्रोटेक्ट कर रहे हैं तो शायद आप केवल उनकी सही तरीके से रक्षा कर रहे हैं { वैसे ये भी कुछ कम नहीं हैं } पर इस बात का समानता और स्वतंत्रता से कोई लेना देना नहीं हैं ।
हम नारी ब्लॉग पर अगर स्वतंत्रता की बात करते हैं तो मानसिक स्वतंत्रता की बात करते हैं जहाँ पर
स्त्री को " सोचने और अपनी लिये निर्णय लेने का अधिकार हो "
और अगर हम समानता की बात करते हैं तो
हम " संविधान मे दिये हुए अधिकार की बात करते हैं " जहाँ स्त्री और पुरूष को व्यक्ति माना गया हैं ।
हम काम का बटवारा " प्राकृतिक आवश्यकताओं " के अनुसार नहीं " क्षमता " के अनुसार हो इस बात को समानता कहते हैं ।
पहली बार टिप्पणी कर रहा हूँ, कारण! ये है कि जिस कार्य को आप सभी सम्म्माननीय कर रहीं हैं वो आपसे अपेक्षा की जाती है, आप सभी बड़ों को इस छोटे का प्रणाम और हाँ एक बात कहना चाहूँगा" अगर आप सभी सदस्य कोई किताब प्रकाशित करें तो कैसा हो यां आप मिलकर कोई वेबसाइट बनायें जिसमें महिलाओं की,बच्चियों की, उन बूढी पथरायी आँखों के लिये कोई सहायता का मंच हो जिससे आप सभी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में सहायता कर सकें तो कैसा होगा! आप सोचकर भी इसका अंदाजा नहीं लगा सकतीं."
ReplyDeleteआपका छोटा
कमलेश मदान
09358903940
प्राकृतिक आवश्यकताओं " के अनुसार नहीं " क्षमता " के अनुसार हो इस बात को समानता कहते हैं ।
ReplyDeleteप्रकॄति हम सबसे ऊपर है हम उसे नजर अंदाज नहीं कर सकते. प्रकृति ने ही क्षमताएं बख्शी हैं.प्राकृतिक आवश्यकताओं के विरोध में किसी के द्वारा भी किये गये प्रयास व्यर्थ ही होंगे. क्षमताओं के अनुसार कार्य का बंट्वारा स्वयं ही हो जाता है. व्यक्तियों में क्षमताएं समान नहीं होतीं,क्षमताओं के अनुसार कार्य का बंट्वारा होने पर फ़ल कार्यानुसार मिलेगा, इस प्रकार प्रकॄति अपनी व्यवस्थाओं के अनुसार संचालित होगी व्यक्ति इसे बदल नहीं सकता और न ही कोई कानून प्रकृति से ऊपर हो सकता है.
If one educate his daughter , that will be sufficient enough to give her courage to think right ..
ReplyDelete"हम काम का बटवारा " प्राकृतिक आवश्यकताओं " के अनुसार नहीं " क्षमता " के अनुसार हो इस बात को समानता कहते हैं ।"
ReplyDeleteमुझे तो लगता है कि ये दोनों नजरिये अधूरे है एवं दोनों को हिसाब में लेकर एक समग्र नजरिये को विकसित करने की जरूरत है. प्रकृति के विरुद्ध जाना ठीक नही हैं, एवं क्षमता से कम बटवारा करना भी ठीक नहीं है.
-- शास्त्री
-- हिन्दीजगत में एक वैचारिक क्राति की जरूरत है. महज 10 साल में हिन्दी चिट्ठे यह कार्य कर सकते हैं. अत: नियमित रूप से लिखते रहें, एवं टिपिया कर साथियों को प्रोत्साहित करते रहें. (सारथी: http://www.Sarathi.info)
@हम नारी ब्लॉग पर अगर स्वतंत्रता की बात करते हैं तो मानसिक स्वतंत्रता की बात करते हैं जहाँ पर स्त्री को " सोचने और अपनी लिये निर्णय लेने का अधिकार हो.
ReplyDeleteऔर अगर हम समानता की बात करते हैं तो हम " संविधान मे दिये हुए अधिकार की बात करते हैं " जहाँ स्त्री और पुरूष को व्यक्ति माना गया हैं ।
हम काम का बटवारा " प्राकृतिक आवश्यकताओं " के अनुसार नहीं " क्षमता " के अनुसार हो इस बात को समानता कहते हैं ।
मेरा भी यही सोचना है, पर मैं काम के बटवारे के लिए " प्राकृतिक आवश्यकताओं " और " क्षमता " दोनों को ही जरूरी मानता हूँ.